स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है V

रमेश्वर की पवित्रता (II) भाग तीन

शैतान मनुष्य को भ्रष्ट करने के लिए इन अनेक विधियों का उपयोग करता है। मनुष्य को कुछ वैज्ञानिक सिद्धांतों का ज्ञान और समझ है, मनुष्य पारंपरिक संस्कृति के प्रभाव में जीता है, और प्रत्येक मनुष्य पारंपरिक संस्कृति का उत्तराधिकारी और हस्तांतरणकर्ता है। मनुष्य शैतान द्वारा स्वयं को दी गई पारंपरिक संस्कृति को आगे बढ़ाने के लिए बाध्य है, और वह शैतान द्वारा मानवजाति को प्रदान किए जाने वाले सामाजिक रुझानों का पालन भी करता है। मनुष्य शैतान से अविभाज्य है, वह हर समय शैतान का अनुसरण करता है, उसकी दुष्टता, धोख़े, दुर्भावना और अहंकार को स्वीकार करता है। शैतान के इन स्वभावों को धारण कर लेने पर, क्या मनुष्य इस भ्रष्ट मनुष्यजाति के बीच रहते हुए खुश रहा है या दुःखी? (दुःखी।) तुम ऐसा क्यों कहते हो? (चूँकि मनुष्य इन चीज़ों से बँधा है और इन भ्रष्ट चीज़ों से नियंत्रित है, वह पाप में रहता है और एक कठिन संघर्ष में डूबा हुआ है।) कुछ लोग बहुत बौद्धिक दिखाई देने के लिए चश्मा पहनते हैं; वे वाक्पटुता और तार्किकता के साथ बहुत सम्मानास्पद ढंग से बोल सकते हैं, और चूँकि वे कई चीज़ों से होकर गुज़रे हैं, इसलिए वे बहुत अनुभवी और परिष्कृत हो सकते हैं। वे छोटे-बड़े मामलों के बारे में विस्तार से बोलने में समर्थ हो सकते हैं; वे चीज़ों की प्रामाणिकता और तर्क का आकलन करने में भी समर्थ हो सकते हैं। कुछ लोग इन लोगों के व्यवहार और रूप-रंग, और साथ ही इनके चरित्र, इनकी ईमानदारी और आचरण इत्यादि को देख सकते हैं, और उन्हें इनमें कोई दोष नहीं मिलता होगा। ऐसे व्यक्ति मौजूदा सामाजिक रुझानों के अनुकूल होने में ख़ास तौर से सक्षम होते हैं। भले ही ये लोग अधिक उम्र के हों, पर वे कभी समकालीन रुझानों से पीछे नहीं रहते और कभी इतने बूढ़े नहीं होते कि सीखना बंद कर दें। सतह पर, कोई भी ऐसे व्यक्ति में दोष नहीं निकाल सकता, लेकिन अंदर से वे शैतान द्वारा सरासर और पूरी तरह से भ्रष्ट किए जा चुके होते हैं। हालाँकि इन लोगों में कोई बाहरी दोष नहीं ढूँढ़ा जा सकता, और हालाँकि सतह पर वे सौम्य, परिष्कृत होते हैं और ज्ञान और एक खास नैतिकता रखते हैं, और उनमें ईमानदारी होती है, और हालाँकि ज्ञान के मामले में वे किसी भी तरह से युवा लोगों से कम नहीं होते, फिर भी जहाँ तक उनकी प्रकृति और सार का संबंध होता है, ऐसे लोग शैतान के पूर्ण और जीवित प्रतिमान होते हैं। वे शैतान के पूर्ण प्रतिबिंब होते हैं। यह शैतान द्वारा मनुष्य को भ्रष्ट करने का "फल" है। मैंने जो कहा है, उससे तुम्हें ठेस पहुँच सकती है, पर यह सब सत्य है। जिस ज्ञान का मनुष्य अध्ययन करता है, जिस विज्ञान को वह समझता है और सामाजिक रुझानों में तालमेल बिठाने के लिए जिन साधनों का वह चयन करता है, वे निरपवाद रूप से शैतान द्वारा मनुष्य को भ्रष्ट करने के उपकरण हैं। यह बिलकुल सत्य है। इसलिए मनुष्य एक ऐसे स्वभाव के भीतर जीता है, जिसे शैतान द्वारा पूरी तरह से भ्रष्ट कर दिया गया होता है, और मनुष्य के पास यह जानने का कोई तरीका नहीं है कि परमेश्वर की पवित्रता क्या है या परमेश्वर का सार क्या है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि व्यक्ति शैतान के मनुष्य को भ्रष्ट करने के तरीकों में ऊपरी तौर पर दोष नहीं ढूँढ़ सकता; किसी के व्यवहार से कोई यह नहीं कह सकता कि कुछ अनुचित है। प्रत्येक व्यक्ति अपना कार्य सामान्य रूप से करता है और सामान्य जीवन जीता है; वह सामान्य रूप से पुस्तकें और समाचारपत्र पढ़ता है, सामान्य रूप से अध्ययन करता और बोलता है। कुछ लोग कुछ नैतिकता सीख लेते हैं, और वे बोलने में अच्छे, दूसरों को समझने वाले और मित्रतापूर्ण होते हैं, मददगार और उदार होते हैं, और छोटी-छोटी बातों पर झगड़ा नहीं करते या लोगों का फायदा नहीं उठाते। लेकिन उनका भ्रष्ट शैतानी स्वभाव उनमें गहरी जड़ें जमाए होता है और यह सार बाहरी प्रयासों पर भरोसा करके नहीं बदला जा सकता। इस सार के कारण मनुष्य परमेश्वर की पवित्रता को समझने में समर्थ नहीं है, और परमेश्वर की पवित्रता के सार को मनुष्य पर प्रकट किए जाने के बावज़ूद वह इसे गंभीरता से नहीं लेता। ऐसा इसलिए है, क्योंकि विभिन्न साधनों के जरिये शैतान पहले ही मनुष्य की भावनाओं, मतों, दृष्टिकोणों और विचारों को अपने कब्जे में करने के लिए आ चुका होता है। यह कब्ज़ा और भ्रष्टता अस्थायी या आकस्मिक नहीं होते; बल्कि हर जगह और हर समय विद्यमान रहते हैं। इस प्रकार, तीन या चार साल से, या पाँच या छह साल से भी, परमेश्वर पर विश्वास करते आ रहे बहुत-से लोग अभी भी इन दुष्ट विचारों, दृष्टिकोणों, तर्क और फ़लसफ़ों को खज़ाने के रूप में लेते हैं जो शैतान ने उनमें भर दिए हैं, और उन्हें छोड़ देने में असमर्थ हैं। चूँकि मनुष्य ने शैतान की प्रकृति से आने वाली दुष्ट, अहंकारी और दुर्भावनापूर्ण चीज़ों को स्वीकार किया है, इसलिए उनके अंतर्वैयक्तिक संबंधों में अपरिहार्य रूप से प्रायः संघर्ष, बहसबाजी और असामंजस्य रहता है, जो शैतान की अहंकारी प्रकृति के परिणामस्वरूप आता है। अगर शैतान ने मानवजाति को सकारात्मक चीज़ें दी होतीं—उदाहरण के लिए, अगर मनुष्य द्वारा स्वीकृत पारंपरिक संस्कृति का कन्फ्यूशीवाद और ताओवाद अच्छी चीज़ें होतीं—तो उन चीज़ों को स्वीकार करने के बाद समान मानसिकता वाले व्यक्तियों को आपस में मिलजुलकर रहने में समर्थ होना चाहिए था। तो समान चीजें स्वीकार करने वालों के बीच इतनी बड़ी फूट क्यों है? क्यों है इतनी बड़ी फूट? ऐसा इसलिए है, क्योंकि ये चीज़ें शैतान से आती हैं और शैतान लोगों में दरार पैदा करता है। शैतान से आने वाली चीज़ें, चाहे वे ऊपरी तौर पर कितनी ही गरिमापूर्ण और महान क्यों न दिखाई पड़ें, मनुष्यों के लिए और उनके जीवन में केवल अहंकार और शैतान की दुष्ट प्रकृति के धोखे के अलावा और कुछ नहीं लातीं। क्या यह सही नहीं है? कोई ऐसा व्यक्ति, जो अपने को छिपाने में सक्षम हो, जिसके पास ज्ञान की संपदा हो या जिसकी अच्छी परवरिश हुई हो, उसे भी अपने भ्रष्ट शैतानी स्वभाव को छिपाने में कठिनाई होगी। अर्थात्, इस व्यक्ति ने भले ही अपने आपको कितने ही तरीकों से छिपाया हो, चाहे तुम उसे संत समझते थे या सोचते थे कि वह पूर्ण है, या तुम सोचते थे कि वह एक फ़रिश्ता है, चाहे तुमने उसे कितना भी शुद्ध क्यों न समझा हो, पर्दे के पीछे उसका जीवन किस तरह का है? उसके स्वभाव के प्रकाशन में तुम क्या सार देखोगे? निस्संदेह तुम शैतान की दुष्ट प्रकृति देखोगे। क्या ऐसा कहना स्वीकार्य है? (हाँ।) उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम लोग अपने करीबी किसी व्यक्ति को जानते हो, जिसके बारे में तुम सोचते थे कि वह अच्छा व्यक्ति है, शायद कोई ऐसा व्यक्ति, जिसे तुम एक आदर्श मानते थे। अपने वर्तमान आध्यात्मिक कद के अनुसार तुम उसके बारे में क्या सोचते हो? पहले, तुम यह आकलन करते हो कि इस प्रकार के व्यक्ति में मानवता है या नहीं, क्या वह ईमानदार है, क्या उसमें लोगों के लिए सच्चा प्रेम है, क्या उसके वचन और कार्य दूसरों को लाभ और सहायता पहुँचाते हैं। (नहीं पहुँचाते।) इन लोगों द्वारा दिखाई जाने वाली तथाकथित दयालुता, प्रेम या अच्छाई क्या है? यह सब झूठ है, मुखौटा है। इस मुखौटे के पीछे एक गुप्त बुरा उद्देश्य है : उस व्यक्ति को इष्ट और पूजनीय बनाना। क्या तुम लोग इसे स्पष्ट रूप से देखते हो? (हाँ।)

शैतान लोगों को भ्रष्ट करने के लिए जिन विधियों का उपयोग करता है, वे मानवजाति के लिए क्या लेकर आती हैं? क्या वे कोई सकारात्मक चीज़ लाती हैं? पहली बात, क्या मनुष्य अच्छे और बुरे के बीच अंतर कर सकता है? क्या तुम कहोगे कि इस संसार में, चाहे कोई प्रसिद्ध या महान व्यक्ति हो, या कोई पत्रिका या अन्य प्रकाशन, जिन मानकों का यह निर्णय करने के लिए उपयोग करते हैं कि कोई चीज़ अच्छी है या बुरी, और सही है या ग़लत, वे सटीक मानक हैं? क्या घटनाओं और लोगों के बारे में उनके आकलन निष्पक्ष हैं? क्या उनमें सच्चाई है? क्या यह संसार, यह मानवजाति, सकारात्मक और नकारात्मक चीजों का आकलन सत्य के मानक के आधार पर करती है? (नहीं।) लोगों में वह क्षमता क्यों नहीं है? लोगों ने ज्ञान का इतना अधिक अध्ययन किया है और विज्ञान के विषय में इतना अधिक जानते हैं, इसलिए वे महान क्षमताओं से युक्त हैं, है न? तो फिर वे सकारात्मक और नकारात्मक चीज़ों के बीच अंतर करने में क्यों असमर्थ हैं? ऐसा क्यों है? (क्योंकि लोगों के पास सत्य नहीं है, विज्ञान और ज्ञान सत्य नहीं हैं।) शैतान मानवजाति के लिए जो भी चीज़ लेकर आता है, वह दुष्ट और भ्रष्ट होती है, और उसमें सत्य, जीवन और मार्ग का अभाव होता है। शैतान द्वारा मनुष्य के लिए लाई जाने वाली दुष्टता और भ्रष्टता को देखते हुए क्या तुम कह सकते हो कि शैतान के पास प्रेम है? क्या तुम कह सकते हो कि मनुष्य के पास प्रेम है? कुछ लोग कह सकते हैं : "तुम ग़लत हो, दुनिया में बहुत लोग हैं, जो गरीबों और बेघर लोगों की सहायता करते हैं। क्या वे अच्छे लोग नहीं हैं? यहाँ धर्मार्थ संगठन भी हैं, जो अच्छे कार्य करते हैं; क्या उनके द्वारा किए जाने वाले कार्य अच्छे नहीं हैं?" तुम उसे क्या कहोगे? शैतान मनुष्य को भ्रष्ट करने के लिए कई अलग-अलग विधियों और सिद्धांतों का उपयोग करता है; क्या मनुष्य की यह भ्रष्टता एक अस्पष्ट धारणा है? नहीं, यह अस्पष्ट नहीं है। शैतान कुछ व्यावहारिक चीज़ें भी करता है, और वह इस दुनिया और समाज में किसी दृष्टिकोण या किसी सिद्धांत को बढ़ावा भी देता है। प्रत्येक राजवंश और प्रत्येक काल-खंड में वह एक सिद्धांत को बढ़ावा देता है और मनुष्यों के मन में विचार भरता है। ये विचार और सिद्धांत धीरे-धीरे लोगों के हृदयों में जड़ जमा लेते हैं, और तब वे उन विचारों और सिद्धांतों के अनुसार जीना आरंभ कर देते हैं। एक बार जब वे इन चीज़ों के अनुसार जीने लगते हैं, तो क्या वे अनजाने ही शैतान नहीं बन जाते? क्या तब लोग शैतान के साथ एक नहीं हो जाते? जब लोग शैतान के साथ एक हो जाते हैं, तो अंत में परमेश्वर के प्रति उनका क्या रवैया होता है? क्या यह वही रवैया नहीं होता, जो शैतान परमेश्वर के प्रति रखता है? कोई भी यह स्वीकार करने का साहस नहीं करता, है न? यह कितना भयावह है। मैं क्यों कहता हूँ कि शैतान की प्रकृति दुष्ट है? मैं ऐसा अकारण नहीं कहता; बल्कि, शैतान की प्रकृति का निर्धारण और विश्लेषण इस आधार पर किया जाता है कि उसने क्या किया है और किन चीज़ों को प्रकट किया है। अगर मैंने केवल यह कहा होता कि शैतान दुष्ट है, तो तुम लोग क्या सोचते? तुम लोग सोचते : "स्पष्टतः शैतान दुष्ट है।" इसलिए मैं तुमसे पूछता हूँ : "शैतान के कौन-से पहलू दुष्टता हैं?" अगर तुम कहते हो : "शैतान द्वारा परमेश्वर का विरोध करना दुष्टता है," तो तुम अभी भी स्पष्टता के साथ नहीं बोल रहे होगे। अब जबकि मैंने इस प्रकार विशिष्ट रूप से कहा है; तो क्या तुम्हें शैतान की दुष्टता के सार की विशिष्ट अंतर्वस्तु के बारे में समझ है? (हाँ।) अगर तुम शैतान की दुष्ट प्रकृति स्पष्ट रूप से देखने में सक्षम हो, तो तुम अपनी खुद की स्थितियाँ देखोगे। क्या इन दोनों चीज़ों के बीच कोई संबंध है? यह तुम लोगों के लिए मददगार है या नहीं? (हाँ, है।) जब मैं परमेश्वर की पवित्रता के सार के बारे में संगति करता हूँ, तो क्या यह आवश्यक है कि मैं शैतान के दुष्ट सार के बारे में भी संगति करूँ? इस बारे में तुम्हारी क्या राय है? (हाँ, यह आवश्यक है।) क्यों? (शैतान की दुष्टता परमेश्वर की पवित्रता को स्पष्टता से उभार देती है।) क्या यह ऐसा ही है? यह आंशिक रूप से सही है, इस अर्थ में कि शैतान की दुष्टता के बिना लोग परमेश्वर की पवित्रता को नहीं जानेंगे; यह कहना सही है। लेकिन अगर तुम कहते हो कि परमेश्वर की पवित्रता केवल शैतान की दुष्टता के विपरीत होने के कारण विद्यमान है, तो क्या यह सही है? सोचने का यह द्वंद्वात्मक तरीका ग़लत है। परमेश्वर की पवित्रता परमेश्वर का अंतर्निहित सार है; यहाँ तक कि जब परमेश्वर इसे अपने कर्मों के माध्यम से प्रकट करता है, तब भी वह परमेश्वर के सार की एक स्वाभाविक अभिव्यक्ति है और यह तब भी परमेश्वर का अंतर्निहित सार है; यह हमेशा विद्यमान रही है और स्वयं परमेश्वर के लिए अंतर्भूत और सहज है, यद्यपि मनुष्य इसे नहीं देख सकता। ऐसा इसलिए है, क्योंकि मनुष्य शैतान के भ्रष्ट स्वभाव के बीच और शैतान के प्रभाव के अधीन रहता है, और वह पवित्रता के बारे में ही नहीं जानता, परमेश्वर की पवित्रता की विशिष्ट अंतर्वस्तु के बारे में तो कैसे जानेगा। तो क्या यह आवश्यक है कि हम पहले शैतान के दुष्ट सार के बारे में संगति करें? (हाँ, यह आवश्यक है।) कुछ लोग कुछ संदेह व्यक्त कर सकते हैं : "तुम स्वयं परमेश्वर के बारे में संगति कर रहे हो, तो फिर तुम हर समय इस बारे में बात क्यों करते रहते हो कि शैतान लोगों को भ्रष्ट कैसे करता है और शैतान की प्रकृति दुष्ट कैसे है?" अब तुमने इन संदेहों का समाधान कर लिया है, है ना? जब लोगों को शैतान की दुष्टता का बोध हो जाता है और जब उनके पास उसकी एक सही परिभाषा होती है, जब लोग दुष्टता की विशिष्ट अंतर्वस्तु और अभिव्यक्ति को, दुष्टता के स्रोत और सार को स्पष्ट रूप से देख लेते हैं, केवल तभी, परमेश्वर की पवित्रता की चर्चा के माध्यम से, लोग स्पष्ट रूप से समझ और पहचान पाते हैं कि परमेश्वर की पवित्रता क्या है, पवित्रता मात्र क्या है। अगर मैं शैतान की दुष्टता की चर्चा न करूँ, तो कुछ लोग ग़लती से यह विश्वास कर लेंगे कि कुछ चीजों का, जिन्हें लोग समाज में या लोगों के बीच करते हैं—या कुछ खास चीजों का, जो इस संसार में विद्यमान हैं—पवित्रता से कुछ संबंध हो सकता है। क्या यह दृष्टिकोण ग़लत नहीं है? (हाँ, है।)

अब जबकि मैंने इस रूप में शैतान के सार पर संगति कर ली है, तुम लोगों ने अपने पिछले कुछ वर्षों के अनुभवों, परमेश्वर के वचनों के अपने अध्ययन और उसके कार्य का अनुभव प्राप्त करने के माध्यम से परमेश्वर की पवित्रता की किस प्रकार की समझ प्राप्त की है? आगे बढ़ो और इस बारे में बोलो। तुम्हें कानों को अच्छे लगने वाले शब्दों का प्रयोग नहीं करना है, बस अपने स्वयं के अनुभवों से बोलो। क्या परमेश्वर की पवित्रता में केवल उसका प्रेम शामिल है? क्या यह परमेश्वर का प्रेम मात्र है, जिसका हम पवित्रता के रूप में वर्णन करते हैं? यह कुछ ज़्यादा ही एकतरफा होगा, है न? परमेश्वर के प्रेम के अलावा, क्या परमेश्वर के सार के अन्य पहलू भी हैं? क्या तुमने उन्हें देखा है? (हाँ। परमेश्वर त्योहारों और अवकाशों, प्रथाओं और अंधविश्वासों से घृणा करता है; यह भी परमेश्वर की पवित्रता है।) परमेश्वर पवित्र है, इसलिए वह चीज़ों से घृणा करता है, क्या तुम्हारा यह मतलब है? जब बात परमेश्वर की पवित्रता की होती है, तो वह क्या है? क्या ऐसा है कि परमेश्वर की पवित्रता में कोई तात्विक अंतर्वस्तु नहीं है, केवल घृणा है? क्या तुम अपने मन में यह सोच रहे हो : "चूँकि परमेश्वर इन बुरी चीज़ों से घृणा करता है, इसलिए कहा जा सकता है कि परमेश्वर पवित्र है"? क्या यह मात्र अटकलबाज़ी नहीं है? क्या यह अतिशयोक्ति और निर्णय का एक रूप नहीं है? जब परमेश्वर के सार को समझने की बात आती है, तब वह सबसे बड़ी चूक क्या है, जिससे पूर्णत: बचा जाना चाहिए? (जब हम वास्तविकता को पीछे छोड़ देते हैं और उसके बजाय सिद्धांतों की बात करते हैं।) यह एक बहुत बड़ी चूक है। क्या कोई और चीज़ भी है? (अटकलबाज़ी और कल्पना।) ये भी बहुत गंभीर चूकें हैं। अटकलबाज़ी और कल्पना उपयोगी क्यों नहीं हैं? क्या जिन चीजों के बारे में तुम अटकलबाज़ी और कल्पना करते हो, उन्हें तुम वास्तव में देख सकते हो? क्या वे परमेश्वर का सच्चा सार हैं? (नहीं।) और किस चीज़ से बचना चाहिए? क्या बस परमेश्वर के सार का वर्णन करने के लिए अच्छे लगने वाले वचनों की कड़ी को दोहराना चूक है? (हाँ।) क्या यह आडंबरपूर्ण और बेतुका नहीं है? जिस तरह निर्णय और अटकलबाज़ी बेतुके हैं, उसी तरह अच्छे लगने वाले वचनों का चयन भी बेतुका है। खोखली स्तुति भी बेतुकी है, है न? क्या परमेश्वर लोगों को ऐसी बेतुकी बातें कहते सुनकर आनंदित होता है? (नहीं, आनंदित नहीं होता।) इन्हें सुनकर वह असहज महसूस करता है! जब परमेश्वर लोगों के एक समूह की अगुआई करता है और उसे बचाता है, और लोगों का यह समूह जब उसके वचन सुनता है, तो फिर भी उनकी समझ में कभी नहीं आता कि उसका क्या अर्थ है? कोई पूछ सकता है : "क्या परमेश्वर अच्छा है?" और वे उत्तर देंगे "हाँ!" "कितना अच्छा?" "बहुत, बहुत अच्छा!" "क्या परमेश्वर मनुष्य से प्रेम करता है?" "हाँ!" "कितना? क्या तुम इसका वर्णन कर सकते हो?" "बहुत, बहुत अधिक! परमेश्वर का प्रेम समुद्र से भी गहरा है, आसमान से भी ऊँचा है!" क्या ये शब्द बकवास नहीं हैं? और क्या यह बकवास उसी के समान नहीं है, जो तुम लोगों ने अभी कहा : "परमेश्वर शैतान के भ्रष्ट स्वभाव से घृणा करता है, इसलिए परमेश्वर पवित्र है"? (हाँ।) क्या अभी तुम लोगों ने जो कहा, वह बकवास नहीं है? और ज्यादातर कही जाने वाली बकवास बातें कहाँ से आती हैं? (शैतान से।) ज्यादातर कही जाने वाली बकवास बातें मुख्य रूप से परमेश्वर के प्रति लोगों के अनुत्तरदायित्व और अश्रद्धा के कारण कही जाती हैं। क्या हम ऐसा कह सकते हैं? तुम्हें कोई समझ नहीं थी, और फिर भी तुमने बकवास बातें कीं। क्या यह अनुत्तरदायी होना नहीं है? क्या यह परमेश्वर के प्रति अशिष्ट होना नहीं है? तुमने कुछ ज्ञान प्राप्त कर लिया है, थोड़े विचार और तर्क समझ लिए हैं, तुमने इन चीज़ों का इस्तेमाल किया है और इतना ही नहीं, परमेश्वर को जानने के एक तरीके के रूप में ऐसा किया है। क्या तुम्हें लगता है कि तुम्हें उस तरह कहते सुनकर परमेश्वर परेशान महसूस करता है? तुम लोग इन विधियों का प्रयोग करके परमेश्वर को जानने का प्रयास कैसे कर सकते हो? जब तुम उस तरह बोलते हो, तो क्या यह विचित्र नहीं लगता? इसलिए, जब परमेश्वर के ज्ञान की बात आती है, व्यक्ति को बहुत अधिक सावधान रहना चाहिए; उसे उसी सीमा तक बोलना चाहिए, जिस सीमा तक वह परमेश्वर को जानता हो। ईमानदारी से और व्यावहारिक रूप से बोलो और अपने वचनों को अरुचिकर सराहनाओं से न सजाओ और चापलूसी का उपयोग न करो; परमेश्वर को इसकी आवश्यकता नहीं है; इस तरह की चीज़ें शैतान से आती हैं। शैतान का स्वभाव अंहकारी है; शैतान चापलूसी किया जाना और अच्छे शब्द सुनना पसंद करता है। शैतान खुश और आनंदित होगा, अगर लोग अपने सीखे हुए तमाम सुखद शब्द दोहराएँ और उन्हें शैतान के लिए इस्तेमाल करें। किंतु परमेश्वर को इसकी आवश्यकता नहीं है; परमेश्वर को चाटुकारिता या चापलूसी की आवश्यकता नहीं है और वह नहीं चाहता कि लोग बेकार की बातें करें और अंधे होकर उसकी स्तुति करें। परमेश्वर ऐसी स्तुति और चाटुकारिता से घृणा करता है, जो वास्तविकता से मेल न खाती हो। इसलिए, जब कुछ लोग झूठे मन से परमेश्वर की स्तुति करते हैं, झूठी शपथ खाते हैं और झूठी प्रार्थना करते हैं, तो परमेश्वर बिलकुल नहीं सुनता। तुम जो कहते हो, तुम्हें उसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए। अगर तुम कोई चीज़ नहीं जानते, तो बस वैसा कह दो; अगर तुम कोई चीज़ जानते हो, तो उसे व्यावहारिक रूप से व्यक्त कर दो। इसलिए, जहाँ तक इस बात का संबंध है कि परमेश्वर की पवित्रता किस चीज़ को विशिष्ट रूप से और वास्तव में आवश्यक बनाती है, क्या तुम लोगों को इसकी सच्ची समझ है? (जब मैंने विद्रोहशीलता व्यक्त की, जब मैंने आज्ञा का उल्लंघन किया, तो मुझे परमेश्वर से न्याय और ताड़ना मिली, और उसमें मैंने परमेश्वर की पवित्रता देखी। और जब मैंने उन परिवेशों का सामना किया, जो मेरी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं थे, तब मैंने इन चीज़ों के बारे में प्रार्थना की और परमेश्वर के इरादे जानने चाहे, और जब परमेश्वर ने अपने वचनों से मुझे प्रबुद्ध किया और मेरी अगुआई की, तो मैंने परमेश्वर की पवित्रता देखी।) यह तुम्हारे अपने अनुभव से है? (जो परमेश्वर ने इसके बारे में बोला है, उससे मैंने देखा है कि मनुष्य शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने और क्षति पहुँचाए जाने के बाद क्या बन गया है। फिर भी, परमेश्वर ने हमें बचाने के लिए सब-कुछ दिया है और इससे मैं परमेश्वर की पवित्रता देखती हूँ।) यह बोलने का यथार्थवादी ढंग है; यह सच्चा ज्ञान है। क्या इसे समझने के कोई अलग तरीके हैं? (मैं शैतान की दुष्टता उसके द्वारा हव्वा को पाप करने के लिए बहकाने हेतु कहे गए उसके शब्दों और प्रभु यीशु को दिए गए उसके प्रलोभन में देखती हूँ। परमेश्वर ने उन वचनों से, जिनसे उसने आदम और हव्वा को कहा था कि वे क्या खा सकते हैं और क्या नहीं खा सकते, मैं देखता हूँ कि परमेश्वर के वचन सीधे, स्पष्ट और भरोसेमंद होते हैं; इससे मैं परमेश्वर की पवित्रता देखती हूँ।) उपर्युक्त टिप्पणियाँ सुनने के बाद तुम लोगों को किसके वचन "आमीन" कहने के लिए प्रेरित करते हैं? किसकी संगति आज की हमारी संगति के विषय के सबसे निकट थी? किसके शब्द सर्वाधिक यथार्थवादी थे? पिछली बहन की संगति कैसी थी? (अच्छी थी।) उसने जो कहा, तुम लोगों ने उस पर आमीन कहा। उसने क्या कहा, जो सीधे लक्ष्य पर था? (उस बहन द्वारा अभी-अभी कहे गए वचनों में मैंने सुना कि परमेश्वर के वचन सीधे और बहुत स्पष्ट होते हैं, और शैतान की गोलमोल बातों की तरह बिलकुल नहीं होते। मैंने इसमें परमेश्वर की पवित्रता देखी।) यह इसका भाग है। क्या यह सही था? (हाँ।) बहुत अच्छा। मैं देखता हूँ कि तुम लोगों ने इन दो पिछली संगतियों में कुछ प्राप्त किया है, परंतु तुम्हें लगातार कठिन परिश्रम करते रहना चाहिए। तुम्हारे कठिन परिश्रम करते रहने का कारण यह है कि परमेश्वर के सार को समझना एक बहुत गंभीर सबक है; यह कोई ऐसी चीज़ नहीं है, जो रातोंरात किसी की समझ में आ जाए, या जिसे कोई केवल कुछ ही शब्दों में स्पष्ट रूप से व्यक्त कर सके।

लोगों के भ्रष्ट शैतानी स्वभाव, ज्ञान और दर्शन का प्रत्येक पहलू, लोगों के विचार और दृष्टिकोण, और अलग-अलग व्यक्ति के खास व्यक्तिगत पहलू उन्हें परमेश्वर के सार को जानने में सबसे अधिक रुकावट डालते हैं; इसलिए जब तुम इन विषयों को सुनते हो, तो उनमें से कुछ विषय तुम्हारी पहुँच से बाहर हो सकते हैं, कुछ को शायद तुम समझ न पाओ, जबकि कुछ को शायद तुम मूलभूत रूप से वास्तविकता के साथ न जोड़ पाओ। बहरहाल, मैंने तुम लोगों की परमेश्वर की पवित्रता की समझ के बारे में सुना है और मैं जानता हूँ कि अपने हृदयों में तुम लोग उसे स्वीकार करना आरंभ कर रहे हो, जो मैंने परमेश्वर की पवित्रता के बारे में कहा है और संगति की है। मैं जानता हूँ कि तुम लोगों के हृदयों में परमेश्वर की पवित्रता के सार को समझने की तुम्हारी इच्छा अंकुरित होना शुरू कर रही है। पर मुझे जो बात और भी अधिक आनंदित करती है, वह यह है कि तुममें से कुछ लोग परमेश्वर की पवित्रता के अपने ज्ञान का सरलतम शब्दों में वर्णन करने में पहले से ही सक्षम हो। भले ही कहने के लिए यह एक सरल बात है और मैंने इसे पहले भी कहा है, फिर भी तुममें से अधिकांश के हृदयों में इन वचनों को अभी भी स्वीकृति मिलनी बाकी है, और वास्तव में उन्होंने तुम्हारे मन पर कोई प्रभाव नहीं छोड़ा है। फिर भी, तुममें से कुछ ने इन वचनों को अपने हृदय में ग्रहण कर लिया है। यह बहुत अच्छा है और यह एक बहुत आशाजनक शुरुआत है। मैं आशा करता हूँ कि तुम लोग उन विषयों पर, जो तुम्हें गंभीर लगते हैं—या जो विषय तुम्हारी पहुँच से बाहर हैं—मनन करते रहोगे, और ज्यादा से ज्यादा संगति करोगे। जो विषय तुम्हारी पहुँच से बाहर हैं, उनके लिए कोई न कोई तुम लोगों का और अधिक मार्गदर्शन करने के लिए मौजूद रहेगा। अगर तुम उन क्षेत्रों के बारे में और अधिक संगति करने में संलग्न रहते हो, जो अभी तुम लोगों की पहुँच में हैं, तो पवित्र आत्मा अपना कार्य करेगा और तुम्हें अधिक समझ आ जाएगी। परमेश्वर के सार को समझना और परमेश्वर के सार को जानना लोगों के जीवन में प्रवेश के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। मैं आशा करता हूँ कि तुम लोग इसकी उपेक्षा नहीं करोगे या इसे एक खेल की तरह नहीं लोगे, क्योंकि परमेश्वर को जानना मनुष्य के विश्वास का आधार और उसके लिए सत्य का अनुसरण करने और उद्धार पाने की कुंजी है। अगर लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं मगर उसे जानते नहीं, अगर वे केवल शब्दों और सिद्धांतों में जीते रहते हैं, तो उनके लिए उद्धार प्राप्त करना कभी संभव नहीं होगा, भले ही वे सत्य के सतही अर्थ के अनुसार कार्य करते और जीते रहें। अर्थात्, अगर तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो लेकिन उसे जानते नहीं, तो तुम्हारा विश्वास बिलकुल बेकार है और उसमें वास्तविकता का कोई अंश नहीं है। तुम समझते हो, है न? (हाँ, हम समझते हैं।) आज की हमारी संगति यहीं समाप्त होती है। (परमेश्वर का धन्यवाद!)

4 जनवरी, 2014

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