परमेश्वर के 6,000 वर्षों के प्रबधंन-कार्य को तीन चरणों में बाँटा जाता है : व्यवस्था का युग, अनुग्रह का युग और राज्य का युग। कार्य के ये तीनों चरण मानव-जाति के उद्धार के वास्ते हैं, अर्थात् ये उस मानव-जाति के उद्धार के लिए हैं, जिसे शैतान द्वारा बुरी तरह से भ्रष्ट कर दिया गया है। किंतु, साथ ही, वे इसलिए भी हैं, ताकि परमेश्वर शैतान के साथ युद्ध कर सके। इस प्रकार, जैसे उद्धार के कार्य को तीन चरणों में बाँटा जाता है, ठीक वैसे ही शैतान के साथ युद्ध को भी तीन चरणों में बाँटा जाता है, और परमेश्वर के कार्य के ये दो पहलू एक-साथ संचालित किए जाते हैं। शैतान के साथ युद्ध वास्तव में मानव-जाति के उद्धार के वास्ते है, और चूँकि मानव-जाति के उद्धार का कार्य कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसे एक ही चरण में सफलतापूर्वक पूरा किया जा सकता हो, इसलिए शैतान के साथ युद्ध को भी चरणों और अवधियों में बाँटा जाता है, और मनुष्य की आवश्यकताओं और मनुष्य में शैतान की भ्रष्टता की सीमा के अनुसार शैतान के साथ युद्ध छेड़ा जाता है। कदाचित् मनुष्य अपनी कल्पना में यह विश्वास करता है कि इस युद्ध में परमेश्वर शैतान के विरुद्ध शस्त्र उठाएगा, वैसे ही, जैसे दो सेनाएँ आपस में लड़ती हैं। मनुष्य की बुद्धि मात्र यही कल्पना करने में सक्षम है; यह अत्यधिक अस्पष्ट और अवास्तविक सोच है, फिर भी मनुष्य यही विश्वास करता है। और चूँकि मैं यहाँ कहता हूँ कि मनुष्य के उद्धार का साधन शैतान के साथ युद्ध करने के माध्यम से है, इसलिए मनुष्य कल्पना करता है कि युद्ध इसी तरह से संचालित किया जाता है। मनुष्य के उद्धार के कार्य के तीन चरण हैं, जिसका तात्पर्य है कि शैतान को हमेशा के लिए पराजित करने हेतु उसके साथ युद्ध को तीन चरणों में विभाजित किया गया है। किंतु शैतान के साथ युद्ध के समस्त कार्य की भीतरी सच्चाई यह है कि इसके परिणाम कार्य के अनेक चरणों में हासिल किए जाते हैं : मनुष्य को अनुग्रह प्रदान करना, मनुष्य के लिए पापबलि बनना, मनुष्य के पापों को क्षमा करना, मनुष्य पर विजय पाना और मनुष्य को पूर्ण बनाना। वस्तुतः शैतान के साथ युद्ध करना उसके विरुद्ध हथियार उठाना नहीं है, बल्कि मनुष्य का उद्धार करना है, मनुष्य के जीवन में कार्य करना है, और मनुष्य के स्वभाव को बदलना है, ताकि वह परमेश्वर के लिए गवाही दे सके। इसी तरह से शैतान को पराजित किया जाता है। मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव को बदलने के माध्यम से शैतान को पराजित किया जाता है। जब शैतान को पराजित कर दिया जाएगा, अर्थात् जब मनुष्य को पूरी तरह से बचा लिया जाएगा, तो अपमानित शैतान पूरी तरह से लाचार हो जाएगा, और इस तरह से, मनुष्य को पूरी तरह से बचा लिया जाएगा। इस प्रकार, मनुष्य के उद्धार का सार शैतान के विरुद्ध युद्ध है, और यह युद्ध मुख्य रूप से मनुष्य के उद्धार में प्रतिबिंबित होता है। अंत के दिनों का चरण, जिसमें मनुष्य को जीता जाना है, शैतान के साथ युद्ध का अंतिम चरण है, और यह शैतान के अधिकार-क्षेत्र से मनुष्य के संपूर्ण उद्धार का कार्य भी है। मनुष्य पर विजय का आंतरिक अर्थ मनुष्य पर विजय पाने के बाद शैतान के मूर्त रूप—मनुष्य, जिसे शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया है—का अपने जीते जाने के बाद सृजनकर्ता के पास वापस लौटना है, जिसके माध्यम से वह शैतान को छोड़ देगा और पूरी तरह से परमेश्वर के पास वापस लौट जाएगा। इस तरह मनुष्य को पूरी तरह से बचा लिया जाएगा। और इसलिए, विजय का कार्य शैतान के विरुद्ध युद्ध में अंतिम कार्य है, और शैतान की पराजय के वास्ते परमेश्वर के प्रबंधन में अंतिम चरण है। इस कार्य के बिना मनुष्य का संपूर्ण उद्धार अंततः असंभव होगा, शैतान की संपूर्ण पराजय भी असंभव होगी, और मानव-जाति कभी भी अपनी अद्भुत मंज़िल में प्रवेश करने या शैतान के प्रभाव से छुटकारा पाने में सक्षम नहीं होगी। परिणामस्वरूप, शैतान के साथ युद्ध की समाप्ति से पहले मनुष्य के उद्धार का कार्य समाप्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि परमेश्वर के प्रबधंन के कार्य का केंद्रीय भाग मानव-जाति के उद्धार के वास्ते है। आदिम मानव-जाति परमेश्वर के हाथों में थी, किंतु शैतान के प्रलोभन और भ्रष्टता की वजह से, मनुष्य को शैतान द्वारा बाँध लिया गया और वह इस दुष्ट के हाथों में पड़ गया। इस प्रकार, परमेश्वर के प्रबधंन-कार्य में शैतान पराजित किए जाने का लक्ष्य बन गया। चूँकि शैतान ने मनुष्य पर कब्ज़ा कर लिया था, और चूँकि मनुष्य वह पूँजी है जिसे परमेश्वर संपूर्ण प्रबंधन पूरा करने के लिए इस्तेमाल करता है, इसलिए यदि मनुष्य को बचाया जाना है, तो उसे शैतान के हाथों से वापस छीनना होगा, जिसका तात्पर्य है कि मनुष्य को शैतान द्वारा बंदी बना लिए जाने के बाद उसे वापस लेना होगा। इस प्रकार, शैतान को मनुष्य के पुराने स्वभाव में बदलावों के माध्यम से पराजित किया जाना चाहिए, ऐसे बदलाव, जो मनुष्य की मूल विवेक-बुद्धि को बहाल करते हैं। और इस तरह से मनुष्य को, जिसे बंदी बना लिया गया था, शैतान के हाथों से वापस छीना जा सकता है। यदि मनुष्य शैतान के प्रभाव और बंधन से मुक्त हो जाता है, तो शैतान शर्मिंदा हो जाएगा, मनुष्य को अंततः वापस ले लिया जाएगा, और शैतान को हरा दिया जाएगा। और चूँकि मनुष्य को शैतान के अंधकारमय प्रभाव से मुक्त किया जा चुका है, इसलिए एक बार जब यह युद्ध समाप्त हो जाएगा, तो मनुष्य इस संपूर्ण युद्ध में जीत के परिणामस्वरूप प्राप्त हुआ लाभ बन जाएगा, और शैतान वह लक्ष्य बन जाएगा जिसे दंडित किया जाएगा, जिसके पश्चात् मानव-जाति के उद्धार का संपूर्ण कार्य पूरा कर लिया जाएगा।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के सामान्य जीवन को बहाल करना और उसे एक अद्भुत मंज़िल पर ले जाना
यीशु द्वारा किया गया कार्य पुराने विधान से महज एक चरण ऊँचा था; उसे एक युग शुरू करने के लिए और उस युग की अगुआई करने के लिए इस्तेमाल किया गया था। उसने क्यों कहा था, "मैं व्यवस्था नष्ट करने के लिए नहीं, बल्कि व्यवस्था पूरी करने आया हूँ"? फिर भी उसके काम में बहुत-कुछ ऐसा था, जो पुराने विधान के इस्राएलियों द्वारा पालन की जाने वाली व्यवस्थाओं और आज्ञाओं से अलग था, क्योंकि वह व्यवस्था का पालन करने नहीं आया था, बल्कि उसे पूरा करने के लिए आया था। उसे पूरा करने की प्रक्रिया में कई व्यावहारिक चीजें शामिल थीं : उसका कार्य अधिक व्यावहारिक और वास्तविक था, और इसके अलावा, वह अधिक जीवंत था, और नियमों का अंधा पालन नहीं था। क्या इस्राएली सब्त का पालन नहीं करते थे? जब यीशु आया, तो उसने सब्त का पालन नहीं किया, क्योंकि उसने कहा कि मनुष्य का पुत्र सब्त का प्रभु है, और जब सब्त का प्रभु आएगा, तो वह जैसा चाहेगा वैसा करेगा। वह पुराने विधान की व्यवस्थाएँ पूरी करने और उन्हें बदलने के लिए आया था। आज जो कुछ किया जाता है, वह वर्तमान पर आधारित है, फिर भी वह अब भी व्यवस्था के युग में किए गए यहोवा के कार्य की नींव पर टिका है, और वह इस दायरे का उल्लंघन नहीं करता। उदाहरण के लिए, अपनी जबान सँभालना, व्यभिचार न करना—क्या ये पुराने विधान की व्यवस्थाएँ नहीं हैं? आज, तुम लोगों से जो अपेक्षित है, वह केवल दस आज्ञाओं तक ही सीमित नहीं है, बल्कि उसमें ऐसी आज्ञाएँ और व्यवस्थाएँ शामिल हैं, जो पहले आई आज्ञाओं और व्यवस्थाओं के मुकाबले अधिक उच्च कोटि की हैं। किंतु इसका यह मतलब नहीं है कि जो कुछ पहले आया, उसे खत्म कर दिया गया है, क्योंकि परमेश्वर के काम का प्रत्येक चरण पिछले चरण की नींव पर पूरा किया जाता है। जहाँ तक यहोवा द्वारा उस समय इस्राएल में किए गए कार्य की बात है, जैसे कि लोगों से अपेक्षा करना कि वे बलिदान दें, माँ-बाप का आदर करें, मूर्तियों की पूजा न करें, दूसरों पर वार न करें या उन्हें अपशब्द न कहें, व्यभिचार न करें, धूम्रपान या मदिरापान न करें, और मरी हुई चीजें न खाएँ या रक्तपान न करें—क्या यह आज भी तुम लोगों के अभ्यास की नींव नहीं है? अतीत की नींव पर ही आज तक काम किया गया है। हालाँकि, अतीत की व्यवस्थाओं का अब और उल्लेख नहीं किया जाता और तुमसे नई अपेक्षाएँ की गई हैं, फिर भी, इन व्यवस्थाओं को समाप्त किए जाने के बजाय और ऊँचा उठा दिया गया है। उन्हें समाप्त कर दिया गया कहने का मतलब है कि पिछला युग पुराना पड़ गया है, जबकि कुछ आज्ञाएँ ऐसी हैं, जिनका तुम्हें अनंतकाल तक पालन करना चाहिए। अतीत की आज्ञाएँ पहले ही अभ्यास में लाई जा चुकी हैं, वे पहले ही मनुष्य का अस्तित्व बन चुकी हैं, और "धूम्रपान मत करो", "मदिरापान मत करो" आदि आज्ञाओं पर विशेष जोर देने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसी नींव पर आज तुम लोगों की जरूरत के अनुसार, तुम लोगों के आध्यात्मिक कद के अनुसार और आज के काम के अनुसार नई आज्ञाएँ निर्धारित की जाती हैं। नए युग के लिए आज्ञाएँ निर्धारित करने का मतलब अतीत की आज्ञाएँ खत्म करना नहीं है, बल्कि उन्हें इसी नींव पर और ऊँचा उठाना है, ताकि मनुष्य के क्रियाकलाप और अधिक पूर्ण और वास्तविकता के और अधिक अनुरूप बनाए जा सकें। यदि आज तुम लोगों को इस्राएलियों की तरह सिर्फ पुराने विधान की आज्ञाओं और व्यवस्थाओं का पालन करना होता, और यदि तुम लोगों को यहोवा द्वारा निर्धारित व्यवस्थाओं को भी याद रखना होता, तो तुम लोगों के बदल सकने की कोई संभावना न होती। यदि तुम लोगों को केवल उन कुछ सीमित आज्ञाओं का पालन करना होता या असंख्य व्यवस्थाओं को याद करना होता, तो तुम्हारा पुराना स्वभाव गहरे गड़ा रहता और उसे उखाड़ना असंभव होता। इस प्रकार तुम लोग और अधिक भ्रष्ट हो जाते, और तुम लोगों में से कोई भी आज्ञाकारी न बनता। कहने का अर्थ यह है कि कुछ सरल आज्ञाएँ या अनगिनत व्यवस्थाएँ यहोवा के कर्म जानने में तुम्हारी मदद नहीं कर सकतीं। तुम लोग इस्राएलियों के समान नहीं हो : व्यवस्थाओं का पालन और आज्ञाएँ याद करके वे यहोवा के कर्म देख पाए, और सिर्फ उसकी ही भक्ति कर सके। लेकिन तुम लोग इसे प्राप्त करने में असमर्थ हो, और पुराने विधान के युग की कुछ आज्ञाएँ न केवल तुम्हें अपना हृदय देने के लिए प्रेरित करने या तुम्हारी रक्षा करने में असमर्थ हैं, बल्कि वे तुम लोगों को शिथिल बना देंगी, और तुम्हें अधोलोक में गिरा देंगी। क्योंकि मेरा काम विजय का काम है, और वह तुम लोगों की अवज्ञा और पुराने स्वभाव पर केंद्रित है। यहोवा और यीशु के दयालु वचन आज न्याय के कठोर वचनों से कम पड़ते हैं। ऐसे कठोर वचनों के बिना तुम "विशेषज्ञों" पर विजय प्राप्त करना असंभव होगा, जो हजारों सालों से अवज्ञाकारी रहे हैं। पुराने विधान की व्यवस्थाओं ने बहुत पहले तुम लोगों पर अपनी शक्ति खो दी, और आज का न्याय पुरानी व्यवस्थाओं की तुलना में कहीं ज्यादा विकट है। तुम लोगों के लिए जो सबसे उपयुक्त है, वह न्याय है, व्यवस्थाओं के हलके प्रतिबंध नहीं, क्योंकि तुम लोग बिलकुल प्रारंभ वाली मानव-जाति नहीं हो, बल्कि वह मानव-जाति हो जो हजारों वर्षों से भ्रष्ट है। अब मनुष्य को अपनी आज की वास्तविक दशा के अनुरूप और आज के मनुष्य की क्षमता और वास्तविक आध्यात्मिक कद के अनुसार हासिल करना चाहिए और इसके लिए जरूरी नहीं कि तुम नियमों का पालन करो। यह इसलिए है, ताकि तुम्हारे पुराने स्वभाव में बदलाव हासिल किया जा सके, और तुम अपनी धारणाएँ त्याग सको।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के कार्य का दर्शन (1)
यद्यपि आज मनुष्य जिस मार्ग पर चलता है, वह भी सलीब का मार्ग और दुःख का मार्ग है, फिर भी आज का मनुष्य जो अभ्यास करता है, और जो वह खाता, पीता और आनंद लेता है, वह उससे बहुत भिन्न है, जो मनुष्य व्यवस्था के अधीन और अनुग्रह के युग में करता था। आज मनुष्य से जो माँग की जाती है, वह अतीत की माँग से भिन्न है और व्यवस्था के युग में मनुष्य से की गई माँग से तो वह और भी अधिक भिन्न है। व्यवस्था के अंतर्गत मनुष्य से क्या माँग की गई थी, जब परमेश्वर इस्राएल में अपना कार्य कर रहा था? वह इससे बढ़कर कुछ नहीं थी कि मनुष्य को सब्त और यहोवा की व्यवस्थाओं का पालन करना चाहिए। किसी को भी सब्त के दिन काम नहीं करना था या यहोवा की व्यवस्थाओं का उल्लंघन नहीं करना था। परंतु अब ऐसा नहीं है। सब्त के दिन मनुष्य हमेशा की तरह काम करते हैं, इकट्ठे होते हैं और प्रार्थना करते हैं, और उन पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाए जाते। अनुग्रह के युग में लोगों को बपतिस्मा लेना पड़ता था, और फिर उन्हें उपवास करने, रोटी तोड़ने, दाखमधु पीने, अपने सिर ढकने और दूसरों के पाँव धोने के लिए कहा जाता था। अब ये नियम समाप्त कर दिए गए हैं, किंतु मनुष्य से और भी बड़ी माँगें की जाती हैं, क्योंकि परमेश्वर का कार्य लगातार अधिक गहरा होता जाता है और मनुष्य का प्रवेश पहले से कहीं अधिक ऊँचा हो गया है। अतीत में यीशु मनुष्य के ऊपर हाथ रखता था और प्रार्थना करता था, परंतु अब जबकि सब कुछ कहा जा चुका है, तो मनुष्य के ऊपर हाथ रखने का क्या उपयोग है? वचन अकेले ही परिणाम प्राप्त कर सकते हैं। जब अतीत में वह अपना हाथ मनुष्य के ऊपर रखता था, तो यह मनुष्य को आशीष देने और चंगा करने के लिए होता था। उस समय पवित्र आत्मा इसी तरह से कार्य करता था, परंतु अब ऐसा नहीं है। अब पवित्र आत्मा कार्य करने और परिणाम हासिल करने के लिए वचनों का उपयोग करता है। उसके वचन तुम लोगों पर स्पष्ट कर दिए गए हैं, और तुम लोगों को उन्हें ठीक वैसे ही अभ्यास में लाना चाहिए, जैसे तुम्हें बताया गया है। उसके वचन उसकी इच्छा हैं; वे वह कार्य है, जिसे वह करना चाहता है। उसके वचनों के माध्यम से तुम उसकी इच्छा को और उस चीज को समझ सकते हो, जिसे प्राप्त करने के लिए वह तुमसे कहता है, और तुम अपने ऊपर हाथ रखे जाने की आवश्यकता के बिना ही सीधे उसके वचनों को अभ्यास में ला सकते हो। कुछ लोग कह सकते हैं, "मुझ पर अपना हाथ रख! मुझ पर अपना हाथ रख, ताकि मैं तेरे आशीष प्राप्त कर सकूँ और तेरा हिस्सा बन सकूँ।" ये सभी पहले के अप्रचलित अभ्यास हैं, जो अब पुराने पड़ गए हैं, क्योंकि युग बदल चुका है। पवित्र आत्मा युग के अनुसार कार्य करता है, न कि इच्छानुसार या तय नियमों के अनुसार। युग बदल चुका है और नया युग अनिवार्य रूप से अपने साथ नया काम लेकर आता है। यह कार्य के प्रत्येक चरण के बारे में सच है, इसलिए उसका कार्य कभी दोहराया नहीं जाता। अनुग्रह के युग में यीशु ने इस तरह का बहुत-सा कार्य किया, जैसे कि बीमारियों को चंगा करना, दुष्टात्माओं को निकालना, मनुष्य के लिए प्रार्थना करने हेतु उस पर हाथ रखना, और उसे आशीष देना। किंतु आज दोबारा ऐसा करना निरर्थक होगा। पवित्र आत्मा ने उस समय उस तरह से कार्य किया, क्योंकि वह अनुग्रह का युग था, और मनुष्य के आनंद लेने के लिए पर्याप्त अनुग्रह था। उससे किसी तरह का कोई भुगतान नहीं माँगा गया, और जब तक उसे विश्वास था, वह अनुग्रह प्राप्त कर सकता था। सबके साथ बहुत दयालुता का व्यवहार किया जाता था। अब युग बदल चुका है और परमेश्वर का कार्य आगे बढ़ चुका है; मनुष्य की विद्रोहशीलता को और उसके भीतर की अशुद्धता को ताड़ना और न्याय के माध्यम से दूर किया जाएगा। चूँकि वह छुटकारे का चरण था, इसलिए मनुष्य के आनंद के लिए उस पर पर्याप्त अनुग्रह प्रदर्शित करते हुए परमेश्वर का उस तरह से कार्य करना उचित था, ताकि मनुष्य को पापों से छुटकारा दिलाया जा सके, और अनुग्रह के माध्यम से उसके पाप क्षमा किए जा सकें। यह वर्तमान चरण ताड़ना, न्याय, वचनों के प्रहार, और साथ ही अनुशासन तथा वचनों के प्रकाशन के माध्यम से मनुष्य के भीतर की अधार्मिकता उजागर करने के लिए है, ताकि बाद में मानवजाति को बचाया जा सके। यह कार्य छुटकारे के कार्य से कहीं अधिक गहरा है। अनुग्रह के युग में मनुष्य के आनंद के लिए अनुग्रह पर्याप्त था; अब चूँकि वह पहले ही इस अनुग्रह का अनुभव कर चुका है, इसलिए उसे अब और उसका आनंद नहीं उठाना है। इस कार्य का समय अब चला गया है और यह अब और नहीं किया जाना है। अब मनुष्य को वचन के न्याय के माध्यम से बचाया जाना है। मनुष्य का न्याय, उसकी ताड़ना और उसका शुद्धिकरण होने के पश्चात् इनके परिणामस्वरूप उसका स्वभाव बदल जाता है। क्या यह सब मेरे द्वारा बोले गए वचनों के कारण नहीं है? कार्य का प्रत्येक चरण समूची मानवजाति की प्रगति और युग के अनुसार किया जाता है। समस्त कार्य महत्वपूर्ण है, और यह सब अंतिम उद्धार के लिए किया जाता है, ताकि मानवजाति को भविष्य में एक अच्छी मंज़िल मिल सके, और अंत में मनुष्यों को प्रकार के अनुसार वर्गीकृत किया जा सके।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारण का रहस्य (4)
आज के कार्य ने अनुग्रह के युग के कार्य को आगे बढ़ाया है; अर्थात्, समस्त छह हजार सालों की प्रबंधन योजना का कार्य आगे बढ़ा है। यद्यपि अनुग्रह का युग समाप्त हो गया है, किन्तु परमेश्वर के कार्य ने प्रगति की है। मैं क्यों बार-बार कहता हूँ कि कार्य का यह चरण अनुग्रह के युग और व्यवस्था के युग पर आधारित है? क्योंकि आज का कार्य अनुग्रह के युग में किए गए कार्य की निरंतरता और व्यवस्था के युग में किए गए कार्य की प्रगति है। तीनों चरण आपस में घनिष्ठता से जुड़े हुए हैं और श्रृंखला की हर कड़ी निकटता से अगली कड़ी से जुड़ी है। मैं यह भी क्यों कहता हूँ कि कार्य का यह चरण यीशु द्वारा किए गए कार्य पर आधारित है? मान लो, यह चरण यीशु द्वारा किए गए कार्य पर आधारित न होता, तो फिर इस चरण में क्रूस पर चढ़ाए जाने का कार्य फिर से करना होता, और पहले किए गए छुटकारे के कार्य को फिर से करना पड़ता। यह अर्थहीन होता। इसलिए, ऐसा नही है कि कार्य पूरी तरह समाप्त हो चुका है, बल्कि युग आगे बढ़ गया है, और कार्य के स्तर को पहले से अधिक ऊँचा कर दिया गया है। यह कहा जा सकता है कि कार्य का यह चरण व्यवस्था के युग की नींव और यीशु के कार्य की चट्टान पर निर्मित है। परमेश्वर का कार्य चरण-दर-चरण निर्मित किया जाता है, और यह चरण कोई नई शुरुआत नहीं है। सिर्फ तीनों चरणों के कार्य के संयोजन को ही छह हजार सालों की प्रबंधन योजना माना जा सकता है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, दो देहधारण पूरा करते हैं देहधारण के मायने
परमेश्वर का संपूर्ण प्रबंधन तीन चरणों में विभाजित है, और प्रत्येक चरण में मनुष्य से यथोचित अपेक्षाएँ की जाती हैं। इसके अतिरिक्त, जैसे-जैसे युग बीतते और आगे बढ़ते जाते हैं, परमेश्वर की समस्त मानवजाति से अपेक्षाएँ और अधिक ऊँची होती जाती हैं। इस प्रकार, कदम-दर-कदम परमेश्वर का प्रबंधन अपने चरम पर पहुँचता जाता है, जब तक कि मनुष्य "वचन का देह में प्रकट होना" नहीं देख लेता, और इस तरह मनुष्य से की गई अपेक्षाएँ अधिक ऊँची हो जाती हैं, जैसे कि मनुष्य से गवाही देने की अपेक्षाएँ अधिक ऊँची हो जाती हैं। मनुष्य परमेश्वर के साथ वास्तव में सहयोग करने में जितना अधिक सक्षम होता है, उतना ही अधिक परमेश्वर महिमा प्राप्त करता है। मनुष्य का सहयोग वह गवाही है, जिसे देने की उससे अपेक्षा की जाती है, और जो गवाही वह देता है, वह मनुष्य का अभ्यास है। इसलिए, परमेश्वर के कार्य का उचित प्रभाव हो सकता है या नहीं, और सच्ची गवाही हो सकती है या नहीं, ये अटूट रूप से मनुष्य के सहयोग और गवाही से जुड़े हुए हैं। जब कार्य समाप्त हो जाएगा, अर्थात् जब परमेश्वर का संपूर्ण प्रबंधन अपनी समाप्ति पर पहुँच जाएगा, तो मनुष्य से अधिक ऊँची गवाही देने की अपेक्षा की जाएगी, और जब परमेश्वर का कार्य अपनी समाप्ति पर पहुँच जाएगा, तब मनुष्य का अभ्यास और प्रवेश अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच जाएँगे। अतीत में मनुष्य से व्यवस्था और आज्ञाओं का पालन करना अपेक्षित था, और उससे धैर्यवान और विनम्र बनने की अपेक्षा की जाती थी। आज मनुष्य से अपेक्षा की जाती है कि वह परमेश्वर के समस्त प्रबंधन का पालन करे और परमेश्वर के प्रति सर्वोच्च प्रेम रखे, और अंततः उससे अपेक्षा की जाती है कि वह क्लेश के बीच भी परमेश्वर से प्रेम करे। ये तीन चरण वे अपेक्षाएँ हैं, जो परमेश्वर अपने संपूर्ण प्रबंधन के दौरान कदम-दर-कदम मनुष्य से करता है। परमेश्वर के कार्य का प्रत्येक चरण पिछले चरण की तुलना में अधिक गहरे जाता है, और प्रत्येक चरण में मनुष्य से की जाने वाली अपेक्षाएँ पिछले चरण की तुलना में और अधिक गंभीर होती हैं, और इस तरह, परमेश्वर का संपूर्ण प्रबंधन धीरे-धीरे आकार लेता है। यह ठीक इसलिए है, क्योंकि मनुष्य से की गई अपेक्षाएँ हमेशा इतनी ऊँची होती है कि मनुष्य का स्वभाव परमेश्वर द्वारा अपेक्षित मानकों के निरंतर अधिक नज़दीक आ जाता है, और केवल तभी संपूर्ण मानवजाति धीरे-धीरे शैतान के प्रभाव से अलग होना शुरू करती है; जब तक परमेश्वर का कार्य पूर्ण समाप्ति पर आएगा, संपूर्ण मानवजाति शैतान के प्रभाव से बचा ली गई होगी। जब वह समय आएगा, तो परमेश्वर का कार्य अपनी समाप्ति पर पहुँच चुका होगा, और अपने स्वभाव में परिवर्तन हासिल करने के लिए परमेश्वर के साथ मनुष्य का सहयोग अब नहीं होगा, और संपूर्ण मानवजाति परमेश्वर के प्रकाश में जीएगी, और तब से परमेश्वर के प्रति कोई विद्रोहशीलता या विरोध नहीं होगा। परमेश्वर भी मनुष्य से कोई माँग नहीं करेगा, और मनुष्य और परमेश्वर के बीच अधिक सामंजस्यपूर्ण सहयोग होगा, ऐसा सहयोग जो मनुष्य और परमेश्वर दोनों का एक-साथ जीवन होगा, ऐसा जीवन, जो परमेश्वर के प्रबंधन का पूरी तरह से समापन होने और परमेश्वर द्वारा मनुष्य को शैतान के शिकंजों से पूरी तरह से बचा लिए जाने के बाद आता है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का अभ्यास