यद्यपि यीशु ने मनुष्यों के बीच अधिक कार्य किया, फिर भी उसने केवल समस्त मानवजाति की मुक्ति का कार्य पूरा किया और वह मनुष्य की पाप-बलि बना; उसने मनुष्य को उसके समस्त भ्रष्ट स्वभाव से छुटकारा नहीं दिलाया। मनुष्य को शैतान के प्रभाव से पूरी तरह से बचाने के लिए यीशु को न केवल पाप-बलि बनने और मनुष्य के पाप वहन करने की आवश्यकता थी, बल्कि मनुष्य को उसके शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए स्वभाव से मुक्त करने के लिए परमेश्वर को और भी बड़ा कार्य करने की आवश्यकता थी। और इसलिए, अब जबकि मनुष्य को उसके पापों के लिए क्षमा कर दिया गया है, परमेश्वर मनुष्य को नए युग में ले जाने के लिए वापस देह में लौट आया है, और उसने ताड़ना एवं न्याय का कार्य आरंभ कर दिया है। यह कार्य मनुष्य को एक उच्चतर क्षेत्र में ले गया है। वे सब, जो परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन समर्पण करेंगे, उच्चतर सत्य का आनंद लेंगे और अधिक बड़े आशीष प्राप्त करेंगे। वे वास्तव में ज्योति में निवास करेंगे और सत्य, मार्ग और जीवन प्राप्त करेंगे।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, प्रस्तावना
परमेश्वर इसलिए देहधारी बना क्योंकि उसके कार्य का लक्ष्य शैतान की आत्मा, या कोई अमूर्त चीज़ नहीं, बल्कि मनुष्य है, जो हाड़-माँस का बना है और जिसे शैतान ने भ्रष्ट कर दिया है। चूँकि इंसान की देह को भ्रष्ट कर दिया गया है, इसलिए परमेश्वर ने हाड़-माँस के मनुष्य को अपने कार्य का लक्ष्य बनाया है; इसके अतिरिक्त, चूँकि मनुष्य भ्रष्टता का लक्ष्य है, इसलिए परमेश्वर ने उद्धार-कार्य के समस्त चरणों के दौरान मनुष्य को अपने कार्य का एकमात्र लक्ष्य बनाया है। मनुष्य एक नश्वर प्राणी है, हाड़-माँस और लहू से बना है, और एकमात्र परमेश्वर ही मनुष्य को बचा सकता है। इस तरह, परमेश्वर को अपना कार्य करने के लिए ऐसा देह बनना होगा जिसमें मनुष्य के समान ही गुण हों, ताकि उसका कार्य बेहतर प्रभाव पैदा कर सके। परमेश्वर को अपना कार्य करने के लिए इसलिए देहधारण करना होगा क्योंकि मनुष्य हाड़-माँस से बना है और वह न तो पाप पर विजय पा सकता है और न ही स्वयं को शरीर से अलग कर सकता है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, भ्रष्ट मनुष्यजाति को देहधारी परमेश्वर द्वारा उद्धार की अधिक आवश्यकता है
न्याय का कार्य परमेश्वर का अपना कार्य है, इसलिए स्वाभाविक रूप से इसे परमेश्वर द्वारा ही किया जाना चाहिए; उसकी जगह इसे मनुष्य द्वारा नहीं किया जा सकता। चूँकि न्याय सत्य के माध्यम से मानवजाति को जीतना है, इसलिए परमेश्वर निःसंदेह अभी भी मनुष्यों के बीच इस कार्य को करने के लिए देहधारी छवि के रूप में प्रकट होगा। अर्थात्, अंत के दिनों का मसीह दुनिया भर के लोगों को सिखाने के लिए और उन्हें सभी सच्चाइयों का ज्ञान कराने के लिए सत्य का उपयोग करेगा। यह परमेश्वर के न्याय का कार्य है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है
आज मैं तुम्हारी मलिनता के कारण ही तुम्हारा न्याय कर रहा हूँ, और तुम्हारी भ्रष्टता और विद्रोहशीलता के कारण ही तुम्हें ताड़ना दे रहा हूँ। मैं तुम लोगों के सामने अपने सामर्थ्य की अकड़ नहीं दिखा रहा या जानबूझकर तुम लोगों का दमन नहीं कर रहा; मैं ऐसा इसलिए कर रहा हूँ, क्योंकि इस मलिन धरती पर पैदा हुए तुम लोग मलिनता से बुरी तरह दूषित हो गए हो। तुम लोगों ने अपनी निष्ठा और मानवीयता खो दी है और तुम दुनिया की सबसे मलिन जगह पर पैदा हुए सूअर की तरह बन गए हो, और यही वजह है कि मैं तुम लोगों का न्याय करता हूँ और तुम लोगों पर अपना क्रोध बरसाता हूँ। ठीक इसी न्याय की वजह से तुम लोग यह देख पाए हो कि परमेश्वर धार्मिक परमेश्वर है, और कि परमेश्वर पवित्र परमेश्वर है; ठीक अपनी पवित्रता और धार्मिकता की वजह से ही वह तुम लोगों का न्याय करता है और तुम लोगों पर अपना क्रोध बरसाता है। चूँकि वह मनुष्य की विद्रोहशीलता देखकर अपना धार्मिक स्वभाव प्रकट कर सकता है, और चूँकि मनुष्य की मलिनता देखकर वह अपनी पवित्रता प्रकट कर सकता है, अत: यह यह दिखाने के लिए पर्याप्त है कि वह स्वयं परमेश्वर है, जो पवित्र और प्राचीन है, और फिर भी मलिनता की धरती पर रहता है। यदि कोई व्यक्ति दूसरों के साथ कीचड़ में लोट-पोट करता है, और उसके बारे में कुछ भी पवित्र नहीं है, और उसके पास कोई धार्मिक स्वभाव नहीं है, तो वह मनुष्य के अधर्म का न्याय करने के लिए योग्य नहीं है, और न ही वह मनुष्य के न्याय को कार्यान्वित करने के योग्य है। अगर एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का न्याय करता, तो क्या यह उनका स्वयं को थप्पड़ मारने जैसा नहीं होता? एक-जैसे मलिन व्यक्ति एक-दूसरे का न्याय करने के हकदार कैसे हो सकते हैं? केवल स्वयं पवित्र परमेश्वर ही पूरी मलिन मानव-जाति का न्याय करने में सक्षम है। एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के पापों का न्याय कैसे कर सकता है? एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के पाप कैसे देख सकता है, और वह इन पापों की निंदा करने का पात्र कैसे हो सकता है? अगर परमेश्वर मनुष्य के पापों का न्याय करने का पात्र न होता, तो वह स्वयं धार्मिक परमेश्वर कैसे हो सकता था? जब लोगों के भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होते हैं, तो लोगों का न्याय करने के लिए परमेश्वर बोलता है, और केवल तभी लोग देखते हैं कि वह पवित्र है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, विजय-कार्य के दूसरे चरण के प्रभावों को कैसे प्राप्त किया जाता है
यदि परमेश्वर देह न बना होता, तो वह पवित्रात्मा बना रहता जो मनुष्यों के लिए अदृश्य और अमूर्त दोनों है। चूँकि मनुष्य देह वाला प्राणी है, इसलिए वह और परमेश्वर दो अलग-अलग दुनिया के हैं और अलग-अलग प्रकृति के हैं। परमेश्वर का आत्मा देह वाले मनुष्य से बेमेल है, और उनके बीच संबंध स्थापित किए जाने का कोई उपाय ही नहीं है, और इसका तो जिक्र ही क्या करना कि मनुष्य आत्मा नहीं बन सकता। ऐसा होने के कारण, अपना मूल काम करने के लिए परमेश्वर के आत्मा को एक सृजित प्राणी बनना आवश्यक है। परमेश्वर दोनों काम कर सकता है, वह सबसे ऊँचे स्थान पर भी चढ़ सकता है और मनुष्यों के बीच कार्य करने और उनके बीच रहने के लिए अपने आपको विनम्र भी कर सकता है, किंतु मनुष्य सबसे ऊँचे स्थान पर नहीं चढ़ सकता और पवित्रात्मा नहीं बन सकता, और वह निम्नतम स्थान में तो बिलकुल भी नहीं उतर सकता। इसीलिए अपना कार्य करने हेतु परमेश्वर का देह बनना आवश्यक है। इसी प्रकार, प्रथम देहधारण के दौरान, केवल देहधारी परमेश्वर का देह ही सलीब पर चढ़ने के माध्यम से मनुष्य को छुटकारा दे सकता था, जबकि परमेश्वर के आत्मा के पास मनुष्य के लिए पापबलि के रूप में सलीब पर चढ़ने का कोई उपाय नहीं था। परमेश्वर मनुष्य के लिए एक पापबलि के रूप में कार्य करने के लिए सीधे देह बन सकता था, किंतु मनुष्य परमेश्वर द्वारा अपने लिए तैयार की गई पापबलि लेने के लिए सीधे स्वर्ग में आरोहण नहीं कर सकता था। ऐसा होने के कारण, मनुष्य द्वारा इस उद्धार को लेने के लिए स्वर्ग में आरोहण करने के बजाय, यही संभव था कि परमेश्वर से कुछ बार स्वर्ग और पृथ्वी के बीच आने-जाने का आग्रह किया जाए, क्योंकि मनुष्य पतित हो चुका था, और इससे भी बढ़कर, वह स्वर्ग में आरोहण नहीं कर सकता था, और पापबलि तो बिलकुल भी प्राप्त नहीं कर सकता था। इसलिए, यीशु के लिए मनुष्यों के बीच आना और व्यक्तिगत रूप से उस कार्य को करना आवश्यक था, जिसे मनुष्य द्वारा पूरा किया ही नहीं जा सकता था। हर बार जब परमेश्वर देह बनता है, तब यह परम आवश्यकता के कारण होता है। यदि किसी भी चरण को परमेश्वर के आत्मा द्वारा सीधे संपन्न किया जा सकता, तो वह देहधारी होने का अनादर सहन न करता।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारण का रहस्य (4)
यह ठीक इसलिए है, क्योंकि शैतान ने मनुष्य की देह को भ्रष्ट कर दिया है और मनुष्य ही वह प्राणी है जिसे परमेश्वर बचाना चाहता है, और इसलिए भी कि परमेश्वर को शैतान के साथ युद्ध करने और व्यक्तिगत रूप से मनुष्य की चरवाही करने के लिए देह धारण करनी चाहिए। केवल यही उसके कार्य के लिए लाभदायक है। परमेश्वर के दो देहधारी रूप शैतान को हराने के लिए, और मनुष्य को बेहतर ढंग से बचाने के लिए भी, अस्तित्व में रहे हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि जो शैतान के साथ युद्ध कर रहा है, वह केवल परमेश्वर ही हो सकता है, चाहे वह परमेश्वर का आत्मा हो या परमेश्वर का देहधारी रूप। संक्षेप में, शैतान के साथ युद्ध करने वाले स्वर्गदूत नहीं हो सकते, और वह मनुष्य तो बिलकुल नहीं हो सकता, जिसे शैतान द्वारा भ्रष्ट किया जा चुका है। यह युद्ध लड़ने में स्वर्गदूत निर्बल हैं, और मनुष्य तो और भी अधिक अशक्त है। इसलिए, यदि परमेश्वर मनुष्य के जीवन में कार्य करना चाहता है, यदि वह मनुष्य को बचाने के लिए व्यक्तिगत रूप से पृथ्वी पर आना चाहता है, तो उसे व्यक्तिगत रूप से देह बनना होगा—अर्थात् उसे व्यक्तिगत रूप से देह धारण करना होगा, और अपनी अंतर्निहित पहचान तथा उस कार्य के साथ, जिसे उसे अवश्य करना चाहिए, मनुष्य के बीच आना होगा और व्यक्तिगत रूप से मनुष्य को बचाना होगा। अन्यथा, यदि वह परमेश्वर का आत्मा या मनुष्य होता, जो यह कार्य करता, तो इस युद्ध से कभी कुछ न निकलता, और यह कभी समाप्त न होता। जब परमेश्वर मनुष्य के बीच व्यक्तिगत रूप से शैतान के साथ युद्ध करने के लिए देह बनता है, केवल तभी मनुष्य के पास उद्धार का एक अवसर होता है। इसके अतिरिक्त, केवल तभी शैतान लज्जित होता है, और उसके पास लाभ उठाने के लिए कोई अवसर नहीं होता या कार्यान्वित करने के लिए कोई योजना नहीं बचती। देहधारी परमेश्वर द्वारा किया जाने वाला कार्य परमेश्वर के आत्मा के द्वारा अप्राप्य है, और परमेश्वर की ओर से किसी दैहिक मनुष्य द्वारा उसे किया जाना तो और भी अधिक असंभव है, क्योंकि जो कार्य वह करता है, वह मनुष्य के जीवन के वास्ते और मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव को बदलने के लिए है। यदि मनुष्य इस युद्ध में भाग लेता, तो उसकी दुर्गति हो जाती और वह भाग जाता, और अपने भ्रष्ट स्वभाव को बदलने में एकदम असमर्थ रहता। वह सलीब से मनुष्य को बचाने या संपूर्ण विद्रोही मानव-जाति पर विजय प्राप्त करने में असमर्थ होता, केवल थोड़ा-सा पुराना कार्य करने में सक्षम होता जो सिद्धांतों से परे नहीं जाता, या कोई और कार्य, जिसका शैतान की पराजय से कोई संबंध नहीं है। तो परेशान क्यों हुआ जाए? उस कार्य का क्या महत्व है, जो मानव-जाति को प्राप्त न कर सकता हो, और शैतान को पराजित तो बिलकुल न कर सकता हो? और इसलिए, शैतान के साथ युद्ध केवल स्वयं परमेश्वर द्वारा ही किया जा सकता है, और इसे मनुष्य द्वारा किया जाना पूरी तरह से असंभव होगा। मनुष्य का कर्तव्य आज्ञापालन करना और अनुसरण करना है, क्योंकि मनुष्य स्वर्ग और धरती के सृजन के समान कार्य करने में असमर्थ है, इसके अतिरिक्त, न ही वह शैतान के साथ युद्ध करने का कार्य कर सकता है। मनुष्य केवल स्वयं परमेश्वर की अगुआई के तहत ही सृजनकर्ता को संतुष्ट कर सकता है, जिसके माध्यम से शैतान पराजित होता है; केवल यही वह एकमात्र कार्य है जो मनुष्य कर सकता है। और इसलिए, हर बार जब एक नया युद्ध आरंभ होता है, अर्थात् हर बार जब नए युग का कार्य शुरू होता है, तो इस कार्य को स्वयं परमेश्वर द्वारा व्यक्तिगत रूप से किया जाता है, जिसके माध्यम से वह संपूर्ण युग की अगुआई करता है, और संपूर्ण मानव-जाति के लिए एक नया मार्ग प्रशस्त करता है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के सामान्य जीवन को बहाल करना और उसे एक अद्भुत मंज़िल पर ले जाना
जो लोग देह में जीवन बिताते हैं उन सभी के लिए, अपने स्वभाव को परिवर्तित करने के लिए ऐसे लक्ष्यों की आवश्यकता होती है जिनका अनुसरण किया जा सके, और परमेश्वर को जानने के लिए आवश्यक है परमेश्वर के वास्तविक कर्मों एवं वास्तविक चेहरे को देखना। दोनों को सिर्फ परमेश्वर के देहधारी रूप से ही प्राप्त किया जा सकता है, दोनों को सिर्फ साधारण और वास्तविक देह से ही पूरा किया जा सकता है। इसीलिए देहधारण ज़रूरी है, और इसीलिए पूरी तरह से भ्रष्ट मनुष्यजाति को इसकी आवश्यकता है। चूँकि लोगों से अपेक्षा की जाती है कि वे परमेश्वर को जानें, इसलिए अस्पष्ट और अलौकिक परमेश्वरों की छवि को उनके हृदय से दूर हटाया जाना चाहिए, और चूँकि उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करें, इसलिए उन्हें पहले अपने भ्रष्ट स्वभाव को पहचानना चाहिए। यदि लोगों के हृदय से अस्पष्ट परमेश्वरों की छवि को हटाने का कार्य केवल मनुष्य करे, तो वह उपयुक्त प्रभाव प्राप्त करने में असफल हो जाएगा। लोगों के हृदय से अस्पष्ट परमेश्वर की छवि को केवल वचनों से उजागर, दूर या पूरी तरह से निकाला नहीं जा सकता। ऐसा करने से, अंततः इन गहरी समाई चीज़ों को लोगों से हटाना तब भी संभव नहीं होगा। केवल इन अस्पष्ट और अलौकिक चीज़ों की जगह व्यावहारिक परमेश्वर और परमेश्वर की सच्ची छवि को रख कर, और लोगों को धीरे-धीरे इन्हें ज्ञात करवा कर ही उचित प्रभाव प्राप्त किया जा सकता है। मनुष्य को एहसास होता है कि जिस परमेश्वर को वह पहले से खोजता रहा है वह अस्पष्ट और अलौकिक है। पवित्रात्मा की प्रत्यक्ष अगुवाई इस प्रभाव को प्राप्त नहीं कर सकती, किसी व्यक्ति विशेष की नहीं बल्कि देहधारी परमेश्वर की शिक्षाएँ ऐसा कर सकती हैं। मनुष्य की धारणाएँ तब उजागर होती हैं जब देहधारी परमेश्वर आधिकारिक रूप से अपना कार्य करता है, क्योंकि देहधारी परमेश्वर की सामान्यता और वास्तविकता मनुष्य की कल्पना के अस्पष्ट एवं अलौकिक परमेश्वर से विपरीत हैं। मनुष्य की मूल धारणाएँ तो तभी उजागर हो सकती हैं जब उनकी देहधारी परमेश्वर से तुलना की जाये। देहधारी परमेश्वर से तुलना के बिना, मनुष्य की धारणाओं को उजागर नहीं किया जा सकता; दूसरे शब्दों में, वास्तविकता की विषमता के बिना अस्पष्ट चीज़ों को उजागर नहीं किया जा सकता। इस कार्य को करने के लिए कोई भी वचनों का उपयोग करने में सक्षम नहीं है, और कोई भी वचनों का उपयोग करके इस कार्य को स्पष्टता से व्यक्त करने में सक्षम नहीं है। केवल स्वयं परमेश्वर ही अपना कार्य कर सकता है, अन्य कोई उसकी ओर से इस कार्य को नहीं कर सकता। मनुष्य की भाषा कितनी भी समृद्ध क्यों न हो, वह परमेश्वर की वास्तविकता और सामान्यता को स्पष्टता से व्यक्त करने में असमर्थ है। यदि परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से मनुष्य के बीच कार्य करे और अपनी छवि और अपने स्वरूप को पूरी तरह से प्रकट करे, तभी मनुष्य अधिक व्यावहारिकता से परमेश्वर को जान सकता है और अधिक स्पष्टता से देख सकता है। इस प्रभाव को कोई हाड़-माँस का इंसान प्राप्त नहीं कर सकता। निस्संदेह, परमेश्वर का आत्मा भी इस प्रभाव को प्राप्त करने में असमर्थ है। परमेश्वर भ्रष्ट मनुष्य को शैतान के प्रभाव से बचा सकता है, परन्तु इस कार्य को सीधे तौर पर परमेश्वर के आत्मा के द्वारा सम्पन्न नहीं किया जा सकता; इसे केवल उस देह के द्वारा सम्पन्न किया जा सकता है जिसे परमेश्वर का आत्मा पहनता है, अर्थात् देहधारी परमेश्वर के देह द्वारा सम्पन्न किया जा सकता है। यह देह मनुष्य भी है और परमेश्वर भी, यह एक सामान्य मानवता धारण किए हुए मनुष्य है और दिव्यता धारण किए हुए परमेश्वर भी है। और इसलिए, हालाँकि यह देह परमेश्वर का आत्मा नहीं है, और पवित्रात्मा से बिल्कुल भिन्न है, फिर भी वह देहधारी स्वयं परमेश्वर है जो मनुष्य को बचाता है, जो पवित्रात्मा है और देह भी है। उसे किसी भी नाम से पुकारो, आखिर वह है स्वयं परमेश्वर ही जो मनुष्यजाति को बचाता है। क्योंकि परमेश्वर का आत्मा देह से अविभाज्य है, और देह का कार्य भी परमेश्वर के आत्मा का कार्य है; अंतर बस इतना ही है कि इस कार्य को पवित्रात्मा की पहचान का उपयोग करके नहीं किया जाता, बल्कि देह की पहचान का उपयोग करके किया जाता है। सीधे तौर पर पवित्रात्मा द्वारा किए जाने वाले कार्य में देहधारण की आवश्यकता नहीं होती, और जिस कार्य को करने के लिए देह की आवश्यकता होती है उसे पवित्रात्मा द्वारा सीधे तौर पर नहीं किया जा सकता, उसे केवल देहधारी परमेश्वर द्वारा ही किया जा सकता है। इस कार्य के लिए इसी की आवश्यकता होती है, और भ्रष्ट इंसान को भी इसी की आवश्यकता है। परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों में, पवित्रात्मा द्वारा केवल एक ही चरण सीधे तौर पर सम्पन्न किया गया था, और शेष दो चरणों को देहधारी परमेश्वर द्वारा सम्पन्न किया जाता है, न कि सीधे पवित्रात्मा द्वारा। पवित्रात्मा द्वारा व्यवस्था के युग में किए गए कार्य में मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव को परिवर्तित करना शामिल नहीं था, और न ही इसका परमेश्वर के बारे में मनुष्य के ज्ञान से कोई सम्बन्ध था। हालाँकि, अनुग्रह के युग में और राज्य के युग में परमेश्वर के देह के कार्य में, मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव और परमेश्वर के बारे में उसका ज्ञान शामिल है, और उद्धार के कार्य का एक महत्वपूर्ण और निर्णायक हिस्सा है। इसलिए, भ्रष्ट मनुष्यजाति को देहधारी परमेश्वर के उद्धार और प्रत्यक्ष कार्य की और भी अधिक आवश्यकता है। मनुष्य को इस बात की आवश्यकता है कि देहधारी परमेश्वर उसकी चरवाही करे, उसे समर्थन दे, उसका सिंचन और पोषण करे, उसका न्याय करे, उसे ताड़ना दे। उसे देहधारी परमेश्वर से और अधिक अनुग्रह तथा बड़े छुटकारे की आवश्यकता है। केवल देह में प्रकट परमेश्वर ही मनुष्य का विश्वासपात्र, उसका चरवाहा, उसकी हर वक्त मौजूद सहायता बन सकता है, और यह सब वर्तमान और अतीत दोनों के ही देहधारण की आवश्यकताएँ हैं।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, भ्रष्ट मनुष्यजाति को देहधारी परमेश्वर द्वारा उद्धार की अधिक आवश्यकता है
परमेश्वर की संपूर्ण प्रबंधन योजना का कार्य व्यक्तिगत रूप से स्वयं परमेश्वर द्वारा किया जाता है। प्रथम चरण—संसार का सृजन—परमेश्वर द्वारा व्यक्तिगत रूप से किया गया था, और यदि ऐसा न किया जाता, तो कोई भी मनुष्य का सृजन कर पाने में सक्षम न हुआ होता; दूसरा चरण संपूर्ण मानव-जाति के छुटकारे का था, और उसे भी देहधारी परमेश्वर द्वारा व्यक्तिगत रूप से कार्यान्वित किया गया था; तीसरा चरण स्वत: स्पष्ट है : परमेश्वर के संपूर्ण कार्य के अंत को स्वयं परमेश्वर द्वारा किए जाने की और भी अधिक आवश्यकता है। संपूर्ण मानव-जाति के छुटकारे, उस पर विजय पाने, उसे प्राप्त करने, और उसे पूर्ण बनाने का समस्त कार्य स्वयं परमेश्वर द्वारा व्यक्तिगत रूप से किया जाता है। यदि वह व्यक्तिगत रूप से इस कार्य को न करता, तो मनुष्य द्वारा उसकी पहचान नहीं दर्शाई जा सकती थी, न ही उसका कार्य मनुष्य द्वारा किया जा सकता था। शैतान को हराने, मानव-जाति को प्राप्त करने, और मनुष्य को पृथ्वी पर एक सामान्य जीवन प्रदान करने के लिए वह व्यक्तिगत रूप से मनुष्य की अगुआई करता है और व्यक्तिगत रूप से मनुष्यों के बीच कार्य करता है; अपनी संपूर्ण प्रबधंन योजना के वास्ते और अपने संपूर्ण कार्य के लिए उसे व्यक्तिगत रूप से इस कार्य को करना चाहिए। यदि मनुष्य केवल यह विश्वास करता है कि परमेश्वर इसलिए आया था कि मनुष्य उसे देख सके, या वह मनुष्य को खुश करने के लिए आया था, तो ऐसे विश्वास का कोई मूल्य, कोई महत्व नहीं है। मनुष्य की समझ बहुत ही सतही है! केवल इसे स्वयं कार्यान्वित करके ही परमेश्वर इस कार्य को अच्छी तरह से और पूरी तरह से कर सकता है। मनुष्य इसे परमेश्वर की ओर से करने में असमर्थ है। चूँकि उसके पास परमेश्वर की पहचान या उसका सार नहीं है, इसलिए वह पमेश्वर का कार्य करने में असमर्थ है, और यदि मनुष्य इसे करता भी, तो इसका कोई प्रभाव नहीं होता। पहली बार जब परमेश्वर ने देहधारण किया था, तो वह छुटकारे के वास्ते था, संपूर्ण मानव-जाति को पाप से छुटकारा देने के लिए था, मनुष्य को शुद्ध किए जाने और उसे उसके पापों से क्षमा किए जाने में सक्षम बनाने के लिए था। विजय का कार्य भी परमेश्वर द्वारा मनुष्यों के बीच व्यक्तिगत रूप से किया जाता है। इस चरण के दौरान यदि परमेश्वर को केवल भविष्यवाणी ही करनी होती, तो किसी भविष्यवक्ता या किसी प्रतिभाशाली व्यक्ति को उसका स्थान लेने के लिए ढूँढ़ा जा सकता था; यदि केवल भविष्यवाणी ही कहनी होती, तो मनुष्य परमेश्वर की जगह ले सकता था। किंतु यदि मनुष्य व्यक्तिगत रूप से स्वयं परमेश्वर का कार्य करने की कोशिश करता और मनुष्य के जीवन का कार्य करने का प्रयास करता, तो उसके लिए इस कार्य को करना असंभव होता। इसे व्यक्तिगत रूप से स्वयं परमेश्वर द्वारा ही किया जाना चाहिए : इस कार्य को करने के लिए परमेश्वर को व्यक्तिगत रूप से देह बनना चाहिए। वचन के युग में, यदि केवल भविष्यवाणी ही कही जाती, तो इस कार्य को करने के लिए नबी यशायाह या एलिय्याह को ढूँढ़ा जा सकता था, और इसे व्यक्तिगत रूप से करने के लिए स्वयं परमेश्वर की कोई आवश्यकता न होती। चूँकि इस चरण में किया जाने वाला कार्य मात्र भविष्यवाणी कहना नहीं है, और चूँकि इस बात का अत्यधिक महत्व है कि वचनों के कार्य का उपयोग मनुष्य पर विजय पाने और शैतान को पराजित करने के लिए किया जाता है, इसलिए इस कार्य को मनुष्य द्वारा नहीं किया जा सकता, और इसे स्वयं परमेश्वर द्वारा व्यक्तिगत रूप से किया जाना चाहिए। व्यवस्था के युग में यहोवा ने अपने कार्य का एक भाग किया था, जिसके पश्चात् उसने कुछ वचन कहे और नबियों के जरिये कुछ कार्य किया। ऐसा इसलिए है, क्योंकि मनुष्य यहोवा के कार्य में उसका स्थान ले सकता था, और भविष्यद्रष्टा उसकी ओर से चीज़ों की भविष्यवाणी और कुछ स्वप्नों की व्याख्या कर सकते थे। आरंभ में किया गया कार्य सीधे-सीधे मनुष्य के स्वभाव को परिवर्तित करने का कार्य नहीं था, और वह मनुष्य के पाप से संबंध नहीं रखता था, और मनुष्य से केवल व्यवस्था का पालन करने की अपेक्षा की गई थी। अतः यहोवा देह नहीं बना और उसने स्वयं को मनुष्य पर प्रकट नहीं किया; इसके बजाय उसने मूसा और अन्य लोगों से सीधे बातचीत की, उनसे बुलवाया और अपने स्थान पर कार्य करवाया, और उनसे मानव-जाति के बीच सीधे तौर पर कार्य करवाया। परमेश्वर के कार्य का पहला चरण मनुष्य की अगुआई का था। यह शैतान के विरुद्ध युद्ध का आरंभ था, किंतु यह युद्ध आधिकारिक रूप से शुरू होना बाक़ी था। शैतान के विरुद्ध आधिकारिक युद्ध परमेश्वर के प्रथम देहधारण के साथ आरंभ हुआ, और यह आज तक जारी है। इस युद्ध की पहली लड़ाई तब हुई, जब देहधारी परमेश्वर को सलीब पर चढ़ाया गया। देहधारी परमेश्वर के सलीब पर चढ़ाए जाने ने शैतान को पराजित कर दिया, और यह युद्ध में प्रथम सफल चरण था। जब देहधारी परमेश्वर ने मनुष्य के जीवन में सीधे कार्य करना आरंभ किया, तो यह मनुष्य को पुनः प्राप्त करने के कार्य की आधिकारिक शुरुआत थी, और चूँकि यह मनुष्य के पुराने स्वभाव को परिवर्तित करने का कार्य था, इसलिए यह शैतान के साथ युद्ध करने का कार्य था। आरंभ में यहोवा द्वारा किए गए कार्य का चरण पृथ्वी पर मनुष्य के जीवन की अगुआई मात्र था। यह परमेश्वर के कार्य का आरंभ था, और हालाँकि इसमें अभी कोई युद्ध या कोई बड़ा कार्य शामिल नहीं हुआ था, फिर भी इसने आने वाले युद्ध के कार्य की नींव डाली थी। बाद में, अनुग्रह के युग के दौरान दूसरे चरण के कार्य में मनुष्य के पुराने स्वभाव को परिवर्तित करना शामिल था, जिसका अर्थ है कि स्वयं परमेश्वर ने मनुष्य के जीवन को गढ़ा था। इसे परमेश्वर द्वारा व्यक्तिगत रूप से किया जाना था : इसमें अपेक्षित था कि परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से देह बन जाए। यदि वह देह न बनता, तो कार्य के इस चरण में कोई अन्य उसका स्थान नहीं ले सकता था, क्योंकि यह शैतान के विरुद्ध सीधी लड़ाई के कार्य को दर्शाता था। यदि परमेश्वर की ओर से मनुष्य ने यह कार्य किया होता, तो जब मनुष्य शैतान के सामने खड़ा होता, तो शैतान ने समर्पण न किया होता और उसे हराना असंभव हो गया होता। देहधारी परमेश्वर को ही उसे हराने के लिए आना था, क्योंकि देहधारी परमेश्वर का सार फिर भी परमेश्वर है, वह फिर भी मनुष्य का जीवन है, और वह फिर भी सृजनकर्ता है; कुछ भी हो, उसकी पहचान और सार नहीं बदलेगा। और इसलिए, उसने देहधारण किया और शैतान से संपूर्ण समर्पण करवाने के लिए कार्य किया। अंत के दिनों के कार्य के चरण के दौरान, यदि मनुष्य को यह कार्य करना होता और उससे सीधे तौर पर वचनों को बुलवाया जाता, तो वह उन्हें बोलने में असमर्थ होता, और यदि भविष्यवाणी कही जाती, तो यह भविष्यवाणी मनुष्य पर विजय पाने में असमर्थ होती। देहधारण करके परमेश्वर शैतान को हराने और उससे संपूर्ण समर्पण करवाने के लिए आता है। जब वह शैतान को पूरी तरह से पराजित कर लेगा, पूरी तरह से मनुष्य पर विजय पा लेगा और मनुष्य को पूरी तरह से प्राप्त कर लेगा, तो कार्य का यह चरण पूरा हो जाएगा और सफलता प्राप्त कर ली जाएगी। परमेश्वर के प्रबधंन में मनुष्य परमेश्वर का स्थान नहीं ले सकता। विशेष रूप से, युग की अगुआई करने और नया कार्य आरंभ करने का काम स्वयं परमेश्वर द्वारा व्यक्तिगत रूप से किए जाने की और भी अधिक आवश्यकता है। मनुष्य को प्रकाशन देना और उसे भविष्यवाणी प्रदान करना मनुष्य द्वारा किया जा सकता है, किंतु यदि यह ऐसा कार्य है जिसे व्यक्तिगत रूप से परमेश्वर द्वारा किया जाना चाहिए, अर्थात् स्वयं परमेश्वर और शैतान के बीच युद्ध का कार्य, तो इस कार्य को मनुष्य द्वारा नहीं किया जा सकता। कार्य के प्रथम चरण के दौरान, जब शैतान के साथ कोई युद्ध नहीं था, तब यहोवा ने नबियों द्वारा बोली गई भविष्यवाणियों का उपयोग करके व्यक्तिगत रूप से इस्राएल के लोगों की अगुआई की थी। उसके बाद, कार्य का दूसरा चरण शैतान के साथ युद्ध था, और स्वयं परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से देह बना और इस कार्य को करने के लिए देह में आया। जिस भी चीज़ में शैतान के साथ युद्ध शामिल होता है, उसमें परमेश्वर का देहधारण भी शामिल होता है, जिसका अर्थ है कि यह युद्ध मनुष्य द्वारा नहीं किया जा सकता। यदि मनुष्य को युद्ध करना पड़ता, तो वह शैतान को पराजित करने में असमर्थ होता। उसके पास उसके विरुद्ध लड़ने की ताक़त कैसे हो सकती है, जबकि वह अभी भी उसके अधिकार-क्षेत्र के अधीन है? मनुष्य बीच में है : यदि तुम शैतान की ओर झुकते हो तो तुम शैतान से संबंधित हो, किंतु यदि तुम परमेश्वर को संतुष्ट करते हो, तो तुम परमेश्वर से संबंधित हो। यदि इस युद्ध के कार्य में मनुष्य को प्रयास करना होता और उसे परमेश्वर का स्थान लेना होता, तो क्या वह कर पाता? यदि वह युद्ध करता, तो क्या वह बहुत पहले ही नष्ट नहीं हो गया होता? क्या वह बहुत पहले ही नरक में नहीं समा गया होता? इसलिए, परमेश्वर के कार्य में मनुष्य उसका स्थान लेने में अक्षम है, जिसका तात्पर्य है कि मनुष्य के पास परमेश्वर का सार नहीं है, और यदि तुम शैतान के साथ युद्ध करते, तो तुम उसे पराजित करने में अक्षम होते। मनुष्य केवल कुछ कार्य ही कर सकता है; वह कुछ लोगों को जीत सकता है, किंतु वह स्वयं परमेश्वर के कार्य में परमेश्वर का स्थान नहीं ले सकता। मनुष्य शैतान के साथ युद्ध कैसे कर सकता है? तुम्हारे शुरुआत करने से पहले ही शैतान ने तुम्हें बंदी बना लिया होता। केवल जब स्वयं परमेश्वर ही शैतान के साथ युद्ध करता है और मनुष्य इस आधार पर परमेश्वर का अनुसरण और आज्ञापालन करता है, तभी परमेश्वर द्वारा मनुष्य को प्राप्त किया जा सकता है और वह शैतान के बंधनों से बच सकता है। मनुष्य द्वारा अपनी स्वयं की बुद्धि और योग्यताओं से प्राप्त की जा सकने वाली चीज़ें बहुत ही सीमित हैं; वह मनुष्य को पूर्ण बनाने, उसकी अगुआई करने, और, इसके अतिरिक्त, शैतान को हराने में असमर्थ है। मनुष्य की प्रतिभा और बुद्धि शैतान के षड्यंत्रों को नाकाम करने में असमर्थ हैं, इसलिए मनुष्य उसके साथ युद्ध कैसे कर सकता है?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के सामान्य जीवन को बहाल करना और उसे एक अद्भुत मंज़िल पर ले जाना