स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II

परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव भाग एक

अब जबकि तुम लोग पिछली सहभागिता में परमेश्वर के अधिकार के बारे में सुन चुके हो, मैं आश्वस्त हूँ कि तुम लोग इस मुद्दे पर काफ़ी वचनों से लैस हो गए हो। तुम लोग कितना स्वीकार कर सकते हो, कितना समझ-बूझ सकते हो, यह सब इस पर निर्भर करता है कि तुम लोग इसके लिए कितना प्रयास करते हो। मैं आशा करता हूँ कि तुम लोग इस मुद्दे को ईमानदारी से समझ सकते हो; किसी भी हालत में तुम लोगों को इसमें आधे-अधूरे मन से संलग्न नहीं होना चाहिए। अब, परमेश्वर के अधिकार को जानना क्या परमेश्वर की संपूर्णता को जानने के बराबर है? कहा जा सकता है कि परमेश्वर के अधिकार को जानना स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है, को जानने की शुरुआत है, और यह भी कहा जा सकता है कि परमेश्वर के अधिकार को जानने का अर्थ है कि व्यक्ति पहले ही स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है, के सार को जानने के द्वार के भीतर प्रवेश कर चुका है। यह समझ परमेश्वर को जानने का एक भाग है। तो फिर, दूसरा भाग क्या है? परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव—यह वह विषय है, जिस पर मैं आज सहभागिता करना चाहूँगा।

आज के विषय पर सहभागिता करने के लिए मैंने बाइबल से दो खंडों का चयन किया है : पहला खंड परमेश्वर द्वारा सदोम के विनाश से संबंधित है, जिसे उत्पत्ति 19:1-11 और उत्पत्ति 19:24-25 में पाया जा सकता है; दूसरा खंड परमेश्वर द्वारा नीनवे के छुटकारे से संबंधित है, जिसे योना की पुस्तक के तीसरे और चौथे अध्यायों के अतिरिक्त योना 1:1-2 में पाया जा सकता है। मुझे महसूस हो रहा है कि तुम लोग यह सुनने का इंतज़ार कर रहे हो कि मुझे इन दो खंडों के बारे में क्या कहना है। जो कुछ मैं कहता हूँ, स्वभावत: वह स्वयं परमेश्वर और उसके सार को जानने के दायरे से बाहर नहीं जा सकता, किंतु आज की सहभागिता का केंद्रीय मुद्दा क्या होगा? क्या तुम लोगों में से कोई जानता है? परमेश्वर के अधिकार के बारे में मेरी सहभागिता के किन भागों ने तुम लोगों का ध्यान खींचा है? मैंने क्यों कहा था कि केवल वही स्वयं परमेश्वर है, जो ऐसा अधिकार और सामर्थ्य रखता है? यह कहकर मैं क्या समझाना चाहता था? मैं तुम लोगों को क्या बताना चाहता था? क्या परमेश्वर का अधिकार और सामर्थ्य उसके सार की अभिव्यक्ति के ढंग का एक पहलू हैं? क्या वे उसके सार का एक हिस्‍सा हैं, वह हिस्सा, जो उसकी पहचान और स्थिति को प्रमाणित करता है? क्या इन प्रश्नों से आकलन करके तुम लोग बता सकते हो कि मैं क्या कहने जा रहा हूँ? मैं तुम लोगों को क्या समझाना चाहता हूँ? इस पर ध्यानपूर्वक विचार करो।

हठधर्मी से परमेश्वर का विरोध करने से मनुष्य परमेश्वर के कोप से नष्‍ट हो जाता है

पहले, आओ हम पवित्रशास्त्र के वे अंश देखें, जो परमेश्वर द्वारा सदोम के विनाश का वर्णन करते हैं।

उत्पत्ति 19:1-11 साँझ को वे दो दूत सदोम के पास आए; और लूत सदोम के फाटक के पास बैठा था। उन को देखकर वह उनसे भेंट करने के लिये उठा, और मुँह के बल झुककर दण्डवत् कर कहा, "हे मेरे प्रभुओ, अपने दास के घर में पधारिए, और रात भर विश्राम कीजिए, और अपने पाँव धोइये, फिर भोर को उठकर अपने मार्ग पर जाइए।" उन्होंने कहा, "नहीं, हम चौक ही में रात बिताएँगे।" पर उसने उनसे बहुत विनती करके उन्हें मनाया; इसलिये वे उसके साथ चलकर उसके घर में आए; और उसने उनके लिये भोजन तैयार किया, और बिना खमीर की रोटियाँ बनाकर उनको खिलाईं। उनके सो जाने से पहले, सदोम नगर के पुरुषों ने, जवानों से लेकर बूढ़ों तक, वरन् चारों ओर के सब लोगों ने आकर उस घर को घेर लिया; और लूत को पुकारकर कहने लगे, "जो पुरुष आज रात को तेरे पास आए हैं वे कहाँ हैं? उनको हमारे पास बाहर ले आ कि हम उनसे भोग करें।" तब लूत उनके पास द्वार के बाहर गया, और किवाड़ को अपने पीछे बन्द करके कहा, "हे मेरे भाइयो, ऐसी बुराई न करो। सुनो, मेरी दो बेटियाँ हैं जिन्होंने अब तक पुरुष का मुँह नहीं देखा; इच्छा हो तो मैं उन्हें तुम्हारे पास बाहर ले आऊँ, और तुम को जैसा अच्छा लगे वैसा व्यवहार उनसे करो; पर इन पुरुषों से कुछ न करो; क्योंकि ये मेरी छत तले आए हैं।" उन्होंने कहा, "हट जा!" फिर वे कहने लगे, "तू एक परदेशी होकर यहाँ रहने के लिये आया, पर अब न्यायी भी बन बैठा है; इसलिये अब हम उनसे भी अधिक तेरे साथ बुराई करेंगे।" और वे उस पुरुष लूत को बहुत दबाने लगे, और किवाड़ तोड़ने के लिये निकट आए। तब उन अतिथियों ने हाथ बढ़ाकर लूत को अपने पास घर में खींच लिया, और किवाड़ को बन्द कर दिया। और उन्होंने क्या छोटे, क्या बड़े, सब पुरुषों को जो घर के द्वार पर थे, अन्धा कर दिया, अत: वे द्वार को टटोलते टटोलते थक गए।

उत्पत्ति 19:24-25 तब यहोवा ने अपनी ओर से सदोम और अमोरा पर आकाश से गन्धक और आग बरसाई; और उन नगरों को और उस सम्पूर्ण तराई को, और नगरों के सब निवासियों को, भूमि की सारी उपज समेत नष्‍ट कर दिया।

इन अंशों से यह देखना कठिन नहीं है कि सदोम का अधर्म और भ्रष्टता पहले ही उस मात्रा तक पहुँच चुकी थी, जो मनुष्य और परमेश्वर दोनों के लिए घृणास्पद थी, और इसलिए परमेश्वर की दृष्टि में नगर नष्ट किए जाने के लायक था। परंतु नगर को नष्ट किए जाने से पहले उसके भीतर क्या हुआ था? लोग इन घटनाओं से क्या प्रेरणा ले सकते हैं? इन घटनाओं के प्रति परमेश्वर का रवैया उसके स्वभाव के संबंध में लोगों को क्या दिखाता है? पूरी कहानी समझने के लिए, आओ हम ध्यान से पढ़ें कि पवित्रशास्त्र में क्या दर्ज किया गया था ...

सदोम की भ्रष्टता : मनुष्य को क्रोधित करने वाली, परमेश्वर का कोप भड़काने वाली

उस रात लूत ने परमेश्वर के दो दूतों का स्वागत किया और उनके लिए एक भोज तैयार किया। रात्रि-भोजन के बाद, उनके लेटने से पहले, नगर भर के लोगों ने लूत के घर को घेर लिया और उसे बाहर बुलाने लगे। पवित्रशास्त्र में उनका यह कथन दर्ज है, "जो पुरुष आज रात को तेरे पास आए हैं वे कहाँ हैं? उनको हमारे पास बाहर ले आ कि हम उनसे भोग करें।" ये शब्द किसने कहे थे? ये किनसे कहे गए थे? ये सदोम के लोगों के शब्द थे, जो लूत के घर के बाहर चिल्ला रहे थे, और ये लूत से कहे गए थे। इन शब्दों को सुनकर कैसा महसूस होता है? क्या तुम क्रोधित हो? क्या इन शब्दों से तुम्हें घिन आती है? क्या तुम क्रोध के मारे आगबबूला हो रहे हो? क्या इन शब्दों से शैतान की दुर्गंध नहीं आती? इनके जरिये, क्या तुम इस नगर की बुराई और अंधकार का एहसास कर सकते हो? क्या तुम इन लोगों के शब्दों के जरिये उनके व्यवहार की क्रूरता और बर्बरता का एहसास कर सकते हो? क्या तुम उनके आचरण के जरिये उनकी भ्रष्टता की गहराई का एहसास कर सकते हो? उन्होंने जो कहा, उसके जरिये यह समझना कठिन नहीं है कि उनकी दुष्ट प्रकृति और बर्बर स्वभाव उस स्तर तक पहुँच गया था, जो उनके खुद के नियंत्रण से परे था। लूत को छोड़कर नगर का हर एक व्यक्ति शैतान से अलग नहीं था; दूसरे व्यक्ति की झलक पाते ही ये लोग उसे नुकसान पहुँचाना और निगल जाना चाहते थे...। ये चीज़ें व्यक्ति को नगर की विकराल और डरावनी प्रकृति के साथ ही उसके चारों ओर मौजूद मौत के वातावरण का ही एहसास नहीं करातीं, बल्कि उसकी दुष्टता और ख़ूनी प्रकृति का भी एहसास कराती हैं।

जब लूत ने स्वयं को अमानवीय ठगों के गिरोह के आमने-सामने पाया, जो मानव-आत्माओं को निगल जाने की जंगली लालसा से भरे हुए थे, तो उसने क्या प्रतिक्रिया व्यक्त की? पवित्रशास्त्र के अनुसार : "हे मेरे भाइयो, ऐसी बुराई न करो। सुनो, मेरी दो बेटियाँ हैं जिन्होंने अब तक पुरुष का मुँह नहीं देखा; इच्छा हो तो मैं उन्हें तुम्हारे पास बाहर ले आऊँ, और तुम को जैसा अच्छा लगे वैसा व्यवहार उनसे करो; पर इन पुरुषों से कुछ न करो; क्योंकि ये मेरी छत तले आए हैं।" इन शब्दों से लूत का अभिप्राय यह था : वह दूतों को बचाने के लिए अपनी दो बेटियों को भी त्यागने के लिए तैयार था। किसी भी हिसाब से इन लोगों को लूत की शर्तों से सहमत हो जाना चाहिए था और दोनों दूतों को छोड़ देना चाहिए था; आख़िरकार, वे दूत उनके लिए पूरी तरह से अजनबी थे, ऐसे लोग जिनका उनसे कोई लेना-देना नहीं था और जिन्होंने उनके हितों को कभी नुकसान नहीं पहुँचाया था। फिर भी, अपनी बुरी प्रकृति से प्रेरित होकर उन्होंने मामला खत्‍म नहीं किया, बल्कि इसके बजाय, उन्होंने अपने प्रयास और तेज कर दिए। यहाँ उनकी बातचीत का दूसरा भाग लोगों को निस्संदेह इन लोगों की असली, शातिर प्रकृति की और अधिक जानकारी दे सकता है, साथ ही वह उन्हें परमेश्वर द्वारा इस नगर को नष्ट किए जाने का कारण समझने-बूझने में सक्षम भी बनाता है।

तो उन्होंने आगे क्या कहा? जैसा कि बाइबल में लिखा है : "'हट जा!' फिर वे कहने लगे, 'तू एक परदेशी होकर यहाँ रहने के लिये आया, पर अब न्यायी भी बन बैठा है; इसलिये अब हम उनसे भी अधिक तेरे साथ बुराई करेंगे।' और वे उस पुरुष लूत को बहुत दबाने लगे, और किवाड़ तोड़ने के लिये निकट आए।" वे लूत का किवाड़ क्यों तोड़ना चाहते थे? कारण यह है कि वे उन दोनों दूतों को नुकसान पहुँचाने के लिए उत्सुक थे। वे दूत सदोम में किसलिए आए थे? उनका वहाँ आने का उद्देश्य लूत एवं उसके परिवार को बचाना था, लेकिन नगर के लोगों ने ग़लती से सोचा कि वे आधिकारिक पदों पर क़ब्ज़ा जमाने के लिए आए हैं। दूतों का उद्देश्य पूछे बिना नगर के लोगों ने केवल अनुमान के आधार पर असभ्यतापूर्वक उन दो दूतों को नुकसान पहुँचाना चाहा; उन्होंने उन दो लोगों को नुकसान पहुँचाना चाहा, जिनका उनके साथ कोई लेना-देना नहीं था। यह स्पष्ट है कि उस नगर के लोगों ने पूरी तरह से अपनी मानवता और विवेक गँवा दिए थे। उनके पागलपन और जंगलीपन का स्तर पहले से ही मनुष्यों को नुकसान पहुँचाने वाले और उन्हें निगल जाने वाले शैतान के शातिर स्वभाव से अलग नहीं था।

जब उन्होंने लूत से इन लोगों को सौंपने की माँग की, तब लूत ने क्या किया? पाठ से हमें ज्ञात होता है कि लूत ने उन्हें नहीं सौंपा। क्या लूत परमेश्वर के इन दो दूतों को जानता था? बेशक, नहीं! फिर भी वह इन दो लोगों को बचाने में समर्थ क्यों था? क्या वह जानता था कि वे क्या करने आए हैं? यद्यपि वह उनके आने के कारण से अनजान था, किंतु वह जानता था कि वे परमेश्वर के सेवक हैं, इसलिए वह उन्हें अपने घर में ले गया। उसका परमेश्वर के इन सेवकों को "प्रभु" कहकर पुकारना यह दिखाता है कि सदोम के अन्‍य लोगों के विपरीत लूत परमेश्वर का स्वाभाविक अनुयायी था। इसलिए जब परमेश्वर के दूत उसके पास आए, तो उसने इन दोनों सेवकों को अपने घर में ले जाने के लिए अपनी जान जोखिम में डाल दी; इतना ही नहीं, उसने इन दोनों सेवकों की रक्षा करने के लिए बदले में अपनी दो बेटियाँ देने की भी पेशकश की। यह लूत का धार्मिक कार्य था; यह लूत के स्वभाव और सार की एक ठोस अभिव्यक्ति थी, और यह परमेश्वर द्वारा लूत को बचाने के लिए अपने सेवकों को भेजने का कारण भी था। संकट से सामना होने पर लूत ने अन्य किसी भी चीज़ की परवाह किए बिना इन दोनों सेवकों की रक्षा की; यहाँ तक कि उसने सेवकों की सुरक्षा के बदले में अपनी दो बेटियों का सौदा करने का भी प्रयास किया। लूत के अतिरिक्त क्या नगर में कोई और ऐसा था, जिसने ऐसा कुछ किया होता? जैसा कि तथ्य साबित करते हैं—नहीं, ऐसा कोई नहीं था! इसलिए, कहने की आवश्यकता नहीं कि लूत को छोड़कर सदोम के भीतर हर कोई विनाश का लक्ष्य था, और ठीक भी है—वे इसके पात्र थे।

परमेश्वर को नाराज़ करने के कारण सदोम को पूरी तरह से तबाह कर दिया गया

जब सदोम के लोगों ने इन दो सेवकों को देखा, तो उन्होंने उनके आने का कारण नहीं पूछा, न ही किसी ने यह पूछा कि क्या वे परमेश्वर की इच्छा का प्रचार करने के लिए आए हैं। इसके विपरीत, उन्होंने एक भीड़ इकट्ठी की और स्पष्टीकरण का इंतज़ार किए बिना, जंगली कुत्तों या दुष्ट भेड़ियों के समान उन दोनों सेवकों को पकड़ने के लिए आ गए। क्या परमेश्वर ने इन चीज़ों को होते हुए देखा था? इस प्रकार के मानवीय व्यवहार, इस प्रकार की घटना को लेकर परमेश्वर अपने हृदय में क्या सोच रहा था? परमेश्वर ने इस नगर को नष्ट करने का मन बनाया; वह न तो हिचकिचाया और न ही उसने इंतज़ार किया, न ही उसने और अधिक धीरज दिखाया। उसका दिन आ चुका था, अतः उसने वह कार्य कर दिया, जिसे वह करना चाहता था। इस प्रकार, उत्पत्ति 19:24-25 कहती है, "तब यहोवा ने अपनी ओर से सदोम और अमोरा पर आकाश से गन्धक और आग बरसाई; और उन नगरों को और उस सम्पूर्ण तराई को, और नगरों के सब निवासियों को, भूमि की सारी उपज समेत नष्‍ट कर दिया।" ये दो पद परमेश्वर द्वारा उस नगर को नष्ट करने के तरीके और साथ ही उसके द्वारा नष्ट की गई चीज़ों के बारे में बताते हैं। प्रथम, बाइबल वर्णन करती है कि परमेश्वर ने उस नगर को आग से जला दिया, और आग की मात्रा समस्त लोगों और जो कुछ भूमि पर उगता था उसे, नष्ट करने के लिए पर्याप्त थी। कहने का तात्पर्य है कि स्वर्ग से गिरने वाली उस आग ने न केवल उस नगर को नष्ट कर दिया; बल्कि उसने उसके भीतर के समस्त लोगों और जीवित प्राणियों को भी नष्ट कर दिया, और उनका कोई नामोनिशान नहीं रहा। जब नगर नष्ट हो गया, तो वह भूमि जीवित प्राणियों से विहीन हो गई; वहाँ कोई जीवन नहीं रहा, और न ही जीवन के कोई निशान रहे। नगर एक बंजर भूमि बन गया, एक खाली जगह, जो मौत के सन्नाटे से भरी हुई थी। इस स्थान पर परमेश्वर के विरुद्ध अब और कोई बुरा कार्य नहीं होगा; अब और कोई हत्या या ख़ून-ख़राबा नहीं होगा।

परमेश्वर क्यों इस नगर को पूरी तरह से जलाना चाहता था? तुम लोग यहाँ क्या देख सकते हो? क्या परमेश्वर वाकई मनुष्य और प्रकृति, अपनी स्वयं की सृष्टि को इस तरह नष्ट होते हुए सहन कर सकता था? यदि तुम उस आग से, जिसे स्‍वर्ग से बरसाया गया था, यहोवा परमेश्वर के कोप को समझ सको, तो उसके विनाश के लक्ष्यों को और जिस हद तक इस नगर को नष्ट किया गया, उसे देखते हुए यह समझना कठिन नहीं है कि उसका कोप कितना बड़ा था। जब परमेश्वर किसी नगर से घृणा करता है, तो वह उस पर अपना दंड बरसाएगा। जब परमेश्वर किसी नगर से अप्रसन्न होता है, तो वह लोगों को अपने क्रोध से अवगत कराते हुए बार-बार चेतावनियाँ जारी करेगा। किंतु जब परमेश्वर किसी नगर का खात्मा और विनाश करने का निर्णय लेता है—अर्थात् जब उसके कोप और वैभव को ठेस पहुँचती है—तो वह आगे कोई दंड और चेतावनी नहीं देगा। इसके बजाय, वह सीधे उसे नष्ट कर देगा। वह उसे पूरी तरह से मिटा देगा। यह परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव है।

अपने प्रति सदोम की बार-बार की शत्रुता और प्रतिरोध के बाद परमेश्वर ने उसे पूरी तरह से मिटा दिया

अब जबकि हमें परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की एक सामान्य समझ हो गई है, तो हम अपना ध्यान वापस सदोम नगर की ओर मोड़ सकते हैं—एक ऐसी जगह, जिसे परमेश्वर ने पाप की नगरी के रूप में देखा था। इस नगर के सार को समझकर हम यह समझ सकते हैं कि परमेश्वर इसे क्यों नष्ट करना चाहता था और उसने इसे क्यों पूरी तरह से नष्ट कर दिया। इससे हम परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को जान सकते हैं।

मनुष्य के दृष्टिकोण से सदोम एक ऐसा नगर था, जो मनुष्य की कामना और दुष्टता को पूरी तरह से संतुष्ट कर सकता था। उस आकर्षक और मनमोहक नगर की संपन्नता ने हर रात चलने वाले संगीत और नृत्य के साथ मनुष्यों को सम्मोहन और उन्माद की ओर धकेल दिया। उसकी बुराई ने लोगों के हृदय कलुषित कर दिए और उन्हें अनैतिकता में फँसा दिया। वह एक ऐसा नगर था, जहाँ अशुद्ध और दुष्ट आत्माएँ बेधड़क मँडराया करती थीं; वह पाप और हत्या से सराबोर था और उसकी हवा में ख़ूनी एवं सड़ी हुई दुर्गंध समाई हुई थी। वह एक ऐसा नगर था, जिसने लोगों को आतंकित कर दिया था, ऐसा नगर जिससे कोई भी भय से सिकुड़ जाएगा। उस नगर में कोई भी व्यक्ति—पुरुष हो या स्त्री, जवान हो या बुज़ुर्ग—सच्चे मार्ग की खोज नहीं करता था; कोई भी प्रकाश की लालसा नहीं करता था या पाप से दूर नहीं जाना चाहता था। वे शैतान के नियंत्रण, भ्रष्टता और छल-कपट में जीवन बिताते थे। उन्होंने अपनी मानवता खो दी थी; उन्होंने अपनी संवेदनाएँ गँवा दी थीं, और उन्होंने मनुष्य के अस्तित्व का मूल उद्देश्य खो दिया था। उन्होंने परमेश्वर के विरुद्ध प्रतिरोध के असंख्य दुष्ट कर्मों को अंजाम दिया था; उन्होंने उसका मार्गदर्शन अस्वीकार किया था और उसकी इच्छा का विरोध किया था। ये उनके बुरे कार्य थे, जिन्होंने इन लोगों को, नगर को और उसके भीतर के हर एक जीवित प्राणी को कदम-दर-कदम विनाश के पथ पर पहुँचा दिया था।

यद्यपि ये दो अंश सदोम के लोगों की भ्रष्टता की सीमा का समस्त विवरण दर्ज नहीं करते, इसके बजाय वे नगर में परमेश्वर के दो सेवकों के आगमन के बाद उनके प्रति लोगों के आचरण को दर्ज करते हैं, तथापि एक साधारण-सा सत्य है जो प्रकट करता है कि सदोम के लोग किस हद तक भ्रष्ट एवं दुष्ट थे और वे किस हद तक परमेश्वर का प्रतिरोध करते थे। इससे नगर के लोगों के असली चेहरे और सार का भी खुलासा हो जाता है। इन लोगों ने न केवल परमेश्वर की चेतावनियों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था, बल्कि वे उसके दंड से भी नहीं डरते थे। इसके विपरीत, उन्होंने परमेश्वर के कोप का उपहास किया। उन्होंने आँख मूँदकर परमेश्वर का प्रतिरोध किया। परमेश्वर ने चाहे जो भी किया या जैसे भी किया, उनका दुष्ट स्वभाव सघन ही हुआ, और उन्होंने बार-बार परमेश्वर का विरोध किया। सदोम के लोग परमेश्वर के अस्तित्व, उसके आगमन, उसके दंड, और उससे भी बढ़कर, उसकी चेतावनियों से विमुख थे। वे अत्यधिक अहंकारी थे। उन्होंने उन सभी लोगों को निगल लिया और नुकसान पहुँचाया, जिन्हें निगला और नुकसान पहुँचाया जा सकता था, और उन्होंने परमेश्वर के सेवकों के साथ भी कोई अलग बरताव नहीं किया। सदोम के लोगों द्वारा किए गए तमाम दुष्कर्मों के लिहाज से, परमेश्वर के सेवकों को नुकसान पहुँचाना तो बस उनकी दुष्टता का एक छोटा-सा अंश था, और इससे जो उनकी दुष्ट प्रकृति प्रकट हुई, वह वास्तव में विशाल समुद्र में पानी की एक बूँद से बढ़कर नहीं थी। इसलिए परमेश्वर ने उन्हें आग से नष्ट करने का फैसला किया। परमेश्वर ने नगर को नष्ट करने के लिए बाढ़ का इस्तेमाल नहीं किया, न ही उसने चक्रवात, भूकंप, सुनामी या किसी और तरीके का इस्तेमाल किया। इस नगर का विनाश करने के लिए परमेश्वर द्वारा आग का इस्तेमाल क्या सूचित करता है? इसका अर्थ था नगर का संपूर्ण विनाश, इसका अर्थ था कि नगर पृथ्वी और अस्तित्व से पूरी तरह से लुप्त हो गया था। यहाँ "विनाश" न केवल नगर के आकार और ढाँचे या बाहरी रूप के लुप्त हो जाने को संदर्भित करता है; बल्कि इसका अर्थ यह भी है कि पूरी तरह से मिटा दिए जाने के कारण नगर के भीतर के लोगों की आत्माएँ भी अस्तित्व में नहीं बचीं। सरल शब्दों में कहें तो, नगर से जुड़े सभी लोग, घटनाएँ और चीज़ें नष्ट कर दी गईं। उस नगर के लोगों के लिए कोई अगला जीवन या पुनर्जन्म नहीं होगा; परमेश्वर ने उन्हें अपनी सृष्टि की मानवजाति से हमेशा-हमेशा के लिए मिटा दिया। आग का इस्तेमाल इस स्थान पर पाप के अंत को सूचित करता है, और कि वहाँ पाप पर अंकुश लग गया; यह पाप अस्तित्व में नहीं रहेगा और न ही फैलेगा। इसका अर्थ था कि शैतान की दुष्टता ने अपनी उपजाऊ मिट्टी के साथ-साथ उस कब्रिस्तान को भी खो दिया था, जिसने उसे रहने और जीने के लिए एक स्थान दिया था। परमेश्वर और शैतान के बीच होने वाले युद्ध में परमेश्वर द्वारा आग का इस्तेमाल उसकी विजय की छाप है, जो शैतान पर अंकित की जाती है। मनुष्यों को भ्रष्ट करके और उन्हें निगलकर परमेश्वर का विरोध करने की शैतान की महत्वाकांक्षा में सदोम का विनाश एक बहुत भारी आघात है, और इसी प्रकार यह एक समय पर मानवता के विकास में एक अपमानजनक चिह्न है, जब मनुष्य ने परमेश्वर का मार्गदर्शन ठुकरा दिया था और अपने आपको बुराई के हवाले कर दिया था। इसके अतिरिक्त, यह परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के सच्चे प्रकाशन का एक अभिलेख है।

जब परमेश्वर द्वारा स्वर्ग से भेजी गई आग ने सदोम को राख में तब्दील कर दिया, तो इसका अर्थ यह हुआ कि उसके बाद "सदोम" नामक नगर और उस नगर के भीतर की हर चीज़ अस्तित्व में नहीं रही। उसे परमेश्वर के क्रोध द्वारा नष्ट किया गया था, जो परमेश्वर के कोप और प्रताप के भीतर विलुप्त हो गया। परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के कारण सदोम को उसका न्यायोचित दंड मिला और उसका न्यायोचित अंत हुआ। सदोम के अस्तित्व का अंत उसकी बुराई के कारण हुआ, और वह इस कारण से भी हुआ, क्योंकि परमेश्वर दोबारा इस नगर को या उसमें रहने वाले किसी व्यक्ति को या उस नगर में उत्पन्न किसी भी जीवित वस्तु को देखना नहीं चाहता था। परमेश्वर की "दोबारा उस नगर को कभी न देखने की इच्छा" उसके कोप के साथ-साथ उसका प्रताप भी है। परमेश्वर ने नगर को जला दिया, क्योंकि उसकी बुराई और पाप ने परमेश्वर को उसके प्रति क्रोध, घृणा और द्वेष का एहसास कराया था और वह उसको या वहाँ के किसी निवासी या जीवों को दोबारा कभी नहीं देखना चाहता था। जब एक बार नगर का जलना समाप्त हो गया और केवल राख ही बाकी रह गई, तो परमेश्वर की नज़रों में सचमुच उसका अस्तित्व नहीं रहा; यहाँ तक कि उसकी यादें भी परमेश्‍वर की स्मृति से चली गईं, मिट गईं। इसका अर्थ है कि स्वर्ग से भेजी गई आग ने न केवल संपूर्ण सदोम नगर को जला दिया, उसने न केवल नगर के अधर्म से अत्यधिक भरे हुए लोगों को नष्ट कर दिया, उसने न केवल नगर के भीतर की पाप से दूषित सभी चीज़ों को नष्ट कर दिया; बल्कि उससे भी बढ़कर, उस आग ने मनुष्यों की दुष्टता की याद और परमेश्वर के प्रति उनके प्रतिरोध को भी नष्ट कर दिया। उस नगर को जलाकर राख कर देने के पीछे परमेश्वर का यही उद्देश्य था।

मनुष्य चरम सीमा तक पतित हो चुके थे। वे नहीं जानते थे कि परमेश्वर कौन है या वे स्वयं कहाँ से आए हैं। यदि तुम परमेश्वर का ज़िक्र भी करते, तो वे हमला कर देते, कलंक लगाते और ईश-निंदा करते। यहाँ तक कि जब परमेश्वर के सेवक उसकी चेतावनी का प्रचार करने आए थे, तब भी इन दुष्ट लोगों ने न केवल पश्चात्ताप का कोई चिह्न नहीं दिखाया और अपना दुष्ट आचरण नहीं त्यागा, बल्कि इसके विपरीत, उन्होंने ढिठाई से परमेश्वर के सेवकों को नुकसान पहुँचाया। जो कुछ उन्होंने व्यक्त और प्रकट किया, वह परमेश्वर के प्रति उनकी चरम शत्रुता की प्रकृति और सार था। हम देख सकते हैं कि परमेश्वर के विरुद्ध इन भ्रष्ट लोगों का प्रतिरोध उनके भ्रष्ट स्वभाव के प्रकाशन से कहीं अधिक था, बिलकुल वैसे ही, जैसे यह सत्य की समझ की कमी के कारण की जाने वाली निंदा और उपहास की एक घटना से कहीं अधिक था। उनके दुष्ट आचरण का कारण न तो मूर्खता थी, न ही अज्ञानता; उन्होंने ऐसा कार्य इसलिए नहीं किया कि उन्हें धोखा दिया गया था, और इसलिए तो निश्चित रूप से नहीं कि उन्हें गुमराह किया गया था। उनका आचरण परमेश्वर के विरुद्ध खुले तौर पर निर्लज्ज शत्रुता, विरोध और उपद्रव के स्तर तक पहुँच चुका था। निस्संदेह, इस प्रकार का मानव-व्यवहार परमेश्वर को क्रोधित करेगा, और यह उसके स्वभाव को क्रोधित करेगा—ऐसा स्वभाव, जिसे ठेस नहीं पहुँचाई जानी चाहिए। इसलिए परमेश्वर ने सीधे और खुले तौर पर अपना कोप और प्रताप दिखाया; यह उसके धार्मिक स्वभाव का सच्चा प्रकाशन था। एक ऐसे नगर को सामने देख, जहाँ पाप उमड़ रहा था, परमेश्वर ने उसे यथासंभव तीव्रतम तरीके से नष्ट कर देना चाहा, ताकि उसके भीतर रहने वाले लोगों और उनके संपूर्ण पापों को पूरी तरह से मिटाया जा सके, ताकि उस नगर के लोगों का अस्तित्व समाप्त किया जा सके और उस स्थान के भीतर पाप को द्विगुणित होने से रोका जा सके। ऐसा करने का सबसे तेज और सबसे मुकम्मल तरीका था उसे आग से जलाकर नष्‍ट कर देना। सदोम के लोगों के प्रति परमेश्वर का रवैया परित्याग या उपेक्षा का नहीं था। इसके बजाय, उसने इन लोगों को दंड देने, मार डालने और पूरी तरह से नष्ट कर देने के लिए अपने कोप, प्रताप और अधिकार का प्रयोग किया। उनके प्रति उसका रवैया न केवल उनके शारीरिक विनाश का था, बल्कि उनकी आत्माओं के विनाश का, एक शाश्वत उन्मूलन का भी था। यह "अस्तित्व की समाप्ति" वचनों से परमेश्वर के आशय का वास्तविक निहितार्थ है।

हालाँकि परमेश्वर का कोप मनुष्य से छिपा हुआ और अज्ञात है, फिर भी वह कोई अपमान सहन नहीं करता

समस्त मानवजाति के प्रति, उस मानवजाति के प्रति जो कि मूर्ख और जाहिल है, परमेश्वर का व्यवहार मुख्य रूप से दया और सहनशीलता पर आधारित है। दूसरी ओर, उसका कोप अधिकांश समय और अधिकांश घटनाओं में छिपा रहता है, और मनुष्य उससे अनजान है। परिणामस्वरूप, परमेश्वर को अपना कोप व्यक्त करते हुए देखना मनुष्य के लिए कठिन है, और उसके कोप को समझना भी उसके लिए कठिन है। इसलिए मनुष्य परमेश्वर के कोप को हलके में लेता है। मनुष्य जब परमेश्वर के अंतिम कार्य और मनुष्य के लिए उसकी क्षमा और सहिष्णुता के कदम का सामना करता है—अर्थात्, जब परमेश्वर की दया की अंतिम घटना और अंतिम चेतावनी मनुष्य पर आती है—यदि लोग फिर भी उसी तरह से परमेश्वर का विरोध करते रहते हैं और पश्चाताप करने, अपने तौर-तरीके सुधारने या उसकी दया स्वीकार करने का कोई प्रयास नहीं करते, तो परमेश्वर आगे उन्हें अपनी सहनशीलता और धैर्य नहीं दिखाएगा। इसके विपरीत, उस समय परमेश्वर अपनी दया वापस ले लेगा। इसके बाद वह केवल अपना कोप ही भेजेगा। वह विभिन्न तरीकों से अपना कोप व्यक्त कर सकता है, वैसे ही, जैसे वह लोगों को दंड देने और नष्ट करने के लिए विभिन्न पद्धतियाँ इस्तेमाल करता है।

सदोम नगर का विनाश करने के लिए परमेश्वर द्वारा आग का इस्तेमाल करना मनुष्य या किसी अन्य चीज़ को पूरी तरह से नष्ट करने की उसकी तीव्रतम पद्धति है। सदोम के लोगों को जलाना उनके शरीर नष्ट करने से कहीं अधिक था; इसने पूरी तरह से उनकी आत्माएँ, उनके प्राण और उनके शरीर नष्ट कर दिए, और यह सुनिश्चित किया कि उस नगर के लोग न तो भौतिक संसार में अस्तित्व में रहें और न ही उस संसार में, जो मनुष्य के लिए अदृश्य है। यह परमेश्वर द्वारा अपना कोप प्रकाशित और अभिव्यक्त करने का एक तरीका है। इस तरह का प्रकाशन और अभिव्यक्ति परमेश्वर के कोप के सार का एक पहलू है, ठीक वैसे ही, जैसे यह स्वाभाविक रूप से परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के सार का प्रकाशन भी है। जब परमेश्वर अपना कोप भेजता है, तो वह कोई दया या प्रेममय करुणा प्रकट करना बंद कर देता है, न ही वह आगे कोई सहनशीलता या धैर्य प्रदर्शित करता है; कोई ऐसा व्यक्ति, वस्तु या कारण नहीं है, जो उसे धैर्य धारण किए रहने, फिर से दया करने, एक बार फिर अपनी सहनशीलता दिखाने के लिए राज़ी कर सके। इन चीज़ों के स्थान पर, एक पल के लिए भी हिचकिचाए बिना, परमेश्वर अपना कोप और प्रताप भेजता है, और जो कुछ चाहता है, वह करता है। इन चीज़ों को वह अपनी इच्छाओं के अनुरूप एक तीव्र और साफ़-सुथरे तरीके से करता है। यह वह तरीका है, जिससे परमेश्वर अपना वह कोप और प्रताप प्रकट करता है, जिसे मनुष्य द्वारा ठेस नहीं पहुँचाई जानी चाहिए, और यह उसके धार्मिक स्वभाव के एक पहलू की अभिव्यक्ति भी है। जब लोग परमेश्वर को मनुष्य के प्रति चिंता और प्रेम दिखाते हुए देखते हैं, तो वे उसके कोप को भाँपने में, उसके प्रताप को देखने में या अपमान के प्रति उसकी असहनशीलता अनुभव करने में असमर्थ होते हैं। इन चीज़ों ने हमेशा लोगों को विश्वास दिलाया है कि परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव केवल दया, सहनशीलता और प्रेम का है। किंतु जब कोई परमेश्वर को किसी नगर का विनाश करते हुए या मनुष्य से घृणा करते हुए देखता है, तो मनुष्य के विनाश में उसका कोप और प्रताप लोगों को उसके धार्मिक स्वभाव के अन्य पक्ष की झलक देखने देता है। यह अपमान के प्रति परमेश्वर की असहिष्णुता है। परमेश्वर का कोई अपमान सहन न करने वाला स्वभाव किसी भी सृजित प्राणी की कल्पना से परे है, और ग़ैर-सृजित प्राणियों में से कोई उसके साथ दखलंदाज़ी करने या उसको प्रभावित करने में सक्षम नहीं है; और इसका प्रतिरूपण या अनुकरण तो किया ही नहीं जा सकता। इस प्रकार, परमेश्वर के स्वभाव का यह ऐसा पहलू है, जिसे मनुष्य को सबसे अधिक जानना चाहिए। केवल स्वयं परमेश्वर का ही ऐसा स्वभाव है, और केवल स्वयं परमेश्वर ही ऐसे स्वभाव से युक्त है। परमेश्वर का ऐसा धार्मिक स्वभाव इसलिए है, क्योंकि वह दुष्टता, अंधकार, विद्रोहशीलता और शैतान के बुरे कार्यों—जैसे कि मानवजाति को भ्रष्ट करना और निगल जाना—से घृणा करता है, क्योंकि वह अपने विरुद्ध पाप के सारे कार्यों से घृणा करता है और इसलिए भी, क्योंकि उसका सार पवित्र और निर्मल है। यही कारण है कि वह किसी भी सृजित या ग़ैर-सृजित प्राणी द्वारा खुला विरोध या स्वयं से मुकाबला सहन नहीं करेगा। यहाँ तक कि कोई ऐसा व्यक्ति भी, जिसके प्रति उसने किसी समय दया दिखाई हो या जिसका चुनाव किया हो, उसके स्वभाव को ललकार दे या उसके धीरज और सहनशीलता के सिद्धांत का उल्‍लंघन कर दे, तो वह थोड़ी-सी भी दया या संकोच दिखाए बिना, अपमान बरदाश्त न करने वाला अपना धार्मिक स्वभाव प्रकट और प्रकाशित कर देगा।

परमेश्वर का कोप न्याय की समस्त शक्तियों और समस्त सकारात्मक चीज़ों के लिए सुरक्षा-उपाय है

परमेश्वर के संभाषण, विचारों और कार्यों के इन उदाहरणों को समझने से, क्या तुम परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को समझने में समर्थ हो, ऐसा स्वभाव, जो मनुष्य द्वारा ठेस पहुँचाए जाने को बरदाश्त नहीं करेगा? संक्षेप में, इस पर ध्यान दिए बिना कि मनुष्य इसे कितना समझ सकता है, यह स्वयं परमेश्वर के स्वभाव का एक पहलू है, और यह अद्वितीय है। अपमान के प्रति परमेश्वर की असहिष्णुता उसका अद्वितीय सार है; परमेश्वर का कोप उसका अद्वितीय स्वभाव है; परमेश्वर का प्रताप उसका अद्वितीय सार है। परमेश्वर के क्रोध के पीछे का सिद्धांत उस पहचान और हैसियत का प्रदर्शन है, जिसे सिर्फ वही धारण करता है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि यह अद्वितीय स्वयं परमेश्वर के सार का एक प्रतीक भी है। परमेश्वर का स्वभाव उसका अपना अंतर्निहित सार है, जो समय के साथ बिलकुल नहीं बदलता, और न यह भौगोलिक स्थान के बदलने से ही बदलता है। उसका अंतर्निहित स्वभाव उसका स्वाभाविक सार है। वह चाहे जिस किसी पर भी अपना कार्य क्‍यों न करे, उसका सार नहीं बदलता, और न ही उसका धार्मिक स्वभाव बदलता है। जब कोई परमेश्‍वर को क्रोधित करता है, तो वह अपना अंतर्निहित स्वभाव प्रस्फुटित करता है; इस समय उसके क्रोध के पीछे का सिद्धांत नहीं बदलता, और न ही उसकी अद्वितीय पहचान और हैसियत बदलती है। वह अपने सार में परिवर्तन के कारण या अपने स्वभाव से विभिन्न तत्त्वों के उत्पन्न होने के कारण क्रोधित नहीं होता, बल्कि इसलिए होता है क्योंकि उसके विरुद्ध मनुष्य का विरोध उसके स्वभाव को ठेस पहुँचाता है। मनुष्य द्वारा परमेश्वर को खुले तौर पर उकसाना परमेश्वर की अपनी पहचान और हैसियत के लिए एक गंभीर चुनौती है। परमेश्वर की नज़र में, जब मनुष्य उसे चुनौती देता है, तब मनुष्य उससे मुकाबला कर रहा होता है और उसके क्रोध की परीक्षा ले रहा होता है। जब मुनष्य परमेश्वर का विरोध करता है, जब मनुष्य परमेश्वर से मुकाबला करता है, जब मनुष्य लगातार उसके क्रोध की परीक्षा लेता है—और यह उस समय होता है, जब पाप अनियंत्रित हो जाता है—तब परमेश्वर का कोप स्वाभाविक रूप से अपने आपको प्रकट और प्रस्तुत करेगा। इसलिए, परमेश्वर के कोप की अभिव्यक्ति इस बात की प्रतीक है कि समस्त बुरी ताकतें अस्तित्व में नहीं रहेंगी, और यह इस बात की प्रतीक है कि सभी विरोधी शक्तियाँ नष्ट कर दी जाएँगी। यह परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव और उसके कोप की अद्वितीयता है। जब परमेश्वर की गरिमा और पवित्रता को चुनौती दी जाती है, जब मनुष्य द्वारा न्याय की ताकतों को रोका जाता है और उनकी अनदेखी की जाती है, तब परमेश्वर अपने कोप को भेजता है। परमेश्वर के सार के कारण पृथ्वी की वे सारी ताकतें, जो परमेश्वर का मुकाबला करती हैं, उसका विरोध करती हैं और उसके साथ संघर्ष करती हैं, बुरी, भ्रष्ट और अन्यायी हैं; वे शैतान से आती हैं और उसी से संबंधित हैं। चूँकि परमेश्वर न्यायी है, प्रकाशमय है, दोषरहित और पवित्र है, इसलिए समस्त बुरी, भ्रष्ट और शैतान से संबंध रखने वाली चीज़ें परमेश्वर का कोप प्रकट होने पर नष्ट हो जाएँगी।

यद्यपि परमेश्वर के कोप का उफान उसके धार्मिक स्वभाव की अभिव्यक्ति का एक पहलू है, किंतु परमेश्वर का क्रोध अपने लक्ष्य के प्रति किसी भी तरह से विवेकशून्य नहीं है, और न ही वह सिद्धांतविहीन है। इसके विपरीत, परमेश्वर क्रोध करने में बिलकुल भी उतावलापन नहीं दिखाता, और न ही वह अपने कोप और प्रताप को हलकेपन से प्रकट करता है। इतना ही नहीं, परमेश्वर का कोप पूरी तरह से नियंत्रित और नपा-तुला होता है; उसकी तुलना मनुष्य के क्रोध से आगबबूला होने या अपना गुस्सा प्रकट करने से बिलकुल नहीं की जा सकती। मनुष्य और परमेश्वर के बीच हुए अनेक वार्तालाप बाइबल में दर्ज हैं। इनमें से कुछ लोगों के कथन सतही, अज्ञानता से भरे और बचकाने थे, किंतु परमेश्वर ने उन्हें मार नहीं गिराया, और न ही उनकी भर्त्सना की। विशेष रूप से, अय्यूब के परीक्षण के दौरान, यहोवा परमेश्वर ने अय्यूब के तीन मित्रों और दूसरे लोगों द्वारा अय्यूब से कही गई बातें सुनने के बाद उनके साथ कैसा बरताव किया था? क्या उसने उनकी भर्त्सना की थी? क्या वह उन पर आगबबूला हो गया था? उसने ऐसा कुछ नहीं किया था! इसके बजाय उसने अय्यूब को उनकी ओर से विनती करने और उनके लिए प्रार्थना करने के लिए कहा, और स्वयं परमेश्वर ने उनकी गलतियों को गंभीरता से नहीं लिया। ये सभी उदाहरण भ्रष्ट एवं अबोध मानवजाति के साथ परमेश्वर के मौलिक रवैये को दर्शाते हैं। इसलिए, परमेश्वर के कोप का प्रस्फुटन किसी भी तरह से उसकी मन:स्थिति की अभिव्यक्ति नहीं है, न ही वह उसके द्वारा अपनी भावनाएँ जाहिर करने का तरीका है। मनुष्य की गलतफहमी के विपरीत, परमेश्वर का कोप पूरी तरह से गुस्से का फूट पड़ना नहीं है। परमेश्वर अपने कोप को इसलिए नहीं प्रकट करता कि वह अपनी मन:स्थिति पर काबू पाने में असमर्थ है या कि उसका क्रोध चरम पर पहुँच गया है और उसे बाहर निकालना आवश्यक है। इसके विपरीत, उसका कोप उसके धार्मिक स्वभाव का प्रदर्शन और उसकी वास्तविक अभिव्यक्ति है, और यह उसके पवित्र सार का सांकेतिक प्रकटन है। परमेश्वर कोप है, और वह अपमानित किया जाना सहन नहीं करता—इसका तात्पर्य यह नहीं है कि परमेश्वर का क्रोध कारणों के बीच अंतर नहीं करता या वह सिद्धांतविहीन है; क्रोध के सिद्धांतविहीन, बेतरतीब विस्फोट पर तो एकमात्र अधिकार भ्रष्ट मनुष्य का है, उस प्रकार का क्रोध, कारणों के बीच अंतर नहीं करता। एक बार जब मनुष्य को हैसियत मिल जाती है, तो उसे अकसर अपनी मन:स्थिति पर नियंत्रण पाने में कठिनाई महसूस होगी, और इसलिए वह अपना असंतोष व्यक्त करने और अपनी भावनाएँ प्रकट करने के लिए अवसरों का इस्तेमाल करने में आनंद लेता है; वह अकसर बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के क्रोध से आगबबूला हो जाता है, ताकि वह अपनी योग्यता दिखा सके और दूसरे जान सकें कि उसकी हैसियत और पहचान साधारण लोगों से अलग है। निस्संदेह, बिना किसी हैसियत वाले भ्रष्ट लोग भी अकसर नियंत्रण खो देते हैं। उनका क्रोध अकसर उनके निजी हितों को नुकसान पहुँचने के कारण होता है। अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा की रक्षा करने के लिए भ्रष्ट मनुष्य बार-बार अपनी भावनाएँ जाहिर करता है और अपना अहंकारी स्वभाव दिखाता है। मनुष्य पाप के अस्तित्व का बचाव और समर्थन करने के लिए क्रोध से आगबबूला हो जाता है, अपनी भावनाएँ जाहिर करता है, और इन्हीं तरीकों से मनुष्य अपना असंतोष व्यक्त करता है; वे अशुद्धताओं, कुचक्रों और साजिशों से, मनुष्य की भ्रष्टता और बुराई से, और अन्य किसी भी चीज़ से बढ़कर, मनुष्य की निरंकुश महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं से लबालब भरे हैं। जब न्याय दुष्टता से टकराता है, तो मनुष्य न्याय के अस्तित्व का बचाव या समर्थन करने के लिए क्रोध से आगबबूला नहीं होता; इसके विपरीत, जब न्याय की शक्तियों को धमकाया, सताया और उन पर आक्रमण किया जाता है, तब मनुष्य का स्वभाव नज़रअंदाज़ करने, टालने या मुँह फेरने वाला होता है। लेकिन दुष्ट शक्तियों से सामना होने पर मनुष्य का रवैया समझौतापरक, झुकने और मक्खन लगाने वाला होता है। इसलिए, मनुष्य का क्रोध निकालना दुष्ट शक्तियों के लिए बच निकलने का मार्ग है, और देहयुक्त मनुष्य के अनियंत्रित और रोके न जा सकने वाले बुरे आचरण की अभिव्यक्ति है। किंतु जब परमेश्वर अपने कोप को भेजता है, तो सारी बुरी शक्तियों को रोका जाएगा, मनुष्य को हानि पहुँचाने वाले सारे पापों पर अंकुश लगाया जाएगा, परमेश्वर के कार्य में बाधा डालने वाली सभी विरोधी ताकतों को प्रकट, अलग और शापित किया जाएगा, परमेश्वर का विरोध करने वाले शैतान के सभी सहयोगियों को दंडित किया जाएगा और उन्हें जड़ से उखाड़ दिया जाएगा। उनके स्थान पर, परमेश्वर का कार्य बाधाओं से मुक्त होकर आगे बढ़ेगा, परमेश्वर की प्रबंधन योजना निर्धारित समय के अनुसार कदम-दर-कदम विकसित होती रहेगी, और परमेश्वर के चुने हुए लोग शैतान की बाधा और छल से मुक्त होंगे, और परमेश्वर का अनुसरण करने वाले लोग स्वस्थ और शांतिपूर्ण माहौल के बीच परमेश्वर की अगुआई और आपूर्ति का आनंद लेंगे। परमेश्वर का कोप एक सुरक्षा-उपाय है, जो सभी दुष्ट ताकतों को बहुगुणित होने और अनियंत्रित होकर बढ़ने से रोकता है, और यह ऐसा सुरक्षा-उपाय भी है, जो समस्त न्यायोचित और सकारात्मक चीज़ों के अस्तित्व और प्रसार की रक्षा करता है, और शाश्वत रूप से उन्हें दमन और विनाश से बचाता है।

क्या तुम लोग सदोम के विनाश में परमेश्वर के कोप का सार देख सकते हो? क्या उसके क्रोध में कोई और चीज़ मिली हुई है? क्या परमेश्वर का क्रोध पवित्र है? मनुष्य के शब्दों का प्रयोग करें तो, क्या परमेश्वर का कोप बिना किसी मिलावट के है? क्या उसके कोप के पीछे कोई छल है? क्या उसमें कोई षड्यंत्र है? क्या उसमें कोई अकथनीय रहस्य हैं? मैं कठोरता और गंभीरता से तुम्हें बता सकता हूँ : परमेश्वर के कोप का कोई अंश ऐसा नहीं है, जिस पर कोई संदेह कर सकता हो। उसका क्रोध पवित्र और मिलावट-रहित है, जिसमें कोई अन्य इरादे या लक्ष्य नहीं रहते। उसके क्रोध के पीछे के कारण पवित्र, निर्दोष और आलोचना से परे हैं। यह उसके पवित्र सार का एक स्वाभाविक प्रकाशन और प्रदर्शन है; यह कुछ ऐसा है, जो पूरी सृष्टि में किसी के पास नहीं है। यह परमेश्वर के अद्वितीय धार्मिक स्वभाव का एक अंग है, और यह सृष्टिकर्ता और उसकी सृष्टि के संबंधित सारों के बीच एक महत्त्वपूर्ण अंतर भी है।

चाहे कोई दूसरों के सामने क्रोध करे या उनके पीठ-पीछे, प्रत्येक व्यक्ति के पास अपने क्रोध का एक अलग इरादा और उद्देश्य होता है। शायद वे अपनी प्रतिष्ठा का निर्माण कर रहे होते हैं, या शायद वे अपने हितों का बचाव कर रहे होते हैं, अपनी छवि बना रहे होते हैं या अपनी लाज बचा रहे होते हैं। कुछ लोग अपने क्रोध में संयम बरतते हैं, जबकि अन्य लोग बहुत उतावले होते हैं और ज़रा भी संयम बरते बिना, जब चाहते हैं भड़क जाते हैं। संक्षेप में, मनुष्य का क्रोध उसके भ्रष्ट स्वभाव से निकलता है। उसका उद्देश्य कुछ भी हो, वह देह और प्रकृति का अंग है; उसका न्याय और अन्याय से कोई लेना-देना नहीं है, क्योंकि मनुष्य की प्रकृति और सार में कुछ भी सत्य के अनुरूप नहीं है। इसलिए, भ्रष्ट मनुष्य के क्रोध और परमेश्वर के कोप की तुलना नहीं की जानी चाहिए। बिना किसी अपवाद के, शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए मनुष्य का व्यवहार भ्रष्टता की रक्षा की इच्छा से शुरू होता है, और निस्संदेह यह भ्रष्टता पर आधारित होता है; इसलिए, मनुष्य के क्रोध की तुलना परमेश्वर के कोप से नहीं की जा सकती, चाहे मनुष्य का क्रोध सैद्धांतिक रूप से कितना भी उचित क्यों न लगे। जब परमेश्वर अपना कोप भेजता है, तो दुष्ट शक्तियों को रोका जाता है, बुरी चीज़ों को नष्ट किया जाता है, जबकि न्यायोचित और सकारात्मक चीज़ें परमेश्वर की देखरेख और सुरक्षा प्राप्त करती हैं और उन्हें जारी रहने दिया जाता है। परमेश्वर अपना कोप इसलिए भेजता है, क्योंकि अन्यायपूर्ण, नकारात्मक और बुरी चीज़ें न्यायोचित और सकारात्मक चीज़ों की सामान्य गतिविधि और विकास को बाधित, अवरुद्ध या नष्ट करती हैं। परमेश्वर के क्रोध का लक्ष्य अपनी हैसियत और पहचान की रक्षा करना नहीं है, बल्कि न्यायोचित, सकारात्मक, सुंदर और अच्छी चीज़ों के अस्तित्व की रक्षा करना, मनुष्य के सामान्य अस्तित्व की विधियों और व्यवस्था की रक्षा करना है। यह परमेश्वर के कोप का मूल कारण है। परमेश्वर का कोप उसके स्वभाव का बिलकुल उचित, स्वाभाविक और वास्तविक प्रकाशन है। उसके कोप के कोई गुप्त अभिप्राय नहीं हैं, न ही उसमें छल या षड्यंत्र हैं; इच्छाएँ, चतुराई, द्वेष, हिंसा, बुराई या भ्रष्ट मनुष्य में पाई जाने वाले अन्य लक्षणों होने की तो बात ही छोड़ दो। अपना कोप भेजने से पहले परमेश्वर हर मामले के सार को पहले ही पर्याप्त स्पष्टता और पूर्णता के साथ जान चुका होता है, और उसने पहले ही सटीक, स्पष्ट परिभाषाएँ और निष्कर्ष निरूपित कर लिए होते हैं। इस प्रकार, परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले हर कार्य में उसका उद्देश्य बिलकुल स्पष्ट होता है, जैसे कि उसका रवैया स्पष्ट होता है। वह नासमझ, अंधा, आवेशपूर्ण या लापरवाह नहीं है, और वह निश्चित रूप से सिद्धांतहीन नहीं है। यह परमेश्वर के कोप का व्यावहारिक पहलू है, और परमेश्वर के कोप के इस व्यावहारिक पहलू के कारण ही मनुष्य ने अपना सामान्य अस्तित्व हासिल किया है। परमेश्वर के कोप के बिना मनुष्य असामान्य जीवन-स्थितियों में पतित हो जाता और सभी न्यायोचित, सुंदर और अच्छी चीज़ों को नष्ट कर दिया जाता और वे अस्तित्व में न रहतीं। परमेश्वर के कोप के बिना सृजित प्राणियों के अस्तित्व के नियम और विधियाँ तोड़ दी जातीं या पूरी तरह से उलट दी जातीं। मनुष्य के सृजन के समय से ही परमेश्वर ने मनुष्य के सामान्य अस्तित्व की रक्षा करने और उसे कायम रखने के लिए अपने धार्मिक स्वभाव का निरंतर इस्तेमाल किया है। चूँकि उसके धार्मिक स्वभाव में कोप और प्रताप का समावेश है, इसलिए सभी बुरे लोग, चीज़ें और पदार्थ, और मनुष्य के सामान्य अस्तित्व को परेशान करने और उसे क्षति पहुँचाने वाली सभी चीज़ें उसके कोप के परिणामस्वरूप दंडित, नियंत्रित और नष्ट कर दी जाती हैं। पिछली कई सहस्राब्दियों से परमेश्वर ने सभी प्रकार की अशुद्ध और बुरी आत्माओं को, जो परमेश्वर का विरोध करती हैं और मनुष्य का प्रबंधन करने के परमेश्वर के कार्य में शैतान के सहयोगियों और अनुचरों के रूप में कार्य करती हैं, मार गिराने और नष्ट करने के लिए अपने धार्मिक स्वभाव का लगातार इस्तेमाल किया है। इस प्रकार, मुनष्य के उद्धार का परमेश्वर का कार्य उसकी योजना के अनुसार सदैव आगे बढ़ता गया है। कहने का तात्पर्य है कि परमेश्वर के कोप के अस्तित्व के कारण मनुष्यों के सर्वाधिक नेक कार्य कभी नष्ट नहीं किए गए हैं।

अब जबकि तुम लोगों को परमेश्वर के कोप के सार की समझ हो गई है, तो तुम लोगों को निश्चित रूप से इस बात की और भी बेहतर समझ होनी चाहिए कि शैतान की बुराई को कैसे पहचाना जाए!

यद्यपि शैतान दयालु, न्यासंगत और सदाचारी प्रतीत होता है, फिर भी शैतान का सार निर्दयी और बुरा है

शैतान लोगों को धोखा देकर अपनी प्रतिष्ठा बनाता है और अकसर खुद को धार्मिकता के अगुआ और आदर्श के रूप में स्थापित करता है। धार्मिकता की रक्षा की आड़ में वह लोगों को हानि पहुँचाता है, उनकी आत्माओं को निगल जाता है, और मनुष्य को स्तब्ध करने, धोखा देने और भड़काने के लिए हर प्रकार के साधनों का उपयोग करता है। उसका लक्ष्य मनुष्य से अपने बुरे आचरण का अनुमोदन और अनुसरण करवाना और उसे परमेश्वर के अधिकार और संप्रभुता का विरोध करने में अपने साथ मिलाना है। किंतु जब कोई उसकी चालों, षड्यंत्रों और नीच हरकतों को समझ जाता है और नहीं चाहता कि शैतान द्वारा उसे लगातार कुचला और मूर्ख बनाया जाए या वह निरंतर शैतान की गुलामी करे या उसके साथ दंडित और नष्ट किया जाए, तो शैतान अपने पिछले संतनुमा लक्षण बदल लेता है और अपना झूठा नकाब फाड़कर अपना असली चेहरा प्रकट कर देता है, जो दुष्ट, शातिर, भद्दा और वहशी है। वह उन सभी का विनाश करने से ज्यादा कुछ पसंद नहीं करता, जो उसका अनुसरण करने से इनकार करते हैं और उसकी बुरी शक्तियों का विरोध करते हैं। इस बिंदु पर शैतान अब और भरोसेमंद और सज्जन व्यक्ति का रूप धारण किए नहीं रह सकता; इसके बजाय, भेड़ की खाल में भेड़िए की तरह के उसके असली बुरे और शैतानी लक्षण प्रकट हो जाते हैं। एक बार जब शैतान के षड्यंत्र प्रकट हो जाते हैं और उसके असली लक्षणों का खुलासा हो जाता है, तो वह क्रोध से आगबबूला हो जाता है और अपनी बर्बरता जाहिर कर देता है। इसके बाद तो लोगों को नुकसान पहुँचाने और निगल जाने की उसकी इच्छा और भी तीव्र हो जाती है। क्योंकि वह मनुष्य के वस्तुस्थिति के प्रति जाग्रत हो जाने से क्रोधित हो जाता है, और उसकी स्वतंत्रता और प्रकाश की लालसा और अपनी कैद तोड़कर आज़ाद होने की आकांक्षा के कारण उसके अंदर मनुष्य के प्रति बदले की एक प्रबल भावना पैदा हो जाती है। उसके क्रोध का प्रयोजन अपनी बुराई का बचाव करना और उसे बनाए रखना है, और यह उसकी जंगली प्रकृति का असली प्रकाशन भी है।

हर मामले में शैतान का व्यवहार उसकी बुरी प्रकृति को उजागर करता है। शैतान द्वारा मनुष्य पर किए गए सभी बुरे कार्यों—अपना अनुसरण करने के लिए मनुष्य को बहकाने के उसके आरंभिक प्रयासों से लेकर उसके द्वारा मनुष्य के शोषण तक, जिसके अंतर्गत वह मनुष्य को अपने बुरे कार्यों में खींचता है, और उसके असली लक्षणों का खुलासा हो जाने और मनुष्य द्वारा उसे पहचानने और छोड़ देने के बाद मनुष्य के प्रति उसकी बदले की भावना तक—इनमें से कोई भी कार्य शैतान के बुरे सार को उजागर करने से नहीं चूकता, न ही इस तथ्य को प्रमाणित करने से कि शैतान का सकारात्मक चीज़ों से कोई नाता नहीं है और शैतान समस्त बुरी चीज़ों का स्रोत है। उसका हर एक कार्य उसकी बुराई का बचाव करता है, उसके बुरे कार्यों की निरंतरता बनाए रखता है, न्यायोचित और सकारात्मक चीज़ों के विरुद्ध जाता है, और मनुष्य के सामान्य अस्तित्व के नियमों और विधियों को बरबाद कर देता है। शैतान के ये कार्य परमेश्वर के विरोधी हैं, और वे परमेश्वर के कोप द्वारा नष्ट कर दिए जाएँगे। हालाँकि शैतान के पास उसका अपना कोप है, किंतु उसका कोप उसकी बुरी प्रकृति को प्रकट करने का एक माध्यम भर है। शैतान के भड़कने और उग्र होने का कारण यह है : उसके अकथनीय षड्यंत्र उजागर कर दिए गए हैं; उसके कुचक्र आसानी से छिपाए नहीं छिपते; परमेश्वर का स्थान लेने और परमेश्वर के समान कार्य करने की उसकी वहशी महत्वाकांक्षा और इच्छा नष्ट और अवरुद्ध कर दी गई है; और समूची मानवजाति को नियंत्रित करने का उसका उद्देश्य अब शून्य हो गया है और उसे कभी हासिल नहीं किया जा सकता। यह परमेश्वर द्वारा बार-बार बुलाया जाने वाला उसका कोप है, जिसने शैतान के षड्यंत्र सफल होने से रोक दिए हैं और उसकी दुष्टता के फैलाव और निरंकुशता का समय से पहले ही अंत कर दिया है। इसीलिए शैतान परमेश्वर के कोप से घृणा भी करता है और उससे डरता भी है। जब भी परमेश्वर का कोप उतरता है, तो वह न केवल शैतान के असली बुरे रूप को बेनकाब करता है, बल्कि शैतान की बुरी इच्छाओं को उजागर भी करता है, और इस प्रक्रिया में मनुष्य के प्रति शैतान के कोप के कारणों का पर्दाफाश हो जाता है। शैतान के कोप का विस्फोट उसकी दुष्ट प्रकृति का असली प्रकाशन और उसके षड्यंत्रों का खुलासा है। निस्संदेह, शैतान जब भी क्रोधित होता है, तो यह बुरी चीज़ों के विनाश और सकारात्मक चीज़ों की सुरक्षा और निरंतरता की घोषणा करता है; यह इस तथ्य की घोषणा करता है कि परमेश्वर के कोप को ठेस नहीं पहुँचाई जा सकती।

परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को जानने के लिए व्यक्ति को अनुभव और कल्पना पर भरोसा नहीं करना चाहिए

जब तुम स्वयं को परमेश्वर के न्याय और उसकी ताड़ना का सामना करते हुए पाते हो, तो क्या तुम कहोगे कि परमेश्वर का वचन मिलावटी है? क्या तुम कहोगे कि परमेश्वर के कोप के पीछे कोई कहानी है और वह मिलावटी है? क्या तुम परमेश्वर को यह कहते हुए बदनाम करोगे कि उसका स्वभाव पूर्णत: धार्मिक होना आवश्यक नहीं है? परमेश्वर के प्रत्येक कार्य के साथ व्यवहार करते समय, तुम्हें पहले निश्चित होना चाहिए कि परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव किसी भी अन्य तत्त्व से मुक्त है और वह पवित्र और निर्दोष है। इन कार्यों में परमेश्वर द्वारा मनुष्य को मार गिराना, दंड देना और नष्ट करना शामिल है। बिना किसी अपवाद के, परमेश्वर का हर कार्य एकदम उसके अंतर्निहित स्वभाव और उसकी योजना के अनुसार किया जाता है, और उसमें मनुष्य के ज्ञान, परंपरा और दर्शन का कोई अंश शामिल नहीं होता। परमेश्वर का हर कार्य उसके स्वभाव और सार की अभिव्यक्ति है, जिसका ऐसी किसी चीज़ से संबंध नहीं है, जो भ्रष्ट मनुष्य से संबंधित हो। मनुष्य की धारणा है कि केवल मानवजाति के प्रति परमेश्वर का प्रेम, दया और सहनशीलता ही दोषरहित, मिलावटरहित और पवित्र है, और कोई नहीं जानता कि परमेश्वर का क्रोध और कोप भी इसी तरह से मिलावटरहित हैं; इतना ही नहीं, किसी ने भी इन प्रश्नों पर विचार नहीं किया है कि परमेश्वर कोई अपमान क्यों नहीं सहता या उसका कोप इतना विराट क्यों है? इसके विपरीत, कुछ लोग गलती से परमेश्वर के कोप को बुरा स्वभाव समझ लेते हैं, जैसा कि भ्रष्ट मनुष्य का होता है, और परमेश्वर के क्रोध को भ्रष्ट मनुष्य के क्रोध के समान ही समझने की गलती करते हैं। यहाँ तक कि वे गलती से यह मान लेते हैं कि परमेश्वर का कोप मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव के स्वाभाविक प्रकटन के समान ही है और परमेश्वर के कोप का जारी होना भ्रष्ट लोगों के उस समय प्रकट होने वाले क्रोध के समान ही है, जब वे किसी अप्रिय स्थिति का सामना करते हैं, और वे यह मानते हैं कि परमेश्वर के कोप का प्रस्फुटन उसकी मन:स्थिति का प्रदर्शन है। इस सहभागिता के बाद, मैं आशा करता हूँ कि अब से तुम लोगों में से कोई भी परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के संबंध में किसी प्रकार की गलत धारणा, कल्पना या अनुमान नहीं रखेगा। मैं आशा करता हूँ कि मेरे वचनों को सुनने के बाद तुम अपने हृदय में परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के कोप की सच्ची पहचान रख सकते हो, उससे जुड़ी कोई पिछली गलत समझ अलग हटा सकते हो, तुम परमेश्वर के कोप के सार के संबंध में अपने गलत विश्वास और दृष्टिकोण बदल सकते हो। इतना ही नहीं, मैं आशा करता हूँ कि तुम लोगों के हृदय में परमेश्वर के स्वभाव की कोई सटीक परिभाषा हो सकती है, तुम्हारे मन में अब से परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को लेकर कोई संदेह नहीं होगा, और तुम परमेश्वर के सच्चे स्वभाव पर कोई मानवीय तर्क या अनुमान नहीं थोपोगे। परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव परमेश्वर का अपना सच्चा सार है। यह कोई मनुष्य द्वारा लिखी या रची गई चीज़ नहीं है। उसका धार्मिक स्वभाव उसका धार्मिक स्वभाव है और उसका सृष्टि की किसी चीज़ से कोई संबंध या वास्ता नहीं है। स्वयं परमेश्वर स्वयं परमेश्वर है। वह कभी सृष्टि का भाग नहीं बन सकता, और यदि वह सृजित प्राणियों का सदस्य बनता भी है, तो भी उसका अंतर्निहित स्वभाव और सार नहीं बदलेगा। इसलिए, परमेश्वर को जानना किसी वस्तु को जानने के समान नहीं है; परमेश्वर को जानना किसी चीज़ की चीर-फाड़ करना नहीं है, न ही यह किसी व्यक्ति को समझने के समान है। यदि परमेश्वर को जानने के लिए मनुष्य किसी वस्तु को जानने या किसी व्यक्ति को समझने की अपनी धारणा या पद्धति का इस्तेमाल करता है, तो तुम परमेश्वर का ज्ञान हासिल करने में कभी सक्षम नहीं होगे। परमेश्वर को जानना अनुभव या कल्पना पर निर्भर नहीं है, इसलिए तुम्हें अपने अनुभव या कल्पना को परमेश्वर पर नहीं थोपना चाहिए; तुम्हारा अनुभव और कल्पना कितने भी समृद्ध क्यों न हों, फिर भी वे सीमित हैं। और तो और, तुम्हारी कल्पना तथ्यों से मेल नहीं खाती, और सत्य से तो बिलकुल भी मेल नहीं खाती, वह परमेश्वर के सच्चे स्वभाव और सार से असंगत है। यदि तुम परमेश्वर के सार को समझने के लिए अपनी कल्पना पर भरोसा करते हो, तो तुम कभी सफल नहीं होगे। एकमात्र रास्ता यह है : वह सब स्वीकार करो, जो परमेश्वर से आता है, फिर धीरे-धीरे उसे अनुभव करो और समझो। एक दिन ऐसा आएगा, जब परमेश्वर तुम्हारे सहयोग के कारण और सत्य के लिए तुम्हारी भूख और प्यास के कारण तुम्हें प्रबुद्ध करेगा, ताकि तुम सच में उसे समझ और जान सको। और इसके साथ ही, हम अपने वार्तालाप के इस भाग को समाप्त करते हैं।

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