स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III

परमेश्वर का अधिकार (II) भाग एक

आज हम "स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है" के विषय पर अपनी संगति को जारी रखेंगे। हम पहले ही इस विषय पर दो संगतियाँ कर चुके हैं। इसमें पहली परमेश्वर के अधिकार से संबंधित थी, और दूसरी परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव से। इन दोनों संगतियों को सुनने के पश्चात्, क्या तुमने परमेश्वर की पहचान, हैसियत और सार की नई समझ प्राप्त की है? क्या इन अंतर्दृष्टियों ने परमेश्वर के अस्तित्व की सच्चाई का और अधिक ठोस ज्ञान और निश्चितता प्राप्त करने में तुम्हारी सहायता की है? आज मैं "परमेश्वर के अधिकार" विषय पर विस्तार से बात करना चाहता हूं।

वृहत् और सूक्ष्म-परिप्रेक्ष्य से परमेश्वर के अधिकार को समझना

परमेश्वर का अधिकार अद्वितीय है। यह स्वयं परमेश्वर की विलक्षणता की अभिव्यक्ति है, उसका विशिष्ट सार है, स्वयं परमेश्वर की पहचान है, जो उसके द्वारा रचित या अरचित प्राणी के अधिकार में नहीं है; अर्थात्, केवल सृजनकर्त्ता के पास ही यह अधिकार है। यानी, केवल सृजनकर्त्ता—परमेश्वर जो अद्वितीय है—इस तरह से अभिव्यक्त होता है और उसका यही सार है। इसलिए, परमेश्वर के अधिकार के बारे में बात क्यों करें? स्वयं परमेश्वर का अधिकार मनुष्य के अधिकार से भिन्न कैसे है जिसका विचार मनुष्य अपने मन में करता है? इसमें विशेष क्या है? इसके बारे में यहाँ बात करना विशेष रूप से महत्वपूर्ण क्यों है? तुम सबको इस मुद्दे पर बहुत सावधानीपूर्वक विचार करना चाहिए। क्योंकि अधिकांश लोगों के लिए, "परमेश्वर का अधिकार" एक अस्पष्ट सोच है, एक ऐसी सोच है जिसे समझना आसान नहीं है, और इसके बारे में की जाने वाली कोई भी चर्चा कदाचित गूढ़ हो सकती है। इसलिए परमेश्वर के अधिकार के ज्ञान को मनुष्य समझने में समर्थ है और परमेश्वर के अधिकार के सार के बीच हमेशा एक दूरी रहेगी ही। इस दूरी को भरने के लिए, हर किसी को धीरे-धीरे लोगों, घटनाओं, चीज़ों, या उन घटनाओं के माध्यम से जो मनुष्य की पहुँच के भीतर हैं, और जिन्हें वे अपने वास्तविक जीवन में समझने में समर्थ हैं, परमेश्वर के अधिकार के बारे में जान लेना चाहिए। यद्यपि यह वाक्यांश "परमेश्वर का अधिकार" बहुत गहन प्रतीत हो सकता है, फिर भी परमेश्वर का अधिकार बिल्कुल भी गूढ़ नहीं है। वह मनुष्य के जीवन के प्रत्येक क्षण में उसके साथ विद्यमान है, और प्रतिदिन उसका मार्गदर्शन करता है। इसलिए, प्रत्येक मनुष्य वास्तविक जीवन में अनिवार्य रूप से परमेश्वर के अधिकार के अत्यंत साकार स्वरूप को देखेगा और अनुभव करेगा। यह साकार स्वरूप इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि परमेश्वर का अधिकार वास्तव में विद्यमान है, और यह बात किसी भी व्यक्ति को इस तथ्य को पहचानने और समझने में मदद करती है कि परमेश्वर के पास ऐसा अधिकार है।

परमेश्वर ने हर चीज़ की रचना की है और रचना करने के बाद, सभी चीज़ों पर उसका प्रभुत्व है। सभी चीज़ों के ऊपर प्रभुत्व रखने के अतिरिक्त, हर चीज़ पर उसका नियन्त्रण भी है। यह विचार कि "परमेश्वर का हर चीज़ पर नियन्त्रण है," इसका अर्थ क्या है? इसकी व्याख्या कैसे की जा सकती है? यह वास्तविक जीवन में किस प्रकार लागू होता है? इस सत्य को समझते हुए कि "परमेश्वर का हर चीज़ पर नियन्त्रण है" उसके अधिकार के बारे में कैसे समझा जा सकता है? "परमेश्वर का हर चीज़ पर नियन्त्रण है," इस वाक्यांश का आशय यह है कि परमेश्वर जो नियंत्रित करता है वह ग्रहों का एक भाग नहीं है, न ही सृष्टि का एक भाग है, वह मानवजाति का एक भाग भी नहीं है, बल्कि सब-कुछ है: अति विशालकाय से लेकर अतिसूक्ष्म तक, प्रत्यक्ष से लेकर अदृश्य तक, ब्रह्माण्ड के सितारों से लेकर पृथ्वी के जीवित प्राणियों तक, और अति सूक्ष्मजीवों तक, जिन्हें आँखों से नहीं देखा जा सकता और ऐसे प्राणियों तक जो अन्य रूपों में विद्यमान हैं। यह "सब-कुछ" की सही परिभाषा है जिस पर परमेश्वर का "नियन्त्रण है," और यह उसके अधिकार का दायरा है, उसकी संप्रभुता और शासन का विस्तार है।

मानवजाति के अस्तित्व में आने से पहले, ब्रह्माण्ड—आकाश के समस्त ग्रह, सभी सितारे—पहले से ही अस्तित्व में थे। बृहद स्तर पर, ये खगोलीय पिंड, अपने सम्पूर्ण अस्तित्व के लिए, परमेश्वर के नियन्त्रण में नियमित रूप से अपने कक्ष में परिक्रमा करते रहे हैं, चाहे ऐसा करने में कितने ही वर्ष लगते हों। कौन-सा ग्रह किस समय में कहाँ जाता है; कौन-सा ग्रह कौन-सा कार्य करता है, और कब करता है; कौन-सा ग्रह किस कक्ष में चक्कर लगाता है, और वह कब अदृश्य हो जाता है या बदल दिया जाता है—ये सभी चीज़ें बिना कोई त्रुटि के होती रहती हैं। ग्रहों की स्थितियाँ और उनके बीच की दूरियाँ सभी कठोर प्रतिमानों का पालन करती हैं, उन सभी को सटीक आँकड़ों द्वारा वर्णित किया जा सकता है; वे जिस ग्रहपथ पर घूमते हैं, उनके कक्षों की गति और स्वरूप, वह समय जब वे विभिन्न स्थितियों में होते हैं, इन सभी को सटीक ढंग से निर्धारित व विशेष नियमों द्वारा परिमाणित किया जा सकता है। बिना चूके युगों से ग्रह इन नियमों का पालन कर रहे हैं। कोई भी शक्ति उनके कक्षों या तरीकों को, जिनका वे पालन करते हैं, नहीं बदल सकती, न ही कोई रुकावट पैदा कर सकती है। क्योंकि वे विशेष नियम जो उनकी गति को संचालित करते हैं और वे सटीक आँकड़े जो उनका वर्णन करते हैं, सृजनकर्त्ता के अधिकार द्वारा पूर्वनियत हैं, वे सृजनकर्त्ता की संप्रभुता और नियन्त्रण के अधीन इन नियमों का पालन अपनी इच्छा से करते हैं। बृहत स्तर पर, कुछ प्रतिमानों, कुछ आँकड़ों, और कुछ अजीब और समझाए न जा सकने वाले नियमों या घटनाओं के बारे में जानना मनुष्य के लिए कठिन नहीं है। यद्यपि मानवजाति यह नहीं स्वीकारती कि परमेश्वर है, न ही इस तथ्य को स्वीकार करती है कि सृजनकर्त्ता ने ही हर चीज़ को बनाया है और हर चीज़ उसी के नियन्त्रण में है, और यही नहीं सृजनकर्त्ता के अधिकार के अस्तित्व को भी नहीं स्वीकारती, फिर भी मानव-विज्ञानी, खगोलशास्त्री और भौतिक-विज्ञानी इसी खोज में लगे हुए हैं कि इस सार्वभौम में सभी चीज़ों का अस्तित्व, और वे सिद्धान्त और प्रतिमान जो उनकी गति को निर्धारित करते हैं, वे सभी एक व्यापक और अदृश्य गूढ़ ऊर्जा द्वारा शासित और नियन्त्रित होते हैं। यह तथ्य मनुष्य को बाध्य करता है कि वह इस बात का सामना करे और स्वीकार करे कि इन गतियों के स्वरूपों के बीच एक शक्तिशाली जन है, जो हर एक चीज़ का आयोजन करता है। उसका सामर्थ्य असाधारण है, और यद्यपि कोई भी उसके असली स्वरूप को नहीं देख पाता, फिर भी वह हर क्षण हर एक चीज़ को संचालित और नियन्त्रित करता है। कोई भी व्यक्ति या ताकत उसकी संप्रभुता से परे नहीं जा सकती। इस सत्य का सामना करते हुए, मनुष्य को यह अवश्य पहचानना चाहिए कि वे नियम जो सभी चीज़ों के अस्तित्व को संचालित करते हैं उन्हें मनुष्यों द्वारा नियन्त्रित नहीं किया जा सकता, किसी के भी द्वारा बदला नहीं जा सकता; साथ ही उसे यह भी स्वीकार करना चाहिए कि मानवजाति इन नियमों को पूरी तरह से नहीं समझ सकती, और वे प्राकृतिक रूप से घटित नहीं हो रही हैं, बल्कि एक परम सत्ता उनका निर्धारण कर रही है। ये सब परमेश्वर के अधिकार की अभिव्यक्तियाँ हैं जिन्हें मनुष्य जाति बृहत स्तर पर समझ व महसूस कर सकती है।

सूक्ष्म स्तर पर, सभी पहाड़, नदियाँ, झीलें, समुद्र और भू-भाग जिन्हें मनुष्य पृथ्वी पर देखता है, सारे मौसम जिनका वह अनुभव करता है, पेड़-पौधे, जानवर, सूक्ष्मजीव और मनुष्य सहित, सारी चीज़ें जो पृथ्वी पर निवास करती हैं, सभी परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन हैं, और परमेश्वर द्वारा नियन्त्रित की जाती हैं। परमेश्वर की संप्रभुता और नियन्त्रण के अंतर्गत, सभी चीज़ें उसके विचारों के अनुरूप अस्तित्व में आती हैं या अदृश्य हो जाती हैं; नियम बनते हैं जो उनके जीवन को संचालित करते हैं, और वे उनके अनुसार चलते हुए विकास करते हैं और निरंतर अपनी संख्या बढ़ाते हैं। कोई भी मनुष्य या चीज़ इन नियमों के ऊपर नहीं है। ऐसा क्यों है? इसका एकमात्र उत्तर हैः ऐसा परमेश्वर के अधिकार की वजह से है। दूसरे शब्दों में कहें तो, परमेश्वर के विचारों और परमेश्वर के वचनों के कारण है; स्वयं परमेश्वर के कार्यों की वजह से है। अर्थात्, यह परमेश्वर का अधिकार और परमेश्वर की इच्छा है जो इन नियमों को बनाती है; जो उसके विचार के अनुसार परिवर्तित होंगे एवं बदलेंगे, ये सभी परिवर्तन और बदलाव उसकी योजना की खातिर घटित होंगे या मिट जाएंगे। उदाहरण के लिए, महामारियों को ही लें। वे बिना चेतावनी दिए ही अचानक फैल जाती हैं। वे कैसे फैलीं या क्यों हुईं, इसके सही कारणों के बारे में किसी को नहीं पता, और जब कभी भी कोई महामारी किसी स्थान पर फैलती है, तो अभिशप्त लोग ऐसी विपत्ति से बच नहीं पाते हैं। मानव-विज्ञान का मानना है कि महामारियाँ ख़तरनाक या हानिकारक सूक्ष्म रोगाणुओं के फैलने से उत्पन्न होती हैं, और उनकी रफ्तार, पहुंच और एक से दूसरे तक संचारण के तरीके का पूर्वानुमान या नियन्त्रण मानव-विज्ञान द्वारा करना संभव नहीं है। हालांकि, मनुष्य हर सम्भव तरीके से महामारी को रोकने का प्रयत्न करता है, लेकिन जब महामारियां फैलती हैं तो कौन-सा व्यक्ति या पशु अपरिहार्य रूप से इसकी चपेट में आ जाएगा, इसे वह नियंत्रित नहीं कर पाता। मनुष्य केवल उनको रोकने का और उनसे बचाव करने का और उन पर शोध करने का प्रयास कर सकता है। परन्तु कोई भी उस मूल वजह को नहीं जानता जो यह बता सके कि किसी महामारी की शुरुआत और अंत कैसे होता है, और न ही कोई उन्हें नियन्त्रित कर सकता है। किसी महामारी के शुरू होने और फैलने पर, सबसे पहले मनुष्य जो कदम उठाता है वह होता है उसका टीका विकसित करना, परन्तु अक्सर टीका तैयार होने से पहले ही वह महामारी अपने आप ही ख़त्म हो जाती है। आखिर क्यों महामारियाँ खत्म हो जाती हैं? कुछ लोग कहते हैं कि रोगाणुओं को नियन्त्रित कर लिया जाता है, कुछ का कहना है कि मौसम के बदलने से वे खत्म हो जाती हैं। ये अनुमान तर्कसंगत हैं या नहीं, विज्ञान इसके बारे में न तो कोई स्पष्टीकरण दे सकता है, न ही कोई सटीक उत्तर। मानवजाति को न केवल इन अटकलबाज़ियों का सामना करना है, वरन महामारियों के बारे में अपनी समझ की कमी और भय से भी निपटना है। अंततः कोई नहीं जानता कि महामारियाँ क्यों शुरू होती हैं या वे क्यों खत्म हो जाती हैं। क्योंकि मानवजाति का विश्वास केवल विज्ञान में है, वह पूरी तरह से उसी पर आश्रित है, वह सृजनकर्ता के अधिकार को नहीं पहचानती या उसकी संप्रभुता को स्वीकार नहीं करती, इसलिए उसे कभी भी इसका कोई उत्तर नहीं मिल पाएगा।

परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन, उसके अधिकार, उसके प्रबन्धन के कारण, सभी चीज़ें जन्म लेती हैं, जीती हैं और नष्ट हो जाती हैं। कुछ चीज़ें धीरे से आती और चली जाती हैं, और मनुष्य नहीं बता पाता कि वे कहाँ से आई थीं या वे चीज़ें जिस तरीके से घटती हैं, उन्हें समझ नहीं पाता है, और वह उन कारणों को तो बिलकुल नहीं समझ पाता कि वे क्यों आती हैं और क्यों चली जाती हैं। यद्यपि मनुष्य अपनी आँखों से वह सब देख सकता है जो अन्य चीजों के बीच घटित होता है, वह अपने कानों से उन्हें सुन सकता है, और अपने शरीर से अनुभव कर सकता है; हालाँकि मनुष्य पर इन सब का असर पड़ता है, यद्यपि मनुष्य अवचेतन रूप से सापेक्ष असाधारणता, नियमितता, यहां तक कि विभिन्न घटनाओं की विचित्रता को भी समझ लेता है, फिर भी उसे पता नहीं होता कि उन घटनाओं के पीछे कौन है, जबकि उनके पीछे सृजनकर्ता की इच्छा और उसका दिमाग है। इन घटनाओं के पीछे अनेक कहानियाँ हैं, कई छिपे हुए सच हैं। क्योंकि मनुष्य भटक कर सृजनकर्ता से बहुत दूर चला गया है, क्योंकि वह इस सच को नहीं स्वीकार करता कि सृजनकर्ता का अधिकार सभी चीज़ों को संचालित करता है, इसलिए वह उन तमाम घटनाओं को कभी नहीं जान और समझ पाएगा जो सृजनकर्ता की संप्रभुता के अन्तर्गत घटती हैं। क्योंकि अधिकांश भागों में, परमेश्वर का नियन्त्रण और संप्रभुता मानव की कल्पना, मानव के ज्ञान, मानव की समझ, और जो कुछ भी मानव-विज्ञान की उपलब्धियां हैं, उन सीमाओं से कहीं ज्यादा है, यह सृजित मानवजाति के ज्ञान की सीमाओं से परे है। कुछ लोग कहते हैं, "चूँकि तुमने खुद परमेश्वर की संप्रभुता नहीं देखी है, तो तुम कैसे विश्वास कर सकते हो कि हर एक चीज़ उसके अधिकार के अधीन है?" हमेशा देखकर ही विश्वास किया जाए ऐसा जरूरी नहीं है; और न ही हमेशा देखकर पहचाना या समझा जाता है। तो विश्वास कहाँ से आता है? मैं यकीन के साथ कह सकता हूँ कि, "विश्वास लोगों की चीज़ों की वास्तविकता और मूल कारणों की समझ और उनके अनुभव की सीमा और गहराई से आता है।" यदि तुम विश्वास करते हो कि परमेश्वर का अस्तित्व है, किन्तु तुम पहचान नहीं पाते, और सभी चीज़ों के ऊपर परमेश्वर के नियन्त्रण और परमेश्वर की संप्रभुता को तो बिलकुल भी समझ नहीं पाते, तो तुम अपने हृदय में यह कभी स्वीकार नहीं कर पाओगे कि परमेश्वर के पास ऐसा अधिकार है और परमेश्वर का अधिकार अद्वितीय है। तुम सृष्टिकर्ता को कभी भी अपना प्रभु, अपना परमेश्वर स्वीकार नहीं कर पाओगे।

सृष्टिकर्ता की संप्रभुता से मानवजाति का भाग्य और विश्व का भाग्य अविभाज्य हैं

तुम सब वयस्क हो। तुम लोगों में से कुछ अधेड़-उम्र के हैं; कुछ लोग वृद्धावस्था में कदम रख चुके हैं। तुम लोग परमेश्वर पर विश्वास न करने से लेकर, उस पर विश्वास करने और परमेश्वर पर विश्वास करना शुरू करने से लेकर परमेश्वर के वचन को स्वीकार करने और उसके कार्यों का अनुभव करने तक के दौर से गुजरे हो। तुम्हें परमेश्वर की संप्रभुता का कितना ज्ञान है? मनुष्य के भाग्य में तुम्हें कौन-सी अंतर्दृष्टियाँ प्राप्त हुई हैं? क्या कोई व्यक्ति हर इच्छित चीज़ को प्राप्त कर सकता है? अपने अस्तित्व में आने के कुछ दशकों के दौरान कितनी चीज़ें हैं जिन्हें जैसा तुम चाहते थे उन्हें उसी तरह से पूरा करने में सक्षम रहे हो? जैसी तुमने कभी उम्मीद नहीं की थी, वैसी कितनी चीज़ें हैं जो हुई हैं? कितनी चीज़ें सुखद आश्चर्यों के रूप में आई हैं? ऐसी कितनी चीज़ें हैं जिनकी इस उम्मीद में लोग अभी भी प्रतीक्षा कर रहे हैं कि उनके परिणाम सुखद होंगे—अवचेतन रूप में सही पल की प्रतीक्षा कर रहे हैं, स्वर्ग की इच्छा की प्रतीक्षा कर रहे हैं? कितनी चीज़ें लोगों को असहाय और कुंठित महसूस कराती हैं? सभी यही सोचकर कि उनकी ज़िन्दगी में हर एक चीज़ वैसी ही होगी जैसा वे चाहते हैं, कि उनके पास भोजन या वस्त्रों का अभाव नहीं होगा, और उनका भाग्य असाधारण ढंग से उदित होगा, अपने भाग्य को लेकर आशाओं से भरे हैं। कोई भी ऐसा जीवन नहीं चाहता जिसमें दरिद्रता हो, जो दबा-कुचला हो, कठिनाइयों से भरा हो, आपदाओं से घिरा हो। परन्तु लोग इन चीज़ों का न तो पूर्वानुमान लगा सकते हैं, न ही उन्हें नियन्त्रित कर सकते हैं। शायद कुछ लोगों के लिए, अतीत बस अनुभवों का घालमेल है; वे कभी नहीं सीखते कि स्वर्ग की इच्छा क्या है, और न ही वे इसकी कोई परवाह ही करते हैं कि वह क्या है। वे बिना सोचे समझे, जानवरों की तरह, दिन-रात जीते हुए, इस बारे में परवाह किए बिना कि मानवजाति का भाग्य क्या है, या मानव क्यों जीवित है या उसे किस प्रकार जीना चाहिए, अपना जीवन बिताते हैं। ऐसे लोग मनुष्य के भाग्य के बारे में कोई समझ प्राप्त किए बिना ही वृद्धावस्था तक पहुँच जाते हैं, और मरने की घड़ी तक उन्हें पता ही नहीं होता है कि जीवन वास्तव में क्या है। ऐसे लोग मरे हुए हैं; वे ऐसे प्राणी हैं जिनमें आत्मा नहीं है; वे जानवर हैं। यद्यपि लोग सृष्टि के अंदर रहते हैं और अनेक तरीकों से आनन्द प्राप्त करते हैं जिनसे संसार अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है, यद्यपि वे इस भौतिक संसार को निरन्तर आगे बढ़ते हुए देखते हैं, फिर भी उनके स्वयं के अनुभव का—जो उनका हृदय और उनकी आत्मा महसूस और अनुभव करती है—भौतिक चीज़ों के साथ कोई लेना-देना नहीं होता, और कोई भी भौतिक चीज़ अनुभव का पर्याय नहीं बन सकती। अनुभव किसी व्यक्ति के हृदय की गहराई में निहित एक अभिज्ञान है, ऐसी चीज़ है जिसे खुली आँखों से नहीं देखा जा सकता। यह अभिज्ञान मनुष्य के जीवन और उसके भाग्य के बारे में उसकी समझ, और उसकी अनुभूति में निहित होता है। यह प्रायः किसी को भी इस आशंका से ग्रस्त कर देता है कि एक अनदेखा स्वामी इन सभी चीज़ों को व्यवस्थित कर रहा है, मनुष्य के लिए हर एक चीज़ का आयोजन कर रहा है। इन सबके बीच, व्यक्ति भाग्य की व्यवस्थाओं और आयोजनों को स्वीकार करने के अलावा और कुछ नहीं कर सकता; और इंसान सृजनकर्ता द्वारा उसके लिए बनाए गए मार्ग को स्वीकारने और अपनी नियति पर सृजनकर्ता की संप्रभुता को स्वीकारने के अलावा कुछ नहीं कर पाता। यह एक निर्विवाद सत्य है। इंसान अपने भाग्य के बारे में कोई भी अन्तर्दृष्टि और दृष्टिकोण रखे, लेकिन वह इस सच्चाई को बदल नहीं सकता।

तुम प्रतिदिन कहाँ जाओगे, क्या करोगे, किस व्यक्ति या चीज़ का सामना करोगे, क्या कहोगे, तुम्हारे साथ क्या होगा—क्या इनमें से किसी के बारे में भी भविष्यवाणी की जा सकती है? लोग इन सभी घटनाओं का पूर्वानुमान नहीं लगा सकते, और वे स्थितियां क्या रूप लेंगी, उस पर तो उनका बिलकुल भी नियन्त्रण नहीं है। जीवन में, ऐसी अप्रत्याशित घटनाएँ हर समय घटती हैं, और ऐसा प्रतिदिन होता है। ये रोज़ होने वाले उतार-चढ़ाव, और जिस तरीके से वे प्रकट होते हैं, या जिस ढंग से वे सामने आते हैं, मनुष्य को निरन्तर याद दिलाते हैं कि कुछ भी एकाएक नहीं होता, प्रत्येक घटना के घटने की प्रक्रिया, प्रत्येक घटना की अनिवार्यता का स्वरूप, मनुष्य की इच्छा से बदला नहीं जा सकता। हर घटना सृजनकर्ता की ओर से मनुष्यजाति को दी गई एक चेतावनी होती है, और वह यह सन्देश भी देती है कि मनुष्य अपने भाग्य को नियन्त्रित नहीं कर सकता। प्रत्येक घटना मानवजाति की अनियन्त्रित, व्यर्थ महत्वाकांक्षा और अपने भाग्य को अपने हाथों में लेने की इच्छा का खण्डन है। ये मानवजाति के चेहरे पर एक के बाद एक मारे गए जोरदार थप्पड़ों की तरह हैं, जो लोगों को इस बात पर पुनर्विचार करने के लिए बाध्य करती हैं कि अंततः कौन है जो उनके भाग्य को संचालित और नियन्त्रित करता है। और जब मनुष्य की महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ लगातार नाकाम और ध्वस्त होती हैं, तो मनुष्य स्वाभाविक रूप से जो उसके भाग्य में है, उसे अवचेतन मन में स्वीकार कर लेता है—वास्तविकता की स्वीकृति, स्वर्ग की इच्छा और सृजनकर्ता की संप्रभुता की स्वीकृति। इन दैनिक उतार-चढ़ावों से लेकर, समस्त मानव-जीवन के भाग्य तक, ऐसा कुछ भी नहीं है जो सृजनकर्ता की योजना और उसकी संप्रभुता को प्रकट नहीं करता हो; ऐसा कुछ भी नहीं है जो यह सन्देश नहीं देता हो कि "सृजनकर्ता के अधिकार से परे नहीं जाया जा सकता," जो इस शाश्वत सत्य को व्यक्त न करता हो कि "सृजनकर्ता का अधिकार ही सर्वोच्च है।"

मानवजाति और विश्व के भाग्य सृजनकर्ता की संप्रभुता के साथ घनिष्ठता से गुँथे हुए हैं, और सृजनकर्ता के आयोजनों के साथ अविभाज्य रूप से बँधे हुए हैं; अंत में, वे सृजनकर्ता के अधिकार से अलग नहीं हो सकते। सभी चीज़ों के नियमों के माध्यम से मनुष्य सृजनकर्ता के आयोजन और उसकी संप्रभुता को समझ जाता है; सभी चीज़ों के जीने के नियमों के माध्यम से वह सृजनकर्ता के संचालन को समझ जाता है, सभी चीज़ों की नियति से वह उन तरीकों के बारे में अनुमान लगा लेता है जिनके द्वारा सृजनकर्ता अपनी संप्रभुता का उपयोग करता है और उन पर नियन्त्रण करता है; मानवजाति के जीवन चक्रों और सभी चीज़ों में, मनुष्य वास्तव में सभी चीज़ों और जीवित प्राणियों के लिए सृजनकर्ता के आयोजनों और व्यवस्थाओं का अनुभव करता है, वह देखता है कि किस प्रकार वे आयोजन और व्यवस्थाएँ सभी सांसारिक कानूनों, नियमों, संस्थानों और अन्य सभी शक्तियों और ताक़तों की जगह ले लेती हैं। ऐसा होने पर, मानवजाति यह मानने को बाध्य हो जाती है कि कोई भी सृजित प्राणी सृजनकर्ता की संप्रभुता का उल्लंघन नहीं कर सकता, सृजनकर्ता द्वारा पूर्वनिर्धारित घटनाओं और चीज़ों को कोई भी शक्ति छीन या बदल नहीं सकती। मनुष्य इन अलौकिक कानूनों और नियमों के अधीन जीता है, सभी चीज़ें कायम रहती हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी वंश बढ़ाती हैं और फैलती हैं। क्या यह सृजनकर्ता के अधिकार का असली मूर्तरूप नहीं है? यद्यपि मनुष्य, वस्तुगत नियमों में, सभी घटनाओं और सभी चीज़ों के लिए सृजनकर्ता की संप्रभुता और उसके विधान को देखता है, फिर भी कितने लोग सृजनकर्ता द्वारा विश्व के लिए बनाए गए संप्रभुता के सिद्धान्तों को समझ पाते हैं? कितने लोग वास्तव में अपने भाग्य पर सृजनकर्ता की संप्रभुता और व्यवस्था को जान, पहचान, और स्वीकार कर पाते हैं, और उसके प्रति समर्पण कर पाते हैं? कौन, सभी चीज़ों पर सृजनकर्ता की संप्रभुता के सत्य पर विश्वास करने के बाद, वास्तव में विश्वास करेगा और पहचानेगा कि सृजनकर्ता मानव जीवन के भाग्य को भी निर्धारित करता है? कौन वास्तव में इस सच को समझ सकता है कि मनुष्य का भाग्य सृजनकर्ता की हथेली पर टिका हुआ है? इस सच्चाई को जानकर कि वह मानवजाति के भाग्य को संचालित और नियन्त्रित करता है, सृजनकर्ता की संप्रभुता के प्रति मानवजाति को किस प्रकार का दृष्टिकोण अपनाना चाहिए? जो कोई भी इस सच्चाई से रूबरू हो चुका है, उसे अपने जीवन में इस बारे में निर्णय ले लेना चाहिए।

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