स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III

परमेश्वर का अधिकार (II) भाग तीन

छठा मोड़ः मृत्यु

इतनी हलचल, भाग-दौड़, इतनी कुंठाओं और निराशाओं के पश्चात्, इतने सारे सुख-दुःख और उतार-चढ़ावों के पश्चात्, इतने सारे अविस्मरणीय वर्षों के पश्चात्, बार-बार ऋतुओं को परिवर्तित होते हुए देखने के पश्चात्, व्यक्ति बिना ध्यान दिए ही जीवन के महत्वपूर्ण पड़ावों को पार कर जाता है, और पलक झपकते ही वह स्वयं को अपने जीवन के ढलते हुए वर्षों में पाता है। समय के निशान उसके पूरे शरीर पर छपे होते हैं : अब वह सीधा खड़ा नहीं हो सकता है, उसके काले बाल सफेद हो चुके होते हैं, जो आँखें कभी चमकदार थीं, साफ देख सकती थीं, वे आँखें धुँधली हो गई हैं, और चिकनी तथा कोमल त्वचा पर झुर्रियाँ और धब्बे पड़ गए हैं। उसकी सुनने की शक्ति कमज़ोर हो गई है, उसके दाँत ढीले हो कर गिर गए हैं, उसकी प्रतिक्रियाएँ धीमी हो गई हैं, वह तेज़ गति से नहीं चल पाता है...। इस मोड़ पर, उसने अपनी जवानी के जोशीले दिनों को अंतिम विदाई दे दी है और अपने जीवन की संध्या में प्रवेश कर लिया है : बुढ़ापा। अब, वह मृत्यु का सामना करेगा, जो किसी मनुष्य के जीवन का अंतिम मोड़ है।

1. मनुष्य के जीवन और मृत्यु पर केवल सृजनकर्ता का ही सामर्थ्य है

यदि किसी व्यक्ति का जन्म उसके पिछले जीवन पर नियत था, तो उसकी मृत्यु उस नियति के अंत को चिह्नित करती है। यदि किसी का जन्म इस जीवन में उसके ध्येय की शुरुआत है, तो उसकी मृत्यु उसके उस ध्येय के अंत को चिह्नित करती है। चूँकि सृजनकर्ता ने किसी व्यक्ति के जन्म के लिए परिस्थितियों का एक निश्चित समुच्चय निर्धारित किया है, इसलिए स्पष्ट है कि उसने उसकी मृत्यु के लिए भी परिस्थितियों के एक निश्चित समुच्चय की व्यवस्था की है। दूसरे शब्दों में, कोई भी व्यक्ति संयोग से पैदा नहीं होता है, किसी भी व्यक्ति की मृत्यु अकस्मात नहीं होती है, और जन्म और मृत्यु दोनों ही अनिवार्य रूप से उसके पिछले और वर्तमान जीवन से जुड़े हैं। किसी व्यक्ति की जन्म और मृत्यु की परिस्थितियाँ दोनों ही सृजनकर्ता द्वारा पूर्वनिर्धारित की जाती हैं; यह व्यक्ति की नियति है, और व्यक्ति का भाग्य है। चूँकि किसी व्यक्ति के जन्म के बारे में बहुत सारे स्पष्टीकरण होते हैं, वैसे ही यह भी सच है कि किसी व्यक्ति की मृत्यु भी विशेष परिस्थितियों के एक भिन्न समुच्चय में होगी। लोगों के अलग-अलग जीवनकाल और उनकी मृत्यु होने के अलग-अलग तरीके और समय होने का यही कारण है। कुछ लोग ताकतवर और स्वस्थ होते हैं, फिर भी जल्दी मर जाते हैं; कुछ लोग कमज़ोर और बीमार होते हैं, फिर भी बूढ़े होने तक जीवित रहते हैं, और बिना कोई कष्ट पाए मर जाते हैं। कुछ की मृत्यु अस्वाभाविक कारणों से होती है, और कुछ की मृत्यु स्वाभाविक कारणों से होती है। कुछ का जीवन उनके घर से दूर समाप्त होता है, कुछ अपने प्रियजनों के साथ उनके सानिध्य में आखिरी साँस लेते हैं। कुछ आसमान में मरते हैं, कुछ धरती के नीचे। कुछ पानी के अन्दर डूब जाते हैं, कुछ आपदाओं में अपनी जान गँवा देते हैं। कुछ सुबह मरते हैं, कुछ रात्रि में। ... हर कोई एक शानदार जन्म, एक बहुत बढ़िया ज़िन्दगी, और एक गौरवशाली मृत्यु की कामना करता है, परन्तु कोई भी व्यक्ति अपनी नियति से परे नहीं जा सकता है, कोई भी सृजनकर्ता की संप्रभुता से बचकर नहीं निकल सकता है। यह मनुष्य का भाग्य है। मनुष्य अपने भविष्य के लिए अनगिनत योजनाएँ बना सकता है, परन्तु कोई भी अपने जन्म के तरीके और समय की और संसार से अपने प्रस्थान की योजना नहीं बना सकता है। यद्यपि लोग मृत्यु को टालने और उसको रोकने की भरसक कोशिश करते हैं, फिर भी, उनके जाने बिना, मृत्यु चुपचाप पास आ जाती है। कोई नहीं जानता कि वह कब मरेगा या वह कैसे मरेगा, और यह तो बिलकुल भी नहीं जानता कि वह कहाँ मरेगा। स्पष्ट रूप से, न तो मानवजाति के पास जीवन और मृत्यु की सामर्थ्य है, न ही प्राकृतिक संसार में किसी प्राणी के पास, केवल अद्वितीय अधिकार वाले सृजनकर्ता के पास ही यह सामर्थ्य है। मनुष्य का जीवन और उसकी मृत्यु प्राकृतिक संसार के किन्हीं नियमों का परिणाम नहीं है, बल्कि सृजनकर्ता के अधिकार की संप्रभुता का परिणाम है।

2. जो सृजनकर्ता की संप्रभुता को नहीं जानता है वह मृत्यु के भय से त्रस्त रहेगा

वृद्धावस्था में पहुँचने के बाद व्यक्ति परिवार का भरण-पोषण करने या जीवन में अपनी उच्च महत्वाकांक्षाओं को पूरा न कर पाने की चुनौती का सामना नहीं करता है, बल्कि उसके सामने चुनौती होती है कि वह किस प्रकार अपने जीवन को अलविदा कहे, किस प्रकार अपने जीवन के अंत का सामना करे, किस प्रकार अपने जीवन की सज़ा को खत्म करने के लिए विराम लगाए। हालाँकि ऊपरी तौर पर ऐसा प्रतीत होता है कि लोग मृत्यु पर कम ही ध्यान देते हैं, फिर भी कोई इस विषय के बारे में जानने से बच नहीं सकता, क्योंकि किसी को भी नहीं पता कि मृत्यु के पार कोई और संसार है भी या नहीं, एक ऐसा संसार जिसके बारे में मनुष्य सोच नहीं सकता, या जिसका एहसास नहीं कर सकता, एक ऐसा संसार जिसके बारे में कोई कुछ भी नहीं जानता है। इसी कारण आमने-सामने मृत्यु का सामना करने से लोग डरते हैं, वे इसका उस तरह से सामना करने से डरते हैं जैसा उनको करना चाहिए; बल्कि वे इस विषय को टालने की भरसक कोशिश करते हैं। और इसलिए यह प्रत्येक व्यक्ति में मृत्यु का भय भर देता है, और जीवन के इस अनिवार्य सच पर रहस्य का परदा डालते हुए प्रत्येक व्यक्ति के हृदय पर लगातार बने रहने वाली छाया डाल देता है।

जब किसी व्यक्ति को लगता है कि उसके शरीर का क्षय हो रहा है, जब उसे आभास होता है कि वह मृत्यु के करीब पहुँच रहा है, तो उसे एक अस्पष्ट ख़ौफ़, एक अवर्णनीय भय जकड़ लेता है। मृत्यु के भय से वह और भी अधिक अकेला और असहाय महसूस करने लगता है, और इस मोड़ पर वह स्वयं से पूछता है : मनुष्य कहाँ से आया था? मनुष्य कहाँ जा रहा है? क्या मनुष्य जब मरता है तो उसका पूरा जीवन तेज़ी से उसके सामने से गुज़र जाता है? क्या यही वह समय है जो मनुष्य के जीवन के अंत को चिह्नित करता है? अंत में, जीवन का क्या अर्थ है? आख़िरकार, जीवन का मूल्य क्या है? क्या यह प्रसिद्धि और सौभाग्य पाना है? क्या यह परिवार को बढ़ाना है? ... चाहे इन विशेष प्रश्नों के बारे में किसी ने सोचा हो या नहीं, चाहे कोई मृत्यु से कितना भी डरता हो, प्रत्येक व्यक्ति के हृदय की गहराई में हमेशा से इन रहस्यों के बारे में जानने की इच्छा रही है, जीवन को न समझ पाने का एहसास रहा है, और इनके साथ, संसार के बारे में भावुकता, उसे छोड़कर जाने की अनिच्छा समाहित होती है। कदाचित् कोई भी स्पष्ट रूप से नहीं कह सकता है कि वह क्या है जिससे मनुष्य भयभीत होता है, वह क्या है जिसकी मनुष्य तलाश करना चाहता है, वह क्या है जिसके बारे में वह भावुक होता है और वह किसे पीछे छोड़ने को अनिच्छुक होता है ...

क्योंकि लोगों को मृत्यु से डर लगता है, इसलिए वे बहुत ज्यादा चिंता करते है; क्योंकि वे मृत्यु से डरते हैं, इसलिए ऐसा बहुत कुछ है जिसे वे छोड़ नहीं पाते। जब वे मरने वाले होते हैं, तो कुछ लोग किसी न किसी बात को लेकर झल्लाते रहते हैं; वे अपने बच्चों, अपने प्रियजनों, और धन-सम्पत्ति के बारे में चिंता करते हैं, मानो चिंता करके वे उस पीड़ा और भय को मिटा सकते हैं जो मृत्यु लेकर आती है, मानो कि जीवित प्राणियों के साथ एक प्रकार की घनिष्ठता बनाए रखकर, अपनी उस लाचारी और एकाकीपन से बच सकते हैं जो मृत्यु के साथ आती है। मनुष्य के हृदय की गहराई में एक अस्पष्ट-सा भय होता है, अपने प्रियजनों से बिछुड़ने का भय, कभी नीले आसमान को न देख पाने का भय, कभी इस भौतिक संसार को न देख पाने का भय। अपने प्रियजनों के साथ की अभ्यस्त, एक एकाकी आत्मा, अपनी पकड़ को ढीला करने और नितांत अकेले, एक अनजान और अपरिचित संसार में प्रस्थान नहीं करना चाहती है।

3. प्रसिद्धि और सौभाग्य की तलाश में बिताया गया जीवन व्यक्ति को मृत्यु के समय घबराहट में डाल देता है

सृजनकर्ता की संप्रभुता और उसके द्वारा पूर्वनियति के कारण, एक एकाकी आत्मा को, जिसने शून्य से जीवन आरंभ किया था, माता-पिता और परिवार मिलता है, मानव जाति का एक सदस्य बनने का अवसर मिलता है, मानव जीवन का अनुभव करने और दुनिया को देखने का अवसर मिलता है। इस आत्मा को सृजनकर्ता की संप्रभुता का अनुभव करने, सृजनकर्ता के सृजन की अद्भुतता को जानने, और सबसे बढ़कर, सृजनकर्ता के अधिकार को जानने और उसके अधीन होने का अवसर भी मिलता है। फिर भी, अधिकांश लोग वास्तव में इस दुर्लभ और क्षण में गुज़र जाने वाले अवसर को नहीं पकड़ते हैं। व्यक्ति भाग्य के विरुद्ध लड़ते हुए अपने पूरे जीवन भर की ऊर्जा को खत्म कर देता है, अपने परिवार का भरण-पोषण करने की कोशिश में दौड़-भाग करते हुए और धन-सम्पत्ति और हैसियत के बीच भागते हुए अपना सारा समय बिता देता है। जिन चीज़ों को लोग सँजो कर रखते हैं, वे हैं परिवार, पैसा और प्रसिद्धि; वे इन्हें जीवन में सबसे महत्वपूर्ण चीज़ों के रूप में देखते हैं। सभी लोग अपने भाग्य के बारे में शिकायत करते हैं, फिर भी वे अपने दिमाग में उन प्रश्नों को पीछे धकेल देते हैं जिनके बारे में जानना और समझना बहुत ज़रूरी है : मनुष्य जीवित क्यों है, मनुष्य को कैसे जीना चाहिए, जीवन का मूल्य और अर्थ क्या है। जब तक कि उनकी युवावस्था उनका साथ नहीं छोड़ देती, उनके बाल सफेद नहीं हो जाते और उनकी त्वचा पर झुर्रियाँ नहीं पड़ जातीं, वे अपना सारा जीवन शोहरत और दौलत के पीछे भागने में ही लगा देते हैं। वे इस तरह तब तक जीते रहते हैं जब तक वे यह नहीं देख लेते कि प्रसिद्धि व सौभाग्य किसी का बुढ़ापा आने से रोक नहीं सकते हैं, धन हृदय के खालीपन को नहीं भर सकता है; जब तक वे यह नहीं समझ लेते हैं कि कोई भी व्यक्ति जन्म, उम्र के बढ़ने, बीमारी और मृत्यु के नियम से बच नहीं सकता है, और नियति ने उनके लिए जो तय किया है, कोई भी उससे बच कर भाग नहीं सकता है। केवल जब उन्हें जीवन के अंतिम मोड़ का सामना करने को बाध्य होना पड़ता है, तभी सही मायने में उन्हें समझ आता है कि चाहे किसी के पास करोड़ों रुपयों की संपत्ति हो, उसके पास विशाल संपदा हो, भले ही उसे विशेषाधिकार प्राप्त हों और वह ऊँचे पद पर हो, फिर भी वह मृत्यु से नहीं बच सकता है, और उसे अपनी मूल स्थिति में वापस लौटना ही पड़ेगा : एक एकाकी आत्मा, जिसके पास अपना कुछ भी नहीं है। जब लोगों के पास माता-पिता होते हैं, तो उन्हें लगता है कि उनके माता-पिता ही सब कुछ हैं; जब लोगों के पास संपत्ति होती है, तो वे सोचते हैं कि पैसा ही उनका मुख्य आधार है, यही वह साधन है जिसके द्वारा जीवन जिया जा सकता है; जब लोगों के पास हैसियत होती है, तो वे उससे कसकर चिपके रहते हैं और उसकी खातिर अपने जीवन को जोखिम में डाल देते हैं। केवल जब लोग इस संसार को छोड़कर जाने वाले होते हैं तभी वे एहसास करते हैं कि जिन चीज़ों का पीछा करते हुए उन्होंने अपने जीवन को बिताया है वे पल भर में गायब हो जाने वाले बादलों के अलावा कुछ नहीं हैं, उनमें से किसी को भी वे थामे नहीं रह सकते हैं, उनमें से किसी को भी वे अपने साथ नहीं ले जा सकते हैं, उनमें से कोई भी उन्हें मृत्यु से छुटकारा नहीं दिला सकता है, उनमें से कोई भी उस एकाकी आत्मा का उसकी वापसी यात्रा में साथ या उसे सांत्वना नहीं दे सकता है; और यही नहीं, उनमें से कोई भी चीज़ किसी व्यक्ति को बचा नहीं सकती है और मृत्यु को हराने में मदद नहीं कर सकती है। प्रसिद्धि और सौभाग्य जिन्हें कोई व्यक्ति इस भौतिक संसार में अर्जित करता है, उसे अस्थायी संतुष्टि, थोड़े समय का आनंद, सुख-सुविधाओं का एक झूठा एहसास प्रदान करते हैं, और इस प्रक्रिया में उसे उसके मार्ग से भटका देते हैं। और इसलिए लोग, जब सुकून, आराम, और हृदय की शान्ति की लालसा करते हुए, मानवता के इस विशाल समुद्र में छटपटाते हैं, एक के बाद एक आती लहरें उन्हें निगल जाती हैं। जब लोगों को अब भी ऐसे प्रश्नों के जवाब ढूंढने हैं, जो बहुत महत्वपूर्ण हैं जैसे—वे कहाँ से आए हैं, वे जीवित क्यों हैं, वे कहाँ जा रहे हैं, इत्यादि—तभी प्रसिद्धि और सौभाग्य उन्हें बहका देते हैं, वे उनके द्वारा गुमराह और नियन्त्रित हो जाते हैं, और हमेशा के लिए खो जाते हैं। समय पंख लगाए उड़ जाता है; पलक झपकते ही अनेक वर्ष बीत जाते हैं, इससे पहले कि एक व्यक्ति को एहसास हो, वह अपने जीवन के उत्तम वर्षों को अलविदा कह चुका होता है। जब किसी व्यक्ति के संसार से जाने का समय आ जाता है, तो धीरे-धीरे उसे इस बात का एहसास होता है कि संसार की हर चीज़ दूर हो रही है, वह अब उन चीज़ों को थामे नहीं रह सकता है जो मूल रूप से उसकी थीं; केवल तभी वह सही मायनों में यह महसूस करता है कि वह एक रोते हुए शिशु की तरह है, जो अभी-अभी संसार में आया है, जिसके पास अपना कहने को कुछ नहीं है। इस मोड़ पर, व्यक्ति इस बात पर विचार करने के लिए बाध्य हो जाता है कि उसने जीवन में क्या किया है, जीवित रहने का क्या मोल है, इसका अर्थ क्या है, वह इस संसार में क्यों आया है। और इस मोड़ पर, वह और भी अधिक जानना चाहता है कि वास्तव में कोई अगला जन्म है भी या नहीं, वास्तव में स्वर्ग है भी या नहीं, वास्तव में कठोर दंड मिलता भी है या नहीं...। व्यक्ति जितना मृत्यु के नज़दीक पहुँचने लगता है, वह उतना ही अधिक यह समझना चाहता है कि वास्तव में जीवन किस बारे में है; व्यक्ति जितना मृत्यु के नज़दीक पहुँचने लगता है, उसे उतना ही अधिक अपना हृदय खाली महसूस होने लगता है; व्यक्ति जितना मृत्यु के नज़दीक पहुँचने लगता है, वह उतना ही अधिक असहाय महसूस करने लगता है; और इस प्रकार मृत्यु के बारे में उसका भय दिन-प्रतिदिन बढ़ता जाता है। जब मनुष्य मृत्यु के नज़दीक पहुँचता है तो उसके अंदर इस तरह की भावनाएँ प्रदर्शित होने के दो कारण होते हैं : पहला, वह अपनी प्रसिद्धि और संपत्ति को खोने ही वाले होते हैं जिन पर उनका जीवन आधारित था, वह हर चीज़ जो वे इस संसार में देखते हैं, उसे पीछे छोड़ने वाले होते हैं; और दूसरा, वे नितांत अकेले एक अनजान संसार का सामना करने वाले होते हैं, एक रहस्यमयी, अज्ञात दुनिया का सामना करने वाले होते हैं जहाँ वे कदम रखने से भी डरते हैं, जहाँ उनका कोई प्रियजन नहीं होता है और सहारे का किसी प्रकार का साधन नहीं होता है। इन दो कारणों की वजह से, मृत्यु का सामना करने वाला हर एक व्यक्ति बेचैनी महसूस करता है, अत्यंत घबराहट और लाचारी के एहसास का अनुभव करता है, ऐसा एहसास जिसे उसने पहले कभी नहीं महसूस किया था। जब लोग वास्तव में इस मोड़ पर पहुँचते हैं केवल तभी उन्हें समझ आता है कि जब कोई इस पृथ्वी पर कदम रखता है, तो सबसे पहली बात जो उसे अवश्य समझनी चाहिए, वह है कि मानव कहाँ से आता है, लोग जीवित क्यों हैं, कौन मनुष्य के भाग्य का निर्धारण करता है, कौन मानव का भरण-पोषण करता है और किसके पास उसके अस्तित्व के ऊपर संप्रभुता है। यह ज्ञान ही वह सच्चा माध्यम है जिसके द्वारा कोई जीवन जीता है, मानव के जीवित बचे रहने के लिए आवश्यक आधार है—न कि यह सीखना कि किस प्रकार अपने परिवार का भरण-पोषण करें या किस प्रकार प्रसिद्धि और धन-संपत्ति प्राप्त करें, किस प्रकार सबसे विशिष्ट लगें या किस प्रकार और अधिक समृद्ध जीवन बिताएँ, और यह तो बिलकुल नहीं कि किस प्रकार दूसरों से आगे बढ़ें और उनके विरुद्ध सफलतापूर्वक प्रतिस्पर्धा करें। यद्यपि जीवित बचे रहने के जिन विभिन्न कौशल पर महारत हासिल करने के लिए लोग अपना जीवन गुज़ार देते हैं वे भरपूर भौतिक सुख दे सकते हैं, लेकिन वे किसी मनुष्य के हृदय में कभी भी सच्ची शान्ति और तसल्ली नहीं ला सकते हैं, बल्कि इसके बदले वे लोगों को निरंतर उनकी दिशा से भटकाते हैं, लोगों के लिए स्वयं पर नियंत्रण रखना कठिन बनाते हैं, और उन्हें जीवन का अर्थ सीखने के हर अवसर से वंचित कर देते हैं; उत्तरजीविता के ये कौशल इस बारे में उत्कंठा का एक अंतर्प्रवाह पैदा करते हैं कि किस प्रकार सही ढंग से मृत्यु का सामना करें। इस तरह से, लोगों के जीवन बर्बाद हो जाते हैं। सृजनकर्ता सभी के साथ निष्पक्ष ढंग से व्यवहार करता है, सभी को उसकी संप्रभुता का अनुभव करने और उसे जानने का जीवनभर का अवसर प्रदान करता है, फिर भी, जब मृत्यु नज़दीक आती है, जब मौत का साया उस पर मंडराता है, केवल तभी मनुष्य उस रोशनी को देखना आरंभ करता है—और तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।

लोग अपना जीवन धन-दौलत और प्रसिद्धि का पीछा करते हुए बिता देते हैं; वे इन तिनकों को यह सोचकर कसकर पकड़े रहते हैं, कि केवल ये ही उनके जीवन का सहारा हैं, मानो कि उनके होने से वे निरंतर जीवित रह सकते हैं, और मृत्यु से बच सकते हैं। परन्तु जब मृत्यु उनके सामने खड़ी होती है, केवल तभी उन्हें समझ आता है कि ये चीज़ें उनकी पहुँच से कितनी दूर हैं, मृत्यु के सामने वे कितने कमज़ोर हैं, वे कितनी आसानी से बिखर जाते हैं, वे कितने एकाकी और असहाय हैं, और वे कहीं से सहायता नही माँग सकते हैं। उन्हें समझ आ जाता है कि जीवन को धन-दौलत और प्रसिद्धि से नहीं खरीदा जा सकता है, कि कोई व्यक्ति चाहे कितना ही धनी क्यों न हो, उसका पद कितना ही ऊँचा क्यों न हो, मृत्यु के सामने सभी समान रूप से कंगाल और महत्वहीन हैं। उन्हें समझ आ जाता है कि धन-दौलत से जीवन नहीं खरीदा जा सकता है, प्रसिद्धि मृत्यु को नहीं मिटा सकती है, न तो धन-दौलत और न ही प्रसिद्धि किसी व्यक्ति के जीवन को एक मिनट, या एक पल के लिए भी बढ़ा सकती है। लोग जितना अधिक इस प्रकार महसूस करते हैं, उतनी ही अधिक उनकी जीवित रहने की लालसा बढ़ जाती है; लोग जितना अधिक इस प्रकार महसूस करते हैं, उतना ही अधिक वे मृत्यु के पास आने से भयभीत होते हैं। केवल इसी मोड़ पर उन्हें वास्तव में समझ में आता है कि उनका जीवन उनका नहीं है, और उनके नियंत्रण में नहीं है, और किसी का इस पर वश नहीं है कि वह जीवित रहेगा या मर जाएगा—यह सब उसके नियंत्रण से बाहर है।

4. सृजनकर्ता के प्रभुत्व के अधीन आओ और शान्ति से मृत्यु का सामना करो

जिस क्षण किसी व्यक्ति का जन्म होता है, तब एक एकाकी आत्मा पृथ्वी पर जीवन का अपना अनुभव आरंभ करती है, सृजनकर्ता के अधिकार का अपना अनुभव आरंभ करती है, जिसे सृजनकर्ता ने उसके लिए व्यवस्थित किया है। कहने की आवश्यकता नहीं कि, यह उस व्यक्ति—उस आत्मा—के लिए सृजनकर्ता की संप्रभुता का ज्ञान अर्जित करने का, और उसके अधिकार को जानने का और उसे व्यक्तिगत रूप से अनुभव करने का सर्वोत्तम अवसर है। लोग सृजनकर्ता द्वारा उनके लिए लागू किए गए भाग्य के नियमों के अनुसार अपना जीवन जीते हैं जिसे, और किसी भी समझदार व्यक्ति के लिए जिसके पास विवेक है, पृथ्वी पर कई दशकों तक जीवन गुज़ारने के बाद, सृजनकर्ता की संप्रभुता को स्वीकार करना और उसके अधिकार को जान जाना कोई कठिन कार्य नहीं है। इसलिए, प्रत्येक व्यक्ति के लिए, कई दशकों के अपने जीवन-अनुभवों के द्वारा, यह समझना बहुत आसान है कि सभी मनुष्यों के भाग्य पूर्वनियत होते हैं, और यह समझना या इस बात का सार निकालना बहुत सरल होना चाहिए कि जीवित होने का अर्थ क्या है। जब कोई व्यक्ति जीवन की इन सीखों को आत्मसात करता है, तो धीरे-धीरे उसकी समझ में आने लगता है कि जीवन कहाँ से आता है, यह समझने लगता है कि हृदय को सचमुच किसकी आवश्यकता है, कौन उसे जीवन के सही मार्ग पर ले जाएगा, मनुष्य के जीवन का ध्येय और लक्ष्य क्या होना चाहिए। धीरे-धीरे वह समझने लगेगा कि यदि वह सृजनकर्ता की आराधना नहीं करता है, यदि वह उसके प्रभुत्व के अधीन नहीं आता है, तो जब मृत्यु का सामना करने का समय आएगा—जब उसकी आत्मा एक बार फिर से सृजनकर्ता का सामना करने वाली होगी—तब उसका हृदय असीमित भय और बेचैनी से भर जाएगा। यदि कोई व्यक्ति इस संसार में कई दशकों तक जीवित रहा है और फिर भी नहीं जान पाया है कि मानव जीवन कहाँ से आता है, न ही यह समझ पाया है कि किसकी हथेली में मनुष्य का भाग्य निहित है, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि वह शान्ति से मृत्यु का सामना नहीं कर पाएगा। जिस व्यक्ति ने जीवन के कई दशकों का अनुभव करने के बाद सृजनकर्ता की संप्रभुता का ज्ञान प्राप्त कर लिया है, वह ऐसा व्यक्ति है जिसके पास जीवन के अर्थ और मूल्य की सही समझ है। ऐसे व्यक्ति के पास सृजनकर्ता की संप्रभुता के वास्तविक अनुभव और समझ के साथ जीवन के उद्देश्य का गहन ज्ञान है, और उससे भी बढ़कर, वह सृजनकर्ता के अधिकार के समक्ष समर्पण कर सकता है। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के द्वारा मानवजाति के सृजन का अर्थ समझता है, वह समझता है कि मनुष्य को सृजनकर्ता की आराधना करनी चाहिए, कि जो कुछ भी मनुष्य के पास है, वह सृजनकर्ता से आता है और वह निकट भविष्य में ही किसी दिन उसके पास लौट जाएगा। ऐसा व्यक्ति समझता है कि सृजनकर्ता मनुष्य के जन्म की व्यवस्था करता है और मनुष्य की मृत्यु पर उसकी संप्रभुता है, और जीवन व मृत्यु दोनों सृजनकर्ता के अधिकार द्वारा पूर्वनियत हैं। इसलिए, जब कोई व्यक्ति वास्तव में इन बातों को समझ लेता है, तो वह शांति से मृत्यु का सामना करने, अपनी सारी संसारिक संपत्तियों को शांतिपूर्वक छोड़ने, और जो होने वाला है, उसे खुशी से स्वीकार व समर्पण करने, और सृजनकर्ता द्वारा व्यवस्थित जीवन के अंतिम मोड़ का स्वागत करने में सक्षम होगा न कि आँखें मूँदकर उससे डरेगा और संघर्ष करेगा। यदि कोई जीवन को सृजनकर्ता की संप्रभुता का अनुभव करने के एक अवसर के रूप में देखता है और उसके अधिकार को जानने लगता है, यदि कोई अपने जीवन को सृजित किए गए प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य को निभाने और अपने ध्येय को पूरा करने के एक दुर्लभ अवसर के रूप में देखता है, तो जीवन के बारे में उसके पास निश्चित ही सही दृष्टिकोण होगा, और वह ऐसा जीवन बिताएगा जिसमें सृजनकर्ता का आशीष और मार्गदर्शन होगा, वह निश्चित रूप से सृजनकर्ता की रोशनी में चलेगा, वह निश्चित रूप से सृजनकर्ता की संप्रभुता को जानेगा, वह निश्चित रूप से उसके प्रभुत्व में आएगा, और निश्चित रूप से उसके अद्भुत कर्मों और उसके अधिकार का गवाह बनेगा। कहने की आवश्यकता नहीं कि, निश्चित रूप से, ऐसा व्यक्ति सृजनकर्ता के द्वारा प्रेम पाएगा और स्वीकार किया जाएगा, और केवल ऐसा व्यक्ति ही मृत्यु के प्रति एक शांत दृष्टिकोण रख सकता है, और जीवन के अंतिम मोड़ का स्वागत प्रसन्नतापूर्वक कर सकता है। एक ऐसा व्यक्ति जो स्पष्ट रूप से मृत्यु के प्रति इस प्रकार का दृष्टिकोण रखता था, वह अय्यूब था। अय्यूब जीवन के अंतिम मोड़ को प्रसन्नता से स्वीकार करने की स्थिति में था, और अपनी जीवन यात्रा को एक सहज अंत तक पहुँचाने के बाद, जीवन में अपने ध्येय को पूरा करने के बाद, वह सृजनकर्ता के पास लौट गया।

5. अय्यूब के जीवन के लक्ष्य और उसके द्वारा हासिल की गयी वस्तुएँ उसे शान्तिपूर्वक मृत्यु का सामना करने देती हैं

धर्मग्रंथ में अय्यूब के बारे में लिखा गया है कि: "अन्त में अय्यूब वृद्धावस्था में दीर्घायु होकर मर गया" (अय्यूब 42:17)। इसका अर्थ है कि जब अय्यूब की मृत्यु हुई, तो उसे कोई पछतावा नहीं था और उसने कोई पीड़ा महसूस नहीं की, बल्कि स्वाभाविक रूप से इस संसार से चला गया। जैसे कि हर किसी को पता है, अय्यूब ऐसा मनुष्य था जो अपने जीवन में परमेश्वर का भय मानता था और बुराई से दूर रहता था। परमेश्वर ने उसके धार्मिकता के कार्यों की सराहना की थी, लोगों ने उन्हें स्मरण रखा, और कहा जा सकता है कि उसका जीवन किसी भी अन्य इंसान से बढ़कर मूल्यवान और महत्वपूर्ण था। अय्यूब ने परमेश्वर के आशीषों का आनंद लिया और परमेश्वर के द्वारा उसे पृथ्वी पर धार्मिक कहा गया था, और परमेश्वर ने उसकी परीक्षा ली और शैतान ने भी प्रलोभन दिया। वह परमेश्वर का गवाह बना और उसके द्वारा वह धार्मिक पुरुष कहलाने के योग्य था। परमेश्वर के द्वारा परीक्षा लिए जाने के बाद कई दशकों तक, उसने ऐसा जीवन बिताया जो पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण, अर्थपूर्ण, स्थिर, और शान्तिपूर्ण था। उसके धार्मिक कर्मों की वजह से, परमेश्वर ने उसकी परीक्षा ली, उसके धार्मिक कर्मों की वजह से ही, परमेश्वर उसके सामने प्रकट हुआ और सीधे उससे बात की। इसलिए, उसकी परीक्षा लिए जाने के बाद के वर्षों के दौरान अय्यूब ने अधिक यथार्थपूर्ण ढंग से जीवन के मूल्यों को समझा और उनको सराहा, सृजनकर्ता की संप्रभुता की और अधिक गहन समझ प्राप्त की, और किस तरह सृजनकर्ता अपने आशीष देता है और वापस ले लेता है, इस बारे में और अधिक सटीक और निश्चित ज्ञान प्राप्त किया। अय्यूब की पुस्तक में दर्ज है कि यहोवा परमेश्वर ने अय्यूब को पहले की अपेक्षा कहीं अधिक आशीषें प्रदान कीं, सृजनकर्ता की संप्रभुता को जानने के लिए और मृत्यु का शान्ति से सामना करने के लिए उसने अय्यूब को और भी बेहतर स्थिति में रखा था। इसलिए अय्यूब, जब वृद्ध हुआ और उसका सामना मृत्यु से हुआ, तो वह निश्चित रूप से अपनी संपत्ति के बारे में चिंतित नहीं हुआ होगा। उसे कोई चिन्ता नहीं थी, पछताने के लिए कुछ नहीं था, और निस्संदेह वह मृत्यु से भयभीत नहीं था, क्योंकि उसने अपना संपूर्ण जीवन परमेश्वर का भय मानते हुए और बुराई से दूर रहते हुए बिताया था। उसके पास अपने स्वयं के अंत के बारे में चिंता करने का कोई कारण नहीं था। आज कितने लोग हैं जो वैसे व्यवहार कर सकते हैं जैसे अय्यूब ने किया था जब उसने अपनी मृत्यु का सामना किया? क्यों कोई भी व्यक्ति इस प्रकार के सरल बाह्य आचरण को बनाए रखने में सक्षम नहीं है? केवल एक ही कारण है : अय्यूब ने अपना जीवन विश्वास का अनुसरण करने, परमेश्वर की संप्रभुता को स्वीकारने, एवं समर्पण करने की आत्मपरक खोज में बिताया था, और इसी विश्वास, स्वीकृति और समर्पण के साथ उसने अपने जीवन के महत्वपूर्ण मोड़ों को पार किया था, अपने जीवन के अंतिम वर्षों को जिया था, और अपने जीवन के अंतिम मोड़ का स्वागत किया था। अय्यूब ने चाहे जो भी अनुभव किया हो जीवन में उसकी खोज और लक्ष्य पीड़ादायक नहीं थे, वरन सुखद थे। वह केवल उन आशीषों या प्रशंसाओं की वजह से खुश नहीं था जो सृजनकर्ता के द्वारा उसे प्रदान की गईं थीं, बल्कि अधिक महत्वपूर्ण रूप से, अपनी खोजों और जीवन के लक्ष्यों की वजह से, परमेश्वर से भय रखने और बुराई से दूर रहने के कारण अर्जित सृजनकर्ता की संप्रभुता के लगातार बढ़ने वाले ज्ञान और उसकी वास्तविक समझ की वजह से वह खुश था, और यही नहीं, सृजनकर्ता की संप्रभुता के अधीन होने के व्यक्तिगत अनुभवों की वजह से, परमेश्वर के अद्भुत कर्मों की वजह से, और मनुष्य और परमेश्वर के सह-अस्तित्व, परिचय, और पारस्परिक समझ के नाज़ुक, फिर भी, अविस्मरणीय अनुभवों और स्मृतियों की वजह से वह खुश था। अय्यूब उस आराम और प्रसन्नता की वजह से खुश था जो सृजनकर्ता की इच्छा को जानने से आई थी; उस सम्मान की वजह से जो यह देखने से बाद उभरा था कि परमेश्वर कितना महान, अद्भुत, प्यारा एवं विश्वसनीय है। अय्यूब बिना किसी कष्ट के अपनी मृत्यु का सामना इसलिए कर पाया, क्योंकि वह जानता था कि मरने के बाद वह सृजनकर्ता के पास लौट जाएगा। जीवन में उसके लक्ष्यों और जो उसने हासिल किया था, उनकी वजह से ही सृजनकर्ता द्वारा उसके जीवन को वापस लेने के समय वह शान्ति से मृत्यु का सामना कर पाया, और इतना ही नहीं, शुद्ध और चिंतामुक्त होकर, वह सृजनकर्ता के सामने खड़ा हो पाया था। क्या आजकल लोग उस प्रकार की प्रसन्नता को प्राप्त कर सकते हैं जो अय्यूब के पास थी? क्या तुम लोगों के पास वैसी परिस्थितियाँ हैं जो ऐसा करने के लिए आवश्यक हैं? चूँकि लोग आजकल ऐसा करने की स्थिति में हैं, तो वे अय्यूब के समान खुशी से जीवन बिताने में असमर्थ क्यों हैं? वे मृत्यु के भय के कष्ट से बच निकलने में असमर्थ क्यों हैं? मृत्यु का सामना करते समय, कुछ लोगों का पेशाब निकल जाता है; कुछ काँपते हैं, मूर्छित हो जाते हैं, स्वर्ग और मनुष्य के विरुद्ध समान रूप से घोर निंदा करते हैं, यहाँ तक कि कुछ रोते और विलाप करते हैं। ये किसी भी तरह से स्वाभाविक प्रतिक्रियाएँ नहीं हैं जो अचानक तब घटित होती हैं जब मृत्यु नज़दीक आने लगती है। लोग मुख्यत: ऐसे शर्मनाक तरीकों से इसलिए व्यवहार करते हैं क्योंकि भीतर ही भीतर, अपने हृदय की गहराई में, वे मृत्यु से डरते हैं, क्योंकि उन्हें परमेश्वर की संप्रभुता और उसकी व्यवस्थाओं के बारे में स्पष्ट ज्ञान और समझ नहीं है, और सही मायने में वे उनके प्रति समर्पण तो बिलकुल नहीं करते हैं। लोग इस तरह व्यवहार इसलिए करते हैं, क्योंकि वे केवल स्वयं ही हर चीज़ की व्यवस्था और उसे संचालित करना चाहते हैं, अपने भाग्य, अपने जीवन और मृत्यु को नियंत्रित करना चाहते हैं। इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं कि लोग कभी भी मृत्यु के भय से बच नहीं पाते हैं।

6. केवल सृजनकर्ता की संप्रभुता को स्वीकार करके ही कोई व्यक्ति उसकी ओर लौट सकता है

जब किसी के पास सृजनकर्ता की संप्रभुता और उसकी व्यवस्थाओं का स्पष्ट ज्ञान और अनुभव नहीं होगा, तो भाग्य और मृत्यु के बारे में उसका ज्ञान आवश्यक रूप से असंगत होगा। लोग स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते हैं कि हर चीज़ परमेश्वर के हाथ में है, वे यह नहीं समझ सकते कि हर चीज़ परमेश्वर के नियंत्रण और संप्रभुता के अधीन है, यह नहीं समझ सकते हैं कि मनुष्य ऐसी संप्रभुता को फेंक नहीं सकता है या उससे बच नहीं सकता है। और इसी कारण, जब उनका मृत्यु का सामना करने का समय आता है, उनके आखिरी शब्दों, चिंताओं एवं पछतावों का कोई अन्त नहीं होता है। वे अत्यधिक बोझ, अत्यधिक अनिच्छा, अत्यधिक भ्रम से दबे होते हैं। इसी वजह से वे मृत्यु से डरते हैं। क्योंकि कोई भी व्यक्ति जिसने इस संसार में जन्म लिया है, उसका जन्म आवश्यक है और उसकी मृत्यु अनिवार्य है; जो कुछ घटित होता है, उससे परे कोई नहीं जा सकता है। यदि कोई इस संसार से बिना किसी पीड़ा के जाना चाहता है, यदि कोई जीवन के इस अंतिम मोड़ का बिना किसी अनिच्छा या चिंता के सामना करना चाहता है, तो इसका एक ही रास्ता है कि वो कोई पछतावा न रखे। और बिना किसी पछतावे के संसार से जाने का एकमात्र मार्ग है सृजनकर्ता की संप्रभुता को जानना, उसके अधिकार को जानना, और उनके प्रति समर्पण करना। केवल इसी तरह से कोई व्यक्ति मानवीय लड़ाई-झगड़ों, बुराइयों, और शैतान के बंधन से दूर रह सकता है; और केवल इसी तरह से ही कोई व्यक्ति अय्यूब के समान, सृजनकर्ता के द्वारा निर्देशित और आशीष-प्राप्त जीवन जी सकता है, ऐसा जीवन जो स्वतंत्र और मुक्त हो, ऐसा जीवन जिसका मूल्य और अर्थ हो, ऐसा जीवन जो सत्यनिष्ठ और खुले हृदय का हो। केवल इसी तरह कोई अय्यूब के समान, सृजनकर्ता के द्वारा परीक्षा लिए जाने और वंचित किए जाने के प्रति, सृजनकर्ता के आयोजनों और उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर सकता है; केवल इसी तरह से ही कोई व्यक्ति जीवन भर सृजनकर्ता की आराधना कर सकता है और उसकी प्रशंसा अर्जित कर सकता है, जैसा कि अय्यूब ने किया था, और उसकी आवाज़ को सुन सकता है, और उसे अपने समक्ष प्रकट होते हुए देख सकता है। केवल इसी तरह से ही कोई व्यक्ति, अय्यूब के समान, बिना किसी पीड़ा, चिंता और पछतावे के प्रसन्नता के साथ जी और मर सकता है। केवल इसी तरह से कोई व्यक्ति, अय्यूब के समान प्रकाश में जीवन बिता सकता है और अपने जीवन के हर मोड़ में प्रकाश से होकर गुज़र सकता है, अपनी यात्रा को प्रकाश में बिना किसी व्यवधान के पूरा कर सकता है, और अनुभव करने, सीखने, और एक सृजित प्राणी के रूप में सृजनकर्ता की संप्रभुता के बारे में जानने के अपने ध्येय को सफलतापूर्वक प्राप्त कर सकता है—और प्रकाश में मृत्यु को प्राप्त कर सकता है, और उसके पश्चात् एक सृजित किए गए प्राणी के रूप में हमेशा सृजनकर्ता की तरफ़ खड़ा हो सकता है, और उसकी सराहना पा सकता है।

सृजनकर्ता की संप्रभुता को जानने के अवसर को मत छोड़ो

ऊपर वर्णन किए गए छह मोड़ सृजनकर्ता के द्वारा निर्धारित किए गए ऐसे महत्वपूर्ण चरण हैं जिनसे होकर प्रत्येक सामान्य व्यक्ति को अपने जीवन में गुज़रना ही होगा। मानव परिप्रेक्ष्य से, इनमें से हर एक मोड़ वास्तविक है, किसी से भी बचकर निकला नहीं जा सकता है, और सभी सृजनकर्ता की पूर्वयति और उसकी संप्रभुता से संबंध रखते हैं। इसलिए, एक मनुष्य के लिए, इनमें से प्रत्येक मोड़ एक महत्वपूर्ण जाँच-चौकी है, और इनमें से प्रत्येक से आसानी से किस प्रकार गुज़रा जाए, यह एक गंभीर प्रश्न है जिसका अब तुम लोग सामना करते हो।

अनेक दशक जो किसी मानव जीवन को बनाते हैं वे न तो लंबे होते हैं और न ही छोटे। जन्म और वयस्क होने के बीच के लगभग बीस वर्ष पलक झपकते ही बीत जाते हैं, और यद्यपि जीवन के इस मोड़ पर किसी व्यक्ति को वयस्क माना जाता है, फिर भी इस आयु वर्ग के लोग मानव जीवन और मानव के भाग्य के बारे में लगभग कुछ भी नहीं जानते हैं। जैसे-जैसे वे और अधिक अनुभव प्राप्त करते हैं, वे धीरे-धीरे अधेड़ अवस्था की ओर कदम रखते हैं। तीस-चालीस की उम्र में लोग जीवन और भाग्य के बारे में आरंभिक अनुभव अर्जित करते हैं, किन्तु इन चीजों के बारे में उनके विचार अभी भी बिलकुल अस्पष्ट होते हैं। कुछ लोग चालीस वर्ष की उम्र के बाद ही मनुष्यजाति और सृजनकर्ता को समझना आरंभ करते हैं, जिनका सृजन परमेश्वर ने किया था, और यह समझने लगते हैं कि वास्तव में मानव जीवन क्या है, मनुष्य का भाग्य क्या है। कुछ लोगों के पास, काफी लंबे समय से परमेश्वर के अनुयायी रहने और अधेड़ अवस्था में पहुँचने के बाद भी परमेश्वर की संप्रभुता का सटीक ज्ञान और उसकी परिभाषा नहीं होती, सच्चा समर्पण होने का तो बिलकुल ही सवाल नहीं उठता है। कुछ लोग आशीषों को पाने की चाह करने के अलावा किसी भी चीज़ की परवाह नहीं करते हैं, और यद्यपि वे लम्बी उम्र जी चुके हैं, फिर भी वे मनुष्य के भाग्य पर सृजनकर्ता की संप्रभुता के तथ्य को बिलकुल नहीं जानते और समझते हैं, और इसलिए उन्होंने परमेश्वर के आयोजनों और उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण के व्यावहारिक सबक में एक छोटा-सा कदम तक नहीं रखा है। ऐसे लोग पूरी तरह से मूर्ख हैं, और उनका जीवन व्यर्थ है।

यदि मानव जीवन की समयावधियों को लोगों के जीवन के अनुभवों के स्तर और मनुष्य के भाग्य के उनके ज्ञान के अनुसार विभाजित किया जाए, तो मोटे तौर पर उन्हें तीन अवस्थाओं में बांटा जा सकता है। पहली अवस्था है युवावस्था, जो जन्म से लेकर मध्यवय के बीच के वर्ष होते हैं, या जन्म से लेकर तीस वर्ष की आयु तक। दूसरी अवस्था है परिपक्वता, जो मध्यवय से लेकर वृद्धावस्था तक होती है, या तीस से लेकर साठ वर्ष की आयु तक। और तीसऱी अवस्था है किसी व्यक्ति की परिपक्व अवधि, जो वृद्धावस्था से शुरू होती है, साठ वर्ष से शुरू होकर, उसके इस संसार से जाने तक रहती है। दूसरे शब्दों में, जन्म से लेकर मध्यवय तक, भाग्य और जीवन के बारे में अधिकतर लोगों का ज्ञान दूसरों के विचारों की नकल करते रहने तक सीमित होता है, और इसमें लगभग कोई वास्तविक, व्यावहारिक सार नहीं होता है। इस अवधि के दौरान, जीवन के प्रति उसका दृष्टिकोण और किस प्रकार वह इस संसार में अपना रास्ता बनाते हुए आगे बढ़ता है, बहुत ही सतही और सरल होता है। यह उसके किशोरवय की अवधि है। जीवन के सभी आनंद और दुःखों का स्वाद चखने के बाद ही, उसे भाग्य के बारे में वास्तविक समझ प्राप्त होती है, और वह—अवचेतन रूप से, अपने हृदय की गहराई में—धीरे-धीरे भाग्य की अपरिवर्तनीयता की सराहना करने लगता है, और धीरे-धीरे उसे एहसास होता है कि मनुष्य के भाग्य पर सृजनकर्ता की संप्रभुता वास्तव में मौजूद है। यह किसी व्यक्ति की परिपक्वता की अवधि है। जब वह भाग्य के विरुद्ध संघर्ष करना समाप्त कर देता है, और जब वह संघर्षों में अब और पड़ने को इच्छुक नहीं होता है, और इसके बजाय, जीवन में अपने भाग्य को जानता है, स्वर्ग की इच्छा के प्रति समर्पण करता है, अपनी उपलब्धियों और जीवन में हुई ग़लतियों का सार निकालता है, और अपने जीवन में सृजनकर्ता के न्याय का इंतज़ार करता है, तब वह परिपक्वता की अवधि में प्रवेश करता है। इन तीन अवस्थाओं के दौरान, लोगों के द्वारा अर्जित विभिन्न प्रकार के अनुभवों और उपलब्धियों पर विचार करते हुए, सामान्य परिस्थितियों में, एक व्यक्ति के लिए सृजनकर्ता की संप्रभुता को जानने की अवधि बहुत बड़ी नहीं होती है। यदि कोई व्यक्ति साठ वर्ष की आयु तक जीवित रहता है, तो उसके पास परमेश्वर की संप्रभुता को जानने के लिए केवल लगभग तीस वर्ष का समय ही है; यदि वह और अधिक लंबी समयावधि चाहता है, तो ऐसा तभी संभव है जब वह काफी लंबे समय तक जीवित रहे, जब वह सौ वर्ष तक जीवित रह सके। इसलिए मैं कहता हूँ, मानव अस्तित्व के सामान्य नियमों के अनुसार, किसी व्यक्ति द्वारा पहली बार सृजनकर्ता की संप्रभुता को जानने के विषय का सामना करने से लेकर उस समय तक जब वह सृजनकर्ता की संप्रभुता के तथ्य को पहचानने में समर्थ हो जाता है, और वहाँ से लेकर उस बिन्दु तक जब वह उसके प्रति समर्पण करने में समर्थ हो जाता है, यद्यपि यह पूरी प्रक्रिया बहुत ही लम्बी है, परंतु यदि वास्तव में कोई उन वर्षों को गिने, तो वे तीस या चालीस से अधिक नहीं होंगे जिनके दौरान उसके पास इन प्रतिफलों को प्राप्त करने का अवसर होता है। और प्रायः, लोग आशीषों को पाने के लिए अपनी इच्छाओं और अपनी महत्वाकांक्षाओं के कारण अपना विवेक खो देते हैं; इसलिए, वे नहीं पहचान सकते हैं कि मानव जीवन का सार कहाँ है, परमेश्वर की संप्रभुता को जानने के महत्व को नहीं समझते हैं। ऐसे लोग मानव जीवन और सृजनकर्ता की संप्रभुता का अनुभव करने के लिए मानव संसार में प्रवेश करने का यह मूल्यवान अवसर सँजोकर नहीं रख पाते हैं, और वे य‍ह समझ नहीं पाते हैं कि एक सृजित किए गए प्राणी के लिए सृजनकर्ता का व्यक्तिगत मार्गदर्शन प्राप्त करना कितना बहुमूल्य है। इसलिए मैं कहता हूँ, कि जो लोग चाहते हैं कि परमेश्वर का कार्य जल्दी से समाप्त हो जाए, जो इच्छा करते हैं कि जितनी जल्दी हो सके परमेश्वर मनुष्य के अंत की व्यवस्था करे, ताकि वे तुरंत ही उसके वास्तविक व्यक्तित्व को निहार सकें और जितनी जल्दी हो सके, आशीषें प्राप्त कर सकें—वे निकृष्टतम प्रकार की अवज्ञा के दोषी हैं और वे अत्यधिक मूर्ख हैं। इस दौरान, जो लोग बुद्धिमान हैं, जिनके पास अत्यंत बौद्धिक तीक्षणता है, वे ऐसे लोग हैं जो अपने सीमित समय के दौरान सृजनकर्ता की संप्रभुता को जानने के इस अनोखे अवसर को समझने की इच्छा रखते हैं। ये दो अलग-अलग इच्छाएँ, दो अत्यंत भिन्न दृष्टिकोणों और खोजों को उजागर करती हैं : जो लोग आशीषों की खोज करते हैं वे स्वार्थी और नीच हैं; वे परमेश्वर की इच्छा के बारे में नहीं सोचते हैं, कभी परमेश्वर की संप्रभुता को जानने की खोज नहीं करते हैं, कभी उसके प्रति समर्पण करने की इच्छा नहीं करते हैं, बल्कि जैसा उनको अच्छा लगता है बस वैसा ही जीवन बिताना चाहते हैं। वे आनंदित रहने वाले भ्रष्ट लोग हैं; वे ऐसी श्रेणी के लोग हैं जिन्हें नष्ट किया जाएगा। जो लोग परमेश्वर को जानने की खोज करने का प्रयास करते हैं वे अपनी इच्छाओं की उपेक्षा करने में समर्थ हैं, वे परमेश्वर की संप्रभुता और परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने के लिए तैयार हैं, और वे इस प्रकार के लोग बनने की कोशिश करते हैं जो परमेश्वर के अधिकार के प्रति समर्पित हैं और परमेश्वर की इच्छा पूरी करते हैं। ऐेसे लोग प्रकाश में रहते हैं, परमेश्वर की आशीषों के बीच जीवन जीते हैं, और निश्चित रूप से परमेश्वर के द्वारा उनकी प्रशंसा की जाएगी। चाहे कुछ भी हो, मानव पसंद बेकार है, और मनुष्य का इस बात पर कोई वश नहीं है कि परमेश्वर का कार्य कितना समय लेगा। लोगों के लिए यही अच्छा है कि वे अपने आपको परमेश्वर के आयोजनों पर छोड़ दें, और उसकी संप्रभुता के प्रति समर्पण कर दें। यदि तुम अपने आपको उसके आयोजनों पर नहीं छोड़ते हो, तो तुम क्या कर सकते हो? क्या परमेश्वर को इसकी वजह से कोई नुकसान उठाना पड़ेगा? यदि तुम अपने आपको उसके आयोजनों पर नहीं छोड़ते हो, इसके बजाय हर चीज़ अपने हाथ में लेने की कोशिश करते हो, तो तुम एक मूर्खतापूर्ण चुनाव कर रहे हो, और अंततः, केवल तुम ही हो जिसे नुकसान उठाना पड़ेगा। यदि लोग यथाशीघ्र परमेश्वर के साथ सहयोग करेंगे, यदि वे उसके आयोजनों को स्वीकार करने में, उसके अधिकार को जानने में, और वह सब जो उसने उनके लिए किया है उसे समझने में शीघ्रता करेंगे, केवल तभी उनके पास आशा होगी। केवल इसी तरह से वे अपने जीवन को व्यर्थ में नहीं बिताएँगे, केवल तभी वे उद्धार प्राप्त करेंगे।

कोई भी इस सच्चाई को नहीं बदल सकता है कि परमेश्वर मनुष्य के भाग्य पर संप्रभुता रखता है

जो कुछ मैंने अभी-अभी कहा है उसे सुनने के बाद, क्या भाग्य के बारे में तुम लोगों का विचार बदला है? तुम लोग मनुष्य के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता के तथ्य को किस प्रकार समझते हो? इसे साधारण शब्दों में कहें तो, परमेश्वर के अधिकार के अधीन, प्रत्येक व्यक्ति सक्रिय या निष्क्रिय रूप से उसकी संप्रभुता और उसकी व्यवस्थाओं को स्वीकार करता है, और चाहे कोई व्यक्ति अपने जीवन के दौरान कैसे भी संघर्ष क्यों न करता हो, भले ही वह कितने ही टेढ़े-मेढ़े पथों पर क्यों न चलता हो, अंत में वह सृजनकर्ता के द्वारा उसके लिए निर्धारित भाग्य के परिक्रमा-पथ पर वापस लौट आएगा। यह सृजनकर्ता के अधिकार की अजेयता है, और इसी तरह उसका अधिकार ब्रह्मांड पर नियंत्रण करता और उसे संचालित करता है। यही अजेयता, इस तरह का नियंत्रण और संचालन उन नियमों के लिए उत्तरदायी है जो सभी चीज़ों के जीवन का निर्धारण करते हैं, जो मनुष्यों को बिना किसी हस्तक्षेप के बार-बार पुनर्जन्म लेने देते हैं, जो इस संसार को नियमित रूप से चलाते और दिन प्रतिदिन, साल दर साल, आगे बढ़ाते रहते हैं। तुम लोगों ने इन सभी तथ्यों को देखा है और, चाहे सतही तौर पर समझो या गहराई से, तुम लोग उन्हें समझते हो; तुम लोगों की समझ की गहराई सत्य के बारे में तुम लोगों के अनुभव और ज्ञान पर, और परमेश्वर के बारे में तुम लोगों के ज्ञान पर निर्भर करती है। तुम सत्य की वास्तविकता को कितनी अच्छी तरह से जानते हो, तुम्हारे पास परमेश्वर के वचनों का कितना अनुभव है, तुम परमेश्वर के सार और उसके स्वभाव को कितनी अच्छी तरह से जानते हो—ये सब चीज़ें परमेश्वर की संप्रभुता और उसकी व्यवस्थाओं के बारे में तुम्हारी समझ की गहराई को प्रदर्शित करती हैं। क्या परमेश्वर की संप्रभुता और उसकी व्यवस्थाएँ इस बात पर निर्भर करती हैं कि मनुष्य उसके प्रति समर्पण करता है या नहीं? क्या यह तथ्य कि परमेश्वर इस अधिकार को धारण करता है, इस बात के द्वारा निर्धारित होता है कि मानवजाति उसके प्रति समर्पण करती है या नहीं? परिस्थितियाँ चाहे जो भी हों परमेश्वर का अधिकार अस्तित्व में रहता है। समस्त परिस्थितियों में परमेश्वर अपने विचारों, और अपनी इच्छाओं के अनुरूप प्रत्येक मनुष्य के भाग्य और सभी चीज़ों पर नियंत्रण और उनकी व्यवस्था करता है। यह मनुष्यों के बदलने की वजह से नहीं बदलेगा; और यह मनुष्य की इच्छा से स्वतंत्र है, और समय, स्थान, और भूगोल में होने वाले किन्ही भी परिवर्तनों द्वारा इसे नहीं बदला जा सकता है, क्योंकि परमेश्वर का अधिकार उसका सार ही है। चाहे मनुष्य परमेश्वर की संप्रभुता को जानने और स्वीकार करने में समर्थ हो या न हो, और चाहे मनुष्य इसके प्रति समर्पण करने में समर्थ हो या न हो, यह मनुष्य के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता के सच को ज़रा-सा भी नहीं बदलता है। अर्थात्, परमेश्वर की संप्रभुता के प्रति मनुष्य भले ही कोई भी दृष्टिकोण क्यों न रखे, यह इस सच को नहीं बदल सकता है कि परमेश्वर मनुष्य के भाग्य और सभी चीज़ों पर संप्रभुता रखता है। चाहे तुम परमेश्वर की संप्रभुता के प्रति समर्पण न भी करो, तब भी वह तुम्हारे भाग्य को नियंत्रित करता है; चाहे तुम उसकी संप्रभुता को न भी जान सको, फिर भी उसका अधिकार अस्तित्व में रहता है। परमेश्वर का अधिकार और मनुष्य के भाग्य पर उसकी संप्रभुता मनुष्य की इच्छा से स्वतंत्र हैं, और मनुष्य की प्राथमिकताओं और पसंद के अनुसार बदलते नहीं हैं। परमेश्वर का अधिकार हर घण्टे, और हर एक क्षण पर हर जगह है। स्वर्ग और पृथ्वी समाप्त हो जाएँगे, पर उसका अधिकार कभी समाप्त नहीं होगा, क्योंकि वह स्वयं परमेश्वर है, उसके पास अद्वितीय अधिकार है, और उसका अधिकार लोगों, घटनाओं या चीज़ों के द्वारा, समय या भूगोल के द्वारा प्रतिबन्धित या सीमित नहीं होता है। परमेश्वर हमेशा अपने अधिकार को काम में लाता है, अपनी ताक़त दिखाता है, हमेशा की तरह अपने प्रबंधन-कार्य को करता रहता है; वह हमेशा सभी चीज़ों पर शासन करता है, सभी चीज़ों का भरण-पोषण करता है, और सभी चीज़ों का आयोजन करता है—ठीक वैसे ही जैसे उसने हमेशा से किया है। इसे कोई नहीं बदल सकता है। यह एक सच्चाई है; यह चिरकाल से अपरिवर्तनीय सत्य है!

उस व्यक्ति के लिए उचित दृष्टिकोण और अभ्यास जो परमेश्वर के अधिकार के प्रति समर्पण करने की इच्छा रखता है

किस दृष्टिकोण के साथ अब मनुष्य को परमेश्वर के अधिकार, और मनुष्य के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता के तथ्य को जानना और मानना चाहिए? यह एक वास्तविक समस्या है जो हर व्यक्ति के सामने खड़ी है। जीवन की वास्तविक समस्याओं का सामना करते समय, तुम्हें किस प्रकार परमेश्वर के अधिकार और उसकी संप्रभुता को जानना और समझना चाहिए? जब तुम्हारे सामने ये समस्याएँ आती हैं और तुम्हें पता नहीं होता कि किस प्रकार इन समस्याओं को समझें, सँभालें और अनुभव करें, तो तुम्हें समर्पण करने की नीयत, समर्पण करने की तुम्हारी इच्छा, और परमेश्वर की संप्रभुता और उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने की तुम्हारी सच्चाई को दर्शाने के लिए तुम्हें किस प्रकार का दृष्टिकोण अपनाना चाहिए? पहले तुम्हें प्रतीक्षा करना सीखना होगा; फिर तुम्हें खोजना सीखना होगा; फिर तुम्हें समर्पण करना सीखना होगा। "प्रतीक्षा" का अर्थ है परमेश्वर के समय की प्रतीक्षा करना, उन लोगों, घटनाओं एवं चीज़ों की प्रतीक्षा करना जो उसने तुम्हारे लिए व्यवस्थित की हैं, और उसकी इच्छा स्वयं को धीरे-धीरे तुम्हारे सामने प्रकट करे, इसकी प्रतीक्षा करना। "खोजने" का अर्थ है परमेश्वर द्वारा निर्धारित लोगों, घटनाओं और चीज़ों के माध्यम से, तुम्हारे लिए परमेश्वर के जो विचारशील इरादें हैं उनका अवलोकन करना और उन्हें समझना, उनके माध्यम से सत्य को समझना, जो मनुष्यों को अवश्य पूरा करना चाहिए, उसे समझना और उन सच्चे मार्गों को समझना जिनका उन्हें पालन अवश्य करना चाहिए, यह समझना कि परमेश्वर मनुष्यों में किन परिणामों को प्राप्त करने का अभिप्राय रखता है और उनमें किन उपलब्धियों को पाना चाहता है। निस्सन्देह, "समर्पण करने", का अर्थ उन लोगों, घटनाओं, और चीज़ों को स्वीकार करना है जो परमेश्वर ने आयोजित की हैं, उसकी संप्रभुता को स्वीकार करना और उसके माध्यम से यह जान लेना है कि किस प्रकार सृजनकर्ता मनुष्य के भाग्य पर नियंत्रण करता है, वह किस प्रकार अपना जीवन मनुष्य को प्रदान करता है, वह किस प्रकार मनुष्यों के भीतर सत्य गढ़ता है। परमेश्वर की व्यवस्थाओं और संप्रभुता के अधीन सभी चीज़ें प्राकृतिक नियमों का पालन करती हैं, और यदि तुम परमेश्वर को अपने लिए सभी चीज़ों की व्यवस्था करने और उन पर नियंत्रण करने देने का संकल्प करते हो, तो तुम्हें प्रतीक्षा करना सीखना चाहिए, तुम्हें खोज करना सीखना चाहिए, और तुम्हें समर्पण करना सीखना चाहिए। हर उस व्यक्ति को जो परमेश्वर में अधिकार के प्रति समर्पण करना चाहता है, यह दृष्टिकोण अवश्य अपनाना चाहिए, और हर वह व्यक्ति जो परमेश्वर की संप्रभुता और उसकी व्यवस्थाओं को स्वीकार करना चाहता है, उसे यह मूलभूत गुण अवश्य रखना चाहिए। इस प्रकार का दृष्टिकोण रखने के लिए, इस प्रकार की योग्यता धारण करने के लिए, तुम लोगों को और अधिक कठिन परिश्रम करना होगा; और सच्ची वास्तविकता में प्रवेश करने का तुम्हारे लिए यही एकमात्र तरीका है।

परमेश्वर को अपने अद्वितीय स्वामी के रूप में स्वीकार करना उद्धार पाने का पहला कदम है

परमेश्वर के अधिकार से संबंधित सत्य ऐसे सत्य हैं जिन्हें प्रत्येक व्यक्ति को गंभीरता से लेना चाहिए, अपने हृदय से अनुभव करना और समझना चाहिए; क्योंकि ये सत्य प्रत्येक व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करते हैं; प्रत्येक व्यक्ति के अतीत, वर्तमान और भविष्य पर इनका प्रभाव पड़ता है, उन महत्वपूर्ण मोड़ों को प्रभावित करते हैं जिनसे प्रत्येक व्यक्ति को जीवन में अवश्य गुज़रना है, परमेश्वर की संप्रभुता के मनुष्य के ज्ञान पर और उस दृष्टिकोण पर प्रभाव पड़ता है, जिसके साथ उसे परमेश्वर के अधिकार का सामना करना चाहिए, और स्वाभाविक ही है कि प्रत्येक व्यक्ति के अंतिम गंतव्य पर प्रभाव पड़ता है। इसलिए उन्हें जानने और समझने के लिए जीवन भर की ऊर्जा लगती है। जब तुम परमेश्वर के अधिकार को पूरे विश्वास से देखोगे, जब तुम परमेश्वर की संप्रभुता को स्वीकार करोगे, तब तुम परमेश्वर के अधिकार के अस्तित्व के सत्य को धीरे-धीरे जानने और समझने लगोगे। किन्तु यदि तुम परमेश्वर के अधिकार को कभी नहीं पहचान पाते हो, और कभी भी उसकी संप्रभुता को स्वीकार नहीं करते हो, तब चाहे तुम कितने ही वर्ष क्यों न जीवित रहो, तुम परमेश्वर की संप्रभुता का थोड़ा-सा भी ज्ञान प्राप्त नहीं करोगे। यदि तुम सचमुच परमेश्वर के अधिकार को जानते और समझते नहीं हो, तो जब तुम मार्ग के अंत में पहुँचोगे, तो भले ही तुमने वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास किया हो, तुम्हारे पास अपने जीवन में दिखाने के लिए कुछ नहीं होगा, और स्वाभाविक रूप से मनुष्य के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता के बारे में तुम्हारे पास थोड़ा-भी ज्ञान नहीं होगा। क्या यह बहुत ही दुःखदायी बात नहीं है? इसलिए, तुम जीवन में चाहे कितनी ही दूर तक क्यों न चले हो, तुम अब चाहे कितने ही वृद्ध क्यों न हो गए हो, तुम्हारी शेष यात्रा चाहे कितनी ही लंबी क्यों न हो, पहले तुम्हें परमेश्वर के अधिकार को पहचानना होगा और उसे गंभीरतापूर्वक लेना होगा, और इस सच को स्वीकार करना होगा कि परमेश्वर तुम्हारा अद्वितीय स्वामी है। मनुष्य के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता से संबंधित इन सत्यों का स्पष्ट और सटीक ज्ञान और समझ प्राप्त करना सभी के लिए एक अनिवार्य सबक है; मानव जीवन को जानने और सत्य को प्राप्त करने की एक कुंजी है, परमेश्वर को जानने वाला जीवन, इसके अध्ययन का मूल क्रम ऐसा ही है, इसका सभी को हर दिन सामना करना होगा, और इससे कोई बच नहीं सकता है। यदि तुममें से कोई इस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए छोटा मार्ग लेना चाहता है, तो मैं अब तुमसे कहता हूँ, कि यह असंभव है! यदि तुम परमेश्वर की संप्रभुता से बच निकलना चाहते हो, तो यह और भी अधिक असंभव है! परमेश्वर ही मनुष्य का एकमात्र प्रभु है, परमेश्वर ही मनुष्य के भाग्य का एकमात्र स्वामी है, और इसलिए मनुष्य के लिए अपने भाग्य पर नियंत्रण करना असंभव है, और उससे बाहर निकलना असंभव है। किसी व्यक्ति की योग्यताएँ चाहे कितनी ही असाधारण क्यों न हों, वह दूसरों के भाग्य को प्रभावित नहीं कर सकता है, दूसरों के भाग्य को आयोजित, व्यवस्थित, नियंत्रित, या परिवर्तित तो बिलकुल नहीं कर सकता है। केवल स्वयं अद्वितीय परमेश्वर ही मनुष्य के लिए सभी चीज़ों को निर्धारित करता है, क्योंकि केवल वही अद्वितीय अधिकार धारण करता है जो मनुष्य के भाग्य पर संप्रभुता रखता है; और इसलिए केवल सृजनकर्ता ही मनुष्य का अद्वितीय स्वामी है। परमेश्वर का अधिकार न केवल सृजित की गई मानवजाति के ऊपर, बल्कि मनुष्यों को दिखाई न देने वाले अनसृजे प्राणियों, के ऊपर तारों के ऊपर, और ब्रह्माण्ड के ऊपर संप्रभुता रखता है। यह एक निर्विवाद सच है, ऐसा सच जो वास्तव में विद्यमान है, जिसे कोई मनुष्य या चीज़ बदल नहीं सकती है। यह मानते हुए कि तुम्हारे पास कुछ विशेष कौशल या योग्यता है, और अभी भी यह सोचते हुए कि आकस्मिक भाग्योदय से तुम अपनी वर्तमान परिस्थितियों को बदल सकते हो या उनसे बच निकल सकते हो; चीज़ें जैसी हैं, उनसे तुममें से कोई अभी भी असंतुष्ट है; यदि तुम मानवीय प्रयासों के माध्यम से अपने भाग्य को बदलने का, और उसके द्वारा दूसरों से विशिष्ट दिखाई देने, और परिणामस्वरूप प्रसिद्धि और सौभाग्य अर्जित करने का प्रयास करते हो; तो मैं तुमसे कहता हूँ, कि तुम अपने लिए चीज़ों को कठिन बना रहे हो, तुम केवल समस्याओं को आमंत्रित कर रहे हो, तुम अपनी ही कब्र खोद रहे हो! देर-सवेर, एक दिन, तुम यह जान जाओगे कि तुमने ग़लत चुनाव किया है, और तुम्हारे प्रयास व्यर्थ हो गए हैं। तुम्हारी महत्वाकांक्षाएँ, भाग्य के विरुद्ध लड़ने की तुम्हारी इच्छाएँ, और तुम्हारा स्वयं का बेहद खराब आचरण, तुम्हें ऐसे मार्ग में ले जाएगा जहाँ से कोई वापसी नहीं है, और इसके लिए तुम्हें एक भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। हालाँकि, इस समय तुम्हें परिणाम की गंभीरता दिखाई नहीं देती, किन्तु जैसे-जैसे तुम और भी अधिक गहराई से उस सत्य का अनुभव और सराहना करोगे कि परमेश्वर मनुष्य के भाग्य का स्वामी है, तो जिसके बारे में आज मैं बात कर रहा हूँ उसके बारे में और उसके वास्तविक निहितार्थों को तुम धीरे-धीरे समझने लगोगे। तुम्हारे पास सचमुच में हृदय और आत्मा है या नहीं, तुम सत्य से प्रेम करने वाले व्यक्ति हो या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम परमेश्वर की संप्रभुता के प्रति और सत्य के प्रति किस प्रकार का दृष्टिकोण अपनाते हो। स्वाभाविक रूप से, यह निर्धारित करता है कि तुम वास्तव में परमेश्वर के अधिकार को जान और समझ सकते हो या नहीं। यदि तुमने अपने जीवन में परमेश्वर की संप्रभुता और उसकी व्यवस्थाओं को कभी-भी महसूस नहीं किया है, और परमेश्वर के अधिकार को तो बिलकुल नहीं पहचानते और स्वीकार करते हो, तो उस मार्ग के कारण जिसे तुमने अपनाया है और अपने चुनावों के कारण, तुम बिलकुल बेकार हो जाओगे, और बिना किसी संशय के परमेश्वर की घृणा और तिरस्कार के पात्र बन जाओगे। परन्तु वे लोग जो, परमेश्वर के कार्य में, उसके परीक्षणों को स्वीकार कर सकते हैं, उसकी संप्रभुता को स्वीकार कर सकते हैं, उसके अधिकार के प्रति समर्पण कर सकते हैं, और धीरे-धीरे उसके वचनों का वास्तविक अनुभव प्राप्त कर सकते हैं, वे परमेश्वर के अधिकार के वास्तविक ज्ञान को, उसकी संप्रभुता की वास्तविक समझ को प्राप्त कर चुके होंगे, और वे सचमुच में सृजनकर्ता के अधीन आ गए होंगे। केवल ऐसे लोगों को ही सचमुच में बचाया गया होगा। क्योंकि उन्होंने परमेश्वर की संप्रभुता को जान लिया है, क्योंकि उन्होंने इसे स्वीकार लिया है, इसलिए मनुष्य के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता के तथ्य की उनकी समझ और उसके प्रति उनका समर्पण वास्तविक और परिशुद्ध है। जब वे मृत्यु का सामना करेंगे, तो अय्यूब के समान, उनका मन भी मृत्यु के द्वारा विचलित नहीं होगा, और बिना किसी व्यक्तिगत पसंद के, बिना किसी व्यक्तिगत इच्छा के, सभी चीज़ों में परमेश्वर के आयोजनों और उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने में समर्थ होंगे। केवल ऐसा व्यक्ति ही एक सृजित किए गए सच्चे मनुष्य के रूप में सृजनकर्ता की तरफ़ लौटने में समर्थ होगा।

17 दिसंबर, 2013

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

WhatsApp पर हमसे संपर्क करें