स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X

सब वस्तुओं के जीवन का स्रोत परमेश्वर है (IV) भाग एक

आज, हम एक खास विषय पर बातचीत कर रहे हैं। तुम लोगों में से प्रत्येक के लिये, केवल दो ही बातें हैं जिनके विषय में तुम्हें जानना, अनुभव करना और समझना आवश्यक है—और ये दो बातें क्या हैं? पहली बात है, लोगों का जीवन में व्यक्तिगत रूप से प्रवेश, और दूसरी, परमेश्वर को जानने के विषय से संबंधित है। क्या तुम्हारे विचार में अभी हाल ही में हम परमेश्वर को जानने के विषय में जो बातें करते रहे हैं वे साध्य हैं? यह कहना उचित होगा कि यह अधिकांश लोगों की पहुंच से बाहर है। इन बातों से तुम लोग शायद आश्वस्त न हुए हो। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि जब तुम लोग उन बातों को सुन रहे थे जिन्हें मैं पहले कह रहा था, चाहे मैंने उसे किसी भी प्रकार से कहा हो, या किन्हीं भी शब्दों में कहा हो, जब तुमने उसे सुना, शाब्दिक और सैद्धांतिक रूप में, तो तुम लोग जानते थे कि मैं क्या कह रहा था, परन्तु तुम्हारे साथ एक अत्यन्त गंभीर समस्या यह थी, कि तुमने नहीं समझा कि मैंने इन बातों को क्यों कहा, क्यों मैंने इन विषयों पर बोला। यह समस्या का मूल है। और इसलिए, यद्यपि इन बातों को सुनने से परमेश्वर और उसके कार्यों के प्रति तुम्हारी समझ में वृद्धि और समृद्धि हुई है, क्यों अभी भी तुम लोगों को परमेश्वर को जानने के संबंध में कठिनाई हो रही है? कारण यह हैः जो कुछ मैंने कहा उसे सुनने के बाद, तुम लोगों में से अधिकांश नहीं समझते कि मैंने ऐसा क्यों कहा, और परमेश्वर को जानने से इसका क्या संबंध है। क्या यह ऐसा नहीं है? परमेश्वर को जानने से इसके संबंध को समझने की तुम्हारी असमर्थता किससे जुड़ी हुई है? क्या तुम लोगों ने इसके विषय में कभी विचार किया है? शायद नहीं। तुम लोग इन बातों को नहीं समझते इसका कारण है कि तुम लोगों के जीवन का अनुभव अत्यधिक सतही है। यदि परमेश्वर के वचन के विषय में लोगों का ज्ञान और अनुभव निचले स्तर पर ही बना हुआ है, तो परमेश्वर के विषय में उनका अधिकतर ज्ञान अधूरा और अमूर्त होगा—वह प्राथमिक, मत-संबंधी और सैद्धान्तिक होगा। सैद्धांतिक रूप में, यह तर्कसंगत और उचित प्रतीत होता है, परन्तु अधिकांश लोगों के मुख से निकला हुआ परमेश्वर का ज्ञान खोखला होता है। और मैं क्यों ऐसा कहता हूँ कि यह खोखला होता है? क्योंकि यह वास्तव में तुम लोगों के मन में स्पष्ट नहीं है कि परमेश्वर को जानने के संबंध में जो शब्द तुम्हारे मुख से निकलते हैं, वे सही हैं अथवा नहीं, कि वे विशुद्ध हैं कि नहीं। और इसलिये, यद्यपि अधिकांश लोगों ने परमेश्वर को जानने के संबंध में बहुत सी जानकारी और विषयों के बारे में सुना है, फिर भी परमेश्वर के विषय में उनके ज्ञान को अभी भी सिद्धान्त और अस्पष्ट और भावात्मक सिद्धान्त से परे जाने की आवश्यकता है। अतः इस समस्या को किस प्रकार सुलझाया जा सकता है? क्या तुम लोगों ने इस विषय में कभी सोचा है? यदि कोई सत्य का अनुसरण नहीं करता है तो क्या वे वास्तविकता से सम्पन्न हो सकते है? (वे नहीं हो सकते हैं।) निश्चित रूप से वे नहीं हो सकते हैं। यदि कोई सच्चाई का अनुसरण नहीं करता है, तब निर्विवाद रूप से वे वास्तविकता रहित हैं और इसलिये निश्चित रूप से उन्हें परमेश्वर के वचन का ज्ञान और अनुभव नहीं है। और क्या वे जो परमेश्वर के वचन को नहीं जानते, वे परमेश्वर को जान सकते है? बिल्कुल नहीं! दोनों आपस में जुड़े हैं। इस प्रकार अधिकांश लोग कहते हैं, "परमेश्वर को जानना इतना कठिन किस प्रकार हो सकता है? यह इतना कठिन क्यों है? मैं क्यों परमेश्वर के ज्ञान के विषय में कुछ कह नहीं सकता?" जब तुम स्वयं को जानने के विषय में बात करते हो तो तुम घण्टों तक बोल सकते हो, परन्तु जब परमेश्वर को जानने की बात उठती है तो तुम्हारे पास शब्दों का अभाव हो जाता है। यदि तुम थोड़ा-बहुत बोल भी सकते हो, तो वह जबरन और उबाऊ होता है—जब तुम इस विषय पर स्वयं को बोलते हुए सुनते हो तो स्वयं तुम्हें बड़ा अटपटा लगता है। ये स्रोत है। यदि तुम्हें लगता है कि परमेश्वर को जानना अत्यन्त कठिन है, तुम्हारे लिये यह अत्यन्त थकाऊ है, तुम्हारे पास बोलने के लिये कुछ नहीं है—लोगों से बात करने और देने के लिये, और स्वयं को देने के लिए असल कुछ नहीं है—तो यह प्रमाणित करता है कि तुम उनमें से नहीं हो जिसने परमेश्वर के वचन का अनुभव किया हो। परमेश्वर के वचन क्या हैं? क्या परमेश्वर के वचन परमेश्वर के स्वरूप की अभिव्यक्ति नहीं हैं? यदि तुमने परमेश्वर के वचन का अनुभव नहीं किया है, तो क्या तुम परमेश्वर के स्वरूप का ज्ञान पा सकते हो? निश्चित रूप से नहीं, ठीक है न? ये सब बातें आपस में जुड़ी हुई हैं। यदि तुम्हें परमेश्वर के वचन का कोई भी अनुभव नहीं है तो तुम परमेश्वर की इच्छा को ग्रहण नहीं कर सकते, और उसका स्वभाव क्या है वह नहीं जान पाओगे, उसे क्या पसंद है, वह किस बात से घृणा करता है, मनुष्य के लिये उसकी क्या अपेक्षाएं हैं, अच्छे लोगों के प्रति उसका रवैया क्या है, और उनके प्रति जो दुष्ट हैं—ये सब बातें निश्चित रूप से तुम्हारे लिए अस्पष्ट और धुंधली होंगी। यदि इस तरह की अस्पष्टता के बीच तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, जब तुम कहते हो कि तुम उनमें से एक हो जो सच्चाई की खोज करता और परमेश्वर का अनुसरण करता है, तो क्या ये शब्द वास्तविक हैं? नहीं हैं। इसलिये आओ हम परमेश्वर के ज्ञान के बारे में बात करते हैं।

आज हम जिस विषय पर बात करेंगे उसे तुम सभी सुनने के लिये उत्सुक हो, ठीक है न? आज हम जिस विषय पर बात करने जा रहे हैं वह "सब वस्तुओं के जीवन का स्रोत परमेश्वर है" से भी संबंधित है जिसकी हम हाल ही में बात करते रहे हैं। हमने "सब वस्तुओं के जीवन का स्रोत परमेश्वर है" विषय पर कई बार बात की है, जिसका उद्देश्य उन विभिन्न साधनों और दृष्टिकोणों का उपयोग करके लोगों को यह बताना था कि किस प्रकार परमेश्वर सब वस्तुओं पर शासन करता है, किन साधनों द्वारा वह सब वस्तुओं पर शासन करता है, और किन नियमों के द्वारा वह सब बातों का प्रबंध करता है, ताकि वे इस ग्रह पर बने रहें जिसकी सृष्टि परमेश्वर ने की है। हमने इस विषय पर भी काफी बातें की हैं कि परमेश्वर किस प्रकार मनुष्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है: किन साधनों से परमेश्वर मानवजाति की आपूर्ति करता है, वह मानवजाति को जीने के लिए किस प्रकार का वातावरण देता है, और किन साधनों और प्रेरणा शक्ति से वह मनुष्य के जीवित रहने के लिये स्थिर वातारण देता है। यद्यपि मैंने सीधे रुप में सब वस्तुओं पर परमेश्वर के आधिपत्य, सब वस्तुओं के ऊपर उसके प्रशासन और उसके प्रबंधन में संबंध की बात नहीं कही, मैंने परोक्ष रुप में कहा कि वह क्यों इस प्रकार सब चीजों को चलाता है, और क्यों इस प्रकार मनुष्यों चीज़ों का प्रावधान करता है, और उनका पोषण करता है—इन सब बातों का संबंध परमेश्वर के प्रबंधन से है। जिन बातों की हमने चर्चा की, उनका क्षेत्र बहुत विस्तृत हैः विस्तृत वातावरण से लेकर काफी छोटी-छोटी बातों तक जैसे लोगों की मूलभूत आवश्यकताएँ और भोजन तक, परमेश्वर किस प्रकार सब वस्तुओं पर शासन करता है, और उन्हें नियमित रूप से चलाता है, से लेकर सही और उचित वातावरण के निर्माण तक जो उसने संसार के हर वर्ग और रंग के लोगों के लिये बनाया, इत्यादि। ये सारी विस्तृत बातें इन चीज़ों से जुड़ी हैं कि किस प्रकार मनुष्य देह में रहता है। कहने का तात्पर्य है कि, यह सब कुछ भौतिक संसार की चीज़ों से जुड़ा है जो खुली आँखों को दिखती हैं, और जिनका लोग अनुभव कर सकते हैं, उदाहरण के लिये पर्वत, नदियां, समुद्र, मैदान...। ये वे वस्तुएं हैं जिन्हें छुआ और देखा जा सकता है। जब मैं वायु और तापमान की बात करता हूं, तो तुम अपनी श्वास का उपयोग कर सीधे वायु के अस्तित्व का अनुभव कर सकते हो, और अपने शरीर से यह ज्ञात कर सकते हो कि तापमान उच्च है अथवा निम्न। वृक्ष, घास और पक्षी और वन के पशु, आकाश में उड़ने वाले और धरती पर चरने वाले जीव, और विभिन्न छोटे-छोटे जानवर जो बिलों से निकलते हैं, इन सबको लोगों की आखों से देखा और कानों से सुना जा सकता है। यद्यपि ऐसी सारी वस्तुओं का क्षेत्र अति विस्तृत है—सारी वस्तुओं के बीच वे केवल भौतिक संसार का प्रतिनिधित्व करती हैं। लोगों के लिये, वे कौन-सी वस्तुएं हैं जिन्हें वे देख सकते हैं? वे भौतिक वस्तुएं हैं। भौतिक वस्तुएं वे हैं जिन्हें लोग देख और अनुभव कर सकते हैं। कहने का आशय है, कि जब तुम इन्हें छूओगे तो, तुम उनका अनुभव करोगे, और जब तुम्हारे नेत्र उन्हें देखेंगे तो तुम्हारा दिमाग उनकी एक छाया, एक चित्र तुम्हारे समक्ष रखेगा। ये वे वस्तुएं हैं जो वास्तविक और सच्ची हैं; तुम्हारे लिये वे भावात्मक नहीं है, अपितु उनके आकार और रुप हैं; वे वर्गाकार, या वृताकार, या ऊंची या नीची, बड़ी या छोटी हो सकती हैं और प्रत्येक एक भिन्न छाप छोड़ती है। ये सारी वस्तुएं उन सब वस्तुओं के भाग को दर्शाती हैं जो भौतिक संसार की हैं। और इसलिये "सारी वस्तुओं पर परमेश्वर का प्रभुत्व" में कौन कौन सी "सारी वस्तुएं" परमेश्वर के लिए सम्मिलित हैं? उनमें केवल वे ही वस्तुएं नहीं हैं जिन्हें लोग देख सकते हैं और छू सकते हैं, बल्कि वे भी जो अदृश्य और अस्पर्शनीय हैं। ये सभी वस्तुओं पर परमेश्वर के प्रभुत्व के असली अर्थों में से एक है। यद्यपि ये चीज़ें लोगों के लिए अदृश्य और अस्पर्शनीय हैं, ये ऐसे तथ्य भी हैं जिनका अस्तित्व है। परमेश्वर के लिये जहां तक वे उसकी आंखों से देखी जा सकती हैं और उसके प्रभुत्व के दायरे में हैं, वे वास्तविक रुप में अस्तित्व में हैं। हालांकि, लोगों के लिए वे अमूर्त और अकल्पनीय हैं—हालांकि, वे अदृश्य और अस्पर्शनीय हैं—परमेश्वर के लिए वास्तविकता में और सच में उनका अस्तित्व है। परमेश्वर जिन सभी चीज़ों पर राज्य करता है उसकी दूसरी दुनिया ऐसी है, और यह उन सभी वस्तुओं के क्षेत्र का दूसरा भाग है जिसके ऊपर परमेश्वर का शासन है। यह वह विषय है जिस पर हम आज बात कर रहे हैं—किस प्रकार परमेश्वर आत्मिक संसार पर शासन और प्रबंध करता है। चूंकि यह विषय बताता है कि किस प्रकार परमेश्वर समस्त वस्तुओं पर शासन करता और उनका प्रबंध करता है यह सांसारिकता के संसार के बाहर की दुनिया—आत्मिक संसार-के विषय में बताता है और इस लिए यह हमारे लिये सर्वाधिक आवश्यक है कि इसे समझें। केवल इस विषयवस्तु पर संवाद करने और समझ लेने के बाद ही लोग सच्चे अर्थो में—"परमेश्वर सब वस्तुओं के लिये जीवन का स्रोत है", शब्दों के सही अर्थ समझ सकते हैं। और इस विषय का उद्देश्य मूल विषय को पूर्ण करना है कि "परमेश्वर का शासन सब वस्तुओं पर है और परमेश्वर सब चीजों का प्रबंध करता है", को पूर्ण करना है। शायद जब तुम इस विषय को सुनो, तो यह तुम्हें अजीब और अविश्वासनीय लगे परन्तु इस बात की परवाह किये बिना कि तुम कैसा अनुभव करते हो, चूंकि आत्मिक जगत इन सब चीजों का एक भाग है जो परमेश्वर के अधीन है, तुम्हें इस विषय का कुछ अंश अवश्य ही सीखना चाहिये। सीख लेने के पश्चात् "परमेश्वर सब चीजों के लिये जीवन का स्रोत है" शब्दों के प्रति तुम्हारी सराहना, समझ और ज्ञान और अधिक गहन हो जाएगा।

परमेश्वर किस प्रकार आत्मिक संसार पर शासन करता है और उसे चलाता है

भौतिक संसार के लिये यदि लोग कुछ बातों या असाधारण घटनाओं को नहीं समझते हैं तो वे एक पुस्तक खोल सकते हैं और आवश्यक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं अन्यथा वे विभिन्न माध्यमों का उपयोग उनके मूल को और उनके पीछे की कहानी को जानने के लिए कर सकते हैं। परन्तु बात जब उस दूसरे संसार की होती है जिसके विषय में हम आज बात कर रहे हैं—अर्थात् आत्मिक संसार जिसका अस्तित्व भौतिक संसार के बाहर है—लोगों के पास बिल्कुल भी कोई साधन या माध्यम नहीं हैं कि भीतर की बातों और उसकी सच्चाई को जानें। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि, मनुष्यों की दुनिया में, भौतिक संसार की हर एक बात मनुष्य के भौतिक अस्तित्व से पृथक नहीं हो सकती है और क्योंकि लोगों को ऐसा लगता है कि भौतिक संसार की प्रत्येक चीज भौतिक जीवन शैली और भौतिक जीवन से पृथक किये जाने योग्य नहीं है, अधिकांश लोग केवल उनकी जानकारी रखते हैं, या उन्हें देखते हैं, जो भौतिक वस्तुएं हैं, जो चीज़ें उन्हें दिखाई पड़ती हैं। फिर भी जब आत्मिक संसार की बात होती है—कहने का तात्पर्य है, जो भी चीज़ दूसरी दुनिया की है—कहना उचित होगा कि अधिकांश लोग विश्वास नहीं करते। ऐसा इसलिये है क्योंकि वह उन्हें दिखाई नहीं देती, और वे विश्वास करते हैं कि उसे समझने की आवश्यकता नहीं है, ना ही उसके विषय में कुछ जानने की, ना कुछ कहने की कि आत्मिक संसार भौतिक संसार से किस प्रकार पूरी तरह से भिन्न है। परमेश्वर के लिये, यह खुला है, लेकिन मानवजाति के लिए यह छुपा हुआ है और खुला नहीं है, और इसलिये लोगों को एक माध्यम खोजने में कठिनाई होती है जिसके द्वारा वे इस संसार के विभिन्न पहलुओं को समझ सकें। आत्मिक संसार के संबंध में जो बाते मैं कहने जा रहा हूं उनका संबंध केवल परमेश्वर के प्रशासन और प्रभुत्व से है। बेशक, वे मनुष्य के परिणाम और गंतव्य से भी जुड़ी हुई हैं—परन्तु मैं रहस्यों का प्रकाशन नहीं कर रहा हूँ, न ही मैं तुम्हें वे रहस्य बता रहा हूँ, जिन्हें तुम खोजना चाहते हो, क्योंकि इसका संबंध परमेश्वर के प्रभुत्व से है, परमेश्वर के प्रशासन, और परमेश्वर के प्रबंध से है, और ऐसी परिस्थिति में, मैं केवल उस भाग के विषय में बोलूंगा जिसको जानना तुम्हारे लिये आवश्यक है।

पहले, मैं तुम से एक प्रश्न पूछता हूं: तुम्हारे मन में आत्मिक संसार क्या है? मोटे तौर पर बोला जाए तो यह भौतिक संसार से बाहर एक दुनिया है, एक ऐसी दुनिया जो अदृश्य और लोगों के लिये अस्पर्शनीय है। परन्तु तुम्हारी कल्पना में, आत्मिक संसार को किस प्रकार का होना चाहिये? शायद न देख पाने के कारण, तुम इसकी कल्पना करने योग्य नहीं हो परन्तु जब इसके बारे में दन्त कथाएं सुनते हो, तो तुम फिर भी सोचने लगते हो, तुम स्वयं को रोक नहीं पाते हो। और मैं ऐसा क्यों कहता हूं? कुछ ऐसी बात हैं जो बहुत से लोगों के साथ होती हैं जब वे युवा होते हैं: जब कोई उन्हें कोई डरावनी कहानी सुनाता है—भूतों और आत्माओं के बारे में—वे अत्यन्त भयभीत हो जाते हैं। और वे क्यों भयभीत हैं? क्योंकि वे इन बातों के विषय में कल्पना कर रहे हैं, यद्यपि वे उन्हें नहीं देख सकते, उन्हें ऐसा लगता है कि वे उनके कमरे के चारों ओर हैं, कमरे में कहीं छिपे हुए, या कहीं अन्धकार में और वे इतने डरे हुये होते हैं कि उनकी सोने की हिम्मत नहीं होती। विशेषकर रात के समय, वे अपने कमरे में या अकेले आंगन में जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। यह तुम्हारी कल्पना का आत्मिक संसार है, और यह एक ऐसा संसार है जिसके बारे में लोग सोचते हैं कि यह भयावह है। प्रत्येक के पास थोड़ी बहुत कल्पना होती है, और हर कोई थोड़ा बहुत अनुभव कर सकता है।

आओ, हम आत्मिक संसार से प्रारम्भ करें। एक आत्मिक संसार क्या है? मैं तुम्हें एक छोटा और सरल स्पष्टीकरण देता हूं। आत्मिक संसार एक महत्वपूर्ण स्थान है, एक ऐसा स्थान है जो भौतिक संसार से भिन्न है। और मैं क्यों कहता हूँ कि यह महत्वपूर्ण है? हम इसके विषय में विस्तार से बात करने जा रहे हैं। आत्मिक संसार का अस्तित्व मनुष्य के भौतिक संसार से अभिन्न रूप से जुड़ा है। सब वस्तुओं के ऊपर परमेश्वर के प्रभुत्व में वह मनुष्य जीवन और मृत्यु चक्र में एक बड़ी भूमिका निभाता है; यह इसकी भूमिका है, और उन कारणों में से एक है कि क्यों इसका अस्तित्व महत्वपूर्ण है। क्योंकि यह एक ऐसा स्थान है जो पांच इंद्रियों के लिये अगोचर है, कोई भी इस बात का निर्णय नहीं कर सकता कि इसका अस्तित्व है अथवा नहीं। आत्मिक संसार की सतत प्रक्रियाएं मनुष्य के अस्तित्व के साथ गहराई से जुड़ी हुई हैं, और उसका परिणाम ये है कि मनुष्य जिस प्रकार से रहता है, वह भी आत्मिक जगत से बेहद प्रभावित होता है। क्या यह परमेश्वर के प्रभुत्व से संबंधित है? हां, यह संबंधित है। जब मैं ऐसा कहता हूँ, तो तुम समझते हो कि मैं क्यों इस विषय पर विचार-विमर्श कर रहा हूँ: क्योंकि यह परमेश्वर के प्रभुत्व से और उसके प्रशासन से संबंध रखता है। एक संसार में जैसा कि यह है-जो लोगों के लिए अदृश्य है—इसकी प्रत्येक स्वर्गीय आज्ञा, आदेश और प्रशासनिक रीति भौतिक संसार के किसी भी देश के कानून और रीति से कहीं उच्च है और संसार में रहने वाला कोई भी प्राणी उनका उल्लंघन करने या झूठा दावा करने का साहस नहीं करेगा। क्या यह परमेश्वर की प्रभुता और प्रशासन से संबंधित है? इस संसार में, स्पष्ट प्रशासनिक आदेश, स्पष्ट स्वर्गीय आज्ञाएं और स्पष्ट नियम हैं। विभिन्न स्तरों पर और विभिन्न क्षेत्रों में, दूत पूर्णरुप से अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हैं, और कायदे कानून का पालन करते है, क्योंकि एक स्वर्गीय आज्ञा के उल्लंघन का परिणाम क्या होता है, इसे वे जानते हैं। वे भली-भांति जानते हैं कि किस प्रकार परमेश्वर दुष्टों को दण्ड और भले लोगों को इनाम देता है, और वह किस प्रकार चीज़ पर शासन करता है, वह किस प्रकार हर चीज़ पर अधिकार रखता है। और, इसके अतिरिक्त, वे स्पष्ट रुप से देखते हैं कि किस प्रकार परमेश्वर अपने स्वर्गीय आदेशों और नियमों को कार्यान्वित करता है। क्या ये उस भौतिक संसार, जिसमें मनुष्य रहते हैं, से भिन्न हैं? वे व्यापक रुप से भिन्न हैं। वह एक ऐसा संसार है जो भौतिक संसार से सर्वथा भिन्न है। चूंकि वहां स्वर्गीय आदेश और नियम हैं, उसका संबंध परमेश्वर के प्रभुत्व, प्रशासन, और इसके अतिरिक्त परमेश्वर के स्वभाव तथा स्वरूप से है। इतना कुछ सुनने के पश्चात् भी क्या तुम्हें नहीं लगता कि यह मेरे लिये बहुत जरुरी है कि मैं इस विषय पर बोलूं? क्या तुम इसमें निहित भेदों को सीखना नहीं चाहते? आत्मिक संसार की अवधारणा ऐसी ही है इसका अस्तित्व भौतिक संसार के साथ-साथ है, साथ ही परमेश्वर के प्रभुत्व और प्रशासन के अधीन है फिर भी, भौतिक संसार की अपेक्षा इस संसार के लिये परमेश्वर का प्रशासन और प्रभुत्व बहुत सख्त है। जब विस्तारपूर्वक कहने की बात आती है तो हमें इस प्रकार आरम्भ करना चाहिये कि आत्मिक संसार किस प्रकार मनुष्य के जीवन-मरण चक्र के कार्य के प्रति उत्तरदायी है, क्योंकि यह कार्य आत्मिक संसार में रहने वालों के कार्य का एक बड़ा भाग है।

मनुष्यों में, लोगों को तीन प्रकार से वर्गीकृत करता हूं। पहले प्रकार के लोग अविश्वासी हैं, ये वे हैं जो धार्मिक विश्वास-रहित हैं उन्हें अविश्वासी कहते हैं। अविश्वासियों की बहुत बड़ी संख्या केवल धन में विश्वास रखती है। वे केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं, वे भौतिकवादी हैं और उनका विश्वास केवल भौतिक संसार में है। वे न तो जीवन-मरण चक्र में और न ही देवताओं और भूत-प्रेतों की कथाओं में विश्वास रखते हैं। मैं उन्हें अविश्वासियों के रुप में वर्गीकृत करता हूँ, और वे पहला प्रकार हैं। दूसरा प्रकार अविश्वासियों से अलग विभिन्न मतों के मानने वाले लोगों का है। मनुष्यों के बीच, मैं इन विश्वासी लोगों को अनेक मुख्य प्रकारों में विभाजित करता हूं: पहले यहूदी हैं, दूसरे कैथोलिक हैं, तीसरे ईसाई हैं, चौथे मुस्लिम और पांचवें बौद्ध हैं, ये पांच प्रकार हैं। ये विश्वासी लोगों के विभिन्न प्रकार हैं। तीसरे प्रकार के वे लोग हैं जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, जो आपसे संबंधित हैं। ये ऐसे प्रकार के विश्वासी हैं जो आज परमेश्वर को मानते हैं। ये लोग दो प्रकार में विभाजित किये जाते हैं: परमेश्वर के चुने हुए लोग और सेवकाई करने वाले लोग। ठीक है! प्रमुख प्रकारों में स्पष्ट रुप से भिन्नताएं दर्शा दी गई हैं। तो अब तुम अपने मन में मनुष्यों के प्रकारों और स्तरों में स्पष्ट रुप से अंतर कर सकते हो। पहले अविश्वासी हैं। मैं कह चुका हूं कि अविश्वासी कौन हैं। बहुत से अविश्वासी केवल वृद्ध मनुष्य, जो आकाश में है, उसमें विश्वास करते हैं कि वायु, वर्षा और आकाशीय बिजली आकाश में इस वृद्ध मनुष्य द्वारा नियंत्रित की जाती हैं, जिस पर वे फसल बोने और काटने के लिये निर्भर करते हैं—फिर भी परमेश्वर पर विश्वास करने की चर्चा करने पर वे अनिच्छुक बन जाते हैं। क्या इसे परमेश्वर में विश्वास कहा जा सकता है? ऐसे लोग अविश्वासियों में सम्मिलित हैं। जिनका विश्वास परमेश्वर में नहीं बल्कि केवल आकाश के किसी वृद्ध मनुष्य में है, वे सब अविश्वासी हैं वे सब जो परमेश्वर में विश्वास नहीं करते या उसका अनुसरण नहीं करते, अविश्वासी हैं दूसरे प्रकार के वे हैं जिनका संबंध पांच बड़े धर्मो से है जो अस्पष्ट परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। तीसरे प्रकार के वे हैं जो व्यवहारिक परमेश्वर में विश्वास करते हैं जो अंतिम दिनों में देहधारी हुआ है—जो आज परमेश्वर का अनुसरण करते हैं। और मैंने क्यों सारे मनुष्यों को इन प्रकारों में विभाजित किया है? (क्योंकि उनके गंतव्य और अन्त भिन्न हैं।) यह एक पहलू है। क्योंकि, जब ऐसी विभिन्न जातियां और इस प्रकार के लोग आत्मिक संसार में लौटते हैं, तो उनमें से प्रत्येक भिन्न-भिन्न स्थान पर जाएगा, उनपर जीवन-मृत्यु चक्र के भिन्न-भिन्न नियम लागू होंगे, और यही कारण है कि मैंने मनुष्यों को इन मुख्य प्रकारों में वर्गीकृत किया है।

1. अविश्वासियों का जीवन और मृत्यु चक्र

आइये हम अविश्वासियों के जीवन और मृत्यु के चक्र से आरम्भ करते हैं। किसी मनुष्य की मृत्यु के पश्चात्, आत्मिक संसार का एक दूत उसे ले जाता है। और उनका कौन-सा भाग ले जाया जाता है? उनका शरीर नहीं, बल्कि उनकी आत्मा। जब उनकी आत्मा ले जायी जाती है, तब वे एक स्थान पर आते हैं जो आत्मिक संसार की एक शाखा है, एक ऐसा स्थान जो हाल ही में मरे लोगों की आत्मा को ग्रहण करता है। (टिप्पणी: किसी के भी मरने के बाद पहला स्थान जहाँ वे जाते हैं, आत्मा के लिए अजनबी होता है।) जब उन्हें इस स्थान पर ले जाया जाता है, तो एक अधिकारी पहला निरीक्षण करता है, उनका नाम, पता, आयु और उन्होंने अपने जीवन में क्या किया, इन सबकी पुष्टि करता है। जो कुछ उन्होंने अपने जीवन में किया उसे एक पुस्तक में लिखा जाता है और विशुद्धता के लिए उसकी पुष्टि की जाती है। इन सब निरीक्षण के पश्चात् उस मनुष्य का व्यवहार और कार्य जो उन्होंने जीवन भर किया उसके ज़रिए यह सुनिश्चित किया जाता है कि क्या वे दंडित किये जायेंगे या फिर से मनुष्य के रूप में जन्म लेंगे। यह पहला चरण है। क्या यह पहला चरण भयावह है? यह अत्यधिक भयावह नहीं है, क्योंकि इसमें केवल इतना हुआ है कि मनुष्य एक अन्धकारमय अन्जान स्थान में पहुँचा है जो अत्यधिक भयावह नहीं है।

दूसरे चरण में, यदि इस मनुष्य ने जीवनभर बुरे कार्य किये हैं, यदि उसने अनेक दुष्टता के कार्य किये हैं, तब उसे दण्ड देने के स्थान पर दण्ड देने ले जाया जाएगा। यह वो स्थान होगा जहां उन्हें ले जाया जाएगा, यह लोगों को दण्ड देने का नियत स्थान है। किस प्रकार के दण्ड उन्हें दिये जाने हैं यह उनके द्वारा किये गये पापों पर निर्भर करता है। और इस बात पर कि मृत्यु पूर्व उन्होंने कितने दुष्टतापूर्ण कार्य किये—द्वितीय चरण में होने वाली यह पहली स्थिति है। उनकी मृत्यु पूर्व उनके द्वारा किये गये कार्य और दुष्टताएं जो उन्होंने कीं, दण्डस्वरुप जब वे पुनः जन्म लेते हैं—जब वे एक बार फिर से भौतिक संसार में जन्म लेते हैं—कुछ लोग मनुष्य बने रहेंगे, और कुछ पशु बन जायेंगे। कहने का अर्थ है कि आत्मिक संसार में किसी व्यक्ति के लौटने के पश्चात उन्हें उनके दुष्टता के कार्यों के कारण दण्डित किया जाता है, इसके अतिरिक्त क्योंकि उन्होंने दुष्टता के कार्य किये, अपने अगले जन्म में वे मनुष्य नहीं बनते, बल्कि पशु बनते हैं। अब पशुओं की योनि में वे क्या बन सकते थे, उसमें गाय, घोड़े, सूअर, और कुत्ते सम्मिलित हैं। छ लोग आकाश के पक्षी बन सकते हैं या एक बत्तख या कलहंस...। जब वे पशुओं के रुप में पुनर्जन्म ले लेते हैं तो मरने के बाद पहले की तरह, आत्मिक संसार में लौट जाते हैं और मरने से पहले उनके व्यवहार के अनुसार, आत्मिक संसार तय करेगा कि वे मनुष्य के रुप में पुनर्जन्म लेंगे अथवा नहीं। अधिकांश लोग बहुत अधिक दुष्ट कार्य करते हैं, उनके पाप अत्यन्त गंभीर होते हैं, और इसलिये जब उनका जन्म होता है तो वे सात से बारह बार तक पशु बनते हैं। सात से बारह बार, क्या यह एक भयावह स्थिति नहीं है? तुम्हें क्या चीज़ डरा रही है? एक मनुष्य का पशु बनना, यह भयावह है और एक मनुष्य के लिये, एक पशु बनने में सर्वाधिक दुःखदायी बात क्या है? किसी भाषा का ना होना, केवल कुछ साधारण विचार होना, केवल वही कार्य कर पाना जो पशु करते हैं और केवल वहीं खा पाना जो पशु खाते हैं, बौद्धिक क्षमता और शारीरिक क्रियाकलाप एक साधारण पशु के समान होना। सीधे चलने योग्य न होना, मनुष्यों के साथ वार्तालाप न कर पाना, और मनुष्यों के किसी भी व्यवहार और गतिविधियों का पशुओं से कोई सम्बन्ध ना होना। कहने का आशय है कि सब बातों में, पशु होना तुम्हें जीवधारियों में निम्नतम कोटि का बना देता है, और यह मनुष्य होने से कहीं अधिक दुःखदायी होता है। जिन्होंने बहुत अधिक दुष्टता के कार्य किये हैं और बड़े बड़े पापों को अन्जाम दिया है, उनके लिये यह आत्मिक संसार में दण्ड पाने का एक पक्ष है। जब दण्ड की प्रचण्डता की बात होती है तो यह इस बात पर निर्भर करता है कि वे किस प्रकार के पशु बनते हैं। उदाहरण के लिये, क्या एक कुत्ता बनने की अपेक्षा एक सूअर बनना अधिक अच्छा है? क्या एक सूअर एक कुत्ते से अधिक अच्छा जीवन जीता है या बुरा? निश्चय ही अधिक बुरा। यदि लोग गाय या घोड़ा बनते हैं, तो क्या वे एक सूअर की अपेक्षा अधिक अच्छा जीवन जियेंगे या बुरा? (बेहतर।) ऐसा प्रतीत होता है मानो यदि चुनने का अवसर दिया जाये, तो तुम्हारी रुचि होगी। यदि कोई बिल्ली बनता है तो क्या यह अधिक आरामदायक होगा? गाय या घोड़ा बनने की अपेक्षा यह कहीं आरामदायक होगा। यदि तुम्हें पशुओं में से चुनाव करने दिया जाये, तो तुम बिल्ली बनना पसंद करोगे, और वह अधिक आरामदायक है क्योंकि तुम अपना अधिकांश समय निद्रा में गुज़ार सकोगे। गाय या घोड़ा बनना अधिक मेहनत वाला काम है, और इसलिये यदि लोग गाय या घोड़े के रुप में जन्म लेते हैं, तो उन्हें कठिन परिश्रम करना पड़ता है—जो एक कष्टप्रद दण्ड प्रतीत होता है। गाय या घोड़ा बनने की अपेक्षा कुत्ता बनना कुछ अधिक अच्छा है, क्योंकि एक कुत्ते के अपने स्वामी के साथ निकट के संबंध होते हैं। बड़ी बात यह है कि आजकल बहुत से लोग कुत्ता पालते हैं और तीन से पांच वर्ष पश्चात वह उनकी कही हुई कई बातें समझने लगता है। क्योंकि एक कुत्ता अपने मालिक के बहुत से शब्द समझ सकता है, उसे अपने मालिक की अच्छी समझ होती है, और वह अपने आपको अपने स्वामी के मिज़ाज और आवश्यकताओं के अनुरुप ढाल सकता है। इसलिये स्वामी कुत्ते के साथ ज्यादा अच्छा व्यवहार करता है, और कुत्ता ज्यादा अच्छा खाता-पीता है, और जब वह तकलीफ में होता है तो उसकी अधिक अच्छी देखभाल की जाती है‌। तो क्या कुत्ता एक अधिक खुशी का जीवन व्यतीत नहीं करता? इसलिये कुत्ता होना एक गाय या घोड़ा होने से ज्यादा अच्छा है। अत: मनुष्य को मिले दण्ड की प्रचण्डता निर्धारित करती है कि वे कितनी बार पशु के रूप में जन्म लेंगे और किस प्रकार के पशु के रूप में वे जन्म लेंगे। तुम लोग समझ गए ना?

चूंकि जब वे जीवित थे, उन्होनें बहुत अधिक पाप किये, कुछ लोगों को सात से बारह बार पशु के रूप में जन्म लेने का दण्ड दिया जाएगा। अनेक बार दण्डित होने के पश्चात, जब वे आत्मिक संसार मे लौटते हैं तो उन्हें अन्यत्र ले जाया जाता है। इस स्थान में विभिन्न आत्माएं पहले ही दण्ड पा चुकी होती हैं, और उस श्रेणी की होती हैं जो मनुष्य के रूप में जन्म लेने के लिये तैयार हो रही हैं। यह स्थान प्रत्येक आत्मा को श्रेणीबद्ध करता है कि उसे किस प्रकार के परिवार में उत्पन्न होना है, जन्म लेने के बाद उनकी क्या भूमिका होगी, आदि। उदाहरण के लिए, कुछ लोग जब इस संसार में आते हैं तो गायक बनेंगे, और इसलिये उन्हें गायकों के मध्य रखा जाता है; कुछ लोग इस संसार में आते हैं तो व्यापारी बनेंगे और इसलिये उन्हें व्यापारियों के बीच में रखा जाता है; और यदि किसी को मनुष्य रूप में आने के बाद विज्ञान अनुसंधानकर्ता बनना है तो उन्हें अनुसंधानकर्ताओं के मध्य रखा जाता है। उनको वर्गीकृत किये जाने के पश्चात, प्रत्येक को एक भिन्न समय और नियुक्त तिथि पर भेज दिया जाता है। जैसे कि आजकल लोग ई-मेल भेजते हैं। इसमें जीवन और मृत्यु का एक चक्र पूरा होगा, और यह अत्यन्त नाटकीय होता है। उस दिन से जब कोई व्यक्ति आत्मिक संसार में पहुँचता है और जब तक उसका दण्ड समाप्त होता है, उन्होंने अनेक बार पशु के रुप में जन्म लिया होगा, तथा वे फिर मनुष्य के रुप में जन्म लेने के लिये तैयार होते हैं; यह एक सम्पूर्ण प्रक्रिया है।

और क्या वे जिन्होंने दण्ड भोग लिया है और जिन्हें अब पशु के रुप में जन्म नहीं लेना है, शीघ्र ही भौतिक संसार में भेजे जायेंगे कि मनुष्य बनें? या उन्हें मनुष्यों के मध्य आने के लिये कितना समय और लगेगा? वह बारम्बारता क्या है जिसके अनुसार ये लोग मनुष्य बनते हैं? इसके कुछ लौकिक प्रतिबंध हैं। आत्मिक जगत में जो कुछ भी होता है उसके कुछ उचित लौकिक प्रतिबंध और नियम हैं जिन्हें यदि मैं संख्याओं के साथ स्पष्ट करुं, तो तुम समझ सकोगे। उनके लिये जिन्हें अल्पावधि में जन्म दिया गया है, जब वे मरते हैं तो मनुष्य के रुप में उनका पुनर्जन्म तैयार किया जाएगा। लघुत्तम समयावधि तीन दिनों की होती है। कुछ लोगों के लिये यह तीन माह, कुछ लोगों के लिये यह तीन वर्ष, कुछ लोगों के लिये यह तीस वर्ष, कुछ लोगों के लिये यह तीन सौ वर्ष, कुछ के लिये तो यह तीन हजार वर्षो तक भी होती है आदि। तो इन लौकिक नियमों के विषय में क्या कहा जा सकता है, और उनकी क्या विशिष्टताएं हैं? इस भौतिक संसार में जो मनुष्यों का संसार है, आत्मा का आना आवश्यकता पर आधारित होता है: यह उस भूमिका के अनुसार होता है जिसे इस आत्मा को इस संसार में निभाना है। जब लोग साधारण व्यक्ति के रुप में जन्म लेते हैं तो उनमें से अधिकांश अतिशीघ्र जन्म लेते हैं, कि मनुष्य के संसार को ऐसे साधारण लोगों की महती आवश्यकता होती है और इसलिए तीन दिन के पश्चात वे एक ऐसे परिवार में भेज दिए जाते हैं जो उनके मरने से पहले के परिवार से सर्वथा भिन्न होता है। परन्तु कुछ ऐसे होते हैं जिन्हें इस संसार में विशेष भूमिका निभानी होती है। "विशेष" का अर्थ है कि उनकी इस मनुष्यों के संसार में बड़ी मांग नहीं है; ऐसी भूमिका के लिये अधिक व्यक्तियों की आवश्यकता नहीं होती और इसलिए उनके पुनर्जन्म में तीन सौ वर्ष का अन्तराल हो सकता है। कहने का तात्पर्य है कि यह आत्मा तीन सौ वर्ष या तीन हजार वर्ष में एक बार आयेगी। ऐसा क्यों है? क्योंकि तीन सौ वर्ष या तीन हज़ार वर्ष तक संसार में ऐसी भूमिका की आवश्यकता नहीं होती है और इसलिये उन्हें आत्मिक संसार के किसी स्थान में रखा जाता है। उदाहरण के लिये कनफ्यूशियस को लें, चीन की संस्कृति पर उसका गहरा प्रभाव था। संभवतः तुम सब उसे जानते हो, उस समय उसके आगमन ने संस्कृति, ज्ञान, परम्परा और लोगों की सोच पर गहरा प्रभाव डाला था। परन्तु ऐसे मनुष्य की हर एक युग में आवश्यकता नहीं होती है, इसलिये उसे पुन: जन्म लेने के लिये आत्मिक संसार में ही तीन सौ या तीन हजार वर्ष तक प्रतीक्षा करनी पड़ी। क्योंकि संसार को ऐसे किसी व्यक्ति की आवश्यकता नहीं थी, इसलिए उसे खाली रहकर प्रतीक्षा करनी पड़ी, क्योंकि उसके जैसे व्यक्ति के लिये बहुत कम भूमिका थी, उसके करने के लिये कुछ काम न था, इसलिये उसे बिना किसी कार्य के अधिकतर समय आत्मिक संसार में ही कहीं रखा गया ताकि मनुष्य के संसार में जब उसकी आवश्यकता पड़े तो उसे भेज दिया जाए। अधिकतर लोगों के बार-बार जन्म लेने के आत्मिक जगत के लौकिक नियम इस प्रकार के हैं। चाहे कोई साधारण है या विशेष, आत्मिक संसार में लोगों के जन्मे लेने की प्रक्रिया के लिये उचित नियम और सही रीति है और ये नियम और अभ्यास परमेश्वर की ओर से आते हैं, उन्हें परमेश्वर द्वारा भेजा जाता है उनका निर्णय या नियन्त्रण आत्मिक संसार के किसी दूत या जीव द्वारा नहीं होता। अब तुम समझ गए ना?

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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