परमेश्वर के दैनिक वचन : अंत के दिनों में न्याय | अंश 88

मनुष्य की पारंपरिक धारणाओं में, परमेश्वर का प्रेम मनुष्य की निर्बलता के लिए उसका अनुग्रह, दया और सहानुभूति है। यद्यपि ये बातें भी परमेश्वर का प्रेम हैं, परंतु वे अत्यधिक एक तरफ़ा हैं, और वे प्राथमिक माध्यम नहीं हैं जिनके द्वारा परमेश्वर मनुष्य को सिद्ध बनाता है। जब कुछ लोगों ने परमेश्वर पर विश्वास करना अभी आरंभ किया हो और यह किसी बीमारी के कारण हो। यह बीमारी तुम्हारे लिए परमेश्वर का अनुग्रह है; इसके बिना तुम परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते, और यदि तुम परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते तो तुम यहाँ तक नहीं पहुँच पाते—और इस प्रकार यह अनुग्रह भी परमेश्वर का प्रेम है। यीशु में विश्वास करने के समय लोगों ने ऐसा बहुत सा कार्य किया जो परमेश्वर को नापसंद था क्योंकि उन्होंने सत्य को नहीं समझा, फिर भी परमेश्वर ने प्रेम और दया दिखाई, और वह मनुष्य को यहाँ तक ले आया है, और यद्यपि मनुष्य कुछ नहीं समझता, फिर भी परमेश्वर मनुष्य को अनुमति देता है कि वह उसका अनुसरण करे, और इससे बढ़कर वह मनुष्य को आज तक ले आया है। क्या यह परमेश्वर का प्रेम नहीं है? जो परमेश्वर के स्वभाव में प्रकट है वह परमेश्वर का प्रेम है—यह बिलकुल सही है! जब कलीसिया का निर्माण अपनी चरम पर पहुँच गया तो परमेश्वर ने सेवा करने वालों के कार्य का कदम उठाया और मनुष्य को अथाह कुण्ड में डाल दिया। सेवा करने वालों के समय के शब्द सभी शाप थे: तुम्हारे शरीर के शाप, तुम्हारे शैतानी भ्रष्ट स्वभाव के शाप, और तुम्हारे उन कार्यों के शाप जो परमेश्वर की इच्छा को पूरा नहीं करते। उस कदम पर परमेश्वर के द्वारा किया गया कार्य भव्य रूप में प्रकट हुआ, जिसके ठीक बाद परमेश्वर ने ताड़ना के कार्य का कदम उठाया, और उसके बाद मृत्यु का क्लेश आया। ऐसे कार्य में, मनुष्य ने परमेश्वर के क्रोध, भव्यता, न्याय, और ताड़ना को देखा, परंतु साथ ही उसने परमेश्वर के अनुग्रह को भी देखा, और उसके प्रेम और दया को भी; जो कुछ भी परमेश्वर ने किया, और वह सब जो उसके स्वभाव के रूप में प्रकट हुआ, वह मनुष्य के प्रति प्रेम था, और जो कुछ परमेश्वर ने किया वह सब मनुष्य की आवश्यकताओं को पूरा करने के योग्य था। उसने ऐसा मनुष्य को सिद्ध बनाने के लिए किया, और उसने मनुष्य की क्षमता के अनुसार उसकी जरूरतें पूरी कीं। यदि परमेश्वर ने ऐसा नहीं किया होता तो मनुष्य परमेश्वर के समक्ष आने में असमर्थ होता, और परमेश्वर के सच्चे चेहरे को देखने का उसके पास कोई तरीका नहीं होता। जब से मनुष्य ने पहली बार परमेश्वर पर विश्वास करना आरंभ किया, तब से आज तक परमेश्वर ने मनुष्य की उसकी क्षमता के अनुसार धीरे-धीरे उसकी जरूरतें पूरी की हैं, जिससे मनुष्य आंतरिक रूप से धीरे-धीरे उसको जान गया है। आज तक पहुँचने पर ही मनुष्य अनुभव करता है कि परमेश्वर का न्याय कितना अद्भुत है। सृष्टि के समय से लेकर आज तक सेवा करने वालों के कार्य का कदम, शाप के कार्य की पहली घटना थी। मनुष्य को अथाह कुण्ड में भेजकर शापित किया गया। यदि परमेश्वर ने ऐसा नहीं किया होता, तो आज मनुष्य के पास परमेश्वर का सच्चा ज्ञान नहीं होता; यह केवल शाप के द्वारा ही था कि मनुष्य आधिकारिक रूप से परमेश्वर के स्वभाव को देख पाया। सेवाकर्ताओं के परीक्षण के माध्यम से मनुष्य को उजागर किया गया। उसने देखा कि उसकी वफ़ादारी ग्रहणयोग्य नहीं थी, कि उसकी क्षमता बहुत कम थी, कि वह परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने में असमर्थ था, और कि सब समयों में परमेश्वर को संतुष्ट करने के उसके दावे शब्दों से बढ़कर कुछ नहीं थे। यद्यपि सेवा करने वालों के कार्य के कदम में परमेश्वर ने मनुष्य को शापित किया, फिर भी आज के समय से देखें तो परमेश्वर के कार्य का वह कदम अद्भुत था: यह मनुष्य के लिए एक बड़ा निर्णायक मोड़ लेकर आया, और उसके जीवन के तरीके में बड़ा बदलाव किया। सेवा करने वालों के परीक्षण से पहले, मनुष्य जीवन के अनुसरण, परमेश्वर में विश्वास करने के अर्थ, या परमेश्वर के कार्य की बुद्धि के बारे में कुछ नहीं समझता था, और न ही उसने यह समझा कि परमेश्वर का कार्य मनुष्य को परख सकता है। सेवा का कार्य करने वालों के समय से लेकर आज तक, मनुष्य देखता है कि परमेश्वर का कार्य कितना अद्भुत है, यह मनुष्य के लिए अगाध है, और अपने दिमाग का प्रयोग करने के द्वारा वह यह कल्पना करने में असमर्थ है कि परमेश्वर कैसे कार्य करता है, और वह यह भी देखता है कि उसकी क्षमता कितनी कम है और उसमें से अधिकाँश अवज्ञाकारी हैं। जब परमेश्वर ने मनुष्य को शापित किया, तो वह एक प्रभाव को प्राप्त करने के लिए था, और उसने मनुष्य को मार नहीं डाला। यद्यपि उसने मनुष्य को शापित किया, उसने ऐसा वचनों के द्वारा किया, और उसके शाप वास्तव में मनुष्य पर नहीं पड़े, क्योंकि जिसे परमेश्वर ने शापित किया वह मनुष्य की अवज्ञाकारिता थी, इसलिए उसके शापों के वचन भी मनुष्य को सिद्ध बनाने के लिए थे। चाहे परमेश्वर मनुष्य को न्याय दे या उसे शाप दे, ये दोनों मनुष्य को सिद्ध बनाते हैं: दोनों उसे सिद्ध बनाने के लिए हैं जो मनुष्य के भीतर अशुद्ध है। इस माध्यम के द्वारा मनुष्य शुद्ध किया जाता है, और जिस चीज़ की मनुष्य में कमी होती है उसे परमेश्वर के वचनों और कार्य के द्वारा पूर्ण किया जाता है। परमेश्वर के कार्य का प्रत्येक कदम—चाहे यह कठोर शब्द हों, न्याय हो, या ताड़ना हो—मनुष्य को सिद्ध बनाता है, और यह बिलकुल सही है। सदियों से कभी परमेश्वर ने ऐसा कार्य नहीं किया है; आज वह तुम्हारे भीतर कार्य करता है ताकि तुम उसकी बुद्धि को सराहो। यद्यपि तुमने अपने भीतर कुछ पीड़ा को सहा है, फिर भी तुम्हारे हृदय अटल महसूस करते हैं और शांतिमय भी; यह तुम्हारे लिए आशीष है कि तुम परमेश्वर के कार्य के इस चरण का आनंद ले सकते हो। इस बात की परवाह किए बिना कि तुम भविष्य में क्या प्राप्त कर सकते हो, आज अपने भीतर परमेश्वर के जिस कार्य को तुम देखते हो वह प्रेम है। यदि मनुष्य परमेश्वर के न्याय और उसकी ताड़ना का अनुभव नहीं करता, तो उसके कार्य और उसका जोश सदैव बाहरी बातों पर होगा, और उसका स्वभाव सदैव अपरिवर्तित रहेगा। क्या इसे परमेश्वर के द्वारा प्राप्त किया जाने वाला माना जाता है? यद्यपि आज मनुष्य के भीतर काफी अहंकार और घमंड है, फिर भी मनुष्य का स्वभाव पहले से बहुत स्थिर है। तुम्हारे प्रति परमेश्वर का व्यवहार तुम्हें बचाने के लिए है, और यद्यपि तुम इस समय कुछ पीड़ा को महसूस करते हो, फिर भी एक ऐसा दिन आएगा जब तुम्हारे स्वभाव में बदलाव आएगा। उस समय, तुम पीछे की ओर मुड़ोगे और देखोगे कि परमेश्वर का कार्य कितना बुद्धिमान है, और यह तब होगा जब सचमुच तुम परमेश्वर की इच्छा को समझने के योग्य होगे। आज ऐसे कुछ लोग हैं जो कहते हैं कि वे परमेश्वर की इच्छा को समझते हैं—परंतु यह अधिक यथार्थवादी नहीं है, वे व्यर्थ बातें कह रहे हैं, क्योंकि वर्तमान में उन्हें अभी तक यह समझना है कि क्या परमेश्वर की इच्छा मनुष्य को बचाने की है या शापित करने की है। शायद तुम इसे अभी स्पष्टता से नहीं देख सकते, परंतु एक दिन आएगा जब तुम देखोगे कि परमेश्वर की महिमा का दिन आ गया है, और तुम देखोगे कि परमेश्वर से प्रेम करना कितना अर्थपूर्ण है, जिससे तुम मानवीय जीवन को जान सकोगे, और तुम्हारा शरीर परमेश्वर से प्रेम करने के संसार में रहेगा, तुम्हारी आत्मा स्वतंत्र कर दी जाएगी, तुम्हारा जीवन आनंद से भरपूर हो जाएगा, और तुम सदैव परमेश्वर के करीब रहोगे, और सदैव परमेश्वर की ओर देखोगे। उस समय, तुम सचमुच जान जाओगे कि परमेश्वर का कार्य आज कितना कीमती है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पीड़ादायक परीक्षणों के अनुभव से ही तुम परमेश्वर की मनोहरता को जान सकते हो

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