परमेश्वर के दैनिक वचन : परमेश्वर को जानना | अंश 73

प्रभु यीशु के दृष्टांत

बीज बोने वाले का दृष्टांत (मत्ती 13:1-9)

जंगली बीज का दृष्टांत (मत्ती 13:24-30)

राई के बीज का दृष्टांत (मत्ती 13:31-32)

खमीर का दृष्टांत (मत्ती 13:33)

जंगली बीज के दृष्टांत की व्याख्या (मत्ती 13:36-43)

छिपे हुए खजाने का दृष्टांत (मत्ती 13:44)

अनमोल मोती का दृष्टांत (मत्ती 13:45-46)

जाल का दृष्टांत (मत्ती 13:47-50)

पहला बीज बोने वाले का दृष्टांत है। यह एक बहुत ही रोचक दृष्टांत है; बीज बोना लोगों के जीवन में एक सामान्य घटना है। दूसरा जंगली बीज का दृष्टांत है। जिसने भी फसलें लगाई हैं, और निश्चित ही सभी वयस्कों ने लगाई होंगी, वे जान जाएँगे कि "जंगली बीज" क्या होते हैं। तीसरा राई के बीज का दृष्टांत है। तुम सभी लोग जानते हो कि राई क्या होती है, है न? यदि तुम नहीं जानते, तो तुम लोग बाइबल में देख सकते हो। चौथा खमीर का दृष्टांत है। अब, अधिकतर लोग जानते हैं कि खमीर को किण्वन के लिए इस्तेमाल किया जाता है, और यह ऐसी चीज़ है, जिसका लोग अपने दैनिक जीवन में उपयोग करते हैं। अगले दृष्टांत, जिनमें से छठा छिपे हुए खजाने का दृष्टांत, सातवाँ अनमोल मोती का दृष्टांत और आठवाँ जाल का दृष्टांत है, लोगों के वास्तविक जीवन से लिए गए हैं। ये दृष्टांत किस प्रकार की तसवीर चित्रित करते हैं? यह परमेश्वर के एक सामान्य व्यक्ति बनने और मनुष्यों के साथ रहने, मनुष्यों से बात करने और उन्हें उनकी आवश्यकता की चीज़ें प्रदान करने के लिए जीवन की भाषा, मनुष्य की भाषा का उपयोग करने की तसवीर है। जब परमेश्वर देहधारी हुआ और लंबे समय तक मनुष्यों के बीच रहा, तो लोगों की विभिन्न जीवन-शैलियों का अनुभव करने और उन्हें देखने के बाद, ये अनुभव उसकी शिक्षण-सामग्री बन गए, जिसके जरिये उसने अपनी दिव्य भाषा को मानवीय भाषा में रूपांतरित कर लिया। निस्संदेह, इन चीज़ों ने भी, जो उसने जीवन में देखीं और सुनीं, मनुष्य के पुत्र के मानवीय अनुभव को समृद्ध किया। जब वह लोगों को कुछ सत्य, परमेश्वर की कोई इच्छा समझाना चाहता था, तो वह लोगों को परमेश्वर की इच्छा और मानवजाति से उसकी अपेक्षाओं के बारे में बताने के लिए उपर्युक्त जैसे दृष्टांत इस्तेमाल कर सकता था। ये सभी दृष्टांत लोगों के जीवन से संबंधित थे; एक भी दृष्टांत ऐसा नहीं था जो मनुष्य के जीवन से अछूता था। जब प्रभु यीशु मनुष्यों के साथ रहता था, तो उसने किसानों को अपने खेतों की देखभाल करते हुए देखा था, और वह जानता था कि जंगली बीज कौन-से होते हैं और खमीर उठना क्या होता है; वह समझता था कि मनुष्य खजाने को पसंद करते हैं, इसलिए उसने खजाने और मोती दोनों रूपकों का उपयोग किया। जीवन में उसने बार-बार मछुआरों को जाल फैलाते हुए देखा था; प्रभु यीशु ने इसे और मनुष्यों के जीवन से संबंधित अन्य गतिविधियों को देखा; और उसने उस प्रकार के जीवन का अनुभव भी किया। किसी भी अन्य सामान्य मनुष्य के समान ही उसने मनुष्यों की दिनचर्या और उनके तीन वक्त भोजन करने का अनुभव किया था। उसने व्यक्तिगत रूप से एक औसत व्यक्ति के जीवन का अनुभव किया और दूसरों की ज़िंदगी को भी देखा। जब उसने यह सब देखा और व्यक्तिगत रूप से इसका अनुभव किया, तो उसने यह नहीं सोचा कि किस प्रकार एक अच्छा जीवन पाया जाए या वह किस प्रकार से अधिक स्वतंत्रता और आराम से जी सकता है। इसके बजाय अपने प्रामाणिक मानव-जीवन के अनुभव से प्रभु यीशु ने लोगों के जीवन में कठिनाई देखी, उसने शैतान के अधिकार-क्षेत्र में और उसकी भ्रष्टता के अधीन पाप का जीवन जी रहे लोगों की कठिनाई, दुर्दशा और विषाद को देखा। जब वह व्यक्तिगत रूप से मानव-जीवन का अनुभव ले रहा था, तब उसने यह भी अनुभव किया कि भ्रष्टता के बीच जी रहे लोग कितने असहाय हैं, और उसने पाप में जीने वाले मनुष्यों की दुर्दशा को देखा और अनुभव किया, जो शैतान और बुराई द्वारा दी गई यातना में हर दिशा खो बैठे थे। जब प्रभु यीशु ने ये चीज़ें देखीं, तो क्या उसने उन्हें अपनी दिव्यता से देखा या अपनी मानवता से? उसकी मानवता सचमुच मौजूद थी और वह बहुत अधिक जीवित थी; वह इस सबका अनुभव कर सकता था और इसे देख सकता था। किंतु निस्संदेह, उसने इन चीज़ों को अपने सार में भी देखा, जो उसकी दिव्यता है। अर्थात्, स्वयं मसीह, प्रभु यीशु, जो एक मनुष्य था, ने इसे देखा, और उसके द्वारा देखी गई हर चीज़ ने उसे उस कार्य का महत्व और आवश्यकता महसूस कराई, जिसे उसने उस समय हाथ में लिया था, जब वह देह में रहा था। यद्यपि वह स्वयं जानता था कि जो उत्तरदायित्व उसे देह में लेना आवश्यक है, वह बहुत बड़ा है, और वह जानता था कि जिस पीड़ा का वह सामना करेगा, वह कितनी दारुण होगी, फिर भी जब उसने पाप में जी रहे मनुष्यों को असहाय देखा, जब उसने उनकी ज़िंदगी की दुर्दशा और व्यवस्था के अधीन उनके कमज़ोर संघर्ष को देखा, तो उसने अधिकाधिक पीड़ा का अनुभव किया, और वह मानवजाति को पाप से बचाने के लिए अधिकाधिक व्याकुल हो गया। चाहे उसे किसी भी प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़े या किसी भी प्रकार की पीड़ा सहनी हो, वह पाप में जी रही मानवजाति को बचाने के लिए और अधिक कृतसंकल्प हो गया। इस प्रक्रिया के दौरान, तुम कह सकते हो कि प्रभु यीशु ने उस कार्य को और अधिक स्पष्टता से समझना आरंभ कर दिया था, जो उसे करने की आवश्यकता थी और जो उसे सौंपा गया था। वह उस कार्य को पूरा करने के लिए अधिकाधिक उत्सुक भी हो गया, जो उसे करना था—मानवजाति के समस्त पाप ग्रहण करना, मनुष्यों के लिए प्रायश्चित करना ताकि वे अब पाप में न जीएँ, और साथ ही परमेश्वर पापबलि की वजह से मनुष्य के पाप क्षमा कर सके, जिससे उसे मानवजाति को बचाने का अपना कार्य आगे बढ़ाने की अनुमति मिले। ऐसा कहा जा सकता है कि अपने हृदय में प्रभु यीशु अपने आप को मानवजाति के लिए अर्पित करने, अपना बलिदान करने के लिए तैयार था। वह एक पापबलि के रूप में कार्य करने, सूली पर चढ़ाए जाने के लिए भी तैयार था, और निस्संदेह, वह इस कार्य को पूरा करने के लिए उत्सुक था। जब उसने मानव-जीवन की दयनीय दशा देखी, तो वह बिना एक भी क्षण या क्षणांश की देरी के, जल्दी से जल्दी अपना लक्ष्य पूरा करने के लिए और अधिक इच्छुक हो गया। ऐसी अत्यावश्यकता महसूस करते हुए उसने यह भी नहीं सोचा कि उसका अपना दर्द कितना भयानक होगा, न ही उसने कोई और आशंका पाली कि उसे कितना अपमान सहना होगा। उसके हृदय में बस एक ही दृढ़ विश्वास था : यदि वह अपने को अर्पित करेगा, यदि वह पापबलि के रूप में सूली पर चढ़ जाएगा, तो परमेश्वर की इच्छा पूरी हो जाएगी और परमेश्वर अपना नया कार्य शुरू कर पाएगा। मनुष्य का जीवन और पाप में उसके अस्तित्व की स्थिति पूर्णत: रूपांतरित हो जाएगी। उसका दृढ़ विश्वास और जो कुछ करने के लिए वह कृतसंकल्प था, वे मनुष्य को बचाने से संबंध रखते थे, और उसका एक ही उद्देश्य था : परमेश्वर की इच्छा पर चलना, ताकि वह अपने कार्य के अगले चरण की सफलतापूर्वक शुरुआत कर सके। उस समय प्रभु यीशु के मन में बस यही था।

देह में रहते हुए देहधारी परमेश्वर में सामान्य मानवता थी; उसके अंदर एक सामान्य व्यक्ति की भावनाएँ और चेतना थी। वह जानता था कि खुशी क्या होती है, पीड़ा क्या होती है, और जब उसने मनुष्य को इस प्रकार का जीवन जीते देखा, तो उसने गहराई से महसूस किया कि लोगों को मात्र कुछ शिक्षाएँ देने, कुछ प्रदान करने या कुछ सिखाने से पाप से बाहर नही निकाला जा सकता। न ही उनसे कुछ आज्ञाओं का पालन करवाने से उन्हें पाप से छुटकारा दिया जा सकता था—केवल मानवजाति के पाप अपने ऊपर लेकर और पापमय देह के समान बनकर ही वह मानवजाति की स्वतंत्रता जीत सकता था और बदले में मानवजाति के लिए परमेश्वर की क्षमा प्राप्त कर सकता था। इसलिए जब प्रभु यीशु ने लोगों की पापमय ज़िंदगी का अनुभव कर लिया और उसे देख लिया, तो उसके हृदय में एक प्रबल इच्छा प्रकट हुई—मनुष्यों को उनकी पाप में संघर्ष करती ज़िंदगी से छुटकारा दिलाने की। इस इच्छा ने उसे अधिकाधिक यह महसूस करवाया कि उसे यथाशीघ्र सूली पर चढ़ना चाहिए और मानवजाति के पाप अपने ऊपर ले लेने चाहिए। लोगों के साथ रहने और उनके पापमय जीवन की दुर्गति देखने, सुनने और महसूस करने के बाद उस समय प्रभु यीशु के ये विचार थे। देहधारी परमेश्वर द्वारा मानवजाति के लिए इस प्रकार की इच्छा करना, उसके द्वारा इस प्रकार का स्वभाव व्यक्त और प्रकट करना—क्या यह कोई औसत व्यक्ति कर सकता है? इस प्रकार के परिवेश में रहते हुए कोई औसत व्यक्ति क्या देखेगा? वह क्या सोचेगा? यदि किसी औसत व्यक्ति ने इस सबका सामना किया होता, तो क्या वह समस्याओं को उच्च परिप्रेक्ष्य से देख पाता? निश्चित रूप से नहीं! यद्यपि देहधारी परमेश्वर का बाहरी रूप-रंग ठीक मनुष्य के समान है, और यद्यपि वह मानवीय ज्ञान सीखता है और मानवीय भाषा बोलता है, और कभी-कभी अपने विचार मनुष्य की पद्धतियों या बोलने के तरीकों से भी व्यक्त करता है, फिर भी, जिस तरीके से वह मनुष्यों को और चीज़ों के सार को देखता है, वह भ्रष्ट लोगों द्वारा मनुष्यों को और चीज़ों के सार को देखने के तरीके के समान बिलकुल नहीं है। उसका परिप्रेक्ष्य और वह ऊँचाई, जिस पर वह खड़ा है, किसी भ्रष्ट व्यक्ति के द्वारा अप्राप्य है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि परमेश्वर सत्य है, क्योंकि उसके द्वारा धारित देह में भी परमेश्वर का सार है, और उसके विचार तथा जो कुछ उसकी मानवता के द्वारा प्रकट किया जाता है, वे भी सत्य हैं। भ्रष्ट लोगों के लिए, जो कुछ वह देह में व्यक्त करता है, वह सत्य और जीवन के प्रावधान हैं। ये प्रावधान केवल एक व्यक्ति के लिए नहीं, बल्कि पूरी मानवजाति के लिए हैं। किसी भ्रष्ट व्यक्ति के हृदय में केवल वे थोड़े-से लोग ही होते हैं, जो उससे संबद्ध होते हैं। वह केवल उन मुट्ठीभर लोगों की ही परवाह करता है और उन्हीं के बारे में चिंता करता है। जब आपदा क्षितिज पर होती है, तो वह पहले अपने बच्चों, जीवनसाथी, या माता-पिता के बारे में सोचता है। अधिक से अधिक, कोई ज्यादा दयालु व्यक्ति किसी रिश्तेदार या अच्छे मित्र के बारे में कुछ सोच लेगा; पर क्या ऐसे दयालु व्यक्ति के विचार भी इससे आगे जाते हैं? नहीं, कभी नहीं! क्योंकि मनुष्य अंततः मनुष्य हैं, और वे सब-कुछ एक मनुष्य की ऊँचाई और परिप्रेक्ष्य से ही देख सकते हैं। किंतु देहधारी परमेश्वर भ्रष्ट व्यक्ति से पूर्णत: अलग है। देहधारी परमेश्वर का देह कितना ही साधारण, कितना ही सामान्य, कितना ही निम्न क्यों न हो, या लोग उसे कितनी ही नीची निगाह से क्यों न देखते हों, मानवजाति के प्रति उसके विचार और उसका रवैया ऐसी चीज़ें है, जो किसी भी मनुष्य में नहीं हैं, जिनका कोई मनुष्य अनुकरण नहीं कर सकता। वह मानवजाति का अवलोकन हमेशा दिव्यता के परिप्रेक्ष्य से, सृजनकर्ता के रूप में अपनी स्थिति की ऊँचाई से करेगा। वह मानवजाति को हमेशा परमेश्वर के सार और मानसिकता से देखेगा। वह मानवजाति को एक औसत व्यक्ति की निम्न ऊँचाई से, या एक भ्रष्ट व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य से बिलकुल नहीं देख सकता। जब लोग मानवजाति को देखते हैं, तो मनुष्य की दृष्टि से देखते हैं, और अपने पैमाने के रूप में वे मनुष्य के ज्ञान और मनुष्य के नियमों और सिद्धांतों जैसी चीज़ों का उपयोग करते हैं। यह उस दायरे के भीतर है, जिसे लोग अपनी आँखों से देख सकते हैं; उस दायरे के भीतर है, जो भ्रष्ट लोगों द्वारा प्राप्य है। जब परमेश्वर मानवजाति को देखता है, तो वह दिव्य दृष्टि से देखता है, और पैमाने के रूप में अपने सार और स्वरूप का उपयोग करता है। इस दायरे में वे चीज़ें शामिल हैं जिन्हें लोग नहीं देख सकते, और यहीं पर देहधारी परमेश्वर और भ्रष्ट मनुष्य पूरी तरह से भिन्न हैं। यह भिन्नता मनुष्यों और परमेश्वर के भिन्न-भिन्न सार से निर्धारित होती है—ये भिन्न-भिन्न सार ही उनकी पहचान और स्थिति को और साथ ही उस परिप्रेक्ष्य और ऊँचाई को निर्धारित करते हैं, जिससे वे चीज़ों को देखते हैं। क्या तुम लोग प्रभु यीशु में स्वयं परमेश्वर की अभिव्यक्ति और प्रकाशन देखते हो? तुम कह सकते हो कि प्रभु यीशु ने जो किया और कहा, वह उसकी सेवकाई से और परमेश्वर के अपने प्रबंधन-कार्य से संबंधित था, कि वह सब परमेश्वर के सार की अभिव्यक्ति और प्रकाशन था। यद्यपि उसकी अभिव्यक्ति मानवीय थी, किंतु उसके दिव्य सार और उसकी दिव्यता के प्रकाशन को नकारा नहीं जा सकता। क्या यह मानवीय अभिव्यक्ति वास्तव में मानवता की ही अभिव्यक्ति थी? उसकी मानवीय अभिव्यक्ति अपने मूल सार में, भ्रष्ट लोगों की मानवीय अभिव्यक्ति से पूर्णत: भिन्न थी। प्रभु यीशु देहधारी परमेश्वर था। यदि वह वास्तव में एक सामान्य, भ्रष्ट मनुष्य रहा होता, तो क्या वह पापमय मानवजाति के जीवन को दिव्य परिप्रेक्ष्य से देख सकता था? बिलकुल नहीं! मनुष्य के पुत्र और एक सामान्य मनुष्य के बीच यही अंतर है। सभी भ्रष्ट लोग पाप में जीते हैं, और जब कोई पाप को देखता है, तो उसमें उसके बारे में कोई विशेष भावना उत्पन्न नहीं होती; वे सब एकसमान होते हैं, ठीक कीचड़ में रहने वाले सूअर के समान, जो बिलकुल भी असहज या गंदा महसूस नहीं करता—इसके विपरीत, वह अच्छी तरह से खाता है और गहरी नींद में सोता है। यदि कोई सूअरों के बाड़े को साफ करता है, तो सूअर वास्तव में बेचैनी महसूस करेगा, और वह साफ-सुथरा नहीं रहेगा। जल्दी ही वह दोबारा पूरी सहजता से कीचड़ में लोट लगा रहा होगा, क्योंकि वह एक गंदा जीव है। मनुष्य सूअर को गंदा समझते हैं, किंतु यदि तुम सूअर के रहने की जगह को साफ करो, तो उसे अच्छा नहीं लगता—इसीलिए कोई भी सूअर को अपने घर में नहीं रखता। मनुष्य सूअरों को जिस तरह से देखते हैं, वह हमेशा उससे भिन्न होगा, जैसा सूअर खुद महसूस करते हैं, क्योंकि मनुष्य और सूअर एक ही तरह के नहीं होते। और चूँकि देहधारी मनुष्य का पुत्र उसी तरह का नहीं है जैसे भ्रष्ट मनुष्य हैं, इसलिए केवल देहधारी परमेश्वर ही दिव्य परिप्रेक्ष्य में, परमेश्वर की ऊँचाई पर खड़ा हो सकता है, जहाँ से वह मानवजाति और सभी चीज़ों को देखता है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III

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