स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X

सब वस्तुओं के जीवन का स्रोत परमेश्वर है (IV) भाग तीन

परमेश्वर किस प्रकार आत्मिक संसार पर शासन करता है और उसे चलाता है

3. परमेश्वर का अनुसरण करने वालों का जीवन और मृत्यु-चक्र

आओ, अब हम परमेश्वर के अनुयायियों के जीवन और मृत्यु के चक्र के विषय में बात करें। इसका संबंध तुम लोगों से है, इसलिये ध्यान दो। पहले विचार करो कि जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं उनको किन वर्गो में विभाजित किया जा सकता है। इसमें दो हैं: परमेश्वर के चुने हुए लोग और सेवकाई करने वाले लोग। पहले हम परमेश्वर के चुने हुए लोगों के विषय में बात करेंगे, जिसमें बहुत कम लोग हैं। "परमेश्वर के चुने हुए लोग" से क्या अभिप्राय है? परमेश्वर ने जब सारी चीज़ों की रचना कर दी और मानवजाति अस्तित्व में आ गई तो परमेश्वर ने उन लोगों का एक समूह चुना जो उसका अनुसरण करते थे, और उन्हें "परमेश्वर के चुने हुए लोग" कहा। परमेश्वर के इन चुने हुए लोगों का एक विशेष दायरा और महत्ता है। वह दायरा यह है कि परमेश्वर जब भी कोई महत्वपूर्ण कार्य करता है तो उनको जरुर आना है—यह पहली बात है जो उन्हें विशेष बनाती है। और उनकी महत्ता या विशेषता क्या है? परमेश्वर द्वारा उन्हें चुने जाने का अर्थ है कि वे महान विशेषता रखने वाले लोग हैं। कहने का तात्पर्य है कि परमेश्वर उन्हें सम्पूर्ण बनाना चाहता है और सिद्ध बनाना चाहता है, और उसका प्रबंधन का कार्य पूर्ण होने के पश्चात वह इन्हें जीत लेगा। क्या यह विशेषता महान नहीं है? इस प्रकार, इन चुने हुए लोगों का परमेश्वर के लिये विशेष महत्व है, क्योंकि ये वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर जीतने का इरादा रखता है। जबकि सेवकाई करने वाले—खैर, आओ हम परमेश्वर के पूर्व निर्धारित लक्ष्य या मंजिल से हट जाएं, और पहले उनके उद्भव के बारे में बात करें। "सेवकाई करने वाले" का शाब्दिक अर्थ है वह जो सेवा करता है। वे जो सेवकाई करने वाले हैं, वे चलायमान हैं, वे लम्बे समय तक ऐसा नहीं करते या हमेशा के लिये नहीं करते, बल्कि उन्हें भाड़े पर लिया जाता है अथवा अस्थाई रुप से नियुक्त किया जाता है। इनमें से अधिकांश का चुनाव अविश्वासियों में से होता है। जब यह आदेश दिया जाता है कि वे परमेश्वर के कार्य में सेवकाई करने वाले की भूमिका निभाएंगे तो वे पृथ्वी पर आते हैं। वे शायद अपने पुराने जीवन में पशु रहे होंगे, परन्तु वे अविश्वासियों में से भी एक रह चुके होंगे। सेवकाई करने वाले मूलत: ऐसे ही लोग हैं।

आओ, हम फिर से परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर आ जाएं। जब वे मरते हैं, तो परमेश्वर के चुने हुए लोग अविश्वासियों से और विश्वास के विभिन्न लोगों से बिल्कुल भिन्न किसी स्थान पर जाते हैं। यह वह स्थान होता है जहां उनके साथ स्वर्गदूत और परमेश्वर के दूतगण रहते हैं, और वह एक ऐसा स्थान होता है जिसका प्रशासन परमेश्वर स्वयं करता है। हालांकि, इस स्थान में, परमेश्वर के चुने लोग उस योग्य नहीं होते हैं कि परमेश्वर को स्वयं अपनी आखों से देख सकें, यह आत्मिक राज्य में किसी भी अन्य स्थान से अलग है; यह वह स्थान है जहां इस भाग के लोग मरने के बाद जाते हैं। जब वे मरते हैं तो उन्हें भी परमेश्वर के दूतों की कड़ी जांच का सामना करना पड़ता है। और किस बात की जांच की जाती है? परमेश्वर के दूत उस मार्ग की जांच करते हैं जो इन लोगों ने परमेश्वर के विश्वास में रहते हुए अपने जीवन भर अपनाया, कि उस समयकाल के दौरान, उन्होंने कभी परमेश्वर का विरोध तो नहीं किया या उसे कोसा तो नहीं, उन्होंने गंभीर पाप या दुष्टता तो नहीं की। यह जांच इस बात का निर्णय करती है कि क्या व्यक्ति जायेगा या रुकेगा। "जाना" किस बात को बताता है? और "रुकना" किस बात को बताता है? "जाना" बताता है कि क्या, अपने व्यवहार के आधार पर वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों की श्रेणी में रहेंगे। "रुकना" बताता है कि वे उन लोगों की श्रेणी में रह सकते हैं जिन्हें परमेश्वर द्वारा अन्तिम दिनों के दौरान पूर्ण बनाया जाता है। जो रुकते हैं उनके लिये, परमेश्वर के पास विशेष प्रबंध है। उसके कार्यों की प्रत्येक समयावधि में, परमेश्वर ऐसे लोगों को भेजेगा कि वे प्रेरितों के रुप में कार्य करें या कलीसियाओं का जीर्णोद्धार करें या उनकी सुधि लें। परन्तु जो लोग इस कार्य को करने योग्य हैं वे पृथ्वी पर बार-बार उस तरह से जन्म नहीं लेते जिस तरह से अविश्वासी जन्म लेते हैं; बल्कि वे परमेश्वर के काम की आवश्यकता और उठाये गये कदमों के अनुसार वापस लौटते हैं और बार बार जन्म नहीं लेते। तो क्या उनका पुनर्जन्म कब होगा इस विषय में कोई नियम है? क्या वे प्रत्येक कुछ वर्षो में एक बार आते हैं? क्या वे ऐसी बारम्बारता में आते हैं? नहीं। यह किस पर आधारित है? यह परमेश्वर के कार्य पर आधारित है, काम से संबंधित उसके कदमों पर, उसकी आवश्यकताओं पर, और इसका कोई नियम नहीं है। वह एक ही नियम क्या है? वह यह है कि जब परमेश्वर अन्तिम दिनों में अपने कार्यों का अन्तिम चरण पूरा करता है, तो ये चुने हुए लोग मनुष्यों के मध्य आयेंगे। जब वे सब आएंगे तो यह उनका अन्तिम बार जन्म होगा। और ऐसा क्यों है? यह परमेश्वर के कार्यों के अन्तिम चरण में प्राप्त किये जाने वाले परिणामों पर आधारित है—क्योंकि कार्य के इस अंतिम चरण के दौरान, परमेश्वर इन चुने हुए लोगों को सम्पूर्ण रुप से पूर्ण करेगा। इसका क्या अर्थ है? यदि इस अन्तिम चरण में इन लोगों को पूर्णता दी जाती है और वे सिद्ध बनाये जाते हैं तब वे पहले की तरह फिर से जन्म नहीं लेंगे; मनुष्य होने की प्रक्रिया पूर्णतया समाप्त होगी और इसी प्रकार पुनर्जन्म की प्रक्रिया भी। ये उनसे संबंधित है जो ठहरे रहेंगे। तो जो ठहर नहीं सकते वे कहां जाते हैं? जो ठहर नहीं सकते उनके जाने के लिये कोई न कोई उचित स्थान है। पहले तो-जैसा अन्य लोगों के साथ होता है—उनके बुरे कार्यों के परिणाम स्वरुप जो त्रुटियां उन्होंने की, और जो पाप उनके द्वारा किये गये, वे भी दण्डित किए जाते हैं। दण्डित किये जा चुकने के पश्चात परमेश्वर उन्हें आविश्वासियों के मध्य भेजता है; परिस्थितियों के अनुसार, वह उनका प्रंबंध अविश्वासियों के मध्य करेगा, या फिर विभिन्न विश्वासियों के मध्य। कहने का अर्थ है कि उनके पास दो विकल्प हैं: एक है कि शायद दण्डित होने के बाद उन्हें एक विशेष धर्म के मध्य रहना पड़े और दूसरा है कि शायद उन्हें अविश्वासी बनना पड़े। यदि वे एक अविश्वासी व्यक्ति बनते हैं तो फिर उनके हाथ से सारे अवसर चले जाएंगे। यदि वे विश्वासि व्यक्ति बनते हैं—उदाहरण के लिये, यदि वे एक ईसाई बनते हैं—तो उनके पास अभी भी अवसर है कि वे परमेश्वर के चुने हुओं के बीच लौट आयें; इस संबंध में अनेक जटिलताएं हैं। संक्षेप में, यदि परमेश्वर का कोई चुना हुआ व्यक्ति ऐसा कोई काम करता है जो परमेश्वर को पसंद नहीं, तो वे अन्य लोगों के समान ही दण्डित किये जायेंगे। उदाहरण के लिये, पौलुस को ही लो, जिसके विषय में हमने विगत समय में बात की थी। पौलुस दण्डित किए जाने वालों का एक उदाहरण है। तुम सब समझ रहे हो न कि मैं किस विषय पर बात कर रहा हूं? क्या परमेश्वर के चुने हुए लोगों का सीमाक्षेत्र निश्चित है? (अधिकांशत: निश्चित है।) इसमें अधिकतर निश्चित है। परन्तु उसका एक छोटा भाग निश्चित नहीं है। ऐसा क्यों है? क्योंकि उन्होंने बुराई की है। यहां मैंने सबसे स्पष्ट परिलक्षित उदाहरण बताया है: बुराई करना। जब वे बुराई करते हैं, परमेश्वर उन्हें नहीं चाहता, और जब उसे उनकी आवश्यकता नहीं रहती, तो वह उन्हें विभिन्न जातियों और प्रकार के लोगों के बीच फेंक देता है, जो उन्हें बिना किसी आशा के छोड़ देता है और वापस लौटना कठिन बना देता है। यह सब परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन और मृत्यु के चक्र से संबंधित है।

आगे सेवकाई करने वालों के जीवन और मृत्यु के चक्र के बारे में है। हमने अभी-अभी सेवकाई करने वालों के बारे में बातचीत की, उनका मूल क्या है? (उनमें से कुछ अविश्वासी, कुछ जानवर थे।) ये सेवकाई करने वाले अविश्वासियों और जानवरों से पैदा हुए थे। परमेश्वर के कार्य के अंतिम चरण में आने के साथ ही, परमेश्वर ने अविश्वासियों में से ऐसे समूह को चुना है और यह एक बहुत ही खास समूह है। परमेश्वर का ऐसे लोगों को चुनने का उद्देश्य अपने कार्य के लिए उनकी सेवा लेना है। "सेवा" एक बहुत ही शिष्ट सुनाई देने वाला शब्द नहीं है, न ही यह ऐसा शब्द है जिसके लिए कोई भी तैयार हो जाए, परन्तु हमें यह देखना है कि यह किसकी ओर लक्षित किया गया है। परमेश्वर की सेवकाई करने वालों के अस्तित्व का कुछ खास महत्व है। कोई भी उनके स्थान पर कार्य नहीं कर सकता है, क्योंकि उन्हें परमेश्वर ने चुना है, और यहीं उनकी अस्तित्व की महत्ता है। और इन सेवकाई करने वालों की क्या भूमिका है? परमेश्वर के चुने हुओं की सेवकाई करना। मुख्यतौर पर, उनका मुख्य कार्य परमेश्वर का कार्य करना, परमेश्वर के कार्य में सहयोग देना है और परमेश्वर के चुने हुओं की निष्पत्ति में सहायता करना है। इसकी परवाह किए बगैर कि वे मेहनत कर रहे हैं, कुछ कार्य कर रहे हैं, या कुछ कार्यों को लिए हुए हैं, परमेश्वर की इन लोगों से क्या अपेक्षा है? क्या वह इनसे बहुत अधिक की अपेक्षा कर रहा है? (वह उनसे वफादार होने की अपेक्षा करता है।) सेवकाई करने वालों का वफादार होना भी आवश्यक है। चाहे तुम्हारी उत्पत्ति कहीं से हुई हो, या परमेश्वर ने तुम्हें किसी भी कारणवश चुना हो, तुम्हें वफादार होना होगा: तुम्हें परमेश्वर के प्रति वफादार होना होगा, परमेश्वर के आदेशों के प्रति, साथ ही साथ उस कार्य और दायित्व के प्रति जिनके लिए तुम जिम्मेदार हो। यदि सेवकाई करने वाले निष्ठावान होने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के योग्य हैं, तो उनका अन्त क्या होगा? वे रह पाएंगे। एक सेवकाई करने वाला जो रह जाता है, ऐसा होना क्या एक आशीष है? रहने का क्या अर्थ है? इस आशीष का क्या अर्थ है? हैसियत में वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों के समान नहीं दिखते, वे भिन्न दिखाई देते हैं। तथापि, वास्तव में इस जीवन में वे जिस प्रकार जीते हैं, क्या यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों जैसा नहीं हैं? कम से कम इस जीवन में तो वैसा ही है। तुम लोग इससे इंकार नहीं करते, है ना? परमेश्वर के कथन, परमेश्वर का अनुग्रह, परमेश्वर द्वारा पोषण, परमेश्वर की आशीषें—कौन ऐसा है जो इनका आनन्द नहीं उठाता? इस बहुतायत का सभी आनन्द उठाते हैं। सेवकाई करने वाले की पहचान सेवा करने वाले के रुप में ही है परन्तु परमेश्वर के लिये वे उन चीजों में से एक ही है जिनकी उसने सृष्टि की है—सीधी-सी बात है कि उनकी भूमिका सेवकाई करने वालों की है। परमेश्वर की सृष्टि में से ही एक होने के नाते, तो तुम क्या कहते हो, क्या एक सेवकाई करने वाले में और परमेश्वर के चुने हुए लोग होने में कुछ अन्तर है? प्रभाव में तो नहीं। सामान्यत: देखें तो अन्तर है, सार-तत्व में एक अन्तर है, वे जो भूमिका निभाते हैं उसके अनुसार अन्तर है, परन्तु इन लोगों में परमेश्वर कोई पक्षपात नहीं करता। तो इन लोगों को सेवकाई करने वालों के रुप में क्यों परिभाषित किया जाता है? इस बात को तुम सबको समझना चाहिये—सेवकाई करने वाले अविश्वासियों में से आते हैं। अविश्वासियों का वर्णन हमें बताता है कि उनका अतीत बुरा था। वे सब नास्तिक हैं, अपने अतीत में वे नास्तिक थे, वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते थे और वे परमेश्वर के, सच्चाई और सकारात्मक बातों के विरोधी थे। वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते थे और नहीं मानते थे कि परमेश्वर का अस्तित्व है, तो ये क्या वे परमेश्वर के वचनों को समझने योग्य हैं? यह कहना उचित होगा कि काफी हद तक वे नहीं हैं। जैसे कि पशु मनुष्य के शब्दों को नहीं समझ पाते, ठीक वैसे ही सेवकाई करने वाले भी नहीं समझते कि परमेश्वर क्या कह रहा है, वह क्या चाहता है, उसकी ऐसी अपेक्षा क्यों है—ये बातें उनकी समझ से परे हैं, वे अज्ञानी ही बने रहते हैं। और यही कारण है कि वे उस जीवन को प्राप्त नहीं करते जिसकी हमने बात की। बिना जीवन के, क्या लोग सच्चाई को समझ सकते हैं? क्या उनमें सच्चाई है? क्या उनमें परमेश्वर के वचन का अनुभव और ज्ञान है? निश्चय ही नहीं। यही उन सेवकाई करने वालों का मूल है। परन्तु चूंकि परमेश्वर इन लोगों को सेवकाई करने वाला बनाता है, उनसे उसकी अपेक्षाओं के भी स्तर हैं; वह उन्हें तुच्छ दृष्टि से नहीं देखता और न वह उनके प्रति बेपरवाह ही है। यद्यपि वे उसके वचन को नहीं समझते और बिना जीवन के हैं, फिर भी परमेश्वर उनके प्रति दयावान है और अभी भी उनसे उसकी अपेक्षाओं के मानक हैं। तुम लोगों ने अभी इन स्तरों के विषय में कहाः परमेश्वर के प्रति निष्ठावान बने रहना और वही करना जो वह कहता है। अपनी सेवकाई में तुम्हें वहीं सेवकाई करनी है जहां आवश्यकता हो, और सेवकाई को अन्त तक पूरा करना है। यदि तुम अंत तक सेवकाई कर सको, यदि तुम एक निष्ठावान सेवकाई करने वाले बन सको, और अन्त तक सेवकाई कर सको, और परमेश्वर द्वारा सौंपे गये कार्य को बिल्कुल भली-भांति पूर्ण करने वाले बन सको, तब तुम एक सार्थक जीवन जियोगे और तुम रह पाओगे। यदि तुम थोड़ा और प्रयास करो, यदि तुम थोड़ा और परिश्रम करो, परमेश्वर को जानने के अपने प्रयास को तुम दोगुना करो, परमेश्वर के ज्ञान के विषय में थोड़ा-बहुत बोल पाओ, परमेश्वर की गवाही दे सको और इसके अतिरिक्त, यदि तुम परमेश्वर की इच्छा को थोड़ा-बहुत समझ सको, परमेश्वर के कार्य में सहयोग कर सको, और परमेश्वर की इच्छा के प्रति थोड़ा सचेत रहो, तब तुम, यह सेवकाई करने वाले, अपने भाग्य को बदल पाओगे और भाग्य में यह परिवर्तन किस प्रकार का होगा? तब तुम केवल रहोगे ही नहीं। तुम्हारे आचरण और व्यक्तिगत आकांक्षा और कोशिश के आधार पर, परमेश्वर तुम्हें चुने हुओं में से बनायेगा। यह तुम्हारे भाग्य में परिवर्तन होगा। सेवकाई करने वालों के लिये इस विषय में सर्वोत्तम बात क्या है? वह यह है कि वे परमेश्वर के चुने हुओं में से एक बन सकते हैं। और यदि वे परमेश्वर के चुने हुओं में से एक बन जाते हैं तो इसका अर्थ क्या होता है? इसका अर्थ है कि अब अविश्वासियों के समान पशु के रुप में उनका पुनर्जन्म नहीं होगा। क्या यह अच्छा है? हां, यह एक अच्छा समाचार है। कहने का तात्पर्य है, सेवकाई करने वालों को ढाला जा सकता है। सेवकाई करने वालों के मामले में ऐसा नहीं है कि जब परमेश्वर तुम्हें सेवकाई के लिये नियुक्त करता है, तुम सदा के लिए सेवकाई ही करते रहोगे, ऐसा आवश्यक नहीं है। तुम्हारे व्यक्तिगत आचरण आधार पर, परमेश्वर तुम्हारे साथ अलग तरीके से व्यवहार करेगा और अलग ढंग से तुम्हें प्रत्युत्तर देगा।

परन्तु ऐसे सेवकाई करने वाले भी हैं जो अन्त तक सेवकाई नहीं कर पाते; अपनी सेवकाई के दौरान, ऐसे लोग भी हैं जो अधूरे में छोड़ देते हैं और परमेश्वर को त्याग देते हैं, ऐसे भी लोग हैं जो अनेक बुरे कार्य करते हैं और यहां तक कि ऐसे सेवकाई करने वाले भी हैं जो बड़ा नुकसान करते हैं और परमेश्वर के कार्य को बड़ी हानि पहुंचाते हैं, ऐसे सेवकाई करने वाले भी हैं जो परमेश्वर को कोसते हैं और इसी प्रकार के कार्य करते हैं—और इन असाध्य परिणामों का क्या अर्थ है? ऐसे किसी भी दुष्टता पूर्ण कार्यों का अर्थ होगा उनकी सेवकाई का भंग किया जाना। कहने का अर्थ है, क्योंकि सेवकाई काल के दौरान तुम्हारा आचरण बहुत खराब था, क्योंकि तुमने अपनी हदें पार की हैं, जब परमेश्वर देखता है कि तुम्हारी सेवकाई अपेक्षित स्तर तक नहीं है, वह तुम्हें सेवकाई करने की योग्यता से वंचित कर देगा, वह तुम्हें सेवकाई नहीं करने देगा, वह तुम्हें अपनी आंखों के सामने से और परमेश्वर के घर से हटा देगा। क्या ऐसा नहीं है कि तुम सेवकाई नहीं करना चाहते? क्या तुम्हारा मन हमेशा दुष्टता करने का नहीं करता? क्या तुम हमेशा से विश्वासघाती नहीं रहे हो? तब ठीक है, एक सरल उपाय है: तुम्हें सेवकाई करने की पात्रता से वंचित कर दिया जाएगा। परमेश्वर की दृष्टि में सेवकाई करने वाले को उसकी सेवकाई से वंचित किये जाने का अर्थ है कि सेवकाई करने वाले के अन्त की घोषणा की जा चुकी है, और इसलिये, भविष्य में वे परमेश्वर की सेवकाई करने योग्य नहीं होंगे, परमेश्वर को उन से भविष्य में सेवकाई की आवश्यकता नहीं है, और चाहे वे कितनी भी चिकनी-चुपड़ी बातें करें, उनकी बातें व्यर्थ होंगी। जब हालात यहां तक पहुंच गए, तो यह परिस्थिति असाध्य बन गई होगी; ऐसे सेवकाई करने वाले के पास लौटने का कोई मार्ग नहीं होगा और परमेश्वर इस प्रकार के सेवकाई करने वालों के साथ किस प्रकार का व्यवहार करता है? क्या वह केवल उन्हें सेवकाई करने से रोकता है? नहीं। क्या वह उन्हें केवल बने रहने से रोकता है? या वह उन्हें एक तरफ कर देता है, और इंतज़ार करता है कि वह मुड़कर वापस आ जाएं? वह ऐसा नहीं करता। सचमुच, परमेश्वर इन सेवकाई करने वालों से इतना प्रेम नहीं करता। और अगर किसी व्यक्ति की परमेश्वर की सेवकाई के प्रति इस प्रकार की मानसिकता होती है, तो इस मनोभाव के कारण, परमेश्वर उसे सेवकाई करने की पात्रता से वंचित कर देगा और उसे एक बार फिर अविश्वासियों के बीच फेंक देगा। और जिस सेवकाई करने वाले को अविश्वासियों में फेंक दिया गया हो, उसका क्या हाल होता है? यह अविश्वासियों के समान होता है: उन्हें पशु के रुप में पुनर्जन्म दिया जाता है और आत्मिक संसार में अविश्वासियों वाला दण्ड दिया जाता है। और परमेश्वर उनके दण्ड में व्यक्तिगत रुचि नहीं लेगा, क्योंकि अब उनका परमेश्वर के कार्य से कोई लेना-देना नहीं होता है। यह न केवल परमेश्वर में उनके विश्वासी जीवन का अन्त होता है बल्कि उनके स्वयं के भाग्य का, उनके भाग्य की उद्घोषणा का भी अन्त होता है, और इसलिये यदि सेवकाई करने वाले खराब सेवकाई करते हैं तो वे स्वयं परिणाम भुगतेंगे। यदि कोई सेवकाई करने वाला अन्त तक सेवकाई नहीं कर पाता है, या बीच में से ही सेवकाई करने की पात्रता से वंचित कर दिया जाता है, तो उन्हें अविश्वासियों में फेक दिया जायेगा और यदि उन्हें अविश्वासियों में फेक दिया गया तो उनके साथ मवेशियों जैसा व्यवहार होगा, उसी प्रकार जैसे अज्ञानियों और तर्कहीन व्यक्तियों के साथ होता है। जब मैं इस प्रकार से कहता हूं, तो तुम सब समझते हो न?

परमेश्वर अपने चुने हुए लोगों और सेवकाई करने वालों के जीवन और मृत्यु चक्र के साथ ऐसे ही निपटता है। यह सुनने के बाद तुम लोग कैसा महसूस करते हो? क्या मैंने पहले कभी परमेश्वर के चुने हुए लोगों और सेवकाई करने वालों के विषय में बात की है? दरअसल मैंने बात की है, लेकिन तुम लोगों को याद नहीं। परमेश्वर अपने चुने हुए और सेवकाई करने वालों के प्रति धर्मी है। हर तरह से वह धर्मी है, इसमें कोई शक नहीं। शायद ऐसे लोग हैं जो कहेंगे: अच्छा तो फिर परमेश्वर अपने चुने हुओं के प्रति उदार क्यों है? और वह सेवकाई करने वालों के प्रति केवल थोड़ा धैर्यवान क्यों है? "क्या कोई सेवा करने वालों के लिये खड़े होने की इच्छा रखता है।" "क्या परमेश्वर सेवकाई करने वालों को और समय दे सकता है और उनके प्रति ज्यादा सहिष्णु और उदार हो सकता है?" क्या ये शब्द सही हैं? (नहीं, सही नहीं हैं।) और वे सही क्यों नहीं है? (क्योंकि वास्तव में हमें केवल सेवकाई करने वाला बना कर ही हम पर दया दर्शायी गई।) सेवकाई करने वालों पर दरअसल दया उन्हें सेवकाई की अनुमति देकर ही दिखायी गई है! "सेवकाई करने वाले" शब्द के बिना और सेवकाई करने वालों के कामों के बिना, ये सेवकाई करने वाले कहां होते? अविश्वासियों के बीच, मवेशियों के साथ जीते और मरते। आज उन्हें कितना अनुग्रह मिल रहा है, परमेश्वर के सामने आने की अनुमति और परमेश्वर के निवास में आने की अनुमति! कितनी बडी कृपा है उन पर! यदि परमेश्वर ने तुम्हें सेवकाई करने का अवसर न दिया होता, तो तुम्हें कभी भी परमेश्वर के सामने आने का अवसर न मिलता। और क्या कहें, यदि तुम कोई ऐसे हो जो बौद्धधर्म को मानता है और तुमने सुखानुभव को प्राप्त कर लिया है, तो ज़्यादा से ज़्यादा तुम आत्मिक जगत के बिल्कुल एक छोटे प्रशासनिक कार्य करने वाले होते। तुम कभी भी परमेश्वर से नहीं मिल पाते, न उसकी आवाज सुन पाते, न उसके वचन सुन पाते न तुम अपने लिये उसके प्रेम और आशीष को महसूस कर पाते और न ही संभवतः कभी उससे रुबरु हो पाते। बौद्धों के सामने केवल साधारण काम होते हैं। वे संभवतः परमेश्वर को नहीं जान सकते और अंधों की तरह अनुकरण और आज्ञा मानते हैं, जबकि सेवकाई करने वाले कार्य के इस चरण में कितना कुछ प्राप्त कर लेते हैं! सर्वप्रथम, वे परमेश्वर से रूबरू होने, उसकी आवाज़ सुनने, उसके वचन सुनने, और उस अनुग्रह और आशीष का अनुभव करने में जो वह लोगों को देता है उसमें समर्थ होते हैं। इसके अलावा, वे परमेश्वर के द्वारा दिये गये वचनों और सच्चाई का आनंद उठाने के योग्य होते हैं। उन्हें वास्तव में कितना कुछ प्राप्त होता है। इतना ज्यादा! तो एक सेवकाई करने वाले के रूप में, अगर तुम सही प्रयत्न भी नहीं कर सकते, तो क्या परमेश्वर तब भी तुम्हें अपने साथ रखेगा? वह तुमसे ज्यादा कुछ नहीं चाहता! परमेश्वर तुम्हें नहीं रख सकता; जो वह सही ढंग से चाहता है, वह तुम कुछ नहीं करते, तुम अपने कर्त्तव्य से जुड़े नहीं रहे—और इस कारण-बिना शक, परमेश्वर तुम्हें नहीं रख सकता। परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव ऐसा ही है। परमेश्वर तुम्हारे नखरे नहीं उठाता, लेकिन न ही वह तुम्हारे साथ किसी तरह का भेदभाव करता है। परमेश्वर इन्हीं सिद्धांतों पर चलता है। सब लोगों और प्राणियों के प्रति परमेश्वर ऐसे ही व्यवहार करता है।

जब आत्मिक जगत की बात आती है, यदि इसमें इतने जीव कुछ गलत करते हैं, यदि वे अपना कार्य ठीक ढंग से नहीं करते हैं, तो परमेश्वर के पास उनसे निपटने के लिये उसी के अनुरूप स्वर्गिक धर्मादेश और निर्णय हैं—यह बात बिल्कुल सही है। तो परमेश्वर के हजारों काल के प्रबंधकीय कार्य के दौरान, जिन दूतों ने कुछ गलत किया था, उन्हें बाहर निकाल दिया गया, कुछ आज भी बंद हैं और दंडित किये जा रहे हैं—आत्मिक जगत में हर जीव को इसका सामना करना पडता है। यदि वे कुछ गलत करते हैं या कोई बुराई करते हैं तो वे दंडित किए जाते हैं—और यह ठीक वैसा ही है जैसा परमेश्वर अपने चुने हुए लोगों और सेवकाई करने वालों के साथ करता है। अत: चाहे वह आत्मिक संसार में हो या भौतिक संसार में, परमेश्वर जिन सिद्धांतों से काम करता है, वे बदलते नहीं हैं। चाहे जो हो तुम परमेश्वर के कामों को देख पाओ या नहीं, उसके सिद्धांत नहीं बदलते हैं। शुरु से ही हर चीज़ के प्रति परमेश्वर का दृष्टिकोण और चीज़ों के प्रबंधन के उसके सिद्धांत वही रहे हैं। यह अपरिवर्तनीय हैं। परमेश्वर उन अविश्वासी लोगों के प्रति भी उदार रहेगा जो अपेक्षाकृत सही तरीके से जीते हैं, और हर धर्म में उन लोगों के लिये अवसर बचाकर रखेगा जो सद्व्यवहार करते हैं और बुराई नहीं करते, उन्हें उन सब कामों में एक भूमिका देगा परमेश्वर जिन कामों का प्रबंध करता है, ताकि वे उन कामों को करें जो उन्हें करने चाहिए। ठीक उसी प्रकार, उन लोगों के बीच जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, जो उसके चुने हुए लोग हैं, परमेश्वर इन सिद्धांतों के अनुसार, किसी भी व्यक्ति के साथ पक्षपात नहीं करता। जो कोई भी ईमानदारी से उसका अनुसरण करता है, वह उसके प्रति दयालु है, और वह उसे प्रेम करता है। अंतर केवल इतना है कि जो इस प्रकार के लोग हैं जैसे—अविश्वासी, विभिन्न आस्थाओं वाले लोग और परमेश्वर के चुने हुए लोग—वह जो उन्हें प्रदान करता है, वह भिन्न है। अविश्वासियों को ही लीजियेः हालांकि वे परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते और परमेश्वर भी उन्हें ऐसे देखता है, जैसे मवेशी, सब बातों के बीच उनके पास खाने योग्य भोजन है, उनका अपना एक स्थान और जीवन और मृत्यु का सामान्य चक्र होता है। जो बुरा करते हैं वे दण्ड पाते और जो अच्छा करते हैं वे परमेश्वर से आशीष पाते और परमेश्वर की दया प्राप्त करते हैं। यह इस प्रकार से चलता है। आस्थावान लोगों के लिये, यदि वे हर जन्म में अपने धार्मिक विश्वासों का दृढ़ता से पालन करते रहें, तो इन सारे पुनर्जन्मों के बाद परमेश्वर अंततः इनके लिए अपनी उद्घोषणा करेगा। ठीक उसी प्रकार से प्रत्येक जो आज यहां पर है, चाहे वे परमेश्वर के चुने हुए लोग हों या सेवकाई करने वाले लोग हों, परमेश्वर उन्हें भी राह पर लाएगा और अपने द्वारा बनाए गए नियमों और प्रबंधनकारिणी निर्देशों के अनुसार उनके अंत का निर्णय करेगा। देखिए, ये जो विभिन्न प्रकार के लोग हैं, विभिन्न आस्थाओं के लोग, जो विभिन्न धर्मों को मानते हैं, क्या परमेश्वर ने उन्हें रहने का स्थान दिया है? यहूदी धर्म कहां है? क्या परमेश्वर उनके विश्वास में हस्तक्षेप करता है? बिल्कुल नहीं। और ईसाई धर्म का क्या? वह उसमें में बिल्कुल दखलअंदाजी नहीं करता। वह उन्हें उनके रिवाजों में बने रहने की अनुमति देता है और उनसे बात नहीं करता, और न ही किसी तरह का प्रकाशन देता है, और, उससे भी अधिक, वह उन पर कुछ भी प्रगट नहीं करता "यदि तुम सोचते हो कि यह सही है तो इसी तरह विश्वास करो!" कैथोलिक मरियम पर विश्वास रखते हैं, और मानते हैं कि वह मरियम ही थी जिसके द्वारा सुसमाचार यीशु तक पहुंचाया गया; यह उनकी आस्था का रूप है। और क्या कभी परमेश्वर ने उनके विश्वास को सुधारा? परमेश्वर उन्हें स्वत्रंत छोड़ दिया है, वह उन पर ध्यान नहीं देता और उन्हें उसमें जीने की आज़ादी दे दी है। और क्या मुसलमानों और बौद्धों के प्रति भी वह वैसा ही है? उसने उनके लिये भी एक दायरा तय कर दिया है, ताकि बिना किसी हस्तक्षेप के वे उस दायरे में अपनी आस्था का पालन करते हुए जी सकें। सब कुछ व्यवस्थित है। और इन सब में तुम क्या देखते हो? यही कि हर चीज़ पर परमेश्वर का अधिकार है, लेकिन वह उस अधिकार का दुरुपयोग नहीं करता। परमेश्वर सब बातों को आदर्श क्रम में लगाता है और सुव्यवस्थित है और इसमें उसकी बुद्धि और सर्वव्याप्ता वास करती है।

आज हमने एक नये और खास विषय पर बात की जिसका संबंध आत्मिक संसार से है, जो परमेश्वर के प्रबंधन और आत्मिक जगत पर उसकी प्रभुता के पहलुओं में से एक है। यदि तुमने इन बातों को नहीं समझा होता, तो तुमने कहा होताः "इससे संबंधित हर चीज़ एक रहस्य है, और इसका हमारे जीवन में प्रवेश के विषय से कुछ लेना देना नहीं है; ये चीज़ें उन बातों से अलग हैं कि लोग कैसे जीते हैं, और हमें उन्हें समझने की आवश्यकता नहीं है और न ही हम उनके बारे में कुछ सुनना चाहते हैं। परमेश्वर को जानने से उनका बिल्कुल भी कोई संबंध नहीं है।" अब क्या तुम सोचते हो कि ऐेसी सोच से कोई समस्या है? क्या यह ठीक है? ऐसी सोच ठीक नहीं है और इसमें गंभीर समस्या है। वह इसलिये क्योंकि यदि तुम वह समझने की इच्छा रखते हो कि परमेश्वर सब बातों पर कैसे राज करता है, तो तुम साधारण रुप में और केवल यह नहीं समझ सकते कि तुम क्या देख सकते हो और तुम्हारी सोच के द्वारा क्या प्राप्त किया जा सकता है। तुम्हें थोडा-बहुत उस संसार को भी समझना होगा जिसे तुम देख नहीं सकते, लेकिन यह उस जगत से जटिलता से उलझा हुआ है जिसे तुम देख सकते हो, यह परमेश्वर के प्रभुत्व से संबंधित है, इसका संबंध "परमेश्वर सभी चीजों के जीवन का स्रोत है" विषय से है। यह उसके विषय में जानकारी है। इस जानकारी के बिना, इस ज्ञान के विषय में कि केवल परमेश्वर ही सब चीजों के जीवन का स्रोत है, लोगों के ज्ञान में कमी और त्रुटियाँ आ जाएगी। अतः आज जो हमने कहा है, उसे जिसे हम पहले कर चुके हैं, उसका समापन कहा जा सकता है और साथ ही इस विषय का भी कि "परमेश्वर सभी चीजों के जीवन का स्रोत है"। इस सार-तत्व को समझ लेने पर क्या तुम इस विषय के माध्यम से परमेश्वर को जानने योग्य हो? और ज्यादा महत्वपूर्ण क्या है? आज, मैंने एक बहुत ही महत्वपूर्ण सूचना दी है: सेवकाई करने वालों का राज, मैं जानता हूं कि तुम इस तरह के विषय पर सुनना पसंद करते हो, कि तुम वास्तव में इन बातों की परवाह करते हो, तो मैंने आज जो चर्चा की, क्या तुम उससे संतुष्ट हो? (हां, हम हैं।) तुम पर शायद अन्य दूसरी बातों का इतना प्रभाव न हुआ हो, परन्तु तुम पर सेवकाई करने वालों के लिये कही गई बातों के विषय का जबरदस्त प्रभाव पड़ा है, क्योंकि यह विषय तुममें से हरेक की आत्मा को छूता है।

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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