मनुष्य के सामान्य जीवन को बहाल करना और उसे एक अद्भुत मंज़िल पर ले जाना (भाग एक)

मनुष्य आज के कार्य और भविष्य के कार्य को तो थोड़ा समझता है, किंतु वह उस मंज़िल को नहीं समझता, जिसमें मानव-जाति प्रवेश करेगी। एक प्राणी के रूप में मनुष्य को प्राणी का कर्तव्य निभाना चाहिए : जो कुछ भी परमेश्वर करता है, उसमें मनुष्य को उसका अनुसरण करना चाहिए; जैसे मैं तुम लोगों को बताता हूँ, वैसे ही तुम्हें आगे बढ़ना चाहिए। तुम्हारे पास अपने लिए चीज़ों का प्रबंधन करने का कोई तरीका नहीं है, और तुम्हारा स्वयं पर कोई अधिकार नहीं है; सब-कुछ परमेश्वर के आयोजन पर छोड़ दिया जाना चाहिए, और हर चीज़ उसके हाथों में है। यदि परमेश्वर के कार्य ने मनुष्य को एक अंत, एक अद्भुत मंज़िल समय से पहले प्रदान कर दिए होते, और यदि परमेश्वर ने इसका उपयोग मनुष्य को लुभाने और उससे अपना अनुसरण करवाने के लिए किया होता—यदि उसने मनुष्य के साथ कोई सौदा किया होता—तो यह विजय न होती, न ही यह मनुष्य के जीवन को आकार देने के लिए होता। यदि परमेश्वर को मनुष्य के अंत का उपयोग उसे नियंत्रित करने और उसके हृदय को पाने के लिए करना होता, तो इसमें वह मनुष्य को पूर्ण नहीं कर रहा होता, न ही वह मनुष्य को पाने में सक्षम होता, बल्कि इसके बजाय वह मंज़िल का उपयोग मनुष्य को नियंत्रित करने के लिए कर रहा होता। मनुष्य भावी अंत, अंतिम मंज़िल, और आशा करने के लिए कोई अच्छी चीज़ है या नहीं, इससे अधिक और किसी चीज़ की परवाह नहीं करता। यदि विजय के कार्य के दौरान मनुष्य को एक खूबसूरत आशा दे दी जाती, और यदि मनुष्य पर विजय से पहले उसे पाने के लिए उपयुक्त मंज़िल दे दी जाती, तो न केवल मनुष्य पर विजय ने अपना परिणाम प्राप्त न किया होता, बल्कि विजय के कार्य का परिणाम भी प्रभावित हो गया होता। अर्थात्, विजय का कार्य मनुष्य के भाग्य और उसके भविष्य की संभावनाओं को छीनने और मनुष्य के विद्रोही स्वभाव का न्याय और उसकी ताड़ना करने से अपना परिणाम प्राप्त करता है। इसे मनुष्य के साथ सौदा करके, अर्थात् मनुष्य को आशीष और अनुग्रह देकर प्राप्त नहीं किया जाता, बल्कि मनुष्य को उसकी "स्वतंत्रता" से वंचित करके और उसकी भविष्य की संभावनाओं को जड़ से उखाड़कर उसकी वफादारी प्रकट करके प्राप्त किया जाता है। यह विजय के कार्य का सार है। यदि मनुष्य को बिलकुल आरंभ में ही एक खूबसूरत आशा दे दी गई होती, और ताड़ना और न्याय का कार्य बाद में किया जाता, तो मनुष्य इस ताड़ना और न्याय को इस आधार पर स्वीकार कर लेता कि उसके पास भविष्य की संभावनाएँ हैं, और अंत में, सभी प्राणियों द्वारा सृजनकर्ता की शर्त-रहित आज्ञाकारिता और आराधना प्राप्त नहीं होती; वहाँ केवल अंधी, ज्ञान से रहित आज्ञाकारिता ही होती, या फिर मनुष्य परमेश्वर से आँख मूँदकर माँगें करता, और मनुष्य के हृदय पर पूरी तरह से विजय प्राप्त करना असंभव होता। इसके परिणामस्वरूप, विजय के ऐसे कार्य के लिए मनुष्य को प्राप्त करना, या, इसके अतिरिक्त, परमेश्वर के लिए गवाही देना असंभव होता। ऐसे प्राणी अपना कर्तव्य निभाने में असमर्थ होते, और वे परमेश्वर के साथ केवल मोल-भाव ही करते; यह विजय न होती, बल्कि करुणा और आशीष होता। मनुष्य के साथ सबसे बड़ी समस्या यही है कि वह अपने भाग्य और भविष्य की संभावनाओं के सिवाय और कुछ नहीं सोचता, और उनसे बहुत प्रेम करता है। मनुष्य अपने भाग्य और भविष्य की संभावनाओं के वास्ते परमेश्वर का अनुसरण करता है; वह परमेश्वर के प्रति अपने प्रेम की वजह से उसकी आराधना नहीं करता। और इसलिए, मनुष्य पर विजय में, मनुष्य के स्वार्थ, लोभ और ऐसी सभी चीज़ों से निपटकर उन्हें मिटा दिया जाना चाहिए, जो उसके द्वारा परमेश्वर की आराधना में सबसे अधिक व्यवधान डालती हैं। ऐसा करने से मनुष्य पर विजय के परिणाम प्राप्त कर लिए जाएँगे। परिणामस्वरूप, मनुष्य पर विजय के पहले चरणों में यह ज़रूरी है कि मनुष्य की अनियंत्रित महत्वाकांक्षाओं और सबसे घातक कमज़ोरियों को शुद्ध किया जाए, और इसके माध्यम से परमेश्वर के प्रति मनुष्य के प्रेम को प्रकट किया जाए, और मानव-जीवन के बारे में उसके ज्ञान को, परमेश्वर के बारे में उसके दृष्टिकोण को, और उसके अस्तित्व के अर्थ को बदल दिया जाए। इस तरह से, परमेश्वर के प्रति मनुष्य के प्रेम की शुद्धि होती है, जिसका तात्पर्य है कि मनुष्य के हृदय को जीत लिया जाता है। किंतु सभी प्राणियों के प्रति अपने दृष्टिकोण में परमेश्वर केवल जीतने के वास्ते विजय प्राप्त नहीं करता; बल्कि वह मनुष्य को पाने के लिए, अपनी स्वयं की महिमा के लिए, और मनुष्य की आदिम, मूल सदृशता पुन: हासिल करने के लिए विजय प्राप्त करता है। यदि उसे केवल विजय पाने के वास्ते ही विजय पानी होती, तो विजय के कार्य का महत्व खो गया होता। कहने का तात्पर्य है कि यदि मनुष्य पर विजय पाने के बाद परमेश्वर मनुष्य से पीछा छुड़ा लेता, और उसके जीवन और मृत्यु पर कोई ध्यान नहीं देता, तो यह मानव-जाति का प्रबंधन न होता, न ही मनुष्य पर विजय उसके उद्धार के वास्ते होती। मनुष्य पर विजय पाने के बाद उसे प्राप्त करना, और अंततः एक अद्भुत मंज़िल पर उसका आगमन ही उद्धार के समस्त कार्य के केंद्र में है, और केवल यही मनुष्य के उद्धार का लक्ष्य प्राप्त कर सकता है। दूसरे शब्दों में, केवल एक खूबसूरत मंज़िल पर मनुष्य का आगमन और विश्राम में उसका प्रवेश ही भविष्य की वे संभावनाएँ हैं, जो सभी प्राणियों के पास होनी चाहिए, और वह कार्य है जिसे सृजनकर्ता द्वारा किया जाना चाहिए। यदि मनुष्य को यह कार्य करना पड़ता, तो यह बहुत ही सीमित होता : यह मनुष्य को एक निश्चित बिंदु तक ले जा सकता था, किंतु यह मनुष्य को शाश्वत मंज़िल पर ले जाने में सक्षम न होता। मनुष्य की नियति निर्धारित करने में मनुष्य सक्षम नहीं है, इसके अलावा, वह मनुष्य की भविष्य की संभावनाओं और भविष्य की मंज़िल सुनिश्चित करने में भी सक्षम नहीं है। किंतु परमेश्वर द्वारा किया जाने वाला कार्य भिन्न है। चूँकि उसने मनुष्य को सृजा है, इसलिए वह उसकी अगुआई करता है; चूँकि वह मनुष्य को बचाता है, इसलिए वह उसे पूरी तरह से बचाएगा और उसे पूरी तरह से प्राप्त करेगा; चूँकि वह मनुष्य की अगुआई करता है, इसलिए वह उसे उस उपयुक्त मंज़िल पर ले जाएगा, और चूँकि उसने मनुष्य का सृजन किया है और उसका प्रबंध करता है, इसलिए उसे मनुष्य के भाग्य और उसकी भविष्य की संभावनाओं की ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए। यही वह कार्य है, जिसे सृजनकर्ता द्वारा किया जाता है। यद्यपि विजय का कार्य मनुष्य को भविष्य की संभावनाओं से वंचित करके प्राप्त किया जाता है, फिर भी अंततः मनुष्य को उस उपयुक्त मंज़िल पर अवश्य लाया जाना चाहिए, जिसे परमेश्वर द्वारा उसके लिए तैयार किया गया है। परमेश्वर द्वारा मनुष्य को आकार देने के कारण ही मनुष्य के पास एक मंज़िल है और उसका भाग्य सुनिश्चित है। यहाँ उल्लिखित उपयुक्त मंज़िल, अतीत में शुद्ध की गईं मनुष्य की आशाएँ और भविष्य की संभावनाएँ नहीं हैं; ये दोनों भिन्न हैं। जिन चीज़ों की मनुष्य आशा और खोज करता है, वे मनुष्य की नियत मंज़िल के बजाय, देह की फिज़ूल अभिलाषाओं के अनुसरण से उत्पन्न लालसाएँ हैं। इस बीच, जो कुछ परमेश्वर ने मनुष्य के लिए तैयार किया है, वह उसे शुद्ध किए जाने के बाद देय ऐसे आशीष और प्रतिज्ञाएँ हैं, जिन्हें परमेश्वर ने संसार के सृजन के बाद मनुष्य के लिए तैयार किया था, और जो मनुष्य की पसंद, धारणाओं, कल्पनाओं या देह के द्वारा दूषित नहीं हैं। यह मंज़िल किसी व्यक्ति-विशेष के लिए तैयार नहीं की गई है, बल्कि यह संपूर्ण मानव-जाति के लिए विश्राम का स्थल है। और इसलिए, यह मंज़िल मानव-जाति के लिए सबसे उपयुक्त मंज़िल है।

सृजनकर्ता सृष्टि के सभी प्राणियों का आयोजन करने का इरादा रखता है। तुम्हें उसके द्वारा की जाने वाली किसी भी चीज़ को ठुकराना या उसकी अवज्ञा नहीं करनी चाहिए, न ही तुम्हें उसके प्रति विद्रोही होना चाहिए। जब उसके द्वारा किया जाने वाला कार्य अंततः उसके लक्ष्य हासिल करेगा, तो वह इसमें महिमा प्राप्त करेगा। आज ऐसा क्यों नहीं कहा जाता कि तुम मोआब के वंशज हो, या बड़े लाल अजगर की संतान हो? क्यों चुने हुए लोगों के बारे में कोई बातचीत नहीं होती, और केवल सृजित प्राणियों के बारे में ही बातचीत होती है? सृजित प्राणी—यह मनुष्य का मूल नाम था, और यही उसकी स्वाभाविक पहचान है। नाम केवल इसलिए अलग-अलग होते हैं, क्योंकि कार्य के युग और काल अलग-अलग होते हैं; वास्तव में, मनुष्य एक साधारण प्राणी है। सभी प्राणियों को, चाहे वे अत्यंत भ्रष्ट हों या अत्यंत पवित्र, एक प्राणी का कर्तव्य अवश्य निभाना चाहिए। जब परमेश्वर विजय का कार्य करता है, तो वह तुम्हारे भविष्य की संभावनाओं, भाग्य या मंज़िल का उपयोग करके तुम्हें नियंत्रित नहीं करता। वास्तव में इस तरह से कार्य करने की कोई आवश्यकता नहीं है। विजय के कार्य का लक्ष्य मनुष्य से एक सृजित प्राणी के कर्तव्य का पालन करवाना है, उससे सृजनकर्ता की आराधना करवाना है; केवल इसके बाद ही वह अद्भुत मंज़िल में प्रवेश कर सकता है। मनुष्य का भाग्य परमेश्वर के हाथों से नियंत्रित होता है। तुम स्वयं को नियंत्रित करने में असमर्थ हो : हमेशा अपनी ओर से भाग-दौड़ करते रहने और व्यस्त रहने के बावजूद मनुष्य स्वयं को नियंत्रित करने में अक्षम रहता है। यदि तुम अपने भविष्य की संभावनाओं को जान सकते, यदि तुम अपने भाग्य को नियंत्रित कर सकते, तो क्या तुम तब भी एक सृजित प्राणी होते? संक्षेप में, परमेश्वर चाहे जैसे भी कार्य करे, उसका समस्त कार्य केवल मनुष्य के वास्ते होता है। उदाहरण के लिए, स्वर्ग और पृथ्वी और उन सभी चीज़ों को लो, जिन्हें परमेश्वर ने मनुष्य की सेवा करने के लिए सृजित किया : चंद्रमा, सूर्य और तारे, जिन्हें उसने मनुष्य के लिए बनाया, जानवर और पेड़-पौधे, बसंत, ग्रीष्म, शरद और शीत ऋतु इत्यादि—ये सब मनुष्य के अस्तित्व के वास्ते ही बनाए गए हैं। और इसलिए, परमेश्वर मनुष्य को चाहे जैसे भी ताड़ित करता हो या चाहे जैसे भी उसका न्याय करता हो, यह सब मनुष्य के उद्धार के वास्ते ही है। यद्यपि वह मनुष्य को उसकी दैहिक आशाओं से वंचित कर देता है, पर यह मनुष्य को शुद्ध करने के वास्ते है, और मनुष्य का शुद्धिकरण इसलिए किया जाता है, ताकि वह जीवित रह सके। मनुष्य की मंज़िल सृजनकर्ता के हाथ में है, तो मनुष्य स्वयं को नियंत्रित कैसे कर सकता है?

एक बार जब विजय का कार्य पूरा कर लिया जाएगा, तब मनुष्य को एक सुंदर संसार में लाया जाएगा। निस्संदेह, यह जीवन तब भी पृथ्वी पर ही होगा, किंतु यह मनुष्य के आज के जीवन के बिलकुल विपरीत होगा। यह वह जीवन है, जो संपूर्ण मानव-जाति पर विजय प्राप्त कर लिए जाने के बाद मानव-जाति के पास होगा, यह पृथ्वी पर मनुष्य के लिए एक नई शुरुआत होगी, और मनुष्य के पास इस प्रकार का जीवन होना इस बात का सबूत होगा कि मनुष्य ने एक नए और सुंदर क्षेत्र में प्रवेश कर लिया है। यह पृथ्वी पर मनुष्य और परमेश्वर के जीवन की शुरुआत होगी। ऐसे सुंदर जीवन का आधार ऐसा होना चाहिए, कि मनुष्य को शुद्ध कर दिए जाने और उस पर विजय पा लिए जाने के बाद वह परमेश्वर के सम्मुख समर्पण कर दे। और इसलिए, मानव-जाति के अद्भुत मंज़िल में प्रवेश करने से पहले विजय का कार्य परमेश्वर के कार्य का अंतिम चरण है। ऐसा जीवन ही पृथ्वी पर मनुष्य का भविष्य का जीवन है, पृथ्वी पर सबसे अधिक सुंदर जीवन, उस प्रकार का जीवन जिसकी लालसा मनुष्य करता है, और उस प्रकार का जीवन, जिसे मनुष्य ने संसार के इतिहास में पहले कभी प्राप्त नहीं किया है। यह 6,000 वर्षों के प्रबधंन के कार्य का अंतिम परिणाम है, यह वही है जिसकी मानव-जाति सर्वाधिक अभिलाषा करती है, और यह मनुष्य के लिए परमेश्वर की प्रतिज्ञा भी है। किंतु यह प्रतिज्ञा तुरंत पूरी नहीं हो सकती : मनुष्य भविष्य की मंज़िल में केवल तभी प्रवेश करेगा, जब अंत के दिनों का कार्य पूरा कर लिया जाएगा और उस पर पूरी तरह से विजय पा ली जाएगी, अर्थात् जब शैतान को पूरी तरह से पराजित कर दिया जाएगा। शुद्ध कर दिए जाने के बाद मनुष्य पापपूर्ण स्वभाव से रहित हो जाएगा, क्योंकि परमेश्वर ने शैतान को पराजित कर दिया होगा, अर्थात् विरोधी ताक़तों द्वारा कोई अतिक्रमण नहीं होगा, और कोई विरोधी ताक़तें नहीं होंगी जो मनुष्य की देह पर आक्रमण कर सकें। और इसलिए मनुष्य स्वतंत्र और पवित्र होगा—वह शाश्वतता में प्रवेश कर चुका होगा। अंधकार की विरोधी ताकतों को बंधन में रखे जाने पर ही मनुष्य जहाँ कहीं जाएगा, वहाँ स्वतंत्र होगा, और इसलिए वह विद्रोहशीलता या विरोध से रहित होगा। बस शैतान को क़ैद में रखना है, और मनुष्य के साथ सब ठीक हो जाएगा; वर्तमान स्थिति इसलिए विद्यमान है, क्योंकि शैतान अभी भी पृथ्वी पर हर जगह परेशानियाँ खड़ी करता है, और क्योंकि परमेश्वर के प्रबधंन का संपूर्ण कार्य अभी तक समाप्ति पर नहीं पहुँचा है। एक बार जब शैतान को पराजित कर दिया जाएगा, तो मनुष्य पूरी तरह से मुक्त हो जाएगा; जब मनुष्य परमेश्वर को प्राप्त कर लेगा और शैतान के अधिकार-क्षेत्र से बाहर आ जाएगा, तो वह धार्मिकता के सूर्य को देखेगा। सामान्य मनुष्य के लिए उचित जीवन पुन: प्राप्त कर लिया जाएगा; वह सब, जो सामान्य मनुष्य के पास होना चाहिए—जैसे भले और बुरे में भेद करने की योग्यता, और इस बात की समझ कि किस प्रकार भोजन करना है और किस प्रकार कपड़े पहनने हैं, और सामान्य मानव-जीवन जीने की योग्यता—यह सब पुनः प्राप्त कर लिया जाएगा। यदि हव्वा को साँप द्वारा प्रलोभन न दिया गया होता, तब शुरुआत में मनुष्य के सृजन के बाद उसके पास ऐसा ही सामान्य जीवन होना चाहिए था। उसे पृथ्वी पर भोजन करना, कपड़े पहनना और सामान्य मानव-जीवन जीना चाहिए था। किंतु मनुष्य के भ्रष्ट हो जाने के बाद यह जीवन एक अप्राप्य भ्रम बन गया, यहाँ तक कि आज भी मनुष्य ऐसी चीज़ों की कल्पना करने का साहस नहीं करता। वास्तव में, यह सुंदर जीवन, जिसकी मनुष्य अभिलाषा करता है, एक आवश्यकता है : यदि मनुष्य ऐसी मंज़िल से रहित होता, तब पृथ्वी पर उसका भ्रष्ट जीवन कभी समाप्त न होता, और यदि ऐसा कोई सुंदर जीवन न होता, तो शैतान के भाग्य का या उस युग का कोई समापन न होता, जिसमें शैतान पृथ्वी पर सामर्थ्य रखता है। मनुष्य को ऐसे क्षेत्र में पहुँचना चाहिए, जो अंधकार की ताक़तों के लिए अगम्य हो, और जब मनुष्य वहाँ पहुँच जाएगा, तो यह प्रमाणित हो जाएगा कि शैतान को पराजित कर दिया गया है। इस तरह से, एक बार जब शैतान द्वारा कोई व्यवधान नहीं रहेगा, तो स्वयं परमेश्वर मानव-जाति को नियंत्रित करेगा, और वह मनुष्य के संपूर्ण जीवन को आदेशित और नियंत्रित करेगा; केवल तभी शैतान वास्तव में पराजित होगा। आज मनुष्य का जीवन अधिकांशत: गंदगी का जीवन है; वह अभी भी पीड़ा और संताप का जीवन है। इसे शैतान की पराजय नहीं कहा जा सकता; मनुष्य को अभी भी संताप के सागर से बचना है, अभी भी मानव-जीवन की कठिनाइयों से या शैतान के प्रभाव से बचना है, और उसे अभी भी परमेश्वर का बहुत कम ज्ञान है। मनुष्य की समस्त कठिनाई शैतान द्वारा उत्पन्न की गई थी, यह शैतान ही था जो मनुष्य के जीवन में पीड़ा लाया, और शैतान को बंधन में रखने के बाद ही मनुष्य संताप के सागर से पूरी तरह से बचने में सक्षम होगा। मनुष्य को वह लाभ बनाकर जो शैतान के साथ हुए युद्ध में जीत के फलस्वरूप मिलाहै, और मनुष्य के हृदय पर विजय पाकर और उसे प्राप्त करके शैतान को बंदी बनाया जाता है।

आज, विजेता बनने और पूर्ण बनाए जाने की मनुष्य की कोशिश ऐसी चीज़ें हैं, जिनकी खोज वह अपने पास पृथ्वी पर समान्य जीवन होने से पहले से कर रहा है, और ये ऐसे उद्देश्य हैं जिनकी तलाश वह शैतान को बंधन में डालने से पहले करता है। सार रूप में, विजेता बनने और पूर्ण बनाए जाने, या अपना भरपूर उपयोग किए जाने की मनुष्य की कोशिश शैतान के प्रभाव से बचने के लिए है : मनुष्य की कोशश विजेता बनने के लिए है, किंतु अंतिम परिणाम उसका शैतान के प्रभाव से बचना ही होगा। केवल शैतान के प्रभाव से बचने से ही मनुष्य पृथ्वी पर सामान्य मानव-जीवन, और परमेश्वर की आराधना करने वाला जीवन जी सकता है। आज, विजेता बनने और पूर्ण बनाए जाने की मनुष्य की कोशिश ऐसी चीज़ें हैं, जिनकी खोज पृथ्वी पर सामान्य जीवन पाने से पहले की जाती है। उनकी खोज मुख्य रूप से शुद्ध किए जाने और सत्य को अभ्यास में लाने, और सृजनकर्ता की आराधना करने के लिए की जाती है। यदि मनुष्य पृथ्वी पर सामान्य मानव-जीवन, ऐसा जीवन जो कठिनाई या संताप से रहित है, धारण करता है, तो वह विजेता बनने की कोशिश में संलग्न नहीं होगा। "विजेता बनना" और "पूर्ण बनाया जाना" ऐसे उद्देश्य हैं, जिन्हें परमेश्वर मनुष्य को खोज करने के लिए देता है, और इन उद्देश्यों की खोज के माध्यम से वह मनुष्य द्वारा सत्य को अभ्यास में लाने और एक अर्थपूर्ण जीवन व्यतीत करने का कारण बनता है। इसका उद्देश्य मनुष्य को पूर्ण बनाना और प्राप्त करना है, और विजेता बनने और पूर्ण बनाए जाने की कोशिश मात्र एक साधन है। यदि भविष्य में मनुष्य अद्भुत मंज़िल में प्रवेश करता है, तो वहाँ विजेता बनने और पूर्ण बनाए जाने का कोई संदर्भ नहीं होगा; वहाँ हर सृजित प्राणी केवल अपना कर्तव्य निभा रहा होगा। आज मनुष्य से इन चीज़ों की खोज केवल उसके लिए एक दायरा परिभाषित करने हेतु करवाई जाती है, ताकि मनुष्य की खोज अधिक लक्षित और अधिक व्यावहारिक हो सके। अन्यथा, मनुष्य अस्पष्ट अन्यमनस्कता के बीच रहता और शाश्वत जीवन में प्रवेश का अनुसरण करता, और यदि ऐसा होता, तो क्या मनुष्य और भी अधिक दयनीय न होता? इस तरह से लक्ष्यों या सिद्धांतों के बिना खोज करना—क्या यह आत्म-वंचना नहीं है? अंततः, यह खोज स्वाभाविक रूप से निष्फल होती; अंत में, मनुष्य अभी भी शैतान के अधिकार-क्षेत्र में जीवन बिताता और स्वयं को उससे छुड़ाने में अक्षम होता। स्वयं को ऐसी लक्ष्यहीन खोज के अधीन क्यों किया जाए? जब मनुष्य शाश्वत मंज़िल में प्रवेश करेगा, तो मनुष्य सृजनकर्ता की आराधना करेगा, और चूँकि मनुष्य ने उद्धार प्राप्त कर लिया है और शाश्वतता में प्रवेश कर लिया है, इसलिए मनुष्य किसी उद्देश्य की खोज नहीं करेगा, इसके अतिरिक्त, न ही उसे शैतान द्वारा घेरे जाने की चिंता करने की आवश्यकता होगी। इस समय मनुष्य अपने स्थान को जानेगा और अपना कर्तव्य निभाएगा, और भले ही लोगों को ताड़ना न दी जाए या उनका न्याय न किया जाए, फिर भी प्रत्येक व्यक्ति अपना कर्तव्य निभाएगा। उस समय मनुष्य पहचान और हैसियत दोनों से एक प्राणी होगा। तब ऊँच और नीच का भेद नहीं रहेगा; प्रत्येक व्यक्ति बस एक भिन्न कार्य करेगा। फिर भी मनुष्य एक मंज़िल में जीवन बिताएगा, जो मानव-जाति के लिए एक व्यवस्थित और उपयुक्त मंज़िल होगी; मनुष्य सृजनकर्ता की आराधना करने के वास्ते अपना कर्तव्य निभाएगा, और यही वह मानव-जाति होगी, जो शाश्वतता की मानव-जाति बनेगी। उस समय, मनुष्य ने परमेश्वर द्वारा रोशन किया गया जीवन प्राप्त कर लिया होगा, ऐसा जीवन जो परमेश्वर की देखरेख और संरक्षण के अधीन है, ऐसा जीवन जो परमेश्वर के साथ है। मानव-जाति पृथ्वी पर एक सामान्य जीवन जीएगी, और सभी लोग सही मार्ग में प्रवेश करेंगे। 6,000-वर्षीय प्रबंधन योजना ने शैतान को पूरी तरह से पराजित कर दिया होगा, अर्थात् परमेश्वर ने मनुष्य के सृजन के समय की उसकी मूल छवि पुनः प्राप्त कर ली होगी, और इस प्रकार, परमेश्वर का मूल इरादा पूरा हो गया होगा। शुरुआत में, शैतान द्वारा मानव-जाति को भ्रष्ट किए जाने से पहले, मानव-जाति पृथ्वी पर एक सामान्य जीवन जीती थी। बाद में, जब मनुष्य को शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया, तो मनुष्य ने इस सामान्य जीवन को गँवा दिया, और इसलिए, मनुष्य के सामान्य जीवन को पुनः प्राप्त करने के लिए परमेश्वर का प्रबधंन-कार्य और शैतान के साथ उसका युद्ध शुरू हुआ। जब परमेश्वर का 6,000-वर्षीय कार्य समाप्ति पर पहुँचेगा, केवल तभी पृथ्वी पर संपूर्ण मानव-जाति का जीवन आधिकारिक रूप से आरंभ होगा, केवल तभी मनुष्य के पास एक अद्भुत जीवन होगा, और परमेश्वर आरंभ में मनुष्य के सृजन के प्रयोजन को और साथ ही मनुष्य की मूल सदृशता को पुनः प्राप्त करेगा। और इसलिए, एक बार जब मनुष्य के पास पृथ्वी पर मानव-जाति का सामान्य जीवन होगा, तो मनुष्य विजेता बनने या पूर्ण बनाए जाने की कोशिश नहीं करेगा, क्योंकि मनुष्य पवित्र होगा। जिस "विजेता" और "पूर्ण बनाए जाने" के बारे में लोग बात करते हैं, वे ऐसे उद्देश्य हैं, जो मनुष्य को परमेश्वर और शैतान के बीच युद्ध के दौरान खोज करने के लिए दिए गए हैं, और वे केवल इसलिए अस्तित्व में हैं, क्योंकि मनुष्य को भ्रष्ट कर दिया गया है। ऐसा है कि तुम्हें एक उद्देश्य देने और तुमसे उस उद्देश्य के लिए प्रयास करवाने से शैतान पराजित हो जाएगा। तुमसे विजेता बनने या तुम्हें पूर्ण बनाए जाने या उपयोग किए जाने के लिए कहना यह आवश्यक बनाता है कि तुम शैतान को लज्जित करने के लिए गवाही दो। अंत में, मनुष्य पृथ्वी पर सामान्य मानव-जीवन जीएगा, और मनुष्य पवित्र होगा; जब ऐसा होगा, तो क्या लोग फिर भी विजेता बनना चाहेंगे? क्या वे सभी सृष्टि के प्राणी नहीं हैं? विजेता बनने और पूर्ण होने की बात करें, तो ये वचन शैतान की ओर, और मनुष्य की मलिनता की ओर निर्देशित हैं। क्या यह "विजेता" शब्द शैतान पर और विरोधी ताक़तों पर विजय के संदर्भ में नहीं है? जब तुम कहते हो कि तुम्हें पूर्ण बना दिया गया है, तो तुम्हारे भीतर क्या पूर्ण बनाया गया है? क्या ऐसा नहीं है कि तुमने स्वयं को अपने भ्रष्ट शैतानी स्वभाव से अलग कर लिया है, ताकि तुम परमेश्वर के लिए सर्वोच्च प्रेम प्राप्त कर सको? ऐसी बातें मनुष्य के भीतर की गंदी चीज़ों के संबंध में, और शैतान के संबंध में कही जाती हैं; उन्हें परमेश्वर के संबंध में नहीं कहा जाता।

यदि तुम अब विजेता बनने और पूर्ण बनाए जाने की कोशिश नहीं करते, तो भविष्य में जब पृथ्वी पर मानव-जाति एक सामान्य जीवन व्यतीत करेगी, तो ऐसी कोशिश के लिए कोई अवसर नहीं होगा। उस समय हर प्रकार के व्यक्ति का अंत प्रकट कर दिया गया होगा। उस समय यह स्पष्ट हो जाएगा कि तुम किस प्रकार की चीज़ हो, और यदि तुम विजेता होने की इच्छा करते हो या पूर्ण बनाए जाने की इच्छा करते हो, तो यह असंभव होगा। केवल इतना ही होगा कि उजागर किए जाने के बाद मनुष्य को उसकी विद्रोहशीलता के कारण दंड दिया जाएगा। उस समय कुछ लोगों के लिए विजेता बनने और दूसरों के लिए पूर्ण बनाए जाने हेतु, या कुछ लोगों के लिए परमेश्वर का ज्येष्ठ पुत्र बनने और दूसरों के लिए परमेश्वर के पुत्र बनने हेतु, मनुष्य की खोज दूसरों की अपेक्षा ऊँचे दर्जे की नहीं होगी; वे इन चीज़ों की खोज नहीं करेंगे। सभी परमेश्वर के प्राणी होंगे, सभी पृथ्वी पर जीवन बिताएँगे, और सभी पृथ्वी पर परमेश्वर के साथ मिलकर जीवन जीएँगे। अभी परमेश्वर और शैतान के बीच युद्ध का समय है, यह ऐसा समय है जिसमें यह युद्ध अभी समाप्त नहीं हुआ है, ऐसा समय जिसमें मनुष्य को अभी तक पूरी तरह से प्राप्त नहीं किया गया है; यह संक्रमण की अवधि है। और इसलिए, मनुष्य से अपेक्षा की जाती है कि वह या तो एक विजेता या परमेश्वर के लोगों में से एक बनने की कोशिश करे। आज हैसियत में भिन्नताएँ हैं, किंतु जब समय आएगा तब ऐसी कोई भिन्नताएँ नहीं होंगी : उन सभी लोगों की हैसियत एक जैसी होगी जो विजयी हुए हैं, वे मानव-जाति के योग्य सदस्य होंगे, और पृथ्वी पर समानता से जीवन बिताएँगे, जिसका अर्थ है कि वे सभी योग्य सृजित प्राणी होंगे, और सभी को एक जैसा प्रदान किया जाएगा। चूँकि परमेश्वर के कार्य के युग भिन्न-भिन्न हैं, और उसके कार्य के उद्देश्य भी भिन्न-भिन्न हैं, इसलिए यदि यह कार्य तुम लोगों में किया जाता है, तो तुम लोग पूर्ण बनाए जाने और विजेता बनने के पात्र हो; यदि इसे विदेश में किया जाता, तो वे जीते जाने वाले लोगों का पहला समूह बनने, और पूर्ण बनाए जाने वाले लोगों का पहला समूह बनने के पात्र होते। आज इस कार्य को विदेश में नहीं किया जाता, इसलिए दूसरे देशों के लोग पूर्ण बनाए जाने और विजेता बनने के पात्र नहीं हैं, और पहला समूह बनना उनके लिए असंभव है। चूँकि परमेश्वर के कार्य का उद्देश्य भिन्न है, परमेश्वर के कार्य का युग भिन्न है, और इसका दायरा भिन्न है, इसलिए यहाँ पहला समूह है, अर्थात् यहाँ विजेता हैं, और इसलिए एक दूसरा समूह भी होगा, जिसे पूर्ण बनाया जाएगा। एक बार जब पहले समूह को पूर्ण बनाया जा चुका होगा, तो यह एक नमूना और आदर्श होगा, और इसलिए भविष्य में पूर्ण किए जाने वालों का एक दूसरा और तीसरा समूह होगा, किंतु शाश्वतता में वे सभी एक-समान होंगे, और हैसियत का कोई वर्गीकरण नहीं होगा। उन्हें बस विभिन्न समयों में पूर्ण बनाया गया होगा, और उनकी हैसियत में कोई अंतर नहीं होंगे। जब वह समय आएगा कि प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण बना लिया जाएगा और संपूर्ण विश्व का कार्य समाप्त कर लिया जाएगा, तो हैसियत में कोई भिन्नताएँ नहीं होंगी, और सभी समान हैसियत के होंगे। आज इस कार्य को तुम लोगों के बीच किया जाता है, ताकि तुम लोग विजेता बन जाओ। यदि इसे ब्रिटेन में किया जाता, तो ब्रिटेन में पहला समूह होता, उसी तरह से जैसे तुम पहले समूह होगे। आज जिस प्रकार तुम लोगों में कार्य किया जा रहा है, उसमें तुम अनुग्रह द्वारा विशेष रूप से धन्य हो, और यदि यह कार्य तुम लोगों पर न किया गया होता, तो तुम लोग भी दूसरा समूह, या तीसरा, या चौथा, या पाँचवाँ समूह होते। यह केवल कार्य के क्रम में भिन्नता की वजह से है; पहला समूह और दूसरा समूह यह सूचित नहीं करता कि एक दूसरे से ऊँचा या नीचा है, यह केवल उस क्रम को सूचित करता है जिसमें इन लोगों को पूर्ण बनाया जाता है। आज ये वचन तुम लोगों को संप्रेषित किए जा रहे हैं, किंतु तुम लोगों को पहले सूचित क्यों नहीं किया गया? क्योंकि, किसी प्रक्रिया के बिना लोगों में चरम स्थितियों तक जाने की प्रवृत्ति होती है। उदाहरण के लिए, यीशु ने अपने समय में कहा था : "जैसे मैं गया था, वैसे ही आऊँगा।" आज, बहुत-से लोग इन शब्दों से मोहित हैं, और वे केवल सफेद पोशाक पहनना चाहते हैं और अपने स्वर्गारोहण का इंतजार करते हैं। इसलिए, ऐसे बहुत-से वचन हैं, जिन्हें बहुत पहले नहीं बोला जा सकता; यदि उन्हें बहुत पहले बोल दिया जाए, तो मनुष्य चरम स्थितियों तक जाने में प्रवृत्त हो जाएगा। मनुष्य की कद-काठी बहुत छोटी है, और वह इन वचनों की सच्चाई देखने में असमर्थ है।

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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