परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें

भाग दो

परमेश्वर के मार्ग पर चलो : परमेश्वर का भय मानो और बुराई से दूर रहो

एक कहावत है जिस पर तुम लोगों को ध्यान देना चाहिए। मेरा मानना है कि यह कहावत अत्यधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह मेरे मन में हर दिन अनेक बार आती है। ऐसा क्यों है? इसलिए क्योंकि जब भी किसी से मेरा सामना होता है, जब भी किसी की कहानी सुनता हूँ, मैं जब भी किसी के अनुभव या परमेश्वर में विश्वास करने की उसकी गवाही सुनता हूँ, तो मैं अपने मन में इस बात का निर्णय करने के लिए कि यह व्यक्ति उस प्रकार का व्यक्ति है या नहीं जिसे परमेश्वर चाहता है, या जिसे परमेश्वर पसंद करता है, मैं इस कहावत का उपयोग करता हूँ। तो, वह कहावत क्या है? तुम सभी लोग पूरी उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे हो। जब मैं वो कहावत तुम्हें बताऊँगा, तो शायद तुम्हें निराशा हो, क्योंकि कुछ ऐसे लोग भी हैं जो इससे वर्षों से दिखावटी प्रेम दिखाते आ रहे हैं। किन्तु जहाँ तक मेरी बात है, मैंने इससे कभी भी दिखावटी प्रेम नहीं किया। यह कहावत मेरे दिल में बसी हुई है। तो वह कहावत क्या है? वो है: "परमेश्वर के मार्ग में चलो : परमेश्वर का भय मानो और बुराई से दूर रहो।" क्या यह बहुत ही सरल वाक्यांश नहीं है? हालाँकि यह कहावत सरल हो सकती है, तब भी कोई व्यक्ति जिसमें असल में इसकी गहरी समझ है, वह महसूस करेगा कि इसका बड़ा महत्व है, अभ्यास में इसका बड़ा मूल्य है; यह जीवन की भाषा से एक पंक्ति है जिसमें सत्य-वास्तविकता निहित है, जो लोग परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहते हैं, यह उनके लिए जीवन भर का लक्ष्य है, यह ऐसे व्यक्ति के लिए अनुसरण करने योग्य जीवन भर का मार्ग है जो परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील है। तो तुम लोग क्या सोचते हो : क्या यह कहावत सत्य नहीं है? इसकी ऐसी महत्ता है या नहीं? शायद कुछ लोग इस कहावत पर विचार करके, इसे समझने का प्रयास भी कर रहे हों, और शायद कुछ ऐसे हों जो इसके बारे में शंका रखते हों : क्या यह कहावत बहुत महत्वपूर्ण है? क्या यह बहुत महत्वपूर्ण है? क्या इस पर इतना ज़ोर देना ज़रूरी है? शायद कुछ ऐसे लोग भी हों जो इस कहावत को अधिक पसंद न करते हों, क्योंकि उन्हें लगता है कि परमेश्वर के मार्ग पर चलना और उसे एक कहावत में सारभूत करना इसका अत्यधिक सरलीकरण है। जो कुछ परमेश्वर ने कहा, उसे लेकर एक छोटी-सी कहावत में पिरो देना—क्या ऐसा करना परमेश्वर को एकदम महत्वहीन बना देना नहीं है? क्या यह ऐसा ही है? ऐसा हो सकता है कि तुम लोगों में से अधिकांश इन वचनों के पीछे के गहन अर्थ को पूरी तरह से न समझते हों। यद्यपि तुम लोगों ने इसे लिख लिया है, फिर भी तुम सब इस कहावत को अपने हृदय में स्थान देने का कोई इरादा नहीं रखते; तुमने इसे बस अपनी पुस्तिका में लिख लिया है ताकि अपने खाली समय में इसे फिर से पढ़कर इस पर विचार कर सको। कुछ तो इस कहावत को याद रखने की भी परवाह नहीं करेंगे, इसे अच्छे उपयोग में लाने का प्रयास करने की तो बात छोड़ ही दो। परन्तु मैं इस कहावत पर चर्चा क्यों करना चाहता हूँ? तुम लोगों का दृष्टिकोण या तुम लोग क्या सोचोगे, इसकी परवाह किए बिना, मुझे इस कहावत पर चर्चा करनी ही थी क्योंकि यह इस बात को लेकर अत्यंत प्रासंगिक है कि किस प्रकार परमेश्वर मनुष्य के परिणामों को निर्धारित करता है। इस कहावत के बारे में तुम लोगों की वर्तमान समझ चाहे कुछ भी क्यों न हो, या तुम इससे कैसे भी पेश क्यों न आओ, मैं तब भी तुम लोगों को यह बताऊँगा : यदि लोग इस कहावत के शब्दों को अभ्यास में ला सकें, उनका अनुभव कर सकें, और परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मानक को प्राप्त कर सकें, तो वे लोग जीवित बचे रहेंगे और यकीनन उनके परिणाम अच्छे होंगे। यदि तुम इस कहावत के द्वारा तय मानक को पूरा न कर पाओ, तो ऐसा कहा जा सकता है कि तुम्हारा परिणाम अज्ञात है। इस प्रकार मैं तुम्हारी मानसिक तैयारी के लिए तुम्हें कहावत बता रहा हूँ, ताकि तुम लोग जान लो कि तुम्हें मापने के लिए परमेश्वर किस प्रकार के मानक का उपयोग करता है। जैसे कि मैंने अभी-अभी चर्चा की है, यह कहावत मनुष्य के बारे में परमेश्वर द्वारा इंसान के उद्धार के, और वह किस प्रकार इंसान के परिणाम को निर्धारित करता है, उससे पूरी तरह से प्रासंगिक है। यह किस तरह से प्रासंगिक है? तुम लोग सचमुच जानना चाहोगे, इसलिए आज हम इस बारे में बात करेंगे।

परमेश्वर विभिन्न परीक्षणों से जाँच करता है कि लोग परमेश्वर का भय मानते और बुराई से दूर रहते हैं या नहीं

हर युग में, जब परमेश्वर संसार में कार्य करता है तब वह मनुष्य को कुछ वचन प्रदान करता है, और उन्हें कुछ सत्य बताता है। ये सत्य ऐसे मार्ग के रूप में कार्य करते हैं जिसके मुताबिक मनुष्य को चलना चाहिए, जिस पर मनुष्य को चलना चाहिए, ऐसा मार्ग जो मनुष्य को परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम बनाता है, ऐसा मार्ग जिसे मनुष्य को अभ्यास में लाना चाहिए और अपने जीवन में और अपनी जीवन यात्राओं के दौरान उसके मुताबिक चलना चाहिए। इन्हीं कारणों से परमेश्वर इन वचनों को मनुष्य को प्रदान करता है। ये वचन जो परमेश्वर से आते हैं उनके मुताबिक ही मनुष्य को चलना चाहिए, और उनके मुताबिक चलना ही जीवन पाना है। यदि कोई व्यक्ति उनके मुताबिक नहीं चलता, उन्हें अभ्यास में नहीं लाता, और अपने जीवन में परमेश्वर के वचनों को नहीं जीता, तो वह व्यक्ति सत्य को अभ्यास में नहीं ला रहा है। यदि लोग सत्य को अभ्यास में नहीं ला रहे हैं, तो वे परमेश्वर का भय नहीं मान रहे हैं और बुराई से दूर नहीं रह रहे हैं, और न ही वे परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हैं। यदि कोई परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर पाता, तो वह परमेश्वर की प्रशंसा प्राप्त नहीं कर सकता, ऐसे लोगों का कोई परिणाम नहीं होता। तब परमेश्वर अपने कार्य के दौरान, किस प्रकार किसी व्यक्ति के परिणाम को निर्धारित करता है? मनुष्य के परिणाम को निर्धारित करने के लिए परमेश्वर किस पद्धति का उपयोग करता है। शायद इस वक्त भी तुम लोग इस बारे में अस्पष्ट हो, परन्तु जब मैं तुम लोगों को प्रक्रिया बताऊँगा, तो यह बिलकुल स्पष्ट हो जाएगा, क्योंकि तुममें से बहुत से लोगों ने पहले ही इसका अनुभव कर लिया है।

परमेश्वर के कार्य के दौरान, आरंभ से लेकर अब तक, परमेश्वर ने प्रत्येक व्यक्ति के लिए—या तुम लोग कह सकते हो, उस प्रत्येक व्यक्ति के लिए जो उसका अनुसरण करता है—परीक्षाएँ निर्धारित कर रखी हैं और ये परीक्षाएँ भिन्न-भिन्न आकारों में होती हैं। कुछ लोग ऐसे हैं जिन्होंने अपने परिवार के द्वारा ठुकराए जाने की परीक्षा का अनुभव किया है; कुछ ने विपरीत परिवेश की परीक्षा का अनुभव किया है; कुछ लोगों ने गिरफ्तार किए जाने और यातना दिए जाने की परीक्षा का अनुभव किया है; कुछ लोगों ने विकल्प का सामना करने की परीक्षा का अनुभव किया है; और कुछ लोगों ने धन एवं हैसियत की परीक्षाओं का सामना करने का अनुभव किया है। सामान्य रूप से कहें, तो तुम लोगों में से प्रत्येक ने सभी प्रकार की परीक्षाओं का सामना किया है। परमेश्वर इस प्रकार से कार्य क्यों करता है? परमेश्वर हर किसी के साथ ऐसा व्यवहार क्यों करता है? वह किस प्रकार के परिणाम देखना चाहता है? जो कुछ मैं तुम लोगों से कहना चाहता हूँ उसका महत्वपूर्ण बिंदु यह है : परमेश्वर देखना चाहता है कि यह व्यक्ति उस प्रकार का है या नहीं जो परमेश्वर का भय मानता है और बुराई से दूर रहता है। इसका अर्थ यह है कि जब परमेश्वर तुम्हारी परीक्षा ले रहा होता है, तुम्हें किसी परिस्थिति का सामना करने पर मजबूर कर रहा होता है, तो वह यह जाँचना चाहता है कि तुम ऐसे व्यक्ति हो या नहीं जो उसका भय मानता और बुराई से दूर रहता है। यदि किसी व्यक्ति को किसी भेंट को सुरक्षित रखने का काम दिया गया है, और वह अपने कर्तव्य के कारण परमेश्वर की भेंट के संपर्क में आता है, तो क्या तुम्हें लगता है कि यह ऐसा काम है जिसकी व्यवस्था परमेश्वर ने की है? इसमें कोई शक ही नहीं है! हर चीज़ जो तुम्हारे सामने आती है, उसकी व्यवस्था परमेश्वर ने की होती है। जब तुम्हारा सामना ऐसे मामले से होगा, तो परमेश्वर गुप्त रूप से तुम्हारा अवलोकन करेगा, देखेगा कि तुम क्या चुनाव करते हो, कैसे अभ्यास करते हो, तुम्हारे विचार क्या हैं। परमेश्वर को सबसे अधिक चिंता अंतिम परिणाम की होती है, चूँकि इसी परिणाम से वह मापेगा कि इस परीक्षा-विशेष में तुमने परमेश्वर के मानक को हासिल किया है या नहीं। हालाँकि, जब लोगों का सामना किसी मसले से होता है, तो वे प्रायः इस बारे में नहीं सोचते कि उनका सामना इससे क्यों हो रहा है, परमेश्वर को उनसे किस मानक पर खरा उतरने की अपेक्षा है, वह उनमें क्या देखना चाहता है, या उनसे क्या प्राप्त करना चाहता है। ऐसे मामले से सामना होने पर, इस प्रकार का व्यक्ति केवल यह सोच रहा होता है: "मैं इस चीज़ का सामना कर रहा हूँ; मुझे सावधान रहना चाहिए, लापरवाह नहीं! चाहे कुछ भी हो, यह परमेश्वर की भेंट है और मैं इसे छू नहीं सकता हूँ।" ऐसे सरल विचार रखकर वे सोचते हैं कि उन्होंने अपना उत्तरदायित्व पूरा कर लिया। परमेश्वर इस परीक्षा के परिणाम से संतुष्ट होगा या नहीं? तुम लोग इस पर चर्चा करो। (यदि कोई अपने हृदय में परमेश्वर का भय मानता है, तो जब उस कर्तव्य से सामना होता है जिसमें वह परमेश्वर को अर्पित की गई भेंट के संपर्क में आता है, तो वह विचार करेगा कि परमेश्वर के स्वभाव को अपमानित करना कितना आसान होगा, अतः वह सावधानी से कार्य करेगा।) तुम्हारा उत्तर सही दिशा में है, परन्तु यह अभी सटीक नहीं है। परमेश्वर के मार्ग पर चलना सतही तौर पर नियमों का पालन करना नहीं है; बल्कि, इसका अर्थ है कि जब तुम्हारा सामना किसी मामले से होता है, तो सबसे पहले, तुम इसे एक ऐसी परिस्थिति के रूप में देखते हो जिसकी व्यवस्था परमेश्वर के द्वारा की गई है, ऐसे उत्तरदायित्व के रूप में देखते हो जिसे उसके द्वारा तुम्हें प्रदान किया गया है, या किसी ऐसे कार्य के रूप में देखते हो जो उसने तुम्हें सौंपा है। जब तुम इस मामले का सामना कर रहे होते हो, तो तुम्हें इसे परमेश्वर से आयी किसी परीक्षा के रूप में भी देखना चाहिए। इस मामले का सामना करते समय, तुम्हारे पास एक मानक अवश्य होना चाहिए, तुम्हें सोचना चाहिए कि यह परमेश्वर की ओर से आया है। तुम्हें इस बारे में सोचना चाहिए कि कैसे इस मामले से इस तरह से निपटा जाए कि तुम अपने उत्तरदायित्व को पूरा कर सको, और परमेश्वर के प्रति वफ़ादार भी रह सको, इसे कैसे किया जाए कि परमेश्वर क्रोधित न हो, या उसके स्वभाव का अपमान न हो। हमने अभी-अभी भेंटों की सुरक्षा के बारे में बात की। इस मामले में भेंटें शामिल हैं, और इसमें तुम्हारा कर्तव्य, एवं तुम्हारा उत्तरदायित्व भी शामिल है। तुम इस उत्तरदायित्व के प्रति कर्तव्य से बँधे हुए हो। फिर भी जब तुम्हारा सामना इस मामले से होता है, तो क्या कोई प्रलोभन है? हाँ, है! यह प्रलोभन कहाँ से आता है? यह प्रलोभन शैतान की ओर से आता है, और यह मनुष्य की दुष्टता और उसके भ्रष्ट स्वभाव से भी आता है। चूँकि यहाँ प्रलोभन है, इसमें गवाही देने वाली बात आती है, जो लोगों को देनी चाहिए, जो तुम्हारा उत्तरदायित्व एवं कर्तव्य भी है। कुछ लोग कहते हैं, "यह तो कितना छोटा-सा मसला है; क्या वास्तव में इस बात का बतंगड़ बनाना ज़रूरी है?" हाँ, यह ज़रूरी है! क्योंकि परमेश्वर के मार्ग पर चलने के लिए, हम किसी भी ऐसी चीज़ को जाने नहीं दे सकते जिसका हमसे लेना-देना है, या जो हमारे आसपास घटती है, यहाँ तक कि छोटी से छोटी चीज़ भी; हमें यह मसला ध्यान देने योग्य लगे या न लगे, अगर उससे हमारा सामना हो रहा है तो हमें उसे जाने नहीं देना चाहिए। इस सबको हमारे लिए परमेश्वर की परीक्षा के रूप में देखा जाना चाहिए। चीज़ों को इस ढंग से देखने की प्रवृत्ति कैसी है? यदि तुम्हारी प्रवृत्ति इस प्रकार की है, तो यह एक तथ्य की पुष्टि करती है : तुम्हारा हृदय परमेश्वर का भय मानता है, और बुराई से दूर रहने के लिए तैयार है। यदि परमेश्वर को संतुष्ट करने की तुम्हारी ऐसी इच्छा है, तो जिसे तुम अभ्यास में लाते हो वह परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मानक से दूर नहीं है।

प्रायः ऐसे लोग होते हैं जो मानते हैं कि ऐसे मामले जिन पर लोगों के द्वारा अधिक ध्यान नहीं दिया जाता, और जिनका सामान्यतः उल्लेख नहीं किया जाता, वो महज छोटी-मोटी निरर्थक बातें होती हैं, और उनका सत्य को अभ्यास में लाने से कोई लेना-देना नहीं है। जब इन लोगों के सामने ऐसे मामले आते हैं, तो वे उस पर अधिक विचार नहीं करते और उसे जाने देते हैं। परन्तु वास्तव में, यह मामला एक सबक है जिसका तुम्हें अध्ययन करना चाहिए, यह एक सबक कि किस प्रकार परमेश्वर का भय मानना है, और किस प्रकार बुराई से दूर रहना है। इसके अतिरिक्त, जिस बारे में तुम्हें और भी अधिक चिंता करनी चाहिए वह यह जानना है कि जब यह मामला तुम्हारे सामने आता है तो परमेश्वर क्या कर रहा है। परमेश्वर ठीक तुम्हारी बगल में है, तुम्हारे प्रत्येक शब्द और कर्म का अवलोकन कर रहा है, तुम्हारे क्रियाकलापों, तुम्हारे मन में हुए परिवर्तनों का अवलोकन कर रहा है—यह परमेश्वर का कार्य है। कुछ लोग पूछते हैं, "अगर ये सच है, तो मुझे यह महसूस क्यों नहीं होता है?" तुमने इसका एहसास नहीं किया है क्योंकि तुम परमेश्वर के भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग को अपना प्राथमिक मार्ग मानकर इसके मुताबिक नही चले हो; इसलिए, तुम मनुष्य में परमेश्वर के सूक्ष्म कार्य को महसूस नहीं कर पाते, जो लोगों के भिन्न-भिन्न विचारों और भिन्न-भिन्न कार्यकलापों के अनुसार स्वयं को अभिव्यक्त करता है। तुम एक चंचलचित्त वाले व्यक्ति हो। बड़ा मामला क्या है? छोटा मामला क्या है? उन सभी मामलों को बड़े और छोटे मामलों में विभाजित नहीं किया जाता जिसमें परमेश्वर के मार्ग पर चलना शामिल है, पर क्या तुम लोग उसे स्वीकार कर सकते हो? (हम इसे स्वीकार कर सकते हैं।) प्रतिदिन के मामलों के संबंध में, कुछ मामले ऐसे होते हैं जिन्हें लोग बहुत बड़े और महत्वपूर्ण मामले के रूप में देखते हैं, और अन्य मामलों को छोटे-मोटे निरर्थक मामलों के रूप में देखा जाता है। लोग प्रायः इन बड़े मामलों को अत्यंत महत्वपूर्ण मामलों के रूप में देखते हैं, और वे उन्हें परमेश्वर के द्वारा भेजा गया मानते हैं। हालाँकि, इन बड़े मामलों के चलते रहने के दौरान, अपने अपरिपक्व आध्यात्मिक कद के कारण, और अपनी कम क्षमता के कारण, मनुष्य प्रायः परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने योग्य नहीं होता, कोई प्रकाशन प्राप्त नहीं कर पाता, और ऐसा कोई वास्तविक ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाता जो किसी मूल्य का हो। जहाँ तक छोटे-छोटे मामलों की बात है, लोगों द्वारा इनकी अनदेखी की जाती है, और थोड़ा-थोड़ा करके हाथ से फिसलने के लिए छोड़ दिया जाता है। इस प्रकार, लोगों ने परमेश्वर के सामने जाँचे जाने, और उसके द्वारा परीक्षण किए जाने के अनेक अवसरों को गँवा दिया है। यदि तुम हमेशा लोगों, चीज़ों, मामलों और परिस्थितियों को अनदेखा कर देते हो जिनकी व्यवस्था परमेश्वर तुम्हारे लिए करता है, तो इसका क्या अर्थ होगा? इसका अर्थ है कि हर दिन, यहाँ तक कि हर क्षण, तुम अपने बारे में परमेश्वर की पूर्णता का और परमेश्वर की अगुवाई का परित्याग कर रहे हो। जब कभी परमेश्वर तुम्हारे लिए किसी परिस्थिति की व्यवस्था करता है, तो वह गुप्त रीति से देख रहा होता है, तुम्हारे हृदय को देख रहा होता है, तुम्हारी सोच और विचारों को देख रहा होता है, देख रहा होता है कि तुम किस प्रकार सोचते हो, किस प्रकार कार्य करोगे। यदि तुम एक लापरवाह व्यक्ति हो—ऐसे व्यक्ति जो परमेश्वर के मार्ग, परमेश्वर के वचन, या जो सत्य के बारे में कभी भी गंभीर नहीं रहा है—तो तुम उसके प्रति सचेत नहीं रहोगे, उस पर ध्यान नहीं दोगे जिसे परमेश्वर पूरा करना चाहता है, न उन अपेक्षाओं पर ध्यान दोगे जिन्हें वो तुमसे तब पूरा करवाना चाहता था जब उसने तुम्हारे लिए परिस्थितियों की व्यवस्था की थी। तुम यह भी नहीं जानोगे कि लोग, चीज़ें, और मामले जिनका तुम लोग सामना करते हो वे किस प्रकार सत्य से या परमेश्वर के इरादों से संबंध रखते हैं। तुम्हारे इस प्रकार बार-बार परिस्थितियों और परीक्षणों का सामना करने के पश्चात्, जब परमेश्वर तुममें कोई परिणाम नहीं देखता, तो परमेश्वर कैसे आगे बढ़ेगा? बार-बार परीक्षणों का सामना करके, तुमने अपने हृदय में परमेश्वर को महिमान्वित नहीं किया है, न ही तुमने उन परिस्थितियों का अर्थ समझा है जिनकी व्यवस्था परमेश्वर ने तुम्हारे लिए की है—परमेश्वर के परीक्षण और परीक्षाएँ। इसके बजाय, तुमने एक के बाद एक उन अवसरों को अस्वीकार कर दिया जो परमेश्वर ने तुम्हें प्रदान किए, तुमने बार-बार उन्हें हाथ से जाने दिया। क्या यह मनुष्य के द्वारा बहुत बड़ी अवज्ञा नहीं है? (हाँ, है।) क्या इसकी वजह से परमेश्वर दुखी होगा? (वह दुखी होगा।) परमेश्वर दुखी नहीं होगा! मुझे इस प्रकार कहते हुए सुनकर तुम लोगों को एक बार फिर झटका लगा है। तुम सोच रहे होगे : "क्या ऐसा पहले नहीं कहा गया था कि परमेश्वर हमेशा दुखी होता है? इसलिए क्या परमेश्वर दुखी नहीं होगा? तो परमेश्वर दुखी कब होता है?" संक्षेप में, परमेश्वर इस स्थिति से दुखी नहीं होगा। तो उस प्रकार के व्यवहार के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति क्या होती है जिसके बारे में ऊपर बताया गया है? जब लोग परमेश्वर द्वारा भेजे गए परीक्षणों, परीक्षाओं को अस्वीकार करते हैं, जब वे उनसे बच कर भागते हैं, तो इन लोगों के प्रति परमेश्वर की केवल एक ही प्रवृत्ति होती है। यह प्रवृत्ति क्या है? परमेश्वर इस प्रकार के व्यक्ति को अपने हृदय की गहराई से ठुकरा देता है। यहाँ "ठुकराने" शब्द के दो अर्थ हैं। मैं उन्हें अपने दृष्टिकोण से किस प्रकार समझाऊँ? गहराई में, यह शब्द घृणा का, नफ़रत का संकेतार्थ लिए हुए है। दूसरा अर्थ क्या? दूसरे भाग का तात्पर्य है किसी चीज़ को त्याग देना। तुम लोग जानते हो कि "त्याग देने" का क्या अर्थ है, ठीक है न? संक्षेप में, ठुकराने का अर्थ है ऐसे लोगों के प्रति परमेश्वर की अंतिम प्रतिक्रिया और प्रवृत्ति जो इस तरह से व्यवहार कर रहे हैं; यह उनके प्रति भयंकर घृणा है, और चिढ़ है, इसलिए उनका परित्याग करने का निर्णय लिया जाता है। यह ऐसे व्यक्ति के प्रति परमेश्वर का अंतिम निर्णय है जो परमेश्वर के मार्ग पर कभी नहीं चला है, जिसने कभी भी परमेश्वर का भय नहीं माना है और जो कभी भी बुराई से दूर नहीं रहा है। क्या अब तुम लोग इस कहावत के महत्व को समझ गए जो मैंने कही थी?

क्या अब वह तरीका तुम्हारी समझ में आ गया है जिसे परमेश्वर मनुष्य का परिणाम निर्धारित करने के लिए उपयोग करता है? (वह हर दिन भिन्न-भिन्न परिस्थितियों की व्यवस्था करता है।) "वह भिन्न-भिन्न परिस्थितियों की व्यवस्था करता है"—ये वो चीज़ें हैं जिन्हें लोग महसूस और स्पर्श कर सकते हैं। तो ऐसा करने के पीछे परमेश्वर की मंशा क्या है? मंशा यह है कि परमेश्वर हर एक व्यक्ति की भिन्न-भिन्न तरीकों से, भिन्न-भिन्न समय पर, और भिन्न-भिन्न स्थानों पर परीक्षाएँ लेना चाहता है। किसी परीक्षा में मनुष्य के किन पहलुओं को जाँचा जाता है? परीक्षण यह तय करता है कि क्या तुम हर उस मामले में परमेश्वर का भय मानते हो और बुराई से दूर रहते हो जिसका तुम सामना करते हो, जिसके बारे में तुम सुनते हो, जिसे तुम देखते हो, और जिसका तुम व्यक्तिगत रूप से अनुभव करते हो। हर कोई इस प्रकार के परीक्षण का सामना करेगा, क्योंकि परमेश्वर सभी लोगों के प्रति निष्पक्ष है। तुममें से कुछ लोग कहते हैं, "मैंने बहुत वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास किया है; ऐसा कैसे है कि मैंने किसी परीक्षण का सामना नहीं किया?" तुम्हें लगता है कि तुमने किसी परीक्षण का सामना नहीं किया है क्योंकि जब भी परमेश्वर ने तुम्हारे लिए परिस्थितियों की व्यवस्था की, तुमने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया, और परमेश्वर के मार्ग पर चलना नहीं चाहा। इसलिए तुम्हें परमेश्वर के परीक्षण का कोई बोध ही नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, "मैंने कुछ परीक्षणों का सामना तो किया है, किन्तु मैं अभ्यास करने के उचित तरीके को नहीं जानता। जब मैंने अभ्यास किया तो भी मुझे पता नहीं कि मैं परीक्षण के दौरान डटा रहा था या नहीं।" इस प्रकार की अवस्था वाले लोगों की संख्या भी कम नहीं है। तो फिर वह कौन-सा मानक है जिससे परमेश्वर लोगों को मापता है? मानक वही है जो मैंने कुछ देर पहले कहा था : जो कुछ भी तुम करते हो, सोचते हो, व्यक्त करते हो, उसमें तुम परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहते हो या नहीं। इसी प्रकार से यह निर्धारित होता है कि तुम ऐसे व्यक्ति हो या नहीं जो परमेश्वर का भय मानता है और बुराई से दूर रहता है। यह अवधारणा सरल है या नहीं? इसे कहना तो आसान है, किन्तु क्या इसे अभ्यास में लाना आसान है? (यह इतना आसान नहीं है।) यह इतना आसान क्यों नहीं है? (क्योंकि लोग परमेश्वर को नहीं जानते, नहीं जानते कि परमेश्वर किस प्रकार मनुष्य को पूर्ण बनाता है, इसलिए जब उनका सामना समस्याओं से होता है तो वे नहीं जानते कि समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य की खोज कैसे करें। परमेश्वर का भय मानने की वास्तविकता को अंगीकृत करने से पहले, लोगों को भिन्न-भिन्न परीक्षणों, शुद्धिकरणों, ताड़नाओं, और न्यायों से होकर गुज़रना पड़ता है।) तुम इसे उस ढंग से कह सकते हो, परन्तु जहाँ तक तुम लोगों का संबंध है, परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना इस वक्त आसानी से करने योग्य प्रतीत होता है। मैं क्यों ऐसा कहता हूँ? क्योंकि तुम लोगों ने बहुत से धर्मोपदेशों को सुना है, और सत्य-वास्तविकता की सिंचाई को अच्छी मात्रा में प्राप्त किया है; इससे तुम लोग यह समझ गए हो कि किस प्रकार सिद्धान्त और सोच के संबंध में परमेश्वर का भय मानना है और बुराई से दूर रहना है। परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के तुम लोगों के अभ्यास के संबंध में, यह सब सहायक रहा है और इसने तुम लोगों को महसूस करवाया है कि इसे आसानी से प्राप्त किया जा सकता है। तब क्यों लोग वास्तव में इसे कभी प्राप्त नहीं कर पाते? क्योंकि मनुष्य का स्वभाव-सार परमेश्वर का भय नहीं मानता, और बुराई को पसंद करता है। यही वास्तविक कारण है।

परमेश्वर का भय न मानना और बुराई से दूर न रहना परमेश्वर का विरोध करना है

चलो मैं शुरुआत इस सवाल से करता हूँ कि यह कहावत "परमेश्वर का भय मानें और बुराई से दूर रहें" कहाँ से आई है। (अय्यूब की पुस्तक से।) चूँकि हमने अय्यूब का उल्लेख कर दिया है, तो आओ हम उसकी चर्चा करें। अय्यूब के समय में, क्या परमेश्वर मनुष्य को जीतने और उसका उद्धार करने के लिए कार्य कर रहा था? नहीं, है न? और जहाँ तक अय्यूब का संबंध है, उस समय उसे परमेश्वर का कितना ज्ञान था? (बहुत अधिक ज्ञान नहीं था।) और परमेश्वर के बारे में उस ज्ञान की तुलना में तुम्हारा अभी का ज्ञान कैसा है? तुम लोग इसका उत्तर देने का साहस क्यों नहीं करते? अय्यूब का ज्ञान तुम लोगों के आज के ज्ञान से ज़्यादा था या कम? (कम था।) इस प्रश्न का उत्तर देना बड़ा आसान है। कम था! यह तो निश्चित है! आज तुम लोग परमेश्वर के आमने-सामने हो, और परमेश्वर के वचन के आमने-सामने हो; परमेश्वर के बारे में तुम लोगों का ज्ञान अय्यूब के ज्ञान की तुलना में बहुत अधिक है। मैं यह बात क्यों कह रहा हूँ? ये बातें कहने का मेरा क्या अभिप्राय है? मैं तुम लोगों को एक तथ्य समझाना चाहता हूँ, लेकिन उससे पहले मैं तुम लोगों से एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ : अय्यूब परमेश्वर के बारे में बहुत कम जानता था, फिर भी वह परमेश्वर का भय मानता था और बुराई से दूर रहता था; लेकिन आजकल लोग ऐसा करने में असफल क्यों रहते हैं? (क्योंकि वे बुरी तरह से भ्रष्ट हैं।) "बुरी तरह से भ्रष्ट"—यह एक सतही घटना है, लेकिन मैं कभी इसे इस तरह नहीं देखूँगा। तुम लोग प्रायः इस्तेमाल किए जाने वाले सिद्धांतों और शब्दों को अपनाते हो, जैसे कि "बुरी तरह से भ्रष्ट," "परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करना," "परमेश्वर के प्रति विश्वासघात," "अवज्ञा," "सत्य को पसंद न करना", वगैरह-वगैरह, और हर एक समस्या के सार की व्याख्या करने के लिए तुम लोग इन वाक्यांशों का उपयोग करते हो। यह अभ्यास करने का एक दोषपूर्ण तरीका है। भिन्न-भिन्न प्रकृतियों के मामलों को समझाने के लिए एक ही उत्तर का उपयोग करना सत्य और परमेश्वर की निंदा करने के संदेह उत्पन्न करता है; मुझे इस तरह का उत्तर सुनना पसंद नहीं है। इसके बारे में अच्छी तरह सोचो! तुममें से किसी ने भी इस मामले पर विचार नहीं किया है, परन्तु मैं इसे हर दिन देख सकता हूँ, और हर दिन इसे महसूस कर सकता हूँ। इस प्रकार, जब तुम लोग कार्य कर रहे होते हो, तो मैं देख रहा होता हूँ। जब तुम लोग ये कर रहे होते हो, तब तुम इस मामले के सार को महसूस नहीं कर पाते। किंतु जब मैं इसे देखता हूँ, तो मैं इसके सार को भी देख सकता हूँ, और मैं इसके सार को महसूस भी कर सकता हूँ। तो फिर यह सार क्या है? इन दिनों लोग परमेश्वर का भय क्यों नहीं मान पाते और बुराई से दूर क्यों नहीं रह पाते? तुम लोगों के उत्तर दूर-दूर तक इस प्रश्न के सार की व्याख्या नहीं कर सकते, न ही वे इस प्रश्न के सार का समाधान कर सकते हैं। क्योंकि इसका एक स्रोत है जिसके बारे में तुम लोग नहीं जानते। यह स्रोत क्या है? मैं जानता हूँ कि तुम लोग इस बारे में सुनना चाहते हो, इसलिए मैं तुम लोगों को इस समस्या के स्रोत के बारे में बताऊँगा।

जब से परमेश्वर ने कार्य की शुरुआत की, तब से उसने मनुष्य को कैसे देखा है? परमेश्वर ने मनुष्य को बचाया; उसने मनुष्य को अपने परिवार के एक सदस्य के रूप में, अपने कार्य के लक्ष्य के रूप में, उस रूप में देखा है जिसे वह जीतना और बचाना चाहता था, जिसे वह पूर्ण करना चाहता था। अपने कार्य के आरंभ में मनुष्य के प्रति यह परमेश्वर की प्रवृत्ति थी। परन्तु उस समय परमेश्वर के प्रति मनुष्य की प्रवृत्ति क्या थी? परमेश्वर मनुष्य के लिए अपरिचित था, और मनुष्य परमेश्वर को एक अजनबी मानता था। यह कहा जा सकता है कि परमेश्वर के प्रति मनुष्य की प्रवृत्ति ने सही परिणाम नहीं दिए, और मनुष्य इस बारे में स्पष्ट नहीं था कि उसे परमेश्वर के साथ कैसे पेश आना चाहिए। इसलिए उसने परमेश्वर के साथ मनमाना व्यवहार किया और जैसा चाहा वैसा किया। क्या परमेश्वर के प्रति मनुष्य का कोई दृष्टिकोण था? आरंभ में नहीं था; परमेश्वर के संबंध में मनुष्य का तथाकथित दृष्टिकोण उसके बारे में बस कुछ धारणाओं और कल्पनाओं तक ही सीमित था। जो कुछ लोगों की धारणाओं के अनुरूप था उसे स्वीकार किया गया, और जो कुछ अनुरूप नहीं था उसका ऊपरी तौर पर पालन किया गया, लेकिन मन ही मन एक संघर्ष चल रहा था और वे उसका विरोध करते थे। आरंभ में यह मनुष्य और परमेश्वर का संबंध था: परमेश्वर मनुष्य को परिवार के एक सदस्य के रूप में देखता था, फिर भी मनुष्य परमेश्वर से एक अजनबी-सा व्यवहार करता था। परन्तु परमेश्वर के कार्य की एक समयावधि के पश्चात्, मनुष्य की समझ में आ गया कि परमेश्वर क्या प्राप्त करने का प्रयास कर रहा था। लोग जानने लगे थे कि वही सच्चा परमेश्वर है; वे यह भी जान गए थे कि वे परमेश्वर से क्या प्राप्त कर सकते हैं। उस समय मनुष्य परमेश्वर को किस रूप में देखता था? मनुष्य अनुग्रह, आशीष एवं प्रतिज्ञाएँ पाने की आशा करते हुए परमेश्वर को जीवनरेखा के रूप में देखता था। उस समय परमेश्वर मनुष्य को किस रूप में देखता था? परमेश्वर मनुष्य को अपने विजय के एक लक्ष्य के रूप में देखता था। परमेश्वर मनुष्य का न्याय करने, उसकी परीक्षा लेने, उसका परीक्षण करने के लिए वचनों का उपयोग करना चाहता था। किन्तु उस समय जहाँ तक मनुष्य का संबंध था, परमेश्वर एक वस्तु था जिसे वह अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए उपयोग कर सकता था। लोगों ने देखा कि परमेश्वर द्वारा जारी सत्य उन पर विजय पा सकता है, उन्हें बचा सकता है, उनके पास उन चीज़ों को जिन्हें वे परमेश्वर से चाहते थे और उस मंज़िल को जिसे वे चाहते थे, प्राप्त करने का एक अवसर है। इस कारण, उनके हृदय में थोड़ी सी ईमानदारी आ गयी, और वे इस परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए तैयार हो गए। कुछ समय बीत गया, और लोगों को परमेश्वर के बारे में कुछ सतही और सैद्धांतिक ज्ञान हो जाने से, ऐसा भी कहा जा सकता है कि वे परमेश्वर और उसके द्वारा कहे गए वचनों के साथ, उसके उपदेशों के साथ, उस सत्य के साथ जिसे उसने जारी किया था, और उसके कार्य के साथ "परिचित" होने लगे थे। इसलिए, लोग इस गलतफहमी का शिकार हो गए कि परमेश्वर अब अजनबी नहीं रहा, और वे पहले ही परमेश्वर के अनुरूप होने के पथ पर चल पड़े हैं। तब से लेकर अब तक, लोगों ने सत्य पर बहुत से धर्मोपदेश सुने हैं, और परमेश्वर के बहुत से कार्यों का अनुभव किया है। फिर भी भिन्न-भिन्न कारकों एवं परिस्थितियों के हस्तक्षेप एवं अवरोधों के कारण, अधिकांश लोग सत्य को अभ्यास में नहीं ला पाते, न ही वे परमेश्वर को संतुष्ट कर पाते हैं। लोग उत्तरोत्तर आलसी होते जा रहे हैं, और उनके आत्मविश्वास में उत्तरोत्तर कमी आती जा रही है। वे उत्तरोत्तर महसूस कर रहे हैं कि उनका परिणाम अज्ञात है। वे कोई अनावश्यक विचार लेकर नहीं आते, और कोई प्रगति नहीं करते; वे बस अनमने ढंग से अनुसरण करते हैं, और धीरे-धीरे आगे बढ़ते रहते हैं। मनुष्य की वर्तमान अवस्था के संबंध में, मनुष्य के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति क्या है? परमेश्वर की एकमात्र इच्छा है कि वह मनुष्य को ये सत्य प्रदान करे, उसके मन में अपना मार्ग बैठा दे, और फिर भिन्न-भिन्न तरीकों से मनुष्य को जाँचने के लिए भिन्न-भिन्न परिस्थितियों की व्यवस्था करे। उसका लक्ष्य इन वचनों, इन सत्यों, और अपने कार्य को लेकर ऐसा परिणाम उत्पन्न करना है जहाँ मनुष्य परमेश्वर का भय मान सके और बुराई से दूर रह सके। मैंने देखा है कि अधिकांश लोग बस परमेश्वर के वचन को लेते हैं और उसे सिद्धांत मान लेते हैं, उसे कागज़ पर लिखे शब्दों के रूप में मानते हैं, और पालन किए जाने वाले विनियमों के रूप में मानते हैं। जब वे कार्य करते हैं और बोलते हैं, या परीक्षणों का सामना करते हैं, तब वे परमेश्वर के मार्ग को उस मार्ग के रूप में नहीं मानते जिसका उन्हें पालन करना चाहिए। यह बात विशेष रूप से तब लागू होती है जब लोगों का बड़े परीक्षणों से सामना होता है; मैंने किसी भी व्यक्ति को परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने की दिशा में अभ्यास करते नहीं देखा। इस वजह से, मनुष्य के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति अत्यधिक घृणा एवं अरुचि से भरी हुई है! परमेश्वर द्वारा लोगों का बार-बार, यहाँ तक कि सैकड़ों बार, परीक्षण कर लेने पर भी उनमें यह दृढ़ संकल्प प्रदर्शित करने की कोई स्पष्ट प्रवृत्ति नहीं होती कि "मैं परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना चाहता हूँ!" चूँकि लोगों का ऐसा दृढ़ संकल्प नहीं है, और वे इस प्रकार का प्रदर्शन नहीं करते, इसलिए उनके प्रति परमेश्वर की वर्तमान प्रवृत्ति अब वैसी नहीं है जैसी पहले थी, जब उसने उन पर दया दिखायी थी, सहनशीलता, सहिष्णुता और धैर्य प्रदान किया था। बल्कि वह मनुष्य से बेहद निराश है। किसने ये निराशा पैदा की? मनुष्य के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति किस पर निर्भर है? यह हर उस व्यक्ति पर निर्भर है जो परमेश्वर का अनुसरण करता है। अपने अनेक वर्षों के कार्य के दौरान, परमेश्वर ने मनुष्य से अनेक माँगें की हैं, और मनुष्य के लिए उसने अनेक परिस्थितियों की व्यवस्था की है। चाहे मनुष्य ने कैसा ही प्रदर्शन क्यों न किया हो, और परमेश्वर के प्रति मनुष्य की प्रवृत्ति कैसी भी क्यों न हो, मनुष्य परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के लक्ष्य की स्पष्ट अनुरूपता में अभ्यास करने में असफल रहा है। मैं इस बात को एक वाक्यांश में समेटूँगा, और उसकी व्याख्या करने के लिए इस वाक्यांश का उपयोग करूँगा जिसके बारे में हमने अभी बात की है कि क्यों लोग परमेश्वर के भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग पर नहीं चल पाते। यह वाक्यांश क्या है! यह वाक्यांश है : परमेश्वर मनुष्य को अपने उद्धार का लक्ष्य, अपने कार्य लक्ष्य मानता है; मनुष्य परमेश्वर को अपना शत्रु, अपना विरोधी मानता है। क्या अब तुम लोग इस विषय को अच्छी तरह समझ गए? मनुष्य की प्रवृत्ति क्या है; परमेश्वर की प्रवृत्ति क्या है; मनुष्य और परमेश्वर के बीच क्या रिश्ता है—ये सब बिलकुल स्पष्ट है। चाहे तुम लोगों ने कितने ही धर्मोपदेश क्यों न सुने हों, जिन चीज़ों का निष्कर्ष तुम लोगों ने स्वयं निकाला है—जैसे कि परमेश्वर के प्रति वफ़ादार होना, परमेश्वर के प्रति समर्पित होना, परमेश्वर के अनुरुप होने के लिए मार्ग खोजना, पूरा जीवन परमेश्वर के लिए खपाने की इच्छा रखना, परमेश्वर के लिए जीना चाहना—मेरे लिए ये चीज़ें होशोहवास में परमेश्वर के मार्ग पर चलना नहीं है, जो कि परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना है। ये केवल ऐसे माध्यम हैं जिनके द्वारा तुम लोग कुछ लक्ष्यों को प्राप्त कर सकते हो। इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए, तुम लोग अनिच्छा से कुछ नियमों का पालन करते हो। यही नियम लोगों को परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग से और भी दूर ले जाते हैं, और एक बार फिर से परमेश्वर को मनुष्य के विरोध में लाकर रख देते हैं।

आज जिस विषय पर हम चर्चा कर रहे हैं वह थोड़ा गंभीर है, परन्तु चाहे जो भी हो, मुझे अभी भी आशा है कि तुम लोग जब आने वाले अनुभवों से और आने वाले समय से गुज़रोगे तो तुम वो कर सकोगे जो मैंने अभी तुमसे कहा है। परमेश्वर को ऐसी हवाबाज़ी मत समझो कि जब वह तुम लोगों के लिए उपयोगी हो तो वह मौजूद है, पर जब उसका कोई उपयोग न हो तो वह मौजूद नहीं है। अगर तुम्हारे अवचेतन में ऐसे विचार हैं, तो समझो, तुमने परमेश्वर को पहले ही क्रोधित कर दिया है। शायद ऐसे कुछ लोग हों जो कहते हैं, "मैं परमेश्वर को खाली हवाबाज़ी नहीं मानता, मैं हमेशा उससे प्रार्थना करता हूँ, उसे संतुष्ट करने का प्रयास करता हूँ, मेरा हर काम उसकी अपेक्षाओं के दायरे, मानक और सिद्धांतों के अंतर्गत आता है। मैं निश्चित रूप से अपने विचारों के अनुसार अभ्यास नहीं कर रहा हूँ।" हाँ, जिस ढंग से तुम अभ्यास कर रहे हो वह सही है! किन्तु जब कोई समस्या आती है तो क्या सोचते हो? जब तुम्हारा सामना किसी मसले से होता है तो तुम किस प्रकार अभ्यास करते हो? कुछ लोग महसूस करते हैं कि जब वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, और उससे आग्रह करते हैं तो वह मौजूद होता है। किन्तु जब उनका सामना किसी मसले से होता है, तो वे अपने विचारों के अनुसार ही चलना चाहते हैं। इसका मतलब है कि वे परमेश्वर को खाली हवाबाज़ी मानते हैं और ऐसी स्थिति में उनके दिमाग में परमेश्वर नहीं होता। लोग सोचते हैं कि जब उन्हें परमेश्वर की ज़रूरत होती तो उसे मौजूद होना चाहिए, न कि तब जब उन्हें उसकी ज़रूरत न हो। लोगों को लगता है कि अभ्यास करने के लिए अपने विचारों के अनुसार चलना ही काफी है। वे मानते हैं कि वे सबकुछ अपने मन-मुताबिक कर सकते हैं; वे सोचते हैं कि उन्हें परमेश्वर के मार्ग को खोजने की आवश्यकता बिलकुल नहीं है। जो लोग वर्तमान में इस प्रकार की स्थिति में हैं, और इस प्रकार की अवस्था में हैं—क्या वे खतरे को दावत नहीं दे रहे? कुछ लोग कहते हैं, "चाहे मैं खतरे को बुलावा दे रहा हूँ या नहीं, मैंने अनेक वर्षों से विश्वास किया है, और मैं विश्वास करता हूँ कि परमेश्वर मेरा परित्याग नहीं करेगा, क्योंकि मेरे परित्याग को वह सहन नहीं कर सकता।" अन्य लोग कहते हैं, "मैं तो तब से प्रभु में विश्वास करता आ रहा हूँ जब मैं अपनी माँ के गर्भ में था। करीब चालीस, पचास वर्ष हो गए, समय की दृष्टि से देखा जाये तो मैं परमेश्वर द्वारा बचाए जाने के अत्यंत योग्य हूँ और मैं जीवित रहने के अत्यंत योग्य हूँ। चार या पाँच दशकों की इस समय अवधि में, मैंने अपने परिवार और अपनी नौकरी का परित्याग कर दिया। जो कुछ मेरे पास था, जैसे धन, हैसियत, मौज-मस्ती, और पारिवारिक समय, मैंने वह सब त्याग दिया; मैंने बहुत से स्वादिष्ट व्यंजन नहीं खाए; मैंने बहुत-सी मनोरंजन की चीज़ों का आनंद नहीं लिया; मैंने बहुत से दिलचस्प जगहों का दौरा नहीं किया, यहाँ तक कि मैंने उस कष्ट का भी अनुभव किया है जिसे साधारण लोग नहीं सह सकते। यदि इन सब कारणों से परमेश्वर मुझे नहीं बचा सकता, तो यह मेरे साथ अन्याय है और मैं इस तरह के परमेश्वर पर विश्वास नहीं कर सकता।" क्या इस तरह का दृष्टिकोण रखने वाले लोग काफी संख्या में हैं? (हाँ, काफी हैं।) ठीक है, तो आज मैं तुम लोगों को एक तथ्य समझने में मदद करता हूँ : इस प्रकार के दृष्टिकोण वाले लोग अपने ही पाँव में कुल्हाड़ी मार रहे हैं। क्योंकि वे अपनी कल्पनाओं से अपनी आँखें ढक रहे हैं। ये कल्पनाएँ और उनके निष्कर्ष, उस मानक का स्थान ले लेते हैं जिसे परमेश्वर इंसान से पूरा करने की अपेक्षा करता है, और उन्हें परमेश्वर के सच्चे इरादों को स्वीकार करने से रोकता है। यह उन्हें परमेश्वर के सच्चे अस्तित्व का बोध नहीं होने देता, और उन्हें परमेश्वर की प्रतिज्ञा के किसी भी अंश का त्याग करते हुए, परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाने का अवसर गँवाने का कारण बनता है।

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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