परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II

भाग चार के क्रम में

अय्यूब के विषय में लोगों की अनेक ग़लतफहमियां

अय्यूब के द्वारा सही गई कठिनाईयां परमेश्वर के द्वारा भेजे गए स्वर्गदूतों का कार्य नहीं था, न ही इसे परमेश्वर के हाथ के द्वारा किया गया था। इसके बजाए, इसे शैतान के द्वारा व्यक्तिगत रूप से किया गया था, जो परमेश्वर का शत्रु है। परिणामस्वरूप, अय्यूब के द्वारा सही गई कठिनाईयों का स्तर अत्याधिक गहरा था। फिर भी इस समय अय्यूब ने बिना किसी संशय के अपने हृदय में परमेश्वर के विषय में अपने प्रतिदिन के ज्ञान को, प्रतिदिन के कार्यों के सिद्धान्तों को, और परमेश्वर के प्रति अपनी मनोवृत्ति को प्रदर्शित किया था—और यही वह सच्चाई है। यदि अय्यूब की परीक्षा नहीं की गई होती, यदि परमेश्वर अय्यूब के ऊपर इन विपत्तियों को नहीं लाता, तो जब अय्यूब ने कहा, "यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है," तो तू कहता है कि अय्यूब एक पाखंडी है; परमेश्वर ने उसे बहुत सारी सम्पत्ति दी थी, इसलिए वास्तव में उसने यहोवा के नाम को धन्य कहा था। परीक्षाओं के अधीन किए जाने से पहले, यदि अय्यूब ने कहा होता, "क्या हम जो परमेश्‍वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?" तो तू कहेगा कि अय्यूब बढ़ा-चढ़ा कर बातें कर रहा था, और यह कि वह परमेश्वर के नाम को नहीं त्यागेगा क्योंकि उसे परमेश्वर के हाथ के द्वारा अकसर आशीषित किया गया था। यदि परमेश्वर उसके ऊपर विपत्ती लाया होता, तो उसने निश्चय ही परमेश्वर के नाम को त्याग दिया होता। फिर भी जब अय्यूब ने अपने आपको ऐसी परिस्थितियों में पाया जिन्हें कोई नहीं चाहेगा, या जिन्हें देखने की इच्छा नहीं करेगा, या नहीं चाहेगा कि वे उनके ऊपर आएं, और जिनके अपने ऊपर आने से लोग डरेंगे, ऐसी परिस्थितियां जिन्हें परमेश्वर भी नहीं देख सकता था, अय्यूब उन परिस्थतियों में अपनी ईमानदारी को अभी भी थामे रखने के योग्य था: "यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है" और "क्या हम जो परमेश्‍वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?" इस समय अय्यूब के बर्ताव का सामना करने पर, ऐसे लोग जो बड़ी बड़ी बातें करना पसंद करते हैं, और जो पत्रियों एवं सिद्धान्तों को बोलना पसंद करते हैं, वे निःशब्द हो जाते हैं। ऐसे लोग जो केवल भाषण में ही परमेश्वर के नाम का अत्यंत गुणगान करते हैं, फिर भी उन्होंने परमेश्वर की परीक्षाओं को कभी स्वीकार नहीं किया है, उनकी निन्दा उस ईमानदारी के द्वारा की जाती है जिसे अय्यूब ने दृढ़ता से थामा था, और ऐसे लोग जिन्होंने कभी विश्वास नहीं किया है कि मनुष्य परमेश्वर के मार्ग को दृढ़ता से थामे रहने के योग्य है उन्हें अय्यूब की गवाही के द्वारा दोषी ठहराया जाता है। इन परीक्षाओं के दौरान अय्यूब के आचरण और उन वचनों का सामना करने पर जिन्हें उसने कहा था, कुछ लोग भ्रम का एहसास करेंगे, कुछ लोग ईर्ष्या का एहसास करेंगे, कुछ लोग सन्देह महसूस करेंगे, और कुछ लोग उदासीन भी दिखाई देंगे, और अय्यूब की गवाही पर घमण्ड से अपनी अपनी नाक को ऊंचा कर लेंगे क्योंकि वे न केवल उस पीड़ा को देखते हैं जो परीक्षाओं के दौरान अय्यूब के ऊपर आया था, और उन वचनों को पढ़ते हैं जिन्हें अय्यूब के द्वारा कहा गया था, बल्कि वे मानवता की "कमज़ोरियों" को भी देखते हैं जिन्हें अय्यूब के द्वारा उजागर किया गया था जब परीक्षाएं उसके ऊपर आ गई थीं। इस "कमज़ोरी" को वे अय्यूब की सिद्धता में कल्पित अपूर्णता मानते हैं, वे इसे एक ऐसे मनुष्य में एक कलंक मानते हैं जो परमेश्वर की दृष्टि में सिद्ध था। दूसरे शब्दों में, यह विश्वास किया जाता है कि ऐसे लोग जो सिद्ध हैं वे त्रुटिहीन हैं, वे बिना किसी दाग या धब्बे के हैं, उनमें कोई कमज़ोरी नहीं है, यह कि उनके पास पीड़ा का ज्ञान नहीं है, यह कि वे कभी अप्रसन्नता या उदासी का अनुभव नहीं करते हैं, और उनके पास कोई नफरत या बाह्य चरम व्यवहार नहीं है; इसके परिणामस्वरूप, अधिकांश लोग यह विश्वास नहीं करते हैं कि अय्यूब पूरी तरह से सिद्ध था। लोग अय्यूब की परीक्षाओं के दौरान उसके अधिकांश व्यवहार को पसंद नहीं करते हैं। उदाहरण के लिए, जब अय्यूब ने अपनी सम्पत्ति एवं बच्चों को खो दिया, वह फूट फूट कर नहीं रोया जैसा लोग कल्पना करेंगे। उसकी "अशिष्टता" ने लोगों को यह सोचने के लिए मजबूर किया कि वह रुखा था, क्योंकि उसके पास आंसू, या अपने परिवार के लिए प्रेम नहीं था। यह वह बुरा प्रभाव है जिसे अय्यूब सबसे पहले लोगों को देता है। उसके बाद वे पाते हैं कि उसका व्यवहार और भी अधिक परेशान करने वाला है: "बागा फाड़" को लोगों के द्वारा परमेश्वर के प्रति उसके अनादर के रूप में अनुवाद किया गया है, और "सिर मुँड़ाकर" को परमेश्वर के प्रति अय्यूब की निन्दा एवं विरोध के अभिप्राय में ग़लत माना गया है। अय्यूब के इन शब्दों के आलावा कि "यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है," लोगों ने अय्यूब में किसी भी प्रकार की धार्मिकता को नहीं परखा जिसकी प्रशंसा परमेश्वर के द्वारा की गई थी, और इस प्रकार अय्यूब के विषय में उनमें से अधिकतर लोगों का आंकलन नासमझी, ग़लतफहमी, सन्देह, निन्दा, एवं सिर्फ सिद्धान्तों में ही स्वीकार किए जाने से बढ़कर और कुछ भी नहीं है। उनमें से कोई भी यहोवा परमेश्वर के वचनों को सही मायने में समझने एवं उनकी सराहना करने के योग्य नहीं है कि अय्यूब एक खरा एवं सीधा मनुष्य था, ऐसा मनुष्य जो परमेश्वर का भय मानता और बुराई से दूर रहता था।

अय्यूब के विषय में उनकी छवि के आधार पर, लोगों में उसकी धार्मिकता को लेकर और अधिक सन्देह हैं, क्योंकि अय्यूब के कार्य एवं उसका व्यवहार जिन्हें पवित्र शास्त्र में दर्ज किया गया है वे अत्यंत प्रभावशाली रूप से उतने मर्मस्पर्शी नहीं हैं जितना लोगों ने कल्पना किया होगा। न केवल उसने किसी बड़ी दावत को अंजाम नहीं दिया, बल्कि उसने राख में बैठकर अपने आपको खुजाने के लिए मटके का एक ठीकरा लिया। इस कार्य ने भी लोगों को बहुत अधिक आश्चर्यचकित किया और उन्हें अय्यूब की धार्मिकता पर सन्देह करने—और यहाँ तक कि उसका इंकार करने के लिए मजबूर भी किया, क्योंकि स्वयं को खुजाते समय अय्यूब ने परमेश्वर से प्रार्थना नहीं की, या परमेश्वर से प्रतिज्ञा नहीं की; इसके अतिरिक्त न ही उसे दर्द के कारण विलाप से आँसू बहाते हुए देखा गया। इस समय, लोगों ने सिर्फ उसकी कमज़ोरी को ही देखा और किसी अन्य चीज़ को नहीं, और इस प्रकार जब उन्होंने अय्यूब को यह कहते हुए सुना, "क्या हम जो परमेश्‍वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?" तो वे पूरी तरह से भौंचक्के हो गए, या फिर दुविधा में पड़ गए, और वे अभी भी अय्यूब के शब्दों से उसकी धार्मिकता को परखने में असमर्थ हैं। वह मूल छवि जिसे अय्यूब अपनी पीड़ा के दौरान लोगों को देता है वह यह है कि वह न तो शर्मिन्दा था और न ही अहंकारी। लोग उसके इस व्यवहार के पीछे की उस कहानी को नहीं देखते हैं जो उसके हृदय की गहराईयों में घटी थी, न ही वे उसके हृदय के भीतर परमेश्वर के भय को या बुराई से दूर रहने की रीति के सिद्धान्तों में बने रहने को देखते हैं। उसका शांत चित्त लोगों का यह सोचने पर मजबूर करता है कि उसकी खराई एवं सीधाई केवल खोखले शब्द हैं, यह कि परमेश्वर के प्रति उसका भय केवल एक झूठी शिक्षा थी; इसी बीच वह "कमज़ोरी" जिसे उसने बाह्य रूप से प्रकट किया था वह उन पर एक गहरा प्रभाव छोड़ता है, उन्हें उस मनुष्य का एक "नया दृष्टिकोण," और यहाँ तक कि उसके प्रति "एक नई समझ" देता है जिसे परमेश्वर खरे एवं सीधे पुरुष के रूप में परिभाषित करता है। ऐसे "नए दृष्टिकोण" और "नई समझ" को उस समय प्रमाणित किया गया जब अय्यूब ने अपना मुंह खोला और उस दिन को धिक्कारने लगा जब वह पैदा हुआ था।

हालाँकि पीड़ा का वह स्तर जिसे उसने सहा वह किसी भी मनुष्य के लिए अकल्पनीय एवं समझ से परे है, फिर भी उसने झूठी शिक्षा का कोई बोल नहीं बोला, बल्कि अपने स्वयं के उपायों के द्वारा अपने शरीर के दर्द को कम किया। जैसा पवित्र शास्त्र में दर्ज है, उसने कहा: "वह दिन जल जाए जिसमें मैं उत्पन्न हुआ, और वह रात भी जिसमें कहा गया, 'बेटे का गर्भ रहा'" (अय्यूब 3:3)। कदाचित्, किसी ने भी इन शब्दों को महत्वपूर्ण नहीं समझा है, और कदाचित् ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने इन पर ध्यान दिया है। तुम लोगों की नज़र में, क्या इनका अभिप्राय यह है कि अय्यूब ने परमेश्वर का विरोध किया था? क्या वे परमेश्वर के विरुद्ध कोई शिकायत हैं? मैं जानता हूँ कि तुम लोगों के पास अय्यूब के द्वारा कहे इन शब्दों के विषय में कुछ विचार हैं और मैं विश्वास करता हूँ कि यदि अय्यूब खरा एवं सीधा होता, तो उसने किसी भी प्रकार की कमज़ोरी या कष्ट को जाहिर नहीं किया होता, और इसके बजाय उसे सकारात्मक रूप से शैतान के किसी भी आक्रमण का सामना करना चाहिए था, और शैतान की परीक्षाओं का सामना करते हुए मुस्कुराना भी चाहिए था। उसे किसी भी प्रकार की पीड़ा के प्रति जरा सी भी प्रतिक्रिया नहीं करनी चाहिए थी जिसे शैतान के द्वारा उसके शरीर पर लाया गया था, न ही उसे अपने हृदय में किसी भी प्रकार की भावनाओं को उजागर करना चाहिए था। यहाँ तक कि उसे परमेश्वर से कहना चाहिए था कि वह इन परीक्षणों को और भी कठिन बना दे। यह वही है जिसे किसी ऐसे व्यक्ति के द्वारा प्रदर्शित एवं धारण किया जाना चाहिए जो अडिग है और जो सचमुच में परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहता है। इस चरम पीड़ा के बीच, अय्यूब ने सिर्फ अपने जन्म के समय को कोसा था। उसने परमेश्वर के विषय में शिकायत नहीं की, और उसके पास परमेश्वर का विरोध करने का कोई इरादा तो बिलकुल भी नहीं था। करने की अपेक्षा यह बोलने में अधिक आसान है, क्योंकि प्राचीन समयों से लेकर आज के दिन तक, किसी ने भी ऐसी परीक्षाओं का अनुभव नहीं किया है या सहा है जो अय्यूब पर आई थीं। और अय्यूब के समान किसी भी व्यक्ति को उस प्रकार की परीक्षा के अधीन क्यों नहीं किया गया है? क्योंकि जिस रीति से परमेश्वर इसे देखता है, कोई भी व्यक्ति ऐसी ज़िम्मेदारी या महान आदेश को सहन नहीं कर सकता है, जैसा अय्यूब ने किया वैसा कोई नहीं कर सकता है, और इसके अतिरिक्त, अपने जन्म के दिन को कोसने के आलावा, कोई भी व्यक्ति अभी भी परमेश्वर के नाम को त्याग सकता है और परमेश्वर यहोवा के नाम को लगातार धन्य नहीं कह सकता है, जैसे अय्यूब ने किया था जब पीड़ाएं उस पर आ गई थीं। क्या कोई व्यक्ति ऐसा कर सकता है? जब हम अय्यूब के बारे में ऐसा कहते हैं, तो क्या हम उसके व्यवहार की सराहना कर रहे हैं? वह एक धर्मी मनुष्य था, और वह परमेश्वर की ऐसी गवाही देने के योग्य था, और वह शैतान को खदेड़कर भगाने में समर्थ था कि वह अपने सिर पर अपने हाथों को रखकर भागे, ताकि वह दोबारा उस पर दोष लगाने के लिए परमेश्वर के सामने न आए—तो उसकी सराहना करने में क्या ग़लत है? क्या ऐसा हो सकता है कि तुम लोगों के स्तर परमेश्वर की अपेक्षा अधिक ऊंचे हैं? क्या ऐसा हो सकता है कि तुम लोग अय्यूब से भी बेहतर करते जब परीक्षाएं तुम लोगों पर आतीं? परमेश्वर के द्वारा अय्यूब की प्रशंसा की गई थी—तुम लोगों को क्या आपत्तियां हो सकती है?

अय्यूब अपने जन्म के दिन को कोसता है क्योंकि वह नहीं चाहता था कि उसके द्वारा परमेश्वर को तकलीफ हो

मैं अकसर कहता हूँ कि परमेश्वर मनुष्य के हृदय के भीतर देखता है, और लोग मनुष्यों के बाहरी रुप-रंग को देखते हैं। क्योंकि परमेश्वर मनुष्य के हृदय के भीतर देखता है, वह उनकी हस्ती (मूल-तत्व) को समझता है, जबकि लोग उनके बाहरी रूप-रंग के आधार पर अन्य मनुष्यों की हस्ती को परिभाषित करते हैं। जब अय्यूब ने अपना मुंह खोला और अपने जन्म के दिन को कोसा, तो इस कार्य ने सभी आत्मिक लोगों को बहुत अधिक चकित कर दिया, जिनमें उसके तीन मित्र भी शामिल थे। मनुष्य परमेश्वर से आया था, और उसे जीवन एवं शरीर के लिए धन्यवादित होना चाहिए, साथ ही साथ अपने जन्म के दिन के लिए भी धन्यवादित होना चाहिए, जिसे परमेश्वर के द्वारा उसे प्रदान किया गया है, और उसे उन्हें कोसना नहीं चाहिए। यह अधिकांश लोगों के लिए समझने योग्य एवं बोधगम्य है। किसी के लिए भी जो परमेश्वर का अनुसरण करता है, यह समझ पवित्र और अनुल्लंघनीय है, यह ऐसा सत्य है जिसे कभी बदला नहीं जा सकता है। दूसरी ओर, अय्यूब ने नियमों को तोड़ दियाः उसने अपने जन्म के दिन को कोसा। यह एक ऐसा कार्य है जिसके विषय में अधिकांश लोग यह समझते हैं कि यह प्रतिबन्धित क्षेत्र में प्रवेश करने के समान है। न केवल वह लोगों की समझ एवं सहानुभूति का हकदार नहीं है, बल्कि वह परमेश्वर की क्षमा का भी हकदार नहीं है। ठीक उसी समय, और भी अधिक लोग अय्यूब की धार्मिकता के प्रति सन्देहास्पद हो गए थे, क्योंकि ऐसा दिखाई देता है कि उसके प्रति परमेश्वर की कृपा ने अय्यूब को अपने आपमें में ही आनन्दित बना दिया था, और इसने उसे इतना निर्भीक एवं लापरवाह बना दिया था कि उसने न केवल अपने जीवनकाल के दौरान उसे आशीष देने के लिए और उसकी देखभाल करने के लिए परमेश्वर को धन्यवाद नहीं दिया, बल्कि उसने अपने जन्म के दिन को भी धिक्कारा कि उसका नाश कर दिया जाए। यदि यह परमेश्वर का विरोध नहीं है, तो यह क्या है? ऐसे उथलेपन ने अय्यूब के इस कार्य की निन्दा करने के लिए लोगों को सबूत प्रदान किया है, परन्तु कौन जान सकता है कि उस समय अय्यूब सचमुच में क्या सोच रहा था? और कौन उस कारण को जान सकता है कि अय्यूब ने क्यों उस तरह से व्यवहार किया था? केवल परमेश्वर एवं स्वयं अय्यूब ही यहाँ भीतर की उस कहानी को और उन कारणों को जानते हैं।

जब शैतान ने अय्यूब की हड्डियों में पीड़ा पहुंचाने के लिए अपना हाथ बढ़ाया, तो अय्यूब बच निकलने के उपायों या प्रतिरोध करने की सामर्थ के बिना उसके चंगुल में फंस गया। उसकी देह एवं उसके प्राण (मन) ने अत्याधिक पीड़ा को सहन किया, और इस पीड़ा ने उसे शरीर में जीवित रहने की निरर्थकता, निर्बलता, एवं शक्तिहीनता का गहराई से परिचय कराया था। ठीक उसी समय, उसने एक गहरी समझ को भी हासिल किया कि परमेश्वर एक ऐसे मस्तिष्क का क्यों है कि वह मानवजाति की परवाह एवं देखभाल करता है। अय्यूब ने शैतान के चंगुल में यह एहसास किया कि मनुष्य जो मांस और लहू का बना हुआ है वह वास्तव में बहुत ही निर्बल एवं कमज़ोर है। जब वह अपने घुटनों पर आया और परमेश्वर से प्रार्थना की, तो उसने ऐसा महसूस किया मानो परमेश्वर अपने मुख को ढांप रहा था, और छिप रहा था, क्योंकि परमेश्वर ने पूरी तरह से उसे शैतान के हाथ में दे दिया था। ठीक उसी समय, परमेश्वर भी उसके लिए रोया, और इसके अतिरिक्त, वह उसके लिए व्यथित भी था; परमेश्वर उसके दर्द से तड़प उठा था, और उसकी पीड़ा से पीड़ित हुआ था। अय्यूब ने परमेश्वर की पीड़ा को महसूस किया था, साथ ही साथ इस बात को भी कि यह परमेश्वर के लिए कितना असहनीय था। अय्यूब परमेश्वर को और अधिक पीड़ा नहीं पहुंचाना चाहता था, न ही वह यह चाहता था कि परमेश्वर उसके लिए विलाप करे, वह यह देखना तो बिलकुल भी नहीं चाहता था कि परमेश्वर को उसके द्वारा पीड़ा पहुंचे। इस घड़ी, अय्यूब केवल अपनी देह को स्वयं से उतारना चाहता था, वह आगे से उस पीड़ा को सहना नहीं चाहता था जिसे उसकी देह के द्वारा उस पर लाया गया था, क्योंकि यह परमेश्वर को अपनी पीड़ा के द्वारा पीड़ित होने से रोकेगा—फिर भी वह नहीं कर सका, और उसे न केवल देह के उस दर्द को सहना पड़ा, बल्कि साथ ही उस पीड़ा को भी सहना पड़ा कि वह नहीं चाहता था कि परमेश्वर को चिंतित करे। इन दो पीड़ाओं ने—एक देह से, और एक आत्मा से—अय्यूब को दिल को चीरने वाला, अंतड़ियों को मरोड़ने वाला दर्द पहुंचाया था, और उसे यह एहसास कराया कि मनुष्य की सीमाएं किस प्रकार किसी को परेशान एवं असहाय कर सकती हैं जो मांस और लहू से बना है। इन परिस्थितियों के अंतर्गत, परमेश्वर के लिए उसकी लालसा और भी अधिक प्रचण्ड हो गई थी, और शैतान के लिए उसकी घृणा और भी अधिक तीव्र हो गई थी। इस समय, परमेश्वर को उसके लिए आंसू बहाकर रोते हुए या दर्द सहते हुए देखने की अपेक्षा अय्यूब ने यह अधिक पसंद किया होता कि मनुष्यों के इस संसार में उसका जन्म कभी न हुआ होता, भला होता कि वह अस्तित्व में नहीं आता। उसने अपनी देह से अत्यंत घृणा करना शुरू कर दिया था, और वह बीमार होने एवं अपने आप से, और जन्म के दिन से, और यहाँ तक कि उनसब से उकताने लगा था जो उससे जुड़े हुए थे। उसने यह इच्छा नहीं की थी कि उसके जन्म के दिन का और अधिक जिक्र किया जाए या उससे कोई मतलब रखा जाए, और इस प्रकार उसने अपना मुंह खोला और अपने जन्म के दिन को कोसा: "वह दिन जल जाए जिसमें मैं उत्पन्न हुआ, और वह रात भी जिसमें कहा गया, 'बेटे का गर्भ रहा।' वह दिन अन्धियारा हो जाए! ऊपर से ईश्‍वर उसकी सुधि न ले, और न उसमें प्रकाश हो" (अय्यूब 3:3-4)। अय्यूब के शब्दों में स्वयं के लिए उसकी घृणा है, "वह दिन जल जाए जिसमें मैं उत्पन्न हुआ, और वह रात भी जिसमें कहा गया, बेटे का गर्भ रहा," साथ ही साथ उनमें स्वयं के लिए उसकी निन्दा और परमेश्वर को दर्द पहुंचाने के लिए ऋणी होने का एहसास भी है, "वह दिन अन्धियारा हो जाए! ऊपर से ईश्‍वर उसकी सुधि न ले, और न उसमें प्रकाश हो।" ये दो अंश महानतम प्रकटीकरण हैं कि अय्यूब ने तब कैसा महसूस किया था, और सब पर उसकी खराई एवं सीधाई को प्रदर्शित करते हैं। ठीक उसी समय, बिलकुल वैसे ही जैसे अय्यूब ने इच्छा की थी, उसके विश्वास को एवं परमेश्वर के प्रति उसकी आज्ञाकारिता को, साथ ही साथ परमेश्वर के प्रति उसके भय को सचमुच में ऊंचा उठाया गया था। हाँ वास्तव में, यह ऊंचाई बिलकुल वह प्रभाव है जिसकी परमेश्वर ने अपेक्षा की थी।

अय्यूब ने शैतान को हराया और परमेश्वर की दृष्टि में एक सच्चा मनुष्य बन गया

जब अय्यूब पहली बार अपनी परीक्षाओं से होकर गुज़रा था, तब उसकी सारी सम्पत्ति और उसके सभी बच्चों को उससे ले लिए गया था, परन्तु उसके परिणामस्वरूप वह नीचे नहीं गिरा या ऐसा कुछ भी नहीं कहा जो परमेश्वर के विरुद्ध पाप था। उसने शैतान की सभी परीक्षाओं पर विजय प्राप्त की थी, और उसने अपनी भौतिक सम्पत्ति एवं वंश पर, और अपनी सांसारिक सम्पत्तियों को खोने की परीक्षा पर भी विजय प्राप्त की थी, कहने का तात्पर्य है कि जब परमेश्वर ने इन्हें ले लिया तब भी वह उसकी आज्ञाओं को मानने और इसके कारण परमेश्वर को धन्यवाद एवं स्तुति देने के योग्य था। शैतान की पहली परीक्षा के दौरान अय्यूब का बर्ताव ऐसा ही था, और परमेश्वर के पहले परीक्षण के दौरान अय्यूब की गवाही ऐसी ही थी। दूसरी परीक्षा में, शैतान ने अय्यूब को तकलीफ देने के लिए अपना हाथ बढ़ाया, और हालाँकि अय्यूब ने ऐसा दर्द सहा जिसे उसने पहले कभी नहीं सहा था, तौभी उसकी गवाही लोगों को अचरज में डालने के लिए काफी थी। उसने एक बार फिर से शैतान को हराने के लिए अपनी सहनशक्ति, अंगीकार, और परमेश्वर के प्रति अपनी आज्ञाकारिता का उपयोग किया, और उसके आचरण एवं उसकी गवाही को एक बार फिर से परमेश्वर के द्वारा स्वीकृत किया गया एवं उसका समर्थन किया गया। इस परीक्षा के दौरान, अय्यूब ने शैतान पर इस बात की घोषणा करने के लिए अपने वास्तविक व्यवहार का उपयोग किया कि शरीर का दर्द परमेश्वर के प्रति उसके विश्वास एवं आज्ञाकारिता को पलट नहीं सकता था या परमेश्वर के प्रति उसकी भक्ति एवं भय को छीन नहीं सकता था; वह मृत्यु का सामना करने के कारण परमेश्वर को नहीं त्यागेगा या अपनी खराई एवं सीधाई नहीं छोड़ेगा। अय्यूब के दृढ़ संकल्प ने शैतान को कायर बना दिया, उसके विश्वास ने शैतान को भयभीत और थरथरा दिया, शैतान के साथ उसकी ज़िन्दगी और मौत की जंग ने शैतान के भीतर अत्यंत घृणा एवं रोष उत्पन्न किया, उसकी खराई एवं सीधाई ने शैतान की वो हालत कर दी कि वह उसके साथ और कुछ नहीं कर सकता था, कुछ इस तरह कि शैतान ने उस पर अपने आक्रमणों को त्याग दिया और यहोवा परमेश्वर के सामने अय्यूब पर अपने आरोपों को छोड़ दिया। इसका अर्थ यह है कि अय्यूब ने संसार पर विजय प्राप्त की थी, उसने देह पर विजय प्राप्त की थी, उसने शैतान पर विजय प्राप्त की थी, और उसने मृत्यु पर विजय प्राप्त की थी; वह पूरी तरह से और सम्पूर्ण रीति से ऐसा मनुष्य था जो परमेश्वर से सम्बन्ध रखता था। इन दोनों परीक्षाओं के दौरान, अय्यूब अपनी गवाही में दृढ़ता से स्थिर खड़ा रहा, और उसने वास्तव में अपनी खराई एवं सीधाई को जीया था, और उसने परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के अपने जीवन जीने के सिद्धान्तों के दायरे को व्यापक किया था। इन दोनों परीक्षाओं से होकर गुज़रने के पश्चात्, अय्यूब के भीतर एक समृद्ध अनुभव उत्पन्न हुआ, और इस अनुभव ने उसे और भी अधिक परिपक्व एवं अत्यंत अनुभवी बना दिया था, इसने उसे मज़बूत, और प्रबल आस्था रखने वाला मनुष्य बना दिया था, और इसने उसे ईमानदारी की सच्चाई एवं योग्यता के विषय में अति आत्मविश्वासी बना दिया जिनके तहत वह दृढ़ता से स्थिर रहा। यहोवा परमेश्वर के द्वारा अय्यूब की परीक्षाओं ने उसे मनुष्य के लिए परमेश्वर की चिंता के विषय में एक गहरी समझ एवं एहसास प्रदान किया, और उसे परमेश्वर के प्रेम की बहुमूल्यता का एहसास करने की अनुमति दी, और उस बिन्दु से परमेश्वर के लिए उसके भय में परमेश्वर के प्रति विचार और प्रेम को जोड़ दिया गया था। यहोवा परमेश्वर की परीक्षाओं ने न केवल अय्यूब को उससे दूर नहीं किया, बल्कि उसके हृदय को परमेश्वर के और निकट लाया। जब अय्यूब के द्वारा सहा गया दैहिक दर्द अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गया, तो वह चिंता जिसे उसने परमेश्वर यहोवा की ओर से महसूस की थी उसने उसे अपने जन्म के दिन को कोसने के अलावा और कोई विकल्प नहीं दिया था। ऐसे आचरण की योजना बहुत पहले से नहीं बनाई गई थी, परन्तु ऐसा आचरण उसके हृदय के भीतर से परमेश्वर के लिए उसके विचार एवं उसके प्रेम का एक स्वाभाविक प्रकाशन था, यह एक स्वाभाविक प्रकाशन था जो परमेश्वर के लिए उसके विचार एवं उसके प्रेम से आया था। कहने का तात्पर्य है, क्योंकि उसने स्वयं से घृणा की थी, और वह परमेश्वर को कष्ट देने के लिए तैयार नहीं था, और वह परमेश्वर को कष्ट देने की बात को सहन नहीं कर सकता था, इस प्रकार उसका विचार एवं प्रेम निःस्वार्थता के बिन्दु तक पहुंच गया था। इस समय, अय्यूब ने अपनी चिरकालिक प्रशंसा और परमेश्वर के लिए अपनी लालसा और परमेश्वर के प्रति अपनी भक्ति को विचार एवं प्रेम के उस स्तर तक ऊंचा किया था। ठीक उसी समय, उसने परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास एवं आज्ञाकारिता और परमेश्वर के भय को भी विचार एवं प्रेम के उस स्तर तक ऊंचा किया था। उसने स्वयं को कोई ऐसा कार्य करने की अनुमति नहीं दी जो परमेश्वर को हानि पहुंचाता, उसने अपने आपको ऐसा बर्ताव करने की अनुमति नहीं दी जो परमेश्वर को नुकसान पहुंचता, और उसने अपने कारण परमेश्वर पर कोई दुख, कष्ट, या अप्रसन्नता लाने की अनुमति भी नहीं दी थी। परमेश्वर की दृष्टि में, हालाँकि अय्यूब वही पहले का अय्यूब था, फिर भी अय्यूब के विश्वास, उसकी आज्ञाकारिता और परमेश्वर के प्रति उसके भय ने परमेश्वर को सम्पूर्ण संतुष्टि एवं आनन्द पहुंचाया था। इस समय, अय्यूब ने उस खराई को प्राप्त किया था जिसे हासिल करने के लिए परमेश्वर ने उससे अपेक्षा की थी, वह एक ऐसा मनुष्य बन गया था जो परमेश्वर की दृष्टि में "खरा एवं सीधा" कहलाने के योग्य था। उसकी धार्मिकता के कार्यों ने उसे शैतान पर विजय प्राप्त करने, और परमेश्वर के प्रति अपनी गवाही में दृढ़ता से स्थिर खड़े रहने की अनुमति दी थी। इस प्रकार उसकी धार्मिकता के कार्यों ने भी उसे सिद्ध किया था, और उसके जीवन के मूल्य को ऊंचा किए जाने, और किसी भी समय से सर्वोपरि होने की अनुमति दी, और उसे सबसे पहले ऐसा मनुष्य बनाया था जिससे आगे से शैतान के द्वारा उस पर हमला और उसकी परीक्षा न हो। क्योंकि अय्यूब धर्मी था, इसलिए शैतान के द्वारा उस पर आरोप लगाया गया था और उसकी परीक्षा ली गई थी; क्योंकि अय्यूब धर्मी था, इसलिए उसे शैतान को सौंप दिया गया था; और क्योंकि अय्यूब धर्मी था, इसलिए उसने शैतान पर विजय प्राप्त की और उसे हराया था, और वह अपनी गवाही में दृढ़ता से स्थिर बना रहा। अब से, अय्यूब एक ऐसा व्यक्ति बन गया था जिसे फिर कभी शैतान के हाथ में नहीं दिया जाएगा, वह सचमुच में परमेश्वर के सिंहासन के सामने आया था, और उसने परमेश्वर की आशीषों के अधीन शैतान की जासूसी या तबाही के बगैर ज्योति में जीवन बिताया था। वह परमेश्वर की दृष्टि में एक सच्चा मनुष्य बन गया था, क्योंकि उसे स्वतन्त्र किया गया था।

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