स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI

परमेश्वर की पवित्रता (III) भाग चार

आओ हम इसके विषय में बात करने के लिए पीछे जाएँ कि शैतान मनुष्य को भ्रष्ट करने के लिए कौन से माध्यमों को काम में लाता है। हमने अभी अभी परमेश्वर के विभिन्न तरीकों के विषय में बात की है जिसके अंतर्गत परमेश्वर मनुष्य पर कार्य करता है जिसे तुम लोगों में से हर एक स्वयं के लिए अनुभव कर सकता है, अतः मैं अधिक विस्तार में नहीं जाऊँगा। परन्तु अपने हृदयों में कदाचित् तुम लोग उन साधनों के बारे में अस्पष्ट हो जिन्हें शैतान मनुष्य को भ्रष्ट करने के लिए इस्तेमाल करता है, या तुम विस्तृत रूप से उसके बारे में नहीं जानते हो, अतः इसके बारे में बात करना तुम लोगों को लाभ पहुँचाएगा। क्या तुम लोग इसे समझना चाहते हो? (हाँ।) हो सकता है कि तुम लोगों में से कुछ लोग पूछोगेः "शैतान के बारे में फिर से बात क्यों करना? हमने पहले ही देख लिया है कि शैतान दुष्ट है और हमने पहले से ही शैतान से घृणा की है, अतः क्या शैतान हमें अभी भी भ्रष्ट कर सकता है?" वास्तव में, हालाँकि हो सकता है कि तुम लोग शैतान से घृणा करो, फिर भी तुम लोग इसकी सही प्रकृति का पूरी तरह से पता नहीं लगा सकते हो। ऐसी कुछ चीज़ें हैं जिन्हें तुम लोगों को सामना करने की आवश्यकता है, अन्यथा तुम लोग वास्तव में शैतान के प्रभाव से अलग नहीं हो सकते हो।

हमने पहले पाँच तरीकों के बारे में चर्चा की है जिसके अंतर्गत शैतान मनुष्य को भ्रष्ट करता है, क्या हमने चर्चा नहीं की है? इन पाँच तरीकों के अंतर्गत वे माध्यम हैं जिन्हें शैतान काम में लाता है, जिसके आर पार मनुष्य को देखना होगा। ऐसे तरीके जिनके अंतर्गत शैतान मनुष्य को भ्रष्ट करता है वे मात्र एक किस्म के आवरण हैं; सबसे घातक वे माध्यम हैं जो इस मुखौटे के पीछे छिपे हुए हैं और वह अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए इन माध्यमों का उपयोग करना चाहता है। ये माध्यम क्या हैं? मेरे लिए उनका सार निकालिए। (वह धोखा देता है, लुभाता एवं धमकाता है।) जितनी अधिक तुम लोग सूची बनाते हो, उतना ही करीब तुम लोग आते हो। ऐसा दिखाई देता है मानो उसके द्वारा तुम लोगों को भारी नुकसान पहुँचाया गया है और इस विषय पर तुम्हारे पास गहरी भावनाएँ हैं। (वह मीठी मीठी बातों एवं झूठ का भी इस्तेमाल करता है, वह प्रभावित करता है, धोखा देता है एवं बलपूर्वक कब्ज़ा करता है।) बलपूर्वक कब्ज़ा करता है—यह एक बहुत ही गहरा प्रभाव देता है, है कि नहीं? लोग शैतान के बलपूर्वक कब्ज़े से डरते हैं। और कोई? (वह हिंसक रूप से लोगों को हानि पहुँचाता है, धमकियों और प्रलोभनों दोनों का उपयोग करता है, और वह झूठ बोलता है।) झूठ उसके कार्यों का मूल-तत्व है और वह तुम्हें धोखा देने के लिए झूठ बोलता है। झूठ का स्वभाव क्या है? क्या झूठ बोलना धोखा देने के समान नहीं है? झूठ बोलने का लक्ष्य वास्तव में तुम्हें धोखा देना है। और कोई? साहस के साथ बोलो। उन सभी बातों को मुझे बताओ जिसके विषय में तुम लोग जानते हो। (यह उकसाता है, हानि पहुँचाता हैं, अंधा करता है एवं धोखा देता है।) तुम लोगों में से अधिकांश इस धोखे के विषय में बिलकुल ऐसा ही महसूस करते हो, क्या तुम लोग महसूस नहीं करते हो? (वह खुशामद करने वाली चापलूसी करता है, मनुष्य को नियन्त्रित करता है, मनुष्य को जकड़ लेता है, मनुष्य को आतंकित करता है और मनुष्य को परमेश्वर पर विश्वास करने से रोकता है।) मैं बहुत अच्छे से जानता हूँ कि तुम लोगों का क्या अभिप्राय है और वे सभी समान रूप से अच्छे हैं। तुम सभी लोग इसके विषय में कुछ तो जानते हो, अतः आओ अब हम इसका सार निकालें।

यहाँ पर छः प्राथमिक माध्यम हैं जिन्हें शैतान मनुष्य को भ्रष्ट करने के लिए काम में लाता है।

पहला नियन्त्रण एवं जोर जबरदस्ती है। अर्थात्, तुम्हारे हृदय को नियन्त्रित करने के लिए शैतान हर सभंव कार्य करेगा। "जोर जबरदस्ती" का अर्थ क्या है? (इसका अर्थ है विवशता।) वह तुम्हें धमकाता है और तुम्हें बाध्य करता है कि उस पर ध्यान दो, यदि तुम बात नहीं मानते हो तो तुम्हें उन परिणामों के विषय में सोचने के लिए मजबूर करता है। तुम भयभीत होते हो और उसकी अवहेलना करने की हिम्मत नहीं करते हो, अतः तब तुम्हारे पास उसके प्रभाव के अधीन आने के सिवाए कोई विकल्प नहीं होता है।

दूसरा है धोखा देना और छल कपट करना। "धोखा देने और छल कपट करने" के साथ क्या जुड़ा होता है? शैतान कुछ कहानियों एवं झूठी बातों को बनाता है, तुम्हें छल कपट में फँसाता है कि उन पर विश्वास करें। वह तुम्हें कभी नहीं बताता है कि मनुष्य को परमेश्वर के द्वारा सृजा गया था, किन्तु न ही वह सीधे तौर पर यह कहता है कि तुम्हें परमेश्वर के द्वारा सृजा नहीं गया था। यह "परमेश्वर" शब्द का उपयोग बिलकुल भी नहीं करता है, परन्तु इसके बजाए एक विकल्प के रूप में किसी और चीज़ का इस्तेमाल करता है, तुम्हें धोखा देने के लिए इस चीज़ का उपयोग करता है ताकि तुम्हारे पास परमेश्वर के अस्तित्व के विषय में मूल रूप से कोई विचार न हो, और वह तुम्हें यह जानने की अनुमति नहीं देता है कि परमेश्वर वास्तव में कौन है। निश्चित रूप से यह छल कपट, न केवल सिर्फ इसे, बल्कि कई पहलुओं को शामिल करता है।

तीसरा है ज़बरदस्ती सिद्धान्तों को मनवाना। क्या ज़बरदस्ती सिद्धान्तों को मनवाया जाता है? (हाँ।) किस बात के विषय में ज़बरदस्ती सिद्धान्तों को मनवाना? क्या ज़बरदस्ती सिद्धान्तों को मनवाना मनुष्य के स्वयं के चुनाव के द्वारा होता है? क्या इसे मनुष्य की सहमति से किया जाता है? (नहीं।) यदि तुम इससे सहमत नहीं होते हो तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। तुम्हारी अनभिज्ञता में वह तुम्हारे भीतर उँडेलता है, शैतान की सोच, जीवन के उसके नियमों और उसके बुरे सार को तुम्हारे भीतर डालता है।

चौथा है धमकियाँ एवं प्रलोभन। अर्थात्, शैतान विभिन्न माध्यमों को काम में लाता है ताकि तुम उसे स्वीकार करो, उसका अनुसरण करो, उसकी सेवा में कार्य करो; वह किसी भी ज़रूरी माध्यम से अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने की कोशिश करता है। वह कई बार तुम पर छोटी छोटी कृपा करता है परन्तु अभी भी तुम्हें पाप करने के लिए लुभाता है। यदि तुम उसका अनुसरण न करो, तो वह तुम्हें कष्ट भुगतने के लिए मजबूर करेगा और तुम्हें दण्ड देगा और वह तुम पर आक्रमण करने और तुम्हें जाल में फँसाने के लिए विभिन्न तरीकों का इस्तेमाल करेगा।

पाँचवा है धोखा एवं लकवा। "धोखा एवं लकवा" वह है जिससे शैतान कुछ मधुर सुनाई देने वाले कथनों एवं विचारों को गढ़ता है जो लोगों की धारणाओं के साथ होती हैं ताकि ऐसा दिखाई दे मानो वह लोगों के शरीरों का ध्यान रख रहा है या उनके जीवन एवं भविष्य के बारे में सोच रहा है, जबकि वास्तव में यह बस तुम्हें बेवकूफ़ बनाने के लिए है। तब वह तुम्हें लकवाग्रस्त कर देता है ताकि तुम यह न जानो कि क्या सही है और क्या ग़लत है, ताकि तुम अनजाने में ही उसके मार्ग का अनुसरण करो और फलस्वरूप उसके नियन्त्रण के अधीन आ जाओ।

छठा है शरीर एवं मस्तिष्क विनाश। शैतान मनुष्य की किस चीज़ का विनाश करता है? (उनका मस्तिष्क, और उनका पूरा अस्तित्व।) शैतान तुम्हारे मस्तिष्क का नाश करता है, विरोध करने के लिए तुम्हें शक्तिहीन बना देता है, इसका अर्थ है कि स्वयं के बजाए बिलकुल धीरे धीरे तुम्हारा हृदय शैतान की ओर मुड़ने लगता है। वह हर दिन इन चीज़ों को तुम्हारे भीतर डालता है, तुम्हें प्रभावित एवं तुम्हारा पोषण करने के लिए प्रतिदिन इन विचारों एवं संस्कृतियों का उपयोग करता है, बिलकुल धीरे धीरे तुम्हारी इच्छा शक्ति को बर्बाद करता है, तुम्हें मजबूर करता है कि आगे से एक अच्छा इंसान बनने की इच्छा न करो, तुम्हें मजबूर करता है कि आगे से उसके लिए निरन्तर खड़े रहने की इच्छा न करो जिसे तुम धार्मिकता कहते हो। अनजाने में, आगे से तुम्हारे पास और कोई इच्छा शक्ति नहीं होती है कि तुम लहर के खिलाफ ऊपर धारा में तैरो, परन्तु इसके बजाए तुम उसके साथ नीचे की ओर बहते हो। "विनाश" का अर्थ है कि शैतान लोगों को इतना अधिक कष्ट देता है कि वे न तो मनुष्य के समान बनते हैं और न ही प्रेत के समान, तब वह उन्हें फाड़ खाने के लिए उस अवसर को पकड़ लेता है।

इन में से प्रत्येक माध्यम जिसे शैतान मनुष्य को भ्रष्ट करने के लिए काम में लाता है वह विरोध करने के लिए मनुष्य को निर्बल कर देता है; उनमें से कोई भी लोगों के लिए घातक हो सकता है और विरोध करने के लिए उन्हें कोई मौका बिलकुल भी नहीं देता है। दूसरे शब्दों में, कोई भी कार्य जो शैतान करता है और कोई भी माध्यम जो वह काम में लाता है उससे वह तुम्हें पतित कर सकता है, तुम्हें शैतान के नियन्त्रण के अधीन ला सकता है और तुम्हें दुष्टता के दलदल में धँसा सकता है ताकि तुम बचकर निकल न सको। ये वे माध्यम हैं जिन्हें शैतान मनुष्य को भ्रष्ट करने के लिए काम में लाता है।

हम कह सकते हैं कि शैतान दुष्ट है, परन्तु इसकी पुष्टि करने के लिए हमें फिर भी देखना होगा की मनुष्य को शैतान के द्वारा भ्रष्ट किए जाने के क्या परिणाम होते हैं और वह मनुष्य के लिए कौन कौन से स्वभाव एवं सार लेकर आता है। तुम सभी लोग इसमें से कुछ को जानते हो, अतः इसके विषय में बोलो। जब एक बार शैतान मनुष्य को भ्रष्ट कर देता है, तो वे कौन कौन से शैतानी स्वभावों को व्यक्त एवं प्रगट करते हैं? (अहंकारी एवं अभिमानी, स्वार्थी एवं घिनौने, टेढ़े एवं कपटी, भयानक एवं द्वेषपूर्ण, एवं मानवतारहित।) कुल मिलाकर, हम कह सकते हैं कि उनके पास कोई मानवता नहीं है, सही है? अन्य भाइयों एवं बहनों को बोलने दीजिए। (जब एक बार मनुष्य को शैतान के द्वारा भ्रष्ट कर दिया जाता है, तो वे आम तौर पर अत्यधिक अहंकारी एवं स्वयं में धर्मी, स्वयं में महत्वपूर्ण, और आत्म-अभिमानी, लालची एवं स्वार्थी होते हैं। ये अत्यंत गंभीर हैं।) (शैतान के द्वारा मनुष्य को भ्रष्ट किए जाने के बाद, वे अनैतिक ढंग से भौतिक एवं आत्मिक दोनों रूप में कार्य करते हैं। तब वे परमेश्वर के प्रतिकूल (शत्रु) हो जाते हैं, परमेश्वर का सामना करते हैं, परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता करते हैं, और वे उस विवेक एवं तर्क को खो देते हैं जो मनुष्य के पास होना चाहिए।) जो कुछ तुम लोगों ने कहा है वह सब मात्र मामूली अन्तर के साथ मूल रूप से वैसा ही है, तुम लोगों में से कुछ मामूली अन्तर पर अधिक ध्यान देते हैं। संक्षेप में कहें, तो "अहंकारी" वह शब्द है जिसका अधिकांश बार उल्लेख किया गया है—अहंकारी, कपटी, द्वेषपूर्ण एवं स्वार्थी। परन्तु तुम लोगों ने उस एक चीज़ को अनदेखा किया है। ऐसे लोग जिनके पास कोई विवेक नहीं है, जिन्होंने अपने तर्क को खो दिया है और जिनके पास कोई मानवता नहीं है—फिर भी यहाँ ऐसी चीज़ है जो इतना ही महत्वपूर्ण है जिसे तुम लोगों में से किसी ने भी नहीं कहा है। अतः वह क्या है? (विश्वासघात करना।) सही है! किसी ने भी नहीं कहा था "विश्वासघात करना।" जब एक बार उन्हें शैतान के द्वारा भ्रष्ट कर दिया जाता है तो ये स्वभाव जो किसी मनुष्य में मौजूद होते हैं उनका अंतिम परिणाम परमेश्वर के प्रति उनका विश्वासघात है और आगे से परमेश्वर को न पहचानना है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि परमेश्वर मनुष्य को क्या कहता है या वह उन पर कौन सा कार्य करता है, क्योंकि जो कुछ वे जानते है उसे स्वीकार नहीं करते हैं कि वह सत्य है, और यह देखा जा सकता है कि वे आगे से परमेश्वर को नहीं पहचानते हैं और वे उससे विश्वासघात करते हैं: मनुष्य के विषय में यह शैतान की भ्रष्टता का परिणाम है और मनुष्य के समस्त भ्रष्ट स्वभावों के लिए यह एक समान है। उन तरीकों के मध्य जिन्हें शैतान मनुष्य को भ्रष्ट करने के लिए इस्तेमाल करता है—वह ज्ञान जिसे मनुष्य सीखता है, वह विज्ञान जिसे वे जानते हैं, वे अंधविश्वास, वे पारम्परिक संस्कृतियाँ एवं वे सामाजिक प्रवृत्तियाँ जिन्हें वे समझते हैं—क्या कोई ऐसी चीज़ है जिसे मनुष्य यह बताने के लिए उपयोग कर सकता है कि धर्मी क्या है और अधर्मी क्या है? क्या यहाँ से कार्य करने के लिए कुछ मापदण्ड हैं? (नहीं।) क्या कोई ऐसी चीज़ है जो मनुष्य की यह जानने में सहायता कर सकती है कि क्या पवित्र है और क्या अपवित्र है? (नहीं।) ऐसे कोई मापदण्ड एवं कोई आधार नहीं हैं जो मनुष्य की सहायता कर सकते हैं। भले ही लोग "पवित्र" शब्द को जानते हैं, फिर भी ऐसा कोई नहीं है जो वास्तव में जानता हो कि पवित्र क्या है। अतः ये चीज़ें जिन्हें शैतान मनुष्य के लिए लेकर आता है क्या वे उन्हें सत्य को जानने की अनुमति दे सकती हैं? वे मनुष्य को सत्य को जानने की अनुमति कभी नहीं दे सकते हैं। क्या वे मनुष्य को बढ़ती मानवता के साथ जीवन जीने की अनुमति दे सकते हैं? क्या वे मनुष्य को बढ़ती समझ में जीवन जीने की अनुमति दे सकते हैं कि किस प्रकार सचमुच में परमेश्वर की आराधना करनी है? (नहीं।) यह स्पष्ट है कि वे मनुष्य को परमेश्वर की आराधना करने की अनुमति नहीं दे सकते हैं, न ही वे मनुष्य को यह जानने की अनुमति दे सकते हैं कि पवित्रता एवं बुराई क्या है। इसके विपरीत, मनुष्य और भी अधिक पतित होता जाता है, परमेश्वर से और दूर होता जाता है, और भी अधिक दुष्ट होता जाता है, और भी अधिक बिगड़ता जाता है। हम क्यों शैतान को दुष्ट कहते हैं इसके पीछे का मुख्य कारण यही है। शैतान के इतने सारे अवगुणों को विच्छेदित करने के बाद, उसके गुणों में या उसके सार की अपनी अपनी समझ में क्या तुम लोगों ने देखा है कि शैतान के पास पवित्रता का कोई तत्व है? (नहीं।) यह निश्चित है, है कि नहीं? अतः क्या तुम लोगों ने शैतान के किसी सार को देखा है जो परमेश्वर के साथ किसी समानता को साझा करता हो? (नहीं।) क्या शैतान की कोई अभिव्यक्ति परमेश्वर के साथ किसी समानता को साझा करती है? (नहीं।) अतः अब मैं तुम लोगों से पूछना चाहता हूँ, तुम्हारे स्वयं के वचनों का उपयोग करते हुए, कि परमेश्वर की पवित्रता वास्तव में क्या है? सबसे पहले, परमेश्वर की पवित्रता क्या है जिसे इस सम्बन्ध में कहा गया है? क्या इसे परमेश्वर के सार के सम्बन्ध में कहा गया है? या इसे उसके स्वभाव के किसी पहलू के सम्बन्ध में कहा गया है? (इसे परमेश्वर के सार के सम्बन्ध में कहा गया है।) हमें अपने इच्छित विषय में एक स्पष्ट पकड़ को पाना ही होगा। इसे परमेश्वर के सार के सम्बन्ध में कहा गया है। सबसे पहले, हमने शैतान की दुष्टता को परमेश्वर के सार के प्रति एक विषमता के रूप में इस्तेमाल किया है, अतः क्या तुमने शैतान के किसी सार को परमेश्वर में देखा है? (नहीं।) मानवजाति के किसी सार के विषय में क्या? (नहीं।) (परमेश्वर अभिमानी नहीं है, न ही स्वार्थी है और वह विश्वासघात नहीं करता है, और इस पहलू में परमेश्वर के पवित्र सार को भी प्रगट होते हुए देखा जाता है।) हम्म। जोड़ने के लिए कुछ और? (परमेश्वर के पास शैतान के भ्रष्ट स्वभाव का कोई नामो निशान नहीं है। जो कुछ शैतान के पास है वह पूरी तरह से नकारात्मक है, जबकि जो कुछ परमेश्वर के पास है वह और कुछ नहीं बल्कि सकारात्मक है। हम देख सकते हैं कि परमेश्वर हमेशा हमारी ओर है। जब हम बहुत छोटे से थे उस समय से लेकर अब तक, खासतौर पर जब हमने अपने मार्ग को खो दिया था, वह हमेशा वहाँ था, हमारी निगरानी कर रहा था, और हमें सुरक्षित रख रहा था। परमेश्वर में कोई कपट नहीं है, कोई कपट नहीं है। वह साफ साफ और सरलता से बोलता है, और यह भी परमेश्वर का सच्चा सार है।) बहुत अच्छा! (हम परमेश्वर के कार्य में शैतान के किसी भी भ्रष्ट स्वभाव को नहीं देख सकते हैं, कोई कपट नहीं है, कोई घमण्ड नहीं, कोई खोखली प्रतिज्ञाएँ एवं कोई छल नहीं। परमेश्वर ही वह एकमात्र शख्स है जिसमें मनुष्य विश्वास कर सकता है और परमेश्वर का कार्य विश्वासयोग्य एवं ईमानदार है। परमेश्वर के कार्य से हम परमेश्वर को लोगों को यह बाताते हुए देखते हैं कि ईमानदार बनो, बुद्धि पाओ, भले और बुरे में अन्तर करने में सक्षम बनो, और विभिन्न लोगों, घटनाओं, एवं चीज़ों के विषय में परखने की शक्ति पाओ। इस में हम परमेश्वर की पवित्रता को देख सकते हैं।) जोड़ने के लिए और कुछ? क्या तुम लोगों ने समाप्त कर लिया है? (हाँ।) जो कुछ तुम लोगों ने कहा है क्या तुम लोग उससे संतुष्ट हो? तुम लोगों के हृदय में वास्तव में कितनी समझ है? और तुम लोग परमेश्वर की पवित्रता को कितना समझते हो? मैं जानता हूँ कि तुम लोगों में से हर एक एवं प्रत्येक के हृदय में कुछ स्तर की बोधात्मक समझ है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति उन पर परमेश्वर के कार्य को महसूस कर सकता है और, विभिन्न मात्राओं में, वे परमेश्वर से बहुत सी चीज़ों को प्राप्त करते हैं; वे अनुग्रह एवं आशीषों को प्राप्त करते हैं, उन्हें अद्भत प्रकाशन एवं अद्भुत ज्योति से प्रकाशित किया गया है, और वे परमेश्वर के न्याय एवं ताड़ना को प्राप्त करते हैं ताकि मनुष्य के पास कुछ साधारण समझ आ सके।

हालाँकि परमेश्वर की पवित्रता जिसकी आज हम चर्चा कर रहे हैं वह शायद अधिकांश लोगों को अजीब सी लगे, इसकी परवाह किए बगैर कि यह कैसा प्रतीत हो सकता है हमने इस विषय को प्रारम्भ किया है, तुम लोगों के पास एक गहरी समझ होगी जब तुम लोग अपने आगे के मार्ग में बढ़ते जाते हो। यह तुम लोगों से अपेक्षा करता है कि धीरे-धीरे एहसास करो और अपने स्वयं के अनुभव को भीतर से समझो। अब परमेश्वर के सार के विषय में तुम लोगों की बोधात्मक समझ को अब भी इसे सीखने के लिए, इसकी पुष्टि करने के लिए, इसका एहसास करने के लिए एवं इसका अनुभव करने के लिए एक लम्बी समय अवधि की आवश्यकता है, उस दिन तक जब तुम लोग अपने हृदय के केन्द्रीय भाग से परमेश्वर की पवित्रता को जान लोगे कि वह परमेश्वर का दोषरहित सार है, एवं परमेश्वर का निःस्वार्थ प्रेम है, जो सभी चीज़ों के विषय में वह निःस्वार्थ प्रेम है जिसे परमेश्वर मनुष्य को प्रदान करता है, और तुम लोग यह जान पाओगे कि परमेश्वर की पवित्रता बेदाग एवं निष्कलंक है। परमेश्वर के ये सार मात्र ऐसे वचन नहीं हैं जिसे वह अपनी पहचान का दिखावा करने के लिए उपयोग करता है, परन्तु इसके बजाए परमेश्वर हर एक एवं प्रत्येक व्यक्ति के साथ खामोशी से एवं ईमानदारी से व्यवहार करने के लिए अपने सार का उपयोग करता है। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर का सार खोखला नहीं है, न ही यह सैद्धान्तिक या नियम सम्बन्धित है और यह निश्चित रूप से एक किस्म का ज्ञान नहीं है। यह मनुष्य के लिए एक प्रकार की शिक्षा नहीं है, परन्तु इसके बजाए परमेश्वर के स्वयं के कार्यों का सच्चा प्रकाशन है और यह जो कुछ परमेश्वर के पास है एवं जो वह है उसका प्रकाशित सार है। मनुष्य को इस सार को जानना एवं इसे समझना चाहिए, चूँकि हर एक चीज़ जिसे परमेश्वर करता है और हर वचन जिसे वह कहता है उसका हर एक व्यक्ति के लिए बड़ा मूल्य एवं बड़ा महत्व होता है। जब तुम परमेश्वर की पवित्रता को समझने लगते हो, तब तुम वास्तव में परमेश्वर में विश्वास कर सकते हो; जब तुम परमेश्वर की पवित्रता को समझने लगते हो, तब तुम वास्तव में इन शब्दों "स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है" के असली अर्थ का एहसास कर सकते हो। तुम आगे से कल्पना नहीं करोगे कि तुम अन्य मार्गों पर चलने का चुनाव कर सकते हो, और तुम आगे से हर एक चीज़ के प्रति विश्वासघात करने की इच्छा नहीं करोगे जिसे परमेश्वर ने तुम्हारे लिए व्यवस्थित किया है। क्योंकि परमेश्वर का सार पवित्र है; इसका मतलब है कि केवल परमेश्वर के माध्यम से ही तुम जीवन के आर पार उज्जवल, एवं सही मार्ग पर चल सकते हो; केवल परमेश्वर के माध्यम से ही तुम जीवन के अर्थ को जान सकते हो, केवल परमेश्वर के माध्यम से ही तुम वास्तविक जीवन को जी सकते हो, सच्चाई को धारण कर सकते हो, सच्चाई को जान सकते हो, और केवल परमेश्वर के माध्यम से ही तुम सच्चाई से जीवन प्राप्त कर सकते हो। केवल स्वयं परमेश्वर ही तुम्हें बुराई से दूर रहने में सहायता कर सकता है और शैतान की हानि एवं नियन्त्रण से छुटकारा दे सकता है। परमेश्वर के अलावा, कोई भी व्यक्ति एवं कोई भी चीज़ तुम्हें कष्ट के सागर से नहीं बचा सकती है ताकि तुम आगे से कष्ट न सहो: इसे परमेश्वर के सार के द्वारा निर्धारित किया जाता है। केवल स्वयं परमेश्वर ही इतने निःस्वार्थ रूप से तुम्हें बचाता है, केवल परमेश्वर ही अंततः तुम्हारे भविष्य के लिए, तुम्हारी नियति के लिए और तुम्हारे जीवन के लिए ज़िम्मेदार है, और वह तुम्हारे लिए सभी हालातों को व्यवस्थित करता है। यह कुछ ऐसा है जिसे कोई सृजा गया या न सृजा गया प्राणी हासिल नहीं कर सकता है। क्योंकि कोई सृजा गया या न सृजा गया प्राणी परमेश्वर के इस प्रकार के सार को धारण नहीं कर सकता है, किसी व्यक्ति या प्राणी में तुम्हें बचाने या तुम्हारी अगुवाई करने की योग्यता नहीं है। मनुष्य के लिए परमेश्वर के सार का यही महत्व है। कदाचित् तुम लोगों को लगे कि ये वचन जो मैंने कहे हैं वे सिद्धान्त में वास्तव में थोड़ी सहायता कर सकते हैं। परन्तु यदि तुम सत्य को खोज करते हो, यदि तुम सत्य से प्रेम करते हो, तो इसके बाद तुम्हारे अनुभव में ये वचन न केवल तुम्हारी नियति को बदल देंगे, बल्कि इससे अधिक जीवन के आर पार तुम्हें सही मार्ग पर ले आएँगे। तुम इसे समझते हो, क्या तुम समझते हो? (हाँ।) अतः परमेश्वर के सार को पहचानने में क्या अब तुम लोगों की कोई रूची है? (हाँ।) रूची लेना अच्छी बात है। आज हम यहाँ पर परमेश्वर की पवित्रता को पहचानने के अपने विषय पर बातचीत करना समाप्त करेंगे।

मैं तुम लोगों से किसी चीज़ के विषय में बात करना चाहता हूँ जिसे तुम लोगों ने किया था जिसने आज हमारी सभा के आरम्भ में मुझे आश्चर्य में डाल दिया था। कदाचित् तुम लोगों में से कुछ उस वक्त कृतज्ञता के एहसास को आश्रय दे रहे थे, या धन्यवादी महसूस कर रहे थे, और इस प्रकार जो कुछ तुम लोगों के मन में था तुम सब उसे शारीरिक रूप से व्यक्त करना चाहते थे। यह निन्दा से परे है, और न तो सही और न ही गलत है। परन्तु वह क्या है जो मैं तुम लोगों को बताना चाहता हूँ? जो कुछ तुम लोगों ने किया था वह गलत नहीं है और मैं किसी भी प्रकार से तुम लोगों की निन्दा नहीं करना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि तुम लोग कुछ समझो। यह क्या है? पहले मैं तुम लोगों से उसके विषय में पूछना चाहूँगा जिसे तुम लोगों ने अभी अभी किया था। क्या यह आराधना करने के लिए दण्डवत् (साष्टांग प्रणाम) करना था या घुटने टेकना था? क्या कोई मुझे बता सकता है? (हम विश्वास करते हैं कि यह दण्डवत् करना था। हम इस प्रकार से दण्डवत् करते हैं।) तुम लोग विश्वास करते हो कि यह दण्डवत् करना था, अतः फिर दण्डवत् का क्या अर्थ है? (आराधना।) अतः फिर आराधना करने के लिए घुटने टेकना क्या है? मैंने तुरन्त ही तुम लोगों से इसका जिक्र नहीं किया उसका कारण यह था क्योंकि संगति के लिए आज हमारा विषय बहुत ही महत्वपूर्ण है और मैं तुम लोगों के मिजाज़ को प्रभावित नहीं करना चाहता था। क्या तुम लोग अपनी सामान्य सभाओं में दण्डवत् करते हो? (नहीं।) जब तुम लोग अपनी प्रार्थनाएँ करते हो तब क्या तुम लोग दण्डवत् करते हो? (हाँ।) हर बार जब तुम लोग प्रार्थना करते हो तब क्या तुम लोग दण्डवत् करते हो, जब परिस्थितियाँ अनुमति देती हैं? (हाँ।) यह बहुत ही अद्भुत है। परन्तु वह क्या है जो मैं चाहता हूँ कि आज तुम लोग समझो? ऐसे दो प्रकार के लोग हैं जिनके घुटने टेकने के व्यवहार को परमेश्वर स्वीकार करता है। हमें बाइबल से या आध्यात्मिक चरित्रों के व्यवहार से परामर्श लेने की आवश्यकता नहीं है, और मैं अभी और यहीं पर तुम लोगों को कुछ सच्चाई बताना चाहता हूँ। पहला, दण्डवत् और आराधना करने के लिए घुटने टेकना एक ही चीज़ नहीं है। परमेश्वर उन लोगों के घुटने टेकने के व्यवहार को क्यों स्वीकार करता है जो स्वयं दण्डवत् करते हैं? यह इसलिए है क्योंकि परमेश्वर किसी व्यक्ति को अपने पास बुलाता है और ऐसे व्यक्ति को परमेश्वर के महान आदेश को स्वीकार करने के लिए कहता है, अतः वह परमेश्वर के लिए स्वयं दण्डवत् करता है। यह पहले प्रकार का व्यक्ति है। दूसरे प्रकार का व्यक्ति ऐसा व्यक्ति है जो आराधना करने के लिए घुटने टेकता है जो परमेश्वर का भय मानता और बुराई से दूर रहता है। सिर्फ दो ही प्रकार के ऐसे लोग हैं। अतः तुम लोग किस प्रकार के लोगों से सम्बन्धित हो? क्या तुम लोग कह सकते हो? यह एक तथ्यात्मक सच्चाई है, हालाँकि यह तुम लोगों की भावनाओं को थोड़ी चोट पहुँचा सकती है। प्रार्थना के दौरान लोगों के घुटने टेकने के व्यवहार के बारे में कहने के लिए कुछ नहीं है—यह उचित है और यह ऐसा है जैसा इसे होना चाहिए, क्योंकि जब लोग प्रार्थना करते हैं तो अधिकांशतः किसी चीज़ के लिए प्रार्थना करते हैं, परमेश्वर के लिए अपने हृदय को खोलते हैं और उसके आमने सामने आते हैं। यह परमेश्वर के साथ दिल से दिल तक पहुँचने वाला वार्तालाप एवं संवाद है। परन्तु जब मैं संगति में तुम लोगों के साथ मिलता हूँ, तो मैंने तुम लोगों से नहीं कहा कि तुम लोग स्वयं दण्डवत् करो। आज जो कुछ तुम लोगों ने किया है उसके लिए तुम लोगों की निन्दा करना मेरा अभिप्राय यह नहीं था। तुम लोग जानते हो कि मैं बस इसे तुम लोगों के लिए स्पष्ट करना चाहता हूँ ताकि तुम लोग इस सिद्धान्त को समझो, क्या तुम लोग नहीं समझते हो? (हम जानते हैं।) ताकि तुम लोग इसे लगातार न करते रहो। क्या तब लोगों के पास परमेश्वर के मुख के सामने दण्डवत् करने एवं घुटने टेकने का कोई अवसर होता है? हमेशा एक अवसर होगा। जल्दी या देर से ही सही ऐसा दिन आएगा, परन्तु वह समय अभी नहीं है। क्या तुम लोगों ने देखा? (हाँ।) क्या इसने तुम लोगों को उदास कर दिया है? (नहीं।) यह अच्छा है। हो सकता है कि ये वचन तुम लोगों को प्रेरित करेंगे या प्रेरणा देंगे जिससे तुम लोग अपने हृदय में परमेश्वर एवं मनुष्य के बीच की वर्तमान दुर्दशा को और अब उनके बीच में किस प्रकार का सम्बन्ध अस्तित्व में है उसको जान सकते हो। हालाँकि हमने हाल ही में काफी बातचीत एवं संवाद किया है, फिर भी परमेश्वर के विषय में मनुष्य की समझ अभी बिलकुल पर्याप्त नहीं है। परमेश्वर को समझने का प्रयास करने के लिए मनुष्य को अभी भी इस मार्ग पर बहुत दूर तक जाना है। मेरा इरादा यह नहीं है कि तुम लोगों से इस कार्य को शीघ्रता से करवाऊँ, या इस प्रकार की आकांक्षाओं या भावनाओं को व्यक्त करने के लिए तुम लोगों से जल्दबाज़ी करवाऊँ। आज जो कुछ तुम लोगों ने किया था वह शायद तुम लोगों की सच्ची भावनाओं को प्रकट एवं व्यक्त करता है, और मैंने इसका एहसास किया है। अतः जब तुम लोग इसे कर रहे थे, तब मैं बस खड़ा होना और तुम लोगों को अपनी शुभ कामनाएँ देना चाहता था, क्योंकि मैं तुम लोगों के भले की कामना करता हूँ। अतः मेरे हर वचन और हर कार्य में मैं तुम लोगों की सहायता करने के लिए, एवं तुम लोगों का मार्गदर्शन करने के लिए अपना भरसक प्रयास करता हूँ, ताकि तुम लोगों के पास सभी चीज़ों की सही समझ एवं सही दृष्टिकोण हो सके। तुम इसे समझ सकते हो? सही है? (हाँ।) यह बहुत अच्छा है। हालाँकि मनुष्य के पास परमेश्वर के विभिन्न स्वभाव, अर्थात् जो उसके पास है एवं जो वह है और वह कार्य जो परमेश्वर करता है उनके पहलुओं की कुछ समझ है, फिर भी इस समझ का अधिकांश भाग किसी पृष्ठ के शब्दों को पढ़ने, या सिद्धान्त में उन्हें समझने, या सिर्फ उनके बारे में सोचने की अपेक्षा ज़्यादा दूर नहीं जाता है। जिस बात की लोगों में अत्यंत घटी है वह सच्ची समझ एवं सच्चा दृष्टिकोण है जो वास्तविक अनुभव से आते हैं। यद्यपि परमेश्वर मनुष्य के हृदय को जागृत करने के लिए विभिन्न तरीकों का उपयोग करता है, फिर भी एक लम्बा मार्ग है जिस पर चलना है इससे पहले कि मनुष्य के दिलों को अन्ततः जागृत किया जाए। मैं किसी को ऐसा महसूस करते हुए नहीं देखना चाहता हूँ मानो परमेश्वर ने उन्हें बाहर ठण्ड में छोड़ दिया हो, यह कि परमेश्वर उन्हें त्याग दिया हो या उनसे मुँह फेर लिया हो। मैं सिर्फ हर एक व्यक्ति को बिना किसी सन्देह के, एवं बिना किसी बोझ को उठाए हुए, सत्य की खोज करने के लिए और परमेश्वर की समझ की खोज करने के लिए अटल इच्छा के साथ दृढ़ता से आगे बढ़ते रहने के मार्ग पर देखना चाहूँगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि तुमने क्या गलतियाँ की हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि तुम कितनी दूर तक भटक गए हो या तुमने कितने अधिक अपराध किए हैं, परमेश्वर को समझने हेतु अपने अनुसरण में इन चीज़ों को अपने साथ ढोने के लिए बोझ या अतिरिक्त सामान बनने मत दो: निरन्तर आगे की ओर बढ़ते जाओ। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि यह कब घटित होता है, परमेश्वर का हृदय जो मनुष्य का उद्धार है वह कभी नहीं बदलता है: यह परमेश्वर के सार का सबसे अधिक मूल्यवान हिस्सा है। क्या अब तुम लोग कुछ अच्छा महसूस कर रहे हो? (हाँ।) मैं आशा करता हूँ कि तुम लोग सभी चीज़ों और उन वचनों के प्रति सही दृष्टिकोण अपना सकते हो जिन्हें मैंने कहा है। आइए हम यहाँ पर इस संगति को समाप्त करें। सभी को अलविदा! (अलविदा!)

11 जनवरी, 2014

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