स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X

सब वस्तुओं के जीवन का स्रोत परमेश्वर है (IV) भाग चार

मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षा

1. स्वयं परमेश्वर की पहचान और पद

हम "परमेश्वर सभी चीज़ों के जीवन का स्रोत है" तथा "परमेश्वर स्वयं अद्वितीय है" विषय के अंत में आ गये हैं, ऐसा करने के बाद, हमें एक सार बनाने की आवश्यकता है। किस प्रकार का सार? स्वयं परमेश्वर के बारे में। चूंकि यह स्वयं परमेश्वर के बारे में है, तो यह परमेश्वर के हर पहलू तथा परमेश्वर में लोगों के विश्वास के स्वरूप से सम्बंधित होना चाहिए। और इसलिए, पहले मैं तुम लोगों से पूछना चाहता हूँ: प्रचार को सुनने के बाद, तुम्हारे मन की आंखों में परमेश्वर कौन है? (सृष्टिकर्ता।) परमेश्वर तुम्हारे मन की आंखों में सृष्टिकर्ता है। क्या कुछ और? परमेश्वर सभी बातों का प्रभु है; परमेश्वर वह है जो सभी चीज़ों पर राज्य करता है, और सभी चीज़ों का प्रबंधन करता है। जो कुछ है वह उसी ने रचा है, जो कुछ है उसकी व्यवस्था वही करता है और जो कुछ है उस पर वही राज्य करता है और सभी चीज़ें उसी के द्वारा पोषित होती हैं। यह परमेश्वर का पद और पहचान है। सभी चीजों के लिए और सब कुछ जो है, परमेश्वर की असली पहचान सृष्टिकर्ता की है, और वह सभी चीज़ों का शासक है। परमेश्वर की पहचान इस प्रकार की है और वह सभी बातों में अद्वितीय है। परमेश्वर की कोई भी रचना—चाहे वह मनुष्य के मध्य हो या आत्मिक दुनिया में हो—किसी भी साधन या बहाने का उपयोग करके परमेश्वर की पहचान और पद को परमेश्वर का वेष धारण करने या हटाने के लिए नहीं कर सकता, क्योंकि सभी बातों में वह ही एक है जो इस पहचान, शक्ति, अधिकार, और सभी बातों पर राज्य करने की योग्यता से सम्पन्न है: हमारा अद्वितीय परमेश्वर स्वयं। वह सभी वस्तुओं के बीच में रहता और चलता है, वह सभी चीज़ों के ऊपर सर्वोच्च स्थान तक उठ सकता है, वह मनुष्य बनकर अपने आपको को विनम्र बना सकता है, जो मांस और लहू के हैं उनके मध्य उनके जैसा बन सकता है, लोगों से रूबरू होकर उनके सुख—दुख बांट सकता है, साथ ही जो कुछ है सब उसी की आज्ञा के अधीन है और सभी चीज़ों का भाग्य और किस दिशा में इसे जाना है यह भी वही निश्चित करता है और इसके अलावा, वह सभी मनुष्यों के भाग्य का पथ और उसकी दिशा भी वही निर्धारित करता है। ऐसे परमेश्वर की आराधना, आज्ञा पालन होना चाहिए और सभी प्राणियों को उसे जानना चाहिये। और इसलिए, इस बात की परवाह किये बगैर कि तुम किस समूह और किस प्रकार के मनुष्यों से सम्बन्ध रखते हो, अपने प्रारब्ध के लिए परमेश्वर में विश्वास करना, परमेश्वर का अनुसरण करना, परमेश्वर का आदर करना, परमेश्वर के शासन को स्वीकार करना, और परमेश्वर की व्यवस्था को स्वीकार करना ही किसी भी इंसान के लिए, किसी जीव के लिए एकमात्र और आवश्यक विकल्प है। परमेश्वर की अद्वितीयता में, लोग देखते हैं कि उसका अधिकार, उसका धर्मी स्वभाव, उसका सार-तत्व, और वे सभी साधन जिनके द्वारा वह सभी का पोषण करता है, अद्वितीय हैं। उसकी अद्वितीयता, स्वयं परमेश्वर की पहचान को निश्चित करती है, और उसके पद को भी। और इसलिए, सभी प्राणियों के मध्य, यदि कोई जीवित प्राणी आत्मिक दुनिया में या मनुष्यों के मध्य में परमेश्वर की जगह में खड़ा होने की इच्छा रखता है, यह असंभव होगा, जैसे परमेश्वर का रूप धरने का प्रयास किया जा रहा हो। यह तथ्य है। ऐसे सृष्टिकर्ता और शासक की मनुष्य जाति से क्या अपेक्षाएं हैं, जिसके पास स्वयं परमेश्वर की पहचान है, शक्ति है और पद है? यह सब आज तुम सबको स्पष्ट हो जाना चाहिये, और तुम्हें याद रखना चाहिए और यह परमेश्वर और मनुष्य दोनों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है!

2. परमेश्वर के प्रति मनुष्य के विभिन्न व्यवहार

लोग परमेश्वर के प्रति कैसा बर्ताव करते हैं, यह उनका भविष्य निर्धारित करता है और यह निर्धारित करता है कि परमेश्वर कैसे उनके साथ पेश आएगा और व्यवहार करेगा। यहां पर मैं कुछ उदाहरण देने जा रहा हूँ कि कैसे लोग परमेश्वर से पेश आते हैं। आइये, कुछ सुनते हैं कि उनका ढंग और रवैया जिससे वे परमेश्वर के प्रति पेश आते हैं वे सही हैं या नहीं। आइये, हम इन सात प्रकार के लोगों के आचरण पर विचार करें:

क. एक प्रकार के लोग ऐसे होते हैं जिनका व्यवहार परमेश्वर के प्रति निश्चित रूप से बेतुका होता है। वे सोचते हैं कि परमेश्वर एक बोधिसत्व या मानव बुद्धि के पवित्र प्राणी जैसा है, और चाहता है कि जब वे मिलें तो लोग तीन बार उसके सामने झुकें और खाने के बाद उसके सामने अगरबत्ती जलाएं। और इस तरह जब, उनके हृदय में, वे परमेश्वर के प्रति उसके अनुग्रह के लिए धन्यवादी हैं, और परमेश्वर के प्रति आभारी हैं, तो अक्सर उनके अंदर इस तरह का संवेग आता है। वे ऐसी कामना करते हैं कि जिस परमेश्वर में वे आज विश्वास करते हैं, उस पवित्र सत्ता की तरह जिसके लिए वे मन में लालसा रखते हैं, वह अपने प्रति उनके उस व्यवहार को स्वीकार करे जिसमें वे तीन बार उसके सामने झुकते हैं जब वे मिलते हैं, और खाने के बाद अगरबत्ती जलाते हैं।

ख. कुछ लोग परमेश्वर को जीवित बुद्धा के रूप में देखते हैं जो सबकी परेशानियों को हटाने और उनको बचाने में सक्षम है; वे परमेश्वर को जीवित बुद्धा के रूप में देखते हैं जो उन्हें दुःख के सागर में से दूर ले जाने में सक्षम है। इन लोगों का विश्वास बुद्धा के रूप में परमेश्वर की आराधना करने में है। हालाँकि वे अगरबत्ती नहीं जलाते, प्रणाम नहीं करते, या भेंट नहीं देते, लेकिन उनके हृदय में उनका परमेश्वर एक बुद्धा है और केवल यह चाहता है कि वे बहुत दयालु और धर्मार्थ हों, कि वे किसी प्राणी को नहीं मारें, न दूसरों को गाली दें, ऐसा जीवन जियें जो ईमानदार दिखे, और कुछ भी गलत नहीं करें—केवल यही बातें। उनके हृदय में यही परमेश्वर है।

ग. कुछ लोग परमेश्वर की आराधना किसी महान या प्रसिद्ध व्यक्ति के रूप में करते हैं। उदहारण के लिए, यह महान व्यक्ति चाहे किसी भी साधन से बोलना पसंद करता हो, किसी भी अंदाज़ में बोलता हो, किसी भी शब्द और शब्दाबली का उपयोग करता हो, उसका लहजा, उसके हाथ का संकेत, उसके विचार और कार्य—वे उन सब की नकल करते हैं, और यह सब ऐसी बातें हैं जो उन्हें पूरी तरह से परमेश्वर में अपने विश्वास को पैदा करने के लिए उत्पन्न करना ज़रूरी है।

घ. कुछ लोग परमेश्वर को एक सम्राट के रूप में देखते हैं, वे सोचते हैं कि वह सबसे ऊँचा है, और कोई भी उसका अपमान करने की हिम्मत नहीं करता—और यदि वे ऐसा करते हैं तो उन्हें दण्डित किया जायेगा। वे ऐसे सम्राट की आराधना करते हैं क्योंकि उनके हृदय में सम्राट के लिए एक निश्चित जगह है। सम्राटों के विचार, तौर तरीके, अधिकार और स्वभाव—यहाँ तक कि उनकी रूचि और व्यक्तिगत जीवन—यह सब कुछ ऐसा बन जाता है जिसे इन लोगों को समझना जरुरी है, ऐसे मुद्दे और मामले हैं जो उनसे सम्बंधित हैं, और इसलिये वे परमेश्वर की आराधना एक सम्राट के रूप में करते हैं। इस तरह का विश्वास बेहूदा है।

च. कुछ लोगों का परमेश्वर के अस्तित्व में एक गहरा और अटूट खास विश्वास होता है। क्योंकि उनका परमेश्वर के बारे में ज्ञान छिछला होता है और उन्हें परमेश्वर के वचन का ज्यादा अनुभव नहीं होता, वे उसकी आराधना एक प्रतिमा के रूप में करते हैं। यह प्रतिमा उनके हृदय में एक ईश्वर है, यह कुछ ऐसा है जिससे उन्हें डरना चाहिए और उसके सामने झुकना चाहिए, और जिसका उन्हें अनुसरण और अनुकरण करना चाहिए। वे परमेश्वर को प्रतिमा की तरह देखते हैं, उन्हें जिसका जीवनभर अनुसरण करना है। वे उस लहजे की नकल करते हैं जिसमें ईश्वर बोलता है, और बाहरी रूप में वे उनकी नकल करते हैं जिन्हें परमेश्वर पसंद करता है। वे अक्सर ऐसे काम करते हैं जो भोले-भाले, शुद्ध, और ईमानदार दिखते हैं, और यहाँ तक कि वे एक ऐसे साथी के रूप में इस मूर्ति का अनुसरण करते हैं जिसका वे कभी हिस्सा नहीं बन सकते। यह उनके विश्वास का रूप है।

छ. कुछ लोग ऐसे हैं जिन्होंने परमेश्वर के बहुत सारे वचन पढ़े और उपदेश सुने होने बावजूद, अपने हृदय में महसूस करते हैं कि उनका परमेश्वर के प्रति पेश आने का एकमात्र सिद्धांत यह है कि उन्हें हमेशा चापलूस और खुशामद करने वाला होना चाहिए, या ईश्वर की प्रशंसा और सराहना इसी तरीके से करनी चाहिए जो वास्तविक न हो। वे विश्वास करते हैं कि ऐसा परमेश्वर ही परमेश्वर है जो चाहता है कि वे इसी तरह से पेश आएं, और यदि वे ऐसा नहीं करते हैं, तो वे कभी भी उसके क्रोध को भड़का सकते हैं, या उसके प्रति पाप करते हैं, और इस तरह पाप करने के परिणामस्वरुप ईश्वर उन्हें दण्डित करेगा। उनके हृदय में ईश्वर ऐसा है।

ज. और अब ऐसे लोगों की बहुतायत है जो परमेश्वर में आत्मिक सहारा प्राप्त करते हैं। क्योंकि वे इस जगत में रहते हैं, वे बिना शांति या आनंद के हैं, और उन्हें कहीं शांति प्राप्त नहीं होती है। परमेश्वर को प्राप्त करने के बाद, जब वे उसके वचनों को देख और सुन लेते हैं, अंदर ही अंदर उनका हृदय आनंदित और मगन हो जाता है। और ऐसा क्यों होता है? उन्हें लगता है कि उन्होंने आखिर में वह प्राप्त कर लिया है जो उनके लिए आनंद लायेगा, कि उन्होंने आखिरकार वह ईश्वर प्राप्त कर लिया है जो उन्हें आत्मिक सहारा देगा। ऐसा इसलिए क्योंकि, परमेश्वर को स्वीकार करने और अनुकरण करने के बाद, वे खुश हैं, उनके जीवन में संतुष्टि आ जाती है, वे अब उन अविश्वासियों के समान नहीं हैं, जो जीवन में जानवरों की तरह नींद में चलते हैं, और अब वे महसूस करने लगते हैं कि उनके पास जीवन में आगे देखने के लिए कुछ है। इस प्रकार, उन्हें लगता है कि यह ईश्वर उनकी आत्मिक जरूरतें पूरी कर सकता है और मन और आत्मा दोनों में एक बड़ा आनंद ला सकता है। बिना इसका अहसास किए, वे ऐसे ईश्वर को छोड़ नहीं पाते जो उन्हें आत्मिक सहारा देता है, जो उनके आत्मा और पूरे परिवार में आनंद लाता है। वे मानते हैं कि ईश्वर में विश्वास को उनके जीवन में आत्मिक सहारा लाने से ज्यादा कुछ और करने की जरुरत नहीं है।

क्या परमेश्वर के प्रति इस प्रकार का मनोभाव रखने वाले लोग तुम्हारे बीच में हैं? (हां, हैं।) यदि उनके ईश्वर को मानने में, किसी के हृदय में इस प्रकार का रवैया है, क्या वे सही मायने में परमेश्वर के सम्मुख आने के योग्य हैं? यदि किसी के हृदय में इसमें से एक भी प्रकार का रवैया है, तो क्या वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं? क्या वे परमेश्वर स्वयं अद्वितीय में विश्वास रखते हैं? चूंकि तुम स्वयं अद्वितीय परमेश्वर में विश्वास नहीं करते तो तुम किसमें विश्वास करते हो? यदि तुम जिसमें विश्वास करते हो वह स्वयं अद्वितीय परमेश्वर नहीं है, तो यह संभव है कि तुम किसी प्रतिमा में विश्वास करते हो, या एक महान आदमी में, या एक बोधिसत्व में, कि तुम अपने हृदय में बुद्ध की आराधना करते हो। और इसके अलावा, यह भी संभव है कि तुम किसी साधारण व्यक्ति में विश्वास करते हो। संक्षेप में, परमेश्वर के प्रति लोगों के विभिन्न विश्वास और रवैये के कारण, लोग परमेश्वर को अपने संज्ञान के अनुसार हृदय में जगह देते हैं, वे परमेश्वर के ऊपर अपनी कल्पनाएँ थोप देते हैं, वे परमेश्वर के बारे में अपना रवैया और कल्पनायें स्वयं अद्वितीय परमेश्वर के साथ साथ रखते हैं, और उनका उत्सव मनाने के लिए उन्हें पकडे रहते हैं। जब लोग परमेश्वर के प्रति इस प्रकार का अनुचित दृष्टिकोण रखते हैं तो इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि उन्होंने स्वयं सच्चे परमेश्वर को अस्वीकार कर दिया है और झूठे ईश्वर की आराधना करते हैं, इसका मतलब है कि ठीक उसी समय जब वे परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, वे परमेश्वर को अस्वीकार करते हैं, और उसका विरोध करते हैं, और यह कि वे सच्चे परमेश्वर के अस्तित्व से इंकार करते हैं। यदि लोग इस प्रकार का विश्वास रखेंगे, उनके लिए क्या परिणाम होंगे? इस प्रकार के विश्वास के साथ, क्या वे कभी परमेश्वर की अपेक्षा को पूरा करने के निकट आ पाएंगे? इसके विपरीत, अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के कारण, ये लोग परमेश्वर के पथ से दूर होते जाएंगे, वे जिस दिशा की खोज में लगे हैं वह उससे ठीक विपरीत है जिस दिशा की अपेक्षा परमेश्वर उनसे करता है। क्या कभी तुमने वो कहानी सुनी है "रथ को उत्तर की ओर चलाकर दक्षिण की ओर जाना?" यह ठीक उत्तर की ओर रथ चला कर दक्षिण की ओर जाने का मामला हो सकता है। यदि लोग परमेश्वर में इस ऊंटपटांग तरह से विश्वास करेंगे तो तुम जितनी मेहनत करोगे, तुम परमेश्वर से उतना ही दूर होते जाओगे। और इसलिए मैं तुम्हें यह चेताता हूँ: इससे पहले कि तुम आगे बढ़ो, तुम्हें पहले यह जरुर देखना चाहिये कि तुम सही दिशा में जा रहे हो कि नहीं? अपने प्रयासों को लक्षित करो, और खुद से यह अवश्य पूछो, "क्या यह ईश्वर जिस पर मैं विश्वास रखता हूँ वह सभी चीज़ों पर राज्य करता है? जिस ईश्वर में मैं विश्वास रखता हूँ क्या वह मात्र कोई ऐसा है जो मुझे आत्मिक सहारा देता है? क्या वह मेरा आदर्श है? जिस ईश्वर में मैं भरोसा करता हूँ उसे मुझसे क्या अपेक्षा है? क्या ईश्वर वह सब कुछ जो मैं करता हूँ उसे स्वीकृत करता है? परमेश्वर को जानने के लिये जो मैं करता और खोजता हूं, क्या वे सब परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुकूल हैं? जिस पथ पर मैं चलता हूँ क्या वह परमेश्वर के द्वारा मान्य और स्वीकृत है? क्या परमेश्वर मेरे विश्वास से संतुष्ट है?" तुम्हें अक्सर और बार बार यह सवाल अपने आप से पूछते रहने चाहिए। यदि तुम परमेश्वर को जानने की इच्छा रखते हो, तो तुम्हारे पास एक स्पष्ट विवेकशीलता और स्पष्ट उद्देश्य जरुर होना चाहिए, तभी तुम परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हो।

क्या यह संभव है कि अपनी सहनशीलता के कारण, परमेश्वर अनिच्छा से इन अनुचित रवैयों को स्वीकार करेगा जिनके बारे में मैंने अभी बताया है? क्या परमेश्वर इन लोगों के रवैयों की सराहना कर सकेगा? परमेश्वर की अपेक्षा मनुष्य से और उनसे जो उसका अनुकरण करते हैं, क्या है? क्या तुम्हें यह स्पष्ट है कि वह किस प्रकार के रवैये की अपेक्षा लोगों से करता है? आज मैं बहुत कह चुका, स्वयं परमेश्वर के इस विषय पर और साथ ही परमेश्वर के कार्यों और वह जो है, इन सब पर आज मैं बहुत बोल चुका हूँ। क्या अब तुम जानते हो कि परमेश्वर की लोगों से क्या प्राप्त करने की इच्छा है? क्या तुम जानते हो कि परमेश्वर तुमसे क्या चाहता है? बोलो। यदि तुम्हारे अनुभवों और अभ्यासों से प्राप्त ज्ञान में अभी भी कमी है या वह सतही है, तो तुम इन वचनों के अपने ज्ञान के बारे में कुछ कह सकते हो। क्या तुम्हारे पास ज्ञान का सारांश है? परमेश्वर मनुष्य से क्या चाहता है? (इन कुछ संगतियों के दौरान, परमेश्वर ने इस बात को महत्व दिया है कि, हम परमेश्वर को जानें उसके कामों को जानें, यह जानें कि परमेश्वर ही सभी चीज़ों के जीवन का स्रोत है, और वह चाहता है कि हम उसके पद और सारूप्य को जानें। और परमेश्वर के जीव होने के नाते अपने कर्तव्य को जानें। उसने स्पष्ट शब्दों में बता दिया हमें अपने सभी प्रयास किन कार्यों को समर्पित करने चाहिए, वह हमसे क्या अपेक्षा करता है, किस प्रकार के लोगों को वह पसंद करता है, और किनसे वह घृणा करता है।) और जब परमेश्वर कहता है कि लोग उसे जानें, तो उसका अंतिम परिणाम क्या होता है? (वे जानते हैं कि परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, और लोग सृजित प्राणी हैं।) जब वे इस प्रकार का ज्ञान पा लेते हैं, तो परमेश्वर के प्रति लोगों के रवैये में, उनके व्यवहार में, कार्यान्वय के तरीके में, या उनके स्वभाव में क्या बदलाव आता है? क्या तुमने कभी इस बारे में सोचा है? क्या यह कहा जा सकता है कि परमेश्वर को जानने के बाद, और उसको समझने के बाद, वे भले व्यक्ति बन जाएंगे? (परमेश्वर पर विश्वास करना एक भला आदमी बनने का लक्ष्य अनुसरण नहीं है।) तो वे किस प्रकार के व्यक्ति बनने चाहिए? (वे परमेश्वर की योग्य रचना होने चाहिए।) (उन्हें ईमानदार होना चाहिए।) क्या कुछ और भी है? (परमेश्वर को सही और स्पष्ट रूप से जानने के बाद, हम परमेश्वर से परमेश्वर रूप में व्यवहार कर पाएंगे, हम सदा-सदा के लिए जानने लगेंगे कि परमेश्वर ही परमेश्वर है और हम रचे हुए प्राणी हैं, हमें परमेश्वर की आराधना करनी चाहिए और उसी चीज़ पर टिके रहना चाहिए।) बहुत अच्छा! आइये, कुछ अन्य लोगों से भी सुनें। (हम परमेश्वर को जानते हैं, अंत में हम वे लोग हो पाए हैं जो वास्तव में परमेश्वर की आज्ञा मानते हैं, परमेश्वर को आदर देते हैं और बुराई से अलग रहते हैं।) बिल्कुल सही।

3. वह दृष्टिकोण जो परमेश्वर चाहता है कि लोगों में परमेश्वर के प्रति होना चाहिए

वास्तव में, परमेश्वर लोगों से ज्यादा अपेक्षा नहीं करता—कम से कम, उसे उतनी अपेक्षा नहीं जितनी लोग कल्पना करते हैं। परमेश्वर की वाणी के बिना, या उसके स्वभाव की किसी अभिव्यक्ति, कार्य या वचन के बिना, परमेश्वर को जानना तुम्हारे लिए बहुत कठिन है, क्योंकि लोगों को परमेश्वर की इच्छा और इरादों का निष्कर्ष निकालना पड़ेगा, जो उनके लिए बहुत कठिन है। लेकिन उसके कार्य के अंतिम चरण के बारे में, परमेश्वर ने बहुत से वचन कहे हैं, बहुत सारा काम किया है, और मनुष्य से बहुत-सी अपेक्षाएं की हैं। उसने अपने वचनों में और अपने विशाल कार्य में लोगों को बता दिया है कि उसे क्या पसंद है, उसे किससे घृणा है, और उन्हें किस प्रकार मनुष्य बनना चाहिए। इन बातों को समझने के बाद, लोगों के हृदय में परमेश्वर की अपेक्षा की सही परिभाषा होनी चाहिए, क्योंकि वे परमेश्वर में अस्पष्टता और अमूर्तता के बीच विश्वास नहीं करते, और वे अब अस्पष्ट परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, या अस्पष्टता और अमूर्तता और शून्यता के बीच परमेश्वर का अनुसरण नहीं करते हैं; बल्कि लोग परमेश्वर के कथन को सुनने के योग्य हैं, उसकी अपेक्षा के स्तर को समझने में वे सक्षम हैं, और उन्हें प्राप्त कर पाते हैं, और परमेश्वर मनुष्य की भाषा का उपयोग लोगों को वह सब बताने में करता है जो उन्हें जानना और समझना चाहिए। आज भी, यदि लोग इस बात से अनजान हैं कि परमेश्वर की उनसे क्या अपेक्षा है, परमेश्वर क्या है, वे परमेश्वर में क्यों विश्वास करते हैं और उन्हें कैसे परमेश्वर में विश्वास करना चाहिए, और कैसे उससे व्यवहार करना चाहिए तो इसमें फिर समस्या है। अभी तुम सबने एक क्षेत्र के बारे में बोला; तुम लोग कुछ बातों से परिचित हो, चाहे वे बातें विशिष्ट हों या सामान्य—लेकिन मैं तुमको परमेश्वर की मनुष्य से सही, पूर्ण और विशिष्ट अपेक्षा बताना चाहता हूँ। वे केवल कुछ शब्द हैं और बहुत साधारण हैं। तुम लोग पहले से ही इन शब्दों को जानते होगे। परमेश्वर की मनुष्य से सही अपेक्षा और जो उनका अनुसरण करते हैं इस प्रकार हैं। परमेश्वर जो उसका अनुसरण करते हैं, उनसे पांच बातें चाहता हैः सही विश्वास, वफादार अनुकरण, पूर्ण आज्ञापालन, सच्चा ज्ञान और हृदय से आदर।

इन पांच बातों में, परमेश्वर चाहता है कि लोग उससे अब सवाल ना करें, और न ही अपनी कल्पना या मिथ्या और अमूर्त दृष्टिकोण के उपयोग द्वारा उसका अनुसरण करें; वे कल्पनाओं और धारणाओं के साथ उसका अनुसरण न करें। परमेश्वर चाहता है कि जो उसका अनुसरण करते हैं, वे पूरी वफादारी से करें, ना कि आधे-अधूरे हृदय से या बिना किसी प्रतिबद्धता के। जब परमेश्वर तुमसे कोई अपेक्षा करता है, या तुम्हारा परीक्षण करता है, तुम्हारा न्याय करता है, तुमसे व्यवहार करता है और तुम्हें छांटता है, या तुम्हें अनुशासित करता और दंड देता है, तो तुम्हें पूर्ण रूप से उसकी आज्ञा माननी चाहिए। तुम्हें कारण नहीं पूछना चाहिए, या शर्त नहीं रखनी चाहिए, और न तुम्हें तर्क करना चाहिए। तुम्हारी आज्ञाकारिता पूर्णरूपेण होनी चाहिए। परमेश्वर को जानना एक ऐसा क्षेत्र है जिसको लोग बहुत कम जानते हैं। वे अक्सर परमेश्वर पर कथन, उक्ति, और वचन थोपते हैं जो उससे संबंधित नहीं होते, ऐसा यह विश्वास करते हुए कि ये शब्द परमेश्वर के ज्ञान की सबसे मुख्य परिभाषा है। उन्हें पता नहीं कि ये बातें, जो लोगों की कल्पनाओं से आती हैं, उनके अपने तर्क, और अपनी बुद्धि से आती हैं, परमेश्वर के सार-तत्व से उनका ज़रा भी सम्बन्ध नहीं होता। और इसलिए, मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ कि परमेश्वर द्वारा इच्छित लोगों के ज्ञान में, परमेश्वर मात्र यह नहीं कहता कि तुम परमेश्वर और उसके वचनों को पहचानो बल्कि यह कि परमेश्वर का तुम्हारा ज्ञान सच्चा हो। यदि तुम एक वाक्य भी बोल सको, या कुछ ही चीज़ों के बारे में जानते हो, तो यह थोड़ी-बहुत जागरुकता सही और सच्ची है, और स्वयं परमेश्वर के सार-तत्व के अनुकूल है। क्योंकि परमेश्वर लोगों की अवास्तविक और अविवेकी प्रशंसा और सराहना से घृणा करता है। और तो और, जब लोग उससे हवा समझकर पेश आते हैं तो वह इससे घृणा करता है। जब परमेश्वर से जुड़े विषय पर लोग हल्केपन से पेश आते हैं, जैसा चाहे और बेझिझक, जैसा ठीक लगे बोलते हैं तो वह इससे घृणा करता है; इसके अलावा, वह उनसे भी नफरत करता है जो यह कहते हैं कि वे परमेश्वर को जानते हैं, और परमेश्वर के ज्ञान के बारे में डींगे मारते हैं, परमेश्वर के बारे में बिना किसी रुकावट या विचार किए बोलते हैं। उन पांच अपेक्षाओं में अंतिम अपेक्षा थी हृदय से आदर करना। यह परमेश्वर की परम अपेक्षा है उनसे जो उसका अनुसरण करते हैं। जब किसी के पास परमेश्वर का सही और सत्य ज्ञान है, तो वे परमेश्वर का सच में आदर करने में और बुराई से दूर रहने में सक्षम होते हैं। यह आदर उनके हृदय की गहराई से आता है, यह इच्छा से है, और इस कारण नहीं कि परमेश्वर उन पर दबाव डालता है। परमेश्वर यह नहीं कहता कि तुम किसी अच्छे रवैये, आचरण, या उसके लिए बाहरी व्यवहार का एक उपहार बनाओ; बल्कि वह कहता है कि तुम उसे हृदय की गहराई से आदर दो और उस से डरो। यह आदर तुम्हारे जीवन के स्वभाव के बदलाव से प्राप्त होता है, क्योंकि तुम्हारे पास परमेश्वर का ज्ञान है, क्योंकि तुम्हारे पास परमेश्वर के कामों की समझ है, तुम्हारे परमेश्वर के सार-तत्व की समझ के कारण और क्योंकि तुम इस तथ्य को मानते हो कि तुम परमेश्वर की एक रचना हो। और इसलिए, "हृदय से" शब्द का उपयोग करने का मेरा लक्ष्य आदर को समझाने के लिए है ताकि मनुष्य समझें कि लोगों का परमेश्वर के लिए आदर उनके हृदय की गहराई से आना चाहिए।

अब उन पांच अपेक्षाओं पर विचार करें: क्या तुम्हारे बीच में कोई है जो प्रथम तीन को प्राप्त कर सकता हो? इससे मेरा मतलब सच्चा विश्वास, वफादार अनुसरण, और सम्पूर्ण आज्ञापालन। क्या तुममें से कोई है जो इन चीजों में समर्थ हो? मैं जानता हूँ यदि मैंने सभी पांच के लिए कहा होता तो निश्चित रूप से तुम में से कोई नहीं होता—लेकिन मैंने इसे तीन तक कर दिया है। इसके बारे में सोचें कि तुम इन्हें प्राप्त कर चुके हो या नहीं। क्या "सच्चा विश्वास" प्राप्त करना सरल है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) यह सरल नहीं है, उन लोगों के लिए जो अक्सर परमेश्वर से प्रश्न करते रहते हैं। क्या वफादार अनुसरण प्राप्त करना सरल है? (नहीं, सरल नहीं है।) "वफादार" से क्या तात्पर्य है? (आधे हृदय से नहीं बल्कि पूरे हृदय से।) हां, आधे-अधूरे हृदय से नहीं पूरे हृदय से। तुमने तीर निशाने पर लगाया है! तो क्या तुम इस अपेक्षा को प्राप्त करने में सक्षम हो? तुम्हें कड़ी मेहनत करनी होगी—अभी तुम्हें इस अपेक्षा को प्राप्त करना बाकी है! "पूर्ण आज्ञापालन" की बात करें तो-क्या तुमने इसे प्राप्त कर लिया है? (नहीं।) तुमने इसे भी प्राप्त नहीं किया है। तुम अक्सर आज्ञा पालन नहीं करते, और विरोधी हो जाते हो, तुम अक्सर नहीं सुनते, या मानना नहीं चाहते, या सुनना नहीं चाहते। ये तीन मूलभूत अपेक्षाएं हैं जिन्हें लोग जीवन में प्रवेश करने के बाद प्राप्त कर लेते हैं। और तुम्हें अभी उन्हें प्राप्त करना बाकी है। तो, इस वक्त, क्या तुम्हारे अंदर पूरी क्षमता है? आज जब मैंने ये बातें कहीं तो क्या तुम इससे चिंतित महसूस कर रहे हो? (हां!) तुम्हारा चिंतित होना सही है-तुम्हारे बदले में मैं चिंतित महसूस कर रहा हूँ! मैं अन्य दो अपेक्षाओं पर नहीं जाऊंगा; इसमें कोई संदेह नहीं कि इन्हें कोई भी हासिल करने में सक्षम नहीं है। तुम चिंतित हो। तो क्या तुमने अपने लक्ष्य निर्धारित कर लिए हैं? तुम्हारे लक्ष्य क्या हों, तुम्हारी दिशा क्या हो और तुम्हें अपने प्रयास और अनुसरण किधर लगाने चाहिए? क्या तुम्हारा कोई लक्ष्य है? अगर सीधे तौर पर कहूं: जब तुम ये पांच बातें प्राप्त कर लोगे, तुम परमेश्वर को संतुष्ट कर पाओगे। उनमें से प्रत्येक एक सूचक है, लोगों के जीवन में प्रवेश करके परिपक्वता में पहुँचने का सूचक और इसके अंतिम लक्ष्य का सूचक। यदि मैं इन अपेक्षाओं में से एक को भी विस्तार से बोलने के लिए चुनूं और तुमसे अपेक्षा करूं, तो इसे हासिल करना आसान नहीं होगा; लोगों को कुछ हद तक कठिनाई झेलनी पडेगी और विशेष प्रयास करने होंगे। और तुम्हारी मानसिकता किस प्रकार की होनी चाहिए? यह एक कैंसर के मरीज के समान होनी चाहिए जो ऑपरेशन की टेबल पर जाने का इन्तजार कर रहा है। और मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? यदि तुम परमेश्वर में विश्वास करने की इच्छा रखते हो, परमेश्वर को, और उसकी को संतुष्टि प्राप्त करना चाहते हो, लेकिन तुम कुछ हद कष्ट सहन नहीं करते, विशेष प्रयास नहीं करते तो तुम इन चीजों को प्राप्त करने में सक्षम नहीं होगे। तुमने बहुत प्रचार सुना है, मगर इसको सुनने का यह मतलब नहीं कि प्रचार तुम्हारा हो गया, तुम्हें इसे सुनकर आत्मसात करना चाहिए और इसे किसी ऐसी वस्तु में परिवर्तित करना चाहिए जो तुमसे सम्बंधित हो, तुम्हें इसे अपने जीवन में आत्मसात कर लेना चाहिए, और इसे अपने अस्तित्व में ले आना चाहिए, ताकि ये वचन और प्रचार तुम्हारे जीने के तरीके की अगुवाई करें, और तुम्हारे जीवन में अस्तित्व पूरक मूल्य और अर्थ लायें—और तब तुम्हारा इन वचनों को सुनना मूल्य रखेगा। यदि ये शब्द जो मैंने कहे हैं, तुम्हारे जीवन में कोई सुधार नहीं लाते, या तुम्हारे अस्तित्व में कोई मूल्य नहीं लाते, तो तुम्हारा इन्हें सुनना कोई अर्थ नहीं रखता। तुम इसे समझते हो? इसको समझने के बाद बाकी सब तुम पर है। तुम्हें काम पर लग जाना चाहिए! तुम्हें इन सभी बातों में ईमानदार होना चाहिए! दुविधा में मत रहो-समय भाग रहा है! तुम में से बहुत से दस साल से ज्यादा से विश्वास करते आ रहे हैं। इन दस सालों के विश्वास को पलटकर देखो: तुमने क्या पाया है? तुम्हारे और कितने दशक इस जीवन के बाकी हैं? अधिक समय नहीं बचा। तुम जो भी करो, यह न कहो कि परमेश्वर अपने काम में तुम्हारा इन्तजार करता है और तुम्हारे लिए अवसरों को बचाता है। परमेश्वर निश्चित रूप से पलटकर वही काम नहीं करेगा। क्या तुम अपने दस साल वापिस ला सकते हो? तुम्हारा गुज़रते हुए हर एक दिन और उठते हुए हर कदम के साथ, जो दिन तुम्हारे पास हैं, उनमें से एक दिन कम हो जाता है, घट जाता है, है ना? समय किसी के लिए इन्तजार नहीं करता! तुम परमेश्वर में विश्वास से तभी प्राप्त करोगे, जब तुम इसे अपने जीवन की सबसे बड़ी चीज समझोगे, खाने, कपडे, या किसी अन्य चीज से ज्यादा महत्वपूर्ण समझोगे! यदि तुम केवल तभी विश्वास करो जब तुम्हारे पास समय हो, और अपना पूरा ध्यान अपने विश्वास को समर्पित करने में असमर्थ हो, यदि हमेशा किसी तरह से काम चलाओ और दुविधा में रहो तो तुम कुछ भी प्राप्त नहीं करोगे। इस बात को समझ रहे हो? हम आज यहीं समाप्त करेंगे। फिर मिलेंगे! (परमेश्वर को धन्यवाद!)

15 फरवरी, 2014

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