दूसरों को अनुशासित करने के लिए स्वयं के साथ कठोर रहें
सामान्य कामकाज में एक बुज़ुर्ग बहन के साथ मेरी घनिष्ठ कार्य भागीदारी थी। कुछ समय उसके साथ काम करने के बाद, मैंने उसे उसके काम में लापरवाह पाया और यह पाया कि वह सत्य को स्वीकार नहीं करती थी। वैसे तो, मैंने उसके बारे में एक राय कायम कर ली थी। धीरे-धीरे हमारे बीच का सामान्य रिश्ता खो गया, हम एक दूसरे के साथ अच्छे से नहीं निभा सकते थे, और कार्य में एक दूसरे के साथ भागीदारी करने में असमर्थ थे। मुझे लगता था कि यह अधिकतर उसका दोष था कि हमारा रिश्ता इस स्थिति तक पहुँच गया था, और इसलिए मैंने उनके साथ संवाद करने के सभी तरीकों को समझने की कोशिश की ताकि वह खुद को समझ सके। लेकिन उसके साथ संवाद करने के मेरे सभी प्रयास अंततः बेकार अथवा यहाँ तक कि प्रतिकूल भी रहे। अंत में हमारे रास्ते अलग हो गए, और हमारे मुद्दे अनसुलझे रह गए। इससे मुझे और अधिक विश्वास हो गया कि वह सत्य को स्वीकार करने वाली महिला नहीं थी। उसके बाद, कलीसिया ने एक अन्य मेज़बान परिवार के साथ मेरे रहने की व्यवस्था कर दी। इसके तुरंत बाद, मुझे पता चला कि मेज़बान परिवार के भाई-बहन के साथ भी कई परेशानियाँ मौज़ूद थी, और मैंने उनके साथ संवाद करने के लिए एक बार फिर से "मेहनत" की, लेकिन मेरे सभी प्रयास निष्फल रहे, और उन्होंने मेरे विरुद्ध पूर्वाग्रह रखने आरंभ कर दिए। इन परिस्थितियों का सामना करके, मैं बहुत परेशानी और उलझन में पड़ गई थी: जिन लोगों से मैं मिलती हूँ वे सत्य को स्वीकार क्यों नहीं करते हैं? और फिर एक दिन, कार्य पर बुरी स्थिति में चलते हुए, मुझे समस्या के स्रोत का पता चला।
एक दिन, अगुआ ने मेरे लिए व्यवस्था की मैं उसके लिए कार्य-व्यवस्था भेजूँ, और मैंने इसे उस तक पहुँचाने के लिए बुजुर्ग बहन को सुपुर्द किया। कौन जान सकता था कि एक सप्ताह बाद, वह पैकेट जस-का-तस पुनः मुझे वापस भेज दिया जाएगा। ऐसी स्थिति का सामना करके, मैं दंग रह गई और मामले को लापरवाही से सँभालने के लिए, दोष उस बुजुर्ग बहन पर डाल दिया, जिसके परिणामस्वरूप वह पैकेट अगुआ तक नहीं पहुँचाया गया था। इसके बाद कुछ दिनों तक अगुआ से भी कोई संपर्क नहीं हुआ, और मुझे अनिश्चितता महसूस होने लगी: आमतौर पर यदि कोई चीज़ पहुँचाई नहीं जाती है या देरी से भेजी जाती है, तो अगुआ स्थिति के बारे में पूछताछ करने के लिए फ़ोन करेगी। इस बार उसने मुझसे संपर्क क्यों नहीं किया? क्या वह मुझे मेरे कर्तव्य को करने से रोकने का प्रयास कर रही है। मेरा डर लगातार बढ़ता गया—मेरे विचार चिंता और अफ़सोस से भर गए थे। मैं परमेश्वर के समक्ष गिरने के अलावा और कुछ नहीं कर सकती थी, "परमेश्वर, मैं दिल से बहुत निराशा और द्वंद्व महसूस करती हूँ। कार्य व्यवस्था जस-की-तस मुझे भेज दी गई है। मैं नहीं जानती कि क्या हो रहा है, और मैं अनिश्चित हूँ कि इस स्थिति का सामना करने पर मेरा कौन सा पहलू सिद्ध किया जाएगा? कृपा करके मेरी अगुआई कर मुझे प्रबुद्ध कर और तेरी इच्छा को समझने में मेरी सहायता कर।" प्रार्थना के तुरंत बाद ही, परमेश्वर के वाक्यांशों में से एक मेरे मेरे मस्तिष्क में कोंधने लगा, "जब कभी भी तुम कुछ करते हो तो गड़बड़ हो जाती है या तुम्हारे सामने कोई अवरोध आ जाता है। यह परमेश्वर का अनुशासन है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा)। मुझे अचानक एहसास हुआ कि कार्य के दौरान जिन मुद्दों का मैं सामना कर रही थी, बुज़ुर्ग बहन के साथ बुरी साझेदारी, और मेज़बान परिवार के भाई-बहन की राय; क्या ये सब मेरी परिस्थितियों के माध्यम से मेरे साथ निपटने के परमेश्वर के तरीके नहीं थे? मैंने चुपचाप परमेश्वर को पुकारा, "परमेश्वर, मैं जानती हूँ कि तू मुझे अनुशासित करता है और मुझसे निपटता है क्योंकि तू मुझे प्रेम करता है, किन्तु मेरी समझ नहीं आता है कि इन परिस्थितियों को उत्पन्न करके मेरे किन पहलुओं को तू संबोधित करना चाहता है। मैं तुझसे प्रार्थना करती हूँ कि मेरी अगुआई कर और मुझे प्रबुद्ध बना।" बाद में, जब मैं परमेश्वर के वचन को खा और पी रही थी, तो मैंने इन दो अंशों को देखा, "पहले तुम्हें परमेश्वर पर भरोसा करके अपने भीतर की सभी कठिनाइयों को हल करना होगा। अपने पतित स्वभाव को छोड़ दो और अपनी अवस्था को वास्तव में समझने में सक्षम बनो और यह जानो कि तुम्हें कैसे व्यवहार करना चाहिए; जो कुछ भी तुम्हें समझ में न आए, उसके बारे में सहभागिता करते रहो। व्यक्ति का खुद को न जानना अस्वीकार्य है। पहले अपनी बीमारी ठीक करो, और मेरे वचनों को खाने और पीने और उन पर चिंतन-मनन द्वारा, अपना जीवन मेरे वचनों के अनुसार जीओ और उन्हीं के अनुसार अपने कर्म करो; चाहे तुम घर पर हो या किसी अन्य जगह पर, तुम्हें परमेश्वर को अपने भीतर शक्ति के प्रयोग की अनुमति देनी चाहिए" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 22)। "जब कोई समस्या आ पड़ती है, तो तुम्हारा दिमाग ठंडा और रवैया सही होना चाहिए, और तुम्हें कोई विकल्प चुनना चाहिए। समस्या को हल करने के लिए तुम्हें सत्य का उपयोग करना सीखना चाहिए। सामान्य स्थिति में, कुछ सत्यों को समझने का क्या उपयोग है? यह तुम्हारा पेट भरने के लिए नहीं होता, और यह तुम्हें केवल कहने को कुछ देने के लिए नहीं है, और न ही यह दूसरों की समस्याओं को हल करने के लिए है। ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि इसका उपयोग तुम्हारी अपनी समस्याओं, अपनी कठिनाइयों को हल करने के लिए है—खुद की कठिनाइयों को सुलझाने के बाद ही तुम दूसरों की कठिनाइयों को हल कर सकते हो" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'भ्रमित लोगों को बचाया नहीं जा सकता')। परमेश्वर के वचन एक चमकती बिजली की कोंध जैसे थे। हाँ, जब चीज़ें घटित होती हैं, तो सर्वप्रथम हमें स्वयं को जानना चाहिए, और हमारे भीतर की मुश्किलों को हल करने के लिए सत्य का उपयोग करना चाहिए। अपनी स्थिति को सुधार कर, हम अपनी समस्याओं को हल करते हैं, और फलस्वरूप अन्य लोगों की समस्याओं का समाधान करना संभव हो जाता है। लेकिन घटनाओं के घटित होते समय मैं स्वयं को नहीं जानती थी, और दूसरों पर अपनी नज़रें रखती थी, जब भी संभव होता उनकी गलतियाँ निकालती थी। जब ताल-मेल सहज नहीं होता, तो मैं इसे दूसरों के मत्थे मढ़ देती थी, और उनसे बातचीत करने के रास्ते निकालने का प्रयास करती थी, उन्हें उनके सबक सिखाती और उन्हें स्वयं को ज्ञात करवाती। जब मेज़बान परिवार के भाई-बहन मेरी बातों को सुनने के लिए इच्छुक नहीं होते थे, तो मैं मानती थी कि ऐसा इसलिए है क्योंकि वे सत्य का अनुसरण कर रहे है, और सत्य को स्वीकार करने में समर्थ नहीं हैं। जब कार्य व्यवस्था मुझे जस-की-तस वापस भेज दी गई, तो मैंने दोष और ज़िम्मेदारी दूसरों पर डाल दी। जब यह सब हुआ, तो मैं उस भ्रष्टता की जो मैंने प्रकट की थी, और जिन सच्चाईयों में मुझे प्रवेश करना चाहिए उनकी परीक्षा करने में असफल रही। यह ऐसा था मानो कि मुझ में कोई भ्रष्टता नहीं थी, और मैंने सब कुछ सही किया था। इसके बजाय, मैं अपने स्वयं के मानकों के अनुसार दूसरों से माँगे रखती थी, और अगर कोई मेरे मानक को पूरा नहीं करता था या मेरे संवाद को स्वीकार करने से इनकार करता था, तो मैं तुरंत इस निष्कर्ष पर पहुँच जाती थी कि वह व्यक्ति अवश्य सत्य की तलाश और सत्य को स्वीकार नहीं कर रहा होना चाहिए। मैं सच में बहुत अहंकारी थी और मुझे कोई आत्म-ज्ञान नहीं था। मुझे उस भ्रष्टता का कोई ज्ञान नहीं था जो मैंने प्रकट की थी, न ही मैं अपनी समस्याओं का हल करने के लिए सत्य का अनुसरण करती थी, बल्कि हमेशा दूसरों में दोष निकालती थी। मैं कैसे सद्भावपूर्ण ढंग से भागीदारी करके दूसरों के साथ मिलजुल कर रह सकती थी? और तब मुझे एहसास हुआ कि: मैं किसी के साथ मेल जोल नहीं कर पाती हूँ, ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि वे सत्य का अनुसरण या सत्य को स्वीकार नहीं करते हैं, बल्कि इसलिए है क्योंकि मुझे आत्म-ज्ञान नहीं है, और मैं अपनी स्वयं की समस्याओं का हल करने के लिए सत्य के उपयोग पर ज़ोर नहीं देती हूँ।
इन सभी बातों को समझने के बाद, मैंने चीज़ों के घटित होने पर अपने स्वयं के प्रवेश पर ध्यान देना और सबसे पहले अपनी स्वयं की समस्याओं को सुलझाना शुरू किया। बाद में, भाई-बहनों के साथ संवाद करते समय, मेरे संवाद में आत्म-ज्ञान के अंश होते थे। और तब मैंने अपने भाई-बहनों में परिवर्तन होते हुए पाया। उन्होंने अपनी स्वयं की भ्रष्टता का कुछ ज्ञान दर्शाना शुरू कर दिया, और धीरे-धीरे हममें एक सामंजस्यपूर्ण भागीदारी विकसित हो गयी। तथ्यों का सामना करके, अंततः मैं यह देखने में समर्थ थी कि जब परेशानियाँ पैदा होती हैं, तो सबसे पहले स्वयं को जानना और स्वयं की समस्या का समाधान करना अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। केवल तभी हम अपनी सामान्य मानवता को जी सकते हैं, दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्ण साझेदारी कर सकते हैं, और अपने जीवन के अनुभवों से लाभ उठा सकते हैं।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?