बर्खास्तगी : मेरे लिए एक जरूरी चेतावनी
मैंने 2008 में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार किया था। परमेश्वर के वचन पढ़कर, और सभाओं और संगति से मैंने जाना कि बचाए जाने और एक शानदार गंतव्य हासिल करने के लिए हमें न सिर्फ सत्य की खोज करनी चाहिए, बल्कि सृजित प्राणियों के रूप में अपने कर्तव्य भी निभाने चाहिए। इसलिए, मैंने मन-ही-मन सत्य की खोज करने और अपने कर्तव्य का पालन करने की प्रतिज्ञा की। मैंने देखा कि कलीसिया या समूह अगुआ का कर्तव्य निभाने वाले कुछ भाई-बहन सभाओं में अक्सर मसलों के हल के लिए परमेश्वर के वचनों पर संगति करते थे और हमेशा कलीसिया के काम में व्यस्त रहते थे। मैं सोचती थी कि उन्हें जरूर परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त होगी और वे जरूर सत्य की खोज करते होंगे जो उन्हें इतने महत्वपूर्ण कर्तव्य सौंपे गए हैं, इसलिए मैं उनकी बहुत तारीफ करती थी। इसके उलट, जो लोग आम कर्तव्य निभाते थे, जिनमें समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य पर संगति करने की जरूरत नहीं थी—जैसेकि दूसरे भाई-बहनों की मेजबानी करना या दूसरे आम मामले देखना—वे दूसरों की सराहना हासिल नहीं कर पाएंगे, और भविष्य में उनके बचाए जाने की संभावना भी बहुत कम होगी। बाद में, एक कलीसिया अगुआ की मेजबानी करते हुए, मैंने देखा कि वह भाई-बहनों के मसले हल करने के लिए अक्सर सत्य पर संगति करती थी, इसलिए मुझे लगा कि उसे सत्य की काफी समझ होगी। जब मैंने यह भी देखा कि ऊंचे स्तर के अगुआ भी अक्सर उसके साथ सभाएँ कर परमेश्वर के वचनों पर संगति प्रदान करते थे, तो मैंने सोचा कि कलीसिया जरूर उसे विकसित कर रही होगी और उसके बचाए जाने की बहुत अच्छी संभावना थी। मुझे उससे ईर्ष्या होने लगी और मेरे मन में एक अगुआ बनने की इच्छा और भी मचलने लगी। मैंने मन-ही-मन संकल्प किया कि मैं भविष्य में एक महत्वपूर्ण कर्तव्य का जिम्मा लूँगी।
बाद में, मैं सिंचन के काम की समूह अगुआ बन गई, और मुझ पर बहुत-से समूहों के काम पर नजर रखने की ज़िम्मेदारी थी। मैं बहुत खुश थी, और सोचने लगी, “अगुआ ने मुझे इतना महत्वपूर्ण कर्तव्य सौंपा है, इसका मतलब तो यही हुआ कि मुझमें कुछ सत्य वास्तविकता है और मैं सत्य-खोजी हूँ। ऐसा लगता है कि आखिर मेरे बचाए जाने की भी संभावना है।” यह एहसास होने के बाद, मैं लगातार परमेश्वर का धन्यवाद करती रही। इसके बाद, मैं कलीसिया में हर रोज इधर-उधर दौड़-भाग करते हुए खूब व्यस्त रहती और यह ध्यान रखती कि नवागतों की सच्चे मार्ग पर जल्दी-से-जल्दी एक ठोस नींव पड़ जाए। पर क्योंकि मैं स्पष्ट रूप से संगति नहीं कर रही थी, इसलिए हम अपने सिंचन के काम में नतीजे हासिल करने में लगातार विफल हो रहे थे, और कई नवागत अब भी नियमित रूप से सभाओं में नहीं आ रहे थे। मैं यह देखकर और भी चिंतित हो उठी कि जिन नवागतों के लिए दूसरे समूह अगुआ जिम्मेदार थे, उनमें से ज्यादातर नियम से सभाओं में आ रहे थे और सक्रिय रूप से अपने कर्तव्य निभा रहे थे। मैं सोचने लगी, “जब हमारी अगुआ देखेगी कि मैंने अपने कर्तव्य में नतीजे हासिल नहीं किए हैं, तो क्या वह यह सोचेगी कि मुझमें सत्य वास्तविकता नहीं है और मैं वास्तविक काम नहीं कर सकती? अगर मुझे बर्खास्त कर दिया गया तो मैं इतना महत्वपूर्ण कर्तव्य दोबारा कैसे कर पाऊँगी? क्या मेरे लिए सब कुछ खत्म नहीं हो जाएगा अगर अगुआ ने मुझे कोई मामूली और महत्वहीन काम सौंप दिया? अगर भाई-बहन मेरा मान न करें तो कोई बात नहीं, पर अगर मैंने एक शानदार गंतव्य और परिणाम हासिल करने का अवसर खो दिया, तो यह बहुत गंभीर बात होगी! ऐसे नहीं चलेगा—मुझे पूरे सिंचन स्टाफ को इकट्ठा करके जल्दी-से-जल्दी इस समस्या को हल करना होगा!” इसके बाद, मैं हर सिंचन टीम को संगति प्रदान करने लगी, और उन्हें उन सभी नवागतों की मदद करने का निर्देश देने लगी जो सभाओं में नहीं आ रहे थे, ताकि वे अगले दो हफ्ते के अंदर नियम से सभाओं में आने लगें। पर मैं सिंचन के काम से जुड़ी असली समस्याओं और मुश्किलों को सुलझाने के लिए उपयुक्त ढंग से संगति नहीं कर पाई। बाद में, मैंने सुना कि एक बहन ने रोते हुए कहा था कि मेरी संगति से उसे अभ्यास का मार्ग नहीं मिला और वह मेरे सामने बहुत बेबस महसूस करती थी। जब उसने यह कहा तो मैंने न सिर्फ कोई आत्म-चिंतन नहीं किया, बल्कि यह भी सोचती रही कि मैं सही थी। तीन महीने बाद भी, मेरी देखरेख में जो समूह थे, वे अच्छे नतीजे हासिल नहीं कर रहे थे, और मुझे चिंता थी कि अगुआ मुझे बर्खास्त कर देगी। मुझे लगता था कि बर्खास्त होते ही मेरा सब कुछ खत्म हो जाएगा। परमेश्वर का कार्य समापन के नजदीक था—अगर मुझे बर्खास्त करके हटा दिया गया तो मैं कैसे एक अच्छा गंतव्य और परिणाम हासिल कर पाऊँगी? क्या मुझे फिर भी बचाया जा सकेगा? क्या आस्था के मेरे तमाम वर्ष व्यर्थ चले जाएंगे? मैं जितना ज्यादा सोचती उतनी ही दहशत से भर जाती; मुझे यह भी पता नहीं था कि मुझे क्या करना चाहिए। आखिरकार, चूँकि मैं इस काम के लिए नहीं बनी थी तो मुझे बर्खास्त कर दिया गया। अगुआ ने कलीसिया की वर्तमान जरूरतों के आधार पर मुझे फिर से भाई-बहनों की मेजबानी का जिम्मा सौंप दिया।
अगुआ ने मुझे फिर से यही जिम्मेदारी सौंपी तो मैं सन्न रह गई। “भाई-बहनों की मेजबानी? क्या मैं सचमुच इतनी बुरी थी? हो सकता है मैंने सिंचन का काम बहुत अच्छा न किया हो, पर यह इतना खराब भी नहीं हो सकता था कि मुझे फिर से मेजबानी का काम सौंप दिया जाए। भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे?” जब मुझे यह याद आया कि एक बहन को फिर से मेजबानी का काम सौंपा गया था और पिछले सात साल से उसकी एक बार भी तरक्की नहीं हुई थी, तो मैं और भी विरोधी महसूस करने लगी। मैं सोचने लगी कि इस तरह के मामूली काम में मैं अपनी कोई छाप नहीं छोड़ पाऊँगी और मुझे कभी भी बचाया नहीं जाएगा। यह देखते हुए कि एक विश्वासी के रूप में इतने बरसों में मैंने खुद को कितना खपाया था, कितने कष्ट उठाए थे और त्याग किए थे, मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मैं एक मेजबान बनकर रह जाऊँगी। अब भविष्य में मेरे लिए उम्मीद करने लायक क्या बचा था? फिर भी, भले ही यह सब अपनी जगह सही था, पर अपने नए काम को ठुकराना भी पूरी तरह अनुचित होगा, इसलिए मुझे समर्पित होना ही होगा। पर इसके बाद मैं बिल्कुल निष्क्रिय-सी हो गई—किराए के लिए नया घर तलाशने को मेरे कदम ही नहीं उठ रहे थे। अपनी इस तकलीफ के बीच मैंने परमेश्वर से कई बार प्रार्थना की, “प्रिय परमेश्वर! मैं जानती हूँ कि तुम्हारी अनुमति से ही कलीसिया ने मुझे भाई-बहनों की मेजबानी का काम सौंपा है, पर मैं समर्पण नहीं कर पा रही। मैं अब भी यह काम करने की इच्छुक नहीं हूँ, और मैं बहुत कमजोर और नकारात्मक महसूस कर रही हूँ। हे परमेश्वर! मैं जानती हूँ कि मैं बहुत नाजुक हालत में हूँ, कृपया मुझे बचा लो! मैं खुद को बदलना चाहती हूँ।” प्रार्थना पूरी करने के बाद मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “इन दिनों, अधिकांश लोग इस तरह की स्थिति में हैं : आशीष प्राप्त करने के लिए मुझे परमेश्वर के लिए खुद को खपाना होगा और परमेश्वर के लिए कीमत चुकानी होगी। आशीष पाने के लिए मुझे परमेश्वर के लिए सब-कुछ त्याग देना चाहिए; मुझे उसके द्वारा सौंपा गया काम पूरा करना चाहिए, और मुझे अपना कर्तव्य अच्छे से अवश्य निभाना चाहिए। इस दशा पर आशीष प्राप्त करने का इरादा हावी है, जो पूरी तरह से परमेश्वर से पुरस्कार पाने और मुकुट हासिल करने के उद्देश्य से अपने आपको उसके लिए खपाने का उदाहरण है। ऐसे लोगों के दिल में सत्य नहीं होता, और यह निश्चित है कि उनकी समझ केवल कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों से युक्त है, जिसका वे जहाँ भी जाते हैं, वहीं दिखावा करते हैं। उनका रास्ता पौलुस का रास्ता है। ऐसे लोगों का विश्वास निरंतर कठिन परिश्रम का कार्य है, और गहराई में उन्हें लगता है कि वे जितना अधिक करेंगे, परमेश्वर के प्रति उनकी निष्ठा उतनी ही अधिक सिद्ध होगी; वे जितना अधिक करेंगे, वह उनसे उतना ही अधिक संतुष्ट होगा; और जितना अधिक वे करेंगे, वे परमेश्वर के सामने मुकुट पाने के लिए उतने ही अधिक योग्य साबित होंगे, और उन्हें मिलने वाले आशीष उतने ही बड़े होंगे। वे सोचते हैं कि यदि वे पीड़ा सह सकें, उपदेश दे सकें और मसीह के लिए मर सकें, यदि वे अपने जीवन का त्याग कर सकें, और परमेश्वर द्वारा सौंपे गए सभी कर्तव्य पूरे कर सकें, तो वे वो होंगे जिन्हें सबसे बड़े आशीष मिलते हैं, और उन्हें मुकुट प्राप्त होने निश्चित हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पतरस के मार्ग पर कैसे चलें)। “मसीह-विरोधी आशीष प्राप्ति को स्वर्ग से भी अधिक बड़ा, जीवन से भी बड़ा, सत्य के अनुसरण, स्वभावगत परिवर्तन या व्यक्तिगत उद्धार से भी अधिक महत्वपूर्ण, और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने और मानक के अनुरूप सृजित प्राणी होने से अधिक महत्वपूर्ण मानता है। वह सोचता है कि मानक के अनुरूप एक सृजित प्राणी होना, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना और बचाया जाना सब तुच्छ चीजें हैं, जो मुश्किल से ही उल्लेखनीय हैं या टिप्पणी के योग्य हैं, जबकि आशीष प्राप्त करना उनके पूरे जीवन में एकमात्र ऐसी चीज होती है, जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकता। उनके सामने चाहे जो भी आए, चाहे वह कितना भी बड़ा या छोटा क्यों न हो, वे इसे आशीष प्राप्ति होने से जोड़ते हैं और अत्यधिक सतर्क और चौकस होते हैं, और वे हमेशा अपने बच निकलने का मार्ग रखते हैं। इसलिए जब उनका कर्तव्य समायोजित किया जाता है, अगर यह पदोन्नति हो, तो मसीह-विरोधी सोचेगा कि उन्हें धन्य होने की आशा है। अगर यह पदावनति हो, टीम-अगुआ से सहायक टीम-अगुआ के रूप में, या सहायक टीम-अगुआ से नियमित समूह-सदस्य के रूप में, तो वे इसके एक बड़ी समस्या होने की भविष्यवाणी करते हैं और उन्हें आशीष पाने की अपनी आशा दुर्बल लगती है। यह किस प्रकार का दृष्टिकोण है? क्या यह उचित दृष्टिकोण है? बिल्कुल नहीं। यह दृष्टिकोण बेतुका है!” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद बारह : जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मुझे यह एहसास हुआ कि मैं सिर्फ आशीष पाने के उद्देश्य से जी रही हूँ और खोज रही हूँ। सिर्फ आशीष पाने के लिए ही मैंने परमेश्वर के लिए खुद को खपाया और कोई कसर छोड़े बिना अपना कर्तव्य निभाया। मेरी मान्यताएँ एक मसीह-विरोधी से जरा भी अलग नहीं थीं—मैं सोचती थी कि एक अगुआ होने से मेरे आशीष प्राप्त करने की अच्छी संभावनाएं थीं, पर अगर मुझे एक महत्वपूर्ण कर्तव्य से हटाकर कोई मामूली कर्तव्य सौंप दिया गया तो मेरे आशीष प्राप्त करने की संभावनाएं बहुत कम होंगी। अगर उन दिनों को याद करूँ, जब मैंने परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया था, तो मैं सचमुच अगुआओं से ईर्ष्या करती थी, सोचती थी कि वे सब महत्वपूर्ण कर्तव्य निभा रहे हैं, उनमें अच्छी क्षमता है और वे सत्य का अनुसरण करते हैं। मैं यह मानती थी कि वे परमेश्वर द्वारा बचाकर पूर्ण किए जाएंगे और निश्चित तौर पर भविष्य में महान आशीष प्राप्त करेंगे। मुझे लगता था कि जो लोग मामूली कर्तव्य निभाते थे, उनमें सत्य वास्तविकता का अभाव है और शायद ही उनके बचाए जाने और आशीष पाने की संभावना है। मेरी सोच पर यही बात हावी थी, इसलिए मैं निरंतर एक अगुआ बनने की कोशिश करती रही थी। जब एक समूह अगुआ के तौर पर मैं अपने कर्तव्य में नतीजे हासिल नहीं कर पाई, तो मैंने आत्म-चिंतन नहीं किया, और इसकी बजाय बर्खास्तगी की चिंता करती रही। अपना ओहदा बचाने और जल्दी से सफल होने के लिए मैं अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए भाई-बहनों को दबाने से भी नहीं चूकी। बर्खास्त किए जाने के बाद जब मुझे फिर से भाई-बहनों की मेजबानी का काम सौंपा गया, तो मैं इस फैसले को बिल्कुल पचा नहीं पाई, और नकारात्मक होकर अपने कर्तव्य में ढील बरतने लगी। मैं यही सोचती रही कि ऐसी भूमिका निभाने से मेरी भविष्य की संभावनाएं बहुत धूमिल हो जाएंगी। इनमें से हर स्थिति ने आशीष पाने की मेरी सनक को खुलकर उजागर कर दिया था। मुझे एहसास हुआ कि मैं सिर्फ आशीष पाने के लिए परमेश्वर में विश्वास करती थी, त्याग करती थी और खुद को खपाती थी। मैं परमेश्वर के सम्मुख समर्पण नहीं कर रही थी, और एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य न के बराबर निभाया था। अपने कर्तव्य में परमेश्वर के साथ मेरा रिश्ता सौदेबाजी का था और मैं एक मसीह-विरोधी के रास्ते पर चल रही थी।
बाद में, परमेश्वर के कुछ वचन मेरी नजरों में आए : “परमेश्वर के घर में परमेश्वर का आदेश स्वीकारने और इंसान के कर्तव्य-निर्वहन का निरंतर उल्लेख होता है। कर्तव्य कैसे अस्तित्व में आता है? आम तौर पर कहें, तो यह मानवता का उद्धार करने के परमेश्वर के प्रबंधन-कार्य के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आता है; ख़ास तौर पर कहें, तो जब परमेश्वर का प्रबंधन-कार्य मानवजाति के बीच खुलता है, तब विभिन्न कार्य प्रकट होते हैं, जिन्हें पूरा करने के लिए लोगों का सहयोग चाहिए होता है। इससे जिम्मेदारियाँ और विशेष कार्य उपजते हैं, जिन्हें लोगों को पूरा करना है, और यही जिम्मेदारियाँ और विशेष कार्य वे कर्तव्य हैं, जो परमेश्वर मानवजाति को सौंपता है। परमेश्वर के घर में जिन विभिन्न कार्यों में लोगों के सहयोग की आवश्यकता है, वे ऐसे कर्तव्य हैं जिन्हें उन्हें पूरा करना चाहिए। तो, क्या बेहतर और बदतर, बहुत ऊँचा और नीच या महान और छोटे के अनुसार कर्तव्यों के बीच अंतर हैं? ऐसे अंतर नहीं होते; यदि किसी चीज का परमेश्वर के प्रबंधन कार्य के साथ कोई लेना-देना हो, उसके घर के काम की आवश्यकता हो, और परमेश्वर के सुसमाचार-प्रचार को उसकी आवश्यकता हो, तो यह व्यक्ति का कर्तव्य होता है। यह कर्तव्य की उत्पत्ति और परिभाषा है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्य का समुचित निर्वहन क्या है?)। “सृजित प्राणी के लिए एक सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा करने में सक्षम होना, सृष्टिकर्ता को संतुष्ट करने में सक्षम होना, मानवजाति के बीच सबसे सुंदर चीज होती है, और यह कुछ ऐसा है जिसे एक कहानी के रूप में फैलाया जाना चाहिए जिसकी सभी लोग इसकी प्रशंसा करें। सृजित प्राणियों को सृष्टिकर्ता जो कुछ भी सौंपता है उसे बिना शर्त स्वीकार लेना चाहिए; मानवजाति के लिए यह खुशी और सौभाग्य दोनों की बात है, और उन सबके लिए, जो एक सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा करते हैं, कुछ भी इससे अधिक सुंदर या स्मरणीय नहीं होता—यह एक सकारात्मक चीज़ है। और जहाँ तक प्रश्न यह है कि सृष्टिकर्ता उन लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है जो सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा कर सकते हैं, और वह उनसे क्या वादे करता है, यह सृष्टिकर्ता का मामला है; सृजित मानवजाति का इससे कोई सरोकार नहीं है। इसे थोड़ा और सरल तरीके से कहूँ तो, यह परमेश्वर पर निर्भर है, और लोगों को इसमें हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है। तुम्हें वही मिलेगा जो परमेश्वर तुम्हें देता है, और यदि वह तुम्हें कुछ भी नहीं देता है, तो तुम इसके बारे में कुछ भी नहीं कह सकते। जब कोई सृजित प्राणी परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करता है, और अपना कर्तव्य निभाने और जो वह कर सकता है उसे करने में सृष्टिकर्ता के साथ सहयोग करता है, तो यह कोई लेन-देन या व्यापार नहीं होता है; लोगों को परमेश्वर से कोई वादा या आशीष पाने के लिए रवैयों की अभिव्यक्तियों या क्रियाकलापों और व्यवहारों का सौदा करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। जब सृष्टिकर्ता तुम लोगों को यह काम सौंपता है, तो यह सही और उचित है कि सृजित प्राणियों के रूप में, तुम इस कर्तव्य और आदेश को स्वीकार करो। क्या इसमें कोई लेन-देन शामिल है? (नहीं।) सृष्टिकर्ता की ओर से, वह तुम लोगों में से हर एक को वे कर्तव्य सौंपने के लिए तैयार है जो लोगों को निभाने चाहिए; और सृजित मानवजाति की ओर से, लोगों को यह कर्तव्य सहर्ष स्वीकार करना चाहिए, इसे अपने जीवन का दायित्व मानना चाहिए, वह मूल्य मानना चाहिए जिसे उन्हें इस जीवन में जीना है। यहाँ कोई लेन-देन नहीं है, यह एक समकक्ष विनिमय नहीं है, इसमें कोई भी इनाम या अन्य कथन शामिल होने की संभावना तो और भी कम है जिनकी लोग कल्पना करते हैं। यह किसी भी तरह से एक व्यापार नहीं है; यह लोगों द्वारा अपने कर्तव्य निभाते हुए चुकाई गई कीमत या उनकी कड़ी मेहनत के बदले में कुछ और पाना भी नहीं है। परमेश्वर ने ऐसा कभी नहीं कहा है, और न ही लोगों को इसे इस तरीके से समझना चाहिए” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग सात))। परमेश्वर के वचनों से मुझे यह एहसास हुआ कि कर्तव्य परमेश्वर द्वारा लोगों को दिए गए आदेश होते हैं। कलीसिया अपनी वर्तमान जरूरत और लोगों की योग्यता और क्षमता के आधार पर उन्हें कर्तव्य सौंपती है। हर कर्तव्य महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि वह परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य के प्रचार और गवाही का हिस्सा होता है। किसी का भी कर्तव्य दूसरे से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है—हर कर्तव्य कलीसिया के काम के लिए अपरिहार्य है। मुझे अपने कर्तव्य को बिना शर्त स्वीकार करना चाहिए और इसे अपनी क्षमता के अनुसार अच्छे-से-अच्छे ढंग से निभाना चाहिए। एक सृजित प्राणी में यह चेतना और समझ होनी चाहिए। परमेश्वर ने मुझे एक कर्तव्य निभाने का अवसर प्रदान किया था, ताकि मैं इसे निभाते हुए सत्य का अनुसरण कर सकूँ, परमेश्वर के वचनों और कार्य का अनुभव कर सकूँ, अपने भ्रष्ट स्वभाव को बदल सकूँ, और अंततः अपने शैतानी स्वभाव के बंधनों और विनाशकारी प्रभावों से मुक्त होकर परमेश्वर का भय मान सकूँ और उसके सम्मुख समर्पण कर सकूँ। पर मैं परमेश्वर का इरादा समझ ही नहीं पाई, और कर्तव्यों को बेहतर और बदतर ओहदों के रूप में देखते हुए अपने कर्तव्य को आशीष पाने का साधन समझती रही। मैंने परमेश्वर को धोखा देने और इस्तेमाल करने की कोशिश की, और अपने कर्तव्य के बदले में आशीष पाने की कल्पनाएँ करती रही। मैं कितनी स्वार्थी और घृणित थी! मुझे साफ दिख रहा था कि अगर मैंने अपनी खोज को लेकर अपना गलत नजरिया नहीं बदला, और अपने भ्रष्ट स्वभाव को हल नहीं किया, तो मैं कितना ही महत्वपूर्ण कर्तव्य क्यों न निभाऊँ, या खुद को कितना ही क्यों न खपाऊँ और कितने ही त्याग क्यों न करूँ, मुझे कभी भी परमेश्वर की प्रशंसा नहीं मिलेगी, और आखिर में मुझे हटाकर दंडित किया जाएगा। यह सब समझ में आ जाने के बाद, मुझे एहसास हुआ कि मैं कितनी खतरनाक हालत में थी। मैं अपने इरादों को सही करने और अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने के लिए तैयार थी।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों के इन अंशों को पढ़ा : “मनुष्य के कर्तव्य और वह धन्य है या शापित, इनके बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। धन्य होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। शापित होना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, ऐसा तब होता है जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें धन्य किया जाता है या शापित, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल धन्य होने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें शापित होने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज़ है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। “मैं प्रत्येक व्यक्ति की मंजिल उसकी आयु, वरिष्ठता और उसके द्वारा सही गई पीड़ा की मात्रा के आधार पर तय नहीं करता, और जिस सीमा तक वे दया के पात्र होते हैं, उसके आधार पर तो बिल्कुल भी तय नहीं करता, बल्कि इस बात के अनुसार तय करता हूँ कि उनके पास सत्य है या नहीं। इसके अतिरक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है। तुम लोगों को यह समझना चाहिए कि जो लोग परमेश्वर की इच्छा का अनुसरण नहीं करते, वे सब दंडित किए जाएँगे। यह एक अडिग तथ्य है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। परमेश्वर के वचनों से मुझे यह सीख मिली कि कर्तव्य निभाने का इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि आशीष मिलेंगे या तुम दुर्भाग्य का सामना करोगे। कर्तव्य परमेश्वर की तरफ से आदेश होता है, यह मनुष्य की जिम्मेदारी है—यह पूरी तरह स्वाभाविक और उचित है कि मनुष्य को अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। बचाए जाने के लिए मुख्य है सत्य की खोज करना, सत्य को हासिल करना और अपने स्वभाव को बदलना। इसका कर्तव्य के निर्वाह से कुछ लेना-देना नहीं है। एक महत्वपूर्ण कर्तव्य निभाने और ऊंचा रुतबा पा लेने का यह अर्थ नहीं है कि तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है। अगर तुम सत्य की खोज नहीं करते हो, अपना स्वभाव नहीं बदलते हो, और आशीषों के लिए परमेश्वर से सौदेबाजी तक करते हो, उसे धोखा देते हो और इस्तेमाल करते हो, कलीसिया के कार्य में व्यवधान डालते हो, तो तुम्हें बेनकाब करके हटा दिया जाएगा, और तुम कभी भी परमेश्वर द्वारा बचाए नहीं जाओगे। अगर तुम्हें ऊपर से मामूली दिखाई देने वाला कोई कर्तव्य भी मिला हुआ है, पर तुम उसे पूरी मेहनत से करने की कोशिश करते हो, सत्य की खोज करते हो, और अपने स्वभाव में बदलाव लाते हो, तो तुम्हें बचाया जाएगा। मैंने उन बहुत-से झूठे अगुआओं के बारे में सोचा जिन्हें बेनकाब कर हटा दिया गया था—वे सब महत्वपूर्ण कर्तव्य निभाते थे, सभाएं और संगति करते थे, खुद को खपाते थे, कष्ट उठाते थे, और सभी भाई-बहनों द्वारा आदर से देखे जाते थे। पर वे सत्य का अनुसरण नहीं करते थे, सिर्फ लोगों को धर्म-सिद्धांत की बातें बताते थे। वे परमेश्वर के वचनों का जरा-भी अभ्यास या अनुभव नहीं करते थे; वे सिर्फ आशीष पाने के लिए और अपना रुतबा और साख बचाने के लिए खुद को खपाते और त्याग करते थे। परमेश्वर में वर्षों से विश्वास करने के बाद भी वे खुद को नहीं जानते थे, न अपना स्वभाव बदल पाए थे और गलत रास्ते पर चलने कारण उन्हें बरखास्त कर दिया गया था। मुझे एहसास हुआ कि यह मानना बेतुका और परमेश्वर के वचनों के सत्य के विपरीत था कि जो कष्ट उठाते हैं, खुद को खपाते हैं, ऊंचे रुतबे वाले हैं, और महत्वपूर्ण कर्तव्य निभाते हैं, उन्हें बचाया जाएगा और सुहाने गंतव्य और परिणाम से पुरस्कृत किया जाएगा, जबकि औसत और मामूली कर्तव्य निभाने वालों के बचाए जाने या आशीष पाने की बहुत कम संभावनाएं हैं। मुझे पौलुस की याद आई, जो कलीसिया में ऊंचे ओहदे पर था, और जिसने दूर-दूर तक सुसमाचार फैलाया था, भारी कष्ट उठाए थे और हरेक की प्रशंसा और आदर का पात्र बन गया था, जिनमें आधुनिक धार्मिक दुनिया भी शामिल है जो उसे एक आदर्श के रूप में देखती है। फिर भी, पौलुस ने कभी सत्य की खोज नहीं की, अपने स्वभाव को बदलने का जतन करना तो दूर की बात है, सिर्फ आशीष और मुकुट पाने के लिए ही खुद को खपाता रहा। वह परमेश्वर के प्रतिरोध के रास्ते पर चला और आखिर में उसके द्वारा दंडित किया गया। उसकी तुलना में, पतरस का काम पौलुस की तरह ऊपर से प्रभावशाली नहीं था, पर उसने अपने कर्तव्य में सत्य और परमेश्वर के प्रेम का अनुसरण किया, खुद को जानने और परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के माध्यम से परमेश्वर को जानने को महत्व दिया। आखिर में, उसे परमेश्वर के लिए सलीब पर उल्टा जड़ दिया गया, और उसने मृत्यु में परमेश्वर के लिए समर्पण किया और परमेश्वर से बेइंतहा प्रेम किया, जिसके माध्यम से उसे पूर्ण बनाया गया। परमेश्वर पवित्र और धार्मिक है—वह उन लोगों को स्वर्ग के राज्य में नहीं लाएगा जो उसके साथ सौदेबाजी करते हैं, उसे धोखा देते हैं, और उसका प्रतिरोध करते हैं, और वह ऐसे लोगों को तो रहने ही नहीं देगा जो शैतान की किस्म के हैं और भ्रष्ट स्वभाव से ओतप्रोत हैं। सिर्फ वही लोग जो सत्य का अनुसरण करते हैं, अपने स्वभाव में बदलाव लाते हैं, और जो अंततः सत्य को हासिल करते हैं, परमेश्वर के सम्मुख समर्पण करके उसकी इच्छा के अनुसार चलते हैं, परमेश्वर के राज्य में प्रवेश कर सकते हैं। यह एहसास हो जाने के बाद, मैं कहीं ज्यादा मुक्त महसूस करने लगी और परमेश्वर के सम्मुख समर्पण करके अपने भाई-बहनों की मेजबानी के लिए जी-जान से काम करने के लिए तत्पर हो गई। मैं मेजबानी की तैयारी कर ही रही थी कि मुझे अपनी अगुआ का यह संदेश मिला कि कलीसिया के कार्य की जरूरतों के आधार पर वह मेरा काम बदलकर मुझे एक दूसरी कलीसिया में नवागतों के सिंचन का काम देने जा रही है। यह संदेश पाकर मैं खुद को परमेश्वर का धन्यवाद करने से नहीं रोक पाई। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और उससे कहा कि मैं उसके सामने झुकने, सत्य की खोज करने, अपने स्वभाव में बदलाव पर ध्यान देने, और कड़ी मेहनत से अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए तैयार हूँ।
आज, मैं आशीषों के लिए अपनी अभिलाषा और परमेश्वर के साथ सौदेबाजी वाले अपने संबंधों को काफी कुछ समझ पाई हूँ। मैं देख पा रही हूँ कि मैं कितनी स्वार्थी और घृणित थी, और अब मैं समर्पण करने और एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य को ईमानदारी से निभाने के लिए तैयार हूँ। यह सब परमेश्वर के उद्धार के कारण है, जिसके लिए मैं परमेश्वर का धन्यवाद करती हूँ।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?