माँ-बाप की परवरिश वाली दयालुता से कैसे पेश आएँ
2012 में, मेरे पूरे परिवार ने सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारा। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि परमेश्वर में सच्चा विश्वास करने का क्या मतलब है, और यह भी जाना कि इस संसार में हरेक व्यक्ति का एक मकसद है। जीवन में, लोगों को सत्य का अनुसरण और सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य करने चाहिए। तो, मैं अपनी नौकरी छोड़कर कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाने आ गई।
तब मैं रोज सुसमाचार फैलाने जाया करती थी, और कभी-कभार ही डैड से मिलने घर जाती थी। जब मैंने डैड का स्वास्थ्य खराब होते देखा, तो समझ गई कि उनकी दमे की बीमारी फिर से ज़ोर पकड़ रही है। पहले, उन्हें बस कुछ दवाइयाँ और इंफ्यूजन लेना पड़ता था। मैंने सोचा था कि पहले की तरह इस बार भी वो बिना किसी दिक्कत के ठीक हो जाएँगे, पर कुछ समय बाद ही मुझे खबर मिली कि मेरे डैड गुजर गए। मेरे भाई ने फोन पर बताया कि “डैड अब नहीं रहे।” ये सुनकर मेरा दिल टूट गया और आँखों से लगातार आँसू बहते रहे। जब घर पहुँची, तो मेरी आंटी ने उलाहना देते हुए कहा, “तुमने तो डॉक्टरी पढ़ी है। तुम्हें मालूम था तुम्हारे डैड को अस्थमा था, फिर तुम उन्हें ऑक्सीजन थेरेपी के लिए क्यों नहीं ले गई? शायद वो इतनी जल्दी हमें छोड़कर नहीं जाते।” यह सुनकर मेरा दिल छलनी हो गया, मेरा दिल अपने डैड के कर्ज तले दब गया था। अगर मैंने उनका थोड़ा और ख्याल रखा होता, तो क्या वो सच में इतनी जल्दी नहीं गुजरते? मेरी आंटी ने मेरा हाथ पकड़कर कहा, “सभी बच्चों में, तुम्हारे माँ-बाप ने सबसे बड़ी कीमत तुम्हारे लिए चुकाई। अब तुम्हारे डैड नहीं रहे, और तुम्हें उनकी सेवा करने का मौका भी नहीं मिला। आगे से, तुम्हें अपनी माँ का अच्छे से ख्याल रखना है।” मैंने चुपचाप सिर हिलाया, यह सोचते हुए कि कैसे मेरे माँ-बाप ने मुझे पाला-पोसा, शिक्षा दी, और वे मुझे अपना गौरव मानते थे। मगर इससे पहले कि मैं उनके लिए कुछ कर पाती, मेरे डैड चल बसे। मुझे अपनी माँ की देखभाल की जिम्मेदारी उठानी होगी; मैं उन्हें कष्ट झेलने नहीं दे सकती। इसके बाद, भले ही मैं रोज अपना कर्तव्य निभा रही थी, अपने खाली समय में यही सोचती कि, “अगर मैंने नौकरी करके पैसे नहीं कमाए, तो मेरी माँ कैसे रहेगी? अगर मैं अपनी माँ की देखभाल नहीं कर सकी और फिर से किसी वजह से ग्लानि हुई तो जिंदगी भर पछताऊँगी।” तो, रोज मैं अपना कर्तव्य पूरा करने के बाद नौकरी ढूँढने लगी।
मार्च 2013 में, मुझे नौकरी मिल गई और मैं काम पर जाने के लिए तैयार हो रही थी, पर जैसे ही अपनी मेजबानी कर रही बहन का घर छोड़कर जाने लगी, मैं बहुत दुखी हो गई। मेरे मन में बार-बार यह भजन गूँजने लगा : “मैं पाप में गिरा मगर रौशनी से उठा हूँ। तुमने मुझे उठाया, मैं कितना आभारी हूँ। जब देहधारी परमेश्वर यातना सहता है, तो मुझे, एक भ्रष्ट व्यक्ति को, कितनी ज्यादा यातना सहनी चाहिये? अगर मैं अंधकारमय शक्तियों के आगे झुक जाऊँ, तो परमेश्वर को कैसे देखूँगा? जब मैं तुम्हारे वचनों को याद करता हूँ, तो वे मुझे तुम्हारे लिए तरसाने लगते हैं। जब भी मैं तुम्हारे चेहरे को देखता हूँ, तो मैं अपराध बोध और सम्मान से भर जाता हूँ। मैं तथाकथित स्वतंत्रता की तलाश में, तुम्हें कैसे त्याग सकता हूँ? ...” (मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ, परमेश्वर के शुभ समाचार की प्रतीक्षा में)। इस गीत को गुनगुनाते हुए मेरी उदासी दूर हो गई, और जब मैंने यह पंक्ति पढ़ी, “मैं तथाकथित स्वतंत्रता की तलाश में, तुम्हें कैसे त्याग सकता हूँ?” मेरा चेहरा आँसुओं से भीग चुका था। पहले, मैं खालीपन और दर्द में जी रही थी, मेरे जीवन में कोई दिशा या मेरे अस्तित्व का कोई मकसद नहीं था। परमेश्वर ने इतने सारे लोगों में से मुझे चुना, और उसके वचनों को सुनने और जीवन के अर्थ को समझने का सौभाग्य दिया। परमेश्वर मुझ पर अपना अनुग्रह दिखा रहा था। मगर मैंने नौकरी पाकर पैसे कमाने के लिए इतनी जल्दी अपना कर्तव्य त्याग दिया, मैं परमेश्वर की बहुत ऋणी थी। रोते हुए, मैंने परमेश्वर को पुकारा, “परमेश्वर, मैं बहुत कमजोर हूँ, अपनी इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह नहीं कर सकती। मुझे इस रास्ते पर चलने से रोको।” तभी दूर से मैंने अपनी तरफ एक बवंडर आते देखा। जल्द ही मैं उस बवंडर के घेरे में थी। साँस लेने या कुछ भी देखने में असमर्थ थी। मैंने फड़फड़ाने की आवाज सुनी, मानो कुछ हवा में खींच लिया गया हो। तब मेरे मन में बस एक ही ख्याल था : “भागो।” मैं अपनी ई-बाइक वहीँ छोड़कर आगे भागने लगी। कुछ दूर ही गई थी कि मैंने अपने पीछे एक बहुत तेज आवाज सुनी। मैंने अपनी आँखें बंद कर ली थी, पीछे देखने की हिम्मत नहीं की। मैं मन-ही-मन परमेश्वर से मेरी रक्षा करने की प्रार्थना करती रही। कुछ समय बाद, बवंडर थम गया। मैंने देखा कि मेरी ई-बाइक कुछ ही दूर पड़ी थी, और एक उड़ती हुई रंगीन स्टील की छत से सड़क के किनारे खड़ा कंक्रीट का टेलीफोन का खंभा आधा टूट चुका था। खंभा हवा के झोंके से उड़कर करीब दस गज दूर पड़ा था, उसके तार भी टूट गए थे। अगर मुझे तभी भागने का ख्याल नहीं आया होता, तो खंबे के नीचे आकर मर ही जाती। उस वक्त परमेश्वर के वचनों का एक वाक्य मेरे मन में गूँजने लगा : “यहाँ तक कि मैंने तुम लोगों को स्वर्ग की लपटें भी दिखाई हैं, लेकिन तुम लोगों को जला देने को मेरा दिल नहीं माना। ...” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम सभी कितने नीच चरित्र के हो!)। मैं जानती थी कि परमेश्वर ने मेरी रक्षा की थी और यह उसका मुझसे बात करने और मुझे अपनी इच्छा बताने का तरीका था। मैंने मन-ही-मन प्रार्थना की। “परमेश्वर, अब मैं बस पैसे कमाने के लिए काम नहीं करूँगी; मैं तुम्हें नहीं छोड़ूंगी।” मगर अगले दिन सोकर उठी, तो फिर से डगमगा गई। आगे मुझे अभी भी एक लंबा रास्ता तय करना है। अगर मेरे पास नौकरी नहीं रही, तो मेरी माँ आगे कैसे रह पाएगी? मेरे माँ-बाप ने मुझे पाला था, तो मुझे भी बुढ़ापे में उनका ध्यान रखना चाहिए। मगर अपना कर्तव्य छोड़कर पैसे कमाने की खातिर नौकरी करने गई तो भी मुझे बड़ा दुख होगा। मैं जानती थी कि अस्पताल के काम में वक्त बिलकुल नहीं मिलता, तो अगर मैं वहाँ काम करने गई, तो शायद मेरे पास सभाओं में जाने का भी समय न बचे। बाद में, मैं अपना कर्तव्य निभाने चली गई। मगर मैं तब भी समय-समय पर अपनी माँ के बारे में सोचती थी। भले ही मैं जानती थी कि मेरे भाई उनके साथ हैं तो उन्हें जीवन में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए, फिर भी मुझे अक्सर पछतावा होता, उनका खयाल न रख पाने के कारण मैं उनकी ऋणी महसूस करती।
पलक झपकते दस साल बीत गए। एक बार, कुछ अजीब परिस्थितियों में, मैंने सोचा कि मेरे पिता के गुजरने के बाद अकेले रहते हुए मेरी माँ कैसी लगती होगी। मेरे दिल में एक असहनीय पीड़ा थी, मानो यह सब कल की ही बात हो। मेरे डैड को गुजरे 10 साल हो चुके थे, पर अपने माँ-बाप के कर्ज से दबे होने की भावना अभी भी मेरे दिल की गहराई में बसी थी। मैं खुद को इस दशा से पूरी तरह मुक्त करना चाहती थी, तो परमेश्वर के सामने यह जानने आई कि मुझमें हमेशा अपने माँ-बाप का कर्जदार होने की भावना क्यों थी।
मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े जिससे मुझे अपनी समस्या की थोड़ी जानकारी मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “गैर-विश्वासियों की दुनिया में एक कहावत है : ‘कौए अपनी माँओं को खाना दे कर उनका कर्ज चुकाते हैं, और मेमने अपनी माँओं से दूध पाने के लिए घुटने टेकते हैं।’ एक कहावत यह भी है : ‘जो व्यक्ति संतानोचित नहीं है, वह किसी पशु से बदतर है।’ ये कहावतें कितनी शानदार लगती हैं! असल में, पहली कहावत में जिन घटनाओं का जिक्र है, कौओं का अपनी माँओं को खाना दे कर उनका कर्ज चुकाना, और मेमनों का अपनी माँओं से दूध पाने के लिए घुटने टेकना, वे सचमुच होती हैं, वे तथ्य हैं। लेकिन वे सिर्फ पशुओं की दुनिया की घटनाएँ हैं। वह महज एक किस्म की विधि है जो परमेश्वर ने विविध जीवित प्राणियों के लिए स्थापित की है, जिसका इंसानों सहित सभी जीवित प्राणी पालन करते हैं। हर प्रकार के जीवित प्राणी इस विधि का पालन करते हैं, यह तथ्य और आगे यह दर्शाता है कि सभी जीवित प्राणियों का सृजन परमेश्वर ने किया है। कोई भी जीवित प्राणी न तो इस विधि को तोड़ सकता है, न इसके पार जा सकता है। शेर और बाघ जैसे अपेक्षाकृत खूंख्वार मांसभक्षी भी अपनी संतान को पालते हैं और वयस्क होने से पहले उन्हें नहीं काटते। यह पशुओं का सहजज्ञान है। वे जिस भी प्रजाति के हों, खूंख्वार हों या दयालु और भद्र, सभी पशुओं में यह सहजज्ञान होता है। इंसानों सहित सभी प्रकार के प्राणी इस सहजज्ञान और इस विधि का पालन करके ही अपनी संख्या बढ़ा और जीवित रह सकते हैं। अगर वे इस विधि का पालन न करें, या उनमें यह विधि और यह सहजज्ञान न हो, तो वे अपनी संख्या बढ़ाकर जीवित नहीं रह पाएँगे। यह जैविक कड़ी नहीं रहेगी, और यह संसार भी नहीं रहेगा। क्या यह सच नहीं है? (है।) कौओं का अपनी माँओं को खाना दे कर उनका कर्ज चुकाना, और मेमनों का अपनी माँओं से दूध पाने के लिए घुटने टेकना ठीक यही दर्शाता है कि पशु जगत इस विधि का पालन करता है। सभी प्रकार के जीवित प्राणियों में यह सहजज्ञान होता है। संतान पैदा होने के बाद प्रजाति के नर या मादा उसकी तब तक देखभाल और पालन-पोषण करते हैं, जब तक वह वयस्क नहीं हो जाती। सभी प्रकार के जीवित प्राणी शुद्ध अंतःकरण और कर्तव्यनिष्ठा से अगली पीढ़ी को पाल-पोस कर बड़ा करके अपनी संतान के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे कर पाते हैं। इंसानों के साथ तो ऐसा और अधिक होना चाहिए। इंसानों को मानवजाति उच्च प्राणी कहती है—अगर इंसान इस विधि का पालन न कर सकें, तो वे पशुओं से बदतर हैं, है कि नहीं? इसलिए तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें बड़ा करते समय चाहे जितना भी पालन-पोषण किया हो, तुम्हारे प्रति चाहे जितनी भी जिम्मेदारियाँ पूरी की हों, वे बस वही कर रहे थे जो उन्हें एक सृजित मनुष्य की क्षमताओं के दायरे में करना ही चाहिए—यह उनका सहजज्ञान था। ... सभी प्रकार के जीवित प्राणियों और पशुओं में ये सहजज्ञान और विधियाँ होती हैं, और वे उनका बढ़िया पालन कर उन्हें पूर्णता तक कार्यान्वित करते हैं। यह ऐसी चीज है जिसे कोई भी व्यक्ति नष्ट नहीं कर सकता। कुछ विशेष पशु भी होते हैं, जैसे कि बाघ और सिंह। वयस्क हो जाने पर ये पशु अपने माता-पिता को छोड़ देते हैं, और उनमें से कुछ नर तो प्रतिद्वंद्वी भी बन जाते हैं, और जैसी जरूरत हो, वैसे काटते और लड़ते-झगड़ते हैं। यह सामान्य है, यह एक विधि है। वे बहुत स्नेही नहीं होते, वे लोगों की तरह यह कहकर अपनी भावनाओं में नहीं जीते : ‘मुझे उनकी दयालुता का कर्ज चुकाना है, मुझे उनकी भरपाई करनी है—मुझे अपने माता-पिता का आज्ञापालन करना है। अगर मैंने उन्हें संतानोचित प्रेम नहीं दिखाया, तो दूसरे लोग मेरी निंदा करेंगे, मुझे बुरा समझेंगे, और पीठ पीछे मेरी आलोचना करेंगे। मैं इसे नहीं सह सकता!’ पशु जगत में ऐसी बातें नहीं कही जातीं। लोग ऐसी बातें क्यों करते हैं? इस वजह से कि समाज में और लोगों के समुदायों में तरह-तरह के गलत विचार और सहमतियाँ हैं। लोगों के प्रभावित हो जाने, बिगड़ जाने और इन चीजों से सड़-गल जाने के बाद उनके भीतर माता-पिता और बच्चे के रिश्ते की व्याख्या करने और उससे निपटने के अलग-अलग तरीके पैदा होते हैं, और आखिरकार वे अपने माता-पिता से लेनदारों जैसा बर्ताव करते हैं—ऐसे लेनदार जिनका कर्ज वे पूरी जिंदगी नहीं चुका सकेंगे। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अपने माता-पिता के निधन के बाद पूरी जिंदगी अपराधी महसूस करते हैं, और सोचते हैं कि वे अपने माता-पिता की दयालुता के लायक नहीं थे, क्योंकि उन्होंने वह काम किया जिससे उनके माता-पिता खुश नहीं हुए या वे उस राह पर नहीं चले जो उनके माता-पिता चाहते थे। मुझे बताओ, क्या यह ज्यादती नहीं है? लोग अपनी भावनाओं के बीच जीते हैं, तो इन भावनाओं से उपजनेवाले तरह-तरह के विचारों से ही वे अतिक्रमित और परेशान हो सकते हैं” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। “किसी भी स्थिति में, तुम्हें पाल-पोसकर तुम्हारे माता-पिता एक जिम्मेदारी और एक दायित्व निभा रहे हैं। तुम्हें पाल-पोस कर वयस्क बनाना उनका दायित्व और जिम्मेदारी है, और इसे दयालुता नहीं कहा जा सकता। अगर इसे दयालुता नहीं कहा जा सकता, तो क्या यह ऐसी चीज नहीं है जिसका तुम्हें मजा लेना चाहिए? (जरूर है।) यह एक प्रकार का अधिकार है जिसका तुम्हें आनंद लेना चाहिए। तुम्हें अपने माता-पिता द्वारा पाल-पोस कर बड़ा किया जाना चाहिए, क्योंकि वयस्क होने से पहले तुम्हारी भूमिका एक पाले-पोसे जा रहे बच्चे की होती है। इसलिए, तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे प्रति सिर्फ एक जिम्मेदारी पूरी कर रहे हैं, और तुम बस इसे प्राप्त कर रहे हो, लेकिन निश्चित रूप से तुम उनसे अनुग्रह या दया प्राप्त नहीं कर रहे हो। किसी भी जीवित प्राणी के लिए बच्चों को जन्म देकर उनकी देखभाल करना, प्रजनन करना और अगली पीढ़ी को बड़ा करना एक किस्म की जिम्मेदारी है। मिसाल के तौर पर पक्षी, गायें, भेड़ें और यहाँ तक कि बाघिनें भी बच्चे जनने के बाद अपनी संतान की देखभाल करती हैं। ऐसा कोई भी जीवित प्राणी नहीं है जो अपनी संतान को पाल-पोस कर बड़ा न करता हो। कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन ये ज्यादा नहीं हैं। जीवित प्राणियों के अस्तित्व में यह एक कुदरती घटना है, जीवित प्राणियों का यह सहजज्ञान है, और इसे दयालुता का लक्षण नहीं माना जा सकता। वे बस उस विधि का पालन कर रहे हैं जो सृष्टिकर्ता ने जानवरों और मानवजाति के लिए स्थापित की है। इसलिए, तुम्हारे माता-पिता का तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करना किसी प्रकार की दयालुता नहीं है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं। वे तुम्हारे प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी कर रहे हैं। वे तुम पर चाहे जितनी भी मेहनत करें, जितना भी पैसा लगाएँ, उन्हें तुमसे इसकी भरपाई करने को नहीं कहना चाहिए, क्योंकि माता-पिता के रूप में यह उनकी जिम्मेदारी है। चूँकि यह एक जिम्मेदारी और दायित्व है, इसलिए इसे मुफ्त होना चाहिए, और उन्हें इसकी भरपाई करने को नहीं कहना चाहिए। तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करके तुम्हारे माता-पिता बस अपनी जिम्मेदारी और दायित्व निभा रहे थे, और यह निशुल्क होना चाहिए, इसमें लेनदेन नहीं होना चाहिए। इसलिए तुम्हें भरपाई करने के विचार के अनुसार न तो अपने माता-पिता से पेश आना चाहिए, न उनके साथ अपना रिश्ता निभाना चाहिए। अगर तुम अपने माता-पिता का ख्याल रखते हो, उनका कर्ज चुकाते हो और इस विचार से उनके साथ अपना रिश्ता निभाते हो, तो यह अमानुषी है। साथ ही, हो सकता है इससे तुम अपनी दैहिक भावनाओं से नियंत्रित होकर उनसे बँध जाओ और फिर तुम्हारे लिए इन उलझनों से उबरना इस हद तक मुश्किल हो जाएगा कि शायद तुम अपनी राह से भटक जाओ” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि माँ-बाप का अपने बच्चों की देखभाल करना कोई दयालुता नहीं है। यह परमेश्वर द्वारा सभी प्राणियों के लिए निर्धारित एक व्यवस्था और सहज प्रवृत्ति है। सभी प्रकार के जानवर, चाहे वो उदार हों या कठोर, अपने परिवेश के हालात के आधार पर अपने बच्चों के पालन-पोषण के लिए भरसक प्रयास करते हैं। यह उनकी जिम्मेदारी और दायित्व है, साथ ही परमेश्वर द्वारा उन्हें दी गई सहज प्रवृत्ति भी है। जब प्राणी इस सहज प्रवृत्ति और व्यवस्था का पालन करेंगे तभी वो बढ़ते रहेंगे और जीवित रह सकेंगे। मनुष्य भी ऐसे ही हैं। अपने बच्चों का पालन-पोषण करना माँ-बाप की जिम्मेदारी और दायित्व है, यह परमेश्वर द्वारा उन्हें दी गई स्वाभाविक प्रवृत्ति है, कुछ ऐसा जो मनुष्य सहज रूप से करते हैं। जन्म से ही मेरे माँ-बाप ने मेरे भाइयों और मेरी देखभाल की थी। मेरे छोटे भाई को कारोबार करना सीखना था, तो मेरी माँ ने उसे शेफ बनने के लिए पढ़ाई करने दी। मुझे पढ़ाई करना पसंद था, और हमेशा अच्छे नंबर लाती थी। मेरे माँ-बाप ने मेरे पढ़ने की प्रवृति को और बढ़ाया उन्होंने मुझ पर काफी ऊर्जा और पैसे खर्च किए। मेरी माँ ने कहा था कि अगर हममें से कोई भी पढ़ना चाहे तो वो हमारी मदद करेंगी। मेरी माँ सामान्य तौर पर अपने बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी निभा रही थी, इसे लेन-देन नहीं माना जा सकता। मेरे माँ-बाप ने परमेश्वर में विश्वास करते हुए अपना कर्तव्य निभाने में हमेशा मेरा साथ दिया था। जब मेरे डैड गुजर गए, तब भी मेरी माँ ने यह नहीं कहा कि मैं उनकी देखभाल करूँ। वह बस इतनी आशा करती थी कि मैं परमेश्वर में विश्वास करते हुए पूरे दिल से अपना कर्तव्य निभाऊँ। हालाँकि, मैंने पारंपरिक संस्कृति को अपने माँ-बाप के साथ अपने रिश्ते को देखने के तरीके को प्रभावित करने दिया। “संतानोचित धर्मनिष्ठा का गुण सबसे ऊपर रखना चाहिए,” “बच्चे अपने माँ-बाप के बूढ़े होने पर उनकी देखभाल करना चाहते हैं, पर वक्त इंतजार नहीं करता, जैसे एक पेड़ शांत खड़ा रहता है पर हवा नहीं रुकती,” “कौए अपनी माँओं को खाना दे कर उनका कर्ज चुकाते हैं, और मेमने अपनी माँओं से दूध पाने के लिए घुटने टेकते हैं” और “जो व्यक्ति संतानोचित नहीं है, वह किसी पशु से बदतर है” ये विचार बचपन से ही मुझमें डाले गए थे, और मैं मानती थी कि मेरे माँ-बाप का प्यार संसार में सबसे महान प्यार है। अगर मैंने उनकी सेवा करके भौतिक और आध्यात्मिक रूप से उनका ऋण चुकाया तभी मैं एक आदर्श बेटी और अच्छी इंसान कहलाऊँगी। डैड के अचानक गुजरने से मुझे इस वाक्यांश में व्यक्त अपूरणीय अपराध-बोध की और बेहतर समझ आई, “बच्चे अपने माँ-बाप के बूढ़े होने पर उनकी देखभाल करना चाहते हैं, पर वक्त इंतजार नहीं करता।” तो, मेरे डैड के गुजरने के बाद, मैं नौकरी करके पैसे कमाना चाहती थी, अपनी माँ की देखभाल करके संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखाना चाहती थी। भले ही मुझे अच्छी तरह पता था कि मैं अपना कर्तव्य छोड़कर परमेश्वर को धोखा नहीं दे सकती, फिर भी मुझे जकड़कर रखने वाले इन विचारों से आजाद होने में नाकाम थी। अगर परमेश्वर ने बवंडर के जरिए मुझे चेतावनी न दी होती, तो शायद मैं अपना कर्तव्य त्यागकर उससे दूर हो चुकी होती। पारंपरिक संस्कृति के ये विचार काफी आदर्श लगते हैं, पर अपने सार में, ये दरअसल वो अदृश्य बेड़ियाँ हैं जिनसे शैतान लोगों को बाँधे रखता है। इन विचारों ने माँ-बाप और उनके बच्चों के बीच का रिश्ता खराब कर दिया है। उन्होंने माँ-बाप की अपने बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी निभाने को ऐसी दयालुता मानने पर मजबूर कर दिया है जिसका ऋण चुकाना जरूरी है। अगर लोग अपने माँ-बाप का ऋण चुकाने में नाकाम रहते हैं या ऐसा करने की शर्तें पूरी नहीं होती हैं, तो वो सोचेंगे कि उन्होंने अपना संतानोचित धर्म नहीं निभाया और उनके पास जमीर नहीं है, यहाँ तक कि वे जीवन भर ऋणी महसूस करेंगे और खुद को धिक्कारते रहेंगे। शैतान इन पारंपरिक विचारों का इस्तेमाल लोगों में जहर भरकर उन्हें जकड़ने के लिए करता है, ताकि वे परमेश्वर से दूर होकर उसे धोखा दें, और लोगों को नुकसान पहुँचाने का उसका लक्ष्य पूरा हो जाए। जब परमेश्वर ने माँ-बाप और बच्चों के बीच के रिश्ते का खुलासा किया, तो धीरे-धीरे मेरा मन शांत हो गया। मेरे माँ-बाप का खुद को मेरे लिए खपाना कोई बोझ नहीं है जो मुझे अपने कंधों पर उठाना होगा। मुझे माँ-बाप के साथ अपने रिश्ते को शैतानी पारंपरिक संस्कृति के आधार पर नहीं देखना चाहिए, मेरे प्रति उनके प्यार और देखभाल को ऐसी दयालुता नहीं मानना चाहिए जिसका ऋण चुकाना हो। यह सत्य के अनुरूप नहीं है। यह जानकर मेरा दिल काफी हल्का और आजाद हो गया।
फिर मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “माता-पिता वाला रिश्ता किसी के लिए भावनात्मक रूप से संभालने का सबसे कठिन रिश्ता है, लेकिन दरअसल, इसे संभालना पूरी तरह असंभव नहीं है। सिर्फ सत्य की समझ के आधार पर लोग इस मामले से सही और तर्कपूर्ण ढंग से पेश आ सकते हैं। भावनाओं के परिप्रेक्ष्य से शुरू मत करो, और सांसारिक लोगों की अंतर्दृष्टियों या नजरियों से शुरु मत करो। इसके बजाय अपने माता-पिता से परमेश्वर के वचनों के अनुसार उचित ढंग से पेश आओ। माता-पिता वास्तव में कौन-सी भूमिका निभाते हैं, माता-पिता के लिए बच्चों का वास्तविक अर्थ क्या है, माता-पिता के प्रति बच्चों का रवैया कैसा होना चाहिए, और लोगों को माता-पिता और बच्चों के बीच के रिश्ते को कैसे सँभालना और हल करना चाहिए? लोगों को इन चीजों को भावनाओं के आधार पर नहीं देखना चाहिए, न ही उन्हें किन्हीं गलत विचारों या प्रचलित भावनाओं से प्रभावित होना चाहिए; उन्हें परमेश्वर के वचनों के आधार पर सही दृष्टि से देखना चाहिए। अगर तुम परमेश्वर द्वारा नियत माहौल में अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने में नाकामयाब हो जाते हो, या तुम उनके जीवन में कोई भी भूमिका नहीं निभाते, तो क्या यह असंतानोचित होना है? क्या तुम्हारा जमीर तुम पर आरोप लगाएगा? तुम्हारे पड़ोसी, सहपाठी और रिश्तेदार सब तुम्हें गाली देंगे और तुम्हारी पीठ पीछे आलोचना करेंगे। वे तुम्हें यह कह कर एक असंतानोचित बच्चा कहेंगे : ‘तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारे लिए इतने त्याग किए, तुम पर इतनी कड़ी मेहनत की, तुम्हारे बचपन से ही तुम्हारे लिए बहुत-कुछ किया, लेकिन तुम, जो कि एक कृतघ्न बच्चे हो, बिना किसी सुराग के गायब हो गए, एक संदेश तक नहीं भेजा कि तुम सुरक्षित हो। न सिर्फ तुम नव वर्ष के लिए वापस नहीं आते, तुम अपने माता-पिता को एक फोन भी नहीं करते या अभिवादन तक नहीं भेजते।’ जब भी तुम ऐसी बातें सुनते हो, तुम्हारा जमीर रोता है, उससे खून रिसता है, और तुम निंदित महसूस करते हो। ‘ओह, वे सही हैं।’ तुम्हारा चेहरा गर्म होकर लाल हो जाता है, और दिल काँपता है मानो उसमें सुइयाँ चुभाई गई हों। क्या तुम्हें ऐसा महसूस हुआ है? (हाँ, पहले महसूस हुआ है।) क्या पड़ोसियों और तुम्हारे रिश्तेदारों की बात सही है कि तुम संतानोचित नहीं हो? (नहीं, मैं ऐसा नहीं हूँ।) अपनी बात समझाओ। ... पहले तो ज्यादातर लोग अपने कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ने को कुछ हद तक व्यापक वस्तुपरक हालात के कारण चुनते हैं जिससे उनका अपने माता-पिता को छोड़ना जरूरी हो जाता है; वे अपने माता-पिता की देखभाल के लिए उनके साथ नहीं रह सकते; ऐसा नहीं है कि वे स्वेच्छा से अपने माता-पिता को छोड़ना चुनते हैं; यह वस्तुपरक कारण है। दूसरी ओर, व्यक्तिपरक ढंग से कहें, तो तुम अपने कर्तव्य निभाने के लिए बाहर इसलिए नहीं जाते कि तुम अपने माता-पिता को छोड़ देना चाहते हो और अपनी जिम्मेदारियों से बचकर भागना चाहते हो, बल्कि परमेश्वर की बुलाहट की वजह से जाते हो। परमेश्वर के कार्य के साथ सहयोग करने, उसकी बुलाहट स्वीकार करने और एक सृजित प्राणी के कर्तव्य निभाने के लिए तुम्हारे पास अपने माता-पिता को छोड़ने के सिवाय कोई चारा नहीं था; तुम उनकी देखभाल करने के लिए उनके साथ नहीं रह सकते थे। तुमने अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए उन्हें नहीं छोड़ा, सही है? अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए उन्हें छोड़ देना और परमेश्वर की बुलाहट का जवाब देने और अपने कर्तव्य निभाने के लिए उन्हें छोड़ना—क्या इन दोनों बातों की प्रकृतियाँ अलग नहीं हैं? (बिल्कुल।) तुम्हारे हृदय में तुम्हारे माता-पिता के प्रति भावनात्मक लगाव और विचार जरूर होते हैं; तुम्हारी भावनाएँ खोखली नहीं हैं। अगर वस्तुपरक हालात अनुमति दें, और तुम अपने कर्तव्य निभाते हुए भी उनके साथ रह पाओ, तो तुम उनके साथ रहने को तैयार होगे, नियमित रूप से उनकी देखभाल करोगे और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करोगे। लेकिन वस्तुपरक हालात के कारण तुम्हें उनको छोड़ना पड़ता है; तुम उनके साथ नहीं रह सकते। ऐसा नहीं है कि तुम उनके बच्चे के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाना चाहते हो, बल्कि तुम निभा सकते नहीं हो। क्या इसकी प्रकृति अलग नहीं है? (बिल्कुल है।) अगर तुमने संतानोचित होने और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने से बचने के लिए घर छोड़ दिया था, तो यह असंतानोचित होना है और यह मानवता का अभाव दर्शाता है। तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें पाल-पोसकर बड़ा किया, लेकिन तुम अपने पंख फैलाकर जल्द-से-जल्द अपने रास्ते चले जाना चाहते हो। तुम अपने माता-पिता को नहीं देखना चाहते, और उनकी किसी भी मुश्किल के बारे में सुनकर तुम कोई ध्यान नहीं देते। तुम्हारे पास मदद करने के साधन होने पर भी तुम नहीं करते; तुम बस सुनाई न देने का बहाना कर लोगों को तुम्हारे बारे में जो चाहें कहने देते हो—तुम बस अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाना चाहते। यह असंतानोचित होना है। लेकिन क्या स्थिति अभी ऐसी है? (नहीं।) बहुत-से लोगों ने अपने कर्तव्य निभाने के लिए अपनी काउंटी, शहर, प्रांत और यहाँ तक कि अपने देश तक को छोड़ दिया है; वे पहले ही अपने गाँवों से बहुत दूर हैं। इसके अलावा, विभिन्न कारणों से उनके लिए अपने परिवारों के साथ संपर्क में रहना सुविधाजनक नहीं है। कभी-कभी वे अपने माता-पिता की मौजूदा दशा के बारे में उसी गाँव से आए लोगों से पूछ लेते हैं और यह सुन कर राहत महसूस करते हैं कि उनके माता-पिता अभी भी स्वस्थ हैं और ठीक गुजारा कर पा रहे हैं। दरअसल, तुम असंतानोचित नहीं हो; तुम मानवता न होने के उस मुकाम पर नहीं पहुँचे हो, जहाँ तुम अपने माता-पिता की परवाह भी नहीं करना चाहते, या उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाना चाहते। यह विभिन्न वस्तुपरक कारणों से है कि तुम्हें यह चुनना पड़ा है, इसलिए तुम असंतानोचित नहीं हो” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (16))। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि इन वर्षों में मेरे अंदर अपने माँ-बाप की कर्जदार होने की भावना हमेशा इसलिए रही क्योंकि मैं पारंपरिक संस्कृति से प्रभावित और विषाक्त हो चुकी थी। मैंने सोचा कि मैं इन कहावतों के अनुसार नहीं जी पाई, जैसे “कौए अपनी माँओं को खाना दे कर उनका कर्ज चुकाते हैं” और “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए।” मैंने मान लिया था कि मैंने बेटी होने का फर्ज नहीं निभाया। मेरा जमीर मुझे कोस रहा था, और मैं अपने आँसू नहीं रोक पाई। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि हमें किसी व्यक्ति के जमीर और मानवता को उसके बाहरी बर्ताव के आधार पर नहीं, बल्कि उसके क्रियाकलापों के सार के आधार पर आँकना चाहिए। यह वैसा ही है जैसे इन वर्षों में, मैं बस अपनी माँ के बारे में सोचती रही और उनके प्रति संतानोचित कर्तव्यनिष्ठा दिखाना चाहा, क्योंकि परमेश्वर में विश्वास करते हुए कर्तव्य निभाने का मतलब था कि मैं अक्सर उनके साथ नहीं रह सकती थी। और फिर, कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा पीछा करने और सताने के कारण मुझे घर से भागना पड़ेगा और मुझे अपने माँ-बाप के प्रति अपना फर्ज निभाने का मौका नहीं मिलेगा। ऐसा नहीं था कि मैं उनकी सेवा नहीं करना चाहती थी, या अपनी जिम्मेदारी से भागना चाहती थी। यह समस्या अपने सार में संतानोचित कर्तव्यनिष्ठा दिखाने की शर्तें पूरी करते हुए भी ऐसा न करने से अलग थी, मुझे दोनों में भ्रमित नहीं होना चाहिए। मुझे परमेश्वर के वचनों के आधार पर सही से खुद को देखना होगा; सिर्फ ऐसा करके ही मैं शैतान के धोखे और नुकसान से बच सकती थी।
इसके बाद, मैंने परमेश्वर के कुछ और वचन पढ़े, और मैंने अधिक स्पष्टता से देखा कि मुझे माँ-बाप के साथ अपने संबंधों को सही ढंग से कैसे समझना चाहिए। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “अपने माता-पिता के बारे में सोचते समय एक संतान के रूप में उनकी देखभाल के दायित्वों को पूरा करने या न करने का फैसला पूरी तरह से तुम्हारी व्यक्तिगत स्थितियों और परमेश्वर की योजना के आधार पर होना चाहिए। क्या यह बात मामले को बिलकुल ठीक तरीके से स्पष्ट नहीं करती? जब कुछ लोग अपने माता-पिता से अलग होते हैं तो उन्हें लगता है कि उनके माता-पिता ने उनके लिए बहुत कुछ किया है पर वे उनके लिए कुछ नहीं कर रहे हैं। लेकिन, वे जब माता-पिता साथ रह रहे होते हैं तो संतानोचित तरीके से बिलकुल नहीं रहते और माता-पिता के प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह नहीं करते। क्या ऐसा आदमी वास्तव में संतानोचित दायित्वों का निर्वाह करने वाला व्यक्ति है? वह केवल खोखली बातें करने वाला है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या करते हो, क्या सोचते हो, या क्या योजना बनाते हो, वे सब महत्वपूर्ण बातें नहीं हैं। महत्वपूर्ण यह है कि क्या तुम यह समझ सकते हो और सचमुच विश्वास कर सकते हैं कि सभी सृजित प्राणियों का नियंत्रण परमेश्वर के हाथों में हैं। कुछ माता-पिताओं को ऐसा आशीष मिला होता है और ऐसी नियति होती है कि वे घर-परिवार का आनंद लेते हुए एक बड़े और समृद्ध परिवार की खुशियां भोगें। यह परमेश्वर का अधिकारक्षेत्र है, और परमेश्वर से मिला आशीष है। कुछ माता-पिताओं की नियति ऐसी नहीं होती; परमेश्वर ने उनके लिए ऐसी व्यवस्था नहीं की होती। उन्हें एक खुशहाल परिवार का आनंद लेने, या अपने बच्चों को अपने साथ रखने का आनंद लेने का सौभाग्य प्राप्त नहीं है। यह परमेश्वर की व्यवस्था है और लोग इसे जबरदस्ती हासिल नहीं कर सकते। चाहे कुछ भी हो, अंततः जब संतानोचित शील की बात आती है, तो लोगों को कम से कम समर्पण की मानसिकता रखनी चाहिए। यदि वातावरण अनुमति दे और तुम्हारे पास ऐसा करने के साधन हों, तो तुम्हें अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित दायित्व निर्वाह का शील दिखाना चाहिए। अगर वातावरण उपयुक्त न हो और तुम्हारे पास साधन न हों, तो तुम्हें जबरन ऐसा करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए—इसे क्या कहते हैं? (समर्पण।) इसे समर्पण कहा जाता है। यह समर्पण कैसे आता है? समर्पण का आधार क्या है? यह परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित और परमेश्वर द्वारा शासित इन सभी चीजों पर आधारित है। यद्यपि लोग चुनना चाह सकते हैं, लेकिन वे ऐसा नहीं कर सकते, उन्हें चुनने का अधिकार नहीं है, और उन्हें समर्पण करना चाहिए। जब तुम महसूस करते हो कि लोगों को समर्पण करना चाहिए और सब कुछ परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित है, तो क्या तुम्हें अपने हृदय में शांति महसूस नहीं होती? (हां।) क्या तुम्हारी अंतरात्मा तब भी धिक्कार का अनुभव करती रहेगी? उसे अब लगातार धिक्कार की अनुभूति नहीं होगी, और अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित दायित्वों का निर्वाह न कर पाने का विचार अब तुम पर हावी नहीं होगा। इतने पर भी कभी-कभी तुम्हें ऐसा महसूस हो सकता है क्योंकि मानवता में ये एक तरह से सामान्य विचार या सहज प्रवृत्ति है और कोई भी इससे बच नहीं सकता” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य वास्तविकता क्या है?)। “सृष्टिकर्ता की मौजूदगी में, तुम एक सृजित प्राणी हो। तुम्हें इस जीवन में जो करना चाहिए वह सिर्फ अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभाना नहीं, बल्कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ और कर्तव्य निभाना भी है। तुम अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ सिर्फ परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के आधार पर पूरी कर सकते हो, अपनी भावनाओं या अपने जमीर की जरूरतों के आधार पर काम करके नहीं” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (16))। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि जब माँ-बाप और बच्चों के रिश्ते की बात आए, तो परमेश्वर द्वारा निर्धारित माहौल के भीतर, दोनों पक्षों को अपनी क्षमताओं और परिस्थितियों के अनुसार जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए। मनुष्य के भाग्य की बात करें, तो परमेश्वर ने पहले ही निर्धारित किया है कि कोई कितना कष्ट सहेगा और अपने जीवन में उसे कितनी आशीषें मिलेंगी। माँ-बाप यह नहीं निर्धारित कर सकते कि भविष्य में उनके बच्चे किस मार्ग पर चलेंगे, और बच्चे भी अपनी मेहनत से अपने माँ-बाप का भाग्य नहीं बदल सकते। कुछ लोगों के पास कोई आशीष होती है, जो दूसरों के पास नहीं होती। इसे मानवीय इच्छाशक्ति और स्नेह से बदला नहीं जा सकता। जैसे मेरे माँ-बाप ने मुझे डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए तैयार किया, और भले ही उन्होंने बहुत सारे पैसे खर्च किए, आखिर में मैंने इस क्षेत्र में काम नहीं किया। इसी तरह, मैं माँ-बाप के प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखाना चाहती थी, पर मेरे डैड बहुत पहले गुजर गए, फिर मैं अपनी माँ की सेवा करना चाहती थी, पर मैं कभी उनके साथ रह नहीं पाई। पहले, मुझे डर था कि मेरी माँ पीड़ा में होगी और मैं उनके आने वाले समय में उन्हें खुश रखने के लिए हमेशा कड़ी मेहनत करना चाहती थी। साफ-साफ कहूँ, तो मैं अपनी माँ का भाग्य बदलने के लिए सब कुछ झोंककर उन्हें खुश करना चाहती थी। सच तो यह है कि मेरा अपना भाग्य भी मेरे हाथों में नहीं है, कि मैं इस जीवन में क्या करूँगी, या मैं खुश रह सकूँगी या नहीं। मैं अपनी माँ का भाग्य कैसे बदल सकती हूँ? मैंने देखा कि मैं कितनी मूर्ख और अहंकारी थी। मैंने जान लिया कि मेरी माँ के संबंध में मुझे चीजों को जैसे आए वैसे ही स्वीकारना चाहिए और अपनी परिस्थितियों के अनुसार अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए। अगर मैं अपनी माँ के साथ रहकर उनकी देखभाल करने की शर्तें पूरी करती, तो मैं अपनी सर्वोत्तम क्षमता में संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखा पाती। अगर मैं उनके साथ नहीं रह पाई, तो मुझे उसके कारण ऋणी महसूस करने की जरूरत नहीं थी। क्योंकि मैं एक सृजित प्राणी हूँ, मुझे बस परमेश्वर द्वारा मेरे लिए व्यवस्थित माहौल में अच्छे से कर्तव्य निभाना चाहिए। यही सबसे महत्वपूर्ण है।
कुछ समय पहले ही, मैंने अपनी माँ से संपर्क किया था। उन्होंने कहा कि उनके जीवन की सबसे बड़ी खुशी परमेश्वर द्वारा चुना जाना और उसकी वाणी सुनना था, उनकी सबसे बड़ी इच्छा थी कि वो अच्छी तरह कर्तव्य निभाकर परमेश्वर का उद्धार पाने लायक बने। उन्होंने मुझसे भी अच्छी तरह कर्तव्य निभाने को कहा। अपनी माँ की चिट्ठी पढ़कर मैं रो पड़ी। अपनी माँ के प्रति संतानोचित कर्तव्य निभाकर उन्हें बेहतरीन भौतिक जीवन देने के बारे में मेरा जो मानना था उससे उन्हें बिलकुल भी खुशी नहीं मिलती। दरअसल, सांसारिक चीजों को लेकर मेरी माँ की कोई बड़ी अपेक्षाएँ थी ही नहीं। वह बस इतना चाहती थी कि मैं अच्छी तरह परमेश्वर और सत्य का अनुसरण करूँ, और अच्छे से अपना कर्तव्य निभाऊँ—यह उनकी सबसे बड़ी चाहत थी। पहले, मैं सोचती थी कि मुझे अपनी माँ के प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखाने की जिम्मेदारी उठानी चाहिए, क्योंकि उन्होंने और डैड ने मेरे सभी भाई-बहनों में सबसे बड़ी कीमत मेरे लिए चुकाई थी, पर चीजें हमेशा मेरी सोच से अलग होती थीं। बाद में, मैंने सोचा कि भले ही मैं अपनी माँ के साथ नहीं रह सकती, पर मेरा बड़ा भाई माँ के प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखाते हुए उनकी देखभाल करता है। मगर बाद में पता चला कि वो भी माँ के साथ नहीं रह पाता था। मेरे छोटे भाई को पैसे बचाना नहीं आता था, और मैं सोचती थी कि उसके पास बस अपने लिए ही पर्याप्त पैसे हों, तो यही बड़ी बात है। अब माँ की देखभाल वही करता है। परमेश्वर सच में सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है, उन्हें इस तरह व्यवस्थित करता है जिसकी लोग कभी कल्पना या अनुमान तक नहीं लगा सकते, पर वास्तव में परमेश्वर ही प्रत्येक व्यक्ति के भाग्य पर संप्रभुता रखता है और उसकी व्यवस्था करता है, और भाग्य ऐसी चीज है जिसे कोई चुन या बदल नहीं सकता। अब, मुझे उन दयनीय लग रही परिस्थितियों के बारे में बुरा नहीं लगता जो मेरी माँ ने अनुभव किए हैं, और न ही अब मैं उनके भविष्य की चिंता करती हूँ। मैं जानती हूँ कि हम सभी का भाग्य परमेश्वर के हाथों में है, और हर व्यक्ति अच्छी और दयनीय दोनों तरह की परिस्थितियों का अनुभव करेगा, इसमें मैं भी शामिल हूँ। यह कुछ ऐसा है जिससे कोई बच या बदल नहीं सकता। मैं बस अपनी माँ को परमेश्वर के हाथों सौंपकर उससे यही कह सकती हूँ कि वह हमारे लिए व्यवस्थित परिस्थितियों में सत्य का अनुसरण करने की राह दिखाए, और हम दोनों को अपने कर्तव्य अच्छी तरह निभाकर उसके प्रेम का मूल्य चुकाने में हमारा मार्गदर्शन करे। परमेश्वर का धन्यवाद!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?