आज्ञाकारी बनकर सीखा एक सबक

21 अप्रैल, 2023

पिछले साल सितंबर की बात है, मेरे अगुआ ने मुझे एक नई कलीसिया का निरीक्षण सौंपा, जबकि भाई एरिक को मेरी जगह कलीसिया की निगरानी संभालनी थी। जब उसने मुझे यह बात बताई, मैं इसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं थी। मैंने सोचा : इस नई कलीसिया में हर किस्म की समस्या है और इसके प्रोजेक्ट बुरी हालत में हैं, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की भारी कमी है, काफी सारा काम वे नहीं कर पाते हैं, इसलिए मुझे उन्हें सिखाना पड़ेगा या खुद करना पड़ेगा। मैंने सोचा कि उस कलीसिया का निरीक्षण मुसीबत भरा है। अनेक कष्ट उठाकर त्याग तो करने ही पड़ते, कामयाबी की भी कोई गारंटी नहीं थी। मेरी मौजूदा कलीसिया में सब कुछ अलग था, वहाँ सुसमाचार कार्य में अच्छे नतीजे मिलते थे, नए सदस्य स्वतंत्र रूप से काम कर पाते थे मेरा कुछ बोझ हल्का कर सकते थे, लिहाजा मुझे इतनी मुसीबत नहीं उठानी पड़ती थी। जितना सोचा, नया काम संभालने की इच्छा उतनी ही कम हुई। इसलिए मैंने अगुआ से कहा : “एरिक अभी नौसिखिया है और इस काम को अकेले संभालने लायक नहीं है। अगर मैं अभी चली गई, तो शायद वह यहाँ का सारा काम संभालने में सक्षम न रहे, इससे कलीसिया का कार्य प्रभावित हो सकता है। तो क्या मैं यहाँ रुक सकती हूँ?” अगुआ ने कहा, एरिक अपने काम में बहुत पक्का है और उसे विकसित किया जा सकता है। उसने अच्छी तरह सोच रखा था, और कहा कि मेरा जाना ही बेहतर रहेगा। मैं जान गई कि अगुआ ने पहले से मन बना रखा है, मुझे मानना ही होगा। लेकिन बाद में, जब कभी मैं नई कलीसिया के बारे में सोचती, मुझे चिंता और बेचैनी घेर लेती। जानती थी कि मैं बुरी स्थिति में हूँ और अपने कर्तव्य की अनदेखी कर रही हूँ, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करके मार्गदर्शन मांगा ताकि समर्पण कर इस स्थिति का अनुभव ले सकूँ।

बाद में, मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला : “कर्तव्य निभाते समय, लोग हमेशा हल्का काम चुनते हैं, जो उन्हें थकाए नहीं, जिसमें बाहरी तत्त्वों का सामना करना शामिल न हो। इसे आसान काम चुनना और कठिन कामों से भागना कहा जाता है, और यह दैहिक सुखों के लालच की अभिव्यक्ति है। और क्या? (अगर कर्तव्य थोड़ा कठिन, थोड़ा थका देने वाला हो, अगर उसमें कीमत चुकानी पड़े, तो हमेशा शिकायत करना।) (भोजन और वस्त्रों की चिंता और देह के भोगों में लीन रहना।) ये सभी दैहिक सुखों के लालच की अभिव्यक्तियाँ हैं। जब ऐसे लोग देखते हैं कि कोई कार्य बहुत श्रमसाध्य या जोखिम भरा है, तो वे उसे किसी और पर थोप देते हैं; खुद वे सिर्फ आसान काम करते हैं, और बहाने बनाते हैं कि वे उसे क्यों नहीं कर सकते, और कहते हैं कि उनकी क्षमता कम है और उनमें अपेक्षित कौशल नहीं हैं, कि वह उनके लिए बहुत भारी है—जबकि वास्तव में, इसका कारण यह होता है कि वे दैहिक सुखों का लालच करते हैं। ... ऐसा भी होता है कि लोग काम करते समय शिकायत करते हैं, वे मेहनत नहीं करना चाहते, जैसे ही उन्हें थोड़ा अवकाश मिलता है, वे आराम करते हैं, बेपरवाही से बकबक करते हैं, या आराम और मनोरंजन में हिस्सा लेते हैं। और जब काम बढ़ता है और वह उनके जीवन की लय और दिनचर्या भंग कर देता है, तो वे इससे नाखुश और असंतुष्ट होते हैं। वे भुनभुनाते और शिकायत करते हैं, और अपना कर्तव्य निभाने में लापरवाह और अनमने हो जाते हैं। यह दैहिक सुखों का लालच करना है, है न? ... कलीसिया का काम या उनके कर्तव्य कितने भी व्यस्ततापूर्ण क्यों न हों, उनके जीवन की दिनचर्या और सामान्य स्थिति कभी बाधित नहीं होती। वे दैहिक जीवन की छोटी से छोटी बात को लेकर भी कभी लापरवाह नहीं होते और बहुत सख्त और गंभीर होते हुए उन्हें पूरी तरह से नियंत्रित करते हैं। लेकिन, परमेश्वर के घर का काम करते समय, मामला चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो और भले ही उसमें भाई-बहनों की सुरक्षा शामिल हो, वे उससे लापरवाही से निपटते हैं। यहाँ तक कि वे उन चीजों की भी परवाह नहीं करते, जिनमें परमेश्वर का आदेश या वह कर्तव्य शामिल होता है, जिसे उन्हें पूरा करना चाहिए। वे कोई जिम्मेदारी नहीं लेते। यह देह-सुखों का लालच करना है, है न? क्या दैहिक सुखों का लालच करने वाले लोग कोई कर्तव्य निभाने के लिए उपयुक्त होते हैं? उनसे कर्तव्य निभाने की बात करो, कीमत चुकाने और कष्ट सहने की बात करो, तो वे इनकार में सिर हिलाते रहते हैं : उन्हें बहुत सारी समस्याएँ होंगी, वे शिकायतों से भरे होते हैं, वे हर चीज को लेकर नकारात्मक रहते हैं। ऐसे लोग निकम्मे होते हैं, उन्हें अपना कर्तव्य निभाने का अधिकार नहीं है, और उन्हें बाहर का रास्ता दिखा देना चाहिए(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। यह अंश विश्लेषण करता है कि कैसे ऐशोआराम चाहने वाले अपने कर्तव्य में निष्ठावान नहीं होते। वे हमेशा हल्का-फुलका काम चुनते हैं और चीजों में मीन-मेख निकालते हैं। वे हमेशा आसान कार्य चुनते हैं और ज्यादा जिम्मेदारियाँ नहीं लेते, जिन कामों में कष्ट उठाकर त्याग करना पड़े, उन्हें ठुकराने और दूसरों को सौंपने के लिए उनके पास भरपूर तर्क होते हैं। परमेश्वर कहता है कि ऐसे लोग कर्तव्य निभाने योग्य नहीं हैं और वह उन्हें घृणा के लायक पाता है। परमेश्वर के वचनों पर सोच-विचार के बाद मुझे बहुत अपराध-बोध हुआ। परमेश्वर ने ठीक मेरी स्थिति को उजागर किया था। जब अगुआ ने मुझे नई कलीसिया का निरीक्षण सौंपा, मैं बिल्कुल भी तैयार नहीं थी, जानती थी कि नई कलीसिया में काम अभी शुरू ही हुआ है, नतीजे अभी बहुत अच्छे नहीं हैं, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की भी कमी है। काम ठीक से करवाने के लिए भारी कष्ट उठाने होंगे और मेहनत करनी पड़ेगी। जबकि मेरी मौजूदा कलीसिया में, सुसमाचार कार्य में हमें अच्छे नतीजे तो मिल ही रहे हैं, हमारे पास जरूरी अगुआ और कार्यकर्ता भी हैं, इसलिए काम बाँटना भी आसान है। दोनों की तुलना करते हुए, मैंने नई कलीसिया का निरीक्षण संभालने के बजाय यहीं रहने को तरजीह दी। जब मेरे अगुआ ने मेरे साथ संगति की, मैंने जिम्मेदारी किसी और पर टालने के लिए बहाना भी बनाया, कहा कि एरिक में साधारण काबिलियत है, वह अभी अकेले काम नहीं संभाल सकता। अगर मैं चली गई तो कलीसिया के कार्य पर असर पड़ेगा। ऊपरी तौर पर लग रहा था कि मैंने भारी बोझ उठा रखा है और मेरी सारी बातें कलीसिया की भलाई के लिए हैं। लेकिन हकीकत में, मैं नई कलीसिया के निरीक्षण से बचने के लिए बहाने बना रही थी। मुझे देह-सुख की चाह थी, मैं कष्ट उठाकर त्याग नहीं करना चाहती थी। मैंने सिर्फ देह की इच्छाओं के बारे में सोचा और जो काम सबसे आसान और ऐशोआराम वाला था, उसे चुना। मैं अपनी पसंद-नापसंद देखकर काम चुनती थी, मैं परमेश्वर से मक्कारी और विश्वासघात कर रही थी, कोई भी बोझ उठाना नहीं चाहती थी। मैं किसी गैर-विश्वासी जैसी धोखेबाज और कपटी थी। कलीसिया ने बरसों तक मुझे विकसित किया, लेकिन अब जब एक नई कलीसिया में समस्याएँ हैं और मेरी मदद की जरूरत है, तो मैं देह-सुख की चाह में लगी रही और जरूरी काम नहीं किया, तो कलीसिया के कार्य पर असर पड़ेगा, नए सदस्य विकसित नहीं हो पाएंगे और सुसमाचार कार्य में विलंब होता रहेगा। भले ही एरिक सबसे काबिल न हो, उसने सबसे अच्छा काम न किया हो, और सारा काम तुरंत अकेले न संभाल सकता हो, लेकिन मेरी मूल कलीसिया ज्यादा स्थिर थी और एरिक इससे वाकिफ था। अगर जरूरत पड़ने पर मैं उसे सहयोग दूँ, तो कलीसिया के कार्य पर उतना असर नहीं पड़ेगा। कुल मिलाकर, मेरे अगुआ ने मुझे नई कलीसिया का काम सौंपकर सही फैसला किया था। लगातार अपनी देह की इच्छा पूर्ति में लगे रहने और कलीसिया के कार्य की रक्षा न करने से मैं परमेश्वर की घृणा की पात्र बनकर उसके विश्वास के योग्य नहीं रही। यह एहसास होने पर, मैंने मन-ही-मन प्रार्थना की : “प्यारे परमेश्वर, मैं इस माहौल में समर्पण के लिए राजी हूँ। मेरे अगुआ ने मुझे इस नई कलीसिया का निरीक्षण सौंपा है और मैं सहयोग करने और इस कर्तव्य में सब कुछ न्योछावर करने को तैयार हूँ। मैं ऐसी स्वार्थी और घृणित स्थिति में अब नहीं रह सकती।”

इसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा। “वह सब जो परमेश्वर लोगों से करने को कहता है, और परमेश्वर के घर में सभी प्रकार के कार्य—वे सब लोगों को करने होते हैं, वे सभी लोगों के कर्तव्य माने जाते हैं। लोग चाहे कोई भी कार्य करें, यह वह कर्तव्य है जो उन्हें निभाना चाहिए। कर्तव्यों का दायरा बहुत व्यापक होता है और उसमें कई क्षेत्र शामिल होते हैं—लेकिन तुम चाहे कोई भी कर्तव्य निभाओ, सीधे तौर पर कहें तो यह तुम्हारा दायित्व है, यह तुम्हें करना चाहिए। अगर तुम उसे अच्छे से करने का प्रयास करोगे, तो परमेश्वर तुम्हारी प्रशंसा करेगा और तुम्हें परमेश्वर के सच्चे विश्वासी के रूप में अभिस्वीकृत करेगा। तुम चाहे कोई भी हो, अगर तुम अपने कर्तव्य से बचने या जी चुराने की कोशिश करोगे, तो फिर यह समस्या है : नरमी से कहा जाए तो तुम बहुत आलसी हो, बहुत धोखेबाज हो, तुम निठल्ले हो, आरामपसंद हो और श्रम से घृणा करते हो; अधिक गंभीरता से कहा जाए तो तुम अपना कर्तव्य निभाने के इच्छुक नहीं हो, तुममें कोई प्रतिबद्धता नहीं है, कोई आज्ञाकारिता नहीं है। यदि तुम इस छोटे-से कार्य में भी प्रयास नहीं कर सकते, तो तुम क्या कर सकते हो? तुम ठीक से क्या करने में सक्षम हो? यदि कोई व्यक्ति वास्तव में समर्पित है, और अपने कर्तव्य के प्रति जिम्मेदारी की भावना रखता है, तो अगर परमेश्वर द्वारा कुछ अपेक्षित है, और परमेश्वर के घर को उसकी आवश्यकता है, तो वह बिना किसी चयन के वह सब-कुछ करेगा जो उससे करने के लिए कहा जाता है। क्या यह कर्तव्य-निर्वहन के सिद्धांतों में से एक नहीं है कि व्यक्ति जो कुछ भी करने में सक्षम है, उसकी जिम्मेदारी लेकर उसे पूरा करे? (हाँ।)” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुले आम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग चार))। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि कलीसिया ने चाहे जो भी काम सौंपा हो, चाहे वो सरल हो या कठिन, यह मेरी जिम्मेदारी है और मुझे इसे स्वीकारना चाहिए। अच्छे नतीजे लाने के लिए भरसक प्रयास और कड़ी मेहनत करनी चाहिए। मेरी अंतरात्मा और समझ ऐसी ही होनी चाहिए। मेरे अगुआ ने मुझे नई कलीसिया का निरीक्षण सौंपा, भले ही वहाँ के काम में कुछ समस्याएँ थीं, मैं देह-सुख की चाह में लगी रहकर हमेशा मीन-मेख नहीं निकाल सकती। मुझे बस परमेश्वर पर भरोसा कर काम पूरे करने थे, कलीसिया के कार्य की गति तेज कर कर्तव्य निभाना था। मुझसे बस यही अपेक्षा थी। उसके बाद मैंने कलीसिया के कर्मियों और मौजूदा कार्य की स्थिति का पता लगाकर सिद्धांतों पर संगति की और उन्हें प्रशिक्षण देना शुरू किया। बाद में मुझे पता चला कि सुसमाचार कार्य पिछड़ने का कारण यह था कि सिंचन कार्यकर्ता काम का जायजा लेने में ढिलाई बरतते थे। उन्होंने परमेश्वर के अंत के दिनों का कार्य जाँचने वाले लोगों की धार्मिक धारणाओं पर संगति कर इनका समाधान नहीं किया, और वे अपने कार्य के कुछ पहलुओं को पूरा नहीं कर रहे थे। इसलिए मैंने साराँश तैयार किया और उनके भटकावों और त्रुटियों पर संगति की और जिन्हें जरूरत थी उनकी मदद की, काट-छाँट और निपटान किया, जब तक सभी मसले हल नहीं हो गए। धीरे-धीरे, भाई-बहनों के कार्य में सुधार आने लगा और कलीसिया का कार्य भी गति पकड़ने लगा। इस तरीके से काम करके मुझे बहुत आत्मविश्वास और सुकून का एहसास हुआ। मैंने सोचा कि इन हालात से गुजरने के बाद मुझमें कुछ बदलाव आ चुका है, लेकिन उसके तुरंत बाद, कुछ ऐसा हुआ जिसने मुझे एक बार फिर उजागर कर दिया।

सितंबर के आखिर में, मेरे अगुआ ने बताया कि उसने मुझे एक और नई कलीसिया का निरीक्षण सौंपने की सोची है। यह सुनकर मुझे बहुत गुस्सा आया : “इस कलीसिया का निरीक्षण मेरी मौजूदा कलीसिया से भी कठिन होगा। वहाँ अगुआओं और कार्यकर्ताओं की तो कमी है ही, वे अपने काम में भी नौसिखिये हैं। इस कलीसिया का कार्य सुधारने के लिए बहुत कष्ट उठाने और प्रतिबद्धता दिखाने की जरूरत है।” मैं यह काम बिल्कुल नहीं संभालना चाहती थी। मैंने अपने अगुआ को बोल ही दिया : “नई कलीसियाओं का निरीक्षण हमेशा मुझे ही क्यों सौंपा जाता है? मैं जिस कलीसिया का निरीक्षण कर रही हूँ, उसके काम में अभी सुधार शुरू ही हुआ है। क्या आप नई कलीसिया का निरीक्षण किसी अन्य भाई-बहन को नहीं सौंप सकते?” यह कहते ही, मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से अपना दायित्व दूसरों के मत्थे मढ़ने की कोशिश में हूँ। मैं अब भी देह-सुख की चाह में लगी थी और त्याग नहीं करना चाहती थी। मैंने खुद से कहा : “मेरी इस स्थिति के पीछे परमेश्वर की इच्छा है, इसलिए समझ में न आने के बावजूद, मुझे पहले समर्पण करना होगा।” जब मैंने फोन रखा तो मैं बहुत बुरा महसूस कर रही थी। हर बार दूसरा काम मुझे ही क्यों सौंपा गया, परमेश्वर की इच्छा पर ध्यान देने और उसके आयोजन और व्यवस्था के आगे समर्पण करने के बजाय मैं सिर्फ यही सोचती थी कि कैसे ज्यादा से ज्यादा ऐशोआराम की जिंदगी जी जाए? मैंने जितना ज्यादा सोचा, उतना ही बुरा लगा। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना कर मुझे प्रबुद्ध करने और राह दिखाने को कहा, ताकि आत्म-चिंतन कर खुद को जान सकूं।

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े जिनका मुझ पर गहरा असर पड़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “जब तक लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर लेते हैं और सत्य को समझ नहीं लेते हैं, तब तक यह शैतान की प्रकृति है जो भीतर से इन पर नियंत्रण कर लेती है और उन पर हावी हो जाती है। वह प्रकृति विशिष्ट रूप से किस चीज को अपरिहार्य बनाती है? उदाहरण के लिए, तुम स्वार्थी क्यों हो? तुम अपने पद की रक्षा क्यों करते हो? तुम्हारी भावनाएँ इतनी प्रबल क्यों हैं? तुम उन अधार्मिक चीज़ों से प्यार क्यों करते हो? ऐसी बुरी चीजें तुम्हें अच्छी क्यों लगती हैं? ऐसी चीजों को पसंद करने का आधार क्या है? ये चीजें कहाँ से आती हैं? तुम इन्हें स्वीकारकर इतने खुश क्यों हो? अब तक, तुम सब लोगों ने समझ लिया है कि इन सभी चीजों के पीछे मुख्य कारण यह है कि मनुष्य के भीतर शैतान का जहर है। तो शैतान का जहर क्या है? इसे कैसे व्यक्त किया जा सकता है? उदाहरण के लिए, यदि तुम पूछते हो, ‘लोगों को कैसे जीना चाहिए? लोगों को किसके लिए जीना चाहिए?’ तो लोग जवाब देंगे, ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये।’ यह अकेला वाक्यांश समस्या की जड़ को व्यक्त करता है। शैतान का फलसफा और तर्क लोगों का जीवन बन गया है। लोग चाहे जिसका भी अनुसरण करें, वे उसे बस अपने लिए करते हैं, और इसलिए वे केवल अपने लिए जीते हैं। ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये’—यही मनुष्य का जीवन-दर्शन है, और इंसानी प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है। ये शब्द पहले ही भ्रष्ट इंसान की प्रकृति, भ्रष्ट इंसान की शैतानी प्रकृति की सच्ची तस्वीर बन गए हैं, और यह शैतानी प्रकृति पहले ही भ्रष्ट इंसान के अस्तित्व का आधार बन चुकी है; कई हजार सालों से वर्तमान दिन तक भ्रष्ट इंसान शैतान के इस जहर से जिया है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पतरस के मार्ग पर कैसे चलें)। “उनका आदर्श वाक्य होता है, ‘जीवन सिर्फ खाने और कपड़े पहनने के बारे में है,’ ‘चार दिन की ज़िंदगी है, मौज कर लो’ और ‘आज मौज करो, कल की फिक्र कल करना।’ वे आने वाले हर दिन का आनंद लेते हैं, भरपूर मजा करते हैं और भविष्य के बारे में कोई विचार नहीं करते, वे इस बात पर तो बिल्कुल विचार नहीं करते कि एक अगुआ को कौन-सी जिम्मेदारियां निभानी चाहिए और किन कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। वे सिद्धांत के कुछ शब्दों और वाक्यांशों की तोता-रटंत करते हैं और दिखावे के लिए कुछ तुच्छ कार्य करते हैं। लेकिन वे कोई वास्तविक कार्य नहीं करते, वे कलीसिया की समस्याओं को पूरी तरह हल करने के लिए उन्हें गहराई से समझने की कोशिश नहीं करते। ऐसे सतही काम करने की क्या तुक है? क्या यह धोखेबाजी नहीं है? क्या ऐसे नकली अगुआ को गंभीर जिम्मेदारियां सौंपी जा सकती हैं? क्या वे अगुआओं और कर्मियों के चयन के लिए परमेश्वर के घर के सिद्धांतों और शर्तों के अनुरूप हैं? (नहीं।) ऐसे लोगों में न तो अंतरात्मा होती है और न ही विवेक, उनमें जिम्मेदारी की कोई भावना नहीं होती और फिर भी वे आधिकारिक तौर पर एक कलीसिया-अगुआ के रूप में सेवा करना चाहते हैं—वे इतने बेशर्म क्यों होते हैं? कुछ लोग जिनमें जिम्मेदारी की भावना होती है, वे खराब क्षमता के होते हैं और वे अगुआ नहीं हो सकते—फिर उस इंसानी कचरे की तो बात ही क्या करें जिसमें जिम्मेदारी का रत्तीभर भी एहसास नहीं होता; उनमें अगुआ बनने की योग्यता तो और भी कम होती है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। परमेश्वर के वचनों पर सोच-विचार के बाद ही मैंने जाना कि हर बार दूसरा काम सौंपे जाने पर मेरी तीव्र प्रतिक्रिया होने और कष्ट सहने और बोझ उठाने की इच्छा न होने का मुख्य कारण मेरा बेहद आलसी होना और ऐशोआराम की कामना थी। बचपन से ही, मैं शैतान के प्रभाव में ढल चुकी थी और कहावत जैसे कि “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये,” “आज मौज करो, कल की फिक्र कल करना” वो शैतानी फलसफे बन गए जिनके अनुसार मैं जीती थी। मेरा जीवन दर्शन और मेरे मूल्य विकृत और पथभ्रष्ट हो गए। मैं सोचती थी कि जब तक जिंदगी है हमें मजे करने चाहिए, खुद को थकाने की कोई जरूरत नहीं है। हमें अपना ध्यान रखना चाहिए, खुद के साथ अच्छे से पेश आना चाहिए। विश्वासी बनने से पहले, मैं सिर्फ प्रोटोकॉल का पालन करके और अपने काम पूरे करके संतुष्ट हो जाती थी जरूरत से ज्यादा कुछ नहीं करती थी। कभी-कभी जब हमें देर तक काम करना पड़ता था, तो मैं सोचती कि यह कितना तनावपूर्ण और थकाऊ है और छुट्टी माँग लेती थी। आस्था रखने के बाद भी मैं इन्हीं चीजों की चाह रखती थी। मैं कष्ट उठाने और त्याग से बचने की कोशिश करती थी ऐसा काम चाहती थी जिसमें ऐशोआराम पूरा हो और दिक्कत कोई न हो। इसलिए जब मेरे अगुआ ने मुझे इन दो कलीसियाओं के निरीक्षण का काम सौंपा, जहाँ कई समस्याएँ होने के कारण काफी कष्ट उठाने पड़ते और त्याग करना पड़ता, मैं ऐसा न करके काम किसी और पर टालना चाहती थी। लेकिन, वास्तव में, मैं जानती थी कि काफी समय से काम करने और कुछ अनुभवी होने के कारण मुझे ही ज्यादा कठिनाई वाली कलीसियाओं का निरीक्षण करना चाहिए। लेकिन मैं अपना दैहिक सुख छोड़कर भारी बोझ नहीं उठाना चाहती थी। परमेश्वर के अनुग्रह से मुझे कलीसिया के सुपरवाइजर के रूप में काम करने का अवसर मिला था, इसलिए मुझे परमेश्वर के प्रेम का कर्ज चुकाने के लिए अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए। लेकिन अपना कर्तव्य ठीक से न निभाकर मैं हमेशा ढिलाई बरतना और आरामतलब बनना चाहा। मैं इन्हीं शैतानी धारणाओं को जी रही थी, स्वार्थी और घिनौनी बन चुकी थी, मुझमें चरित्र या ईमान जैसी चीज नहीं थी। यह एहसास होने के बाद, मुझे लगा कि इस तरह जीते रहना तो बहुत खतरनाक होगा। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और कर्तव्य के प्रति अपना नजरिया बदलने को राजी हो गई।

बाद में, मैंने यह अंश पढ़ा। “वास्तव में, हर कार्य में कुछ कठिनाई रहती है। शारीरिक श्रम में शारीरिक कठिनाई रहती है और मानसिक श्रम में मानसिक कठिनाई; हर एक की अपनी कठिनाइयाँ हैं। हर चीज कहनी आसान है, करनी कठिन। जब लोग वास्तव में कार्य करते हैं, तो एक ओर तुम्हें उनके चरित्र को देखना चाहिए, और दूसरी ओर, तुम्हें यह देखना चाहिए कि वे सत्य से प्रेम करते हैं या नहीं। पहले लोगों के चरित्र की बात करते हैं। यदि व्यक्ति अच्छे चरित्र का है, तो वह हर चीज का सकारात्मक पक्ष देखता है, और चीजों को सकारात्मक दृष्टिकोण से और सत्य के आधार पर स्वीकार करने और समझने में सक्षम होता है; अर्थात् उसका हृदय, चरित्र और आत्मा धार्मिक हैं—यह चरित्र के दृष्टिकोण से है। आगे हम दूसरे पहलू के बारे में बात करते हैं—वह सत्य से प्रेम करता है या नहीं। सत्य से प्रेम करने का अर्थ सत्य को स्वीकार करने में सक्षम होना है अर्थात् यदि, चाहे तुम परमेश्वर के वचनों को समझते हो या नहीं, और चाहे तुम परमेश्वर की इच्छा समझते हो या नहीं, चाहे उस कार्य, उस कर्तव्य जिसे निभाने की तुमसे अपेक्षा की जाती है, के बारे में तुम्हारा विचार, मत और दृष्टिकोण सत्य के अनुरूप हो या नहीं, अगर तुम फिर भी उसे परमेश्वर की देन मान सकते हो, और आज्ञाकारी और ईमानदार हो, तो यह पर्याप्त है, यह तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने के योग्य बनाता है, यह न्यूनतम अपेक्षा है। अगर तुम आज्ञाकारी और ईमानदार हो, तो कोई कार्य करते हुए तुम लापरवाह और असावधान नहीं होते, और सुस्त होने के तरीके तलाश नहीं करते, बल्कि अपना सारा तन-मन उसमें लगा देते हो। भीतर गलत अवस्था होने से नकारात्मकता पैदा होती है, जिससे लोगों में काम करने का जोश खत्म हो जाता है, इसलिए वे लापरवाह और आलसी हो जाते हैं। वे अपने हृदय में अच्छी तरह से जानते हैं कि उनकी अवस्था ठीक नहीं है, और फिर भी सत्य की खोज करके उसे ठीक करने की कोशिश नहीं करते। ऐसे लोगों को सत्य से प्रेम नहीं होता, वे केवल अपना कर्तव्य निभाने के थोड़े-बहुत ही इच्छुक होते हैं; वे कोई प्रयास करने या कठिनाई सहने के इच्छुक नहीं होते हैं, और हमेशा शिथिलता दिखाने के तरीके तलाशते रहते हैं। वास्तव में, परमेश्वर यह सब पहले ही देख चुका है—तो वह इन लोगों पर ध्यान क्यों नहीं देता? परमेश्वर बस अपने चुने हुए लोगों के जागने और उन लोगों की असलियत पहचानने की प्रतीक्षा कर रहा है, कि वे उन्हें उजागर करके निकाल दें। लेकिन, ऐसे लोग फिर भी अपने मन में यही सोचते हैं, ‘देखो मैं कितना चतुर हूँ। हम वही खाना खाते हैं, लेकिन काम करने के बाद तुम लोग पूरी तरह से थक जाते हो। मैं बिलकुल भी नहीं थका। मैं चतुर हूँ; जो कोई वास्तविक कार्य करता है, वह मूर्ख है।’ क्या उनका ईमानदार लोगों को इस तरह से देखना सही है? नहीं। वास्तव में, जो लोग अपना कर्तव्य निभाते हुए वास्तविक कार्य करते हैं, वे सत्य का अनुसरण करके परमेश्वर को संतुष्ट करते हैं, इसलिए वे सबसे चतुर लोग होते हैं। उन्हें चतुर क्या बनाता है? वे कहते हैं, ‘मैं ऐसा कुछ नहीं करता जो परमेश्वर मुझसे करने के लिए नहीं कहता, और मैं वह सब करता हूँ जो वह मुझसे करने के लिए कहता है। वह जो कुछ भी करने को कहता है, मैं करता हूँ, और उसे दिल लगाकर, मैं उसमें अपना सब-कुछ लगा देता हूँ, मैं कोई चाल बिलकुल नहीं चलता। मैं उसे किसी व्यक्ति के लिए नहीं, बल्कि परमेश्वर के लिए करता हूँ। परमेश्वर मुझसे बहुत प्यार करता है, मुझे परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए यह करना चाहिए।’ यह सही मनःस्थिति है, और इसका परिणाम यह होता है कि जब कलीसिया के शुद्धिकरण का समय आता है, तो जो लोग अपने कर्तव्य का पालन करने में अस्थिर होते हैं, वे सभी निकाल दिए जाते हैं, जबकि जो लोग ईमानदार होते हैं और परमेश्वर की जाँच स्वीकार करते हैं, वे बने रहते हैं। इन ईमानदार लोगों की अवस्था और मजबूत होती जाती है, और उन पर जो भी मुसीबत आती है, परमेश्वर उनकी रक्षा करता है। और उन्हें यह सुरक्षा क्यों मिलती है? क्योंकि वे दिल से ईमानदार होते हैं। वे अपना कर्तव्य निभाते हुए कठिनाई या थकावट से नहीं डरते, और सौंपे जाने वाले किसी भी काम में मीनमेख नहीं निकालते; वे कभी ‘क्यों’ नहीं कहते, वे बस जैसा कहा जाता है वैसा करते हैं, बिना जाँच या विश्लेषण किए, या किसी भी अन्य बात पर विचार किए, वे आज्ञा का पालन करते हैं; उनके कोई गुप्त इरादे नहीं होते, बल्कि वे सभी चीजों में आज्ञाकारी होने में सक्षम होते हैं। उनकी आंतरिक स्थिति हमेशा बहुत सामान्य होती है; खतरे से सामना होने पर परमेश्वर उनकी रक्षा करता है; जब उन पर बीमारी या महामारी पड़ती है, तब भी परमेश्वर उनकी रक्षा करता है—वे बहुत धन्य हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुले आम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग चार))। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि अंतरात्मा वाले और सच्चरित्र लोगों में कर्तव्य के प्रति ईमानदार नजरिया होता है। जब उनके कार्यों में समस्याएँ आती हैं तो वे कष्ट उठाकर और त्याग करके सुधार के जतन करते हैं, काम में अपना भरसक प्रयास करते हैं ताकि अच्छे नतीजे हासिल कर सकें। ऐसे लोगों को अपने कार्यों में परमेश्वर का प्रबोधन और मार्गदर्शन मिलता है और उनकी स्थिति सुधरती रहती है। लेकिन जिनमें अंतरात्मा और समझ का अभाव होता है, वे काम में मुश्किलें आते ही अपना दुखड़ा रोने और कराहने लगते हैं, सिर्फ अपना हित सोचते हैं, दिल से सहयोग नहीं करते और ऐसा करके खुद को होशियार भी समझते हैं। परमेश्वर ऐसे लोगों से बेहद घृणा करता है और आखिरकार उन्हें उजागर कर निकाल देता है। क्या मैं भी खुद को वैसी ही होशियार नहीं मानती थी? बाहरी तौर पर मैं अपने अगुआ को मूर्ख बना सकती थी—मैं नई कलीसिया के निरीक्षण में होने वाले कष्टों से बच सकती थी, अगुआ को मेरी सोच पता भी नहीं चलती और वह मेरे विरुद्ध कुछ नहीं कह सकता था। लेकिन परमेश्वर हमारे हर विचार का परीक्षण करता है। अगर उसने देख लिया कि मैं हमेशा अपने कर्तव्य मेंढिलाई बरतती हूँ और ऐशोआराम चाहती हूँ, कलीसिया के कार्यों की बिल्कुल भी रक्षा नहीं करती हूँ, तो वह मुझसे घृणा करेगा। अगर मैंने पश्चात्ताप नहीं किया, तो परमेश्वर मुझे पूरी तरह त्याग कर निकाल देगा। मैंने उन लोगों के बारे में सोचा जिन्हें पहले निकाला जा चुका था—वे हमेशा ढिलाई बरतते थे और आधे-अधूरे मन से काम करते थे इसलिए उन्हें उनके ओहदे से हटा दिया गया, वे अपनी ही चालाकियों के शिकार बन गए। इस बारे में सोच-विचार करके मैं थोड़ी डर गई, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना कर कहा कि मैं काम को लेकर अपना नजरिया सुधारने, जिम्मेदारी लेने और ठीक से कर्तव्य पालन के लिए तैयार हूँ।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिसने मुझे अभ्यास का मार्ग दिया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “परमेश्वर द्वारा सौंपे गए काम को स्वीकार करने के बाद नूह परमेश्वर द्वारा कहे गए जहाज का निर्माण पूरा करने में इस तरह जुट गया, जैसे यह उसके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण काम हो। दिन बीतते गए, साल बीतते गए, दिन पर दिन, साल-दर-साल। परमेश्वर ने नूह पर कभी कोई दबाव नहीं डाला, परंतु इस पूरे समय में नूह परमेश्वर द्वारा सौंपे गए महत्वपूर्ण कार्य में दृढ़ता से लगा रहा। परमेश्वर का हर शब्द और वाक्यांश नूह के हृदय पर पत्थर की पटिया पर उकेरे गए शब्दों की तरह अंकित हो गया था। बाहरी दुनिया में हो रहे परिवर्तनों से बेखबर, अपने आसपास के लोगों के उपहास से बेफिक्र, उस काम में आने वाली कठिनाई या पेश आने वाली मुश्किलों से बेपरवाह, वह परमेश्वर द्वारा सौंपे गए काम में दृढ़ता से जुटा रहा, वह न कभी निराश हुआ और न ही उसने कभी काम छोड़ देने की सोची। परमेश्वर के वचन नूह के हृदय पर अंकित थे, और वे उसके हर दिन की वास्तविकता बन चुके थे। नूह ने जहाज के निर्माण के लिए आवश्यक हर सामग्री तैयार कर ली, और परमेश्वर ने जहाज के लिए जो रूप और विनिर्देश दिए थे, वे नूह के हथौड़े और छेनी के हर सजग प्रहार के साथ धीरे-धीरे आकार लेने लगे। आँधी-तूफान के बीच, इस बात की परवाह किए बिना कि लोग कैसे उसका उपहास या उसकी बदनामी कर रहे हैं, नूह का जीवन साल-दर-साल इसी तरह गुजरता रहा। परमेश्वर बिना नूह से कोई और वचन कहे उसके हर कार्य को गुप्त रूप से देख रहा था, और उसका हृदय नूह से बहुत प्रभावित हुआ। लेकिन नूह को न तो इस बात का पता चला और न ही उसने इसे महसूस किया; आरंभ से लेकर अंत तक उसने बस परमेश्वर के वचनों के प्रति दृढ़ निष्ठा रखकर जहाज का निर्माण किया और सब प्रकार के जीवित प्राणियों को इकट्ठा कर लिया। नूह के हृदय में कोई उच्चतर निर्देश नहीं था जिसका उसे पालन और क्रियान्वयन करना था : परमेश्वर के वचन ही उसकी जीवन भर की दिशा और लक्ष्य थे। इसलिए, परमेश्वर ने उससे चाहे कुछ भी बोला हो, उसे कुछ भी करने को कहा हो, उसे कुछ भी करने की आज्ञा दी हो, नूह ने उसे पूरी तरह से स्वीकार कर स्मृति के सुपुर्द कर दिया और उसे अपने जीवन के सबसे बड़े उद्यम के रूप में लिया। वह न केवल भूला नहीं, उसने न केवल उन सारी बातों को अपने दिमाग में बैठाकर रखा, बल्कि उसने उन्हें अपने जीवन की वास्तविकता बना लिया, और अपने जीवन का इस्तेमाल परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करने और उसे क्रियान्वित करने के लिए किया। और इस प्रकार, तख्त-दर-तख्त, जहाज बनता चला गया। नूह का हर कदम, उसका हर दिन परमेश्वर के वचनों और उसकी आज्ञाओं के प्रति समर्पित था। भले ही ऐसा न लगा हो कि नूह कोई बहुत महत्वपूर्ण कार्य कर रहा है, लेकिन परमेश्वर की दृष्टि में, नूह ने जो कुछ भी किया, यहाँ तक कि कुछ हासिल करने के लिए उठाया गया उसका हर कदम, उसके हाथ द्वारा किया गया हर श्रम—वे सभी कीमती, याद रखने योग्य और इस मानवजाति द्वारा अनुकरणीय थे। परमेश्वर ने नूह को जो कुछ सौंपा था, उसने उसका पालन किया। वह अपने इस विश्वास पर अडिग था कि परमेश्वर द्वारा कही हर बात सत्य है; इस बारे में उसे कोई संदेह नहीं था। और परिणामस्वरूप, जहाज बनकर तैयार हो गया, और उसमें हर किस्म का जीवित प्राणी रहने में सक्षम हुआ(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण दो : कैसे नूह और अब्राहम ने परमेश्वर के वचन सुने और उसके प्रति समर्पण किया (भाग एक))। नूह की कहानी ने मुझ पर गहरा असर डाला। परमेश्वर का आदेश पाकर, नूह ने अपने हितों की कभी नहीं सोची, सिर्फ परमेश्वर का आदेश पूरा करने की सोचता रहा। उसने अपनी जिंदगी में हर चीज परे रख दी, भले ही जहाज बनाना बहुत भारी काम था और इसमें कई मुश्किलें थीं, पर नूह इसे बनाने में जुटा रहा, लकड़ी के पटरे बिछाता गया, 120 साल तक धूप-बरसात में डटा रहा। उसने कभी शिकायत नहीं की, आखिरकार परमेश्वर का आदेश पूरा कर उसकी स्वीकृति हासिल की। परमेश्वर के आदेश के प्रति नूह के नजरिये से अपनी तुलना करने पर मुझे बुरा लगा। नूह ने जितने कष्ट सहे उसके मुकाबले मैंने तो कुछ नहीं सहा था, जरा-सी दिक्कत होने या दबाव पड़ने से ही, मैं शिकायत करने लगी और अपना काम दूसरों पर टालना चाहा। मैं न तो वफादार थी, न मेरे पास सत्य के अभ्यास की कोई गवाही ही थी। मैं परमेश्वर की बड़ी कर्जदार होने और पछतावे के भाव से भर उठी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना और पश्चात्ताप करके ऐशोआराम की चाहत छोड़कर ठीक से कर्तव्य पालन के लिए नूह का अनुकरण करने की इच्छा जताई। भले ही मुझे कर्तव्य पालन में समस्याएँ और दिक्कतें हों, मुझे अपना काम कर परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए त्याग करना और कठिनाइयाँ सहनी चाहिए। इसके बाद मैंने अपने अगुआ से कहा : “मैं नई कलीसिया का निरीक्षण संभालने के लिए तैयार हूँ। आगे से आप मुझे जहाँ भी भेजना चाहें, मैं कलीसिया की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित रहूँगी।” यह कहने के बाद मैंने काफी सुकून महसूस किया। हालाँकि, तब तक अगुआ मुझे भेजने की बजाय उस कलीसिया का निरीक्षण बहन साशा को सौंप चुका था।

लेकिन जल्द ही, मैंने सुना कि साशा को कलीसिया में अपना सारा संभालने में दिक्कत हो रही है, और वह वहाँ का निरीक्षण नहीं कर सकेगी। यानी आखिरकार अगुआ मुझे वहाँ भेजना चाहेगा। जैसे ही मैंने उस कलीसिया की सारी दिक्कतों के बारे में सोचा, मैं तुरंत तनाव में आ गई। लेकिन तभी मैंने सोचा कि मैं फिर से देह-सुख की चाह में लगी हूँ, कष्ट उठाना नहीं चाहती, इसलिए मैंने प्रार्थना की : “प्यारे परमेश्वर, जब चीजें सामने आती हैं तो मैं हमेशा अपने हितों के बारे में नहीं सोचना चाहती हूँ। मुझे राह दिखाओ ताकि मैं समर्पण कर सकूँ।” तभी, मैंने परमेश्वर के इन वचनों को याद किया : “यदि कोई व्यक्ति वास्तव में समर्पित है, और अपने कर्तव्य के प्रति जिम्मेदारी की भावना रखता है, तो अगर परमेश्वर द्वारा कुछ अपेक्षित है, और परमेश्वर के घर को उसकी आवश्यकता है, तो वह बिना किसी चयन के वह सब-कुछ करेगा जो उससे करने के लिए कहा जाता है। क्या यह कर्तव्य-निर्वहन के सिद्धांतों में से एक नहीं है कि व्यक्ति जो कुछ भी करने में सक्षम है, उसकी जिम्मेदारी लेकर उसे पूरा करे? (हाँ।)” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुले आम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग चार))। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि जो लोग परमेश्वर के वफादार हैं, उन्हें चाहे जो भी भूमिका सौंपी जाए, वे अपने कर्तव्य और जिम्मेदारियां पूरी करने के लिए हर मुमकिन प्रयास करते हैं। ऐसा ही व्यक्ति कलीसिया के कार्य को कायम रखता है। मैंने फिर से खुद को इस स्थिति में इसलिए पाया क्योंकि कलीसिया के काम में मेरी मदद की जरूरत थी। मैं अपने हितों और ऐशोआराम के बारे में नहीं सोच सकी। मुझे चाहे सुपरवाइजर बनाया जाए या नहीं, मैं समर्पण के लिए तैयार थी। बाद में, अगुआ ने मुझे उस कलीसिया का दायित्व सौंपा तो उस पल मैंने इसे सहज ही स्वीकार कर लिया। कलीसिया की कमान संभालने के बाद, मैं धीरे-धीरे काम में जुटी और लगातार जाँच-परख करके कुछ समस्याएं खोजने और उनका समाधान करने में कामयाब रही।

ऊपरी तौर पर लग रहा था कि यह दायित्व मुझे थका रहा है, लेकिन सच कहूँ तो इस बदलाव ने मुझे बचा लिया और प्रेरित भी किया। मैं पहले जिस कलीसिया को संभालती थी, वह अधिक व्यवस्थित होकर अच्छे नतीजे दे रही थी, इसलिए मैं अनजाने में आत्म-संतुष्ट हो गई और एक ढर्रे पर चलने लगी। मैं अधिक से अधिक आलसी और निष्क्रिय होती गई। नई कलीसिया में समस्याएँ ज्यादा थीं, लेकिन इसने मुझे प्रार्थना करके मुश्किल घड़ी में परमेश्वर पर भरोसा रखने और मसले हल करने के लिए सत्य खोजने को प्रेरित किया। मैंने खुद को परमेश्वर के ज्यादा करीब पाया और बहुत कुछ सीखा। परमेश्वर का धन्यवाद!

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