बच्चों का कर्जदार होने की भावना को मैंने त्याग दिया
यी शान, चीन2003 में, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार कर लिया। प्रभु यीशु की वापसी का स्वागत कर पाने के कारण...
हम परमेश्वर के प्रकटन के लिए बेसब्र सभी साधकों का स्वागत करते हैं!
मेरा जन्म एक गरीब किसान परिवार में हुआ था। और मिडिल स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद, मैं काम की तलाश में घर से निकल गया। बाद में, मैंने अपना परिवार बसाया और मेरे बच्चे हुए। मैं हमेशा बहुत मेहनत करता था, लेकिन गुज़ारा करना अक्सर मुश्किल होता था। जब मेरे बहनोई को मेरी हालत के बारे में पता चला, तो उसने मुझे अपनी टीम में एक्सकेवेटर चलाने का काम दिया। अगले कुछ सालों में, मैंने कुछ पैसे कमा लिए और मैंने एक नया घर बना लिया और ज़िंदगी भी कुछ बेहतर हो गई।
2013 में, मैंने परमेश्वर के अंत के दिनों के सुसमाचार को स्वीकार किया और अपने विश्वास और काम के बीच संतुलन बनाए रखा। मैंने सोचा कि मुझे अपनी जवानी में बेटे के लिए और पैसे कमाने चाहिए, ताकि बाद में उसकी मदद कर सकूँ। एक पिता के तौर पर यह मेरी ज़िम्मेदारी थी। बाद में, मैंने कलीसिया में एक टीम अगुआ का कर्तव्य निभाना शुरू किया, और फिर 2017 में, मुझे एक सिंचन उपयाजक के रूप में सेवा करने के लिए चुना गया। लेकिन, मैं मन से इसे स्वीकार नहीं करना चाहता था, क्योंकि मैं जानता था कि सिंचन उपयाजक बनना एक छोटे समूह की अगुआई करने जितना आसान नहीं होगा। मुझे सभाओं के लिए नए विश्वासियों के समय के अनुसार चलना होगा, और इससे खुदाई के काम से होने वाली कमाई पर निश्चित रूप से असर पड़ेगा। अगर मैंने पर्याप्त पैसे नहीं बचाए, तो आगे बढ़ने में अपने बेटे की मदद कैसे करूँगा? यह सब सोचकर, मैंने उस कर्तव्य को अस्वीकार कर दिया। लेकिन बाद में मुझे बहुत अपराध-बोध हुआ। परमेश्वर ने हमें बचाने के लिए बहुत बलिदान दिया था, और अब जब कलीसिया के कार्य को मेरे सहयोग की ज़रूरत थी, तो मैं बस अपने बेटे की मदद के लिए पैसे कमाने के बारे में सोच रहा था और यह कर्तव्य स्वीकार नहीं करना चाहता था। क्या इससे परमेश्वर का दिल नहीं दुखेगा? यह एहसास होने पर, मैं फर्श पर घुटने टेककर पश्चात्ताप में परमेश्वर से प्रार्थना करने लगा, और वादा किया कि मैं आगे से कोई भी कर्तव्य अस्वीकार नहीं करूँगा। 2018 में, मेरे भाई-बहनों ने मुझे कलीसिया अगुआ के रूप में सेवा करने के लिए चुना। मेरे मन में फिर से संघर्ष शुरू हो गया: अगुआ के तौर पर पूरे काम की ज़िम्मेदारी लेना एक पूर्णकालिक कर्तव्य है। मैं अपने बेटे के भविष्य के लिए पैसे नहीं बचा पाऊँगा, और तब मैं एक पिता के रूप में अपनी ज़िम्मेदारी पूरी नहीं कर पाऊँगा। लेकिन मैंने यह भी सोचा कि पहले एक कर्तव्य को ठुकराने पर मुझे कितना अपराध-बोध हुआ था, इसलिए मैंने कर्तव्य स्वीकार कर लिया।
कलीसिया अगुआ बनने के बाद, मेरे पास एक्सकेवेटर चलाने का समय नहीं था, इसलिए हम गुज़ारे के लिए मेरी पत्नी द्वारा सब्ज़ियाँ बेचकर कमाए गए पैसों पर निर्भर थे। स्नातक होने के बाद, मेरे बेटे को एक कारखाने में नौकरी मिल गई, जिससे हमारा बोझ कुछ हल्का हो गया। लेकिन जब मेरे बेटे की शादी का समय आया, तो भी हमारे पास उसके लिए न घर था, न कार और न ही कोई बचत। मैं अपने बेटे को क्या जवाब देता? मुझे लगा जैसे मैंने उसे निराश कर दिया हो। कभी-कभी जब वह छुट्टी पर वापस आता, तो मैं उसके लिए बहुत अच्छा खाना बनाता और अपने अपराध-बोध को कुछ कम करने के लिए उसके जीवन की अधिक परवाह करता। अगस्त 2023 के अंत में, मेरे उच्च अगुआ मुझे घर से दूर एक कर्तव्य के लिए पदोन्नत करना चाहते थे, इसलिए मैंने इस मामले पर अपनी पत्नी से चर्चा की। उसने मुझसे पूछा कि मैं क्या सोचता हूँ। मैंने कहा, “मैं नहीं जाना चाहता, क्योंकि अगर मैं चला गया तो तुम्हें अकेले ही हमारे परिवार का बोझ उठाना पड़ेगा। हमारी बेटी अभी छोटी है और हमारे बेटे की अभी शादी नहीं हुई है। अगर मैं चला गया, तो हमारे परिवार का क्या होगा?” मेरी पत्नी ने जवाब देते हुए कहा, “अगर हमें समस्याएँ आती हैं तो हम परमेश्वर से प्रार्थना कर सकते हैं। अब जब तुम्हें यह कर्तव्य सौंपा गया है तो तुम्हारे पास एक समर्पित हृदय होना चाहिए। मैं घर के मामले सँभाल सकती हूँ, तुम चिंता मत करो।” कुछ दिनों बाद, उच्च अगुआ ने मेरे बारे में लोगों की राय माँगने के लिए पत्र लिखा, लेकिन मैंने भाई-बहनों से उन्हें लिखने के लिए नहीं कहा। मैंने सोचा, “मैं अपने घर का मुखिया हूँ, हमारे घर का बोझ उठाना मेरी ज़िम्मेदारी है। मेरा बेटा शादी के लायक हो गया है, लेकिन हमारे पास अभी भी उसके लिए न घर है, न कार और बचत की तो बात ही छोड़ दो। हमारे जिन पड़ोसियों के बच्चे उसी उम्र के हैं, उन सभी ने अपने बच्चों के लिए घर और कार तैयार कर रखी हैं। अगर मेरा बेटा मुझसे पूछे, ‘दूसरे माता-पिता अपने बच्चों के लिए सब कुछ करते हैं, तो आप क्यों नहीं करते? आप कैसे पिता हैं?’ मैं नहीं जानता कि मैं कैसे जवाब दूँगा। और तो और, मेरी बेटी बीमार है और अगर मैं चला गया तो मैं उसकी देखभाल नहीं कर पाऊँगा।” यह सब सोचकर, मुझे बहुत बुरा लगा और मैं घर से दूर अपना कर्तव्य नहीं करना चाहता था। लेकिन मैं यह भी जानता था कि अगर मैंने कर्तव्य को अस्वीकार कर दिया तो परमेश्वर खुश नहीं होगा। लेकिन मैं चला गया तो मेरे परिवार को मुश्किल होगी, मैं दुविधा में फँस गया था और यह काफी कठिन आजमाइश थी। अगले कुछ दिनों तक मेरा मन भटका हुआ था और मैं नवागंतुकों का सिंचन करना भी भूल गया। मुझे एहसास हुआ कि मेरी दशा ठीक नहीं है, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! इन दिनों, मैं अंधकार में जी रहा हूँ और काफी संतप्त महसूस कर रहा हूँ। कृपया मुझे सत्य समझने के लिए प्रबुद्ध करो और इस दशा से बाहर निकलने के लिए मेरा मार्गदर्शन करो।”
भक्ति के दौरान, मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला : “ऐसे भी लोग हैं जो चूँकि परमेश्वर में आस्था रखते हैं, कलीसिया का जीवन जीते हैं, परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं और अपने कर्तव्य निभाते हैं, उनके पास अपने गैर-विश्वासी बच्चों, अपनी पत्नियों (या पतियों), अपने माता-पिता या दोस्तों और रिश्तेदारों के साथ सामान्य रूप से जुड़ने का समय ही नहीं होगा। खास तौर से वे अपने गैर-विश्वासी बच्चों की ठीक से देखभाल करने या अपने बच्चों की अपेक्षा का कोई भी काम करने में असमर्थ होंगे, और इसलिए वे अपने बच्चों के भविष्य और संभावनाओं को लेकर चिंता करते हैं। खास तौर से बच्चों के बड़े हो जाने के बाद कुछ लोग खीझना शुरू कर देंगे : मेरा बच्चा कॉलेज जाएगा या नहीं? कॉलेज गया तो कौन-सा मुख्य विषय लेगा? मेरा बच्चा परमेश्वर में विश्वास नहीं रखता और कॉलेज जाना चाहता है, तो मुझ जैसे परमेश्वर में विश्वास रखने वाले व्यक्ति को क्या उसकी पढ़ाई का खर्च उठाना चाहिए? क्या मुझे उसकी दैनिक जरूरतों का ख्याल रखना चाहिए, और पढ़ाई-लिखाई में उसका साथ देना चाहिए? और फिर उसकी शादी, नौकरी, परिवार और उसके अपने बच्चों की बात आने पर, मुझे कैसी भूमिका निभानी चाहिए? मुझे कौन-सी चीजें करनी चाहिए और कौन-सी नहीं? उन्हें इन चीजों का कोई अंदाजा नहीं होता। जैसे ही ऐसी कोई चीज सामने आती है, जैसे ही वे खुद को ऐसी स्थिति में पाते हैं, वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं और उन्हें पता नहीं होता कि क्या करें, न ही वे जान पाते हैं कि ऐसी चीजों को कैसे सँभालें। समय गुजरने के साथ इन चीजों को लेकर संताप, व्याकुलता और चिंता पैदा हो जाती है : अगर वे अपने बच्चे के लिए ये काम करते हैं, तो वे डरते हैं कि कहीं यह परमेश्वर के इरादों के विरुद्ध न हो, परमेश्वर को नाखुश न कर दे, और अगर वे ये काम नहीं करते, तो डरते हैं कि वे माता-पिता वाली जिम्मेदारी नहीं निभा रहे हैं, जिसके लिए उनका बच्चा और दूसरे पारिवारिक सदस्य उन्हें दोष देंगे; अगर वे ये चीजें करते हैं, तो डरते हैं कि गवाही खो देंगे, और अगर नहीं करते, तो डरते हैं कि कहीं सांसारिक लोग उनका मजाक न उड़ाएँ, उनके पड़ोसी उन पर न हँसें, ताने न कसें, और उनकी आलोचना न करें; वे डरते हैं कि कहीं वे परमेश्वर का अपमान न कर दें, मगर वे अपनी बदनामी और शर्मिंदा होने से इतना डरते हैं कि वे मुँह नहीं दिखा पाते। इन चीजों के बीच ढुलमुल होने से उनके दिलों में संताप, व्याकुलता और चिंता पैदा हो जाती है; यह पता न होने पर कि क्या करना चाहिए, वे संतप्त हो जाते हैं, वे चाहे कुछ भी चुनें, गलत काम करने को लेकर वे व्याकुल हो जाते हैं, और यह न जानकर कि वे जो कुछ करते हैं वह उपयुक्त है या नहीं, और वे चिंता करते हैं कि अगर ये चीजें बार-बार होती रहीं, तो फिर एक दिन वे उसे सह नहीं सकेंगे, और अगर वे टूट गए तो उनके लिए चीजें और ज्यादा मुश्किल हो जाएँगी। ऐसी स्थिति में लोग जीवन में पैदा होने वाली इन सब छोटी-बड़ी चीजों को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करते हैं। उनके भीतर एक बार जब ये नकारात्मक भावनाएँ पैदा हो जाएँ तो वे संताप, व्याकुलता और चिंता में घिर जाते हैं, और खुद को मुक्त नहीं कर पाते : अगर वे ऐसा करें तो गलत, वैसा करें तो गलत, और वे नहीं जानते कि क्या करना सही है; वे दूसरे लोगों को खुश करना चाहते हैं, मगर परमेश्वर को नाखुश करने से डरते हैं; वे दूसरों के लिए कुछ करना चाहते हैं ताकि लोग उनकी प्रशंसा करें, लेकिन वे परमेश्वर का निरादर नहीं करना चाहते या नहीं चाहते कि परमेश्वर उनसे घृणा करे। इसीलिए वे हमेशा संताप, व्याकुलता और चिंता की इन भावनाओं में घिर जाते हैं। वे दूसरों और स्वयं अपने लिए संतप्त हो जाते हैं; वे दूसरों और स्वयं अपने लिए व्याकुल हो जाते हैं; और वे दूसरों और स्वयं अपने लिए चीजों को लेकर चिंता करते हैं, और इसलिए वे दोहरी मुश्किल में घिर जाते हैं, जिससे वे बच कर नहीं निकल पाते। ऐसी नकारात्मक भावनाएँ न सिर्फ उनके दैनिक जीवन को प्रभावित करती हैं, बल्कि उनके कर्तव्य-निर्वहन पर भी असर डालती हैं, और बेशक साथ ही कुछ हद तक सत्य के उनके अनुसरण को भी प्रभावित करती हैं। यह एक किस्म की मुश्किल है, यानी ये मुश्किलें शादी, पारिवारिक जीवन, निजी जीवन से जुड़ी मुश्किलें हैं और इन्हीं मुश्किलों की वजह से लोग अक्सर संताप, व्याकुलता और चिंता में फँस जाते हैं। जब लोग इस किस्म की नकारात्मक भावना में फँस जाते हैं तो क्या वे तरस खाने लायक नहीं हैं? (जरूर हैं।) क्या उन पर तरस खाना चाहिए? तुम लोग अभी भी कहते हो, ‘जरूर,’ जो दर्शाता है कि तुम अब भी उनके प्रति सहानुभूति रखते हो। जब कोई व्यक्ति नकारात्मक भावना में घिर जाता है, तो उस नकारात्मक भावना के पैदा होने की पृष्ठभूमि चाहे जो हो, उसके पैदा होने का कारण क्या होता है? क्या यह माहौल के कारण है, या उस व्यक्ति के चारों ओर के लोगों, घटनाओं और चीजों के कारण है? या परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्य से उनके विचलित होने के कारण है? क्या माहौल व्यक्ति को प्रभावित करता है या परमेश्वर के वचन उनके जीवन में बाधा डालते हैं? इसका सटीक कारण क्या है? क्या तुम लोग जानते हो? मुझे बताओ, यह लोगों के सामान्य जीवन में हो, या उनके कर्तव्य-निर्वहन में, क्या ये मुश्किलें तब मौजूद होती हैं जब वे सत्य का अनुसरण करते हैं, या सत्य को अभ्यास में लाना चाहते हैं? (नहीं।) ये मुश्किलें वस्तुपरक तथ्य के संदर्भ में मौजूद होती हैं। तुम लोग कहते हो कि ये मौजूद नहीं हैं, तो क्या ऐसा हो सकता है कि तुम लोगों ने ये मुश्किलें दूर कर ली हों? क्या तुम लोग ऐसा करने में सक्षम हो? ये मुश्किलें दूर नहीं की जा सकतीं, और ये वस्तुपरक तथ्य के संदर्भ में मौजूद हैं। सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों में इन मुश्किलों के परिणाम क्या होंगे? और इनके परिणाम उन लोगों में क्या होंगे जो सत्य का अनुसरण नहीं करते? उनके दो बिल्कुल अलग परिणाम होंगे। अगर लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, तो वे इन मुश्किलों में फँस कर संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में नहीं डूबेंगे। इसके उलट अगर लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो ये मुश्किलें उनमें पहले की ही तरह मौजूद होती हैं, और परिणाम क्या होगा? ये तुम्हें उलझा देंगी ताकि तुम बच कर निकल न सको, और अगर तुम इन्हें दूर न कर पाओ, तो आखिरकार ये नकारात्मक भावनाएँ बन जाएँगी जो तुम्हारे अंतरतम में गाँठ बन कर पैठ जाएँगी; ये तुम्हारे सामान्य जीवन और तुम्हारे सामान्य कर्तव्य-निर्वहन को प्रभावित करेंगी, और ये तुम्हें दबा हुआ और छुटकारा पाने में असमर्थ महसूस करवाएँगी—तुम पर इनका यह परिणाम होगा” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचनों ने मेरी दशा का खुलासा कर दिया। जब मैंने देखा कि मेरा बेटा बड़ा हो गया है, तो मैंने सोचा कि घर का मुखिया होने के नाते, यह मेरी ज़िम्मेदारी है कि उसका परिवार बसाने और उसका करियर शुरू करने में मदद करने के लिए मैं ज़्यादा पैसे कमाऊँ, इसलिए मैंने सिंचन उपयाजक के रूप में सेवा करने के कलीसिया के कर्तव्य को अस्वीकार कर दिया। बाद में जब मुझे कलीसिया अगुआ के रूप में चुना गया, तो मैंने वह कर्तव्य स्वीकार तो कर लिया, लेकिन मैंने देखा कि मेरा बेटा बड़ा हो रहा है, और सोचने लगा कि बेटे के पास न गाड़ी है, न मकान, और न ही पैसे, फिर वह शादी कैसे करेगा? क्या मेरा बेटा कहेगा कि मैं एक अच्छा पिता नहीं हूँ? चिंता और परेशानी की यह भावना मेरे दिल में छिपी थी और अक्सर मुझे परेशान करती थी। अब, जब कलीसिया ने मुझे घर से दूर कर्तव्य करने के लिए भेजा, तो वे चिंताएँ फिर से उमड़ पड़ीं। मुझे चिंता हुई कि चूँकि मेरे बेटे को अभी तक पत्नी नहीं मिली है, अगर मैं अपना कर्तव्य करने के लिए चला गया, तो वह निश्चित रूप से मुझसे नफरत करेगा, और हमारे पड़ोसी निश्चित रूप से मेरी पीठ पीछे मेरे बारे में बातें करेंगे। लेकिन अगर मैं नहीं गया, तो मैं अपना कर्तव्य अस्वीकार कर रहा होऊँगा। मैं दुविधा में फँस गया था और नहीं जानता था कि क्या करूँ। मैंने कई सालों तक परमेश्वर में विश्वास किया था, लेकिन मैं अभी भी सत्य नहीं समझता था और पारिवारिक जिम्मेदारी तले दबा था। मैंने सोचा कि चूँकि मैं घर का मुखिया हूँ मुझे अपने परिवार का बोझ उठाना चाहिए, अपने बेटे को परिवार बसाने और करियर बनाने में मदद करने के लिए पर्याप्त पैसा कमाना चाहिए। नतीजतन, मैं हमेशा चिंता में डूबा रहता था और अपने कर्तव्य के प्रति पूरी तरह से समर्पित नहीं हो पाता था। इस दशा से निकलने के लिए मुझे जल्द से जल्द सत्य खोजना था।
बाद में, मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला : “किसकी खातिर तुम संतप्त, व्याकुल और चिंतित अनुभव कर रहे हो? क्या तुम इन चीजों का अनुभव सत्य प्राप्त करने के लिए कर रहे हो? या परमेश्वर को प्राप्त करने के लिए? या फिर परमेश्वर के कार्य की खातिर? या फिर परमेश्वर की महिमा की खातिर? (नहीं।) तो फिर तुम ये भावनाएँ किस बात के लिए अनुभव कर रहे हो? ये सब तुम्हारे लिए है, तुम्हारे बच्चों, तुम्हारे परिवार, तुम्हारे आत्म-सम्मान, तुम्हारी प्रतिष्ठा, तुम्हारे भविष्य और संभावनाओं और तुमसे जुड़ी हर चीज के लिए है। ऐसा व्यक्ति कुछ भी नहीं छोड़ता, कोई भी चीज जाने नहीं देता, किसी भी चीज के खिलाफ विद्रोह नहीं करता, या किसी भी चीज का परित्याग नहीं करता; परमेश्वर में वे सच्ची आस्था नहीं रखते, अपना कर्तव्य निभाने के प्रति उनकी कोई सच्ची निष्ठा नहीं होती। परमेश्वर में अपने विश्वास में वे सच में खुद को नहीं खपाते, वे सिर्फ आशीष पाने के लिए विश्वास रखते हैं, और आशीष प्राप्त करने के दृढ़विश्वास के साथ ही वह परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। वे परमेश्वर, उसके कार्यों और उसके वादों में ‘आस्था’ से पटे होते हैं, लेकिन परमेश्वर ऐसी आस्था को स्वीकार नहीं करता, न ही उसे याद रखता है, बल्कि वह उससे घृणा करता है। ऐसे लोग परमेश्वर द्वारा उनसे अपेक्षित कोई भी मामला सँभालने के लिए सिद्धांतों का अनुसरण या अभ्यास नहीं करते, वे उन चीजों को नहीं जाने देते जिन्हें जाने देना चाहिए, वे उन चीजों को नहीं छोड़ते जिन्हें छोड़ देना चाहिए, वे उन चीजों का परित्याग नहीं करते, जिनका उन्हें परित्याग करना चाहिए, और वे वह निष्ठा नहीं दिखाते जो उन्हें दिखानी चाहिए, और इसलिए वे संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में डूब जाने लायक हैं। हालाँकि वे जितने भी कष्ट सहें, ऐसा सिर्फ अपने लिए करते हैं, अपने कर्तव्य के लिए और कलीसिया के कार्य के लिए नहीं। इसलिए ऐसे लोग सत्य का अनुसरण बिल्कुल नहीं करते—वे सिर्फ परमेश्वर में नाम के लिए विश्वास रखने वाले लोगों का जत्था होते हैं। वे ठीक-ठीक जानते हैं कि यह सच्चा मार्ग है, लेकिन वे उसका अभ्यास नहीं करते, न ही उस पर चलते हैं। उनकी आस्था दयनीय है, उन्हें परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिल सकती, और परमेश्वर इसे याद नहीं रखेगा” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचनों ने मेरी दशा उजागर कर दी। मैं अपना समय यह सोचने में नहीं लगाता था कि सत्य का अनुसरण कैसे करूँ और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य अच्छी तरह से कैसे निभाऊँ, बस यही सोचता था कि बेटे के भविष्य के लिए मैं पर्याप्त धन-संपत्ति इकट्ठा नहीं कर पा रहा हूँ, इस बात की चिंता करता था कि मेरा बेटा सोचेगा कि मैं एक अच्छा पिता नहीं हूँ, मेरे पड़ोसी भी मेरी बुराई करेंगे, और मैं उनके बीच अपना सम्मान खो सकता हूँ। इसलिए, मैंने कर्तव्य को अस्वीकार कर दिया। इससे मुझे पता चला कि मेरे सारे विचार मेरे बच्चों और मेरी प्रतिष्ठा के इर्द-गिर्द घूमते थे। मुझे इस बात की चिंता नहीं थी कि मैंने सालों तक परमेश्वर में विश्वास किया था लेकिन सत्य हासिल नहीं किया था, कलीसिया में एक अगुआ के रूप में अपने कर्तव्य में खराब नतीजों के बारे में परेशान नहीं होता था, कर्तव्य के प्रति समर्पण न करने और उसे ठुकराने का मुझे कोई पछतावा नहीं हुआ, जिससे परमेश्वर निराश हुआ, फिर भी मैं हमेशा अपने परिवार, अपने बच्चों और अपनी प्रतिष्ठा के बारे में चिंता करता रहता था। मैंने इन चीजों को एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने से ज़्यादा प्राथमिकता दी। यह परमेश्वर के उत्कर्ष के कारण था कि मैं एक अगुआ के रूप में अपना कर्तव्य निभा सका, और परमेश्वर को उम्मीद थी कि अपने कर्तव्य के दौरान, मैं सत्य का अनुसरण करूँगा, स्वभाव में बदलाव हासिल करूँगा और परमेश्वर का उद्धार पाऊँगा। और मैं क्या करना चाहता था? मैं बस चाहता था कि एक अच्छा पिता बनूँ, अपने बच्चों की देखभाल करूँ और मेरा अच्छा नाम हो। मैं स्पष्ट रूप से जानता था कि कलीसिया के कार्य को मेरे सहयोग की ज़रूरत है, लेकिन मैंने समर्पण नहीं किया, मैं स्पष्ट रूप से जानता था कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना बाध्यकारी है, लेकिन मैंने इसे अस्वीकार कर दिया। सिर्फ एक अच्छा पिता बनने और पैसे कमाने के लिए, मैंने सिंचन उपयाजक के कर्तव्य को ठुकरा दिया और पदोन्नति का अवसर छोड़ दिया। मैंने देखा कि सालों की आस्था के बावजूद चीजों पर मेरे विचार एक अविश्वासी से अलग नहीं थे। मुझमें अपने कर्तव्य के प्रति बिल्कुल भी वफादारी नहीं थी, और परमेश्वर की नज़र में मैं एक छद्म-विश्वासी था। मैंने सोचा कि हमें बचाने के लिए, परमेश्वर ने बड़े लाल अजगर के देश में देहधारण किया, जो उसे एक दुश्मन के रूप में देखता है। उसने हमें सत्य प्रदान किए ताकि हम उन्हें हासिल कर सकें, उसने अनगिनत तरीकों से अथक रूप से हमारा सिंचन और चरवाही की। फिर भी मैंने अपने बच्चों के भविष्य की खातिर अपने कर्तव्य को अस्वीकार कर दिया था। मुझमें सचमुच कोई अंतरात्मा या विवेक नहीं था! जब मुझे इसका एहसास हुआ, तो मुझे तुरंत शर्मिंदगी महसूस हुई और मैं अपने कर्तव्य के लिए घर छोड़ने के प्रति कम प्रतिरोधी हो गया।
बाद में, मैंने खुद पर विचार करना जारी रखा: ऐसा क्यों था कि हर बार जब मुझे कोई कर्तव्य सौंपा जाता, तो मैं समर्पण करने में असफल हो जाता? कौन-सा शैतानी ज़हर मुझे नियंत्रित कर रहा था? मैंने परमेश्वर के वचनों के प्रासंगिक अंश खोजे और मुझे निम्नलिखित अंश मिला : “परंपरागत संस्कृति के इन विचारों के साथ-साथ पुरुषों की सामाजिक जिम्मेदारियाँ और समाज में उनकी स्थिति, उन पर पड़ने वाले दबाव और यहाँ तक कि उनके अपमान का स्रोत भी बन जाती है, और यह पुरुषों की मानवता को विकृत कर देती है, जिससे कई लोग चिड़चिड़े, उदास महसूस करने लगते हैं और कठिनाइयों से घिर जाने पर अक्सर टूटने के कगार पर पहुँच जाते हैं। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि वे सोचते हैं कि वे पुरुष हैं, तो उन्हें अपना परिवार चलाने के लिए पैसा कमाना चाहिए, एक पुरुष होने की अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए, पुरुषों को रोना या दुखी होना नहीं चाहिए और बेरोजगार भी नहीं होना चाहिए, बल्कि उन्हें समाज का स्तंभ और परिवार की रीढ़ होना चाहिए। जैसा कि अविश्वासी कहते हैं, ‘पुरुष आसानी से आँसू नहीं बहाते,’ पुरुष में कमजोरियाँ नहीं होनी चाहिए, ना ही उसमें कोई कमी होनी चाहिए। ये विचार और नजरिये नैतिकतावादियों द्वारा पुरुषों को गलत तरीके से वर्गीकृत करने और लगातार पुरुषों का दर्जा ऊँचा उठाने के कारण उत्पन्न हुए हैं। ये विचार और नजरिये न केवल पुरुषों को हर तरह की परेशानी, खीज और पीड़ा में डालते हैं, बल्कि उनके मन में बेड़ियाँ भी बन जाते हैं, जिससे समाज में उनका ओहदा, स्थिति और अनुभव भी असहज हो जाते हैं” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (11))। “यदि तुम खुद को इन बंधनों से मुक्त करना चाहते हो, तो तुम्हें सत्य खोजना चाहिए, इन विचारों के सार को पूरी तरह से समझना चाहिए, और परंपरागत संस्कृति के इन विचारों के प्रभाव या नियंत्रण में काम नहीं करना चाहिए। तुम्हें उन्हें हमेशा के लिए पूरी तरह से त्याग कर उनसे विद्रोह कर देना चाहिए और परंपरागत संस्कृति के विचारों और नजरियों के अनुसार लोगों और चीजों को नहीं देखना चाहिए, न उसके अनुसार आचरण और कार्य करना चाहिए; न ही परंपरागत संस्कृति के आधार पर कोई फैसला लेना और चुनाव करना चाहिए, बल्कि परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के अनुसार लोगों और चीजों को देखना चाहिए, उनके अनुसार आचरण और कार्य करना चाहिए। इस तरह, तुम सही मार्ग पर चलोगे, और परमेश्वर द्वारा स्वीकृत एक सच्चे सृजित प्राणी होगे। वरना, तुम शैतान के नियंत्रण में ही रहोगे और शैतान की सत्ता में जीते रहोगे, और तुम परमेश्वर के वचनों के अनुरूप नहीं जी पाओगे : ये इस मामले के तथ्य हैं” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (11))। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे एहसास हुआ कि पुरुषों को दी गई सामाजिक ज़िम्मेदारियाँ और स्थिति वास्तव में शैतान का पुरुषों को बाँधने का तरीका है, यह पुरुषों को यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि उन्हें हर समय अपने परिवार का बोझ उठाना चाहिए, क्योंकि यह उनकी ज़िम्मेदारी है। उदाहरण के लिए, मेरे पिता को ही लीजिए जो एक शिक्षक थे। छोटी उम्र से ही उन्होंने मुझ पर ये विचार थोपे, उन्होंने मुझे बताया कि मैं परिवार का स्तंभ बनूँगा और मुझे परिवार में सभी का सहारा बनना होगा। उन्होंने मुझसे घर के काम भी करवाए ताकि मुझे एक पुरुष की ज़िम्मेदारी का पता चले। शादी के बाद, मैंने परिवार के पुरुष के रूप में अपनी ज़िम्मेदारियों को अपनी प्राथमिकता बना लिया। अपने परिवार के लिए जीवन की अच्छी गुणवत्ता सुनिश्चित करने और अपने बेटे को स्थापित होने में मदद करने के लिए, मैंने पैसे कमाने और एक पिता के रूप में अपनी ज़िम्मेदारी पूरी करने के लिए दिन-रात मेहनत की। सभी बड़े फैसले मुझसे होकर गुज़रते थे, चाहे कितनी भी थकान हो, या चीजें कितनी भी मुश्किल हों, मुझसे जिसकी अपेक्षा थी बिना सवाल किए वह कर देता था। पारंपरिक विचारों से प्रभावित होकर, जब भी मेरे परिवार और मेरे कर्तव्य के बीच कोई टकराव होता, तो मैं हमेशा अपने परिवार को प्राथमिकता देता। मैंने अपने बेटे की खातिर बचत करने को पैसे कमाने के लिए अपने कर्तव्य ठुकरा दिए। एक कलीसिया अगुआ के रूप में भी, मैंने अपना समय अपने कर्तव्य और अपने परिवार के बीच बाँटा, और मैं अपने कर्तव्य के प्रति पूरी तरह से समर्पित नहीं हो सका। बाद में, जब मुझे पदोन्नत होने का मौका मिला, तो मैं प्रतिरोधी भी था और मैंने इसे अस्वीकार कर दिया। अब मुझे एहसास हुआ कि शैतान द्वारा हम पर थोपी गई पारंपरिक संस्कृति परमेश्वर के विरोध में है। यह लोगों को परमेश्वर से दूर करती है, उनसे विश्वासघात करवाती है और अंततः शैतान की तरह ही विनाश का सामना करवाती है। जब मुझे एहसास हो गया कि शैतान ने मुझे भ्रष्ट करने के लिए पारंपरिक संस्कृति का उपयोग किया था, तो मैं अपने तरीके बदलने और परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करने को तैयार हो गया।
उस रात, भक्ति के दौरान, मैंने यह अंश देखा : “परमेश्वर में विश्वास रखने वाले और सत्य और उद्धार का अनुसरण करने वाले व्यक्ति के रूप में, तुम्हारे जीवन में जो ऊर्जा और समय शेष है, उसे तुम्हें अपने कर्तव्य निर्वहन और परमेश्वर ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है, उसे निभाने में खर्च करना चाहिए; तुम्हें अपने बच्चों पर कोई समय नहीं लगाना चाहिए। तुम्हारा जीवन तुम्हारे बच्चों का नहीं है, और यह उनके जीवन या जीवित रहने और उनसे अपनी अपेक्षाओं को संतुष्ट करने में नहीं लगाना चाहिए। इसके बजाय, इसे तुम्हें परमेश्वर द्वारा सौंपे गए कर्तव्य और कार्य को समर्पित करना चाहिए, और साथ ही एक सृजित प्राणी के रूप में अपना उद्देश्य पूरा करने में लगाना चाहिए। इसी में तुम्हारे जीवन का मूल्य और अर्थ निहित है। अगर तुम अपनी प्रतिष्ठा खोने, अपने बच्चों का गुलाम बनने, उनकी फिक्र करने, और उनसे अपनी अपेक्षाएँ संतुष्ट करने हेतु उनके लिए कुछ भी करने को तैयार हो, तो ये सब निरर्थक हैं, मूल्यहीन हैं, और इन्हें याद नहीं रखा जाएगा। अगर तुम ऐसा ही करते रहोगे और इन विचारों और कर्मों को जाने नहीं दोगे, तो इसका बस एक ही अर्थ हो सकता है कि तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हो, तुम एक ऐसे सृजित प्राणी नहीं हो जो मानक स्तर का है और तुम अत्यंत विद्रोही हो। तुम परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिए गए जीवन या समय को नहीं संजोते हो। अगर तुम्हारा जीवन और समय सिर्फ तुम्हारी देह और वात्सल्य पर खर्च होते हैं, परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिए गए कर्तव्य पर नहीं, तो तुम्हारा जीवन गैर-जरूरी है, मूल्यहीन है। तुम जीने के योग्य नहीं हो, तुम उस जीवन और हर उस चीज का आनंद लेने के योग्य नहीं हो जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है। परमेश्वर ने तुम्हें बच्चे सिर्फ इसलिए दिए कि तुम उन्हें पाल-पोसकर बड़ा करने की प्रक्रिया का आनंद ले सको, इससे माता-पिता के रूप में जीवन अनुभव और ज्ञान प्राप्त कर सको, मानव जीवन में कुछ विशेष और असाधारण अनुभव पा सको और फिर अपनी संतानों को फलने-फूलने दे सको...। बेशक, यह माता-पिता के रूप में एक सृजित प्राणी की जिम्मेदारी पूरी करने के लिए भी है। यह वह जिम्मेदारी है जो परमेश्वर ने तुम्हारे लिए माता-पिता के रूप में अगली पीढ़ी के प्रति पूरी करने और साथ ही माता-पिता के रूप में अपनी भूमिका निभाने के लिए नियत की है। एक ओर, यह बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा करने की असाधारण प्रक्रिया से गुजरना है, और दूसरी ओर, यह अगली पीढ़ियों की वंशवृद्धि में भूमिका निभाना है। एक बार यह दायित्व पूरा हो जाए और तुम्हारे बच्चे बड़े हो जाएँ या वे बेहद कामयाब हो जाएँ या साधारण और सरल व्यक्ति रह जाएँ, इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है, क्योंकि उनकी नियति तुम नियत नहीं करते, न ही तुम चुनाव कर सकते हो, और यकीनन तुमने उन्हें यह नहीं दिया है—यह परमेश्वर द्वारा नियत है। चूँकि यह परमेश्वर द्वारा नियत है, इसलिए तुम्हें इसमें दखल नहीं देना चाहिए या उनके जीवन या जीवित रहने में अपनी टांग नहीं अड़ानी चाहिए। उनकी आदतें, दैनिक कामकाज, जीवन के प्रति उनका रवैया, जीवित रहने की उनकी रणनीतियाँ, जीवन के प्रति उनका परिप्रेक्ष्य, संसार के प्रति उनका रवैया—इन सबका चयन उन्हें खुद करना है, और ये तुम्हारी चिंता का विषय नहीं हैं। उन्हें सुधारना तुम्हारा दायित्व नहीं है, न ही तुम हर दिन उनकी खुशी सुनिश्चित करने हेतु उनके स्थान पर कोई कष्ट सहने को बाध्य हो। ये तमाम चीजें गैर-जरूरी हैं। ... इसलिए, बच्चों के बड़े हो जाने के बाद माता-पिता के लिए सबसे तर्कपूर्ण रवैया जाने देने का है, उन्हें जीवन को खुद अनुभव करने देने का है, उन्हें स्वतंत्र रूप से जीने देने का है, और जीवन की विविध चुनौतियों का स्वतंत्र रूप से सामना कर उनसे निपटने और उन्हें सुलझाने देने का है। अगर वे तुमसे मदद माँगें, और तुम ऐसा करने में सक्षम और सही हालात में हो, तो बेशक तुम मदद कर सकते हो, और जरूरी सहायता दे सकते हो। लेकिन तुम्हें एक तथ्य समझना होगा : तुम चाहे जो भी मदद करो, पैसे देकर या मनोवैज्ञानिक ढंग से, यह सिर्फ अस्थायी हो सकती है, और कोई ठोस चीज बदल नहीं सकती। उन्हें जीवन में अपना रास्ता खुद बनाना है, और उनके किसी मामले या नतीजे की जिम्मेदारी लेने को तुम बिल्कुल बाध्य नहीं हो। यही वह रवैया है जो माता-पिता को अपने वयस्क बच्चों के प्रति रखना चाहिए” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (19))। परमेश्वर के वचनों ने समझाया कि माता-पिता को अभिभावकीय जिम्मेदारी को कैसे लेना चाहिए। जब हमारे बच्चे छोटे होते हैं, तो हमारी ज़िम्मेदारी होती है कि हम उनका अच्छे से पालन-पोषण करें। लेकिन जब वे वयस्क हो जाते हैं, तो हमें उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होने देना चाहिए, और अपना समय सृजित प्राणियों के रूप में अपने कर्तव्य करने में लगाना चाहिए। अगर हम अपना सारा समय और ऊर्जा अपने बच्चों और परिवार पर लगाते हैं, तो हम आस्था का अर्थ खो देंगे और परमेश्वर के सामने जीने के लायक नहीं रहेंगे। परमेश्वर ने मुझे एक परिवार और बच्चे दिए ताकि मैं अपने बच्चों के पालन-पोषण की प्रक्रिया में जीवन का अनुभव प्राप्त कर सकूँ। इसमें बच्चों के पालन-पोषण की मेरी ज़िम्मेदारी और अपने लोगों की निरंतरता बनाए रखने में मेरी भूमिका भी शामिल है। अगर मैंने अपने बच्चों का अच्छे से पालन-पोषण किया, तो मैंने अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर ली होगी। इसके अलावा, मेरे बच्चों का भाग्य परमेश्वर के हाथों में है। चाहे मैं अपने बच्चों के लिए कितनी भी भौतिक वस्तुएँ और धन-दौलत तैयार कर लूँ, मैं उनका भाग्य नहीं बदल सकता। कुछ माता-पिता अपने बच्चों का पालन-पोषण तो करते हैं लेकिन उनका परिवार बसाने और करियर शुरू करने में उनकी मदद नहीं कर पाते, लेकिन बच्चे फिर भी ठीक-ठाक रहते हैं। इसके विपरीत, कुछ माता-पिता अपने बच्चों की नींव जमाने में मदद करने के लिए पैसे कमाने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं, लेकिन फिर भी चीजें उनकी इच्छानुसार नहीं होतीं। मुझे ही ले लीजिए, मेरे पुरखों ने मेरे लिए कोई संपत्ति नहीं छोड़ी, लेकिन फिर भी मैंने शादी कर ली। मैंने भी अपने बेटे को ज़्यादा पैसा या संपत्ति नहीं दी, लेकिन उसने फिर भी स्नातक किया, नौकरी पाई और अपना ख़याल रखने के लिए पैसे कमाने में सक्षम है। मेरी बेटी भले ही बीमार हो, लेकिन उसका भविष्य परमेश्वर के हाथों में है और उस पर मेरा कोई वास्तविक नियंत्रण नहीं है। अब कलीसिया में एक अगुआ के रूप में मेरी बहुत सारी ज़िम्मेदारियाँ हैं, लेकिन मुझमें अभी भी कई कमियाँ हैं और अभी भी कई सत्य सिद्धांत सीखने हैं। इसलिए मुझे अपने कर्तव्य में और समय लगाने की, जिन क्षेत्रों में मुझे समझ की कमी है, उनमें परमेश्वर पर भरोसा करने और सत्य खोजने की, और अपने सहयोगी भाई के साथ और अधिक संगति करने की जरूरत है ताकि मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकूँ। जब मैं अभी भी अपने परिवार और अपने कर्तव्य के बीच अपना समय संतुलित कर रहा था, तो विभिन्न पारिवारिक मामले बहुत समय और ऊर्जा लेते थे। अब जब मैं अपना कर्तव्य करने के लिए घर से निकल चुका हूँ, तो मैं कई कलीसियाओं का प्रभारी हूँ और बहुत से लोगों और परिस्थितियों के संपर्क में हूँ—ये सभी सत्य को प्राप्त करने के अच्छे अवसर हैं। अगर मैं इन परिस्थितियों से सत्य हासिल करने का अवसर छोड़ दूँ, तो मुझे शायद दूसरा मौका न मिले। अब मुझे हर दिन बहुत काम करना होता है। जब मैं कुछ नहीं समझता, तो मैं परमेश्वर से प्रार्थना करता हूँ, खोजता हूँ और संगति करता हूँ। इस तरह के माहौल में, मेरे पास परमेश्वर के करीब जाने के कई अवसर होते हैं। मुझे शांति और सहजता का एहसास होता है और अब मैं अपने बच्चों के बारे में चिंता नहीं करता। मैं इस कर्तव्य को निभाने का अवसर देने के लिए परमेश्वर का धन्यवाद करता हूँ।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?
यी शान, चीन2003 में, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार कर लिया। प्रभु यीशु की वापसी का स्वागत कर पाने के कारण...
झेंग ची, चीनसर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारने के बाद परमेश्वर के वचन खाने और पीने से मुझे एहसास हुआ कि केवल परमेश्वर...
जिंगेन, चीनमेरा जन्म 1960 के दशक में एक किसान परिवार में हुआ था। मेरे माता-पिता मेरे बड़े भाई का घर बनवाने और उसकी शादी करवाने की खातिर...
झिझुओ, चीनमैं ग्रामीण क्षेत्र में पली बढ़ी थी और घर पर जीवन बहुत कठिन था। मैं शहर के लोगों के जीवन से ईर्ष्या करती थी और मुझे लगता था कि...