सेवा में समन्वय का महत्व
कलीसिया ने हाल में एक कार्य व्यवस्था जारी की जिसमें कलीसिया के हर स्तर के अगुआओं को एक साझेदार (उनके साथ में काम करने के लिए एक सहकर्मी) बनाना था। उस समय, मैं सोचती थी कि यह अच्छी व्यवस्था है। मेरी क्षमता कम थी और मेरे पास काफी काम था; मुझे वाकई एक साझेदार की ज]रूरत थी जो कलीसिया में सभी तरह के कार्य पूरा करने में मेरी मदद करे।
इसलिए, मैंने और उस बहन ने जो मेरी साझेदार बन गई थी, मिलजुल कर कलीसिया में पादरी संबंधी कार्य करना शुरू कर दिया। लेकिन धीरे—धीरे, मैंने देखा कि वह सभी तरह के कार्य मेरी इच्छा के अनुसार नहीं कर रही थी, और मेरे दिल में प्रतिरोध शुरू हो गया: यद्यपि मैं अपना खुद का कार्य करते समय थोड़ी व्यस्त हो जाती हूँ, यह ठीक है, और एक साझेदार की व्यवस्था करना दिक्कत भरा हो जाया करता था। अगर मैं उसे कुछ कार्य करने देती हूँ और यह अनुकूल नहीं हुआ, तो बेहतर होगा कि मैं वह कार्य खुद कर लूँ। अगर मैं उसे काम नहीं करने देती हूँ, तो खैर, वह मेरी साझेदार है। ...इसलिए, मेरे दिल में ज्यादा से ज्यादा प्रतिरोध आता गया, और एक बार, मैं और नहीं सह पाई और मैंने उस पर अपना गुस्सा उतार दिया: "तुम इतनी मूर्ख कैसे हो सकती हो? तुम कई सालों तक अगुआ रही हो, फिर भी तुम अच्छा कार्य कैसे नहीं कर सकती हो? क्यों तुम कभी भी नहीं समझ सकती हो या उत्तर नहीं दे सकती हो? ..." मेरी बात पूरी होने के बाद, मुझे बहुत ख़राब, वाकई अपराध-बोध महसूस हुआ। मैंने खुद में सोचा: क्या मेरी स्थिति ग़लत है? इसलिए, मैं प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के समक्ष आई, और मैंने परमेश्वर के वचनों को देखा, जिसमें कहा गया था: "आज तुम लोगों से—सद्भावना में एक साथ मिलकर काम करने की अपेक्षा करना—उस सेवा के समान है जिसकी अपेक्षा यहोवा इस्राएलियों से करता था : अन्यथा, सेवा करना बंद कर दो। चूँकि तुम ऐसे लोग हो जो सीधे परमेश्वर की सेवा करते हैं, तुम्हें कम से कम अपनी सेवा में वफ़ादारी और समर्पण में सक्षम होना चाहिये। साथ ही, तुम्हें एक व्यावहारिक तरीके से सबक सीखने में भी सक्षम होना चाहिये। ... तुम लोग तो इस तरह के व्यवहारिक सबकों का अध्ययन भी नहीं करते हो, न ही इनमें प्रवेश करते हो, फिर भी तुम परमेश्वर की सेवा करने की बात करते हो! ... अगर कलीसियाओं में काम करते समय तुम लोग एक दूसरे से नहीं सीखते, एक दूसरे की मदद नहीं करते या एक दूसरे की कमियों को दूर नहीं करते हो, तो तुम कैसे कोई सबक सीख पाओगे? जब भी किसी चीज़ से तुम्हारा सामना होता है, तुम लोगों को एक दूसरे से सहभागिता करनी चाहिये ताकि तुम्हारे जीवन को लाभ मिल सके" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, इस्राएलियों की तरह सेवा करो)। फिर मैंने एक उपदेश में इसे देखा: "यहाँ कुछ ऐसे लोग हैं जो अपने कर्तव्य को पूरा करते हुए किसी भी अन्य व्यक्ति के साथ समन्वय नहीं कर पाते हैं। कोई भी उनके निकट नहीं आ सकता है; यह उनके अहंकार और दंभ को प्रकट करता है, कि उनमें कोई भी मानवता नहीं है, वे खुद को नहीं जानते हैं, और वे दूसरों को तुच्छ समझते हैं। क्या यह दयनीय नहीं है? इस तरह के मनुष्य का स्वभाव बिल्कुल भी नहीं बदलता है, और यह कहना आसान नहीं है कि क्या वे परमेश्वर द्वारा बचाए जा सकते हैं। जो लोग सच में खुद को जानते हैं, वे बहुत आलोचनात्मक हुए बिना दूसरों के साथ सही ढंग से बर्ताव कर सकते हैं। वे धैर्य के साथ दूसरों की मदद और सहयोग भी कर सकते हैं, लोगों को महसूस करवा सकते हैं कि वे प्यारे और प्रिय हैं; वे दूसरों के साथ उचित संबंध रख सकते हैं। उन लोगों में मानवता होती है, और केवल मानवता रखने वाले लोग ही परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हैं, वे दूसरों के साथ सद्भाव पूर्ण ढंग से रह सकते हैं, और अपने कर्तव्य को पर्याप्त रूप से पूरा कर सकते हैं" (ऊपर से संगति)। परमेश्वर के उन वचनों और इस उपदेश से, मैंने ध्यानपूर्वक खुद की जाँच की और देखा कि मैंने परमेश्वर के घऱ द्वारा अगुओं के सभी स्तरों के लिए साझेदारों की व्यवस्था करने में परमेश्वर की इच्छा को नहीं समझा था। इससे भी अधिक, मैंने सद्भावपूर्ण समन्वय के सत्य का अभ्यास नहीं किया था या सत्य में प्रवेश नहीं किया था। परमेश्वर के घर के द्वारा हमारे लिए साझेदारों की व्यवस्था करने का एक कारण हमारी क्षमता का अत्यधिक कम होना है, और सत्य के सभी पहलुओं की हमारी समझ भी अत्यधिक सीमित है। हम कलीसिया के सभी कार्यों को अपने दम पर नहीं सँभाल सकते हैं। एक साझेदार की मदद से, हम कलीसिया के कार्य को बेहतर ढंग से पूरा कर सकते हैं। दूसरा कारण यह है कि चूँकि हमारी प्रकृति बहुत अहंकारी है, तो एक पद होने पर हम सत्ता चाहते हैं, हम अपना कहा मनवाना चाहते हैं। एक साझेदार की निगरानी और पाबंदी में इस तरह की तानाशाह, अविवेकी और लापरवाह सेवा, जो कलीसिया के कार्य को बर्बाद सकती है, से बचा जा सकता है। हम सामान्य मानवता के सत्य में प्रवेश करने का बेहतर ढंग से अभ्यास भी कर सकते हैं, ताकि हम साझेदारों के साथ पारस्परिक संगति कर सकते हैं, और एक—दूसरे से सीख सकते हैं। यह कलीसिया के कार्य और साथ ही हमारे व्यक्तिगत जीवन प्रवेश के लिए भी बहुत लाभदायक है। इससे मैंने समझा कि हमारी सेवा में सद्भावनापूर्ण समन्वय कलीसिया के कार्य और हमारे व्यक्तिगत जीवन प्रवेश के लिए बहुत महत्वपूर्ण है! लेकिन मुझे इसमें परमेश्वर की इच्छा बिल्कुल भी नहीं दिखाई देती थी। इस समन्वय के माध्यम से मैं कौन से व्यावहारिक सबक सीख सकती थी, उस पर मैंने ध्यान नहीं दिया था। मैं कलीसिया की व्यवस्था की वजह से उसके साथ अनिच्छापूर्वक कार्य करती थी, और जैसे ही यह बहन कुछ चीज़ों को अच्छी तरह से नहीं सँभालती, मैं उसे डाँट देती और अपना आपा खो देती थी। मैं हमेशा सोचती थी कि वह मेरी तरह सक्षम नहीं है, और मैं उसके गुणों और फ़ायदों को नहीं देखती थी। यहाँ तक कि मैंने कलीसिया की व्यवस्थाओं का भी विरोध किया था। मैं वाकई बहुत ज्यादा अहंकारी थी, खुद से बहुत अनजान थी, और मुझमें थोड़ी सी भी सामान्य मानवता या तर्क नहीं था, और इससे भी अधिक मेरे दिल में परमेश्वर के लिए बिल्कुल भी आदर नहीं था, और मैं परमेश्वर के समक्ष सेवा करने के योग्य नहीं थी।
हे परमेश्वर! तेरे प्रकटन ने सद्भावनापूर्ण ढंग से समन्वय करने की मेरी अयोग्यता, मेरे अहंकार और तेरी सेवा करने के मेरे दयनीय पक्ष से मेरी पहचान करवाई। आज के दिन से आगे, मैं तेरे लिए एक आदर वाला हृदय बनाए रखने, खुद का अब और समर्थन न करने, और सभी कार्यों में कलीसिया के हितों पर ध्यान केन्द्रित करने की इच्छुक हूँ। सेवा में समन्वय में, मैं दूसरों का सहयोग करूँगी और दूसरों से सीखूँगी। मैं सत्य में अपने खुद के प्रवेश पर ध्यान केन्द्रित करूँगी, और शीघ्र ही सत्य एवं मानवता वाली ऐसी व्यक्ति बनने की कोशिश करूँगी जो तेरे द्वारा उपयोग किए जाने के लिए उपयुक्त हो।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?