मैं अब ज़िम्मेदारी से नहीं डरती

14 जून, 2021

चेंग न्यो, चीन

नवंबर 2020 में एक दिन, एक अगुआ ने हमारी टीम की सभा में भाग लिया और उसके खत्म होने के बाद कहा कि वह चाहता है कि हम एक समूह-अगुआ चुनें, जो हमारे संपादन-कार्य का प्रभार सँभाले। मुझे बड़ी हैरानी हुई जब मुझे सबसे अधिक वोट मिले। मैं एकदम स्तब्ध रह गई : मुझे टीम लीडर चुना गया है? मेरे पास शायद ही कोई जीवन-प्रवेश था और मुझमें सत्य की वास्तविकता की कमी थी। क्या मैं वास्तव में टीम की अगुआई करने का कर्तव्य निभा सकती हूँ? अगर हमारे काम में समस्याएँ आईं, तो क्या टीम के अगुआ से ज़िम्मेदारी लेने के लिए कहना स्वाभाविक नहीं होगा? अगर मैं उन्हें हल नहीं कर पाई और परिणामस्वरूप हमारा काम खराब हो गया तो क्या होगा? मैंने टीम के अगुआ के रूप में काम करने के अपने पिछले अनुभव के बारे में सोचा। मैंने सत्य को अमल में लाए बिना सिर्फ़ अपनी खाल बचाई थी। जब मैंने लोगों को कलीसिया का काम अस्त-व्यस्त और बाधित करते देखा, तो मैंने उनकी नाराज़गी के डर से इस पर तत्काल रोक नहीं लगाई। परिणामस्वरूप, कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचा और मुझे बरखास्त कर दिया गया। मुझे लगा कि अगर मैंने इस बार अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाया, बल्कि परमेश्वर के घर के कार्य और भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश को बाधित किया, तो यह बुराई करने के समान होगा। बरखास्त होना ही मेरी एकमात्र चिंता नहीं होगी—मुझे हटाए जाने तक की भी संभावना हो सकती है। मैं ऐसा होते देखने के लिए तैयार नहीं थी और मुझे लगा कि मैं इसे नहीं सँभाल सकती। इसलिए मैंने अगुआ से कह दिया कि मेरे पास पर्याप्त जीवन-प्रवेश नहीं है और मैं दूसरों की समस्याएँ हल करने में असमर्थ हूँ, इसलिए मैं इस पद के लिए उपयुक्त नहीं हूँ। मैंने बहुत सारे बहाने बनाए। उसने मुझसे कहा कि मुझे यह कर्तव्य स्वीकार करना चाहिए और इसके प्रति समर्पित हो जाना चाहिए, लेकिन मैं इसे स्वीकार नहीं कर पा रही थी। मेरा मन आंदोलित था। तभी मैंने अचानक परमेश्वर के वचनों के इस अंश के बारे में सोचा : "तुम्हें समर्पित होना चाहिए और सक्रिय रूप से सहयोग करना चाहिए। यह तुम्हारा कर्तव्य और जिम्मेदारी है। आगे का मार्ग कैसा भी हो, तुम्हारा दिल आज्ञापालन करने वाला होना चाहिए। भीरुता, डर, चिंता, संदेह—इनमें से किसी भी रवैये के साथ तुम्हें अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहिए"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?')। जब मैंने इस पर विचार किया, तो मुझे शांति का एहसास होने लगा, और मैंने महसूस किया कि इस कर्तव्य का मेरे सामने रखा जाना, परमेश्वर के शासन और व्यवस्थाओं के कारण है। भले ही उस समय मैं परमेश्वर की इच्छा समझ नहीं पा रही थी, लेकिन मुझे यह समझ आ गया कि मुझे परमेश्वर को मेरी अगुआई करने देना है और समर्पण करना है।

इसके बाद, मैंने अपने आप को अपने कर्तव्य में सभी प्रकार की समस्याओं और कठिनाइयों का सामना करते हुए पाया और विशेष रूप से अपनी टीम के काम में कोई प्रगति नहीं देखी। मेरी चिंताएँ फिर से उभर आईं, कि अगर हमारा प्रदर्शन नहीं सुधरा, तो टीम की अगुआ होने के नाते मैं अपनी ज़िम्मेदारी से बच नहीं पाऊँगी। इस विचार ने मुझे बेचैनी की स्थिति में डाल दिया। एक शाम जब मैं अपने साथ सबसे करीबी रूप से काम करने वाली बहन के साथ हमारी स्थितियों के बारे में बात कर रही थी, तो मैं उस समय बहुत ही असहज महसूस करने लगी, जब उसने पिछली टीम-अगुआ के बारे में बताया, जिसे सत्य का अनुसरण न करने या बेहतर करने का प्रयास न करने पर बरखास्त कर दिया गया था। वह अपने पेशेवर कौशलों में कोई सुधार नहीं कर रही थी और कोई व्यावहारिक काम नहीं कर पा रही थी। मैं जानती थी कि मैं कई कठिनाइयों और समस्याओं का सामना कर रही टीम के लिए टीम-अगुआ के रूप में काम कर रही थी, इसलिए अगर मैं उनका समाधान नहीं कर सकी और कुछ व्यावहारिक काम नहीं कर पाई, तो क्या मुझे भी बरखास्तगी का सामना करना पड़ेगा? मैं वापस एक नियमित टीम-सदस्य होना चाहती थी, जिसके पास इतनी ज़्यादा ज़िम्मेदारी न हो। मैं सोच रही थी कि मैं फिलहाल यह काम कर लूँगी क्योंकि मैं अभी-अभी चुनी गई हूँ, फिर अगर मैं अक्षम रही, तो मुझे जल्द से जल्द शालीनतापूर्वक पद त्याग देना चाहिए, ताकि मैं ऐसी बुराई न करूँ जो कलीसिया के काम को बाधित कर सके और उसे नुकसान पहुँचा सके, और फिर बरखास्त न हो जाऊँ। अगर ऐसा हुआ, तो इसका मतलब यह भी हो सकता है कि मैं अपने अंतिम गंतव्य से चूक जाऊँ। मैंने खुद को अपना कर्तव्य अच्छी तरह से न करने से डरी होने और किसी भी समस्या की ज़िम्मेदारी लेने की स्थिति में फँसी हुई पाया। जब मेरे काम में कोई कठिनाई सामने आती, तो मैं इस बात से विशेष रूप से डर जाती कि मैं इसे सँभाल नहीं पाऊँगी—मैं लगातार दर्द और पीड़ा की दुनिया में जी रही थी।

फिर परमेश्वर के वचनों के इस अंश ने, जो मैंने एक दिन पढ़ा था और जिसमें एक मसीह-विरोधी के स्वभाव का सार प्रकट किया गया है, मुझे मेरी हालत के बारे में कुछ अंतर्दृष्टि दी : "जब तुम्हारे कर्तव्य में कोई सरल समायोजन किया जाए, तो जैसा तुमसे कहा जाए, वैसा करो, और अपनी क्षमता के अनुसार करो, और तुम चाहे जो भी करो, उसे जितना तुम्हारे सामर्थ्य में है, उतना अच्छा करो, अपने पूरे दिल से और अपनी पूरी ताकत से करो। परमेश्वर ने जो किया है, वह गलती से नहीं किया है। इतना सरल सत्य भी मसीह-विरोधियों के दिलों में नहीं है। उनके दिलों में क्या है? शक, संदेह, अवज्ञा, प्रलोभन...। इतना सरल मामला—फिर भी मसीह-विरोधी इसके बारे में भारी उपद्रव करते हैं, बार-बार इसके बारे में सोचते रहते हैं, यहाँ तक कि चैन से सो भी नहीं पाते। वे इस तरह क्यों सोचते हैं? एक सरल चीज़ के बारे में भी वे इतने जटिल तरीके से क्यों सोचते हैं? कारण आसान है, और केवल एक ही है : परमेश्वर के घर के स्वयं से संबंधित प्रत्येक कार्य या व्यवस्था में, वे उस चीज़ को अपने गंतव्य और आशीष प्राप्त करने की अपनी इच्छा से जोड़ने के लिए एक मजबूत गाँठ बाँध लेते हैं। इसीलिए वे सोचते हैं, 'मुझे सावधान रहना होगा; एक गलत कदम हर कदम को गलत कर देगा, और मुझे आशीष प्राप्त करने की अपनी इच्छा को अलविदा कहना पड़ सकता है—और यह मेरा अंत होगा। मैं लापरवाह नहीं हो सकता! परमेश्वर का घर, भाई और बहनें, ऊपरी अगुआ-गण, यहाँ तक कि परमेश्वर भी—ये सभी अविश्वसनीय हैं। मैं इनमें से किसी पर भरोसा नहीं रखता। सबसे अधिक विश्वसनीय और सबसे भरोसेमंद आदमी खुद है; अगर तुम अपने लिए योजनाएँ नहीं बनाओगे, तो और कौन तुम्हारा ध्यान रखेगा? तुम्हारी संभावनाओं पर, और तुम्हें आशीष मिलेंगे या नहीं, इस पर और कौन विचार करेगा? इसलिए मुझे अपने लिए योजनाएँ बनाने, और सावधानीपूर्वक तैयारी और गणनाएँ करने में बहुत मेहनत करनी पड़ेगी; मैं चूक नहीं कर सकता, और मैं ज़रा-भी ढीला नहीं पड़ सकता—वरना लोगों के लिए मुझे भ्रमित करना और मेरा फायदा उठाना आसान होगा'"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'नायकों और कार्यकर्ताओं के लिए, एक मार्ग चुनना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है (29)')। परमेश्वर के इन वचनों को पढ़ने के बाद ही मुझे समझ में आया कि अपने कर्तव्यों में बदलाव अनुभव करना पूरी तरह से सामान्य है, और मुझे इसे उचित रवैये के साथ लेना चाहिए। मुझे अपने काम में सुधार करने और अपनी ज़िम्मेदारियाँ पूरी करने की भरपूर कोशिश करनी चाहिए, और अगर मैं फिर भी अपने सर्वोत्तम प्रयास के बावजूद सफल नहीं हो पाई, तो मुझे अपनी बरखास्तगी खुशी से स्वीकार करनी होगी। कर्तव्य परमेश्वर के घर की ज़रूरतों के अनुसार और साथ ही दिया गया कर्तव्य निभाने की लोगों की व्यक्तिगत क्षमता के अनुसार बदले जाते हैं। इसका लोगों के परिणामों और गंतव्यों से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन मुझमें परमेश्वर के प्रति सच्चे विश्वास की कमी थी और मैं परमेश्वर के घर के भीतर लोगों के कर्तव्यों में पूरी तरह से उचित परिवर्तन को ठीक से समझ नहीं पाई थी। मेरा दृष्टिकोण विकृत था, क्योंकि मैं सोचती थी कि मेरा कर्तव्य मेरे गंतव्य, परिणाम और इसके साथ अटूट रूप से जुड़ा हुआ है, कि मुझे आशीष मिलेगा या नहीं। मैं हर चीज़ को लेकर अनुमान लगा रही थी, परमेश्वर के प्रति सतर्क थी, मुझे डर था कि अगर मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभा पाई, तो उजागर कर दी जाऊँगी और हटा दी जाऊँगी, और तब मेरी कोई हैसियत या भविष्य नहीं रहेगा। मैं वास्तव में बहुत ज़्यादा सोच रही थी और बुराई में काफी फँसी हुई थी! मैं अपने हितों की रक्षा करने के लिए परमेश्वर के साथ चालाकी करने और खेल खेलने की कोशिश कर रही थी, और अपने कर्तव्य में अच्छा काम न कर पाने की स्थिति में हार मानने की योजना बना रही थी। मैं इस बारे में ज़रा-भी विचार नहीं कर रही थी कि वास्तव में अपना कर्तव्य अच्छी तरह से कैसे निभाऊँ, बल्कि मैं अपने भविष्य की संभावनाओं के बारे में विचार कर रही थी। परमेश्वर द्वारा मुझे एक टीम-अगुआ के रूप में कार्य करने के लिए उन्नत किया जाना, मुझे खुद को प्रशिक्षित करने का मौका दिया जाना था, ताकि मैं अपने काम और अपने जीवन-प्रवेश में कुछ प्रगति कर सकूँ। वह मेरे लिए परमेश्वर का प्यार था। लेकिन मैंने परमेश्वर के प्यार के बारे में अपने विचार को यह सोचकर विकृत कर लिया था कि मैं वास्तव में उजागर की जाने और हटाई जाने वाली हूँ। क्या यह परमेश्वर के खिलाफ ईशनिंदा नहीं थी? क्या मैं ठीक किसी मसीह-विरोधी का बुरा स्वभाव प्रकट नहीं कर रही थी?

मैंने उस समय जो कुछ भी प्रकट किया था, उस पर वापस सोचा : मैंने परमेश्वर को ज़रा-भी नहीं समझा था, बल्कि मैं सिर्फ़ अटकलों और सतर्कता से ग्रस्त थी। मैं अत्यधिक परेशान थी, और मैं यह सोचे बिना नहीं रह सकी कि मैं इस तरह की स्थिति में क्यों हूँ, वास्तव में समस्या की जड़ कहाँ है। बाद में मैंने मसीह-विरोधियों के स्वभाव को उजागर करने वाला परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, जो वास्तव में मुझसे मेल खाता था : "मसीह-विरोधी यह नहीं मानते कि परमेश्वर के वचनों में सत्य है, और वे उसके स्वभाव, पहचान या सार पर विश्वास नहीं करते। अपने चारों ओर घटित होने वाली हर चीज़ का विश्लेषण और जाँच करने के लिए वे इन सबको मानवीय विचारों और मानवीय दृष्टिकोणों से देखते हैं, और मानवीय दृष्टिकोणों, मानवीय विचारों और मानवीय छल-कपट से ही वे लोगों के साथ व्यवहार करने के परमेश्वर के तरीके और उसके द्वारा लोगों में किए जाने वाले विभिन्न कार्य को भी देखते हैं। इससे भी बढ़कर, वे परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार को देखने के लिए भी शैतान का तर्क और सोच लागू करते हुए मानवीय विचारों और मानवीय तरीकों का उपयोग करते हैं। जाहिर है, मसीह-विरोधी न केवल परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार को स्वीकार नहीं करते या नहीं मानते, बल्कि परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार के बारे में धारणाओं और अस्पष्ट, खोखले विचारों से भी भरे होते हैं। वे सिर्फ मानवीय समझ से भरे होते हैं; उनके पास लेशमात्र भी वास्तविक ज्ञान नहीं होता। इसके परिणामस्वरूप, अंत में, मसीह-विरोधी परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार को कैसे परिभाषित करते हैं? क्या वे यह स्थापित कर सकते हैं कि परमेश्वर धार्मिक है और मनुष्य के लिए वह प्रेम है? निश्चित रूप से वे नहीं कर सकते। परमेश्वर की धार्मिकता और प्रेम की मसीह-विरोधियों की परिभाषा एक प्रश्नचिह्न है—संदिग्धता है। परमेश्वर का स्वभाव उसकी पहचान निर्धारित करता है, और वे उसके स्वभाव पर उपहासपूर्वक हँसते हैं और उसके प्रति संदेह, इनकार और आलोचना से भरे होते हैं, तो फिर उसकी पहचान का क्या? परमेश्वर का स्वभाव उसकी पहचान दर्शाता है; उसके प्रति उनके जैसा रुख, परमेश्वर की पहचान के बारे में उनका नजरिया स्वत: स्पष्ट है—प्रत्यक्ष इनकार। यह मसीह-विरोधियों का सार है"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'नायकों और कार्यकर्ताओं के लिए, एक मार्ग चुनना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है (26)')परमेश्वर के वचन दिखाते हैं कि मसीह-विरोधी यह नहीं मानते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को तो वे बिलकुल भी स्वीकार नहीं करते। वे चीज़ों के बारे में अपनी राय परमेश्वर के वचनों के आधार पर नहीं बनाते, बल्कि हर चीज़ के बारे में मानवीय समझ और शैतान के तर्क के आधार पर सोचते हैं। मैंने देखा कि मैं भी उसी तरह का मसीह-विरोधी स्वभाव पाले हुई थी, कलीसिया द्वारा पदों के समायोजन या लोगों की बरखास्तगी या उन्हें हटाए जाने के संबंध में मुझे परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की कोई समझ नहीं थी। इसके बजाय, मैं इन समस्याओं को शैतानी तर्क के चश्मे से देख रही थी, जैसे कि "जो जितना बड़ा होता है वह उतना ही जोर से गिरता है," "कील जो सबसे बाहर निकली होती है वही हथौड़ी से ठोकी जाती है," और "शीर्ष पर वह अकेला होता है।" मैंने सोचा था कि अधिक हैसियत और ज़िम्मेदारी होने से मैं बहुत तेजी से उजागर हो जाऊँगी और फिर मुझे हटा दिया जाएगा। इसीलिए, हालाँकि मैंने बाहर से टीम-अगुआ के रूप में अपना पद स्वीकार कर लिया था, लेकिन मैंने परमेश्वर के खिलाफ सतर्कता बरती, मैं गलती करने की स्थिति में उजागर किए जाने और हटाए जाने और अंततः अपना अंतिम गंतव्य खो देने से डरती रही। मैं एक विश्वासी थी, जिसने परमेश्वर के वचनों को पढ़ा था, लेकिन चीज़ों के बारे में मेरा दृष्टिकोण बिल्कुल भी नहीं बदला था, और समस्याएँ सामने आने पर मैंने कभी सत्य की तलाश नहीं की या चीज़ों को परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में नहीं देखा, बल्कि परमेश्वर के कार्य का आकलन शैतानी धारणाओं के आधार पर किया, परमेश्वर की कल्पना किसी तानाशाह के रूप में की, जो ज़रा-सी चूक होते ही मुझे उजागर कर देगा और हटा देगा, क्या ऐसा करके मैं परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को नकार नहीं रही थी? क्या मैं ईश-निंदा नहीं कर रही थी? सत्य यह है कि जब भी किसी को कलीसिया द्वारा बरखास्त किया जाता है या हटाया जाता है, तो वह सिद्धांत पर आधारित होता है। वह व्यक्ति की क्षमता के समग्र विचार पर और इस बात पर आधारित होता है कि वे अच्छी मानवता वाले हैं या बुरी मानवता वाले, वे सत्य का अनुसरण करते हैं या नहीं, और वे किस तरह के मार्ग पर हैं। वे अपने कभी-कभार के अपराधों या क्षणिक अभिव्यक्ति के आधार पर या अपनी ऊँची हैसियत की वजह से व्यक्ति के रूप में परिभाषित नहीं किए जाते, और बरखास्त या हटाए नहीं जाते। परमेश्वर का घर उन अगुआओं को अतिरिक्त मौके देगा, जो वास्तव में परमेश्वर के लिए खुद को खपाते हैं और अपराध करने के बावजूद सत्य का अनुसरण करते हैं। उनकी काट-छाँट की जाएगी और उनसे निपटा जाएगा, उन्हें याद दिलाया जाएगा और चेतावनी दी जाएगी, और जो कोई भी खुद को जानने में सक्षम है, जो कोई भी पश्चात्ताप करता है और रूपांतरित होता है, उसका उपयोग और विकास किया जाता रहेगा। कुछ झूठे अगुआ हैं जो व्यावहारिक कार्य नहीं करते, जो सुख-सुविधाओं के लालची हैं, अपने कर्तव्यों के प्रति लापरवाह हैं, और जो अगुआ के दायित्व सँभाले बिना अगुआ के पद पर बने रहते हैं। इस तरह के व्यक्ति बेशक उनके पद से बरखास्त कर दिए जाएँगे, लेकिन अगर वे हर तरह की बुराई करने वाले दुष्ट व्यक्ति नहीं हैं, तो उन्हें यों ही हटाया नहीं जाएगा, न ही कलीसिया से बाहर निकाला जाएगा। परमेश्वर का घर उन्हें पश्चात्ताप और आत्म-चिंतन का एक मौका देते हुए उनके लिए किसी दूसरे उपयुक्त कर्तव्य की व्यवस्था करेगा। कुछ ऐसे मसीह-विरोधी हैं, जो किसी भी सत्य को स्वीकार करने से इनकार करते हैं, जो केवल अपनी हैसियत और सामर्थ्य के लिए काम करते हैं, जो केवल कलीसिया पर नियंत्रण पाने के लिए सत्ता हथियाना चाहते हैं—केवल वे ही पूरी तरह से उजागर किए और हटाए जाते हैं, कलीसिया से स्थायी रूप से निष्कासित कर दिए जाते हैं। मैंने देखा कि परमेश्वर का घर लोगों के साथ पूरी तरह से निष्पक्ष और उचित तरीके से व्यवहार करता है, कि परमेश्वर के घर में सत्य का प्रभुत्व है। किसी भी अच्छे व्यक्ति पर कभी गलत आरोप नहीं लगाया जाएगा, और किसी भी बुरे व्यक्ति को आसानी से छोड़ा नहीं जाएगा। किसी को उजागर किया जाता है या नहीं और उसे हटाया जाता है या नहीं, इसका उसके पद से कोई लेना-देना नहीं है। वास्तव में मायने यह रखता है कि क्या वे सत्य को स्वीकार और उसका अनुसरण कर सकते हैं। सत्य का अनुसरण करने वाले लोग जब कोई महत्वपूर्ण कर्तव्य का भार लेते हैं, जब वे अधिक ज़िम्मेदारी उठाते हैं, तो वे खुद को विकसित करने के अधिक अवसर पाते हैं और परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाने के अधिक योग्य होते हैं। लेकिन जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, जो अपने कर्तव्य में सिद्धांतों की तलाश नहीं करते और न्याय किए जाने, ताड़ना दिए जाने, काट-छाँट किए जाने और निपटे जाने से इनकार करते हैं, जिनके भ्रष्ट स्वभाव ज़रा-भी नहीं बदलते, तो चाहे उनकी हैसियत कुछ भी क्यों न हो, अंतत: उन्हें हटा दिया जाएगा। इस पर और अधिक विचार करते हुए मैंने महसूस किया कि जब पहले मुझे टीम-अगुआ के रूप में मेरे पद से बरखास्त कर दिया गया था, तो उसका कारण यह था कि मैं प्रकृति से स्वार्थी और नीच थी और सत्य को बिलकुल भी अमल में नहीं लाती थी। मैं कलीसिया के काम में बाधा बनी हुई थी। वह परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव था जो मुझ पर आया था, और परमेश्वर मुझे पश्चात्ताप करने और बदलने का मौका दे रहा था। लेकिन इसके बजाय मैंने सिर्फ़ एक अविश्वासी की तरह काम किया, मेरा परमेश्वर के उद्धार में कोई विश्वास नहीं रखा और मैं उसे गलत समझती रही। तभी मैंने अंतत: महसूस किया कि "जो जितना बड़ा होता है वह उतना ही जोर से गिरता है" के शैतानी दर्शन ने मुझे कितने भीषण तरीके से नुकसान पहुँचाया था। मैं न केवल परमेश्वर के प्रति गलतफहमियों और सतर्कता से ग्रस्त हो गई थी, बल्कि मैं अधिकाधिक चालाक और दुष्ट बन गई थी। मुझे पता था कि मैं उस तरह शैतानी तर्क और कानूनों से जीना जारी नहीं रख सकती थी, बल्कि मुझे परमेश्वर के वचनों के आधार पर चीज़ों को देखना और समझना था। टीम-अगुआ होने के इस कर्तव्य को प्राप्त करना परमेश्वर द्वारा उन्नत किया जाना था, और यह परमेश्वर मुझे सीखने का मौका दे रहा था। मुझे इस अवसर को सँजोने की जरूरत थी। मैं अतीत में अपने कर्तव्य में एक अवरोधक थी, लेकिन इस बार मैं जानती थी कि अपनी अतीत की असफलताओं की भरपाई के लिए मुझे अपने कर्तव्य में एक कीमत चुकानी होगी, सत्य के सिद्धांतों की अधिक तलाश करनी होगी, और अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए अपना सब-कुछ इसमें लगा देना होगा।

इन बातों को समझना वास्तव में मेरे लिए भी मुक्त होना रहा है। अब जब मैं अतीत के बारे में सोचती हूँ कि कैसे मैंने परमेश्वर को गलत समझा और उससे सतर्कता बरती, तो मैंने महसूस किया है कि मैं कितनी विवेकहीन थी, कितनी मूर्ख और अंधी थी, मुझे परमेश्वर की कोई समझ नहीं थी। मैंने अपने दिल के भीतर परमेश्वर से मौन प्रार्थना की है, "हे परमेश्वर, धन्यवाद तुम्हारे मार्गदर्शन के लिए, मुझे मेरी कुरूपता देखने देने के लिए, और मुझे यह दिखाने के लिए कि इन शैतानी धारणाओं ने तुम्हारे और मेरे बीच कितना बड़ा अवरोध पैदा कर दिया था। चीज़ों को गलत समझते और सतर्क रहते हुए, मैं संवेदनहीन और अनभिज्ञ रही हूँ, और मैं इस बात से पूर्णत: बेखबर थी कि तुमने कैसा महसूस किया। मैं बहुत विद्रोही रही हूँ और तुम्हारे सामने पूरी तरह से पछतावा कर रही हूँ।"

एक दिन मैंने एक लेख पढ़ा, जिसमें लेखक ने पूरी तरह से मेरी स्थिति व्यक्त की थी, और परमेश्वर के कुछ वचन उद्धृत किए थे, जिन्होंने मुझे अभ्यास का मार्ग प्रदान किया : "मनुष्य द्वारा अपना कर्तव्य निभाना वास्तव में उस सबकी सिद्धि है, जो मनुष्य के भीतर अंतर्निहित है, अर्थात् जो मनुष्य के लिए संभव है। इसके बाद उसका कर्तव्य पूरा हो जाता है। मनुष्य की सेवा के दौरान उसके दोष उसके क्रमिक अनुभव और न्याय से गुज़रने की प्रक्रिया के माध्यम से धीरे-धीरे कम होते जाते हैं; वे मनुष्य के कर्तव्य में बाधा या विपरीत प्रभाव नहीं डालते। वे लोग, जो इस डर से सेवा करना बंद कर देते हैं या हार मानकर पीछे हट जाते हैं कि उनकी सेवा में कमियाँ हो सकती हैं, वे सबसे ज्यादा कायर होते हैं। ... मनुष्य के कर्तव्य और वह धन्य है या शापित, इनके बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। धन्य होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। शापित होना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, ऐसा तब होता है जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें धन्य किया जाता है या शापित, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल धन्य होने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें शापित होने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज़ है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। जब मैंने इस पर विचार किया, तो मुझे परमेश्वर की इच्छा समझ में आई। परमेश्वर मानवजाति से बहुत अधिक की अपेक्षा नहीं करता। वह बस यह चाहता है कि हम सत्य का अनुसरण करें, हम जो कुछ भी समझ सकते हैं, जो कुछ भी पूरा कर सकते हैं उसे अमल में लाने के लिए सब-कुछ करें, काम को जैसे-तैसे न निपटाएँ, अस्थिर और धोखेबाज़ न बनें, बल्कि इसमें, अपना सब-कुछ झोंक दें और परमेश्वर हमसे जो कहता है उसे करें। भले ही हम इस प्रक्रिया में कुछ विफलताओं और चूकों का अनुभव करें, लेकिन अगर हम सत्य स्वीकार कर सकते हैं, और अपनी काट-छाँट और निपटारे को मंजूर कर सकते हैं, तो ये समस्याएँ हल की जा सकती हैं। हम प्रगति और परिवर्तन देख सकते हैं। उस आदेश को प्राप्त करने के बाद से मुझमें स्वीकृति और समर्पण के दृष्टिकोण की कमी रही थी। मुझे डर था कि ज़रा-सी भी चूक होने पर, किसी भी उल्लंघन से, मुझे हटा दिया जाएगा, कि मैं अपना परिणाम और अंतिम गंतव्य खो दूँगी। मैंने देखा कि मुझे वास्तव में सत्य की कोई समझ नहीं थी, और कि मैं सच में परमेश्वर के कार्य को नहीं समझती। मैंने विशेष रूप से देखा कि परमेश्वर पर विश्वास करने और अपना कर्तव्य पूरा करने के उन सभी वर्षों में, मैंने जो किया वह परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए नहीं था, बल्कि यह सिर्फ अपने भविष्य और गंतव्य के लिए प्रयास करना था। मैं बहुत स्वार्थी और चालाक थी! कर्तव्य परमेश्वर की ओर से एक आज्ञा है, और यह एक ज़िम्मेदारी है जिसे प्रत्येक सृजित प्राणी को पूरा करना है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम अंत में धन्य होते हैं या शापित—हम सभी को अपना कर्तव्य पूरा करना है। मैं सिर्फ़ इसलिए अपना कर्तव्य करने से इनकार नहीं कर सकती कि मैं बुराई करने से डरती हूँ। जीवन में मेरे नगण्य प्रवेश और मुझमें सत्य की वास्तविकता की कमी होने के बावजूद परमेश्वर ने मुझे टीम-अगुआ के रूप में सेवा करने के लिए उन्नत किया। ऐसा इसलिए नहीं है कि मैं अब इस पद के लायक हूँ, लेकिन इस उम्मीद में है कि इस कर्तव्य को करने के दौरान मैं सत्य का अनुसरण करने में सक्षम हो पाऊँगी, न्याय किए जाने, ताड़ना दिए जाने, काट-छाँट किए जाने और निपटे जाने को स्वीकार कर पाऊँगी, और अपनी व्यक्तिगत कमियों को सुधारना जारी रखूँगी। फिर इसकी उम्मीद हो कि, अंत में मैं इस कर्तव्य को यथेष्ट रूप से पूरा कर सकूँगी। जब मैंने परमेश्वर की इच्छा समझ ली, तो मुझे अपने कर्तव्य में उत्पन्न समस्याओं और कठिनाइयों का सामना करने में अधिक आत्मविश्वास प्राप्त हुआ, और मैंने उस कर्तव्य को करने के माध्यम से परमेश्वर को संतुष्ट करने का संकल्प प्राप्त किया।

इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : "ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यक्तियाँ क्या होती हैं? इस विषय की मूल बात है सब चीज़ों में सत्य का पालन करना। यदि तुम यह कहते हो कि तुम ईमानदार हो, लेकिन तुम परमेश्वर के उपदेशों को हमेशा अपने दिमाग़ के कोने में रखते हो और वही करते हो जो तुम चाहते हो, तो क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यक्ति है? तुम कहते हो, 'मेरी क्षमता कम है, लेकिन दिल से ईमानदार हूँ।' लेकिन, जब तुम्हें कोई कर्तव्य पूरा करने के लिए दिया जाता है, तो तुम पीड़ा सहने से या इस बात से डरते हो कि अगर तुमने इसे अच्छी तरह से पूरा नहीं किया तो तुम्हें इसकी ज़िम्मेदारी लेनी होगी, इसलिये तुम इससे बचने के लिये बहाने बनाते हो और उसे पूरा करवाने के लिए दूसरों के नाम सुझाते हो। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यक्ति है? बिल्कुल भी ऐसा नहीं है। तो फिर, एक ईमानदार व्यक्ति को कैसे व्यवहार करना चाहिये? उन्हें अपने कर्तव्यों को स्वीकार करना चाहिये और उसका पालन करना चाहिये, और फिर अपनी सर्वोत्तम क्षमता के अनुसार उसे पूरा करने में पूरी तरह से समर्पित होना चाहिये, परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने का प्रयास करना चाहिये। यह कई तरीकों से व्यक्त क्या जाता है। एक तरीका यह है कि तुम्हें अपने कर्तव्य को ईमानदारी से स्वीकार करना चाहिये, तुम्हें किसी और चीज़ के बारे में नहीं सोचना चाहिये, और अधूरे मन से इसके लिए तैयार नहीं होना चाहिये। अपने खुद लाभ के लिये जाल न बिछाओ। यह ईमानदारी की अभिव्यक्ति है। दूसरा तरीका है इसमें पूरी जी-जान लगा देना। तुम कहते हो, 'यह वो सब कुछ है जो मैं कर सकता हूँ; मैं सब लगा दूंगा, और सब पूरी तरह से परमेश्वर को समर्पित कर दूंगा।' क्या यह ईमानदारी की अभिव्यक्ति नहीं है? तुम अपना सब कुछ और जो कुछ भी तुम कर सकते हो, उसे समर्पित कर देते हो—यह ईमानदारी की एक अभिव्यक्ति है। यदि तुम अपना सब कुछ समर्पित करने को इच्छुक नहीं हो, यदि तुम इसे छिपा कर, बचा कर रखते हो, तो तुम अपने कामों में फिसड्डी हो, अपने कर्तव्यों से बचते हो और उन्हें किसी और से इसलिए करवाते हो क्योंकि तुम अच्छा काम न कर पाने के परिणामों को भुगतने से डरते हो, तो क्या यह ईमानदार होना है? नहीं, यह नहीं है। इसलिए, ईमानदार व्यक्ति होना केवल एक इच्छा रखना ही नहीं है। यदि तुम इसे तब अभ्यास में नहीं लाते, जब तुम्हारे साथ कोई बात हो जाये तो फिर तुम एक ईमानदार व्यक्ति नहीं हो। जब तुम्हारे सामने समस्याएं आएं तो तुम्हें सत्य का पालन करना चाहिए और व्यावहारिक अभिव्यक्ति रखनी चाहिए। यह ईमानदार व्यक्ति होने का एकमात्र तरीका है, और यही एक ईमानदार हृदय की अभिव्यक्तियां हैं"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'केवल ईमानदार व्यक्ति बनकर ही कोई वास्तव में ख़ुश हो सकता है')। परमेश्वर उन लोगों को पसंद करता है जो ईमानदार हैं, और जो ईमानदार होते हैं, वे आशीषों को लेकर बेचैन नहीं होते। वे ज़िम्मेदारी लेने से नहीं डरते, बल्कि परमेश्‍वर को संतुष्ट करने के लिए दिलोजान से अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने की कोशिश करते हैं। जो कुछ भी वे कर सकते हैं, उसमें वे अपना सब-कुछ झोंक देते हैं। इस बारे में सोचकर मैं वाकई शर्मिंदा हो गई। मैं हमेशा इस बारे में बात करती थी कि किस तरह मैं परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहती हूँ, लेकिन जब मेरे लिए वास्तव में एक आदेश को स्वीकार करने, किसी चीज़ में वास्तव में अपना दिल लगाने का समय आया, तो मैं कपटी हो गई और उससे बाहर निकलने की इच्छा करने लगी। तब मुझे एहसास हुआ कि मैं बस कुछ अच्छी लगने वाली बातें कह रही थी, लेकिन वास्तव में मैं परमेश्वर को मूर्ख बनाने की कोशिश कर रही थी, और दिल से मैं पूरी तरह से बेईमान थी। जब मुझे यह एहसास हुआ, तो मैं जान गई कि मैं इस मार्ग पर चलती नहीं रह सकती। भले ही मुझमें बहुत सारी समस्याएँ और कमियाँ थीं, फिर भी मुझे परमेश्वर की आवश्यकताओं के अनुसार एक ईमानदार व्यक्ति होने का अभ्यास करना था। मुझे अपना दिल परमेश्वर को देना था और अपने पैर मजबूती से ज़मीन पर जमाए रखते हुए अपनी पूरी क्षमता के साथ अपना कर्तव्य निभाना था। और चीज़ें चाहे जो भी रूप लें, मैं परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं का पालन करने के लिए तैयार थी। इसके बाद मुझे बहुत ज़्यादा सुकून मिला। जब मैंने अपने कर्तव्य में कठिनाइयों का सामना किया, तो मैंने उन्हें खोजने और हल करने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की, और जब मैं भ्रमित हुई, तो मैंने सत्य के सिद्धांतों की तलाश करते हुए भाई-बहनों के साथ चीज़ों की छानबीन की। मैंने पाया कि धीरे-धीरे मैं कई समस्याओं और कठिनाइयों को हल करने में सक्षम हो गई थी।

इस अनुभव ने मुझे दिखाया है कि परमेश्वर का न्याय और ताड़ना किस तरह वास्तव में मानवजाति के लिए उसका प्यार और उद्धार हैं। ज़िम्मेदारी लेने का मेरा डर दूर हो गया है और मैं अब उतनी रक्षात्मक या गलतफहमियों के प्रति उन्मुख नहीं हूँ। भले ही मुझमें अभी भी बहुत सारे भ्रष्ट स्वभाव हैं, लेकिन मैं परमेश्वर द्वारा न्याय किए जाने, ताड़ना दिए जाने, काट-छाँट किए जाने और निपटे जाने के लिए तैयार हूँ, और स्वच्छ तथा रूपांतरित किए जाने की इच्छुक हूँ। मैं परमेश्वर को धन्यवाद देती हूँ!

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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