नकारात्मक हालत की वजह क्या है
पिछले दो वर्षों से मैं नए सदस्यों का सिंचन कर रही हूँ। एक बार अगुआ हमसे हमारे काम के बारे में बात करने आए, बोले, इस दौरान हमारे काम पर नजर डालते समय उन्होंने देखा कि कुछ सिंचन-कर्मी नए सदस्यों की समस्याओं का असली सार नहीं समझ रहे थे, उनके मसले नहीं सुलझा रहे थे, बस प्रोत्साहन और सलाह दे रहे थे, जिससे कुछ लोगों ने सभाओं में नियमित रूप से आना छोड़ दिया था, और सिंचन-कार्य अप्रभावी हो गया था। यानी सिंचन-कर्मी अपना काम नहीं कर रहे थे। अगुआ की यह बात सुन मेरा दिल बैठ गया। "अप्रभावी," "अपना काम न करना," ये शब्द सुनना वाकई बड़ा मुश्किल था, इससे मैं उदास और दुखी हो गई। इस पूरे समय में मैं नए सदस्यों का सिंचन करती रही थी। यह कहते वक्त अगुआ ने मुझे भी निशाना बनाया होगा। मैंने सोचा, और किसी काम के मुकाबले मैंने सिंचन-कार्य में ज्यादा मेहनत की थी, और हर नए सदस्य के साथ मैंने कितना परिश्रम किया था। उनकी हालत और मुश्किलों पर सोच-विचार कर संगति करने में कितनी सच्ची मेहनत करती थी। कभी-कभी नए सदस्य सभाओं में न आने के कई कारण बताते थे, या कुछ नए सदस्य तुनकमिजाज होते और संदेशों के जवाब नहीं देते थे। हालाँकि ये सब झेल पाना मुश्किल था, मगर प्रार्थना कर और परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं खुद की इच्छाएँ त्यागने को तैयार हो गई। साथ ही, बोलने में माहिर न होकर भी मैंने अपनी बाधाओं से उबरने की कोशिश की; नए सदस्य मुझसे जैसे भी पेश आए, मैंने प्रेम और धैर्य के साथ उनकी मदद की। लगा, मैंने अपना भरसक प्रयास किया था। मुझे बेहद प्रभावी न कहा जाए, तो भी कम-से-कम मैंने काम में कुछ सुधार जरूर किए थे, और नए सदस्य भी कहते थे, मैं मददगार थी। मैंने कभी नहीं सोचा था कि अगुआ मेरे सारे काम को अप्रभावी कहेंगे या कर्तव्य न निभाना मानेंगे। बैठक खत्म हो जाने के बाद, मैं रोना चाहती थी। मैंने एकाएक बेजान महसूस किया, नकारात्मक भावनाओं में डूब गई, सोचने लगी : "मानती हूँ मुझमें बहुत-सी कमियाँ हैं, मेरे कर्तव्य में सुधार की गुंजाइश है, मगर मैं पूरी तरह अप्रभावी नहीं हूँ। मैंने अपना भरसक प्रयास किया है, तो मेरे प्रयासों को क्यों नहीं पहचाना गया? अगर मेरा कोई भी प्रयास प्रभावी न हो, तो सच में नहीं जानती अपना कर्तव्य कैसे निभाऊँ। शायद मैं नए सदस्यों के सिंचन के लायक हूँ ही नहीं।" तो मैं नकारात्मकता की हालत में जीने लगी, कर्तव्य में कोई रुचि नहीं रही। पहले, जब मैं कुछ नए सदस्यों को सभाओं में अनुपस्थित देखती थी, तो मैं सच में चिंता करती और बेचैन हो जाती थी, समय गँवाए बिना नए सदस्यों से पूछती वे क्यों नहीं आए। उनकी समस्याओं और दिक्कतों के बारे में सुनकर मैं संगति और मदद करने की भरसक कोशिश करती थी। लेकिन अब नए सदस्यों को सभाओं में न आता देखकर भी मुझे उतनी फिक्र नहीं होती थी, उनसे मुलाकात होने पर मैं यूँ ही पूछने का नाटक करती थी, और अपनी संगति को और प्रभावी बनाने को लेकर ज्यादा दिमाग नहीं कुरेदती थी। थोड़े कठिन नए सदस्यों के सिंचन का काम मैं दूसरों पर थोप देती थी। लगता, मेरी संगति वैसे भी प्रभावी नहीं थी, मैंने उनकी समस्याएँ हल नहीं की थी, तो इतनी परिश्रमी और सक्रिय होने की तकलीफ क्यों उठाऊँ? मेरे सोच-विचार और त्याग पर तो किसी ने ध्यान ही नहीं दिया था। फिर क्या फायदा? ऊपरी तौर पर, मैं हमेशा की तरह अपना कर्तव्य निभा रही थी, लेकिन मेरी हालत "उदासीन" थी, मेरा दिल परमेश्वर से बहुत दूर था। प्रार्थना में मेरे पास ज्यादा कुछ कहने को नहीं होता था, मैं प्रयास नहीं कर पाती थी।
बाद में, परमेश्वर के वचन का एक अंश पढ़कर ही, मैंने अपनी नकारात्मक हालत को समझना शुरू किया। परमेश्वर कहते हैं, "जब बहुत से लोग अपना कार्य करते हैं, तो उसमें हमेशा प्रेरणाएँ और अशुद्धियाँ होती हैं, वे हमेशा खुद को अलग दिखाने की कोशिश करते हैं, हमेशा चाहते हैं कि लोग उनकी प्रशंसा करें और उनका हौसला बढ़ाएँ, अगर वे कुछ अच्छा करते हैं, तो सदा बदले में कुछ प्रतिफल या इनाम चाहते हैं; यदि कोई इनाम न मिले, तो वे अपने कर्तव्य के प्रति उदासीन हो जाते हैं। यदि उन्हें कोई देखने या प्रोत्साहित करने वाला न हो, तो वे निष्क्रिय हो जाते हैं। वे बच्चों की तरह अस्थिर होते हैं। यह सारा माजरा क्या है—ऐसे लोग इन प्रेरणाओं और अशुद्धियों को कभी छोड़ते क्यों नहीं? इसका मुख्य कारण यह है कि वे सत्य नहीं स्वीकारते; परिणामस्वरूप, तुम उनके साथ सत्य पर जैसे चाहे संगति कर लो, वे इन बातों को दरकिनार नहीं कर पाते। यदि ये मुद्दे कभी हल न किए जाएँ, तो समय के साथ, लोग आसानी से निष्क्रिय हो जाते हैं और अपने कार्य के प्रति अधिक उदासीन होते जाते हैं। परमेश्वर के वचनों में प्रशंसा किए जाने या आशीषित होने के बारे में पढ़कर, उनमें थोड़ा उत्साह जागता है और वे थोड़े प्रेरित होते हैं; लेकिन अगर कोई उनके साथ सत्य की संगति न करे, उन्हें प्रेरित या उनकी प्रशंसा न करे, तो वे उदासीन हो जाते हैं। यदि लोग अक्सर उनके कसीदे पढ़ते रहें, उन्हें सराहते रहें और उनकी प्रशंसा करते रहें, तो उन्हें लगता है कि सब-कुछ बहुत अच्छा चल रहा है, मन ही मन उन्हें यकीन होता है कि परमेश्वर उन्हें लगातार देख रहा है और आशीष दे रहा है, उन्हें लगता है परमेश्वर भी उनके साथ है और उनकी व्यर्थ की इच्छाएं पूरी हो रही हैं। जब उनके कौशल और प्रतिभा का पूरा उपयोग होता है, तो इससे उन्हें एक पहचान मिलती है और वे इतने खुश होते हैं कि नाचते फिरते हैं, उनका चेहरा खिल उठता है। क्या यह सत्य के अनुसरण का असर है? (नहीं।) यह मात्र उनकी मनोकामनाओं का पूरा होना है। यह कौन-सा स्वभाव है? यह अहंकारी स्वभाव है। वे खुद को जरा भी नहीं समझते, मगर व्यर्थ की इच्छाएँ रखते हैं। लेकिन अगर उनके सामने कोई विपत्ति या कठिनाई आ जाए, उनका अभिमान और अहंकार आहत हो जाए या फिर उनके हितों को थोड़ी-सी भी चोट पहुँचे, तो वे निष्क्रियता के शिकार हो जाते हैं। जो पहले, एक विशालकाय पर्वत की तरह खड़े थे, कुछ ही दिनों में मिट्टी का ढेर हो जाते हैं—अंतर बहुत बड़ा है। यदि वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग हैं, तो इतनी जल्दी पंगु कैसे हो गए? जाहिर है, जो लोग जोश, इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं से प्रेरित होते हैं, वे बहुत कमजोर होते हैं; जब उन्हें कोई सदमा या असफलता मिलती है, तो वे पंगु हो जाते हैं। यह देखकर कि उनकी कल्पनाएँ निष्फल हो रही हैं और इच्छाएँ पूरी नहीं हो रहीं, वे आशा खो बैठते हैं और उनका तत्काल पतन हो जाता है। इससे पता चलता है कि किसी समय पर अपने कर्तव्य के प्रति उनका जितना उत्साह था, वह इसलिए नहीं था कि वे सत्य समझ गए थे। वे आशीषित होने की उम्मीद और जोश के कारण अपना कर्तव्य निभा रहे थे। लोगों में चाहे जितना जोश हो, वे कितने भी सिद्धांतों पर उपदेश देने में समर्थ हों, यदि वे सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते, सिद्धांत के अनुसार अपना कर्तव्य नहीं निभाते, सिर्फ जोश के भरोसे चलते हुए वे लंबे समय तक नहीं टिक सकते, मुसीबत और आपदा आने पर वे मजबूत नहीं रह पाएंगे और उनका पतन हो जाएगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल सत्य की खोज से ही परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाओं और गलतफ़हमियों को दूर किया जा सकता है')। परमेश्वर के वचन ने मेरी असली हालत बयान कर दी। लगा, पहले मैं अपना कर्तव्य निभाने में बड़ी परिश्रमी थी; कितनी भी मुश्किलें या कमियाँ आएँ, उनसे उबरने को तैयार थी, कड़ी मेहनत से नहीं डरती थी। रुकावटें आने पर, मैं आँसू पोंछकर आगे बढ़ती रहती थी। तो अब मैं वह शक्ति क्यों नहीं जुटा पा रही हूँ? यह इसलिए था क्योंकि जो "जिम्मेदारी" और "लगन" मुझमें पहले थी, वह संतुष्ट होने की मेरी आकांक्षा की शर्त पर थी, न कि परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य निभाने पर। दूसरों से प्रशंसा पाकर ही मैं कर्तव्य निभाने को प्रेरित होती थी, लेकिन काट-छाँट और निपटान होने पर, मैं नकारात्मकता में डूब जाती थी। लगता, मेरे प्रयासों से कुछ हासिल नहीं हो रहा था, तो कर्तव्य पर अपनी हताशा का बोझ डालकर, मैं निष्क्रिय और ढीली हो गई, इस कर्तव्य को संभालने पर पछतावा भी हुआ। मुझमें जमीर की बड़ी कमी थी! दरअसल, नए सदस्यों का सिंचन करके मैंने बहुत-कुछ पाया था। सत्य पर संगति करके समस्याएँ सुलझाने को लेकर मेरे मन में काफी स्पष्टता थी। नए सदस्यों के सिंचन से, मैंने गहराई से सोचना, जिम्मेदारी उठाना और ज्यादा परिपक्व होना सीख लिया। ये सब वास्तविक लाभ थे। मुझे बहुत-कुछ हासिल हुआ था, फिर भी अगुआ ने बस एक चुभने वाली बात कही, और लगा, मुझे कुछ भी नहीं मिला। मैं नहीं जानती थी मेरे लिए क्या अच्छा था। इसका एहसास होने पर, मुझे बहुत बुरा लगा। मैं इतनी उदास नहीं रह सकती थी; मुझे जल्द सत्य खोजकर अपनी नकारात्मक हालत ठीक करनी थी।
बाद में, मैंने आत्मचिंतन करना शुरू किया। अगुआ ने जब एक बात कही जो मुझे पसंद नहीं थी, तो मैंने इतनी कड़ी प्रतिक्रिया क्यों दिखाई? मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े। "सामान्य परिस्थितियों में, लोगों के दिल की गहराइयों में एक प्रकार की अड़ियल और विद्रोही अवस्था मौजूद होती है—जिसका मुख्य कारण यह है कि उनके दिल में, खास तरह के मानवीय तर्क और मानवीय धारणाएँ होती हैं, जो इस प्रकार हैं : 'अगर मेरे इरादे सही हैं, तो फिर परिणाम चाहे जो हो, तुम्हें मेरे साथ निपटना नहीं चाहिए और यदि तुम ऐसा करते हो, तो मुझे आज्ञापालन करने की आवश्यकता नहीं है।' वे इस बात पर विचार नहीं करते कि क्या उनके कार्य सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप हैं या परिणाम क्या होंगे। वे हमेशा इन बातों से चिपके रहते हैं, 'अगर मेरे इरादे नेक और सही हैं, तो परमेश्वर को मुझे स्वीकार करना चाहिए। यदि परिणाम बुरा भी हो, तो भी उसे मेरी काट-छाँट या मेरा निपटारा नहीं करना चाहिए, मेरी निंदा करने की बात तो बहुत दूर है।' यह मानवीय तर्क है, है न? ये मानवीय धारणाएँ हैं न? मनुष्य हमेशा इस प्रकार के तर्क पर कायम रहता है—क्या इसमें कोई आज्ञाकारिता है? तुमने अपने तर्क को सत्य बना लिया है और सत्य को दरकिनार कर दिया है। तुम्हें लगता है, जो तुम्हारे तर्क के अनुरूप है वह सत्य है और जो नहीं है वह सत्य नहीं है। क्या तुमसे ज्यादा हास्यास्पद और कोई है? क्या तुमसे ज्यादा अहंकारी और दंभी कोई है? आज्ञाकारिता का पाठ सीखने से मुख्य रूप से लोगों की किस अवस्था का समाधान होता है? यह लोगों का अहंकारी और दंभी स्वभाव दूर करता है, और यह सभी स्वभावों में सबसे विद्रोही स्वभाव का समाधान करता है जो है तर्क करने की प्रवृत्ति। जब लोग सत्य स्वीकार कर अपने तर्क पेश करना बंद कर देते हैं, तो विद्रोह की यह समस्या हल हो जाती है और वे आज्ञाकारी बनने में समर्थ हो जाते हैं। अगर लोगों को आज्ञाकारी बनने में सक्षम होना है, तो क्या उनमें कुछ हद तक तार्किकता होनी आवश्यक है? उनमें एक सामान्य व्यक्ति की समझ होनी चाहिए। उदाहरण के लिए, कुछ मामलों में : हमने सही काम किया हो या न किया हो, अगर परमेश्वर संतुष्ट नहीं है, तो हमें वही करना चाहिए जैसा परमेश्वर कहता है, परमेश्वर के वचन हर चीज के लिए मानक हैं। क्या यह तर्कसंगत है? लोगों में इस भावना का होना सबसे जरूरी है। हम चाहे कितना भी कष्ट उठाएँ, हमारे इरादे, उद्देश्य और कारण कुछ भी हों, यदि परमेश्वर संतुष्ट नहीं है—यदि परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी नहीं हुई हैं—तो हमारे कार्य निस्संदेह सत्य के अनुरूप नहीं हैं, इसलिए हमें परमेश्वर की बात मानकर उसका आज्ञापालन करना चाहिए, परमेश्वर के साथ बहस या तर्क करने का प्रयास नहीं करना चाहिए। जब तुममें ऐसी तर्कसंगतता होगी, जब तुममें एक सामान्य व्यक्ति की समझ होगी, तो तुम्हारे लिए अपनी समस्याएँ हल करना आसान होगा, तुम सच में आज्ञाकारी होगे, किसी भी स्थिति में तुम अवज्ञाकारी नहीं बनोगे और परमेश्वर की अपेक्षाओं की अवहेलना नहीं करोगे, तुम यह विश्लेषण नहीं करोगे कि परमेश्वर ने जो कहा है वह सही है या गलत, अच्छा है या बुरा, तुम आज्ञापालन कर पाओगे—इस तरह तुम अपनी तर्क, हठधर्मिता और विद्रोह की स्थिति को हल कर सकते हो। क्या सबके भीतर ऐसी विद्रोही स्थिति होती है? लोगों में अक्सर ये अवस्थाएँ दिखाई देती हैं और वे सोचते हैं, 'अगर मेरा दृष्टिकोण, प्रस्ताव और सुझाव विवेकपूर्ण है, अगर मैं कुछ गलत भी करूँ, तो भी मेरी काट-छाँट या निपटारा नहीं किया जाना चाहिए, मैं काट-छाँट और निपटारे को नकार सकता हूँ।' यह लोगों में एक सामान्य अवस्था है, और परमेश्वर का आज्ञापालन न कर पाने में प्राथमिक कठिनाई है। अगर लोग वाकई सत्य समझ लें, तो वे इस तरह की विद्रोही अवस्था को प्रभावी ढंग से हल कर सकते हैं। लोग कितना भी तर्क करने की कोशिश करें, यह सत्य नहीं है। जो लोग सत्य से युक्त नहीं होते, वे हमेशा परमेश्वर से तर्क करने की कोशिश करते हैं और उन्हें आज्ञापालन करने में बड़ी परेशानी होती है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपनी आस्था में सही पथ पर होने के लिए आवश्यक पाँच अवस्थाएँ')। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मुझे अपनी नकारात्मकता के पीछे का कारण साफ समझ आया : अगुआ के यह कहने पर कि कुछ सिंचन-कर्मी प्रभावी नहीं थे, मैं नकारात्मक इसलिए हो गई थी, क्योंकि मेरा स्वभाव दुराग्रही, घमंडी था और मैं खुद को बहुत ऊँचा समझती थी। जब मेरे बारे में किसी की राय मुझे अच्छी नहीं लगती, तो उसे स्वीकार कर समर्पण करना मेरे लिए बहुत मुश्किल था। बाहर से तो मैं इस पर बहस करने की हिम्मत न करती, मगर मेरा दिल इसे ठुकरा देता। मैंने सोचा, सिंचन-कर्मी के रूप में मैंने अपने काम में मेहनत की, अपना भरसक प्रयास किया। जो भी हो, मैं दिल से अपना काम अच्छे ढंग से करना चाहती थी। जब मेरे इरादे नेक थे, मैंने कड़ी मेहनत की थी, त्याग किए थे, तब कोई नहीं कह सकता था कि मैं प्रभावी नहीं थी। ऐसा कहना मेरे साथ गलत होता। लेकिन मैंने कभी नहीं सोचा कि क्या यह तर्क सही था, क्या मेरा कर्तव्य सचमुच प्रभावी था। हालाँकि मैंने मेहनत की, मगर सत्य को न समझने और अनुभवी न होने के कारण, किसी नए सदस्य के अपने जीवन या काम में असली समस्याएँ झेलने पर, कई बार मैं उसे प्रोत्साहन देने के लिए सिद्धांत की कुछ बातें बता देती। मैं सत्य पर संगति करके, नए सदस्यों को परमेश्वर की इच्छा समझाकर, या अभ्यास का मार्ग दिखाकर, उनकी समस्याएँ दूर नहीं कर पाती थी। साथ ही, कई बार मेरा काम सिद्धांत -विहीन होता था, क्योंकि मैं सत्य नहीं समझती थी, और इससे कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचा। मैं लोगों और चीजों को परमेश्वर के वचन के अनुसार नहीं देखती थी, न ही लोगों का असली सार पहचानती थी, और कुछ गैर-विश्वासियों से आँखें बंद कर नेकी करती थी, हमेशा उनका साथ देती, उनकी मदद करती थी। हुआ यह कि यह सब बेकार का बहुत सारा काम था। ये गैर-विश्वासी कलीसिया में टिके रहे, अपनी धारणाएं फैलाते रहे, और दूसरे नए सदस्यों को बाधित करते रहे। पीछे मुड़कर देखूं, तो मेरे काम से कोई भी वास्तविक नतीजा नहीं मिला था, मुझसे कोई अहम काम नहीं हुआ था। जब अगुआ ने मेरी समस्याएँ उजागर कीं, तो न सिर्फ मैंने उन्हें नहीं स्वीकारा, बल्कि मैं नकारात्मक, प्रतिरोधी और कठिन बन गई। मैं बेहद नासमझ थी! मैंने अपना काम कैसे सँभाला, कैसे कलीसिया ने मुझे नए सदस्यों का सिंचन करने दिया, इसका मुझे आभार मानना चाहिए था। मुझे देखना चाहिए था, मैं मानक से कितना नीचे गिरकर अपना कर्तव्य निभा रही थी, सत्य के लिए कितनी कड़ी मेहनत कर रही थी, और सोच-विचार कर रही थी कि क्या मेरे कर्तव्य का कोई व्यावहारिक प्रभाव हुआ था, और कौन-से मसले, भटकाव या गलतियाँ अभी भी बरकरार थीं। आगे बढ़ने और अपना कर्तव्य सही ढंग से निभाने का यही एकमात्र तरीका था।
मैंने परमेश्वर के वचनों में पढ़ा। "जो लोग अक्सर नकारात्मक होते हैं, उनसे परमेश्वर कैसा व्यवहार करता है, इसके कुछ सिद्धांत हैं। परमेश्वर मनुष्य के अंतरतम हृदय का सर्वेक्षण करता है; जब लोग लगातार नकारात्मक होते हैं, तो यहां समस्या होती है। परमेश्वर ने बहुत कुछ कहा है, इतने सारे सत्य व्यक्त किए हैं, तो वे परमेश्वर के वचनों में सत्य क्यों नहीं खोजते? वे सत्य क्यों नहीं स्वीकारते? परमेश्वर जो करता है उससे वे सदा असंतुष्ट रहते हैं, वे सत्य का बिल्कुल भी अभ्यास नहीं करते, तो क्या परमेश्वर फिर भी उन पर ध्यान देगा? क्या ऐसे लोगों में तर्क की कोई जगह होती है? जिन लोगों पर तर्क काम नहीं करता, उनके प्रति परमेश्वर का दृष्टिकोण क्या होता है? वह उन्हें त्यागकर अनदेखा कर देता है। तुम जैसे चाहो आस्था रखो; तुम विश्वास रखो या न रखो, यह तुम पर है; यदि तुम सच में विश्वास रखोगे और उसका अनुसरण करोगे, तो तुम्हें प्रतिफल मिलेगा; यदि विश्वास नहीं रखोगे, अनुसरण नहीं करोगे, तो नहीं मिलेगा। परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति के साथ उचित व्यवहार करता है। यदि तुम्हारा दृष्टिकोण सत्य स्वीकार न करने और समर्पित न होने का है, और यदि तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं हो, तो तुम चाहे जिसमें विश्वास करो; साथ ही, यदि तुम छोड़ना चाहो, तो तुम तुरंत ऐसा कर सकते हो। यदि तुम अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते, तो तुरंत छोड़ दो, जहाँ जाना चाहो जाओ और कोई लज्जाजनक स्थिति पैदा मत करो। परमेश्वर ऐसे लोगों से रुकने का आग्रह नहीं करता। यही उसका रवैया है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपनी धारणाओं का समाधान करके ही कोई परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग में प्रवेश कर सकता है (3)')। परमेश्वर के उजागर करने वाले वचन सुनकर मैं डर गई, लगा, परमेश्वर का स्वभाव अपमान सहन नहीं करता। मैं अगुआ की तथ्यात्मक बातें स्वीकार नहीं कर पाई, मेरे विचार तर्कहीन और होड़ करने वाले थे, मैं काम में निष्क्रिय और ढीली थी। सत्य को स्वीकार नहीं रही थी, उससे उकता गई थी! परमेश्वर मुझसे नाराज हो गया था, सत्य के प्रति मेरे रवैये से घृणा करने लगा था। मुझ जैसे लोगों के प्रति परमेश्वर का रवैया साफ था : वह उन्हें त्याग देगा। असलियत में, मैं कुछ भी नहीं थी, मगर खुद के बारे में बहुत ऊँचा सोचती थी। मैं अपना सच्चा आध्यात्मिक कद, काबिलियत या कार्य क्षमता नहीं समझ पाई थी, हमेशा लोगों से स्वीकृति और सराहना चाहती थी। लोगों की आँखों में अपना रुतबा देखना चाहती थी, उन्हें यह सोचते देखना चाहती थी कि मैं भी कुछ हूँ। मैं बहुत घमंडी और तर्कहीन थी! अपनी समस्या साफ देखने के बाद, मैंने परमेश्वर से तुरंत प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मैं जो सच में हूँ, उसे नहीं स्वीकार सकती, बहुत उदासीन हूँ। मैं इतनी नकारात्मक नहीं रहना चाहती। मुझे सही ढंग से कर्तव्य निभाने का रास्ता दिखाओ।"
इसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों में अभ्यास का मार्ग खोजा, और ये वचन देखे। "चाहे कुछ भी हो, निष्क्रियता को निष्क्रिय और नकारात्मक तरीकों से ठीक नहीं किया जाना चाहिए। कुछ लोग सोचते हैं कि यदि वे खुश होने तक प्रतीक्षा करेंगे, तो उनकी निष्क्रियता स्वाभाविक रूप से आनंद में बदल जाएगी। यह एक कल्पना है। यदि लोग सत्य स्वीकार न करें, तो उनकी निष्क्रियता दूर नहीं की जा सकती। अगर तुम इसे भूल भी जाओ और तुम्हारे मन में उसका कोई ख्याल भी न आए, तो भी इसका मतलब यह नहीं कि निष्क्रियता जड़ से दूर हो गई है; अनुकूल वातावरण पाते ही, यह फिर से हमला करेगी—यह बेहद सामान्य बात है। यदि लोग होशियार और समझदार हों, तो निष्क्रियता प्रकट होते ही, सत्य को उपचार के साधन के रूप में स्वीकारते हुए, उन्हें तुरंत सत्य खोजना चाहिए। इस प्रकार कार्य करते हुए, वे निष्क्रियता की समस्या को समूल नष्ट कर देंगे। जो लोग अक्सर निष्क्रिय रहते हैं, उनमें यह सत्य न स्वीकार पाने के कारण होता है। ... अगर तुम किसी एक बात, किसी एक वाक्य या किसी एक विचार या मत के कारण निष्क्रियता में डूबे हो और मन में दुख उत्पन्न हो रहा है, तो यह साबित करता है कि इस मामले का तुम्हारा ज्ञान विकृत है, कि तुम्हारे पास धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं, और यह कि इस मामले के बारे में तुम्हारा दृष्टिकोण निश्चित रूप से सत्य के साथ असंगत है। ऐसे समय में तुम्हें मामले का सही ढंग से सामना करने, इन भ्रामक धारणाओं और कल्पनाओं को यथाशीघ्र और तत्परता से ठीक करने का प्रयास करने, अपने-आपको इन धारणाओं से लड़खड़ाने और गुमराह न होने देने, और परमेश्वर के प्रति अवज्ञा, असंतोष और शिकायतें करने की स्थिति में न डूबने देने की आवश्यकता होती है। यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि निष्क्रियता को तुरंत और पूरी तरह से हल किया जाए। बेशक, चाहे कोई भी साधन या पद्धति हो, सबसे अच्छा तरीका केवल सत्य की तलाश करना, परमेश्वर के वचनों को अधिक पढ़ना, और परमेश्वर की प्रबुद्धता प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के सामने आना है" (नकली अगुआओं की पहचान करना)। "अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाना, परमेश्वर को संतुष्ट करना और उसका भय मानना, और बुराई से दूर रहना आसान नहीं है। लेकिन मैं तुम्हें अभ्यास का एक सिद्धांत बताता हूँ : अगर अपने साथ कुछ होने पर तुम्हारा रवैया खोज और आज्ञाकारिता का रहता है, तो वह तुम्हारी रक्षा करेगा। अंतिम लक्ष्य तुम्हारी रक्षा करना नहीं है। वह है तुम्हें सत्य समझाना और सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने और परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने में सक्षम बनाना; यही अंतिम लक्ष्य है। अगर समस्त अनुभवों में तुम्हारा यह रवैया रहता है, तो तुम यह महसूस करना बंद कर दोगे कि अपना कर्तव्य निभाना और परमेश्वर की इच्छा पूरी करना खोखले शब्द और घिसी-पिटी बातें हैं; वह अब इतना कठिन नहीं लगेगा। इसके बजाय, तुम्हें पता भी नहीं चलेगा और तुम पहले ही कई सत्य समझ जाओगे। अगर तुम इस तरह अनुभव करने का प्रयास करोगे, तो तुम निश्चित रूप से फल प्राप्त करोगे। यह मायने नहीं रखता कि तुम कौन हो, तुम्हारी उम्र कितनी है, तुम कितने शिक्षित हो, तुमने कितने साल परमेश्वर में विश्वास किया है, या तुम कौन-सा कर्तव्य निभाते हो। अगर तुम्हारा रवैया खोजपूर्ण और समर्पण का रहता है, अगर तुम इस तरह से अनुभव करते हो, तो अंतत: तुम्हारा सत्य को समझना और सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करना निश्चित है" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का रास्ता दिखाया। अपने विचारों के विपरीत या नकारात्मक भावनाएँ देने वाली चीजों से सामना होने पर, हमें तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना कर सत्य खोजना चाहिए, आज्ञाकारिता का रवैया अपनाना चाहिए। जब लगे कि आपके साथ गलत हुआ है या आप उलझन में हैं, तो प्रतिरोध या बहस न करें, सोचें-समझें कि आपकी समस्याएँ क्या हैं, किन क्षेत्रों में आपने ठीक नहीं किया या कहाँ सुधार या बेहतर कर सकते हैं। ये चीजें तुरंत न भी पहचान सकें, तो भी आपको पढ़ने के लिए परमेश्वर के संगत वचन ढूँढ़ने चाहिए, या सत्य समझने वाले किसी व्यक्ति से संगति की कोशिश करनी चाहिए। सत्य की स्वीकृति के इस रवैये के साथ, परमेश्वर की प्रबुद्धता पाना, अपनी समस्याएँ पहचानना, और जीवन प्रवेश के लिए सत्य के सिद्धांत जानना आसान है। आगे से, हालात से निपटने के लिए मैं नकारात्मक प्रतिरोधी रवैया इस्तेमाल नहीं कर सकती; इससे मुझे ही कष्ट होगा। अनेक अनुभवों के बाद भी, मैं कभी अपना सबक नहीं सीख पाऊँगी, सत्य नहीं पा सकूंगी। मैं आगे नहीं बढ़ पाऊँगी, लाभ नहीं ले पाऊँगी।
बाद में, अगुआ ने जब मेरे काम की जाँच की, तो मुझे एहसास हुआ कि मेरे लापरवाह, निष्क्रिय और ढीले रवैये से कलीसिया के कार्य को पहले ही नुकसान हो चुका था। धार्मिक पादरियों ने कुछ नए सदस्यों को गुमराह कर दिया था, उन्होंने परमेश्वर के बारे में धारणाएँ लेकर, सभा समूह छोड़ दिया था। कुछ लोगों ने सीसीपी द्वारा फैलाई गई अफवाहों से गुमराह होकर सभाओं में आना बंद कर दिया था। ये समस्याएँ देखकर मुझे बहुत डर लगा, मैंने खुद से घृणा की। इस दौरान मैंने क्या किया था? मैंने कोई व्यावहारिक कार्य नहीं किया था, बस अपनी नकारात्मकता में डूबी हुई थी। सोचती थी, मेरे नकारात्मक हालत में जीने से सिर्फ मेरे जीवन प्रवेश पर असर पड़ेगा। मैंने अपने कर्तव्य की सारी अपेक्षाएं पूरी कीं, नकारात्मकता का भड़ास नहीं निकाला, जानबूझ कर कलीसिया कार्य में बाधा नहीं डाली। ज्यादा-से-ज्यादा मैं बस खुद को आहत कर रही थी। लेकिन असलियत में, नकारात्मकता में जीने से साफ तौर पर दिख रही समस्याएँ अनसुलझी रह गईं, जिम्मेदारियाँ अधूरी रह गईं, कर्तव्य के प्रति वफादारी न रही, और इससे कलीसिया के कार्य में रुकावट पैदा हो गई। यह सोचकर मुझे अपने अतीत पर पछतावा हुआ। नकारात्मकता में डूबते ही मैंने जल्द से जल्द परमेश्वर के पास जाकर सत्य क्यों नहीं खोजा? अगर मैंने समय रहते सत्य खोजकर अपनी हालत ठीक कर ली होती, तो मेरी काबिलियत और समस्याओं की समझ सीमित होने पर भी, कम-से-कम हालत इतनी खराब नहीं हुई होती। यह सोचकर, मेरा दिल पछतावे और अपराध-बोध से भर गया। मैंने परमेश्वर से यह कहकर प्रार्थना की कि मुझे असली कर्म करके इसकी भरपाई करनी होगी, अपने कर्तव्य में सत्य के सिद्धांत खोजने पर ज्यादा जोर देना होगा। जब मैंने नकारात्मकता में जीना छोड़ दिया और व्यावहारिक कार्य करने की भरसक कोशिश की, तो मुझे राहत और सुकून मिला, मेरी हालत सामान्य हो गई। मैं हालात से सीखकर लाभ पाने में समर्थ हो गई। बाद में, कर्तव्य निभाते समय, कभी-कभी काम में समस्याएँ और भटकाव आ जाते थे, तब अगुआ मुझे डाँटते और मेरा निपटान करते थे। मैं अब भी थोड़ी नकारात्मक महसूस करती थी, मगर जानती थी, यहाँ सीखने को कुछ था, और समस्या यकीनन मेरी ही थी; मैं सिद्धांत के अनुसार काम नहीं कर रही थी। मैं दुराग्रही नहीं बनी रह सकती; मुझे सत्य खोजकर आत्मचिंतन करना होगा। इस रवैये के साथ, मेरी नकारात्मक हालत जल्दी ठीक हो गई, अब हर बार जब अगुआ मुझे डाँटते, मेरा निपटान करते, तो मैं अपने कर्तव्य की खामियों और भटकावों को पहचान पाती, और सत्य के कुछ सिद्धांत समझ पाती। इस अनुभव ने मुझे सच में समझाया है कि सत्य स्वीकार करना कितना अहम है। सत्य स्वीकारने से आपको आगे बढ़ने का रास्ता मिलता है, आपका कर्तव्य और ज्यादा प्रभावी हो जाता है।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?