परमेश्वर में विश्वास करते हुए इंसान का अनुसरण करने पर चिंतन
मेरे सभी अनुभवों में से एक विशेष रूप से ऐसा है, जिसने मुझ पर गहरी छाप छोड़ी। एक वर्ष एक उच्च अगुआ, ली हुआन, काम की देखरेख करने हमारी कलीसिया आई। उस समय कलीसिया का एक सदस्य अगुआओं और कार्यकर्ताओं के खिलाफ पूर्वाग्रह फैलाकर गड़बड़ी करने के लिए एक गुट बना रहा था। हमने कई बार उसके साथ संगति की, पर उसने पश्चाताप नहीं किया। ये पक्का नहीं था कि वह मसीह-विरोधी है या नहीं, तो हमने ली हुआन से पूछा। ली हुआन ने मसीह-विरोधियों को परखने के सत्य पर हमारे साथ संगति की ताकि हम सही फैसला कर सकें, उसने हमें आगे का रास्ता दिखाया। बातों-बातों में यह भी पता चला कि जब ली हुआन एक नई अगुआ थी, तो उसने कलीसिया की अव्यवस्था दो हफ्तों में ही ठीक कर दी थी जिसे दूसरे दो महीनों में हल नहीं कर पाए थे। उच्च अगुआ होने के नाते, उसने कई कलीसियाओं के काम की देखरेख की थी और उनके कई मामले सुलझाए थे। मुझे पता भी नहीं चला और मैं उसका बहुत आदर करने लगी। फिर, जब ऐसी समस्याएं आतीं जो समझ न आतीं, तो हम ली हुआन का इंतजार करते कि वो हमारा आकर मार्गदर्शन करे। एक महीने बाद, वह हमारी कलीसिया में वापस आई। मैंने फौरन उसे हमारी समस्याओं और कठिनाइयों के बारे में बताया, उसने फिर से सब कुछ तुरंत ठीक कर दिया। ली हुआन के साथ कुछ मुलाकातों के बाद ही मैं उसे सराहने लगी। मुझे लगा वह उच्च अगुआ बनने लायक है, उसके पास सत्य की समझ और विवेक है। जो समस्याएँ मुझसे हल नहीं हो रही थी उन्हें हल करना उसके लिए असान था। मैं यही उम्मीद करती कि वह अक्सर हमारा मार्गदर्शन करे। मैं तब हैरान रह गई जब कुछ महीनों बाद ली हुआन अहंकारी होने, अपने कर्तव्यों में निरंकुश होने, कलीसिया के काम में गड़बड़ी करने और काट-छाँट न स्वीकारने पर बर्खास्त कर दी गई। मैं सोच भी नहीं सकती थी कि वो बर्खास्त होगी, पर लगा कि शायद ये उसके लिए अच्छा हो। अगर वह खुद को समझकर बदल सके, तो फिर से अहम काम कर सकती थी। उसकी बर्खास्तगी के बाद भी, मेरे दिल में उसकी जगह बिल्कुल नहीं बदली।
कुछ महीनों बाद, कलीसिया ने ली हुआन और मुझे सफाई करने का काम सौंपा। मैं बहुत उत्साहित थी। मैं इस मौके का सही इस्तेमाल करके उससे काफी कुछ सीखना चाहती थी। बाद में कुछ मुद्दों पर चर्चा करते समय, वह हमेशा संगति करने के लिए प्रासंगिक सिद्धांत ढूंढ़ लेती थी और मुद्दे हल देती थी। वह अक्सर बताती कि आस्था में आने के कुछ समय बाद ही वो अगुआ बन गई, अपनी कड़ी मेहनत से काम में सुधार लाया, और कैसे बर्खास्तगी के बाद उसने खुद को जाना, और कलीसिया उसे फिर से अहम काम सौंप रही थी। यह सब सुनकर मैं उसके बारे में और भी ऊंचा सोचने लगी, कोई सवाल होता तो मैं उसके पास ही जाती थी। उसके पास हमेशा कोई जवाब होता था। समय के साथ, मैंने प्रार्थना पर ध्यान देना और अपने काम में परमेश्वर को खोजना बंद कर दिया, और इसके बजाय हर चीज में ली हुआन पर भरोसा करने लगी, मुझे उसकी सारी बात सही लगती थी। उस समय मैं उसके बारे में बहुत ऊंचा सोचती थी। आँखें मूंदकर उसे पूजते हुए मैं एक बहुत बड़ा पाप करने वाली थी।
एक दिन, मुझे पता चला कि पहले जब झांग पिंग अगुआ थी, तो उसने अपने परिवार के सामने अपने साथी की आलोचना की थी, क्योंकि वह उसके साथी के खिलाफ थी। उसके परिवार ने यही सारी बातें समूह की सभा में बता दीं। कलीसिया अगुआ ने बस उस एक वजह से झांग पिंग को मसीह-विरोधी करार दिया। उसके परिवार को लगा कि मामले का निपटान सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हुआ, तो उन्होंने चिट्ठी लिखकर इसकी रिपोर्ट कर दी। इस पर कलीसिया अगुआ ने झांग पिंग के पूरे परिवार को मसीह-विरोधियों का गिरोह करार देकर उन्हें सबसे अलग कर दिया। झांग पिंग के निष्कासन से जुड़े दस्तावेजों को देखकर, मुझे लगा कि वह बस भ्रष्ट स्वभाव में जी रही थी और दूसरों की थोड़ी आलोचना की थी। उसे मसीह-विरोधी करार नहीं दिया जाना चाहिए था। उसके परिवार ने वह रिपोर्ट बस एक समस्या बताने के लिए की थी, उन्होंने गुट नहीं बनाया था या कलीसिया के काम में गड़बड़ी पैदा नहीं की थी। उन्हें मसीह-विरोधी नहीं कहा जाना चाहिए था। फिर, मैं कुछ साल पहले झांग पिंग के संपर्क में थी। उसके पास स्वीकार्य मानवता थी, वह कुकर्मी तो नहीं लगी। मुझे लगा कि कहीं अगुआ ने उसे मसीह-विरोधी कहकर निष्कासित करके गलती तो नहीं की। यह कोई छोटी बात नहीं है। मैं इस मामले में ली हुआन की मदद लेना चाहती थी। मुझे हैरानी हुई जब उसने दृढ़ता से यह कहा, “झांग पिंग ने अपने साथी की आलोचना की थी, यह एक कुकर्म है। उसके परिवार ने उसकी ओर से बात की और एक रिपोर्ट दाखिल की, इसलिए वह मसीह-विरोधियों का गिरोह है। हम देख सकते हैं कि क्या उन्होंने और कुकर्म किए हैं।” मुझे लगा कि उसका इस तरह निर्णायक होना सही नहीं है, पर फिर मैंने सोचा अगर ली हुआन को इतना यकीन है, तो उसे वास्तव में चीजों की समझ होगी। आखिरकार, वह उच्च अगुआ रह चुकी है, उसके पास काफी अनुभव और विवेक है। वह बेशक सत्य और चीजों को मुझसे बेहतर समझती होगी। मैंने अपना राग बदलकर कहा, “कुछ सालों से झांग पिंग से बात नहीं हुई। पता नहीं उसने कोई और कुकर्म किया है या नहीं। जांच करके फैसला करते हैं।” जल्द ही हमें झांग पिंग के बारे में और जानकारी मिली। उसने कोई और कुकर्म नहीं किए थे, और अपने साथी की आलोचना करने के बाद उसने आत्मचिंतन करके अपने बारे में जान लिया था। उसका परिवार भी दूसरों को झांग पिंग का साथ देने के लिए नहीं कह रहा था। उनके बर्ताव को देखते हुए, उन्हें मसीह-विरोधी करार देकर निष्कासित नहीं किया जाना चाहिए था। मैंने यह जानकारी ली हुआन के साथ साझा की, लेकिन वह वाकई घृणा से भरी थी, उसकी राय में झांग पिंग को मसीह-विरोधी करार देना गलत नहीं था। उसने कहा, “अगर हम मसीह-विरोधियों को कलीसिया में रहने दें और वे कुकर्म करके बाधाएं डालें, तो उनके कुकर्म में हमारा भी हाथ होगा!” एक और बहन ली हुआन से सहमत नहीं थी। उसका भी यही कहना था कि वे मसीह-विरोधियों का गिरोह नहीं थे, उन्होंने बस थोड़ी भ्रष्टता दिखाई थी, और हमें फौरन उन्हें कलीसिया में वापस बुला लेना चाहिए। ली हुआन ने अभी भी यकीन के साथ कहा, “झांग पिंग मसीह-विरोधी नहीं पर एक कुकर्मी तो है ही। उसने अपने परिवार के सामने अपने सहकर्मी की निंदा की, उसके परिवार ने वही बातें सभा में बताईं, फिर रिपोर्ट भी लिखी। क्या यह कलीसिया में रुकावट डालना नहीं हुआ? हम उन्हें वापस नहीं बुला सकते, पर हमें उनके कुकर्मों के बारे में और जानना होगा।” ली हुआन की बात सुनने के बाद मैं थोड़ा संकोच करने लगी। वह झांग पिंग के निष्कासन को लेकर इतनी निश्चित है। तो क्या इसका मतलब यह है कि इस बारे में मेरी सोच सीमित है? क्या झांग पिंग वाकई कुकर्मी थी? ली हुआन लंबे समय से अगुआ रही है, तो जाहिर है कि उसे चीजों की समझ हमसे बेहतर होगी। मुझे लगा कि मुझमें विवेक की कमी है और हम झांग पिंग के कामों की जांच करते रह सकते हैं। इसलिए, हालाँकि मेरा मन पूरी तरह शांत नहीं था, फिर भी मैंने साहस जुटाया और कुछ भाई-बहनों को मामले में और जांच करने को कह दिया। ये व्यवस्थाएँ करने के बाद मुझे बहुत बेचैनी हुई और मेरा हृदय अंधकारमय हो गया। मैं इसे शब्दों में बयान नहीं कर सकती। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, इस हालात के द्वारा खुद को पहचानने और उसके इरादे के अनुसार काम करने में मेरा मार्गदर्शन करने को कहा। प्रार्थना के बाद मैंने परमेश्वर के वचनों में इसे पढ़ा : “परमेश्वर हर कलीसिया और हर व्यक्ति पर नजर रखता है। कलीसिया में चाहे कितने ही लोग अपना कोई कर्तव्य क्यों न निभा रहे हों, या परमेश्वर का अनुसरण क्यों न कर रहे हों, जैसे ही वे परमेश्वर के वचनों से भटकते हैं, जैसे ही वे पवित्र आत्मा के कार्य से वंचित होते हैं, वे परमेश्वर के कार्य को अनुभव नहीं कर पाते, और उनका और उनके द्वारा निभाए जाने वाले कर्तव्य का परमेश्वर के कार्य से कोई संबंध या इसमें कोई हिस्सेदारी नहीं रह जाती। ऐसे मामले में कलीसिया धार्मिक समूह बन जाते हैं। अच्छा बताओ, अगर कलीसिया एक धार्मिक समूह बन जाए तो उसके क्या परिणाम होते हैं? क्या तुम लोग यह नहीं कहोगे कि ये बहुत बड़े खतरे में हैं? कोई समस्या आने पर वे कभी भी सत्य की खोज नहीं करते, और सत्य सिद्धांतों के आधार पर कार्य नहीं करते, बल्कि वे मनुष्य की व्यवस्थाओं और तिकड़मों में फंस जाते हैं। बहुत-से ऐसे भी हैं जो अपना कर्तव्य निभाते समय कभी भी प्रार्थना या सत्य सिद्धांतों की खोज नहीं करते; वे सिर्फ दूसरों से पूछकर उनके अनुसार चलते रहते हैं, उनकी भाव-भंगिमा देखकर सब कुछ करते रहते हैं। दूसरे लोग उन्हें जो करने को कहते हैं, वे वही करते हैं। उन्हें लगता है कि अपनी समस्याओं के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करना और सत्य की खोज एक अस्पष्ट-सी और मुश्किल चीज है, इसलिए वे कोई सीधा-सादा और आसान हल तलाशते हैं। उन्हें लगता है कि दूसरों पर निर्भर रहना और उनके अनुसार चलते रहना आसान और सर्वाधिक यथार्थवादी है, और इसलिए, वे वही करते हैं जो जो दूसरे लोग कहते हैं, हर काम में दूसरों से पूछते रहते हैं और वैसा ही करते रहते हैं। परिणामस्वरूप, वर्षों के विश्वास के बाद भी, जब भी उन्हें किसी समस्या का सामना करना पड़ा, उन्होंने कभी भी परमेश्वर के सम्मुख आकर प्रार्थना नहीं की और उसकी इच्छाओं और सत्य को जानने की कोशिश नहीं की, ताकि उन्हें सत्य की समझ आ सके, और वे परमेश्वर के इरादों के अनुसार कार्य और व्यवहार कर सकें—उन्हें कभी भी ऐसा कोई अनुभव नहीं हो पाया। क्या ऐसे लोग सचमुच परमेश्वर में आस्था का अभ्यास करते हैं?” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर का भय मानकर ही इंसान उद्धार के मार्ग पर चल सकता है)। परमेश्वर के वचन दिखाते हैं कि जब व्यक्ति के दिल में परमेश्वर के लिए जगह नहीं होती और वह सत्य सिद्धांत नहीं खोजता, बल्कि दूसरों की बात सुनकर उनकी योजनाओं के अनुसार चलने का चुनाव करता है, तो यह परमेश्वर में आस्था का अभ्यास करना नहीं है; परमेश्वर ऐसा विश्वास नहीं स्वीकारता। क्या मेरी हालत ऐसी ही नहीं थी? झांग पिंग के परिवार के मामले में, ली हुआन को पूरा यकीन था वे मसीह-विरोधियों का गिरोह थे। मुझे लगा यह तथ्यों के अनुरूप नहीं था, पर मैं उसका इतना आदर करती थी कि मैंने सत्य सिद्धांत नहीं खोजे। उसने मुझे जो करने को कहा मैंने वही किया। हमारी जांच-पड़ताल के नतीजों से पता चला कि उसके परिवार पर गलत तरीके से ठप्पा लगाया गया था, पर ली हुआन की दृढ़ता देखकर, मैंने अपने मन की बात नहीं सुनी। बेचैनी महसूस करने के बाद भी, मैंने सत्य सिद्धांत नहीं खोजे। मैंने न चाहते हुए भी ली हुआन का कहना माना। मेरे दिल में परमेश्वर की कोई जगह नहीं थी। यह आस्था रखना कैसे हुआ? जितना ज्यादा मैंने इस बारे में सोचा, उतना ही ज्यादा बुरा मुझे महसूस हुआ। मैं हमेशा खुद को एक सच्ची विश्वासी मानती थी। सोचा नहीं था कि मैं किसी की इतनी प्रशंसा और अनुसरण करूंगी। मुझे बेचैनी महसूस हुई, जिसका मतलब था कि परमेश्वर पहले ही मुझसे ठुकरा चुका था। अगर मैंने पश्चात्ताप नहीं किया, तो सचमुच हटा दी जाऊँगी। इस विचार से मैं बहुत डर गई, इसलिए मैंने प्रार्थना कर अपनी हालत सुधारने में परमेश्वर से मार्गदर्शन माँगा, ताकि मैं सत्य खोजकर झांग पिंग और उसके परिवार से सिद्धांत के अनुसार बर्ताव कर सकूँ।
इसके बाद मैंने झांग पिंग के मामले से जुड़े सत्य सिद्धांत खोजे, भ्रष्ट स्वभाव वाले आम इंसान और एक मसीह-विरोधी के बीच का अंतर जाना। मसीह-विरोधियों का मुख्य लक्षण है कि वे सत्ता को जीवन मानते हैं और परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर काबू करना चाहते हैं। वे सत्ता पाने के लिए लोगों को दंड देते हैं। वे बहुत बुराई करते हैं और कलीसिया के कार्य में गंभीर रुकावट डालते हैं। साथ ही, मसीह-विरोधी सत्य से विमुख होते हैं और उससे घृणा करते हैं। वे सार में दुष्ट लोग होते हैं और उनमें कोई जमीर या विवेक नहीं होता। चाहे उन्होंने कितनी भी बुराई की हो, उन्हें जरा भी अफसोस नहीं होता, और उनके पश्चात्ताप करने की कोई संभावना नहीं होती। आम भ्रष्ट लोग प्रसिद्धि, फायदे और रुतबे के लिए बोलते और काम करते हैं, पर वे सत्य स्वीकार कर आत्मचिंतन कर सकते हैं। गलत मार्ग पर चलने के बाद वे अपने प्रति जागरूक हो सकते हैं और पश्चात्ताप दिखा सकते हैं। यह वैसा ही है, जैसा परमेश्वर कहता है : “चाहे वे कोई भी हों, चाहे उन्होंने कितनी भी बुराई की हो या उनकी गलतियाँ कितनी भी गंभीर हों, कोई व्यक्ति मसीह-विरोधी है या वह मसीह-विरोधी का स्वभाव रखता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या वह सत्य को और काटे-छाँटे जाने को स्वीकारने में सक्षम है, और क्या उसमें सच्चा पछतावा है। अगर वह सत्य को और काटे-छाँटे जाने को स्वीकार सकता है, अगर उसमें सच्चा पछतावा है, और अगर वह अपना पूरा जीवन परमेश्वर के लिए मेहनत करने में बिताने के लिए तैयार है, तो यह वास्तव में थोड़ा पश्चात्ताप दर्शाता है। ऐसे व्यक्ति को मसीह-विरोधी नहीं कहा जा सकता” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। मैं अपने दिल में जान चुका था कि झांग पिंग मसीह-विरोधी नहीं है और मैं दुविधा में रहकर आँख मूँदकर ली हुआन की बातों में नहीं आ सकती।
मैंने सत्य की खोज जारी रखी। ऐसा क्यों था कि जब ली हुआन ने और मैंने चीजें अलग तरह से देखीं, तो मैंने सिद्धांत क्यों नहीं खोजे और बस आँख मूँदकर उसका साथ देती रही? इस समस्या की जड़ क्या थी? मुझे याद आया कि परमेश्वर कहता है : “तुम मसीह की विनम्रता की प्रशंसा नहीं करते, बल्कि ऊँचे रुतबे वाले झूठे चरवाहों की प्रशंसा करते हो। तुम मसीह की मनोहरता या बुद्धि से प्रेम नहीं करते, बल्कि उन व्यभिचारियों से प्रेम करते हो, जो संसार के कीचड़ में लोटते हैं। तुम मसीह की पीड़ा पर हँसते हो, जिसके पास अपना सिर टिकाने तक की जगह नहीं है, लेकिन उन मुरदों की तारीफ करते हो, जो चढ़ावे हड़प लेते हैं और ऐयाशी में जीते हैं। तुम मसीह के साथ कष्ट सहने को तैयार नहीं हो, बल्कि खुद को खुशी-खुशी उन मनमाने मसीह-विरोधियों की बाँहों में सौंप देते हो, जबकि वे तुम्हें सिर्फ देह, शब्द और नियंत्रण ही प्रदान करते हैं। अब भी तुम्हारा हृदय उनकी ओर, उनकी प्रतिष्ठा, उनके रुतबे, उनके प्रभाव की ओर ही मुड़ता है। अभी भी तुम्हारा यही रवैया है कि मसीह का कार्य स्वीकारना कठिन है और तुम इसे स्वीकारने के लिए तैयार नहीं रहते। इसीलिए मैं कहता हूँ कि तुममें मसीह को स्वीकार करने की आस्था की कमी है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, क्या तुम परमेश्वर के सच्चे विश्वासी हो?)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैंने जाना कि मैं एक इंसान की पूजा और अनुसरण इसलिए कर रही थी, क्योंकि मैं अपनी आस्था में मसीह का उतना सम्मान नहीं करती थी, बल्कि मैं रुतबे और सत्ता को पूजती थी। ली हुआन बड़ी अगुआ थी और काम की देखरेख करते हुए उसने कुछ अच्छे हल निकाले थे, तो मुझे लगा वह सत्य जानती है और उसमें विवेक है, इसलिए मैंने उसके बारे में ऊंचा सोचा और उसकी प्रशंसा की। यही कारण था कि जब हम साथी थीं, तो मेरे अपने विचार या राय नहीं थी। वह जो कहती मैं वही करती थी, उसके शब्दों को सत्य मानती थी। झांग पिंग और उसके परिवार को निष्कासित करने जैसे अहम मामले में भी मैंने बिना आँख मूँदकर ली हुआन का अनुसरण किया। इससे उस परिवार की कलीसिया में वापसी और उनके जीवन प्रवेश में देरी हो गई। परमेश्वर हर एक इंसान के जीवन को संजोता है। झूठे अगुआओं के दबाव में रहने वाले लंबे समय तक कलीसिया का जीवन नहीं जी पाते। वे अंधकार में जीते हैं और असहाय और पीड़ित रहते हैं। मगर मैंने परमेश्वर के इरादों का ध्यान नहीं रखा; दूसरों के जीवन की जिम्मेदारी नहीं उठाई। झांग पिंग के परिवार के मामले में मैं हमेशा आगे-पीछे डोलती रही और ली हुआन की बात सुनती रही। मैं बहुत भ्रमित थी! उस आध्यात्मिक अंधकार और पीड़ा के बिना मेरी आँखें कभी नहीं खुलतीं; मैं गलत काम करती रहती। मैंने पश्चात्ताप में परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर! मैं एक इंसान को पूजकर उसका अनुसरण नहीं करना चाहती। मैं तुम्हें महान मानना चाहती हूँ, और सत्य सिद्धांतों के अनुसार काम करना चाहती हूँ।” बाद में मैंने ली हुआन के साथ अपनी राय साझा की, तो उसने बेरुखी से कहा, “बाद में बात करते हैं।” फिर उसने विषय बदल दिया। मैंने देखा कि वह अभी भी अपनी सोच पर अड़ी हुई थी, उसे दूसरों के जीवन की कोई परवाह नहीं थी। मुझे बहुत गुस्सा आया। मैंने संकल्प लिया कि चाहे जो हो जाए, मैं झांग पिंग के परिवार के के बारे में अगुआ को बता कर रहूँगी। कुछ दिनों बाद जब अगुआ कुछ काम पूरा करने आई और यह खुलासा किया कि ली हुआन सफाई के काम में निरंकुश थी। उसने सिद्धांतों का पालन न करते हुए मनमाने ढंग से लोगों पर ठप्पा लगाया और कलीसिया के कार्य में गंभीर रुकावट डाली। इसलिए अगुआ ने ली हुआन को बर्खास्त कर दिया। असल में झांग पिंग के मामले में, ली हुआन अच्छे से जानती थी कि वह गलत थी, पर मानना नहीं चाहती थी। उसने झांग पिंग में दोष ढूंढ़ने के लिए जानकारी जुटाने हेतु खुद लोगों की व्यवस्था की। वह झांग पिंग और उसके परिवार को मसीह-विरोधी बताकर निष्कासित करवाने पर डटी थी। मुझे बहुत गुस्सा आया। उसने अपना रुतबा बचाने के लिए भाई-बहनों के जीवन की परवाह नहीं की। वह बेहद शातिर थी। ली हुआन के साथ बिताए वक्त को याद करूं, तो वह हमेशा अपनी कड़ी मेहनत के बारे में बताती थी, इसलिए मुझे लगा कि वह सत्य खोजने वाली इंसान है। मैंने उसकी मंशाओं का और उसके कर्मों के सार का विश्लेषण करने के लिए सत्य का उपयोग नहीं किया। वास्तव में अनुभव साझा करने का मतलब है इस बारे में बातें करना कि परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के माध्यम से तुमने अपने बारे में क्या जाना, तुमने क्या सत्य सीखे और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए कैसे सत्य का अभ्यास किया। मगर ली हुआन वास्तविक समझ पर बात नहीं कर पाती थी। उसने जिन मुश्किल घड़ियों की बात की, वह खुद को ऊंचा उठाने, खुद की गवाही देने और प्रशंसा पाने के लिए थी। वह एक मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रही थी। इस समय मैं ली हुआन को थोड़ा-बहुत समझ गई, तो मुझे खुद से और नफरत हुई। बरसों विश्वासी रहने के बाद भी, मैंने परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को नहीं देखा। बस लोगों की खूबियाँ और काबिलियत देखी, रुतबे और सत्ता की प्रशंसा की। बुराई करने, गलत तरीके से लोगों को निकालने, और अपूरणीय क्षति पहुँचाने में मैंने लगभग ली हुआन का साथ दिया था। मैं बहुत नासमझ और बेवकूफ थी! इस विचार से मुझे डर लगने लगा।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “जब कोई व्यक्ति भाई-बहनों द्वारा अगुआ के रूप में चुना जाता है या परमेश्वर के घर द्वारा कोई निश्चित कार्य करने या कोई निश्चित कर्तव्य निभाने के लिए उन्नत किया जाता है, तो इसका यह मतलब नहीं कि उसका कोई विशेष रुतबा या पद है या वह जिन सत्यों को समझता है, वे अन्य लोगों की तुलना में अधिक गहरे और संख्या में अधिक हैं—तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि यह व्यक्ति परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम है और उसे धोखा नहीं देगा। निश्चय ही, इसका यह मतलब भी नहीं है कि ऐसे लोग परमेश्वर को जानते हैं और परमेश्वर का भय मानते हैं। वास्तव में उन्होंने इसमें से कुछ भी हासिल नहीं किया है। पदोन्नयन और संवर्धन सीधे मायने में केवल पदोन्नयन और संवर्धन ही है, और यह भाग्य में लिखे होने या परमेश्वर की अभिस्वीकृति पाने के समतुल्य नहीं है। उनकी उन्नति और विकास का सीधा-सा अर्थ है कि उन्हें उन्नत किया गया है, और वे विकसित किए जाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। और इस विकसित किए जाने का अंतिम परिणाम इस बात पर निर्भर करता है कि क्या यह व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है और क्या वह सत्य के अनुसरण का रास्ता चुनने में सक्षम है। इस प्रकार, जब कलीसिया में किसी को अगुआ बनने के लिए उन्नत और विकसित किया जाता है, तो उसे सीधे अर्थ में उन्नत और विकसित किया जाता है; इसका यह मतलब नहीं कि वह पहले से ही मानक अगुआ है, या सक्षम अगुआ है, कि वह पहले से ही अगुआ का काम करने में सक्षम है, और वास्तविक कार्य कर सकता है—ऐसा नहीं है। ज्यादातर लोगों को इन चीजों को स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते, और अपनी कल्पनाओं के आधार पर वे इन पदोन्नत लोगों का सम्मान करते हैं, पर यह एक भूल है। जिन्हें उन्नत किया जाता है, उन्होंने चाहे कितने ही वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा हो, क्या उनके पास वास्तव में सत्य वास्तविकता होती है? ऐसा जरूरी नहीं है। क्या वे परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाएँ लागू करने में सक्षम हैं? अनिवार्य रूप से नहीं। क्या उनमें जिम्मेदारी की भावना है? क्या वे निष्ठावान हैं? क्या वे समर्पण करने में सक्षम हैं? जब उनके सामने कोई समस्या आती है, तो क्या वे सत्य की खोज करने योग्य हैं? यह सब अज्ञात है। क्या इन लोगों के अंदर परमेश्वर का भय मानने वाले हृदय हैं? और परमेश्वर का भय मानने वाले उनके हृदय कितने विशाल हैं? क्या काम करते समय वे अपनी इच्छा का पालन करना टाल पाते हैं? क्या वे परमेश्वर की खोज करने में समर्थ हैं? अगुआ का कार्य करने के दौरान क्या वे अक्सर परमेश्वर के इरादों की तलाश में परमेश्वर के सामने आने में सक्षम हैं? क्या वे लोगों के सत्य वास्तविकता में प्रवेश की अगुआई करने में सक्षम हैं? निश्चय ही वे ऐसी चीजें कर पाने में अक्षम होते हैं। उन्हें प्रशिक्षण नहीं मिला है और उनके पास पर्याप्त अनुभव भी नहीं है, इसलिए वे ये चीजें नहीं कर पाते। इसीलिए, किसी को उन्नत और विकसित करने का यह मतलब नहीं कि वह पहले से ही सत्य को समझता है, और न ही इसका अर्थ यह है कि वह पहले से ही अपना कर्तव्य एक मानक तरीके से करने में सक्षम है। ... मेरे यह कहने का क्या मतलब है? सभी को यह बताया जाना है कि उन्हें परमेश्वर के घर में विभिन्न प्रकार के प्रतिभाशाली लोगों को बढ़ावा दिए जाने और विकसित किए जाने को सही तरह से लेना चाहिए, और इन लोगों से अपनी अपेक्षाओं में उन्हें कठोर नहीं होना चाहिए, और निश्चय ही उन्हें इन लोगों के बारे में अपनी राय बनाने में अयथार्थवादी भी नहीं होना चाहिए। उनकी अत्यधिक सराहना करना या सम्मान देना मूर्खता है, तो उनके प्रति अपनी अपेक्षाओं में अत्यधिक कठोर होना भी अमानवीय और यथार्थ से परे होना है। तो उनके साथ व्यवहार का सबसे उचित तरीका क्या है? उन्हें सामान्य लोगों की तरह ही समझना, और जब तुम्हें किसी समस्या के संदर्भ में किसी को तलाशने की आवश्यकता हो, तो उनके साथ संगति करना और एक-दूसरे के मजबूत पक्षों से सीखना और एक-दूसरे का पूरक होना” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (5))। परमेश्वर के वचन बहुत स्पष्ट हैं। किसी के अगुआ या कार्यकर्ता चुने जाने का यह मतलब नहीं कि वह सत्य समझता है और अपना कर्तव्य अच्छे से निभा सकता है। उनके भी भ्रष्ट स्वभाव होते हैं। वे अपनी सनक और अनुभवों के अनुसार काम कर सकते हैं और ऐसी चीजें कर सकते हैं जिनसे सिद्धांतों का उल्लंघन होता हो। हमें बिना सोचे किसी का अनुसरण न करके, सत्य सिद्धांतों के अनुसार लोगों को परखना चाहिए। सबसे बड़ी बात, भले ही सत्य पर अगुआ की संगति रोशनी देने वाली हो, पर यह पवित्र आत्मा का प्रबोधन और मार्गदर्शन होता है और इसे परमेश्वर से स्वीकार करना चाहिए। हमें आँखें मूँदे अगुआओं की पूजा और अनुसरण नहीं करना चाहिए। अगर किसी अगुआ या कार्यकर्ता के काम में गलतियाँ या भूल-चूक होती हैं, या अगर वह किसी सत्य सिद्धांत का उल्लंघन करता है, तो मामले को ठीक से संभालना चाहिए। प्यार से उसकी गलतियां बताकर मदद की जानी चाहिए, ताकि वह खुद को बदलकर सिद्धांत के अनुसार काम करे। मगर मैं रुतबे और सत्ता की पूजा करती थी, तो गलत ढंग से यह समझ बैठी कि उच्च अगुआ होने के नाते ली हुआन हमसे बेहतर सत्य समझती होगी। मेरी सोच कितनी विकृत थी! हालाँकि वह बरसों से अगुआ थी और उसे काम का थोड़ा अनुभव था, और वह कुछ सिद्धांत बोल और समस्याएं हल कर सकती थी, इसका मतलब यह नहीं कि वह सत्य समझती थी। उसकी संगति और समझ अक्सर उच्च लगती थी, वो कहती कि कोई बात न समझने पर हमें अपने विचारों पर अड़े रहने के बजाय सत्य सिद्धांत खोजने चाहिए। मगर समस्या का सामना होते ही, वह हमेशा मनमर्जी चलाती थी। वह दूसरों की सलाह नहीं मानती थी और उसके पास खोजी हृदय नहीं था। वह बिना किसी वास्तविकता के बस सिद्धांत की बातें करती थी। उसे अपनी अहंकारी, शैतानी प्रकृति की कोई समझ नहीं थी, उसने आत्मचिंतन भी नहीं किया, वह अपना रुतबा बनाए रखने के लिए यूं ही लोगों को निष्कासित करती थी। ली हुआन को इस सबके प्रकाश में देखने पर, यह स्पष्ट था कि वह झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों जैसी ही थी।
इसके बाद झांग पिंग और उसके परिवार को कलीसिया में वापस बुला लिया गया। यह सोचकर कि कैसे करीब दो महीनों से वे लोग कलीसिया का जीवन नहीं जी पाए और उन्होंने कितनी आध्यात्मिक पीड़ा सही, मुझे इतना बुरा लगा कि बता नहीं सकती। सत्य न खोजने और सिर्फ एक इंसान की बातें सुनने पर मुझे खुद से नफरत हो गई। अगर मैंने सत्य सिद्धांत खोजकर फौरन उन्हें कलीसिया में बुला लिया होता, तो उनके जीवन प्रवेश में देरी नहीं हुई होती। तब मुझे एहसास हुआ कि बिना सोचे-समझे किसी की पूजा करने से उनके साथ बुराई और परमेश्वर का विरोध करना बहुत आसान हो जाता है। मुझे इससे भी नफरत हुई कि मैं कितनी भ्रमित और अंधी थी, मैंने इतने बड़े कुकर्म में किसी का साथ दिया। बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : “परमेश्वर में आस्था की व्याख्या का सबसे सरल तरीका है इस भरोसे का होना कि एक परमेश्वर है, और इस आधार पर, उसका अनुसरण करना, उसके प्रति समर्पण करना, उसकी संप्रभुता, आयोजनों और व्यवस्थाओं को स्वीकारना, उसके वचनों पर ध्यान देना, उसके वचनों के अनुसार जीवन जीना, हर चीज को उसके वचनों के अनुसार करना, एक सच्चा सृजित प्राणी बनना, और परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना; केवल यही परमेश्वर में सच्ची आस्था होना है। परमेश्वर के अनुसरण का यही अर्थ होता है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, धर्म में आस्था रखने या धार्मिक समारोह में शामिल होने मात्र से किसी को नहीं बचाया जा सकता)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि हमें कम से कम परमेश्वर का भय मानना, उसे महान मानकर सम्मान देना, और समस्याएँ होने पर सत्य सिद्धांत खोजना वह न्यूनतम चीज है, जो हमें परमेश्वर में अपने विश्वास में करनी ही चाहिए। चाहे व्यक्ति कोई भी हो, अगर उसकी बातें सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हैं, तो तुम्हें उसका अनुसरण करना चाहिए, और मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं से उपजी हर बात दृढ़ता से नकार देनी चाहिए। सब-कुछ परमेश्वर के वचनों के अनुसार किया जाना चाहिए। यही सच्ची आस्था और परमेश्वर का सच्चा अनुसरण है। परमेश्वर का धन्यवाद! परमेश्वर के अनुसरण का मार्ग मुझे साफ दिखने लगा।
एक दिन जब मैं कलीसिया अगुआ, बहन मिंगयी के साथ लोगों की ट्रेनिंग पर चर्चा कर रही थी, तो उन्होंने बताया कि बहन झाओ शंजेन चीजें आने पर खुद को जानने में सक्षम है, और सत्य पर उसकी सहभागिता व्यावहारिक है, इसलिए उसे सिंचन-कार्य की सुपरवाइजर के तौर पर विकसित किया जा सकता है। मगर जब मैं शंजेन से मिली, तो मुझे पता चला कि उसमें काबिलियत की कमी थी और वह सत्य अच्छे से नहीं समझती थी। वह अपने कर्तव्य में बहुत निष्क्रिय थी और उसे कई महीनों तक लगातार अच्छे परिणाम नहीं मिले थे। वह अच्छी उम्मीदवार नहीं थी। मगर चूँकि मिंगयी ने उसकी सिफारिश की थी, तो मुझे लगा मैं ही चीजों को समझ नहीं रही। मिंगयी बरसों से कलीसिया अगुआ रही है, तो उसे मुझसे बेहतर परख होगी। मैंने तय किया कि मुझे अगुआ की बात माननी चाहिए। मगर ऐसा सोचकर मैं दोषी महसूस करने लगी। मुझे एहसास हुआ मेरा ध्यान मिंगयी के रुतबे और अगुआ के तौर पर इतने बरसों के काम पर था। क्या मैं फिर से रुतबे और सत्ता को नहीं पूज रही थी और एक इंसान का अनुसरण नहीं कर रही थी। मैंने झांग पिंग और उसके परिवार के मामले को याद किया। सिद्धांतों को कायम न रखकर सत्ता की पूजा करने के परिणाम से मुझे बड़ी तकलीफ हुई थी। मेरा फिर से उसी तरह के हालात से सामना होने के पीछे परमेश्वर का इरादा था। अगर अब भी मैं सिद्धांतों को कायम न रखकर एक अनुपयुक्त उम्मीवार को सुपरवाइजर के रूप में तरक्की देने में मदद करती, तो इससे भाई-बहनों का जीवन-प्रवेश रुक जाता। मिंगयी अगुआ थी, मगर इसका मतलब यह नहीं कि वह सत्य जानती थी या लोगों को अच्छे से समझती थी। मुझे बस उसकी सलाह पर विचार करना था। देखना था कि शंजेन का सिद्धांतों के अनुसार पोषण किया जाना चाहिए या नहीं। बाद में, मैंने शंजेन के बारे में मूल्यांकन इकट्ठे किए, जिससे साफ हो गया कि उसमें काबिलियत की कमी है और वह वास्तविक कार्य नहीं करती, तो वह अच्छी उम्मीदवार नहीं थी। मैंने अपने विचार मिंगयी को बताए और उसने मुझसे सहमत जताई। मैं जान गई थी कि शांति पाने का एकमात्र तरीका सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना है, न कि आँख बंद करके किसी की बात मानना।
झांग पिंग और उसके परिवार के साथ हुई घटना मेरे दिल पर खुद गई है। कभी न भूलने वाली इस सीख से मैं अपनी आस्था में किसी इंसान की प्रशंसा और अनुसरण करने के परिणामों को देख पाई। मैंने यह भी अनुभव किया कि सत्य खोजना और सत्य के अनुसार काम करना ही परमेश्वर का अनुसरण करने और उसकी स्वीकृति पाने का एकमात्र रास्ता है।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?