मुझे गलतियाँ करने से डर क्यों लगता है?
कलीसिया के लिए आर्ट डिजाइन का काम करते हुए, शुरुआत में मुझे कुछ मुश्किलें हुईं लेकिन परमेश्वर पर भरोसा करने और भाई-बहनों के सहयोग से मेरा प्रदर्शन सुधर गया। बाद में मुझे बताया गया कि बहन लीसा का तबादला कर दिया गया है क्योंकि उसके डिजाइन बहुत गड़बड़ होते थे और अक्सर दोबारा बनाने पड़ते थे। भाई-बहनों द्वारा बार-बार बताने, संगति करने और सहारा देने के बावजूद इनमें सुधार नहीं हुआ, जिससे कलीसिया के काम पर बहुत बुरा असर पड़ा। लीसा के तबादले के बाद मैंने खुद से कहा कि अपने काम में अधिक सजग रहने और गलतियों से बचने की जरूरत है। अगर ढेर सारी गलतियाँ करके अयोग्य साबित हो गई तो मेरे तबादले में भी देर नहीं लगेगी। कलीसिया में मैंने हमेशा डिजाइनर का काम किया, मुझमें कोई दूसरा हुनर नहीं था—अगर मेरा तबादला हुआ और दूसरे काम भी नहीं कर पाई तो क्या मुझे तब भी बचाया जा सकता है? उसके बाद, मैं अपने हर डिजाइन के तीन-चार प्रारूप देने लगी, लेकिन हर प्रारूप बहुत साधारण और बेकार होता था। देखा जाए तो दो प्रारूप काफी होते हैं, लेकिन मैं होशियारी दिखा रही थी, सोचा कि अगर कई प्रारूप दिए तो वे किसी एक को तो स्वीकार करेंगे ही। नतीजतन, मैं जितनी सजग होती गई, मेरे डिजाइनों में उतनी ही गलतियाँ बढ़ गईं। टीम अगुआ ने याद दिलाया कि मुझे अपने काम के प्रति अधिक गंभीर और मेहनती होना चाहिए, हर डिजाइन को अच्छा बनाने के लिए समय देना चाहिए, न कि आधे-अधूरे मन से बना कर छोड़ना चाहिए। जब अगुआ ने यह कहा, तब मैंने न तो समस्याओं पर चिंतन किया, न ही काम की कमियों पर नजर डाली, मुझे बस यह चिंता थी कि अगुआ इस काम के लिए नालायक समझकर मेरा तबादला न कर दे। फिर अपने डिजाइन में गलतियाँ करने से मैं और ज्यादा डरने लगी। कभी-कभी दूसरे भाई-बहनों के सुझावों से सहमत न होने पर भी बेहतर काम करने के लिए उनसे चर्चा करना चाहती लेकिन मुझे लगता था कि अगर ज्यादा मुँह खोला तो लोग सोचेंगे कि मैं बेपरवाह हूँ इसलिए संशोधन नहीं करना चाहती। एक बार बुरी छवि बन गई तो मेरा तबादला पक्का है। मुझे लगा कि ज्यादा सजग होना पड़ेगा ताकि सब देखें कि मैं सुझाव लेती हूँ, होशियार और जिम्मेदार भी हूँ। इसलिए अपना मुँह बंद ही रखती थी। उन दिनों, तबादले को लेकर जितना परेशान होती, उतनी ही ज्यादा गलतियाँ करने लगी। एक डिजाइन कई बार लौटाए जाने से हमारे काम में काफी देरी हुई थी। मैं हफ्ते में जितना काम करती थी, अब उसका चौथाई भर कर पा रही थी। मेरे काम में इतनी गिरावट देखकर टीम के अगुआ ने मुझे निपटाते हुए कहा : “आजकल तुम्हारे डिजाइन कुछ खास नहीं बन रहे हैं, हमेशा वापस भेजे जा रहे हैं और तुम्हारी क्षमता घट गई—तुम्हारा काम पर ध्यान है भी या नहीं? समस्या क्या है? इस पर चिंतन किया?” अगुआ से आलोचना सुनकर मुझे धक्का लगा। मेरे कारण काम की प्रगति कम हो रही है और मेरे असली रंग सबके सामने आ रहे हैं। इतनी समस्याओं को देखते हुए लगने लगा कि मेरा तबादला तो तय है। मैं हताश हो गई और काम का उत्साह खो बैठी। बस उस दिन का इंतजार करने लगी जब अगुआ आकर कहेंगे कि मेरा तबादला कर दिया गया है।
मैंने परमेश्वर की शरण में जाकर प्रार्थना और सत्य की खोज की : मैं हमेशा गलतियाँ करने और तबादले को लेकर परेशान क्यों रहती हूँ? एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों के ये अंश पढ़े। “मसीह-विरोधी आशीष पाने को स्वर्ग से भी अधिक धन्य, जीवन से भी बड़ा, सत्य के अनुसरण, स्वभावगत परिवर्तन या व्यक्तिगत उद्धार से भी अधिक महत्वपूर्ण, और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने और मानक के अनुरूप सृजित प्राणी होने से अधिक महत्वपूर्ण मानता है। वह सोचता है कि मानक के अनुरूप एक सृजित प्राणी होना, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना और बचाया जाना सब तुच्छ चीजें हैं, जो शायद ही उल्लेखनीय हैं, जबकि आशीष प्राप्त करना उनके पूरे जीवन में एकमात्र ऐसी चीज होती है, जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकता। उनके सामने चाहे जो भी आए, चाहे वह कितना भी बड़ा या छोटा क्यों न हो, वे इसे परमेश्वर द्वारा आशीष पाने से जोड़ते हैं और अत्यधिक सतर्क और चौकस होते हैं, और वे हमेशा अपने बच निकलने का रास्ता रखते हैं। इसलिए जब उनका कार्य समायोजित किया जाता है, अगर यह पदोन्नति हो, तो मसीह-विरोधी सोचेगा कि उन्हें धन्य होने की आशा है। अगर यह पदावनति हो, टीम-अगुआ से सहायक टीम-अगुआ के रूप में, या सहायक टीम-अगुआ से नियमित समूह-सदस्य के रूप में, या अगर उनके पास बिलकुल भी कोई काम नहीं है, तो उन्हें लगता है कि यह एक बड़ी समस्या है और उन्हें आशीष पाने की अपनी आशा दुर्बल लगती है। यह किस प्रकार का दृष्टिकोण है? क्या यह उचित दृष्टिकोण है? बिलकुल नहीं। यह दृष्टिकोण बेतुका है। कोई व्यक्ति परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करता है या नहीं, यह इस बात पर आधारित नहीं है कि वह क्या काम करता है, बल्कि इस बात पर निर्भर करता है कि क्या उसमें सत्य है, क्या वह वास्तव में परमेश्वर का आज्ञापालन करता है, क्या वह निष्ठावान है। ये बातें बेहद महत्वपूर्ण हैं। परमेश्वर द्वारा इंसान के उद्धार के दौरान, लोगों को कई परीक्षणों से गुजरना होता है। विशेष रूप से अपने कर्तव्य निर्वहन में, उन्हें अनेक असफलताएँ और आघात सहने पड़ते हैं, लेकिन अंतत:, यदि वे सत्य समझते हैं और परमेश्वर के प्रति सच्ची आज्ञाकारिता रखते हैं, तो उन्हें परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त हो जाती है। कार्य-संबंधी स्थानांतरण के मामले में यह देखा जा सकता है कि मसीह-विरोधी सत्य नहीं समझते, उनमें सत्य प्राप्त करने की योग्यता बिल्कुल नहीं होती” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद बारह : जब कोई पद या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं)। “अपने काम में बदलाव के प्रति मसीह-विरोधी की प्रवृत्ति और दृष्टिकोण को देखा जाए तो, उनकी समस्या कहाँ है? क्या यहाँ समस्या बड़ी है? (हाँ।) उनकी सबसे बड़ी गलती यह है कि उन्हें काम में बदलाव को आशीष प्राप्त करने से नहीं जोड़ना चाहिए; उन्हें यह हरकत बिल्कुल नहीं करनी चाहिए। वास्तव में, दोनों के बीच कोई संबंध नहीं है, लेकिन चूँकि मसीह-विरोधी का हृदय आशीषित होने की इच्छाओं से भरा होता है, इसलिए वे कोई भी काम क्यों न करें, वे इसे इस बात से जोड़ ही देते हैं कि वे आशीषित होंगे या नहीं। इस तरह, वे अपना काम ठीक से नहीं कर पाते, इसलिए उन्हें उजागर करके निकाल दिया जाता है; यह उनकी अपनी गलती है, वे खुद ही इस हताशा के रास्ते पर चल पड़े हैं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद बारह : जब कोई पद या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं)। परमेश्वर के वचनों से उजागर हुआ कि कैसे मसीह-विरोधियों में एक खास दुष्ट स्वभाव और सत्य की बेतुकी समझ होती है। वे तबादले जैसी साधारण बात को भी कुछ पाने या खोने की नजर से देखते हैं, चिंता करते हैं कि अगर उनका तबादला या निष्कासन किया गया तो वे अपनी अंतिम मंजिल खो बैठेंगे। ऐसे में भविष्य की सुरक्षा के लिए जो बन पड़े, वे सब करते हैं। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मैंने आत्म-चिंतन किया। मेरा बर्ताव भी एक मसीह-विरोधी जैसा ही था। मैं अपने काम को आशीष पाने की नजर से देखती थी, यह सोचकर परेशान होती थी कि अगर तबादला हो गया तो मेरा उद्धार नहीं होगा। जब सुना कि लीसा का तबादला कर दिया गया है, तो मुझे भी अपने तबादले की चिंता होने लगी। अपने काम को अपना रक्षा कवच मानती थी, सोचती थी कि अगर इसे खो बैठी तो मेरा उद्धार नहीं होगा। उसके बाद मैं जोड़-तोड़ करने लगी, हर डिजाइन के कई प्रारूप देने लगी ताकि सभी खारिज न कर दिए जाएँ। लेकिन डिजाइन सुधारने पर मेरा ध्यान नहीं रहा, लिहाजा, काम में और ज्यादा समस्याएँ पैदा होने लगीं, मेरे स्वीकृत डिजाइन की संख्या औंधे मुँह जा गिरी। भाई-बहनों के साथ बातचीत में मैं कम बोलने लगी, यह सोचकर अपने विचार व्यक्त नहीं करती थी कि उन्हें लगेगा कि मैं उनके सुझाव स्वीकार नहीं कर रही हूँ, वे मुझे खराब रेटिंग देंगे जिस वजह से मेरा तबादला कर दिया जाएगा। भाई-बहनों से दूरी बना कर एक नकली मुखौटा पहन लिया। क्योंकि मैं आशीष पाने के लिए हमेशा परेशान रहती थी, इसलिए न तो अपने काम पर ध्यान दे पाई, न ही अपनी समस्याओं को देख कर सत्य और सिद्धांतों की खोज कर पाई। नतीजतन, मैं गलतियाँ करती चली गई, नाकारा हो गयी, जिससे काम बाधित होने लगा। मेरी हताशा भी बढ़ती गई। टीम अगुआ द्वारा निपटने और काट-छाँट किए जाने के बाद भी मैंने आत्म-चिंतन नहीं किया, बल्कि और भी नकारात्मक और ढीठ बन गई। मैंने सोचा : “अब तो सब खत्म हो गया—टीम के अगुआ को लगता है कि मैं काम में कुशल नहीं हूँ और हमेशा गलतियाँ करती हूँ। मेरा तबादला होकर रहेगा।” मैं नकारात्मक और हताश होकर टूट गई और काम के प्रति भी कोई उत्साह नहीं बचा। परमेश्वर की कृपा से मुझे काम करने का अवसर मिला था ताकि सत्य को खोजकर और सिद्धांतों के अनुरूप काम करके उससे उद्धार पाने में सफल हो सकूँ। लेकिन मैं सही राह पर नहीं चली—मैंने सत्य को खोजने और सिद्धांतों का पालन करने को महत्व नहीं दिया। जब भी समस्या आती, बस तबादले की चिंता करती या इसकी कि आशीष पाने का अवसर गँवा दूँगी। मैंने अपने काम को आशीष पाने की सीढ़ी समझा : सोचा कि जब तक अपने काम में कोई गलतियाँ नहीं करती और तबादला नहीं होता, तब तक मैं बेशक उद्धार पा सकती हूँ और परमेश्वर का काम पूरा होने पर स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकती हूँ। मैंने देखा कि मैं अपना काम आशीष पाने के लिए ही करती थी। अपने कर्तव्य को “जीवन संरक्षक” के रूप में मानकर मैं परमेश्वर का इस्तेमाल करके उसे धोखा दे रही थी। इन कारणों से मैं परमेश्वर की घृणा और नफरत की पात्र बन गई। मुझे अपराध बोध हुआ और अफसोस भी, इसलिए पश्चात्ताप के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की।
बाद में मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े। “अच्छा बताओ, अगर कोई गलती करने वाला व्यक्ति सच्ची समझ हासिल कर पश्चात्ताप करने को तैयार हो, तो क्या परमेश्वर का घर उसे अवसर नहीं देगा? जैसे-जैसे परमेश्वर की छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन योजना समापन की ओर बढ़ रही है, ऐसे बहुत-से कार्य हैं जिन्हें पूरा करना है। लेकिन अगर लोगों में अंतरात्मा और विवेक न हो तथा वे अपने काम में लापरवाही बरतते हैं, अगर उन्हें कार्य करने का अवसर मिलता है, लेकिन वे उसे संजोकर रखना नहीं जानते, सत्य का जरा भी अनुसरण नहीं करते और सबसे अनुकूल समय हाथ से निकल जाने देते हैं, तो वे उजागर किए जाएँगे। अगर तुम अपने काम में लगातार लापरवाही बरतोगे, बेमन से काम करोगे, काट-छांट और निपटारे के समय जरा भी समर्पण-भाव नहीं रखोगे, तो क्या परमेश्वर का घर तब भी किसी कार्य के लिए तुम्हारा उपयोग करेगा? परमेश्वर के घर में सत्य का शासन चलता है, शैतान का नहीं। हर चीज में परमेश्वर की बात ही अंतिम होती है। वही इंसानों को बचाने का कार्य कर रहा है, वही सभी चीजों पर शासन करता है। क्या सही है और क्या गलत, इसमें तुम्हारे विश्लेषण की कोई जरूरत नहीं है; तुम्हारा काम सिर्फ सुनना और पालन करना भर है। जब तुम्हारी काट-छांट और निपटारा किया जाए, तो तुम्हें सत्य स्वीकार कर अपनी गलतियाँ सुधारनी चाहिए। अगर तुम ऐसा करोगे, तो परमेश्वर का घर तुमसे तुम्हारे कर्तव्य-निर्वहन का दर्जा नहीं छीनेगा। अगर तुम हमेशा त्याग दिए जाने से डरते रहोगे, बहानेबाजी करते रहोगे, खुद को सही ठहराते रहोगे, तो फिर समस्या पैदा होगी। अगर तुम लोगों को यह दिखाओगे कि तुम जरा भी सत्य नहीं स्वीकारते, और यह कि तर्क का तुम पर कोई असर नहीं होता, तो तुम मुसीबत में हो। कलीसिया तुम्हारे खिलाफ कार्रवाई करने को बाध्य हो जाएगी” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। “मसीह विरोधी इन बातों को दिल में दबाए रखते हैं, और खुद को चेताते हैं : ‘सावधानी सुरक्षा की माँ है; बाहर निकली कील सबसे ज्यादा ठोकी जाती है; और चोटी पर अकेलापन होता है।’ वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, न वे ये मानते हैं कि उसका स्वभाव धार्मिक और पवित्र है। वे इन सबको मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं से देखते हैं; और परमेश्वर के कार्य को मानवीय दृष्टिकोणों, मानवीय विचारों और मानवीय छल-कपट से देखते हैं, परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार को निरूपित करने के लिए शैतान के तर्क और सोच का उपयोग करते हैं। जाहिर है, मसीह-विरोधी न केवल परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार को स्वीकार नहीं करते या नहीं मानते, बल्कि परमेश्वर के प्रति धारणाओं, प्रतिरोध और विद्रोह से भरे होते हैं और उसके बारे में उनके पास लेशमात्र भी वास्तविक ज्ञान नहीं होता। परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर के स्वभाव और परमेश्वर के प्रेम की मसीह-विरोधियों की परिभाषा एक प्रश्नचिह्न है—संदिग्धता है, और वे उसके प्रति संदेह, इनकार और आलोचना से भरे होते हैं; तो फिर उसकी पहचान का क्या? परमेश्वर का स्वभाव उसकी पहचान दर्शाता है; परमेश्वर के स्वभाव के प्रति उनके जैसा रुख, परमेश्वर की पहचान के बारे में उनका नजरिया स्वत: स्पष्ट है—प्रत्यक्ष इनकार। यह मसीह-विरोधियों का सार है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुले आम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग छह))। परमेश्वर के वचन बताते हैं कि किस प्रकार मसीह-विरोधी न तो परमेश्वर के वचनों को सत्य मानते हैं, न कभी उसके वचनों की रोशनी में चीजों को देखते हैं। बल्कि, वे हर चीज को अपने छल-कपट और शैतानी तर्क के तराजू पर तौलते हैं। वे बिल्कुल दुष्ट स्वभाव के होते हैं। परमेश्वर के वचनों की रोशनी में खुद को रखा तो जाना कि मेरा नजरिया एक मसीह-विरोधी से अलग नहीं था। जब लीसा का तबादला हुआ, तब मैंने उस मामले को सत्य और सिद्धांतों के अनुसार नहीं देखा, बल्कि यह शैतानी विचार अपना लिया कि “सावधानी सुरक्षा की माँ है,” और सोचने लगी कि ज्यादा सावधान रहना और गलतियों से बचना ही बेहतर है। मैंने सोचा, अगर बहुत गलतियाँ करने पर मेरा तबादला कर दिया गया तो मैं पूरी तरह उजागर करके बहिष्कृत कर दी जाऊँगी। काम करते हुए, भाई-बहनों के साथ नियमित मुलाकातों में, अपने विचार व्यक्त करने से भी बचने लगी, अपने विचारों को रखना और संगति करना बंद कर दिया, यह चिंता करने लगी कि मैंने कुछ गलत बोल या कर दिया तो मेरा तबादला कर दिया जाएगा। अगुआ द्वारा मुझसे निपटे जाने और मेहनत से काम करने की याद दिलाए जाने के बाद मैं यह सोचकर सावधान हो गई कि निपटे जाने का मतलब है कि मेरा तबादला तय है, और मैं अपने उद्धार का अवसर खो बैठूँगी। यह एहसास हुआ कि मुझे आस्था का अभ्यास करते काफी समय हो चुका है और मैंने परमेश्वर के कई वचन भी पढ़े हैं, लेकिन न तो सत्य को खोजा है और न ही परमेश्वर के वचनों के अनुसार चीजों को देखा। इसके बजाय, मैंने परमेश्वर के कार्य को शैतानी तर्क और विश्वास से तोला है, यह सोचकर कि परमेश्वर भी अन्यायी और अधर्मी विश्व नेताओं की तरह है। अपने काम में मुझे लगा कि मेरे सिर पर तलवार लटक रही है, शायद उजागर और बहिष्कृत कर दी जाऊँगी और अगर कभी कुछ गलत कर या बोल दिया तो पश्चाताप का कोई अवसर नहीं बचेगा। ऐसे विश्वास के साथ मैं परमेश्वर की धार्मिकता को नकारते हुए उसकी निंदा कर रही थी! कलीसिया में परमेश्वर और सत्य का शासन चलता है। बहिष्कार और तबादला हमेशा सिद्धांतों के अनुसार किया जाता है। कलीसिया कभी किसी अकेली घटना के आधार पर निंदा करके लोगों को बहिष्कृत नहीं करती, बल्कि इसका आधार उस व्यक्ति का सत्य के प्रति रवैया, उसका संपूर्ण व्यवहार, उसकी प्रकृति और सार होता है। लीसा हमेशा आधे-अधूरे मन से काम करती थी जो कलीसिया के कार्यों के लिए हानिकारक था। भाई-बहनों ने उसके साथ सत्य पर संगति की, उसे सहारा दिया, उजागर करके उसे निपटा दिया, लेकिन उसे कोई पश्चात्ताप नहीं था और आखिरकार उसका तबादला कर दिया गया। उसके तबादले का मतलब उसे पूरी तरह बहिष्कृत करना नहीं था। अगर वह आत्म-चिंतन करे, सत्य को खोजे और दिल से पश्चात्ताप करके खुद को बदले तो उसके पास अब भी सत्य और परमेश्वर से उद्धार प्राप्त करने का अवसर होगा। लेकिन अगर उसने अब भी पश्चात्ताप नहीं किया और कई बार संगति और सहारा मिलने के साथ निपटे जाने के बाद भी सत्य को स्वीकार नहीं किया तो उसे पूरी तरह उजागर करके बहिष्कृत कर दिया जाएगा। मुझे याद आया कि नीनवे से परमेश्वर कैसे निपटा। जब परमेश्वर को नीनवे के लोगों की भ्रष्टता, बुराई और पाप का पता चला तो उसने चेतावनी देने के लिए जोनाह को भेजा और पश्चाताप के लिए चालीस दिन दिए। तब नीनवे के लोगों ने टाट पहनकर राख में बैठकर सच्चा पश्चाताप किया। उनकी निष्ठा देखकर परमेश्वर ने उनके पाप माफ कर दिए। इस किस्से से पता चलता है कि हर अपराध करने वाले को बहिष्कृत नहीं किया जाता—पश्चात्ताप और निष्ठा भी परमेश्वर देखता है। सत्य की खोज न करते हुए मैंने इस मामले को परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं देखा, इसकी बजाय सावधानी और नासमझी का रवैया अपना लिया। मैं परमेश्वर का विरोध कर उससे जूझ रही थी, अगर पश्चाताप न करती तो मुझे उजागर करके बहिष्कृत कर दिया जाता।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अन्य अंश पढ़कर उसकी इच्छाओं को बेहतर ढंग से समझा। परमेश्वर के वचन कहते हैं, “कुछ लोग अंततः कहेंगे, ‘मैंने तुम्हारे लिए इतना अधिक कार्य किया है, और मैंने कोई प्रशंसनीय उपलब्धियाँ भले प्राप्त न की हों, फिर भी मैंने पूरी मेहनत से अपने प्रयास किए हैं। क्या तुम मुझे जीवन के फल खाने के लिए बस स्वर्ग में प्रवेश करने नहीं दे सकते?’ तुम्हें जानना ही चाहिए कि मैं किस प्रकार के लोगों को चाहता हूँ; वे जो अशुद्ध हैं उन्हें राज्य में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है, वे जो अशुद्ध हैं उन्हें पवित्र भूमि को मैला करने की अनुमति नहीं है। तुमने भले ही बहुत कार्य किया हो, और कई सालों तक कार्य किया हो, किंतु अंत में यदि तुम अब भी बुरी तरह मैले हो, तो यह स्वर्ग की व्यवस्था के लिए असहनीय होगा कि तुम मेरे राज्य में प्रवेश करना चाहते हो! संसार की स्थापना से लेकर आज तक, मैंने अपने राज्य में उन्हें कभी आसान प्रवेश नहीं दिया जो मेरी चापलूसी करते हैं। यह स्वर्गिक नियम है, और कोई इसे तोड़ नहीं सकता है! तुम्हें जीवन की खोज करनी ही चाहिए। आज, जिन्हें पूर्ण बनाया जाएगा वे उसी प्रकार के हैं जैसा पतरस था : ये वे लोग हैं जो स्वयं अपने स्वभाव में परिवर्तनों की तलाश करते हैं, और जो परमेश्वर के लिए गवाही देने, और परमेश्वर के सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने के इच्छुक होते हैं। केवल ऐसे लोगों को ही पूर्ण बनाया जाएगा। यदि तुम केवल पुरस्कारों की प्रत्याशा करते हो, और स्वयं अपने जीवन स्वभाव को बदलने की कोशिश नहीं करते, तो तुम्हारे सारे प्रयास व्यर्थ होंगे—यह अटल सत्य है!” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। “मनुष्य द्वारा अपना कर्तव्य निभाना वास्तव में उस सबकी सिद्धि है, जो मनुष्य के भीतर अंतर्निहित है, अर्थात् जो मनुष्य के लिए संभव है। इसके बाद उसका कर्तव्य पूरा हो जाता है। मनुष्य की सेवा के दौरान उसके दोष उसके क्रमिक अनुभव और न्याय से गुज़रने की प्रक्रिया के माध्यम से धीरे-धीरे कम होते जाते हैं; वे मनुष्य के कर्तव्य में बाधा या विपरीत प्रभाव नहीं डालते। वे लोग, जो इस डर से सेवा करना बंद कर देते हैं या हार मानकर पीछे हट जाते हैं कि उनकी सेवा में कमियाँ हो सकती हैं, वे सबसे ज्यादा कायर होते हैं” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। परमेश्वर के वचनों पर चिंतन कर मैंने जाना कि परमेश्वर लोगों की अंतिम मंजिल तय करते हुए यह नहीं देखता कि वे क्या काम करते हैं, उन्होंने कितने कष्ट भोगे या कितनी दौलत कमाई, बल्कि यह देखता है कि क्या वे अपने काम के प्रति वफादार हैं, परमेश्वर को समर्पित हैं, उनके पास सत्य का अभ्यास करने की गवाही है और क्या उन्होंने अपना स्वभाव बदल लिया है। साथ ही, लोगों से उनके कार्य के प्रति, परमेश्वर वास्तविक अपेक्षाएं रखता है। वह नहीं कहता कि लोग पूर्णता प्राप्त कर लें और कभी गलतियाँ न करें, बल्कि वह चाहता है कि वे काम में अपना सारा हुनर दिखाएँ, आधे-अधूरे प्रयासों और धूर्तता से बचें। काम करने का यह तरीका परमेश्वर को संतुष्टि देता है। मैंने सोचा कि भले ही कुछ लोग कोई बड़ी गलती किए बिना, निपटाए बिना या काट-छाँट किए गए बिना हमेशा अपना काम करते हैं, लेकिन वे सत्य को नहीं खोजते, आधे-अधूरे प्रयास करते हैं और लापरवाही के कारण बहुत दूर तक नतीजे नहीं दे पाते। आखिर में ऐसे लोगों को उजागर और बहिष्कृत कर दिया जाता है और गंभीर मामलों में तो कलीसिया से निकाल भी दिया जाता है। लेकिन काम में कुछ भाई-बहन भ्रष्ट स्वभाव दिखाते हैं या सिद्धांत न समझ पाने के कारण उनके काम में गलतियाँ नजर आने लगती हैं, जिस कारण उनकी काट-छाँट और निपटान किया जाता है। फिर भी अगर वे आत्म-चिंतन करने, सत्य को खोजकर भ्रष्ट स्वभाव को दूर करने, गलतियों का आकलन करने, सत्य के सिद्धांतों को खोजने पर ध्यान केंद्रित करते हैं तो आखिरकार उनका प्रदर्शन सुधर जाता है और वे जीवन में प्रगति करते हैं। इन तथ्यों से पता चला कि कौन क्या काम करता है, उद्धार पाने से इसका कोई वास्ता नहीं है। सबसे महत्वपूर्ण है, अपने काम के दौरान सत्य को खोजना और उस पर अमल करने पर ध्यान देना ताकि सिद्धांतों पर चल सकें। यही एकमात्र सही रास्ता है। मैंने सोचा कि मैं कैसे दूर से तो काम करती दिखती थी लेकिन जब उजागर हुई, नाकामी हाथ लगी तो मैंने चिंता के सिवाय कुछ नहीं किया। अपनी समस्या हल करने के लिए कभी सत्य की खोज नहीं की। मैंने खुद को बेहद संकटपूर्ण स्थिति में पाया। उसके बाद मैं तुरंत परमेश्वर के समक्ष आकर सोचने लगी—काम में हमेशा गलती और सुस्ती का कारण क्या है और मैं अप्रभावी क्यों हूँ? आखिरकार मैंने जाना कि भाई-बहनों के साथ साझेदारी को मैं महत्व नहीं देती थी। अगर डिजाइन बनाने से पहले अपने विचार दूसरों को बताकर, सहमति लेकर सिद्धांतों के अनुसार डिजाइन बनाने की स्पष्ट दिशा तय कर लेती, तो स्पष्ट विचार मिल जाते। इस तरह काम लौटाए जाने और प्रगति में देरी को रोका जा सकता था। यही नहीं, काम के वर्तमान स्तर से संतुष्ट होकर मैंने सुधार करने का प्रयास नहीं किया। काम की समस्याओं का आकलन करने, सिद्धांतों को खोजने और आगे अध्ययन के क्षेत्रों को पहचानने पर ध्यान नहीं दिया। इसलिए कुछ समस्याएँ आती गईं और मेरे डिजाइन कार्य की गुणवत्ता और दक्षता घट गई। इस सब पर आत्म-चिंतन करते हुए आखिरकार मैंने महसूस किया कि मेरी कार्य पद्धति में कितनी ज्यादा दिक्कतें हैं। टीम अगुआ ने समस्याएँ बताकर मेरी मदद ही की थी ताकि इन्हें पहचानकर तुरंत दूर कर लूँ। लेकिन मैं ऐसा करने की बजाय अपने भाई-बहनों से ही खतरा भाँपने लगी। समस्याएँ पहचानने में तो असफल रही ही, नकारात्मक और ढीठ भी हो गई। मैं अपना विवेक खो चुकी थी! पश्चाताप और अपराध बोध होने पर मैंने जल्द से जल्द अपनी समस्याएँ दूर करने का प्रण किया।
उसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा। “यदि कोई खुले दिल का है, तो वह एक ईमानदार व्यक्ति है। इसका मतलब है कि उसने अपना दिल और आत्मा पूरी तरह से परमेश्वर के लिए खोल दिए हैं, उसके पास ऐसा कुछ नहीं है जिसे वह उससे छिपाए। उसने पूरी तरह से अपना दिल परमेश्वर को सौंप दिया है, उसे दिखा दिया है, यानी उसने अपना सर्वस्व उसे दे दिया है। क्या वह अब भी परमेश्वर से दूर रहेगा? नहीं, नहीं रहेगा। इस प्रकार उसके लिए परमेश्वर के प्रति समर्पण करना आसान हो जाता है। यदि परमेश्वर कहता है कि वह कपटी है, तो वह मान लेगा। यदि परमेश्वर कहता है कि वह अहंकारी और आत्मतुष्ट है, तो वह उसे भी स्वीकार लेगा। वह न केवल इन बातों को स्वीकार कर उन्हें दूर करेगा—बल्कि पश्चाताप करेगा, सत्य के सिद्धांतों पर चलने का प्रयास करेगा, अपनी त्रुटियों को पहचानकर उनमें सुधार लाएगा। इससे पहले कि वह इसे जाने, उसे पता भी नहीं चलेगा कि उसने अपने गलत तौर-तरीके कब सुधार लिए, उसका कपट, चालाकियाँ, लापरवाही और अनमनापन कम होते चले जाएँगे। वह इस तरह जितने लंबे समय तक जीवन जिएगा, उतना ही खुलता जाएगा, सम्माननीय होता जाएगा और एक ईमानदार व्यक्ति बनने के लक्ष्य के उतने ही करीब पहुँच जाएगा। प्रकाश में रहने का यही अर्थ है। ... क्या प्रकाश में रहने वाले लोग परमेश्वर की जाँच को स्वीकारते हैं? क्या वे अब भी परमेश्वर से अपना हृदय छिपाते हैं? क्या उनके पास अभी भी ऐसे राज होते हैं जिन्हें वे परमेश्वर को नहीं बता सकते? क्या उनमें अभी भी कोई छल-कपट, चालाकियाँ होती हैं? नहीं होतीं। वे पूरी तरह से परमेश्वर के लिए अपना हृदय खोल चुके होते हैं और कुछ भी नहीं छिपाते। वे परमेश्वर में विश्वास रख सकते हैं, किसी भी चीज पर उसके साथ संगति कर सकते हैं, वह जो कुछ भी जानना चाहे, उसे बता सकते हैं। ऐसा कुछ भी नहीं होता जो वे परमेश्वर को नहीं बता सकते या नहीं दिखा सकते। जब लोग इस स्तर का खुलापन हासिल कर लेते हैं, तो उनका जीवन आसान, स्वतंत्र और मुक्त हो जाता है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों ने सिखाया कि अपना काम सही से करने के लिए एक ईमानदार नजरिया रखना चाहिए। परमेश्वर की जाँच और सत्य को स्वीकारने की क्षमता एक ईमानदार व्यक्ति की सबसे बड़ी विशेषता है। चाहे किसी भी कारण वे उजागर या असफल हुए हों, वे अपनी कमियों को पहचानने, सत्य को खोजने, आत्म-चिंतन करने और काम में कमियों को सुधारने में सक्षम होते हैं। ऐसे लोगों को परमेश्वर का प्रबोधन और मार्गदर्शन प्राप्त होने की अधिक संभावना होती है। उनका काम भी सुधरता जाता है। जब लोग सही राह पकड़ कर मेहनत करने लगते हैं, उन्हें खुद में सुधार दिखने लगता है, सभी चिंताएँ और डर अपने आप दूर हो जाते हैं।
परमेश्वर की इच्छा को समझने के बाद मैंने अपना काम जागृत होकर इसी तरह किया। बाद में, जब मुझे एलिसिया के साथ एक डिजाइन बनाने का काम मिला तब सिद्धांत पर अच्छी पकड़ न होने के कारण मेरे प्रारूप को लौटा दिया गया। मैं फिर परेशान होने लगी कि और गलतियाँ कीं तो मेरा तबादला हो जाएगा। लेकिन तभी, एहसास हुआ कि मैं फिर अपने भविष्य की चिंता करने लगी हूँ, इसलिए तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना करके अपना रवैया सुधारने, परमेश्वर के खिलाफ न जाने, कमियों के बारे में सही दृष्टिकोण रखने और भटकावों का आकलन कर सही सिद्धांतों को खोजने के लिए तैयार हो गई। उसके बाद मैंने अपनी स्थिति के बारे में एलिसिया से खुलकर बात की तो उसने डाँटे-फटकारे बिना मेरी कमियाँ दूर करने के कुछ विशेष उपायों पर मेरे साथ संगति की। मेरे डिजाइन खूब बेहतर हो गए। आगे चलकर मेरे काम में यह समस्या बहुत कम आई। प्रवेश के लिए सकारात्मक सोच अपनाने के बाद परमेश्वर से मेरा भय जाता रहा, तबादले से डरना बंद कर दिया, इसलिए सत्य को खोजने और आत्म-चिंतन करने पर ध्यान दे पाई। समय के साथ, मैंने काम में तरक्की की और गलतियाँ बेहद कम हो गईं। अपने जीवन प्रवेश से भी मुझे बहुत कुछ हासिल किया, जिस कारण मेरा चित्त शांत और सहज हो गया।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?