परमेश्वर के दैनिक वचन : परमेश्वर के कार्य को जानना | अंश 155

03 जुलाई, 2020

प्रबंधकीय कार्य केवल मानवजाति के कारण ही घटित हुआ था, जिसका अर्थ है कि इसे केवल मानवजाति के अस्तित्व के द्वारा ही उत्पन्न किया गया था। मानवजाति से पहले, या शुरुआत में कोई प्रबंधन नहीं था, जब स्वर्गएवं पृथ्वी और समस्त वस्तुओं को सृजा गया था। यदि, परमेश्वर के सम्पूर्ण कार्य में, कोई रीति व्यवहार नहीं होता जो मनुष्य के लिए लाभकारी है, कहने का तात्पर्य है, यदि परमेश्वर भ्रष्ट मानवजाति से उपयुक्त अपेक्षाएं नहीं करता (यदि, परमेश्वर द्वारा किए गए कार्य में, मनुष्य के अभ्यास हेतु कोई उचित मार्ग नहीं होता), तो इस कार्य को परमेश्वर का प्रबंधन नहीं कहा जा सकता था। यदि परमेश्वर के कार्य की सम्पूर्णता में केवल भ्रष्ट मानवजाति को यह बताना शामिल होता कि किस प्रकार अपने अभ्यास के कठिन कार्य का आरम्भ करें, और परमेश्वर अपने किसी भी उद्यम को क्रियान्वित नहीं करता, और अपनी सर्वसामर्थता या बुद्धि का लेशमात्र भी प्रदर्शन न करता, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मनुष्य से की गई परमेश्वर की अपेक्षाएं कितनी ऊँची होतीं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर कितने लम्बे समय तक मनुष्य के मध्य रहता, क्योंकि मनुष्य परमेश्वर के स्वभाव के विषय में कुछ भी पहचान नहीं पाता; यदि स्थिति ऐसी होती, तब इस प्रकार का कार्य परमेश्वर का प्रबंधन कहलाने के योग्य तो बिलकुल भी नहीं होता। साधारण रूप से कहें, तो परमेश्वर के प्रबंधन का कार्य ही वह कार्य है जिसे परमेश्वर के द्वारा किया गया है, और सम्पूर्ण कार्य को परमेश्वर के मार्गदर्शन के अंतर्गत उन लोगों के द्वारा सम्पन्न किया गया जिन्हें परमेश्वर के द्वारा अर्जित किया गया है। ऐसे कार्य को संक्षेप में प्रबंधन कहा जा सकता है, और यह मनुष्य के मध्य परमेश्वर के कार्य, साथ ही साथ परमेश्वर के साथ उन सभी लोगों के सहयोग की ओर संकेत करता है जो उसका अनुसरण करते हैं; इन सभों को सामूहिक रूप से प्रबंधन कहा जा सकता है। यहाँ, परमेश्वर के कार्य को दर्शन कहा जाता है, और मनुष्य के सहयोग को रीति व्यवहार कहा जाता है। परमेश्वर का कार्य जितना अधिक ऊँचा होता है (अर्थात्, दर्शन जितने अधिक ऊँचे होते हैं), परमेश्वर के स्वभाव को मनुष्य के लिए उतना ही अधिक सरल बनाया जाता है, और उतना ही अधिक वह मनुष्य की धारणाओं से भिन्न होता है, और उतना ही ऊँचा मनुष्य का रीति व्यवहार एवं सहयोग होता है। मनुष्य से की गई अपेक्षाएं जितनी ऊँची होती हैं, उतना ही अधिक परमेश्वर का कार्य मनुष्य की धारणाओं से भिन्न होता है, जिसके परिणामस्वरूप मनुष्य की परीक्षाएं, और ऐसे स्तर जिस तक पहुंचने की उससे अपेक्षा की जाती है, वे भी अधिक ऊँचे हो जाते हैं। इस कार्य के निष्कर्ष पर, समस्त दर्शनों को पूरा कर लिया जाएगा, और जिन्हें अभ्यास में लाने के लिए मनुष्य से अपेक्षा की जाती है वे पूर्णता की पराकाष्ठा पर पहुँच जाएंगे। यह ऐसा समय भी होगा जब प्रत्येक को उसके किस्म के अनुसार वर्गीकृत किया जाएगा, क्योंकि जिस बात को जानने के लिए मनुष्य से अपेक्षा की जाती है उन्हें मनुष्य को दिखाया जा चुका होगा। अतः, जब दर्शन सफलता के अपने चरम बिंदु पर पहुँच जाएंगे, तब कार्य तदनुसार अपने अंत को पहुंच जाएगा, और मनुष्य का रीति व्यवहार भी अपने शिरोबिन्दु पर पहुंच जाएगा। मनुष्य का रीति व्यवहार परमेश्वर के कार्य पर आधारित है, और परमेश्वर का प्रबंधन मनुष्य के रीति व्यवहार एवं सहयोग के कारण पूरी तरह से उजागर हो गए हैं। मनुष्य परमेश्वर के कार्य का प्रदर्शन वस्तु है, और परमेश्वर के सम्पूर्ण प्रबंधन के कार्य का उद्देश्य है, और साथ ही परमेश्वर के सम्पूर्ण प्रबंधन का परिणाम भी है। यदि परमेश्वर ने मनुष्य के सहयोग के बिना अकेले ही कार्य किया होता, तो वहाँ ऐसा कुछ भी नहीं होता जो उसके सम्पूर्ण कार्य को साकार करने के रूप में कार्य करता, और इस रीति से परमेश्वर के प्रबंधन का जरा सा भी महत्व नहीं रहता। केवल ऐसे उपयुक्त पदार्थ को चुनने के द्वारा जो परमेश्वर के कार्य से बाहर है, और जो इस कार्य को अभिव्यक्त कर सकता है, और उसकी सर्वसामर्थता एवं बुद्धि को प्रमाणित कर सकता है, परमेश्वर के प्रबंधन के उद्देश्य को हासिल करना संभव है, और शैतान को पूरी तरह से हराने के लिए इस सम्पूर्ण कार्य का उपयोग करने के उद्देश्य को हासिल करना संभव है। और इस प्रकार, मनुष्य परमेश्वर के प्रबंधन के कार्य का एक अत्यंत आवश्यक भाग है, और मनुष्य ही वह एकमात्र प्राणी है जो परमेश्वर के प्रबंधन को फलवंत कर सकता है और इसके चरम उद्देश्य को प्राप्त कर सकता है; मनुष्य के अतिरिक्त, अन्य कोई जीवित प्राणी ऐसी भूमिका को अदा नहीं कर सकता है। यदि मनुष्य को प्रबंधकीय कार्य का असली साकार रूप बनना है, तो भ्रष्ट मानवजाति की अनाज्ञाकारिता को पूरी तरह से दूर करना होगा। इसके लिए आवश्यक है कि मनुष्य को विभिन्न समयों के लिए उपयुक्त रीति व्यवहार दिया जाए, और यह कि परमेश्वर मनुष्य के मध्य अनुकूल कार्य करे। केवल इसी रीति से ऐसे लोगों के समूह को हासिल किया जा सकता है जो प्रबंधकीय कार्य का साकार रूप हैं। परमेश्वर का कार्य मनुष्य के बीच में सिर्फ परमेश्वर के कार्य के माध्यम से ही स्वयं परमेश्वर की गवाही नहीं दे सकता है; ऐसी गवाही को जीवित मानव प्राणियों की भी आवश्यकता होती है जो उसके कार्य के लिए उपयुक्त होते हैं जिससे उसे हासिल किया जा सके। परमेश्वर पहले इन लोगों पर कार्य करेगा, तब उनके माध्यम से उसके कार्य को अभिव्यक्त किया जाएगा, और इस प्रकार उसकी इच्छा की ऐसी गवाही को जीवधारियों के मध्य दिया जाएगा। और इसमें, परमेश्वर अपने कार्य के लक्ष्य को हासिल कर लेगा। परमेश्वर शैतान को पराजित करने के लिए अकेले कार्य नहीं करता है क्योंकि वह समस्त प्राणियों के मध्य सीधे तौर पर स्वयं के लिए गवाही नहीं दे सकता है। यदि उसे ऐसा करना होता, तो मनुष्य को पूर्ण रूप से आश्वस्त करना असंभव होता, अतः परमेश्वर को मनुष्य को जीतने के लिये उसमें कार्य करना होगा, और केवल तभी वह समस्त प्राणियों के मध्य गवाही देने के योग्य होगा। यदि परमेश्वर को अकेले ही कार्य करना होता, और मनुष्य का कोई सहयोग नहीं मिलता, या यदि मनुष्य से सहयोग की कोई आवश्यकता नहीं होती, तो मनुष्य कभी भी परमेश्वर के स्वभाव को जानने के योग्य नहीं होता, और वह सदा के लिए परमेश्वर की इच्छा से अनजान रहता; इस रीति से, इसे परमेश्वर का प्रबंधन का कार्य नहीं कहा जा सकता था। यदि मनुष्य को केवल स्वयं ही संघर्ष, एवं खोज, एवं कठिन परिश्रम करना पड़ता, परन्तु यदि वह परमेश्वर के कार्य को नहीं समझता, उस दशा में मनुष्य उछल कूद कर रहा होता। पवित्र आत्मा के कार्य के बिना, जो कुछ भी मनुष्य करता है वह शैतान की ओर से होता है, वह विद्रोह करनेवाला और एक कुकर्मी है; वह सब जो भ्रष्ट मानवजाति के द्वारा किया जाता है उनमें शैतान प्रदर्शित होता है, और उनमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो परमेश्वर के अनुरूप है, और सब कुछ शैतान का प्रकटीकरण है। जो कुछ भी कहा गया है उनमें से कुछ भी दर्शनों एवं रीति व्यवहार से अलग नहीं है। दर्शनों की बुनियाद पर, मनुष्य रीति व्यवहार को ढूँढ लेता है, वह आज्ञाकारिता के पथ को ढूँढ लेता है, ताकि वह अपनी अवधारणाओं को दर किनार कर सके और उन चीज़ों को अर्जित कर सके जिसे उसने अतीत में धारण नहीं किया था। परमेश्वर अपेक्षा करता है कि मनुष्य उसके साथ सहयोग करे, यह कि मनुष्य उसकी अपेक्षाओं के अधीन हो जाए, और मनुष्य परमेश्वर की सर्वसामर्थी सामर्थ का अनुभव करने के लिए, और परमेश्वर के स्वभाव को जानने के लिए स्वयं परमेश्वर द्वारा किए गए कार्य को देखने की मांग करता है। संक्षेप में, ये ही परमेश्वर के प्रबंधन है। मनुष्य के साथ परमेश्वर की एकता ही प्रबंधन है, और महानतम प्रबंधन है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का अभ्यास

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