परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें

भाग चार

परमेश्वर की प्रवृत्ति को समझो और परमेश्वर के बारे में सभी गलत धारणाओं को छोड़ दो

आज जिस परमेश्वर पर तुम लोग विश्वास करते हो, वह किस तरह का परमेश्वर है? क्या तुम लोगों ने कभी इस बारे में सोचा है कि यह किस प्रकार का परमेश्वर है? जब वह किसी दुष्ट व्यक्ति को दुष्ट कार्य करते हुए देखता है, तो क्या वह उससे घृणा करता है? (हाँ, घृणा करता है।) जब वह अज्ञानी लोगों को गलतियाँ करते देखता है, तो उसकी प्रवृत्ति क्या होती है? (दु:ख।) जब वह लोगों को अपनी भेंटें चुराते हुए देखता है, तो उसकी प्रवृत्ति क्या होती है? (वह उनसे घृणा करता है।) यह सब बिलकुल साफ है, है न? जब परमेश्वर किसी व्यक्ति को अपने प्रति विश्वास में भ्रमित होते हुए, और किसी भी तरह से सत्य की खोज न करते हुए देखता है, तो परमेश्वर की प्रवृत्ति क्या होती है? तुम लोग इस पर पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हो, है न? प्रवृत्ति के तौर पर "भ्रमित होना" कोई पाप नहीं है, न ही यह परमेश्वर का अपमान करता है। लोगों को लगता है कि यह कोई बड़ी भूल नहीं है। तो बताओ, इस मामले में, परमेश्वर की प्रवृत्ति क्या है? (वह उन्हें स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है।) "स्वीकार करने के लिए तैयार न होना"—यह कैसी प्रवृत्ति है? इसका तात्पर्य यह है कि परमेश्वर उन लोगों को तुच्छ मानकर उनका तिरस्कार करता है! परमेश्वर ऐसे लोगों से निपटने के लिए उनके प्रति उदासीन हो जाता है। उसका तरीका है उन्हें दरकिनार करना, उन पर कोई कार्य न करना जिसमें प्रबुद्धता, रोशनी, ताड़ना या अनुशासन के कार्य शामिल हैं। ऐसे लोग परमेश्वर के कार्य की गिनती में नहीं आते। ऐसे लोगों के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति क्या होती है जो परमेश्वर के स्वभाव को क्रोधित करते हैं, और उसके प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करते हैं? भयंकर घृणा! परमेश्वर ऐसे लोगों से अत्यंत क्रोधित हो जाता है जो उसके स्वभाव को भड़काने को लेकर पश्चाताप नहीं करते! "अत्यंत क्रोधित होना" मात्र एक अनुभूति, एक मनोदशा है; यह एक स्पष्ट प्रवृत्ति के अनुरूप नहीं होती। परन्तु यह अनुभूति, यह मनोदशा, ऐसे लोगों के लिए परिणाम उत्पन्न करती है : यह परमेश्वर को भयंकर घृणा से भर देगी! इस भयंकर घृणा का परिणाम क्या होता है? इसका परिणाम यह होता है कि परमेश्वर ऐसे लोगों को दरकिनार कर देता है और कुछ समय तक उन्हें कोई उत्तर नहीं देता। फिर वह "शरद ऋतु के बाद" उन्हें छाँटकर अलग करने की प्रतीक्षा करता है। इसका क्या तात्पर्य है? क्या ऐसे लोगों का तब भी कोई परिणाम होगा? परमेश्वर ने इस प्रकार के व्यक्ति को कभी भी कोई परिणाम देने का इरादा नहीं किया था! तो क्या यह एकदम सामान्य बात नहीं है कि परमेश्वर ऐसे लोगों को कोई उत्तर नहीं देता? (हाँ, सामान्य बात है।) ऐसे लोगों को किस प्रकार तैयारी करनी चाहिए? उन्हें अपने व्यवहार एवं दुष्ट कृत्यों से पैदा हुए नकारात्मक परिणामों का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए। ऐसे लोगों के लिए यह परमेश्वर का उत्तर है। इसलिए अब मैं ऐसे लोगों से साफ-साफ कहता हूँ : अब भ्रांतियों को पकड़े न रहो, और ख्याली पुलाव पकाने में न लगे रहो। परमेश्वर अनिश्चित काल तक लोगों के प्रति सहिष्णु नहीं रहेगा; वह अनिश्चित काल तक उनके अपराधों और अवज्ञा को सहन नहीं करेगा। कुछ लोग कहेंगे, "मैंने भी इस प्रकार के कुछ लोगों को देखा है। जब वे प्रार्थना करते हैं तो उन्हें विशेष रूप से लगता है कि परमेश्वर उन्हें स्पर्श कर रहा है, और वे फूट-फूट कर रोते हैं। सामान्यतया वे भी बहुत खुश होते हैं; ऐसा प्रतीत होता है कि उनके पास परमेश्वर की उपस्थिति, और परमेश्वर का मार्गदर्शन है।" ऐसी बेतुकी बातें मत करो! फूट-फूटकर रोने का मतलब अनिवार्यत: यह नहीं कि इंसान को परमेश्वर स्पर्श कर रहा है या वह परमेश्वर कि उपस्थिति का आनंद ले रहा है, परमेश्वर के मार्गदर्शन की तो बात ही छोड़ दो। यदि लोग परमेश्वर को क्रोध दिलाते हैं, तो क्या परमेश्वर तब भी उनका मार्गदर्शन करेगा? संक्षेप में, जब परमेश्वर ने किसी व्यक्ति को बहिष्कृत करने, उसका परित्याग करने का निश्चय कर लिया है, तो उस व्यक्ति का परिणाम समाप्त हो जाता है। प्रार्थना करते समय किसी की भावनाएँ कितनी ही अनुकूल हों, उसके हृदय में परमेश्वर के प्रति कितना ही विश्वास हो; उसका कोई परिणाम नहीं होता। महत्वपूर्ण बात यह है कि परमेश्वर को इस प्रकार के विश्वास की आवश्यकता नहीं है; परमेश्वर ने पहले ही ऐसे लोगों को ठुकरा दिया है। उनके साथ आगे कैसे निपटा जाए यह भी महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि जैसे ही ऐसा इंसान परमेश्वर को क्रोधित करता है, उसका परिणाम निर्धारित हो जाता है। यदि परमेश्वर ने तय कर लिया कि ऐसे इंसान को नहीं बचाना, तो उसे दण्डित होने के लिए छोड़ दिया जाएगा। यह परमेश्वर की प्रवृत्ति है।

यद्यपि परमेश्वर के सार का एक हिस्सा प्रेम है, और वह हर एक के प्रति दयावान है, फिर भी लोग उस बात की अनदेखी कर भूल जाते हैं कि उसका सार महिमा भी है। उसके प्रेममय होने का अर्थ यह नहीं है कि लोग खुलकर उसका अपमान कर सकते हैं, ऐसा नहीं है कि उसकी भावनाएँ नहीं भड़केंगी या कोई प्रतिक्रियाएँ नहीं होंगी। उसमें करुणा होने का अर्थ यह नहीं है कि लोगों से व्यवहार करने का उसका कोई सिद्धांत नहीं है। परमेश्वर सजीव है; सचमुच उसका अस्तित्व है। वह न तो कोई कठपुतली है, न ही कोई वस्तु है। चूँकि उसका अस्तित्व है, इसलिए हमें हर समय सावधानीपूर्वक उसके हृदय की आवाज़ सुननी चाहिए, उसकी प्रवृत्ति पर ध्यान देना चाहिए, और उसकी भावनाओं को समझना चाहिए। परमेश्वर को परिभाषित करने के लिए हमें अपनी कल्पनाओं का उपयोग नहीं करना चाहिए, न ही हमें अपने विचार और इच्छाएँ परमेश्वर पर थोपनी चाहिए, जिससे कि परमेश्वर इंसान के साथ इंसानी कल्पनाओं के आधार पर मानवीय व्यवहार करे। यदि तुम ऐसा करते हो, तो तुम परमेश्वर को क्रोधित कर रहे हो, तुम उसके कोप को बुलावा देते हो, उसकी महिमा को चुनौती देते हो! एक बार जब तुम लोग इस मसले की गंभीरता को समझ लोगे, मैं तुम लोगों से आग्रह करूँगा कि तुम अपने कार्यकलापों में सावधानी और विवेक का उपयोग करो। अपनी बातचीत में सावधान और विवेकशील रहो। साथ ही, तुम लोग परमेश्वर के प्रति व्यवहार में जितना अधिक सावधान और विवेकशील रहोगे, उतना ही बेहतर होगा! अगर तुम्हें परमेश्वर की प्रवृत्ति समझ में न आ रही हो, तो लापरवाही से बात मत करो, अपने कार्यकलापों में लापरवाह मत बनो, और यूँ ही कोई लेबल न लगा दो। और सबसे महत्वपूर्ण बात, मनमाने ढंग से निष्कर्षों पर मत पहुँचो। बल्कि, तुम्हें प्रतीक्षा और खोज करनी चाहिए; ये कृत्य भी परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने की अभिव्यक्ति है। सबसे बड़ी बात, यदि तुम ऐसा कर सको, और ऐसी प्रवृत्ति अपना सको, तो परमेश्वर तुम्हारी मूर्खता, अज्ञानता, और चीज़ों के पीछे तर्कों की समझ की कमी के लिए तुम्हें दोष नहीं देगा। बल्कि, परमेश्वर को अपमानित करने के तुम्हारे भय मानने, उसके इरादों के प्रति तुम्हारे सम्मान, और परमेश्वर का आज्ञापालन करने की तुम्हारी तत्परता के कारण, परमेश्वर तुम्हें याद रखेगा, तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा और तुम्हें प्रबुद्धता देगा, या तुम्हारी अपरिपक्वता और अज्ञानता को सहन करेगा। इसके विपरीत, यदि उसके प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति श्रद्धाविहीन होती है—तुम मनमाने ढंग से परमेश्वर की आलोचना करते हो, मनमाने ढंग से परमेश्वर के विचारों का अनुमान लगाकर उन्हें परिभाषित करते हो—तो परमेश्वर तुम्हें अपराधी ठहराएगा, अनुशासित करेगा, बल्कि दण्ड भी देगा; या वह तुम पर टिप्पणी करेगा। हो सकता है कि इस टिप्पणी में ही तुम्हारा परिणाम शामिल हो। इसलिए, मैं एक बार फिर से इस बात पर जोर देना चाहता हूँ : परमेश्वर से आने वाली हर चीज़ के प्रति तुम्हें सावधान और विवेकशील रहना चाहिए। लापरवाही से मत बोलो, और अपने कार्यकलापों में लापरवाह मत हो। कुछ भी कहने से पहले रुककर सोचो : क्या मेरा ऐसा करना परमेश्वर को क्रोधित करेगा? क्या ऐसा करना परमेश्वर के प्रति श्रद्धा दिखाना है? यहाँ तक कि साधारण मामलों में भी, तुम्हें इन प्रश्नों को समझकर उन पर विचार करना चाहिए। यदि तुम हर चीज़ में, हर समय, इन सिद्धांतों के अनुसार सही मायने में अभ्यास करो, विशेष रूप से इस तरह की प्रवृत्ति तब अपना सको, जब कोई चीज़ तुम्हारी समझ में न आए, तो परमेश्वर तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा, और तुम्हें अनुसरण योग्य मार्ग देगा। लोग चाहे जो दिखावा करें, लेकिन परमेश्वर सबकुछ स्पष्ट रूप में देख लेता है, और वह तुम्हारे दिखावे का सटीक और उपयुक्त मूल्यांकन प्रदान करेगा। जब तुम अंतिम परीक्षण का अनुभव कर लोगे, तो परमेश्वर तुम्हारे समस्त व्यवहार को लेकर उससे तुम्हारा परिणाम निर्धारित करेगा। यह परिणाम निस्सन्देह हर एक को आश्वस्त करेगा। मैं तुम्हें यह बताना चाहता हूँ कि तुम लोगों का हर कर्म, हर कार्यकलाप, हर विचार तुम्हारे भाग्य को निर्धारित करता है।

मनुष्य के परिणाम कौन निर्धारित करता है?

चर्चा करने के लिए एक और बेहद महत्वपूर्ण मामला है, और वह है परमेश्वर के प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति। यह प्रवृत्ति बेहद अहम है! इससे यह निर्धारित होगा कि तुम लोग विनाश की ओर जाओगे, या उस सुन्दर मंज़िल की ओर जिसे परमेश्वर ने तुम्हारे लिए तैयार किया है। राज्य के युग में, परमेश्वर पहले ही बीस से अधिक वर्षों तक कार्य कर चुका है, और इन बीस वर्षों के दौरान शायद तुम लोगों का हृदय तुम्हारे प्रदर्शन को लेकर थोड़ा बहुत अनिश्चित रहा है। लेकिन, परमेश्वर ने मन ही मन तुममें से हर एक व्यक्ति का एक वास्तविक और सच्चा अभिलेख बना लिया है। जबसे इंसान ने परमेश्वर का अनुसरण करना, उसके उपदेश सुनना, और धीरे-धीरे अधिक सत्य समझना शुरू किया है, तब से लेकर इंसान के अपना कर्तव्य निभाने तक, परमेश्वर के पास प्रत्येक व्यक्ति के हर एक कार्यकलापों का लेखा-जोखा है। कर्तव्य निभाने, परिस्थितियों, परीक्षणों का सामना करते समय लोगों की प्रवृत्ति क्या होती है? उनका प्रदर्शन कैसा रहता है? मन ही मन वे परमेश्वर के प्रति कैसा महसूस करते हैं?...परमेश्वर के पास इन सभी चीज़ों का लेखा-जोखा रहता है; उसके पास सभी चीजों का लेखा-जोखा है। शायद तुम्हारे नज़रिए से, ये मामले भ्रमित करने वाले हों। लेकिन परमेश्वर के नज़रिए से, वे मामले एकदम स्पष्ट हैं, उसमें ज़रा-सी भी लापरवाही नहीं होती। इस मामले में हर एक व्यक्ति का परिणाम शामिल है, इसमें, उनके भाग्य और भविष्य की संभावनाएँ सम्मिलित हैं। इससे भी बढ़कर, इसी स्थान पर परमेश्वर अपने सभी श्रमसाध्य प्रयास लगाता है। इसलिए परमेश्वर कभी इसकी उपेक्षा नहीं करता, न ही वह कोई लापरवाही बर्दाश्त करता है। परमेश्वर शुरु से लेकर अंत तक मनुष्य के परमेश्वर का अनुसरण करने के सारे क्रम का हिसाब-किताब रख रहा है। इस समय के दौरान परमेश्वर के प्रति तुम्हारी जो प्रवृत्ति रही है, उसी ने तुम्हारी नियति तय की है। क्या यह सच नहीं है? क्या अब तुम्हें भरोसा है कि परमेश्वर धार्मिक है? क्या उसके कार्य उचित हैं? क्या तुम्हारे दिमाग में अभी भी परमेश्वर के बारे में दूसरी कल्पनाएँ हैं? (नहीं।) तो क्या तुम लोग कहोगे कि मनुष्य का परिणाम निर्धारित करना परमेश्वर का कार्य है, या स्वयं मनुष्य को निर्धारित करना चाहिए? (इसे परमेश्वर द्वारा निर्धारित किया जाना चाहिए।) उसे कौन तय करता है? (परमेश्वर।) तुम निश्चित नहीं हो न? हांग कांग के भाई-बहनो, बोलो—इसे कौन निर्धारित करता है? (मनुष्य स्वयं निर्धारित करता है।) क्या मनुष्य स्वयं इसे निर्धारित करता है? तो क्या इसका अर्थ यह नहीं है कि इसका परमेश्वर के साथ कोई लेना देना नहीं है? दक्षिण कोरिया के भाई-बहनो, बोलो (परमेश्वर लोगों के कार्यकलापों, कर्मों और उस मार्ग के आधार पर उनका परिणाम निर्धारित करता है जिस पर वे चलते हैं।) यह बिलकुल वस्तुनिष्ठ उत्तर है। मैं यहाँ तुम्हें एक तथ्य बता दूँ : परमेश्वर ने उद्धार के कार्य के दौरान, मनुष्य के लिए एक मानक निर्धारित किया है। और वो मानक यह है कि मनुष्य परमेश्वर के वचन का पालन करे और परमेश्वर के मार्ग में चले। लोगों का परिणाम इसी मानक की कसौटी पर कसा जाता है। यदि तुम परमेश्वर के इस मानक के अनुसार अभ्यास करते हो, तो तुम एक अच्छा परिणाम प्राप्त कर सकते हो; यदि नहीं करते, तो तुम अच्छा परिणाम नहीं प्राप्त कर सकते। अब तुम क्या कहोगे, यह परिणाम कौन निर्धारित करता है? इसे अकेला परमेश्वर निर्धारित नहीं करता, बल्कि परमेश्वर और मनुष्य मिलकर निर्धारित करते हैं। क्या यह सही है? (हाँ।) ऐसा क्यों है? क्योंकि परमेश्वर ही सक्रिय रूप से मनुष्य के उद्धार के कार्य में शामिल होकर मनुष्य के लिए एक खूबसूरत मंज़िल तैयार करना चाहता है; मनुष्य परमेश्वर के कार्य का लक्ष्य है, यही वो परिणाम, मंज़िल है जिसे परमेश्वर मनुष्य के लिए तैयार करता है। यदि उसके कार्य का कोई लक्ष्य न होता, तो परमेश्वर को यह कार्य करने की कोई आवश्यकता ही नहीं होती; यदि परमेश्वर यह कार्य न कर रहा होता, तो मनुष्य के पास उद्धार पाने का कोई अवसर ही न होता। मनुष्यों को बचाना है, और यद्यपि बचाया जाना इस प्रक्रिया का निष्क्रिय पक्ष है, फिर भी इस पक्ष की भूमिका निभाने वाले की प्रवृत्ति ही निर्धारित करती है कि मनुष्य को बचाने के अपने कार्य में परमेश्वर सफल होगा या नहीं। यदि परमेश्वर तुम्हें मार्गदर्शन न देता, तो तुम उसके मानक को न जान पाते, और न ही तुम्हारा कोई उद्देश्य होता। यदि इस मानक और उद्देश्य के होते हुए भी, तुम सहयोग न करो, इसे अभ्यास में न लाओ, कीमत न चुकाओ, तो तुम्हें यह परिणाम प्राप्त न होगा। इसीलिए, मैं कहता हूँ कि किसी के परिणाम को परमेश्वर से अलग नहीं किया जा सकता, और इसे उस व्यक्ति से भी अलग नहीं किया जा सकता। अब तुम लोग जान गए हो कि मनुष्य के परिणाम को कौन निर्धारित करता है।

लोग अनुभव के आधार पर परमेश्वर को परिभाषित करने का प्रयास करते हैं

परमेश्वर को जानने के विषय पर वार्तालाप करते समय, क्या तुम लोगों ने एक बात पर ध्यान दिया है? क्या तुम लोगों ने ध्यान दिया है कि परमेश्वर की वर्तमान प्रवृत्ति में एक परिवर्तन हुआ है? क्या लोगों के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति अपरिवर्तनीय है? क्या परमेश्वर हमेशा इसी तरह से सहता रहेगा, अनिश्चित काल तक मनुष्य को अपना समस्त प्रेम और करुणा प्रदान करता रहेगा? इस मामले में परमेश्वर का सार भी शामिल है। चलो हम तथाकथित उड़ाऊ-पुत्र के प्रश्न की ओर लौटें जिसकी चर्चा हम पहले कर चुके हैं। तुम लोगों ने उस प्रश्न का बहुत स्पष्ट उत्तर नहीं दिया था; दूसरे शब्दों में, तुम लोग अभी भी परमेश्वर के इरादों को अच्छी तरह से नहीं समझे हो। यह जानकर कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम करता है, लोग परमेश्वर को प्रेम के प्रतीक के रूप में परिभाषित करते हैं : उन्हें लगता है, चाहे लोग कुछ भी करें, कैसे भी पेश आएँ, चाहे परमेश्वर से कैसा ही व्यवहार करें, चाहे वे कितने ही अवज्ञाकारी क्यों न हो जाएँ, किसी बात से कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि परमेश्वर में प्रेम है, परमेश्वर का प्रेम असीमित और अथाह है। परमेश्वर में प्रेम है, इसलिए वह लोगों के साथ सहिष्णु हो सकता है; परमेश्वर में प्रेम है, इसलिए वह लोगों के प्रति करुणाशील हो सकता है, उनकी अपरिपक्वता के प्रति करुणाशील हो सकता है, उनकी अज्ञानता के प्रति करुणाशील हो सकता है, और उनकी अवज्ञा के प्रति करुणाशील हो सकता है। क्या वास्तव में ऐसा ही है? कुछ लोग एक बार या कुछ बार परमेश्वर के धैर्य का अनुभव कर लेने पर, वे इन अनुभवों को परमेश्वर के बारे में अपनी समझ की एक पूँजी मानने लगते हैं, यह विश्वास करते हैं कि परमेश्वर उनके प्रति हमेशा धैर्यवान और दयालु रहेगा, और फिर जीवन भर परमेश्वर के धैर्य को एक ऐसे मानक के रूप में मानते हैं जिससे परमेश्वर उनके साथ बर्ताव करता है। ऐसे भी लोग हैं जो, एक बार परमेश्वर की सहिष्णुता का अनुभव कर लेने पर, हमेशा के लिए परमेश्वर को सहिष्णु के रूप में परिभाषित करते हैं, उनकी नज़र में यह सहिष्णुता अनिश्चित है, बिना किसी शर्त के है, यहाँ तक कि पूरी तरह से असैद्धांतिक है। क्या ऐसा विश्वास सही है? जब भी परमेश्वर के सार या परमेश्वर के स्वभाव के मामलों पर चर्चा की जाती है, तो तुम लोग उलझन में दिखाई देते हो। तुम लोगों को इस तरह देखना मुझे बहुत चिंतित करता है। तुम लोगों ने परमेश्वर के सार के बारे में बहुत से सत्य सुने हैं; तुम लोगों ने परमेश्वर के स्वभाव से संबंधित बहुत-सी चर्चाएँ भी सुनी हैं। लेकिन, तुम लोगों के मन में ये मामले और इन पहलुओं की सच्चाई, सिद्धांत और लिखित वचनों पर आधारित मात्र स्मृतियाँ हैं। तुममें से कोई भी अपने दैनिक जीवन में, यह अनुभव करने या देखने में सक्षम नहीं है कि वास्तव में परमेश्वर का स्वभाव क्या है। इसलिए, तुम सभी लोग अपने-अपने विश्वास में गड़बड़ा गए हो, तुम आँखें मूँदकर इस हद तक विश्वास करते हो कि परमेश्वर के प्रति तुम लोगों की प्रवृत्ति श्रद्धाहीन हो जाती है, बल्कि तुम लोग उसे एक ओर धकेल भी देते हो। परमेश्वर के प्रति तुम्हारी इस प्रकार की प्रवृत्ति किस ओर ले जाती है? यह उस ओर ले जाती है जहाँ तुम हमेशा परमेश्वर के बारे में निष्कर्ष निकालते रहते हो। थोड़ा सा ज्ञान मिलते ही तुम एकदम संतुष्ट हो जाते हो, जैसे कि तुमने परमेश्वर को उसकी संपूर्णता में पा लिया हो। उसके बाद, तुम लोग निष्कर्ष निकालते हो कि परमेश्वर ऐसा ही है, और तुम उसे स्वतंत्र रूप से घूमने-फिरने नहीं देते। इसके अलावा, परमेश्वर जब कभी भी कुछ नया करता है, तो तुम स्वीकार नहीं करते कि वह परमेश्वर है। एक दिन, जब परमेश्वर कहेगा : "मैं मनुष्य से अब प्रेम नहीं करता; अब मैं मनुष्य पर दया नहीं करूँगा; अब मनुष्य के प्रति मेरे मन में सहिष्णुता या धैर्य नहीं है; मैं मनुष्य के प्रति अत्यंत घृणा एवं चिढ़ से भर गया हूँ", तो लोगों के दिल में द्वंद्व पैदा हो जाएगा। कुछ लोग तो यहाँ तक कहेंगे, "अब तुम हमारे परमेश्वर नहीं हो, ऐसे परमेश्वर नहीं हो जिसका मैं अनुसरण करना चाहता हूँ। यदि तुम ऐसा कहते हो, तो अब तुम मेरे परमेश्वर होने के योग्य नहीं हो, और मुझे तुम्हारा अनुसरण करते रहने की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि तुम मुझे करुणा, प्रेम सहिष्णुता नहीं दोगे तो मैं तुम्हारा अनुसरण नहीं करूँगा। यदि तुम अनिश्चित काल तक मेरे प्रति सहिष्णु बने रहते हो, धैर्यवान बने रहते हो, और मुझे देखने देते हो कि तुम प्रेम हो, धैर्य हो, सहिष्णुता हो, तभी मैं तुम्हारा अनुसरण कर सकता हूँ, और तभी मेरे अंदर अंत तक तुम्हारा अनुसरण करने का आत्मविश्वास आ सकता है। चूँकि मेरे पास तुम्हारा धैर्य और करुणा है, तो मेरी अवज्ञा और अपराधों को अनिश्चित काल तक क्षमा किया जा सकता है, अनिश्चित काल तक माफ किया जा सकता है, मैं किसी भी समय और कहीं पर भी पाप कर सकता हूँ, किसी भी समय और कहीं पर भी पाप स्वीकार कर माफी पा सकता हूँ, और किसी भी समय और कहीं पर भी मैं तुम्हें क्रोधित कर सकता हूँ। तुम मेरे बारे में कोई राय नहीं रख सकते और निष्कर्ष नहीं निकाल सकते।" यद्यपि तुममें से कोई भी ऐसे मसलों पर आत्मनिष्ठ या सचेतन रूप से न सोचे, फिर भी जब कभी परमेश्वर को तुम अपने पापों को क्षमा करने का कोई यंत्र या एक खूबसूरत मंज़िल पाने के लिए उपयोग की जाने वाली कोई वस्तु समझते हो, तो तुमने धीरे से जीवित परमेश्वर को अपने विरोधी, अपने शत्रु के स्थान पर रख लिया है। मैं तो यही देखता हूँ। भले ही तुम ऐसी बातें कहते रहो, "मैं परमेश्वर में विश्वास करता हूँ"; "मैं सत्य की खोज करता हूँ"; "मैं अपने स्वभाव को बदलना चाहता हूँ"; "मैं अंधकार के प्रभाव से आज़ाद होना चाहता हूँ"; "मैं परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहता हूँ"; "मैं परमेश्वर को समर्पित होना चाहता हूँ"; "मैं परमेश्वर के प्रति वफ़ादार होना चाहता हूँ, और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाना चाहता हूँ"; इत्यादि। लेकिन, तुम्हारी बातें कितनी ही मधुर हों, चाहे तुम्हें कितने ही सिद्धांतों का ज्ञान हो, चाहे वह सिद्धांत कितना ही प्रभावशाली या गरिमापूर्ण हो, लेकिन सच्चाई यही है कि तुम लोगों में से बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्होंने पहले से ही जान लिया है कि किस प्रकार परमेश्वर के बारे में निष्कर्ष निकालने के लिए उन नियमों, मतों और सिद्धांतों का उपयोग करना है जिन पर तुम लोगों ने महारत हासिल कर ली है, और स्वाभाविक है कि ऐसा करके तुमने परमेश्वर को अपने विरुद्ध कर लिया है। हालाँकि तुमने शब्दों और सिद्धांतों में महारत हासिल कर ली है, फिर भी तुमने असल में सत्य की वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है, इसलिए तुम्हारे लिए परमेश्वर के करीब होना, उसे जानना-समझना बहुत कठिन है। यह बेहद खेद योग्य है!

मैंने एक वीडियो में यह दृश्य देखा था : कुछ बहनें वचन देह में प्रकट होता है की एक प्रति थामे हुए थीं, और वे उसे बहुत ऊँचा उठाए हुए थीं; वे उस पुस्तक को अपने बीच में सिर से ऊपर थामे हुए थीं। यद्यपि यह मात्र एक छवि थी, किन्तु इसने मेरे भीतर कोई छवि जागृत नहीं की बल्कि, इसने मुझे यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि हर इंसान अपने हृदय में परमेश्वर के वचन को नहीं, बल्कि परमेश्वर के वचन की पुस्तक को ऊँचा उठाकर रखता है। यह बहुत ही अफसोसनाक बात है। यह परमेश्वर को ऊँचा उठाने के समान बिल्कुल भी नहीं है, क्योंकि परमेश्वर के बारे में तुम्हारी नासमझी तुम्हें इस दर्जे तक ले आयी है कि तुम एक स्पष्ट प्रश्न, एक बहुत ही छोटे से मसले पर भी, अपनी धारणा बना लेते हो। जब मैं तुम लोगों से कुछ पूछता हूँ, तुम्हारे साथ गंभीर होता हूँ, तो तुम अपनी अटकलबाजी और कल्पनाओं से उत्तर देते हो; तुम लोगों में से कुछ तो संदेह भरे लहजे में पलट कर मुझसे ही प्रश्न करते हैं। इससे मुझे एकदम साफ समझ आ जाता है कि जिस परमेश्वर पर तुम लोग विश्वास करते हो वह सच्चा परमेश्वर नहीं है। इतने सालों तक परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, तुम लोग एक बार फिर से परमेश्वर के बारे में निष्कर्ष निकालने के लिए परमेश्वर के वचनों का, उसके कार्य का, और अधिक सिद्धांतों का उपयोग करते हो। तुम कभी परमेश्वर को समझने का प्रयास भी नहीं करते; तुम लोग कभी परमेश्वर के इरादों को समझने की कोशिश नहीं करते; यह समझने का प्रयास नहीं करते कि मनुष्य के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति क्या है, या वह कैसे सोचता है, वह दुःखी क्यों होता है, क्रोधित क्यों होता है, लोगों को क्यों ठुकराता है, और ऐसे ही अन्य प्रश्न। अधिकतर लोग मानते हैं कि परमेश्वर हमेशा इसलिए खामोश रहा है क्योंकि वह मनुष्य के कार्यकलापों को देख रहा है, उनके बारे में उसकी कोई प्रवृत्ति या विचार नहीं हैं। लेकिन एक अन्य समूह तो यह मानता है कि परमेश्वर कोई आवाज़ नहीं करता क्योंकि उसने मौन स्वीकृति दी है, परमेश्वर इसलिए शांत है क्योंकि वह इंतज़ार कर रहा है या इसलिए क्योंकि उसमें कोई प्रवृत्ति नहीं है; चूँकि परमेश्वर की प्रवृत्ति को पहले ही पुस्तक में विस्तार से समझाया जा चुका है, उसे संपूर्णता में मनुष्य के लिए अभिव्यक्त किया जा चुका है, इसलिए इसे बार-बार लोगों को बताने की आवश्यकता नहीं है। यद्यपि परमेश्वर खामोश है, तब भी उसमें प्रवृत्ति और दृष्टिकोण है, और एक मानक है जिसके अनुसार वह लोगों से जीने की अपेक्षा करता है। यद्यपि लोग उसे समझने और खोजने का प्रयास नहीं करते, फिर भी उसकी प्रवृत्ति बिलकुल साफ है। किसी ऐसे व्यक्ति का लो जिसने कभी पूरे जुनून से परमेश्वर का अनुसरण किया था, परन्तु फिर किसी मुकाम पर उसका परित्याग करके चला गया। यदि अब वही व्यक्ति वापस आना चाहे तो आश्चर्यजनक रूप से तुम लोग नहीं जानते कि परमेश्वर का दृष्टिकोण क्या होगा, या परमेश्वर की प्रवृत्ति क्या होगी। क्या यह बेहद अफसोसनाक बात नहीं है? असल में यह एक सतही मामला है। यदि तुम लोग वास्तव में परमेश्वर के हृदय को समझते हो, तो तुम लोग इस प्रकार के व्यक्ति के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति को समझ जाओगे, और अस्पष्ट उत्तर नहीं दोगे। चूँकि तुम लोग नहीं जानते, इसलिए मैं तुम लोगों को बताता हूँ।

उन लोगों के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति जो उसके कार्य के दौरान भाग जाते हैं

ऐसे लोग हर जगह होते हैं : परमेश्वर के मार्ग के बारे में सुनिश्चित हो जाने के बाद, विभिन्न कारणों से, वे चुपचाप बिना अलविदा कहे चले जाते हैं और जो कुछ उनका दिल चाहता है वही करते हैं। फिलहाल, हम इस बात पर नहीं जाएँगे कि ऐसे लोग छोड़कर क्यों चले जाते हैं; पहले हम यह देखेंगे कि ऐसे लोगों के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति क्या होती है। यह बिलकुल स्पष्ट है! जिस समय ऐसे लोग छोड़कर चले जाते हैं, परमेश्वर की नज़रों में, उनके विश्वास की अवधि समाप्त हो जाती है। इसे वो लोग नहीं, बल्कि परमेश्वर समाप्त करता है। ऐसे लोगों का परमेश्वर को छोड़कर जाने का अर्थ है कि उन्होंने पहले ही परमेश्वर को अस्वीकृत कर दिया है, यानी अब वे परमेश्वर को नहीं चाहते, अब उन्हें परमेश्वर का उद्धार स्वीकार्य नहीं है। चूँकि ऐसे लोग परमेश्वर को नहीं चाहते, तो क्या परमेश्वर तब भी उन्हें चाह सकता है? इसके अतिरिक्त, जब इस प्रकार के लोगों की प्रवृत्ति और दृष्टिकोण ऐसा है और वे परमेश्वर को छोड़ने पर अडिग हो चुके हैं, तो इसका अर्थ है कि उन्होंने पहले ही परमेश्वर के स्वभाव को क्रोधित कर दिया है। इस तथ्य के बावजूद कि शायद आवेश में आकर, उन्होंने परमेश्वर को न कोसा हो, उनके व्यवहार में कोई नीचता या ज़्यादती न रही हो, और इस तथ्य के बावजूद कि ऐसे लोग सोच रहे हों, "यदि कभी ऐसा दिन आया जब मुझे बाहर भरपूर खुशियाँ मिलीं, या जब किसी चीज़ के लिए मुझे अभी भी परमेश्वर की आवश्यकता हुई, तो मैं वापस आ जाऊँगा। या कभी परमेश्वर मुझे बुलाए, तो मैं वापस आ जाऊँगा," या वे कहते हैं, "अगर मैं कभी बाहर की दुनिया में चोट खाऊँ, या कभी यह देखूँ कि बाहरी दुनिया अत्यंत अंधकारमय और दुष्ट है और अब मैं उस प्रवाह के साथ नहीं बहना चाहता, तो मैं परमेश्वर के पास वापस आ जाऊँगा।" भले ही ऐसे लोग अपने मन में इस तरह का हिसाब-किताब लगाएँ कि कब उन्हें वापस आना है, भले ही वे अपनी वापसी के लिए द्वार खुला छोड़कर रखने की कोशिश करें, फिर भी उन्हें इस बात का एहसास नहीं होता कि वे चाहे जो सोचें और कैसी भी योजना बनाएँ, यह सब उनकी खुशफहमी है। उनकी सबसे बड़ी गलती यह है कि वे इस बारे में अस्पष्ट होते हैं कि जब वे छोड़कर जाना चाहते हैं तो परमेश्वर को कैसा महसूस होता है। जिस पल वे परमेश्वर को छोड़ने का निश्चय करते हैं, परमेश्वर उसी पल उन्हें पूरी तरह से छोड़ चुका होता है; परमेश्वर पहले ही अपने हृदय में उनका परिणाम निर्धारित कर चुका होता है। वह परिणाम क्या है? ऐसा व्यक्ति चूहों में से ही एक चूहा होगा और उन्हीं के साथ नष्ट हो जाएगा। इस प्रकार, लोग प्रायः इस प्रकार की स्थिति देखते हैं : कोई परमेश्वर का परित्याग कर देता है, लेकिन उसे दण्ड नहीं मिलता। परमेश्वर अपने सिद्धांतों के अनुसार कार्य करता है; कुछ चीज़ें देखने में आती हैं, और कुछ चीज़ें परमेश्वर के हृदय में ही तय होती हैं, इसलिए लोग परिणाम नहीं देख पाते। जो हिस्सा लोग देख पाते हैं वह आवश्यक नहीं कि चीज़ों का सही पक्ष हो, परन्तु दूसरा पक्ष होता है, जिसे तुम देख नहीं पाते—उसी में परमेश्वर के हृदय के सच्चे विचार और निष्कर्ष निहित होते हैं।

परमेश्वर के कार्य के दौरान भाग जाने वाले लोग सच्चे मार्ग का परित्याग कर देते हैं

तो, परमेश्वर ऐसे लोगों को इतना कठोर दंड कैसे दे सकता है? परमेश्वर उन पर इतना क्रोधित क्यों है? पहली बात तो, हम जानते हैं कि परमेश्वर का स्वभाव प्रताप और कोप है; वह कोई भेड़ नहीं है, जिसका वध किया जाए; वह कठपुतली तो बिल्कुल नहीं है जिसे लोग जैसा चाहें, वैसा नचाएँ। उसका अस्तित्व निरर्थक भी नहीं है कि उस पर धौंस जमाई जाए। यदि तुम वास्तव में मानते हो कि परमेश्वर का अस्तित्व है, तो तुम्हें परमेश्वर का भय मानना चाहिए, और तुम्हें पता होना चाहिए कि परमेश्वर के सार को क्रोधित नहीं किया जा सकता। वह क्रोध किसी शब्द से पैदा हो सकता है या शायद किसी विचार से या शायद किसी अधम और हल्के व्यवहार से, किसी ऐसे व्यवहार से जो मनुष्य की नज़र में और नैतिकता की दृष्टि से महज़ कामचलाऊ हो; या वह किसी मत, सिद्धांत से भी भड़क सकता है। लेकिन, अगर एक बार तुमने परमेश्वर को क्रोधित कर दिया, तो समझो तुम्हारा अवसर गया, और तुम्हारे अंत के दिन आ गए। यह बेहद खराब बात है! यदि तुम इस बात को नहीं समझते कि परमेश्वर को अपमानित नहीं किया जाना चाहिए, तो शायद तुम परमेश्वर से नहीं डरते और शायद तुम उसे अक्सर अपमानित करते रहते हो। अगर तुम नहीं जानते कि परमेश्वर से कैसे डरना चाहिए, तो तुम परमेश्वर से नहीं डर पाओगे, और नहीं जान पाओगे कि परमेश्वर के सच्चे मार्ग पर कैसे चलना है—यानी परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग पर। एक बार जब तुम जान गए और सचेत हो गए कि परमेश्वर को अपमानित नहीं करना चाहिए, तो तुम समझ जाओगे कि परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना क्या होता है।

परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के सच्चे मार्ग पर चलने का अर्थ यह नहीं है कि तुम सत्य से कितने परिचित हो, तुमने कितने परीक्षणों का अनुभव किया है, या तुम कितने अनुशासित हो। बल्कि यह इस बात पर निर्भर है कि परमेश्वर के प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति क्या है, और तुम कौन-सा सार व्यक्त करते हो। लोगों का सार और उनकी आत्मनिष्ठ प्रवृत्तियाँ—ये अत्यंत महत्वपूर्ण और प्रमुख बातें हैं। जहाँ तक उन लोगों की बात है जिन्होंने परमेश्वर को त्याग दिया है और छोड़कर चले गए हैं, परमेश्वर के प्रति उनकी कुत्सित प्रवृत्ति ने और सत्य से घृणा करने वाले उनके हृदय ने परमेश्वर के स्वभाव को पहले ही भड़का दिया है, इसलिए जहाँ तक परमेश्वर की बात है, उन्हें कभी क्षमा नहीं किया जाएगा। उन्होंने परमेश्वर के अस्तित्व के बारे में जान लिया है, उनके पास यह जानकारी है कि परमेश्वर का आगमन पहले ही हो चुका है, यहाँ तक कि उन्होंने परमेश्वर के नए कार्य का अनुभव भी कर लिया है। उनका चला जाना छले जाने या भ्रमित हो जाने का मामला नहीं था, ऐसा तो और भी नहीं कि उन्हें जाने के लिए बाध्य किया गया हो। बल्कि उन्होंने होशोहवास में, सोच-समझ कर परमेश्वर को छोड़कर जाने का विकल्प चुना। उनका जाना अपने मार्ग को खोना नहीं था, न ही उन्हें दरकिनार किया गया। इसलिए, परमेश्वर की दृष्टि में, वे लोग कोई मेमने नहीं हैं, जो झुंड से भटक गए हों, भटके हुए फिज़ूलखर्च पुत्र होने की तो बात ही छोड़ दो। वे दंड से मुक्त हो कर गए हैं और ऐसी दशा, ऐसी स्थिति परमेश्वर के स्वभाव को क्रोधित करती है, और उसका यही क्रोध उन्हें निराशाजनक परिणाम देता है। क्या इस प्रकार का परिणाम भयावह नहीं है? इसलिए यदि लोग परमेश्वर को नहीं जानते, तो वे परमेश्वर को अपमानित कर सकते हैं। यह कोई छोटी बात नहीं है! यदि लोग परमेश्वर की प्रवृत्ति को गंभीरता से नहीं लेते, और यह मानकर चलते हैं कि परमेश्वर उनके लौटने की प्रतीक्षा कर रहा है—क्योंकि वे परमेश्वर की खोई हुई भेड़ हैं और परमेश्वर अभी भी उनके हृदय-परिवर्तन की प्रतीक्षा कर रहा है, तो फिर ऐसे लोग दंड के दिन से बहुत दूर नहीं हैं। परमेश्वर उन्हें केवल अस्वीकार ही नहीं करेगा—बल्कि चूँकि उन्होंने दूसरी बार उसके स्वभाव को क्रोधित किया है, इसलिए यह और भी अधिक भयानक बात है! ऐसे लोगों की श्रद्धाहीन प्रवृत्ति पहले ही परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन कर चुकी है। क्या वह अब भी उन्हें स्वीकार करेगा? इस मामले में परमेश्वर के सिद्धांत हैं कि यदि कोई व्यक्ति सत्य मार्ग के विषय में निश्चित है, फिर भी वह जानबूझकर और स्पष्ट मन से परमेश्वर को अस्वीकार करता है और उसे छोड़कर चला जाता है, तो परमेश्वर ऐसे व्यक्ति के उद्धार-मार्ग को अवरुद्ध कर देगा, उसके बाद राज्य के दरवाजे उस व्यक्ति के लिए बंद कर दिए जाएँगे। जब ऐसा व्यक्ति फिर से आकर द्वार खटखटाएगा, तो परमेश्वर द्वार नहीं खोलेगा; वह सदा के लिए बाहर ही रह जाएगा। शायद तुम में से किसी ने बाइबल में मूसा की कहानी पढ़ी हो। मूसा को परमेश्वर द्वारा अभिषिक्त कर दिए जाने के बाद, 250 अगुआओं ने मूसा के कार्यकलापों और कई अन्य कारणों से उसके प्रति अपनी असहमति व्यक्त की। उन्होंने किसके आगे समर्पित होने से इनकार किया? वह मूसा नहीं था। उन्होंने परमेश्वर की व्यवस्थाओं को मानने से इनकार किया; उन्होंने इस मामले में परमेश्वर के कार्य को मानने से इनकार किया था। उन्होंने निम्नलिखित बातें कहीं : "तुम ने बहुत किया, अब बस करो; क्योंकि सारी मण्डली का एक एक मनुष्य पवित्र है, और यहोवा उनके मध्य में रहता है...।" क्या इंसानी नज़रिए से, ये बातें बहुत गंभीर हैं? गंभीर नहीं हैं! कम-से-कम शाब्दिक अर्थ तो गंभीर नहीं है। कानूनी नज़रिए से भी, वे कोई नियम नहीं तोड़ते, क्योंकि देखने में यह कोई शत्रुतापूर्ण भाषा या शब्दावली नहीं है, इसमें ईश-निन्दा जैसी कोई बात तो बिल्कुल नहीं है। ये केवल साधारण से वाक्य हैं, इससे अधिक कुछ नहीं। तो फिर, ये शब्द परमेश्वर के क्रोध को इतना क्यों भड़का सकते हैं? उसकी वजह यह है कि ये शब्द लोगों के लिए नहीं, बल्कि परमेश्वर के लिए बोले गए थे। उन शब्दों में व्यक्त प्रवृत्ति और स्वभाव परमेश्वर के स्वभाव को क्रोधित करते हैं और परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करते हैं जिसे अपमानित नहीं किया जाना चाहिए। हम सब जानते हैं कि अंत में उन अगुआओं का परिणाम क्या हुआ था। ऐसे लोगों के बारे में जिन्होंने परमेश्वर का परित्याग कर दिया है, उनका दृष्टिकोण क्या है? उनकी प्रवृत्ति क्या है? और उनका दृष्टिकोण और प्रवृत्ति ऐसे कारण क्यों बनते हैं कि परमेश्वर उनके साथ इस तरह से निपटता है? कारण यह है कि हालाँकि वे साफ तौर पर जानते हैं कि वह परमेश्वर है, मगर फिर भी वे परमेश्वर के साथ विश्वासघात करते हैं, और इसीलिए उन्हें उद्धार के अवसर से पूरी तरह वंचित कर दिया जाता है। जैसा कि बाइबल में लिखा है, "क्योंकि सच्‍चाई की पहिचान प्राप्‍त करने के बाद यदि हम जान बूझकर पाप करते रहें, तो पापों के लिये फिर कोई बलिदान बाकी नहीं।" क्या अब तुम लोग इस विषय को अच्छी तरह समझ गए हो?

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