परमेश्वर के वचनों ने मुझे जीवन में दिशा दिखाई
मुझे बचपन से ही हमेशा अच्छे ग्रेड मिलते आए थे, मैं साहित्य और कला प्रतियोगिताओं में भी भाग लेती थी। यह कहना सही होगा कि मैंने अपने पूरे शैक्षणिक करियर में अच्छी प्रगति की। मेरे परिवार को आशा थी कि मैं अपनी अलग पहचान बनाकर हमारे परिवार का मान बढ़ाऊँगी। वो अक्सर कहते : “सिर्फ जानकार लोगों को सम्मान मिलता है, बड़ा माना जाता है और वे ही समाज में अपनी जगह बना सकते हैं। ज्ञान और शिक्षा से रहित लोगों को नीची नजर से देखा जाता है, वे कभी अपना सिर ऊँचा करके नहीं चल पाएँगे।” मैं अपने माँ-बाप की राय से पूरी तरह सहमत थी, और इसी तरह, “भीड़ से ऊपर उठना और अपने पूर्वजों का नाम करना” मेरे जीवन का लक्ष्य बन गया। यह लक्ष्य पाने के लिए, मैं सुबह से रात तक पढ़ती रहती और चाहे कितनी भी थकावट हो डटी रहती। अपने खाली समय में ऑनलाइन जाकर थोड़ी और पढ़ाई कर लेती। मैं कभी कोई क्लास नहीं छोड़ती या देर से नहीं पहुँचती, अपने हरेक टीचर के लेक्चर ध्यान से सुनती। क्लास के बाद, जहाँ दूसरे बच्चे खेलने चले जाते, मैं अंदर बैठकर होमवर्क करती रहती। मैं हमेशा अपने जवाब ध्यान से देखकर सबसे आखिर में टेस्ट पेपर जमा करती थी। पढ़ाई के चक्कर में, मैं न तो सही वक्त पर खाना खाती और न ही व्यायाम करती थी, और मैं अक्सर कम ही सोती थी। मेरे अथक प्रयास से, आखिर मेरा दाखिला मेरे पसंदीदा स्कूल, चियांग मई यूनिवर्सिटी में हो गया। जब माता-पिता, दोस्तों और शिक्षकों ने यह खबर सुनी, तो सबने मुझे प्रशंसा और ईर्ष्या भरी नजरों से देखा। इससे मुझे बड़ी खुशी हुई। मैंने सोचा कि मैं एक शानदार, उत्कृष्ट जीवन की शुरुआत कर रही हूँ, ग्रेजुएट होने पर बहुत सी कंपनियाँ मुझे नौकरी देने के लिए कतार में खड़ी होंगी और मैं यकीनन अपना नाम बनाऊँगी और बाकियों से आगे निकलूँगी। अचानक मेरी माँ को कैंसर हो गया, जिसका पता हमें आखिरी चरण में जाकर लगा। डॉक्टरों ने कहा कि उनके पास बहुत कम समय बचा है। यह खबर जबरदस्त झटके की तरह थी जिसने मुझे पूरी तरह से हताश कर दिया। ऐसा लगा जैसे मैंने जो कुछ भी सोचा था वह सब चकनाचूर हो गया। मैंने स्कूल में इतनी कड़ी मेहनत की थी ताकि भविष्य में सबसे आगे निकल सकूँ, मेरे पास अपनी माँ का सहयोग करने और उनका नाम रोशन करने के साधन हों। मगर मेरे ग्रेजुएट होने से पहले ही मेरी माँ को कैंसर हो गया। मैं बहुत निराश थी। मैं घर जाकर अपनी माँ का ख्याल रखना चाहती थी, पर सोचा कि यूनिवर्सिटी में दाखिला लेने के लिए मुझे कितनी मेहनत करनी पड़ी थी, इतने सालों की कोशिश के लिए मेरे पास दिखाने लायक कुछ तो होना चाहिए। अगर मैंने माँ का ध्यान रखने के लिए अपनी पढ़ाई छोड़ दी, तो क्या मेरी सारी मेहनत बेकार नहीं चली जाएगी? मैं बड़ी उलझन में थी, नहीं जानती थी कि आगे क्या करूँ। एक बार, माँ ने मुझे फोन करके कहा : “मुझे नहीं लगता कि मैं तुम्हारे ग्रेजुएट होने तक जिंदा रह पाऊँगी, पर अपने भविष्य की खातिर, तुम्हें अपनी पढ़ाई पूरी करके एक अच्छा जीवन जीना होगा, तब मैं बिना किसी पछतावे के मर सकूँगी।” अपनी माँ की बातों में आकर, मैं उनकी देखभाल के लिए घर नहीं लौटी और अपनी पढ़ाई जारी रखी। कुछ समय बाद ही, मेरी माँ गुजर गई। मैं माँ की यादों में डूबी हुई थी, और बस उसी कार्य के बारे में सोच रही थी जो उन्होंने मुझे सौंपा था। मैंने मेहनत से पढ़ाई करके अपना नाम बनाने और माँ की इच्छा पूरी करने का संकल्प लिया।
सबसे पहले मैंने यूनिवर्सिटी के हिसाब से खुद को ढाला, मगर फिर पता चला कि वहाँ का जीवन काफी रूखा और उबाऊ था, यह वैसा बिलकुल नहीं था जैसा मैंने सोचा था। बल्कि, स्कूल का जीवन प्रतिस्पर्धा से भरा था। छात्र अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के अनुसार गुट बनाकर, दूसरों को खूब चिढ़ाते और मजाक बनाते। कुछ शिक्षक भी अच्छे ग्रेड या पारिवारिक पृष्ठभूमि वाले छात्रों के साथ मिलकर खराब ग्रेड वाले या गरीब परिवार के छात्रों को चिढ़ाते थे। इससे जो छात्र पहले से खुद को छोटा महसूस करते थे और ज्यादा छोटा महसूस करने लगे, और कुछ ने तो स्कूल ही बदल लिया या छोड़कर चले गए। मुझे वहाँ के माहौल से बहुत नफरत थी, पर खुद की पहचान बनाने और अच्छे ग्रेड पाने के लिए मैं अपनी पढ़ाई में डटी रही। कड़ी मेहनत से, मैंने स्कूल और अपने पेशेवर करियर दोनों जगह अच्छे ग्रेड और परिणाम पाए। सभी सहपाठी मेरा सम्मान करते, और पढ़ाई में मुझे अपना आदर्श मानकर अनुकरण करते थे। मुझे वह शोहरत और लाभ मिल गया जो मैं चाहती थी, पर मैंने अंदर से खालीपन महसूस किया, और धीरे-धीरे उस जीवनशैली से ऊबने लगी और तंग आ गई। मुझे समझ नहीं आया कि लोग इस तरह क्यों जीना चाहते हैं। मुझे लगा था कि पढ़ाई करके मैं सबसे आगे निकल सकती हूँ, खुशी पा सकती हूँ और अपने हिसाब से जीवन जी सकती हूँ। तो जितना ज्यादा मैंने वैसा जीवन पाना चाहा, उतना ही खालीपन और पीड़ा क्यों महसूस हुई? कभी-कभी मैं सोचती : क्या जीवन का उद्देश्य बस सफलता की भावना का अनुभव करने के लिए काम करना और फिर मर जाना है? और क्योंकि हम कुछ भी अपने साथ नहीं ले जाते और हमारे पास अपने प्रयासों के लिए दिखाने को कुछ भी नहीं है, तो यह सब होने का क्या मतलब है? क्या जीवन जीने के कोई और सार्थक तरीके नहीं हैं?
एक दिन मैंने फेसबुक पर जीवन के सही अर्थ के बारे में एक पोस्ट देखी। पोस्ट को लाइक करने और टिप्पणी लिखने के बाद, किसी ने मुझे दोस्त बनाया जिसके साथ धार्मिक आस्था के बारे में मेरी बातचीत शुरू हुई, तभी मुझे एहसास हुआ कि वह जरूर कोई ईसाई होगा। उसने मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के उद्धार कार्य का सुसमाचार सुनाया। मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कई वचन पढ़े और ऐसे कई सत्य जाने जो पहले कभी नहीं सुने थे, इनमें मनुष्य के जीवन का स्रोत, मनुष्य की पीड़ा की जड़, और शैतान किन तरीकों से मानवजाति को भ्रष्ट करता है जैसी चीजें शामिल थीं। परमेश्वर के वचनों ने जीवन के सत्यों के प्रति मेरी प्यास बुझा दी। मैंने इनमें से किसी भी सत्य के बारे में स्कूल में नहीं सुना था। उसके बाद, मैंने फेसबुक पर यह अंश देखा : “मानवजाति द्वारा सामाजिक विज्ञानों के आविष्कार के बाद से मनुष्य का मन विज्ञान और ज्ञान से भर गया है। तब से विज्ञान और ज्ञान मानवजाति के शासन के लिए उपकरण बन गए हैं, और अब मनुष्य के पास परमेश्वर की आराधना करने के लिए पर्याप्त गुंजाइश और अनुकूल परिस्थितियाँ नहीं रही हैं। मनुष्य के हृदय में परमेश्वर की स्थिति सबसे नीचे हो गई है। हृदय में परमेश्वर के बिना मनुष्य की आंतरिक दुनिया अंधकारमय, आशारहित और खोखली है। बाद में मनुष्य के हृदय और मन को भरने के लिए कई समाज-वैज्ञानिकों, इतिहासकारों और राजनीतिज्ञों ने सामने आकर सामाजिक विज्ञान के सिद्धांत, मानव-विकास के सिद्धांत और अन्य कई सिद्धांत व्यक्त किए, जो इस सच्चाई का खंडन करते हैं कि परमेश्वर ने मनुष्य की रचना की है, और इस तरह, यह विश्वास करने वाले बहुत कम रह गए हैं कि परमेश्वर ने सब-कुछ बनाया है, और विकास के सिद्धांत पर विश्वास करने वालों की संख्या और अधिक बढ़ गई है। अधिकाधिक लोग पुराने विधान के युग के दौरान परमेश्वर के कार्य के अभिलेखों और उसके वचनों को मिथक और किंवदंतियाँ समझते हैं। अपने हृदयों में लोग परमेश्वर की गरिमा और महानता के प्रति, और इस सिद्धांत के प्रति भी कि परमेश्वर का अस्तित्व है और वह सभी चीज़ों पर प्रभुत्व रखता है, उदासीन हो जाते हैं। मानवजाति का अस्तित्व और देशों एवं राष्ट्रों का भाग्य उनके लिए अब और महत्वपूर्ण नहीं रहे, और मनुष्य केवल खाने-पीने और भोग-विलासिता की खोज में चिंतित, एक खोखले संसार में रहता है। ...” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 2: परमेश्वर संपूर्ण मानवजाति के भाग्य का नियंता है)। परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़कर मुझे एहसास हुआ कि क्योंकि मनुष्य के दिल ज्ञान-विज्ञान की सीखों से भरे हैं, इनमें परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं है, ये खोखले होते जा रहे हैं। इसलिए वे जाँचना चाहते हैं कि जीवन का उद्देश्य क्या है, जीवन का मूल्य क्या है और जीवन का अर्थ क्या है, पर इन मामलों को जाँचने के लिए व्यक्ति जितना अधिक ज्ञान-विज्ञान का इस्तेमाल करता है, उतने ही कम वास्तविक जवाब मिलते हैं। यह ज्ञान लोगों को बस कुछ पल के लिए सांत्वना की अनुभूति देता है, क्योंकि ज्ञान-विज्ञान सत्य नहीं हैं और जीवन की सच्ची आपूर्ति प्रदान नहीं कर सकते। पहले मैं हमेशा यही मानती थी कि कोई व्यक्ति जितना अधिक जानकार होगा, उसके पास जीवन की उतनी ही अंतर्दृष्टि होगी और चीजों के बारे में उसे उतना ही एहसास होगा, और क्योंकि ज्ञान की खोज करने वाले विचारशील माने जाते हैं, वे मूल्यवान जीवन जीते हैं और अधिक खुशी पा सकते हैं। मगर इतनी सारी पढ़ाई करने के बाद भी मुझे नहीं पता था कि जीवन का उद्देश्य क्या है, मनुष्य कहाँ से आया, उसकी मंजिल क्या है, और मुझे वह खुशी नहीं मिली जो मैं चाहती थी। जब मेरी परीक्षाएँ बहुत अच्छी गईं, मैं अपनी क्लास में अव्वल आई और सभी ने मेरी प्रशंसा की, तब भी मैंने अंदर से खालीपन और पीड़ा महसूस की, जिन कठिनाइयों का मैंने सामना किया उनका समाधान नहीं हुआ। मैंने देखा कि कैसे यूनिवर्सिटी के अन्य छात्र उस खालीपन को भरने की कोशिश में खरीदारी करने, कराओके गाने, बार में वक्त बिताने और मशहूर गायकों के कॉन्सर्ट में जाते थे। शुरुआत में, मुझे भी उनके साथ ये सब करके बड़ा मजा आया, मगर बाद में और ज्यादा खालीपन महसूस होने लगा। फिर परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे एहसास हुआ कि मनुष्य के आध्यात्मिक खालीपन का कारण ज्ञान-विज्ञान की उसकी खोज है। ज्ञान-विज्ञान से लोग इस बात से इनकार करते हैं कि परमेश्वर ने मनुष्य को बनाया है। न सिर्फ वे नहीं जानते या नहीं स्वीकारते कि वे परमेश्वर से आए हैं, वे यह निष्कर्ष भी निकालते हैं कि परमेश्वर के वचन और कार्य सिर्फ किंवदंतियाँ या मिथक हैं। इस प्रकार, लोगों के दिलों में परमेश्वर की कोई जगह नहीं होती और वे उससे और ज्यादा दूर हो जाते हैं। जब वे परमेश्वर को नहीं जानते और न ही उनके दिलों में परमेश्वर और उसके वचन हैं, तो वे खालीपन कैसे नहीं महसूस करेंगे? मेरे जीवन का स्रोत परमेश्वर है। मेरे जीवन में जो कुछ भी घटा है वह सब परमेश्वर की व्यवस्थाओं का परिणाम है। सृजित प्राणी के रूप में, बेहतर भाग्य पाने के लिए मुझे परमेश्वर का अनुसरण और आराधना करनी होगी। उसके बाद, मैंने परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकार लिया और ऐसा लगा मानो मैं आखिरकार अपने घर आ रही हूँ।
बाद में, कुछ समय तक सभाओं में जाने के बाद, मैंने आध्यात्मिक तौर पर ज्यादा से ज्यादा परिपूर्ण महसूस किया, मुझे बहुत आनंद, शांति और खुशी मिली। एक बार एक सभा के बाद, मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर के और वचन पढ़ना चाहती थी, तो मैं परमेश्वर के वचनों की किताबें खोजने के लिए “राज्य के अवरोहण का सुसमाचार” वाली वेबसाइट पर गई। वेबसाइट पर, मुझे यह अंश मिला कि कैसे शैतान मानवजाति को भ्रष्ट करता है : “जब कोई प्रसिद्धि और लाभ के दलदल में फँस जाता है, तो फिर वह उसकी खोज नहीं करता जो उजला है, जो न्यायोचित है, या वे चीजें नहीं खोजता जो खूबसूरत और अच्छी हैं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि प्रसिद्धि और लाभ की जो मोहक शक्ति लोगों के ऊपर हावी है, वह बहुत बड़ी है, वे लोगों के लिए जीवन भर, यहाँ तक कि अनंतकाल तक सतत अनुसरण की चीजें बन जाती हैं। क्या यह सत्य नहीं है? कुछ लोग कहेंगे कि ज्ञान अर्जित करना पुस्तकें पढ़ने या कुछ ऐसी चीजें सीखने से अधिक कुछ नहीं है, जिन्हें वे पहले से नहीं जानते, ताकि समय से पीछे न रह जाएँ या संसार द्वारा पीछे न छोड़ दिए जाएँ। ज्ञान सिर्फ इसलिए अर्जित किया जाता है, ताकि वे भोजन जुटा सकें, अपना भविष्य बना सकें या बुनियादी आवश्यकताएँ पूरी कर सकें। क्या कोई ऐसा व्यक्ति है, जो मात्र मूलभूत आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए, और मात्र भोजन की समस्या हल करने के लिए एक दशक तक कठिन परिश्रम से अध्ययन करेगा? नहीं, ऐसा कोई नहीं है। तो फिर व्यक्ति इतने वर्षों तक ये कठिनाइयाँ क्यों सहन करता है? प्रसिद्धि और लाभ के लिए। प्रसिद्धि और लाभ आगे उसका इंतजार कर रहे हैं, उसे इशारे से बुला रहे हैं, और वह मानता है कि केवल अपने परिश्रम, कठिनाइयों और संघर्ष के माध्यम से ही वह उस मार्ग का अनुसरण कर सकता है, जो उसे प्रसिद्धि और लाभ प्राप्त करने की ओर ले जाएगा। ऐसे व्यक्ति को अपने भविष्य के पथ के लिए, अपने भविष्य के आनंद के लिए और एक बेहतर जिंदगी प्राप्त करने के लिए ये कठिनाइयाँ सहनी ही होंगी” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। “शैतान मनुष्य के विचारों को नियंत्रित करने के लिए प्रसिद्धि और लाभ का तब तक उपयोग करता है, जब तक सभी लोग प्रसिद्धि और लाभ के बारे में ही नहीं सोचने लगते। वे प्रसिद्धि और लाभ के लिए संघर्ष करते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए कष्ट उठाते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए अपमान सहते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर देते हैं, और प्रसिद्धि और लाभ के लिए कोई भी फैसला या निर्णय ले लेते हैं। इस तरह शैतान लोगों को अदृश्य बेड़ियों से बाँध देता है और उनमें उन्हें उतार फेंकने का न तो सामर्थ्य होता है, न साहस। वे अनजाने ही ये बेड़ियाँ ढोते हैं और बड़ी कठिनाई से पैर घसीटते हुए आगे बढ़ते हैं। इस प्रसिद्धि और लाभ के लिए मानवजाति परमेश्वर से दूर हो जाती है, उसके साथ विश्वासघात करती है और अधिकाधिक दुष्ट होती जाती है। इसलिए, इस प्रकार एक के बाद एक पीढ़ी शैतान की प्रसिद्धि और लाभ के बीच नष्ट होती जाती है। अब, शैतान की करतूतें देखते हुए, क्या उसके भयानक इरादे एकदम घिनौने नहीं हैं? हो सकता है, आज शायद तुम लोग शैतान के भयानक इरादों की असलियत न देख पाओ, क्योंकि तुम लोगों को लगता है कि व्यक्ति प्रसिद्धि और लाभ के बिना नहीं जी सकता। तुम लोगों को लगता है कि अगर लोग प्रसिद्धि और लाभ पीछे छोड़ देंगे, तो वे आगे का मार्ग नहीं देख पाएँगे, अपना लक्ष्य देखने में समर्थ नहीं हो पाएँगे, उनका भविष्य अंधकारमय, धुँधला और विषादपूर्ण हो जाएगा” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। परमेश्वर के ये वचन पढ़कर, मैंने देखा कि लोग शोहरत और लाभ की चाह से बंधे हुए हैं। वो मानते हैं कि शोहरत और लाभ की खोज ही मनुष्य की प्रेरणा और जीवन का लक्ष्य है। वो नहीं जानते कि यह गलत मार्ग है और न ही उनके पास इससे मुक्त होने की हिम्मत या क्षमता है। मैंने सोचा कि कैसे मेरे जीवन का लक्ष्य भी सबसे आगे निकलकर अपने पूर्वजों का नाम करना था, कैसे मैं सोचती थी कि ये लक्ष्य हासिल करने वाले ही जीवन के विजेता हैं। ऐसे विचार मेरे मन में स्कूल के समय से ही डाले गए थे। अपने लक्ष्य को पाने के लिए मैंने खुद को सालों तक पढ़ाई में झोंक दिया, पढ़ाई करके एडवांस्ड डिग्री पाने की कोशिश में लग गई, ताकि आखिर में अच्छी नौकरी मिल सके, अच्छा जीवन जी सकूँ और बेहतर जीवन स्तर का आनंद ले सकूँ। मैं खास तौर पर अपनी माँ की एक सामान्य बात से प्रभावित थी : “शीर्ष पर पहुँचने के लिए तुम्हें बड़ी पीड़ा सहनी होगी।” मैं मानती थी कि सबसे आगे निकलने के लिए मुझे संघर्ष करना होगा और कष्ट झेलने पड़ेंगे और तब जाकर सभी कठिनाइयाँ सार्थक होंगी। शोहरत और लाभ पाने के चक्कर में, मैंने बाहरी दुनिया पर कोई ध्यान नहीं दिया, मैं अपनी पढ़ाई में पूरी तरह से डूब चुकी थी, और जब मेरी माँ गंभीर रूप से बीमार पड़ी, तब भी मैंने उनकी देखभाल के लिए स्कूल नहीं छोड़ा, मुझे चिंता थी कि ऐसा करने से मेरी पढ़ाई पर असर पड़ेगा। मैंने शोहरत और लाभ के पीछे भागने में दस साल से ज्यादा बिता दिया, और एक बार भी यह सोचने के लिए नहीं रुकी कि क्या ऐसा करना वाकई सार्थक था। अपने साथियों से सम्मान और प्रशंसा पाने के बाद भी, मैं सच में खुश नहीं थी। बल्कि, मैं अधिक से अधिक स्वार्थी, अहंकारी और दूसरों को तुच्छ समझने वाली बन गई। मैंने खासकर उन औसत लोगों को तुच्छ समझा जो सिर्फ अपनी आजीविका चलाने पर ध्यान देते थे। बाहरी तौर पर, मैं ऐसी भावनाएँ व्यक्त नहीं करती थी, पर अंदर से मुझे उनसे नफरत थी। मुझे एहसास हुआ कि मैं गलत मार्ग पर चल रही हूँ और मैंने बहुत सारा समय बर्बाद कर दिया है। आखिरकार, मैं वह खुशहाल और मूल्यवान जीवन पाने में असफल रही जिसकी मैंने कल्पना की थी। परमेश्वर के खुलासे से मुझे एहसास हुआ : शैतान लोगों को लुभाने और भ्रष्ट करने के लिए शोहरत और लाभ का इस्तेमाल करता है। शोहरत और लाभ की खोज से मुझे पीड़ा भरे जीवन के अलावा और कुछ नहीं मिला। क्या मैं शैतान की धूर्त साजिश में नहीं फँस गई थी? मैं जानती थी कि मैं गलत मार्ग पर चल रही हूँ, मुझे शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागने के बजाय परमेश्वर और सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना चाहिए। मगर मैंने यह भी सोचा कि बीते सालों में मैंने कितनी मेहनत की और ग्रेजुएट होकर अपनी एडवांस्ड डिग्री पाने से बस एक कदम ही दूर थी, जिससे मुझे समाज में सम्मान मिलता। बाद में, जब मैं काम पर जाती, तो कह सकती थी कि मैंने फलाँ यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन किया है और गर्व से सिर उठाकर चल पाती। मुझमें अपनी पढ़ाई छोड़ने का आत्मविश्वास नहीं था, मैं मास्टर और पीएचडी भी करना चाहती थी।
एक बार अपना कर्तव्य निभाते समय, किसी बहन ने मुझसे पूछा कि भविष्य के लिए क्या सोचा है। मैंने कहा : “मैं मास्टर और पीएचडी करना चाहती हूँ पर थोड़ी दुविधा में हूँ। अगर मैं आगे की पढ़ाई करती हूँ तो मुझे इसमें और भी ज्यादा समय देना होगा जिससे अपना कर्तव्य निभाने के लिए समय कम बचेगा। मैं यह पता लगाना चाहती हूँ कि क्या पढ़ाई करना ठीक रहेगा।” उस बहन ने मुझे परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़कर सुनाए : “पतरस का जन्म एक साधारण यहूदी किसान-परिवार में हुआ था। उसके माता-पिता खेती करके पूरे परिवार का भरण-पोषण करते थे, और वह चार भाई-बहनों में सबसे बड़ा था। जाहिर है, यह हमारी कहानी का मुख्य भाग नहीं है; पतरस हमारा केंद्रीय पात्र है। जब वह पाँच वर्ष का था, उसके माता-पिता ने उसे पढ़ना-लिखना सिखाना आरंभ कर दिया। उस समय यहूदी लोग ज्ञानी हुआ करते थे; कृषि, उद्योग और वाणिज्य जैसे क्षेत्रों में तो वे खास तौर से उन्नत थे। अपने सामाजिक वातावरण के परिणामस्वरूप पतरस के माता और पिता, दोनों ने उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। ग्रामीण क्षेत्र से होने के बावजूद वे सुशिक्षित थे और उनकी तुलना आज के औसत विश्वविद्यालयी छात्रों से की जा सकती थी। निस्संदेह पतरस भाग्यशाली था कि उसका जन्म ऐसी अनुकूल सामाजिक परिस्थितियों में हुआ था। समझ से चतुर और बुद्धिमान होने के कारण वह नए विचारों को आसानी से आत्मसात कर लेता था। अपनी पढ़ाई शुरू करने के बाद वह पाठों के दौरान चीज़ों को बहुत आसानी से समझ लेता था। उसके माता-पिता को ऐसा तीव्रबुद्धि पुत्र पाने पर गर्व था, इसलिए उन्होंने इस आशा के साथ उसे विद्यालय भेजने का हर प्रयास किया कि वह आगे बढ़ सके और समाज में किसी प्रकार का कोई आधिकारिक पद प्राप्त करने योग्य हो जाए। अनजाने में पतरस को परमेश्वर में रुचि हो गई, जिसका नतीजा यह हुआ कि चौदह वर्ष की उम्र में जब वह हाई स्कूल में था, तो जिस प्राचीन यूनानी संस्कृति के पाठ्यक्रम का वह अध्ययन कर रहा था, उसके प्रति उसे अरुचि हो गई, खासकर प्राचीन यूनानी इतिहास के काल्पनिक लोगों और मनगढ़ंत घटनाओं से। तब से पतरस ने—जिसने अपनी युवावस्था के बसंत में प्रवेश किया ही था—मानव-जीवन और व्यापक दुनिया के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त करनी शुरू कर दी। उसके विवेक ने उसे अपने माता-पिता द्वारा उठाई गई तकलीफों का बदला चुकाने के लिए मजबूर नहीं किया, क्योंकि उसने स्पष्ट रूप से देख लिया था कि समस्त लोग आत्म-वंचना की स्थिति में निरर्थक जीवन जी रहे हैं, धन तथा मान्यता के लिए संघर्ष करते हुए अपना जीवन बरबाद कर रहे हैं। उसकी इस अंतर्दृष्टि का मुख्य कारण वह सामाजिक वातावरण था, जिसमें वह रह रहा था। लोगों के पास जितना अधिक ज्ञान होता है, उनके आपसी संबंध उतने ही जटिल होते हैं, उनकी भीतरी दुनिया उतनी ही पेचीदा होती है, इस कारण वे रिक्तता में जीते हैं। इन परिस्थितियों में पतरस ने अपना खाली समय व्यापक मुलाकातों में बिताया, जिनमें से अधिकांश धार्मिक हस्तियों से मिलने के लिए थीं। उसके हृदय में एक अस्पष्ट-सी भावना मौजूद लगती थी कि धर्म मानव-संसार की सभी गूढ़ बातों का समाधान कर सकता है, इसलिए वह अकसर धार्मिक सभाओं में भाग लेने के लिए नजदीकी उपासनागृह में जाता था। उसके माता-पिता इस बात से अनजान थे, और जल्दी ही पतरस, जो हमेशा से अच्छे चरित्र वाला था और बेहतरीन विद्वत्ता युक्त था, विद्यालय जाने से नफरत करने लगा। अपने माता-पिता की देखरेख में उसने बड़ी कठिनाई से हाई स्कूल पास किया। वह ज्ञान के सागर से तैरकर तट पर आ गया, एक गहरी साँस ली, और तब से उसे किसी ने शिक्षा नहीं दी और न ही उसे रोका” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, “संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचनों” के रहस्यों की व्याख्या, पतरस के जीवन पर)। “अपने पूरे जीवन में पतरस ने मछलियाँ पकड़कर अपना जीवनयापन किया, परंतु इससे भी अधिक वह सुसमाचार के प्रचार के लिए जीया। अपने बाद के वर्षों में उसने पतरस की पहली और दूसरी पत्री लिखी, साथ ही उसने उस समय के फिलाडेल्फिया की कलीसिया को कई पत्र भी लिखे। उस समय के लोग उससे बहुत प्रभावित थे। लोगों को अपनी खुद की साख का इस्तेमाल करके उपदेश देने के बजाय उसने उन्हें जीवन की उपयुक्त आपूर्ति उपलब्ध करवाई। वह जीते-जी कभी यीशु की शिक्षाओं को नहीं भूला और जीवनभर उनसे प्रेरित रहा। यीशु का अनुगमन करते हुए उसने प्रभु के प्रेम का बदला अपनी मृत्यु से चुकाने और सभी चीजों में उसके उदाहरण का अनुसरण करने का संकल्प लिया था। यीशु ने इसे स्वीकार कर लिया, इसलिए जब पतरस 53 वर्ष का था (यीशु के जाने के 20 से अधिक वर्षों के बाद), तो यीशु उसकी आकांक्षा की पूर्ति में मदद करने के लिए उसके सामने प्रकट हुआ। उसके बाद के सात वर्षों में पतरस ने अपना जीवन स्वयं को जानने में व्यतीत किया। इन सात वर्षों के पश्चात एक दिन उसे उलटा क्रूस पर चढ़ा दिया गया और इस तरह उसके असाधारण जीवन का अंत हो गया” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, “संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचनों” के रहस्यों की व्याख्या, पतरस के जीवन पर)। ये दो अंश सुनने के बाद, मुझे पता चला कि मेरी स्थिति भी पतरस जैसी ही थी, जब वह उस खोखले ज्ञान से ऊब गया था जो उसने स्कूल में सीखा था। वह जानता था कि ज्ञान में कोई जीवन नहीं है, स्कूल और समाज संघर्ष से भरे हुए हैं। इसलिए उसने अपनी पढ़ाई छोड़कर सत्य और जीवन का अनुसरण करना शुरू किया। मैंने देखा कि पतरस ने अपनी स्कूली शिक्षा और समाज से दूर जाने का संकल्प लिया था, उसने बिल्कुल भी परवाह नहीं की कि दूसरे लोग क्या सोचेंगे, वह अपने मोह के दलदल में नहीं धँसा, बल्कि उसमें दृढ़ संकल्प और विश्वास था, वह वर्तमान रुझानों से प्रभावित नहीं था। उसमें सकारात्मक चीजें खोजने के लिए उन पुराने तरीकों को बदलने का साहस था जिनके अनुसार बहुत से लोग जीते थे। कमाल की बात है कि पतरस उस युग में ऐसा निर्णय ले पाया, इसके लिए बहुत आस्था की जरूरत थी। परमेश्वर के वचनों का मुझ पर गहरा असर पड़ा। बाहर से, ऐसा लग सकता है कि पतरस ने कोई प्रतिष्ठा या लाभ हासिल नहीं किया था, पर उसे परमेश्वर से सराहना मिली थी। मुझे एहसास हुआ कि पतरस की तरह एक सृजित प्राणी के रूप में सत्य का अनुसरण करना और कर्तव्य निभाना, परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करना, सत्य वास्तविकता को जीना, और परमेश्वर को जानकर उसके प्रति समर्पण करना ही वास्तव में मूल्यवान और सार्थक जीवन के तत्व हैं। मैंने पढ़ाई में अपने सतत प्रयासों के बारे में सोचा : हाई स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद मैंने यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया और अब मास्टर डिग्री हासिल करने की सोच रही थी। क्या मैं बस आगे निकलने और अपनी पहचान बनाने के लिए ऊँचे लक्ष्य तय नहीं कर रही थी? क्या यह सार्थक अनुसरण था? मैंने सोचा कि कैसे मेरी माँ ने छोटी उम्र से ही आगे निकलने और सबसे ऊपर उठने के लिए कड़ी मेहनत की थी, अपने कारोबार में लगन से काम किया था, और फिर तीस की उम्र में, पिछली कठिनाइयों से ऊपर उठकर सबसे आगे निकली, बेहतर भौतिक स्थितियों का आनंद उठाया, शोहरत, लाभ और दूसरों का सम्मान हासिल किया। वैसे तो वह बहुत सम्मानित दिखती थी, पर आखिर में कैंसर के कारण वो गुजर गईं। उनकी शोहरत और लाभ उन्हें बीमारी से नहीं बचा सके। मुझे एहसास हुआ कि शोहरत और लाभ की खोज का कोई मूल्य या अर्थ नहीं है। बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों के दो और अंश पढ़े, जिससे मैं और अच्छे से समझ पाई कि मुझे कौन-सा मार्ग चुनना चाहिए। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “तुम सृजित प्राणी हो—तुम्हें निस्संदेह परमेश्वर की आराधना और सार्थक जीवन का अनुसरण करना चाहिए। यदि तुम परमेश्वर की आराधना नहीं करते हो बल्कि अपनी अशुद्ध देह के भीतर रहते हो, तो क्या तुम बस मानव भेष में जानवर नहीं हो? चूँकि तुम मानव प्राणी हो, इसलिए तुम्हें स्वयं को परमेश्वर के लिए खपाना और सारे कष्ट सहने चाहिए! आज तुम्हें जो थोड़ा-सा कष्ट दिया जाता है, वह तुम्हें प्रसन्नतापूर्वक और दृढ़तापूर्वक स्वीकार करना चाहिए और अय्यूब तथा पतरस के समान सार्थक जीवन जीना चाहिए। ... तुम सब वे लोग हो, जो सही मार्ग का अनुसरण करते हो, जो सुधार की खोज करते हो। तुम सब वे लोग हो, जो बड़े लाल अजगर के देश में ऊपर उठते हो, जिन्हें परमेश्वर धार्मिक कहता है। क्या यह सबसे सार्थक जीवन नहीं है?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अभ्यास (2))। “युवाओं को आदर्शों, आकांक्षाओं और खुद को बेहतर बनाने की उत्साहपूर्ण इच्छा से रहित नहीं होना चाहिए; उन्हें अपनी संभावनाओं को लेकर निराश नहीं होना चाहिए और न ही उन्हें जीवन में आशा और भविष्य में भरोसा खोना चाहिए, उनमें उस सत्य के मार्ग पर बने रहने की दृढ़ता होनी चाहिए, जिसे उन्होंने अब चुना है—ताकि वे मेरे लिए अपना पूरा जीवन खपाने की अपनी इच्छा साकार कर सकें। उन्हें सत्य से रहित नहीं होना चाहिए, न ही उन्हें ढोंग और अधर्म को छिपाना चाहिए—उन्हें उचित रुख पर दृढ़ रहना चाहिए। उन्हें सिर्फ यूँ ही धारा के साथ बह नहीं जाना चाहिए, बल्कि उनमें न्याय और सत्य के लिए बलिदान और संघर्ष करने की हिम्मत होनी चाहिए। युवा लोगों में अँधेरे की शक्तियों के दमन के सामने समर्पण न करने और अपने अस्तित्व के महत्व को रूपांतरित करने का साहस होना चाहिए। युवा लोगों को प्रतिकूल परिस्थितियों के सामने नतमस्तक नहीं हो जाना चाहिए, बल्कि अपने भाइयों और बहनों के लिए माफ़ी की भावना के साथ खुला और स्पष्ट होना चाहिए। बेशक, मेरी ये अपेक्षाएँ सभी से हैं, और सभी को मेरी यह सलाह है। लेकिन इससे भी बढ़कर, ये सभी युवा लोगों के लिए मेरे सुखदायक वचन हैं। तुम लोगों को मेरे वचनों के अनुसार आचरण करना चाहिए। विशेष रूप से, युवा लोगों को मुद्दों में विवेक का उपयोग करने और न्याय और सत्य की तलाश करने के संकल्प से रहित नहीं होना चाहिए। तुम लोगों को सभी सुंदर और अच्छी चीज़ों का अनुसरण करना चाहिए, और तुम्हें सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता प्राप्त करनी चाहिए। तुम्हें अपने जीवन के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए और उसे हल्के में नहीं लेना चाहिए। लोग पृथ्वी पर आते हैं और मेरे सामने आ पाना दुर्लभ है, और सत्य को खोजने और प्राप्त करने का अवसर पाना भी दुर्लभ है। तुम लोग इस खूबसूरत समय को इस जीवन में अनुसरण करने का सही मार्ग मानकर महत्त्व क्यों नहीं दोगे?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, युवा और वृद्ध लोगों के लिए वचन)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे जीवन की नई समझ दी। मनुष्य को शोहरत और लाभ पाने के लिए जीने के बजाय, परमेश्वर की आराधना और सत्य का अनुसरण करना चाहिए, परमेश्वर के लिए खुद को खपाना चाहिए। मूल्यवान और सार्थक जीवन जीने का यही अर्थ है। सृजित प्राणियों के रूप में, अगर हमें शोहरत, लाभ और दूसरों का सम्मान मिल भी जाता है, मगर हम परमेश्वर की आराधना नहीं करते और सृजित प्राणियों के रूप में कर्तव्य नहीं निभाते, तो हमारा जीवन व्यर्थ चला जाएगा। शुरुआत में यह दावा करने के बाद भी कि मैं परमेश्वर का अनुसरण करूँगी, चीजों को त्याग कर खुद को खपाऊँगी, असल में मैंने इनमें से कुछ भी अभ्यास में नहीं लाया। मैं अब भी दैहिक सुख, भविष्य में अच्छी संभावनाएँ और दूसरों का सम्मान पाना चाहती थी। मैंने अभी भी मनुष्य के जीवन का सही अर्थ और मूल्य नहीं समझा था। मैंने सोचा कि कैसे मेरा अंत के दिनों में पैदा होना और इतनी छोटी उम्र में परमेश्वर का कार्य स्वीकारना एक आशीष और परमेश्वर का अनुग्रह था। परमेश्वर ने मेरे लिए इस लाभकारी परिवेश में बड़े होने की व्यवस्था की जिसमें मैंने चीनी सहित कई भाषाएँ बोलना सीखा, मुझे परमेश्वर के वचन पढ़ने का मौका मिला और कर्तव्य में अपने कौशल का उपयोग कर सकी। मेरी उम्र, पृष्ठभूमि और भाषा कौशल सभी सत्य का अनुसरण करने और कर्तव्य निर्वहन के लिए एकदम उपयुक्त थे। अगर मैं बिना सोचे-समझे सिर्फ शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागती, शोहरत और लाभ दोनों पाने में कामयाब रहती, पर परमेश्वर और सत्य का अनुसरण करने का मौका गँवा देती, तो उस कामयाबी का क्या फायदा होता? इस संसार में कोई भी चीज सत्य हासिल करने के बराबर नहीं है, लोग जिस जीवन को अच्छा समझते हैं और जिसकी सृष्टिकर्ता सराहना करता है उनके बीच कोई तुलना नहीं हो सकती। केवल परमेश्वर द्वारा सराहा गया जीवन ही सार्थक और मूल्यवान है। यह एहसास होने पर, मैंने सत्य का अनुसरण करने और समर्पण कर परमेश्वर को संतुष्ट करने का संकल्प लिया। मैं परमेश्वर के लिए खुद को खपाने के इरादे से यूनिवर्सिटी छोड़ने को भी तैयार थी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए कहा, मुझे इस उबाऊ, थकाऊ जीवनशैली से आजाद होना होगा, मुझे सत्य और परमेश्वर का अनुसरण करना और सही मार्ग पर चलना होगा।
बाद में, मैंने अपने सलाहकार को फोन करके बताया कि मैं यूनिवर्सिटी छोड़ने की सोच रही हूँ और उससे कॉलेज छोड़ने के आवेदन पर दस्तखत करने को कहा। परंतु, न सिर्फ उसने दस्तखत करने से इनकार किया, बल्कि यह भी कहा : “तुम्हारे ग्रेजुएशन में एक साल ही बचा है, अभी निकलना बड़े शर्म की बात होगी। तुम अच्छी तरह जानती हो कि ग्रेजुएट की तनख्वाह ग्रेजुएट न होने वाले की तनख्वाह से बहुत ज्यादा होती है। कॉलेज की डिग्री के बिना, तुम्हें शायद नौकरी मिलने में भी दिक्कत हो; तुम्हारे प्रति लोगों का नजरिया बदल जाएगा। अगर तुम्हें कोई समस्या है, तो एक साल अपनी पढ़ाई रोककर, जब सब ठीक हो जाए, तो वापस आ सकती हो। क्या यह बेहतर नहीं है?” अपने सलाहकार की सलाह सुनकर, मैं थोड़ी उलझन में पड़ गई। मैंने सोचा शायद मुझे उसकी बात मानकर अपनी पढ़ाई रोक देनी चाहिए ताकि बाद में वापस आ सकूँ। इस तरह, मैं ग्रेजुएट होकर अपनी डिग्री ले सकूँगी, अच्छी नौकरी पा सकूँगी और तब लोग मेरा सम्मान भी करेंगे। मगर मुझे लगा कि यह शैतान की धूर्त चाल भी हो सकती है। शैतान नहीं चाहता था कि मैं परमेश्वर का अनुसरण करूँ और कर्तव्य निभाऊँ, तो उसने मुझे लुभाने के लिए शोहरत और लाभ का इस्तेमाल किया। मैंने परमेश्वर के इन वचनों को याद किया : “जब परमेश्वर कार्य करता है, किसी की देखभाल करता है, उस पर नजर रखता है, और जब वह उस व्यक्ति पर अनुग्रह करता और उसे स्वीकृति देता है, तब शैतान करीब से उसका पीछा करता है, उस व्यक्ति को गुमराह करने और नुकसान पहुँचाने की कोशिश करता है। अगर परमेश्वर इस व्यक्ति को पाना चाहता है, तो शैतान परमेश्वर को रोकने के लिए अपने सामर्थ्य में सब-कुछ करता है, वह परमेश्वर के कार्य को प्रलोभित करने, उसमें विघ्न डालने और उसे खराब करने के लिए विभिन्न दुष्ट हथकंडों का इस्तेमाल करता है, ताकि वह अपना छिपा हुआ उद्देश्य हासिल कर सके। क्या है वह उद्देश्य? वह नहीं चाहता कि परमेश्वर किसी भी मनुष्य को प्राप्त कर सके; परमेश्वर जिन्हें पाना चाहता है, वह उन पर कब्जा कर लेना चाहता है, वह उन पर नियंत्रण करना, उनको अपने अधिकार में लेना चाहता है, ताकि वे उसकी आराधना करें, ताकि वे बुरे कार्य करने और परमेश्वर का प्रतिरोध करने में उसका साथ दें” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है IV)। अगर मैं परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए अपनी पढ़ाई छोड़ती, तो मेरे पास सत्य के अनुसरण और कर्तव्य निभाने के लिए ज्यादा समय होता, मगर मेरे सलाहकार ने मुझे लुभाने की कोशिश में कुछ बातें कहीं। बाहर से तो लग रहा था कि वो मेरा भला चाहता है, पर असल में इसके पीछे शैतान की धूर्त चाल काम कर रही थी। शैतान मुझे शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागना जारी रखने के लिए लुभाना चाहता था ताकि मैं शोहरत और लाभ के अनुसरण की दलदल में फँस जाऊँ। मैं शैतान की चाल में नहीं फँस सकती थी। यह एहसास होने पर, मैंने अपने सलाहकार को जवाब दिया : “मैं आपकी बात समझती हूँ, मगर अब मुझे परमेश्वर का तात्कालिक इरादा और भी स्पष्ट हो गया है। मैंने आस्था का यह मार्ग चुनने के बारे में बहुत सोच-विचार किया है और मैंने अपना मन बना लिया है। मैं अपना जीवन आस्था, परमेश्वर के अनुसरण, और उसके लिए खुद को खपाने में लगाऊँगी, और पढ़ाई के लिए कभी वापस नहीं लौटूँगी। मैंने यहाँ से निकलने का फैसला कर लिया है, उम्मीद है आप समझेंगे।” यह देखकर कि मैंने मन बना लिया है, सलाहकार ने मुझे और मनाने की कोशिश नहीं की, और कॉलेज छोड़ने के कागजातों पर दस्तखत कर दिया। तो मैं सीधे-सीधे निकल गई।
वहाँ से निकलने के बाद, मेरे पास अपना कर्तव्य निभाने के लिए काफी समय और ऊर्जा थी, और मैं परमेश्वर के समक्ष कहीं ज्यादा केंद्रित और शांत हो गई। अब मेरे पास परमेश्वर के वचनों पर चिंतन-मनन करने, भाई-बहनों के साथ संगति करने और कर्तव्य निभाने के लिए ज्यादा समय था। मैंने खुद को परमेश्वर के करीब आते हुए महसूस किया। इस बात को अब करीब डेढ़ साल हो गए हैं। अपना कर्तव्य निभाते हुए, मैंने भ्रष्ट स्वभाव दिखाए, मगर इससे मैंने दूसरों के साथ मिल-जुलकर काम करना सीखा, और जब मेरे सामने समस्याएँ आती हैं, तो मैं उनमें फँसने के बजाय उन्हें हल करने के लिए सत्य खोजती हूँ। पिछले एक साल में मैंने बहुत कुछ हासिल किया। अगर मैंने कर्तव्य निभाना शुरू करने के लिए एक साल और इंतजार किया होता, तो मैं सत्य प्राप्त करने के बहुत सारे अवसर गँवा देती, जो मेरे लिए बहुत बड़ा नुकसान होता। मैंने यह भी देखा है कि संसार में आपदाएँ अधिक से अधिक गंभीर होती जा रही हैं। यूक्रेन और रूस युद्ध लड़ रहे हैं, दुनिया भर में बड़े संघर्ष पैदा हो गए हैं, महामारी बढ़ गई है, भूकंप और बाढ़ की घटनाएँ बढ़ने लगी हैं। मैंने सोचा कि भले ही डिग्री लेकर मैं शोहरत, लाभ और सम्मान पा लेती, मगर आपदाएँ आने पर मेरा जीवन ही खत्म हो जाता तो सब कुछ निरर्थक ही होता। जैसा कि प्रभु यीशु ने कहा है : “यदि मनुष्य सारे जगत को प्राप्त करे और अपना प्राण खो दे या उसकी हानि उठाए, तो उसे क्या लाभ होगा?” (लूका 9:25)। मुझे परमेश्वर में विश्वास करके तहेदिल से उसका अनुसरण करना होगा, तभी मैं सत्य और जीवन हासिल कर सकूँगी। यह संसार की सबसे मूल्यवान चीज और सबसे बड़ी आशीष है! परमेश्वर का अनुसरण करने और सृजित प्राणी के रूप में कर्तव्य निभाने के लिए अपनी शिक्षा छोड़ने का मेरा फैसला अब तक का सबसे अच्छा फैसला है! परमेश्वर के मार्गदर्शन के लिए धन्यवाद!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?