21 साल की एक लड़की का मुश्किल फैसला
बचपन में मेरे माता-पिता ने मुझे बताया था कि परमेश्वर ने मनुष्य का सृजन किया है और इसलिए मनुष्य को सृष्टिकर्ता की आराधना करते हुए जीना चाहिए। बड़े होने पर मैंने भी सभाओं में भाग लेना शुरू कर दिया। लगभग 2017 में मेरी माँ को कुकर्मी बताकर निष्कासित कर दिया गया क्योंकि उसने कलीसिया के काम में बाधा डाली और हठपूर्वक पश्चात्ताप करने से इनकार कर दिया। तब से उसने मेरी आस्था में मेरा साथ देना बंद कर दिया। 2018 में मैंने कॉलेज में दाखिला लिया और जब मैं भी घर जाती या मेरी माँ मुझे फोन करती तो वह हमेशा मुझे कड़ी मेहनत करने के लिए कहती और मुझसे पूछती कि पढ़ाई और जीवन को लेकर मेरी क्या योजनाएँ हैं। वह शायद ही कभी परमेश्वर में अपनी आस्था का जिक्र करती और मैं भी अपनी पढ़ाई में व्यस्त रहती और शायद ही कभी परमेश्वर के वचन खाती और पीती, इसलिए मैं धीरे-धीरे परमेश्वर से दूर होती गई। मैं अक्सर खालीपन और थकावट महसूस करती थी।
एक दिन, जब मैं 2020 में सर्दियों की छुट्टियों के दौरान घर में थी तो मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति के जन्म से लेकर वर्तमान तक के दशकों के दौरान केवल उसके लिए कीमत ही नहीं चुकाता। परमेश्वर के अनुसार, तुम अनगिनत बार इस दुनिया में आए हो, और अनगिनत बार तुम्हारा पुनर्जन्म हुआ है। इसका प्रभारी कौन है? परमेश्वर इसका प्रभारी है। तुम्हारे पास इन चीजों को जानने का कोई तरीका नहीं है। हर बार जब तुम इस दुनिया में आते हो, परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से तुम्हारे लिए व्यवस्थाएं करता है : वह व्यवस्था करता है कि तुम कितने साल जियोगे, किस तरह के परिवार में पैदा होगे, कब तुम अपना घर और करियर बनाओगे, और साथ ही, तुम इस दुनिया में क्या करोगे और कैसे अपनी आजीविका चलाओगे। परमेश्वर तुम्हारे लिए आजीविका चलाने के तरीके की व्यवस्था करता है, ताकि तुम इस जीवन में बिना किसी बाधा के अपना मिशन पूरा कर सको। जहाँ तक यह बात है कि तुम अगले जन्म में क्या करोगे, इसकी व्यवस्था और उपाय परमेश्वर इस आधार पर करता है कि तुम्हारे पास क्या होना चाहिए और तुम्हें क्या दिया जाना चाहिए...। परमेश्वर तुम्हारे लिए ऐसी व्यवस्थाएं कितनी ही बार कर चुका है, और कम से कम तुम अंत के दिनों के युग में अपने वर्तमान परिवार में पैदा हुए हो। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए एक ऐसे परिवेश की व्यवस्था की है जिसमें तुम उस पर विश्वास कर सको; उसने तुम्हें अपनी वाणी सुनने और अपने पास वापस आने की अनुमति दी है, ताकि तुम उसका अनुसरण कर सको और उसके घर में कोई कर्तव्य निभा सको। परमेश्वर के ऐसे मार्गदर्शन की बदौलत ही तुम आज तक जीवित रहे। ... परमेश्वर इस दुनिया में पुनर्जन्म लेने वाली प्रत्येक आत्मा के लिए पूरी जिम्मेदारी लेता है। वह अपने जीवन का मूल्य चुकाते हुए, हर व्यक्ति का मार्गदर्शन करते हुए और उसके प्रत्येक जीवन को व्यवस्थित करते हुए बहुत ध्यान से काम करता है। मनुष्य की खातिर परमेश्वर इतना परिश्रम करता है और इतनी कीमत चुकाता है, और वह मनुष्य को ये सभी सत्य और यह जीवन प्रदान करता है। अगर लोग इन अंतिम दिनों में सृजित प्राणियों का कर्तव्य नहीं निभाते और वे सृष्टिकर्ता के पास नहीं लौटते—वे चाहे कितने ही जन्मों और पीढ़ियों से गुजरे हों, अगर अंत में, वे अपना कर्तव्य अच्छे से नहीं निभाते और परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने में विफल रहते हैं—तब क्या परमेश्वर के प्रति उनका कर्ज बहुत बड़ा नहीं हो जाएगा? क्या वे परमेश्वर की चुकाई सभी कीमतों का लाभ पाने के लिए अयोग्य नहीं हो जाएँगे? वे इतने विवेकहीन होंगे कि इंसान कहलाने लायक नहीं रहेंगे, क्योंकि परमेश्वर के प्रति उनका कर्ज बहुत बड़ा हो जाएगा। इसलिए, इस जीवन में—यहाँ तुम्हारे पिछले जन्मों की बात नहीं हो रही—अगर तुम अपने लक्ष्य की खातिर उन चीजों को त्यागने में नाकाम रहते हो जिनसे तुम्हें प्रेम है या दूसरी चीजें—जैसे सांसारिक आनंद और परिवार का प्रेम और सुख—अगर तुम उस कीमत के लिए देह-सुख नहीं छोड़ते जो परमेश्वर तुम्हारे लिए चुकाता है या तुम परमेश्वर के प्रेम का मूल्य नहीं चुकाते हो, तो तुम वाकई दुष्ट हो! दरअसल, परमेश्वर के लिए कोई भी कीमत चुकाना सार्थक है। तुम्हारे ओर से परमेश्वर जो कीमत चुकाता है उसकी तुलना में, तुम जो जरा-सी मेहनत करते हो या खुद को खपाते हो, उसका क्या मोल है? तुम्हारी जरा-सी तकलीफ का क्या मोल है? क्या तुम्हें पता है परमेश्वर ने कितनी पीड़ा सही है? परमेश्वर ने जितनी पीड़ा सही है उसकी तुलना में तुम्हारी तकलीफ की बात करना भी निरर्थक है। इसके अलावा, अपना कर्तव्य निभाकर, तुम सत्य और जीवन प्राप्त कर रहे हो, और अंत में, तुम जीवित रहोगे और परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करोगे। यह कितनी बड़ी आशीष है! जब तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम कष्ट सहते हो या नहीं, कीमत चुकाते हो या नहीं, वास्तव में तुम परमेश्वर के साथ काम कर रहे हो। परमेश्वर हमसे जो भी करने को कहता है, हम परमेश्वर के वचन सुनें और उनके अनुसार ही अभ्यास करें। परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह या ऐसा कुछ मत करना जिससे उसे दुख हो। परमेश्वर के साथ काम करने के लिए, तुम्हें थोड़ा कष्ट उठाना होगा, कुछ चीजों का त्याग करना होगा और कुछ चीजों को किनारे करना होगा। तुम्हें शोहरत, लाभ, रुतबा, पैसा और सांसारिक सुखों को छोड़ना होगा—यहाँ तक कि तुम्हें शादी-विवाह, कामकाज, और संसार में अपने उज्ज्वल भविष्य का भी त्याग करना होगा। क्या परमेश्वर जानता है कि तुमने इन चीजों को त्याग दिया है? क्या परमेश्वर यह सब देख सकता है? (हाँ।) परमेश्वर जब यह देखेगा कि तुमने इन चीजों को छोड़ दिया है तो वह क्या करेगा? (परमेश्वर को शांति मिलेगी, और वह प्रसन्न होगा।) परमेश्वर न केवल प्रसन्न होगा, बल्कि वह कहेगा, ‘जो कीमत मैंने चुकाई थी वह फलीभूत हो गई है। लोग मेरे साथ काम करने के इच्छुक हैं, उनके पास यह संकल्प है, और मैंने उन्हें हासिल कर लिया है।’ परमेश्वर खुश और प्रसन्न है या नहीं, वह संतुष्ट है या नहीं, उसे शांति मिली या नहीं, उसका यह रवैया है ही नहीं। वह कार्य भी करता है, और वह उन परिणामों को देखना चाहता है जो उसके कार्य को प्राप्त होते हैं, वरना लोगों से उसकी जो अपेक्षाएँ हैं वे व्यर्थ चली जाएँगी। परमेश्वर मनुष्य पर जो अनुग्रह, प्रेम और दया दिखाता है वह केवल दृष्टिकोण भर नहीं है—वे वास्तव में तथ्य भी हैं। वह तथ्य क्या है? वह यह है कि परमेश्वर अपने वचन तुम्हारे अंदर डालता है, तुम्हें प्रबुद्ध करता है, ताकि तुम देख सको कि उसमें क्या मनोहर है, और यह दुनिया क्या है, ताकि तुम्हारा हृदय रोशनी से भर जाए, तुम उसके वचन और सत्य समझ सको। इस तरह, अनजाने ही, तुम सत्य प्राप्त कर लेते हो। परमेश्वर बहुत वास्तविक तरीके से तुम पर बहुत सारा काम करके तुम्हें सत्य प्राप्त करने में सक्षम बनाता है। जब तुम सत्य प्राप्त कर लेते हो, जब तुम सबसे कीमती चीज, शाश्वत जीवन प्राप्त कर लेते हो, तब परमेश्वर के इरादे संतुष्ट होते हैं। जब परमेश्वर देखता है कि लोग सत्य का अनुसरण करते हैं और उसके साथ सहयोग करने के लिए तैयार हैं, तो वह खुश और संतुष्ट होता है। तब उसका एक दृष्टिकोण होता है, और जब उसका वह दृष्टिकोण होता है, तो वह काम करता है, और मनुष्य का अनुमोदन कर उसे आशीष देता है। वह कहता है, ‘मैं तुम्हें इनाम दूँगा, वह आशीष दूंगा जिसके तुम पात्र हो।’ और तब तुम सत्य और जीवन प्राप्त कर लेते हो। जब तुम्हें सृष्टिकर्ता का ज्ञान होता है और उससे प्रशंसा प्राप्त होती है, तब भी क्या तुम अपने दिल में खालीपन महसूस करोगे? तुम नहीं करोगे; तुम संतुष्ट होगे और आनंद की भावना महसूस करोगे। क्या किसी के जीवन का मूल्य होने का यही अर्थ नहीं है? यह सबसे मूल्यवान और सार्थक जीवन है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य प्राप्त करने के लिए कीमत चुकाना बहुत महत्वपूर्ण है)। मैंने परमेश्वर के वचनों से समझा कि मनुष्य के पास जो कुछ भी है वह परमेश्वर से आता है, हम आज सिर्फ इसलिए जीवित हैं क्योंकि परमेश्वर हमारी देखभाल और रक्षा करता है और जब लोग सृजित प्राणियों के रूप में अपने कर्तव्य निभाते हैं, तभी उनके पास अंतरात्मा होती है और वे सार्थक जीवन जीते हैं। मेरा अंत के दिनों में पैदा होना और परमेश्वर की वाणी सुनने का भाग्यशाली पाना परमेश्वर ने युगों पहले ही तय कर दिया था, साथ ही मेरी जिम्मेदारियाँ और मिशन भी तय कर दिए थे। भले ही मैं बचपन से ही आस्था में अपने माता-पिता का अनुसरण करती थी, लेकिन मैंने कभी कोई कर्तव्य नहीं निभाया था। मैं कॉलेज में दखिला लेते वक्त कर्तव्य निभाना चाहती थी, लेकिन मैं अपनी पढ़ाई और भविष्य की संभावनाओं को नहीं छोड़ पाई। मैं सिर्फ सभाओं में जाती थी क्योंकि यही नियम था, लेकिन मेरा दिल परमेश्वर से दूर था। पीछे मुड़कर देखूँ तो कॉलेज में मेरे साथ जुड़े लगभग सभी लोग अविश्वासी थे और समय के साथ मैं भी दुष्ट प्रवृत्तियों का अनुसरण करने लगी, खाने-पीने और मौज-मस्ती करने लगी। परमेश्वर के वचन खाने-पीने में बहुत कम समय बिताने लगी और मैं अधिक से अधिक स्वार्थी और धोखेबाज बनती गई। मैं उन लोगों से अलग नहीं थी जो विश्वास नहीं करते थे। मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा : “कर्तव्य निभाते हुए समस्याएँ हल करने के लिए सत्य की खोज करके ही लोग जीवन में आगे बढ़ सकते हैं” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (1))। मुझे समझ आया कि सिर्फ अपना कर्तव्य निभाकर और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करके ही हम सत्य पा सकते हैं और जीवन में आगे बढ़ते रह सकते हैं और अंततः परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए जा सकते हैं। अगर हम अपना कर्तव्य नहीं निभाते हैं और सांसारिक प्रवृत्तियों का अनुसरण करते हैं तो हम उद्धार कैसे पा सकते हैं? इसके बाद मैंने संयोग से परमेश्वर के वचनों का एक भजन सुना : “जागो, भाइयो! जागो, बहनो! मेरे दिन में देरी नहीं होगी; समय जीवन है, और समय को थाम लेना जीवन बचाना है! वह समय बहुत दूर नहीं है! यदि तुम लोग महाविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं होते, तो तुम पढ़ाई कर सकते हो और जितनी बार चाहो फिर से परीक्षा दे सकते हो। लेकिन, मेरा दिन अब और देरी बर्दाश्त नहीं करेगा। याद रखो! याद रखो! मैं इन अच्छे वचनों के साथ तुमसे आग्रह करता हूँ। दुनिया का अंत खुद तुम्हारी आँखों के सामने प्रकट हो रहा है, और बड़ी-बड़ी आपदाएँ तेज़ी से निकट आ रही हैं। क्या अधिक महत्वपूर्ण है : तुम लोगों का जीवन या तुम्हारा सोना, खाना-पीना और पहनना-ओढ़ना? समय आ गया है कि तुम इन चीज़ों पर विचार करो” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 30)। यह भजन सुनने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मेरे पास कर्तव्य निभाने के लिए ज्यादा समय नहीं बचा है। जब मैंने कॉलेज में प्रवेश के लिए परीक्षाएँ दीं, अगर मैं फेल हो जाती तो मैं एक और साल स्कूल में रहकर फिर से परीक्षाएँ दे सकती थी। लेकिन परमेश्वर द्वारा बचाए जाने का सिर्फ एक ही मौका है और अगर हम इसे चूक जाते हैं तो यह दोबारा नहीं मिलता। मैंने यह भी सोचा कि महामारी कितनी गंभीर है और कैसे परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा के बिना हम कभी भी मर सकते हैं। मुझे लगा कि महामारी परमेश्वर का मुझे चेतावनी देने का तरीका है। मैं सालों से सांसारिक प्रवृत्तियों के पीछे भागती रही और बहुत समय बर्बाद कर दिया, कर्तव्य निभाने और सत्य पाने के बहुत से मौके गँवा दिए। अब मैं कोई और मौका नहीं गँवाना चाहती थी। अगर मैंने इस कीमती समय का इस्तेमाल कर्तव्य निभाने और अच्छे कर्मों की तैयारी करने में नहीं किया तो मैं आपदा में बह जाऊँगी और पछताने का मौका नहीं मिलेगा। अब मुझे अपना कर्तव्य निभाने की तुरंत जरूरत महसूस हुई और जब महामारी के कारण लगा लॉकडाउन खत्म हुआ तो मैंने नए लोगों के सिंचन का कर्तव्य निभाना शुरू कर दिया।
चूँकि महामारी अभी भी फैल रही थी तो मैं ऑनलाइन क्लास ले रही थी और मेरी ज्यादा कक्षाएं नहीं हो रही थीं, इसलिए मैं क्लास लेने के साथ अपना कर्तव्य भी निभा सकती थी। मैंने कभी नहीं सोचा था कि इससे मेरी माँ नाखुश हो जाएगी। क्योंकि वह चाहती थी कि मैं अपने खाली समय में कोई पार्ट-टाइम नौकरी करूँ। एक रात उसने मुझसे गुस्से में पूछा, “मैंने तुम्हें नौकरी करने के लिए कहा था, तुमने इस बारे में क्या सोचा है?” मैंने कहा, “मुझे बस अपना कर्तव्य निभाना है।” वह बहुत गुस्सा हो गई और बोली, “मैं तुमसे अपना कर्तव्य निर्वहन बंद करने के लिए नहीं कह रही हूँ; तुम इसके साथ काम भी कर सकती हो। तुम्हें अपनी आस्था इतनी गंभीरता से नहीं लेनी चाहिए। मेरे जैसी मत बनो; मैंने सब कुछ छोड़ दिया और आखिर में मुझे निकाल दिया गया।” मैंने मन में सोचा, “क्या परमेश्वर पर आस्था रखते हुए दुनियादारी निभाना दो नावों की सवारी करने जैसा नहीं है? यह परमेश्वर में ईमानदार आस्था नहीं होगी! साथ ही तुम्हारा अपनी नौकरी और परिवार छोड़ना और तुम्हें निकाला जाना, दोनों अलग-अलग बातें हैं। तुम्हें इसलिए निकाला गया क्योंकि तुमने हर तरह की बुराई की और पश्चात्ताप करने से इनकार कर दिया।” इसलिए मैंने अपनी माँ से कहा, “मैं अभी पढ़ाई कर रही हूँ; अगर साथ में नौकरी भी करूँगी तो मुझे अपना कर्तव्य निभाने का समय कैसे मिलेगा? मैं नौकरी नहीं करूँगी।” मेरी माँ ने मुझे डाँटते हुए कहा, “लगता है तुम मेरी कोई भी बात नहीं मानोगी। तुम्हें नहीं लगता कि मैं सिर्फ तुम्हारा भला ही चाहती हूँ?” मैंने कहा, “मैं किसी भी और चीज पर तुम्हारी बात सुनूँगी; पर इस मामले में नहीं।” वह इतनी नाराज हो गई कि उसने मेरा लैपटॉप उठाकर पटक दिया। मुझे लगा कि मेरे साथ गलत हुआ है और मुझे समझ नहीं आया कि उसे इतना गुस्सा क्यों आया। उसके बाद जब भी मुझे किसी सभा में जाना होता या कर्तव्य निभाना होता तो वह मुझे कुछ काम दे देती। कभी-कभी मैं घर से जल्दी बाहर निकलती और वह मुझ पर गुस्सा हो जाती और मुझे डांटती।
एक दिन उसने मुझसे पूछा, “भविष्य के बारे में तुमने क्या सोचा है?” मैंने कहा, “मैंने परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाने का फैसला किया है।” उसने देखा कि मैं अपने कर्तव्य को प्राथमिकता दे रही हूँ, इसलिए उसने कठोर भाव से कहा, “इतने सालों तक मैंने तुम्हें पाल-पोस कर बढ़ा किया लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ। मेरे लिए एक कुत्ता पालना बेहतर होता। मैं उस कुत्ते को खाना खिलाती तो वह मुझे देखकर अपनी पूँछ हिलाता। मैंने तुम्हारे लिए जो भी मेहनत की, उसके बदले में मुझे क्या मिला? अभी निकल जाओ। जहाँ दिल करे वहाँ चली जाओ। मुझे इस घर में कोई मुफ्तखोर नहीं चाहिए!” यह सुनकर मैं दंग रह गई और सोचने लगी, “मैं बस परमेश्वर में विश्वास करती हूँ; मैंने कोई गलत काम नहीं किया है और फिर भी तुम मुझे बाहर निकालना चाहती हो।” मेरी माँ कहती गई, “अगर तुम अपनी आस्था और कर्तव्य पर कायम रही तो यह परिवार टूट जाएगा। आज से मेरी कोई बेटी नहीं होगी और तुम्हारी कोई माँ नहीं होगी। मैंने तुम्हें बेकार ही पाला है!” जब उसने ऐसा कहा तो मुझे बहुत दुख हुआ और मुझे लगा कि मेरे साथ गलत हुआ है। मैंने सोचा, “मेरी माँ परमेश्वर में विश्वास करती थी; क्या उसे मेरा साथ नहीं देना चाहिए? वह मुझे क्यों रोक रही है?” मुझे लगा कि मेरे सामने दो रास्ते हैं : परमेश्वर में आस्था रखने, अपना कर्तव्य निभाने और अपनी माँ के साथ अपने रिश्ते खत्म करने का रास्ता, और अपने स्नेह को संतुष्ट करने, परमेश्वर को धोखा देने और अपना कर्तव्य नहीं निभा पाने का रास्ता। जब मेरे सामने विकल्प आए तो मेरा दिल दो हिस्सों में बँट गया। मुझे अपनी माँ से बहुत गहरा लगाव था। उसने मुझे जीवन भर बहुत प्यार किया था। उसने अच्छा खाना नहीं खाया, नए कपड़े नहीं पहने लेकिन मुझे हमेशा बेहतरीन चीजें दीं। वह मेरे लिए सबसे अहम इंसान थी। लेकिन मैं परमेश्वर को भी नहीं छोड़ सकती थी। परमेश्वर ने मुझे जीवन दिया था। परमेश्वर ने ही मुझे मेरी जीवंत साँस दी थी और मैं बड़ी हो रही थी तब उसने मेरी देखभाल और रक्षा की। मेरी सेहत कभी अच्छी नहीं रहती थी और मैं अक्सर बीमार पड़ जाती थी। परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा के बिना मैं बहुत पहले ही मर गई होती और आज यहाँ नहीं होती। अगर मैं अपनी माँ को छोड़ दूँ तो कम से कम मैं जी तो पाऊँगी। लेकिन अगर मैंने परमेश्वर को छोड़ दिया तो क्या मैं सिर्फ एक चलती-फिरती लाश नहीं बनकर रह जाऊँगी? फिर जीवन का क्या मतलब रह जाएगा? मुझे पता था कि मुझे परमेश्वर में आस्था रखनी होगी, लेकिन अगर मैंने वह चुनाव किया तो क्या भविष्य में मेरी कोई माँ नहीं होगी? मेरा प्यारा अच्छा परिवार खो जाएगा। मुझे अपनी माँ की ओर से बहुत दबाव महसूस हुआ। दोनों में एक चुनना क्यों जरूरी था? मुझे यह चुनाव क्यों करना था? फिर मैंने परमेश्वर के वचनों के एक अंश के बारे में सोचा, जो मैंने पहले पढ़ा था : “परमेश्वर द्वारा मनुष्य के भीतर किए जाने वाले कार्य के प्रत्येक चरण में, बाहर से यह लोगों के मध्य अंतःक्रिया प्रतीत होता है, मानो यह मानव-व्यवस्थाओं द्वारा या मानवीय विघ्न से उत्पन्न हुआ हो। किंतु पर्दे के पीछे, कार्य का प्रत्येक चरण, और घटित होने वाली हर चीज, शैतान द्वारा परमेश्वर के सामने चली गई बाजी है, और लोगों से अपेक्षित है कि वे परमेश्वर के लिए अपनी गवाही में अडिग बने रहें। उदाहरण के लिए, जब अय्यूब को आजमाया गया था : पर्दे के पीछे शैतान परमेश्वर के साथ दाँव लगा रहा था, और अय्यूब के साथ जो हुआ वह मनुष्यों के कर्म थे, और मनुष्यों का विघ्न था। परमेश्वर द्वारा तुम लोगों में किए गए कार्य के हर कदम के पीछे शैतान की परमेश्वर के साथ बाजी होती है—इस सब के पीछे एक संघर्ष होता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल परमेश्वर से प्रेम करना ही वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करना है)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे समझाया कि भले ही सतह पर ऐसा लग रहा है कि मेरी माँ मुझ पर दबाव डाल रही है और मुझे चुनने के लिए मजबूर कर रही है, लेकिन इस सब के पीछे आध्यात्मिक लड़ाई है। यह शैतान का प्रलोभन भी था। शैतान मेरी सबसे बड़ी कमजोरी जानता था और इसलिए उसने स्नेह का इस्तेमाल करके मुझ पर अपनी आस्था त्यागने का दबाव बनाया। अगर मैंने अपनी माँ का अनुसरण किया होता अपनी आस्था और कर्तव्य त्याग दिए होते तो मैं शैतान की चाल में फँस जाती और उद्धार पाने का मौका गँवा देती। चाहे मुझे मेरे घर से निकाला जाए या नहीं, मैं स्नेह के लिए परमेश्वर को धोखा नहीं दे सकती और अपना कर्तव्य नहीं छोड़ सकती। मैंने परमेश्वर के और भी वचनों के बारे में सोचा : “जब परीक्षणों से तुम्हारा सामना हो, तो तुम्हें परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहिए, भले ही तुम फूट-फूटकर रोओ या अपनी किसी प्यारी चीज से अलग होने के लिए अनिच्छुक महसूस करो। केवल यही सच्चा प्यार और विश्वास है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा)। मेरे दिल को ताकत मिल गई। भविष्य में चाहे मुझे कुछ भी झेलना पड़े, मैं आगे बढ़ने के लिए परमेश्वर पर भरोसा करूँगी। इसलिए मैंने माँ से कहा, “मुझे हमेशा से यह परिवार चाहिए था और मुझे हमेशा से तुम और पापा चाहिए थे। मैं चाहे आधा पेट भरके और कम खर्च करके रह लूँगी और तुम्हारी अच्छी बेटी बनूँगी। अगर मैं तुम्हारी जरूरतें पूरा नहीं कर सकती तो इसका मतलब है कि मैं ऐसा कर नहीं पा रही। मैं इससे बेहतर नहीं कर सकती। लेकिन परमेश्वर पर विश्वास करना और अपना कर्तव्य निभाना ही सही मार्ग है और मैं इसे छोड़ नहीं सकती।” मेरी माँ बेहद नाराज हो गई और बाद में वहाँ से चली गई और कहीं और किराए पर रहने लगी।
कभी-कभी मेरी माँ मुझे बात करने के लिए अपने किराए के घर पर बुला लेती थी। एक बार उसने मुझसे कहा, “तुम्हारे पापा की सेहत ठीक नहीं है। तुम्हें उनके बारे में सोचना होगा। अगर किसी दिन वह बीमार पड़ गए तो तुम क्या करोगी? मैंने कभी नहीं कहा कि तुम परमेश्वर में विश्वास नहीं कर सकती। फलां-फलां लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं और वे नौकरी भी करते हैं, है न? तुम्हें आस्था को इतनी गंभीरता से नहीं लेना चाहिए। तुम्हें नौकरी करने के लिए कहकर मैं तुम्हारे भविष्य के बारे में ही सोच रही हूँ ना?” मैं बहुत परेशान थी। मेरे पापा की सेहत पिछले कुछ सालों से बहुत अच्छी नहीं थी। अगर वह वाकई बीमार पड़ गए तो मैं उनकी बेटी होने के नाते मैं बिना पैसे के क्या करूँगी? जितना मैं इसके बारे में सोचती, मैं उतनी ही दुखी होती। मैं अपने दिल में परमेश्वर से प्रार्थना करती रही, “हे परमेश्वर, मुझे शैतान के जाल से बचाओ। मैं तुम्हें संतुष्ट करना चाहती हूँ, लेकिन मैं कमजोर हूँ। मैं जल्द ही इस घेरे में टूट जाऊँगी। मुझे शैतान की चाल समझने और तुम्हारे सामने अपनी गवाही में दृढ़ रहने की आस्था दो।” प्रार्थना करने के बाद परमेश्वर के ये वचन मेरे मन में आए : “तुम उन्हें मेरे हाथों में क्यों नहीं सौंप देते? क्या तुम्हें मुझ पर पर्याप्त विश्वास नहीं है? या ऐसा है कि तुम डरते हो कि मैं तुम्हारे लिए अनुचित व्यवस्थाएँ करूँगा?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 59)। परमेश्वर के वचनों से अचानक मेरे दिल में रोशनी आ गई। परमेश्वर सब पर संप्रभुता रखता है और वह हमारा जीवन और मृत्यु नियंत्रित करता है। निश्चित रूप से इससे भी ज्यादा वह इस बात पर संप्रभुता रखता है कि कोई बीमार होगा या नहीं? भविष्य में मेरे पापा बीमार होंगे या नहीं या उनकी सेहत कैसी रहेगी, यह ऐसी चीजें नहीं थीं जिन्हें मैं नियंत्रित कर सकती थी। मुझे उन्हें परमेश्वर के हाथों में छोड़ देना चाहिए और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के अधीन हो जाना चाहिए। मैं यह भी समझ गई कि मेरी माँ शैतान की अनुचर बन गई थी। मेरे साथ कठोर होकर भी वह नाकाम रही तो उसने नरम रुख अपनाया, मुझे परमेश्वर को धोखा देने के लिए लुभाने और फुसलाने के लिए हर संभव तरीका अपनाया। इसलिए मैंने माँ से कहा, “मैं अब वयस्क हूँ। मैं अपने लिए सोच सकती हूँ और अपने फैसले ले सकती हूँ। मैं परमेश्वर में आस्था रखने पर अटल हूँ। मेरी आस्था सिर्फ परमेश्वर को स्वीकारने और दिल में उस पर विश्वास करने से कहीं ज्यादा है। अगर मैं अपना कर्तव्य नहीं निभाती हूँ तो क्या सच में मेरी परमेश्वर में आस्था होगी? मुझे इस बात की परवाह नहीं है कि तुमने जिन लोगों का जिक्र किया है वे परमेश्वर में कैसे विश्वास करते हैं। अगर उनका पतन हो रहा है तो क्या मुझे भी उनका अनुसरण करना चाहिए? ऐसा नहीं है कि मेरे पास अंतरात्मा नहीं है। मेरे पास अंतरात्मा है तभी मैं जानती हूँ कि मुझे क्या करना है और क्या नहीं।” मेरी माँ यह सुनकर चुप हो गई। मुझे पता था कि मैं ये शब्द नहीं कह सकती थी। शैतान की साजिशों का मुकाबला करने के लिए परमेश्वर ही मेरा मार्गदर्शन कर रहा था।
फिर भी घर जाते समय मैं बहुत परेशान थी। मेरी माँ मुझसे बार-बार बात करती रही, और मुझे समझ नहीं आया कि वह हमेशा मेरे साथ ऐसा क्यों करती है या वह हमेशा क्यों चाहती है कि मैं या तो अपनी आस्था चुनूँ या तो उसे और पापा को। यह सब आखिर कब खत्म होगा? मैं वाकई अब इस स्थिति से गुजरना नहीं चाहती थी। चलते-चलते मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया : “जब परमेश्वर मनुष्य का शोधन करने के लिए कार्य करता है, तो मनुष्य को कष्ट होता है। जितना अधिक मनुष्य का शोधन होगा, उसके पास उतना ही अधिक परमेश्वर-प्रेमी हृदय होगा, और परमेश्वर की शक्ति उसमें उतनी ही अधिक प्रकट होगी। इसके विपरीत, मनुष्य का शोधन जितना कम होता है, उसमें परमेश्वर-प्रेमी हृदय उतना ही कम होगा, और परमेश्वर की शक्ति उसमें उतनी ही कम प्रकट होगी। ऐसे व्यक्ति का शोधन और पीड़ा जितनी अधिक होगी और जितनी अधिक यातना वह सहेगा, परमेश्वर के प्रति उसका प्रेम उतना ही गहरा होता जाएगा और परमेश्वर में उसका विश्वास उतना ही अधिक सच्चा हो जाएगा, और परमेश्वर के विषय में उसका ज्ञान भी उतना ही अधिक गहन होगा” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा)। चलते-चलते मैंने परमेश्वर के वचनों के इस अंश पर विचार किया और मुझे पता भी नहीं चला कि कब मेरे हृदय में ऊर्जा भर गई। सिर्फ इसलिए कि मैंने अब आस्था का मार्ग चुना है, तभी शैतान मुझे रोकने की कोशिश कर रहा है। अगर मैं परमेश्वर पर विश्वास नहीं करती और अपना कर्तव्य नहीं निभाती तो मेरा इस तरह से शोधन नहीं होता। मैंने उन कई भाई-बहनों के बारे में सोचा जो परमेश्वर पर विश्वास करने के कारण उत्पीड़न सह रहे थे और अपने परिवारों से बाधाएँ झेल रहे थे, लेकिन उन्होंने कभी अपनी आस्था या कर्तव्य नहीं छोड़ा। इसके बजाय उन्होंने परमेश्वर से प्रार्थना की और अपनी गवाही में दृढ़ रहने के लिए उस पर भरोसा किया। मैंने अब परमेश्वर का अनुसरण करना और सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना चुना था। शैतान मुझे इतनी आसानी से जाने नहीं दे सकता था, इसलिए वह मेरी माँ के जरिए मुझे लगातार सताते हुए परमेश्वर से दूर करने की कोशिश कर रहा था। परमेश्वर इस उत्पीड़न का उपयोग अपने प्रति मेरे आस्था को पूर्ण बनाने के लिए भी कर रहा था ताकि मैं अपनी गवाही में दृढ़ रहने के लिए उस पर भरोसा करना सीखूँ। एक बार जब मुझे यह बात समझ आ गई तो मैं बहुत भावुक हो गई। जब मैं नकारात्मक थी तो परमेश्वर ने मुझे नहीं छोड़ा था बल्कि उसने अपने वचनों का उपयोग करके मेरा मार्गदर्शन किया था, जिससे मैं दृढ़ रह पाई और शैतान के बहकावे में नहीं आई। मुझे लगा कि परमेश्वर मेरे साथ है, हाथ पकड़कर मुझे आगे ले जा रहा है। मुझे बहुत स्थिरता और सहारा मिला और मेरे पास इस स्थिति से बाहर निकलने के लिए आस्था थी।
डेढ़ महीने बाद मेरी माँ घर वापस आ गई। एक सुबह मेरी माँ मेरे कमरे में आई और पूछने लगी कि मैंने नौकरी के बारे में क्या सोचा है। मैंने कहा, “मैंने अपना विचार नहीं बदला है। मैंने परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाने का चुनाव किया है।” उन्होंने मुझे कृतघ्न दुष्ट कहा और गुस्से में मुझे मारने लगीं। मुझे ठीक से याद नहीं है कि उसने मुझे कितने थप्पड़ मारे। उसने मुझे गर्दन से पकड़ लिया और मेरा सिर दीवार पर पटक दिया। जब मेरी साँस रुकने वाली थी, तब जाकर वह रुकी। मैं सच में समझ नहीं पाई कि वह मेरे साथ ऐसा क्यों कर रही है। क्या मैं सिर्फ परमेश्वर पर विश्वास करके अपना कर्तव्य नहीं निभा रही थी? मैं कुछ भी बुरा नहीं कर रही थी। जब वह मुझे मार रही थी तो मैंने सोचा कि भाई-बहनों को बड़े लाल अजगर द्वारा क्रूरतापूर्वक प्रताड़ित किया जा रहा है। बड़ा लाल अजगर शैतानों का राजा है और वह भाई-बहनों को बहुत कष्ट देता है। लेकिन यह मेरी माँ थी। वह मेरेे लिए सबसे करीबी इंसान थी और उसने मुझे इतनी जोर से मारा, मुझे शारीरिक दर्द महसूस नहीं हुआ—इससे मेरा दिल टूट गया।
जल्द ही 2021 का वसंत आ गया। एक दिन मैं अपना कर्तव्य निभाकर घर आई ही थी और मेरी माँ कुछ छोटी-छोटी बातों पर जानबूझकर मुझसे झगड़ा करने लगी। वह मुझे फिर से मारने के लिए उठी और चिल्लाई, “मैंने इतने सालों तक तुम्हें पाला और इससे कुछ भी भला नहीं हुआ। ऐसे ही रहना है तो निकल जाओ। बाहर निकलो! मैं मान लूँगी कि तुम मेरी बेटी नहीं हो। मैंने तुम्हें पैदा नहीं किया है!” मैंने सोचा, “अब मैं घर छोड़कर ही अपना कर्तव्य निभा सकती हूँ। लेकिन सच कहूँ तो मैं अपने माता-पिता को भी नहीं छोड़ना चाहती थी। घर से बाहर निकलने का मतलब अकेले रहना होता। मैं जरा भी साहसी नहीं थी। जब मैंने सोचा कि मैं ऐसा बच्चा बन जाऊँगी जिसका कोई परिवार नहीं है तो मुझे बहुत दुख हुआ। अगर मुझे अपनी आस्था छोड़ने के लिए मजबूर किया जाता तो मैं अपना घर बचा सकती थी, लेकिन मैंने परमेश्वर के इतने अनुग्रह का आनन्द लिया है और परमेश्वर के इतने सारे वचन खाए और पिए हैं, अगर मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा पाई तो मेरी अंतरात्मा कहाँ होगी?” उसी पल मैं बहुत उदास हो गई, मानो किसी ने चाकू से मेरा दिल चीर दिया हो। इतने अधिक दर्द के बीच मैंने मरने के बारे में सोचा। मैंने सोचा कि अगर मैं मर जाऊँ तो मुझे इतना दर्द नहीं सहना पड़ेगा। जब मुझे सबसे ज्यादा दर्द हुआ तो मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “आज अधिकतर लोगों के पास यह ज्ञान नहीं है। वे मानते हैं कि कष्टों का कोई मूल्य नहीं है, कष्ट उठाने वाले संसार द्वारा त्याग दिए जाते हैं, उनका पारिवारिक जीवन अशांत रहता है, वे परमेश्वर के प्रिय नहीं होते, और उनकी संभावनाएँ धूमिल होती हैं। कुछ लोगों के कष्ट चरम तक पहुँच जाते हैं, और उनके विचार मृत्यु की ओर मुड़ जाते हैं। यह परमेश्वर के लिए सच्चा प्रेम नहीं है; ऐसे लोग कायर होते हैं, उनमें धीरज नहीं होता, वे कमजोर और शक्तिहीन होते हैं! परमेश्वर उत्सुक है कि मनुष्य उससे प्रेम करे, परंतु मनुष्य जितना अधिक उससे प्रेम करता है, उसके कष्ट उतने अधिक बढ़ते हैं, और जितना अधिक मनुष्य उससे प्रेम करता है, उसके परीक्षण उतने अधिक बढ़ते हैं। यदि तुम उससे प्रेम करते हो, तो तुम्हें हर प्रकार के कष्ट झेलने पड़ेंगे—और यदि तुम उससे प्रेम नहीं करते, तब शायद सब-कुछ तुम्हारे लिए सुचारु रूप से चलता रहेगा और तुम्हारे चारों ओर सब-कुछ शांतिपूर्ण होगा। जब तुम परमेश्वर से प्रेम करते हो, तो तुम महसूस करोगे कि तुम्हारे चारों ओर बहुत-कुछ दुर्गम है, और चूँकि तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, इसलिए तुम्हारा शोधन किया जाएगा; इसके अलावा, तुम परमेश्वर को संतुष्ट करने में असमर्थ रहोगे और हमेशा महसूस करोगे कि परमेश्वर के इरादे बहुत बड़े हैं और वे मनुष्य की पहुँच से बाहर हैं। इस सबकी वजह से तुम्हारा शोधन किया जाएगा—क्योंकि तुममें बहुत निर्बलता है, और बहुत-कुछ ऐसा है जो परमेश्वर के इरादे पूरे करने में असमर्थ है, इसलिए तुम्हारा भीतर से शोधन किया जाएगा। फिर भी तुम लोगों को यह स्पष्ट देखना चाहिए कि शुद्धिकरण केवल शोधन के द्वारा ही प्राप्त किया जाता है। इस प्रकार, इन अंत के दिनों में तुम लोगों को परमेश्वर की गवाही देनी चाहिए। चाहे तुम्हारे कष्ट कितने भी बड़े क्यों न हों, तुम्हें बिलकुल अंत तक चलना चाहिए, यहाँ तक कि अपनी अंतिम साँस पर भी तुम्हें परमेश्वर के प्रति निष्ठावान और उसके आयोजनों के प्रति समर्पित होना चाहिए; केवल यही वास्तव में परमेश्वर से प्रेम करना है, और केवल यही सशक्त और जोरदार गवाही है। ... परमेश्वर के अधिकांश कार्य से यह देखा जा सकता है कि परमेश्वर सचमुच मनुष्य से प्रेम करता है, हालाँकि मनुष्य की आत्मा की आँखों का पूरी तरह से खुलना अभी बाकी है, और वह परमेश्वर के अधिकांश कार्य और उसके इरादों को, और उससे संबंधित बहुत-सी प्यारी चीजों को देखने में असमर्थ है; मनुष्य में परमेश्वर के प्रति सच्चा प्रेम बहुत कम है। तुमने इस पूरे समय के दौरान परमेश्वर पर विश्वास किया है, और आज परमेश्वर ने बच निकलने के सारे मार्ग बंद कर दिए हैं। सच कहूँ तो, तुम्हारे पास सही मार्ग अपनाने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है, वह सही मार्ग, जिस पर तुम्हें परमेश्वर द्वारा अपने कठोर न्याय और सर्वोच्च उद्धार द्वारा लाया गया है। कठिनाई और शोधन का अनुभव करने के बाद ही मनुष्य जान पाता है कि परमेश्वर प्यारा है। आज तक इसका अनुभव करने के बाद कहा जा सकता है कि मनुष्य परमेश्वर की मनोहरता का एक अंश जान गया है, परंतु यह अभी भी अपर्याप्त है, क्योंकि मनुष्य में बहुत सारी कमियाँ हैं। मनुष्य को परमेश्वर के अद्भुत कार्यों का और परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित कष्टों के शोधन का और अधिक अनुभव करना चाहिए। तभी मनुष्य का जीवन स्वभाव बदल सकता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पीड़ादायक परीक्षणों के अनुभव से ही तुम परमेश्वर की मनोहरता को जान सकते हो)। इसे पढ़ने के बाद मुझे बहुत दर्द हुआ। दुख का सामना करना परमेश्वर का प्रेम है, लेकिन मुझे हमेशा लगता था कि यह स्थिति बहुत दर्दनाक है और मैं इससे गुजरना नहीं चाहती थी। मैं वाकई बहुत नाजुक थी। मैंने कहा कि मैं अपना कर्तव्य निभाना चाहती हूँ लेकिन जब हालात मुश्किल हो गए तो मैं पीछे हटना चाहती थी और यहाँ तक कि मरने के बारे में भी सोच रही था। क्या यह वाकई मेरा शैतान की चाल में फँसना नहीं था? अगर मैं घर छोड़ दूँ तो भी मेरे पास परमेश्वर होगा। यह मुझे स्वतंत्र रूप से जीने के लिए प्रशिक्षित करने और समस्याएँ आने पर परमेश्वर पर भरोसा करना सिखाने के लिए एकदम सही था। यह मेरे जीवन के लिए फायदेमंद था। एक बार जब मैंने परमेश्वर का इरादा समझ लिया तो मेरे दिल में अब और पीड़ा नहीं हुई। मैं अपनी वर्तमान स्थिति से गुजरने के लिए तैयार थी। मैंने घुटने टेके और परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, चाहे आगे का रास्ता कितना भी कठिन क्यों न हो, मैं दृढ़ता से आगे बढ़ती रहूँगी। मेरा मार्गदर्शन करो।” प्रार्थना करने के बाद मुझे और भी शांति और सुकून मिला। अगले दिन मैंने अपनी माँ से कहा कि मैं कहीं किराए पर रहने जा रही हूँ। अप्रत्याशित रूप से उसका रवैया अचानक बदल गया और वह खुद ही मुझसे बात करने लगी। अगले कुछ दिनों में उसका रवैया काफी नरम हो गया। मैंने अब्राहम के बारे में सोचा। जब परमेश्वर ने उसे अपना सबसे प्यारे बेटा परमेश्वर को अर्पित करने के लिए कहा, भले ही वह ऐसा करने के लिए अनिच्छुक था, जब उसने अपना बेटा परमेश्वर को अर्पित करने का निश्चय किया तो परमेश्वर ने उसे नहीं लिया। परमेश्वर चाहता था कि अब्राहम ईमानदारी और आज्ञाकारिता दिखाए। इस अनुभव के बारे में सोचते हुए मुझे लगता है कि परमेश्वर मेरी परीक्षा ले रहा था। एक बार जब मैंने अपना कर्तव्य निभाने का संकल्प कर लिया तो शैतान के पास कोई सहारा नहीं बचा, और मैं आखिरकार बिना किसी बाधा के अपना कर्तव्य निभा सकी।
बाद में मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े और अपनी माँ के बारे में कुछ समझ हासिल की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “भाइयों-बहनों में से जो लोग हमेशा अपनी नकारात्मकता का गुबार निकालते रहते हैं, वे शैतान के अनुचर हैं और वे कलीसिया को परेशान करते हैं। ऐसे लोगों को अवश्य ही एक दिन निकाल दिया जाना चाहिए। परमेश्वर में विश्वास रखते हुए अगर लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल न हो, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला दिल न हो, तो ऐसे लोग न सिर्फ परमेश्वर के लिए कोई कार्य कर पाने में असमर्थ होंगे, बल्कि वे परमेश्वर के कार्य में बाधा डालने वाले और उसका विरोध करने वाले लोग बन जाएंगे। परमेश्वर में विश्वास करना किन्तु उसके प्रति समर्पण न करना या उसका भय न मानना और उसका प्रतिरोध करना, किसी भी विश्वासी के लिए सबसे बड़ा कलंक है। यदि विश्वासी अपनी बोली और आचरण में हमेशा ठीक उसी तरह लापरवाह और असंयमित हों जैसे अविश्वासी होते हैं, तो ऐसे लोग अविश्वासी से भी अधिक दुष्ट होते हैं; ये मूल रूप से राक्षस हैं। जो लोग कलीसिया के भीतर विषैली, दुर्भावनापूर्ण बातों का गुबार निकालते हैं, भाई-बहनों के बीच अफवाहें व अशांति फैलाते हैं और गुटबाजी करते हैं, तो ऐसे सभी लोगों को कलीसिया से निकाल दिया जाना चाहिए था। अब चूँकि यह परमेश्वर के कार्य का एक भिन्न युग है, इसलिए ऐसे लोग नियंत्रित हैं, क्योंकि उन्हें निश्चित रूप से निकाला जाना है। शैतान द्वारा भ्रष्ट ऐसे सभी लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हैं। कुछ के स्वभाव पूरी तरह से भ्रष्ट हैं, जबकि अन्य लोग इनसे भिन्न हैं : न केवल उनके स्वभाव शैतानी हैं, बल्कि उनकी प्रकृति भी बेहद विद्वेषपूर्ण है। उनके शब्द और कृत्य न केवल उनके भ्रष्ट, शैतानी स्वभाव को प्रकट करते हैं, बल्कि ये लोग असली दानव और शैतान हैं। उनके आचरण से परमेश्वर के कार्य में गड़बड़ी और विघ्न पैदा होता है; इससे भाई-बहनों के जीवन प्रवेश में विघ्न पड़ता है और कलीसिया के सामान्य कार्यकलापों को क्षति पहुंचती है। आज नहीं तो कल, भेड़ की खाल में छिपे इन भेड़ियों का सफाया किया जाना चाहिए, और शैतान के इन अनुचरों के प्रति एक सख्त और अस्वीकृति का रवैया अपनाया जाना चाहिए। केवल ऐसा करना ही परमेश्वर के पक्ष में खड़ा होना है; और जो ऐसा करने में विफल हैं वे शैतान के साथ कीचड़ में लोट रहे हैं। जो लोग सच्चे मन से परमेश्वर में विश्वास करते हैं, परमेश्वर उनके हृदय में बसता है और उनके भीतर हमेशा परमेश्वर का भय मानने और उसे प्रेम करने वाला हृदय होता है। जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उन्हें सावधानी और समझदारी से कार्य करना चाहिए, और वे जो कुछ भी करें वह परमेश्वर की अपेक्षा के अनुरूप होना चाहिये, उसके हृदय को संतुष्ट करने में सक्षम होना चाहिए। उन्हें मनमाने ढंग से कुछ भी करते हुए दुराग्रही नहीं होना चाहिए; ऐसा करना संतों की शिष्टता के अनुकूल नहीं होता। छल-प्रपंच में लिप्त चारों तरफ अपनी अकड़ में चलते हुए, सभी जगह परमेश्वर का ध्वज लहराते हुए लोग उन्मत्त होकर हिंसा पर उतारू न हों; यह बहुत ही विद्रोही प्रकार का आचरण है। परिवारों के अपने नियम होते हैं और राष्ट्रों के अपने कानून; क्या परमेश्वर के घर में यह बात और भी अधिक लागू नहीं होती? क्या इसके मानक और भी अधिक सख़्त नहीं हैं? क्या इसके पास प्रशासनिक आदेश और भी ज्यादा नहीं हैं? लोग जो चाहें वह करने के लिए स्वतंत्र हैं, परन्तु परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों को इच्छानुसार नहीं बदला जा सकता। परमेश्वर आखिर परमेश्वर है जो मानव के अपराध को सहन नहीं करता; वह परमेश्वर है जो लोगों को मौत की सजा देता है। क्या लोग यह सब पहले से ही नहीं जानते?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी)। मैंने देखा कि परमेश्वर जो उजागर कर रहा था, वह दरअसल मेरी माँ का व्यवहार था। मुझे पहले कभी अपनी माँ के बारे में कोई समझ नहीं थी और मुझे लगता था कि मेरी आस्था और कर्तव्य निर्वहन में वह मुझे समझ सकेगी और मेरा साथ देगी। सिर्फ उसके अवरोधों और उत्पीड़न से ही मैंने उसके बुरे होने का सार देखना शुरू किया। सब कुछ समझते हुए भी उसने मुझे सताया और मेरी आस्था में बाधा डाली। यह उसके परमेश्वर से घृणा करने वाले सार द्वारा निर्धारित किया गया था। मैं पहले उसके दिखावे से गुमराह हो सकती थी, यह सोचकर कि उसने कई वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास किया है, परिवार और करियर त्यागा है और बहुत कुछ सहा है, कि वह एक सच्ची विश्वासी है, और भले ही उसे कलीसिया से निकाल दिया गया हो, शायद एक दिन वह खुद को बदल लेगी। लेकिन असल में न सिर्फ उसने पश्चात्ताप नहीं किया, उसके मन में परमेश्वर के घर के बारे में धारणाएँ थीं और उसने अपनी नकारात्मकता दिखाई, यहाँ तक कि मुझे परमेश्वर पर विश्वास करने और अपना कर्तव्य निभाने से भी रोका, वह चाहती थी कि मैं दुनियादारी भी समझूँ और परमेश्वर पर विश्वास भी करूँ। ऐसा लगता था कि उसे मेरी फिक्र है लेकिन असल में वह चाहती थी कि मैं परमेश्वर से दूर हो जाऊँ और बचाए जाने का मौका गँवा दूँ। वह जानती थी कि मैं अपना परिवार खोने से डरती हूँ, इसलिए उसने मेरी आस्था में मुझे सताने के लिए हर तरह के तरीके अपनाए। अगर मैं उसकी बात नहीं मानती तो वे मुझ पर अपशब्दों के तीर चलाती और यहाँ तक कि मुझे मारती भी थी। मैंने देखा कि मेरी माँ की प्रकृति सत्य से घृणा करने वाली और परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण थी। मैंने यह भी देखा कि पारस्परिक संबंध हितों पर आधारित थे। जब मैंने अपना कर्तव्य निभाने का फैसला किया और नौकरी नहीं की, उसके हिसाब से नहीं चली तो वह मेरे खिलाफ हो गई और मुझे मारा और डांटा मुझे अपनाने से इनकार करना चाहा, और यहाँ तक कि मुझे घर से निकाल दिया। मैंने देखा कि वह वाकई मुझसे प्यार नहीं करती थी। एक बार जब मैं कुछ हद तक अपनी माँ का सार पहचान गई तो मेरा दिल उसके प्रति अपना स्नेह त्यागने में सक्षम हो गया।
मैं एक साल तक इस स्थिति से गुजरी और परमेश्वर ने मुझे मेरी माँ की बाधाओं और उत्पीड़न पर काबू पाने में मदद की। मुझे लगता है कि परमेश्वर के वचनों में शक्ति और अधिकार है। उसने मुझे बार-बार नकारात्मकता और कमजोरी से बाहर निकाला और मुझे अपनी माँ के कुकर्मी होने के सार के बारे में भी कुछ समझ मिली। मुझे बचाने के लिए परमेश्वर का धन्यवाद।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?