क्या परमेश्वर पर विश्वास केवल शांति और आशीष के लिए है?
जब मैं छह साल की थी तो मेरी माँ को पता चला कि मेरे पिता का किसी और के साथ अफेयर है और भावनात्मक सदमे के कारण उसे मानसिक बीमारी हो गई। दो साल बाद मेरे पिता की बीमार पड़ने से मौत हो गई और इलाज और अंतिम संस्कार के खर्च ने हमें कंगाल कर दिया। फिर भी मेरे चाचा और चाची ने अपने भाई की विधवा और उसके बच्चे की मदद करने की कोई जरूरत नहीं समझी। मुझे और मेरी माँ को बहुत धौंस और बेरुखी झेलनी पड़ी और हमें अपने जीवन में बहुत कष्ट सहना पड़ा। तब तक मेरी माँ परमेश्वर में विश्वास करने लगी थी और वह अक्सर मुझसे कहती थी, “अगर हम परमेश्वर में विश्वास नहीं करते हैं तो हम इस दुनिया में लंबे समय तक नहीं रहेंगे।” वह यह भी कहती कि परमेश्वर में विश्वास करने के बाद उसकी मानसिक बीमारी किसी तरह गायब हो गई है। परिणामस्वरूप मैं परमेश्वर की बहुत आभारी थी। जब सहपाठी मुझे बहिष्कृत कर धौंस देते थे तो मैं चुपचाप परमेश्वर से प्रार्थना करती थी। मुझे हैरानी हुई कि इसके बाद एक सहपाठी जिसके साथ मेरी पहले नहीं बनती थी, वह सक्रियता से मेरी मदद करने लगा और दूसरों को मुझे धमकाने नहीं देता था। उस समय मेरी युवा आत्मा ने महसूस किया कि परमेश्वर पर विश्वास करना वाकई अच्छा है और जब भी मुझे उसकी जरूरत पड़ी तो परमेश्वर मेरा सहारा बना और मैं खुद को परमेश्वर के लिए खपाना चाहती थी और बड़ी होकर अपनी माँ की तरह कर्तव्य निभाना चाहती थी। जब मैं हाई स्कूल में पहुँची तो मैंने बाकायदा सभाओं में भाग लेना शुरू कर दिया। कभी-कभी मैं सभाओं में भाग लेने के लिए कक्षा से छुट्टी ले लेती थी, भले ही इसका मतलब कक्षा में पिछड़ना हो। मैं हमेशा बीमार रहती थी और मुझे चक्कर आते थे और अक्सर इंजेक्शन और दवा की जरूरत पड़ती थी लेकिन परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद मैं ठीक होने लगी। यह परमेश्वर के अनुग्रह और आशीष का और भी गहरा अनुभव था। एक बार एक सभा के दौरान जब मैंने भाई-बहनों को यह कहते हुए सुना कि अब कर्तव्य निभाने का महत्वपूर्ण समय है तो मैंने मन में सोचा, “मैं वाकई भाग्यशाली हूँ कि मैं परमेश्वर के देहधारण, सत्य की अभिव्यक्ति और मानव जाति के उद्धार के समय में जी रही हूँ। मुझे इस अवसर का लाभ उठाना है, अपनी आस्था में सब कुछ लगाना है और अपना कर्तव्य ठीक से निभाना है।” तब मैंने अपनी ऊंची प्रतिष्ठा वाला हाई स्कूल छोड़ने का फैसला लेने में संकोच नहीं किया और अपने भाई-बहनों के साथ अपना कर्तव्य निभाना शुरू कर दिया। मैंने सोचा कि जब तक मैं आस्था का ठीक से अभ्यास करती रहूँगी और उत्साहपूर्वक अपने कर्तव्य निभाऊँगी, परमेश्वर पक्का मुझ पर अनुग्रह करेगा और सुनिश्चित करेगा कि मेरे लिए सब कुछ ठीक और सुचारू रहे। तब से मैं लगातार सभाओं में जाने और अपना कर्तव्य निभाने लगी, चाहे बारिश हो या धूप। सर्दियों में उस जगह जाने के लिए कोई सीधी बस नहीं थी जहाँ मैं नवागुंतकों का सिंचन कर रही थी, इसलिए मैं वहाँ पहुँचने के लिए कई घंटे अपनी साइकिल चलाती थी। मेरे देह को कुछ हद तक कष्ट हुआ, लेकिन मैंने सोचा कि जब तक मुझे परमेश्वर की देखभाल और आशीष मिलता रहे, तब तक यह कष्ट सहना उचित है।
अप्रैल 2020 में मैंने घर से दूर रहकर अपना कर्तव्य निभाया। एक दोपहर को मुझे अचानक लगा कि मेरा दिल तेज और जोर-जोर से धड़क रहा है, मेरी छाती इतनी जकड़ी हुई है कि मैं साँस नहीं ले पा रही हूँ और तभी मैं काँपने लगी और मुझे कमजोरी महसूस होने लगी। मैं खाना खाने के लिए चॉपस्टिक भी मुश्किल से पकड़ पा रही थी। मैं असहज थी, लेकिन मैं इतनी चिंतित नहीं थी। मैंने सोचा, “बचनप से ही मुझे हमेशा दिल की समस्या रही है। जब मुझे थकान होती है तो घबराहट होने लगती है, लेकिन इससे कभी कोई बड़ी समस्या नहीं होती, इसलिए शायद इस बार भी कुछ नहीं होगा। साथ ही परमेश्वर सर्वशक्तिमान है और मेरी देह और स्वास्थ्य उसके हाथों में हैं। जब तक मैं अपने कर्तव्य में दृढ़ रहूँगी, परमेश्वर जरूर मेरी रक्षा करेगा और सुनिश्चित करेगा कि मुझे कुछ न हो।” उसी रात को मुझे थोड़ा बेहतर महसूस हुआ। अगले कुछ दिनों तक मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और अपनी बीमारी को उसके हाथों में सौंप दिया। अगर मैं बहुत ज्यादा बोलती तो मुझे घबराहट और थकान हो जाती, लेकिन मैं अभी भी नियमित रूप से परमेश्वर के वचन खा और पी सकती थी और अपना कर्तव्य निभा सकती थी। मुझे लगा कि परमेश्वर शायद इस स्थिति में मेरी परीक्षा ले रहा है और जब तक मैं अपने और कर्तव्य निभाती रहूँगी, परमेश्वर मुझ पर अनुग्रह करेगा और मैं धीरे-धीरे ठीक हो जाऊँगी। लेकिन मुझे हैरानी हुई कि उसके तुरंत बाद ही मुझे एक और दौरा पड़ा। रात को खाना खाते वक्त अचानक मेरी धड़कन तेज होने लगी, मेरे हाथ कांपने लगे और मैं चॉपस्टिक से खाना भी नहीं पकड़ पा रही थी। इसके तुरंत बाद मैं कांपने लगी और मेरा दिल तेजी से धड़कने लगा। मेरा चेहरा लाल हो गया मेरे हाथ-पैर ठंडे और सुन्न हो गए और मैं बेकाबू होकर कांपने लगी। मैं सांस लेने के लिए हाँफने लगी और मुझे ऐसा घुटन भरा एहसास हुआ जैसा पहले कभी नहीं हुआ था। मुझे डर लग रहा था कि मैं सांस नहीं ले पाऊँगी और इसलिए मैं लगातार परमेश्वर से प्रार्थना करता रही, “हे परमेश्वर, मैं अभी मरना नहीं चाहती, मुझे बचा लो।” एक बहन ने इमरजेंसी में इस्तेमाल होने वाले एक्यूपॉइंट को दबाना शुरू किया और मुझे कुछ आपातकालीन दवा दी। लगभग दस मिनट के बाद मेरा दौरा रुक गया, लेकिन मैं बहुत कमजोर महसूस कर रही थी और मेरे लिए बोलना बहुत मुश्किल हो रहा था। बहन मुझे जांच के लिए अस्पताल ले गई और डॉक्टर ने मुझे बताया कि मुझे जन्मजात हृदय रोग है। जैसे-जैसे मेरी उम्र बढ़ती गई और मेरे खून में अपशिष्ट जमा होने लगा और मेरी रक्त वाहिकाएं तेजी से अवरुद्ध होने लगीं, मेरी हृदय की क्षमता कम होती गई और मेरी हालत लगातार गंभीर होती गई। मेरी बीमारी के लिए कोई दवा नहीं थी और मैं बस कुछ चीनी जड़ी-बूटियाँ ले सकती थी और ज्यादा आराम कर सकती थी। अगर आगे कोई दौरा नहीं पड़ा तो मैं ठीक हो जाऊँगी, लेकिन अगर मुझे फिर से दौरा पड़ा तो यह बहुत बुरा हो सकता है। अगर मुझे बार-बार दौरे पड़े तो मेरी हालत बहुत खराब हो जाएगी और सबसे बुरी बात तो यह होगी कि मुझे सर्जरी की जरूरत पड़ेगी। मैं चिंता में डूबकर सोचती रही, “मैं लगातार उत्साह से अपना कर्तव्य निभा रही हूँ तो परमेश्वर मेरी रक्षा क्यों नहीं कर रहा? मेरी हालत इतनी खराब क्यों हो गई है?” मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, तुम सर्वशक्तिमान हो और मेरा स्वास्थ्य तुम्हारे हाथ में है। मैं एक सामान्य, स्वस्थ व्यक्ति की तरह फिट होने की मांग नहीं करती, और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैं थोड़ी कमजोर हूँ, अगर मुझे फिर दौरा नहीं पड़ता है तो मैं धीरे-धीरे ठीक हो जाऊँगी। मेरी देह इन सभी बीमारियों को बर्दाश्त नहीं कर सकती। अगर मेरी सेहत वाकई खराब हो जाती है तो मैं क्या करूँगी?” उसके बाद भले ही मैं दवा लेती रही, मुझे हमेशा चिंता लगी रहती कि मुझे फिर से दौरा पड़ेगा और मैं अपने स्वास्थ्य के बारे में हर दिन परमेश्वर से प्रार्थना करती। हालाँकि मुझे बार-बार दिल की समस्याएँ होती रहीं। मैं कुछ दिनों तक ठीक रहती और अचानक फिर दौरा पड़ता, जिसके बाद मुझे काफी कमजोरी महसूस होती। यह देखते हुए कि मेरा स्वास्थ्य खराब है कलीसिया ने मुझे घर भेज दिया ताकि मैं आराम कर सकूँ और जिस भी कर्तव्य के लायक हूँ, उसे निभा सकूँ।
घर पर रहते हुए जड़ी-बूटियाँ लेने के बावजूद मेरी सेहत में सुधार नहीं हुआ। मेरे हाथों में कंपन और सुन्नपन बना रहा, साथ ही ऐंठन और सांस फूलने की समस्या बनी रही। मेरी छाती इतनी जकड़ जाती थी कि मुझे ऐसा लगता था कि मेरा दम घुटने वाला है। मेरे पास जो आपातकालीन दवा थी, उससे कुछ समय के लिए लक्षणों से राहत मिलती, लेकिन वे फिर से लौट आते। बीमारी के दौरान मैं बिस्तर पर करवट बदलने से भी मैं इतनी थक जाती कि मेरी धड़कन तेज हो जाती। मेरा आधा दिन बिस्तर पर ही बीतता। मुझे बहुत अकेलापन और असहाय महसूस होता। मैं लगातार रोती रहती और मेरे दिमाग में शिकायतें और गलतफहमियाँ भर जातीं। मैंने कभी किसी और को इस तरह बार-बार दिल की समस्या होते नहीं देखा था। मैं पहले से ही बहुत कमजोर हूँ। अगर ऐसा होता रहा तो क्या मैं मर नहीं जाऊँगी? मेरे परिवार के पास मेरी सर्जरी के लिए पैसे नहीं थे तो क्या मुझे सहते रहना पड़ेगा? मैं सिर्फ 20 साल की थी, क्या मुझे अपना बाकी जीवन लगातार बीमार और मूल रूप से विकलांग होकर बिताना था? शायद एक दिन मैं बस गिरकर मर जाऊँगी। “हे परमेश्वर, इन वर्षों में मैंने स्कूल जाना छोड़ दिया है और अपनी जवानी का बलिदान देकर तुम्हारा अनुसरण किया है। मैंने और कुछ नहीं माँगा, बस यही चाहा था कि तुम मुझे सुरक्षित और स्वस्थ रखो तो मेरी हालत इतनी खराब क्यों हो गई? बीमार होने के बाद भी मैंने अपना कर्तव्य निभाना जारी रखा। तुमने मेरी रक्षा क्यों नहीं की? मैं कब ठीक हो पाऊँगी?” जितना अधिक मैं सोचती, उतना ही अन्याय और दुखी महसूस करती और मैं अक्सर अपने बिस्तर पर रोती रहती। मैं अक्सर ऐसी दवाइयाँ खरीदती थी, जिनके बारे में मैंने सुना था कि वे हृदय रोग के लिए लाभदायक हैं। मैं केवल चीनी दवा का उपयोग करती थी ताकि पश्चिमी दवा के दुष्प्रभावों से बच सकूँ। लेकिन कुछ समय तक जड़ी-बूटियाँ लेने के बाद भी कोई सुधार नहीं हुआ। मैं अक्सर नकारात्मकता में डूब जाती थी। कुछ भाई-बहनों ने देखा कि मैं किस हालत में हूँ और उन्होंने मेरे साथ परमेश्वर के इरादों की संगति की, मुझे बताया कि मुझे इस स्थिति से सीखना चाहिए और अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करने के लिए सत्य की खोज करनी चाहिए। कुछ लोगों ने बीमारी के बारे में अनुभवजन्य गवाही वीडियो भी मेरे साथ साझा किए। इसका मुझ पर कुछ हद तक असर हुआ : मैंने अपनी बीमारी में परमेश्वर के इरादे की खोज नहीं की थी और सत्य पाने के बजाय सिर्फ शिकायतें की थीं। मेरी गवाही कहाँ थी? मुझे इतना भ्रष्ट होना बंद करना था और अपनी समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य की खोज शुरू करनी थी। इसका एहसास होने पर मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “सर्वशक्तिमान परमेश्वर, मैं सैद्धांतिक रूप से समझती हूँ कि मेरी बीमारी के पीछे तुम्हारे नेक इरादे हैं, और तुम जो कुछ भी करते हो वह अच्छा होता है। लेकिन लगातार पड़ रहे दौरे वाकई मेरी देह को बहुत पीड़ा पहुँचा रहे हैं। मैं वाकई उदास और निराश हूँ। हे परमेश्वर मैं जानती हूँ कि मेरी अवस्था बुरी है और मैं तुम्हारी ओर मुड़ने और इतनी निराश होना बंद करने के लिए तैयार हूँ। मुझे अपने बारे में सही समझ के लिए प्रबुद्ध करो और मार्गदर्शन करो और मुझे इस नकारात्मक अवस्था से मुक्ति दिलाओ।”
उसके बाद मैंने अपनी अवस्था से संबंधित परमेश्वर के वचनों के अंशों की खोज की। एक दिन मुझे यह अंश मिला : “‘परमेश्वर में विश्वास’ का अर्थ यह मानना है कि परमेश्वर है; यह परमेश्वर में विश्वास की सरलतम अवधारणा है। इससे भी बढ़कर, यह मानना कि परमेश्वर है, परमेश्वर में सचमुच विश्वास करने जैसा नहीं है; बल्कि यह मजबूत धार्मिक संकेतार्थों के साथ एक प्रकार का सरल विश्वास है। परमेश्वर में सच्चे विश्वास का अर्थ यह है : इस विश्वास के आधार पर कि सभी वस्तुओं पर परमेश्वर की संप्रभुता है, व्यक्ति परमेश्वर के वचनों और कार्यों का अनुभव करता है, अपने भ्रष्ट स्वभाव को शुद्ध करता है, परमेश्वर के इरादे संतुष्ट करता है और परमेश्वर को जान पाता है। केवल इस प्रकार की यात्रा को ही ‘परमेश्वर में विश्वास’ कहा जा सकता है। फिर भी लोग परमेश्वर में विश्वास को अकसर बहुत सरल और हल्के रूप में लेते हैं। परमेश्वर में इस तरह विश्वास करने वाले लोग, परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ गँवा चुके हैं और भले ही वे बिलकुल अंत तक विश्वास करते रहें, वे कभी परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त नहीं करेंगे, क्योंकि वे गलत मार्ग पर चलते हैं। आज भी ऐसे लोग हैं, जो परमेश्वर में शब्दों और खोखले धर्म-सिद्धांत के अनुसार विश्वास करते हैं। वे नहीं जानते कि परमेश्वर में उनके विश्वास में कोई सार नहीं है और वे परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त नहीं कर सकते। फिर भी वे परमेश्वर से सुरक्षा के आशीषों और पर्याप्त अनुग्रह के लिए प्रार्थना करते हैं। आओ रुकें, अपने हृदय शांत करें और खुद से पूछें : क्या परमेश्वर में विश्वास करना वास्तव में पृथ्वी पर सबसे आसान बात हो सकती है? क्या परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ परमेश्वर से अधिक अनुग्रह पाने से बढ़कर कुछ नहीं हो सकता है? क्या परमेश्वर को जाने बिना उसमें विश्वास करने वाले या उसमें विश्वास करने के बावजूद उसका विरोध करने वाले लोग सचमुच उसके इरादे संतुष्ट करने में सक्षम हैं?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, प्रस्तावना)। परमेश्वर पूछता है : “क्या परमेश्वर में विश्वास करना वास्तव में पृथ्वी पर सबसे आसान बात हो सकती है? क्या परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ परमेश्वर से अधिक अनुग्रह पाने से बढ़कर कुछ नहीं हो सकता है? क्या परमेश्वर को जाने बिना उसमें विश्वास करने वाले या उसमें विश्वास करने के बावजूद उसका विरोध करने वाले लोग सचमुच उसके इरादे संतुष्ट करने में सक्षम हैं?” परमेश्वर के हर सवाल ने मुझे बहुत शर्मिंदा किया। इतने लंबे समय तक परमेश्वर पर विश्वास करने के बावजूद मुझे नहीं पता था कि वास्तविक आस्था क्या है। परमेश्वर कहता है कि सच्ची आस्था के लिए परमेश्वर के कार्य और वचनों का अनुभव करना, परमेश्वर द्वारा प्रस्तुत हर परिस्थिति के प्रति समर्पित होना और उनके भीतर से सत्य और उसके इरादों की खोज करना, अपने भ्रष्ट स्वभाव और आस्था में अशुद्धियों पर चिंतन करना सत्य और परमेश्वर के ज्ञान की समझ पाने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश के लिए आवश्यक है। सिर्फ इसी तरह की आस्था ही परमेश्वर की प्रशंसा अर्जित कर सकती है। अगर लोग परमेश्वर से सिर्फ अनुग्रह और आशीष पाना चाहते हैं लेकिन अवांछनीय परिस्थितियों का सामना होने पर परमेश्वर के इरादों की खोज नहीं करते हैं और परमेश्वर के वचनों और कार्यों का अनुभव नहीं करते हैं तो यह केवल नाम की आस्था है, यह धार्मिक आस्था है। परमेश्वर ऐसी आस्था नहीं स्वीकारता। परमेश्वर अंत के दिनों में न्याय, ताड़ना, परीक्षण और शोधन का कार्य करता है। केवल परमेश्वर के वचनों का न्याय अनुभव करके, परमेश्वर द्वारा आयोजित विभिन्न परिवेशों के परीक्षण, सत्य की खोज, और इन चीजों के माध्यम से स्वयं और परमेश्वर को जानने से ही किसी का जीवन आगे बढ़ता है। मैंने सोचा कि कैसे कुछ भाई-बहन मुझसे भी ज्यादा बीमार थे और अस्पतालों ने उन्हें लाइलाज घोषित कर दिया था, लेकिन फिर भी उन्होंने अपनी बीमारियों के जरिए सत्य की खोज की, अपनी भ्रष्टता का प्रबोधन पाया, परमेश्वर में विश्वास के बारे में अपने गलत विचारों को सुधारा और कुछ प्रगति की। हालाँकि मैंने इन वर्षों में परमेश्वर में विश्वास करने का दावा किया था, और अक्सर दूसरों के साथ परमेश्वर के वचनों का अनुभव करने और विश्वास में काम करने की जरूरत के बारे में संगति की थी, लेकिन जब मैं खुद बीमार पड़ी तो मैंने परमेश्वर के इरादे की खोज नहीं की और नकारात्मक स्थिति में जीती रही जिससे मैं बच नहीं सकी। इसलिए बीमार पड़ने के बाद मुझे कोई सत्य नहीं मिला। मुझे एहसास हुआ कि मैं परमेश्वर द्वारा आयोजित परिवेश के कारण नहीं बल्कि सत्य की खोज न करने के कारण कष्ट झेल रही थी। चूँकि मैं परमेश्वर में विश्वास करती हूँ इसलिए मुझे समर्पण करना चाहिए, अपनी बीमारी के जरिए सत्य की खोज करनी चाहिए और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपनी गवाही में दृढ़ रहना चाहिए। यही विवेक था जो मेरे पास होना चाहिए था। इसका एहसास होने पर मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए कहा, “चाहे मेरी बीमारी का कुछ भी हो, मैं अपने मुद्दे सुलझाने के लिए सत्य की खोज पर ध्यान केंद्रित करने और समर्पण के लिए तैयार हूँ।”
बाद में मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला : “मनुष्य ने जब पहले-पहल परमेश्वर में विश्वास करना आरंभ किया था, उसी समय से मनुष्य ने परमेश्वर को एक अक्षय पात्र, एक स्विस आर्मी चाकू माना है, और अपने आपको परमेश्वर का सबसे बड़ा साहूकार माना है, मानो परमेश्वर से आशीष और प्रतिज्ञाएँ प्राप्त करने की कोशिश करना उसका जन्मजात अधिकार और दायित्व है, जबकि परमेश्वर की जिम्मेदारी मनुष्य की रक्षा और देखभाल करना, और उसे भरण-पोषण देना है। ऐसी है ‘परमेश्वर में विश्वास’ की मूलभूत समझ, उन सब लोगों की जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, और ऐसी है परमेश्वर में विश्वास की अवधारणा की उनकी गहनतम समझ। मनुष्य के प्रकृति सार से लेकर उसके व्यक्तिपरक अनुसरण तक, ऐसा कुछ भी नहीं है जो परमेश्वर के भय से संबंधित हो। परमेश्वर में विश्वास करने में मनुष्य के लक्ष्य का परमेश्वर की आराधना के साथ कोई लेना-देना संभवतः नहीं हो सकता है। कहने का तात्पर्य यह, मनुष्य ने न कभी यह विचार किया और न समझा कि परमेश्वर में विश्वास करने के लिए परमेश्वर का भय मानने और आराधना करने की आवश्यकता होती है। ऐसी स्थितियों के आलोक में, मनुष्य का सार स्पष्ट है। यह सार क्या है? यह सार यह है कि मनुष्य का हृदय द्वेषपूर्ण है, छल और कपट रखता है, निष्पक्षता, धार्मिकता और सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करता है, और यह तिरस्करणीय और लोभी है। मनुष्य का हृदय परमेश्वर के लिए और अधिक बंद नहीं हो सकता है; उसने इसे परमेश्वर को बिल्कुल भी नहीं दिया है। परमेश्वर ने मनुष्य का सच्चा हृदय कभी नहीं देखा है, न ही उसकी मनुष्य द्वारा कभी आराधना की गई है। परमेश्वर चाहे जितनी बड़ी कीमत चुकाए, या वह चाहे जितना अधिक कार्य करे, या वह मनुष्य का चाहे जितना भरण-पोषण करे, मनुष्य इस सबके प्रति अंधा, और सर्वथा उदासीन ही बना रहता है। मनुष्य ने कभी परमेश्वर को अपना हृदय नहीं दिया है, वह अपना हृदय अपने पास ही रखना, स्वयं अपने निर्णय लेना चाहता है—जिसका निहितार्थ यह है कि मनुष्य परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग का अनुसरण करना, या परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना नहीं चाहता है, न ही वह परमेश्वर के रूप में परमेश्वर की आराधना करना चाहता है। ऐसी है आज मनुष्य की दशा। अब आओ हम फिर अय्यूब को देखें। सबसे पहले, क्या उसने परमेश्वर के साथ कोई सौदा किया? क्या परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग को दृढ़ता से थामे रहने में उसकी कोई छिपी हुई मंशा थी? उस समय, क्या परमेश्वर ने आने वाले अंत के बारे में किसी से बात की थी? उस समय, परमेश्वर ने किसी से भी अंत के बारे में प्रतिज्ञाएँ नहीं की थीं, और यही वह पृष्ठभूमि थी जिसमें अय्यूब परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में समर्थ था। क्या आज के लोग अय्यूब के साथ तुलना में कहीं टिकते हैं? उनमें बहुत ही अधिक असमानता है, वे अलग-अलग स्तरों पर हैं। यद्यपि अय्यूब को परमेश्वर का अधिक ज्ञान नहीं था, फिर भी उसने अपना हृदय परमेश्वर को दे दिया था और यह परमेश्वर का था। उसने परमेश्वर के साथ कभी सौदा नहीं किया, और उसकी परमेश्वर के प्रति कोई अनावश्यक इच्छाएँ या माँगें नहीं थीं; इसके बजाय, वह विश्वास करता था कि ‘यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया।’ यही वह था जो उसने जीवन के अनेक वर्षों के दौरान परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग को सच्चाई से थामे रहने से देखा और प्राप्त किया था। इसी प्रकार, उसने वह परिणाम भी प्राप्त किया जो इन वचनों में दर्शाया गया है : ‘क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?’ ये दो वाक्य वह थे जो उसने अपने जीवन के अनुभवों के दौरान परमेश्वर के प्रति अपने समर्पण भाव के फलप देखे और जानने शुरू किए थे, और वे उसके सबसे ताक़तवर हथियार भी थे जिनसे उसने शैतान के प्रलोभनों के दौरान विजय प्राप्त की थी, और वे परमेश्वर की गवाही पर उसके दृढ़ता से डटे रहने की नींव थे” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II)। परमेश्वर ने विश्वास के बारे में लोगों के विचारों को पूरी तरह से उजागर कर दिया। लोग परमेश्वर को परमेश्वर नहीं मानते, बल्कि उसे स्विस चाकू यस अक्षयपात्र की तरह मानते हैं, वे खुद को परमेश्वर के सबसे बड़े लेनदारों के रूप में देखते हैं और लालच से उससे अनुग्रह पाने का प्रयास करते हैं। इस तरह का विश्वास अशुद्ध और सौदेबाजी वाला होता है और इसमें जरा भी ईमानदारी नहीं होती। परमेश्वर ने मेरी वर्तमान अवस्था पर सीधे बात की। जब मेरा परिवार मुश्किलें झेल रहा था और उसके पास कोई सहारा नहीं था तो मैंने परमेश्वर के आशीष और सुरक्षा का अनुभव किया, इसलिए मैंने सोचा कि परमेश्वर सुनिश्चित करेगा कि मैं और मेरी माँ शांतिपूर्ण, परेशानी रहित जीवन जिएँ। मैंने सोचा कि परमेश्वर में विश्वास करना मुझे जीवनभर की मुश्किलों से पूरी तरह से मुक्त कर देगा। अगर कुछ भी हुआ तो परमेश्वर मेरी रक्षा करेगा और मेरी भलाई के लिए जिम्मेदार होगा। उन वर्षों के दौरान मैंने अपने अनुसरण में इस तरह खयाली पुलाव मन में रखे और यह परमेश्वर के अनुग्रह और आशीष की प्राप्ति थी जिसने मुझे अपना कर्तव्य निभाने के लिए सब कुछ त्यागने के लिए प्रेरित किया। जब मैं बीमार पड़ गई और परमेश्वर ने मुझे ठीक नहीं किया तो मैं तुरंत बदल गई। ऐसा लग रहा था मानो मेरी लंबे समय से संजोई गई उम्मीद टूट गई हो। मैंने इतने सालों में जो त्यागा और खपाया था, उसके आधार पर मैं परमेश्वर से बहस करने लगी। मैंने परमेश्वर से पूछा कि उसने मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया और यहाँ तक कि प्रार्थना करने या उसके वचन पढ़ने के लिए भी तैयार नहीं हुई। मैं एक नकारात्मक और विद्रोही स्थिति में जी रही थी। इतने सालों में परमेश्वर ने मेरे खराब आध्यात्मिक कद पर दया करके मेरी रक्षा की और मेरी देखभाल की और मुझे भौतिक अनुग्रह और आशीष दिए। लेकिन मैं जरा भी आभारी नहीं थी और यहाँ तक कि और भी लालची हो गई। थोड़ा सा खपाने के बाद मैंने परमेश्वर से जीवनभर मेरी रक्षा करने की माँग की और जब उसने ऐसा नहीं किया तो मैं उससे नाराज हो गई। मैं कितनी बेशर्म और अनुचित थी! अय्यूब ने कभी परमेश्वर से कोई माँग नहीं की, वह परमेश्वर का भय मानता था और चाहे कोई भी परिस्थिति या वातावरण हो, बुराई से दूर रहता था। जब परमेश्वर ने उसे आशीष दिया, तो उसने परमेश्वर को धन्यवाद दिया, लेकिन जब उसकी परिस्थिति बदल गई और उसने अपनी संपत्ति गँवा दी, उसके बच्चे मारे गए और उसे दर्दनाक फोड़े हो गए तो भी उसने परमेश्वर में आस्था रखी, उसका भय माना और कभी भी उससे एक भी शिकायती शब्द नहीं कहा। उसने परमेश्वर के नाम की स्तुति भी की। चाहे उसकी परिस्थिति कितनी भी बदली हो, वह सृजित प्राणी के रूप में अपने जगह बने रहने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम था। अय्यूब परमेश्वर में सच्चा विश्वासी था। उसकी मानवता और विवेक ने मुझे शर्मिंदा महसूस कराया। मुझे परमेश्वर में सच्चा विश्वास नहीं था और मैं बस उसके ऐसे व्यवहार किया जैसे वह अक्षयपात्र हो। मैं चाहती थी कि परमेश्वर का अनुग्रह और आशीष हर समय मेरे साथ रहे। मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं कितनी स्वार्थी बन गई हूँ! मैंने उस भीड़ के बारे में सोचा जिसे प्रभु यीशु ने अनुग्रह के युग के दौरान पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ खिलाई थीं। उन्हें उसके उपदेश में कोई दिलचस्पी नहीं थी और वे बस उससे अनुग्रह, आशीष और सुविधाएँ पाना चाहते थे। वे सिर्फ अवसरवादी और अविश्वासी थे। मैंने देखा कि मेरा लालच उस भीड़ से अलग नहीं था जो सिर्फ खाना और पेट भरना चाहती थी। मैं बहुत ही भ्रष्ट हो चुकी थी और निश्चित रूप से परमेश्वर के गुस्से और घृणा का कारण बनी थी। अगर मैं ऐसे विचारों के आधार पर विश्वास करना जारी रखती हूँ तो मैं कभी भी सत्य और उद्धार नहीं पाऊँगी, भले ही मैं जीवनभर विश्वास करती रहूँ। मैंने देखा कि मेरी बीमारी परमेश्वर द्वारा मुझे दिया गया सबसे बड़ा अनुग्रह था। अगर मैं अपनी बीमारी के माध्यम से बेनकाब नहीं होती तो मैं पहचान नहीं पाती कि आशीष के लिए मेरी इच्छा कितनी प्रबल है, मैं कितनी लालची और नीच हूँ। तब मेरे बदलने की कोई संभावना नहीं होती। परमेश्वर ने मेरे कार्यों के आधार पर मेरे साथ व्यवहार नहीं किया और यहाँ तक कि भाई-बहनों के माध्यम से मेरी मदद भी की और अपने वचनों के माध्यम से अपने इरादे समझने के लिए मेरा प्रबोधन और मार्गदर्शन किया। मुझे शर्म और अपराधबोध महसूस हुआ, लगा कि मैं परमेश्वर के प्रेम और उद्धार के लायक नही हूँ। मैंने आंसू बहाते हुए परमेश्वर से प्रार्थना की और कहा, “हे परमेश्वर, बीमारी द्वारा बेनकाब होने से मैंने सीखा है कि मैं इतने वर्षों से तुमसे सिर्फ अनुग्रह मांग रही थी और जब मुझे वह नहीं मिला तो मैंने शिकायतें कीं। मैं तुम्हारी बहुत अधिक ऋणी हूँ और मैं विश्वासी होने के लायक नहीं हूँ। मैं जानती हूँ कि मुझमें बहुत भ्रष्टता है और अपने शोधन और शुद्ध किए जाने के लिए मुझे इस बीमारी की आवश्यकता है। भले ही मुझे अपना बाकी जीवन इस बीमारी के साथ जीना पड़े, मैं समर्पण करूँगी और दोबारा कभी तुम्हारे बारे में शिकायत नहीं करूँगी।” मुझे हैरानी हुई कि जब मेरा रवैया बदल गया तो मेरी देह धीरे-धीरे ठीक होने लगी। मुझे बार-बार दौरे नहीं पड़े और मैं धीरे-धीरे अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम हो गई।
एक दिन मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला जिससे मुझे अपनी अवस्था के बारे में अधिक समझ मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “चाहे उसके साथ कितनी भी चीजें घटित हो जाएँ, मसीह-विरोधी जैसा व्यक्ति कभी परमेश्वर के वचनों में सत्य खोजकर उन्हें हल करने की कोशिश नहीं करता, चीजें परमेश्वर के वचनों के माध्यम से देखने की कोशिश तो वह बिल्कुल भी नहीं करता—जो पूरी तरह से इसलिए है, क्योंकि वह इस पर विश्वास नहीं करता कि परमेश्वर के वचनों की प्रत्येक पंक्ति सत्य है। परमेश्वर का घर सत्य पर चाहे जिस भी तरह संगति करे, मसीह-विरोधी उसे ग्रहण नहीं करते, जिसका नतीजा यह होता है कि चाहे उन्हें किसी भी स्थिति का सामना करना पड़े, उनमें सही रवैये का अभाव रहता है; विशेष रूप से, जब यह बात आती है कि वे परमेश्वर और सत्य को कैसे लेते हैं, तो मसीह-विरोधी हठपूर्वक अपनी धारणाएँ अलग रखने से इनकार कर देते हैं। जिस परमेश्वर में वे विश्वास करते हैं, वह एक ऐसा परमेश्वर है जो चिह्न और चमत्कार दिखाता है, यानी एक अलौकिक परमेश्वर। जो कोई भी संकेत और चमत्कार दिखा सकता है—चाहे वह गुआनयिन बोधिसत्व हो, बुद्ध हो या माजू हो—वे उसे परमेश्वर कहते हैं। वे मानते हैं कि जो संकेत और चमत्कार दिखा सकते हैं, सिर्फ वे ही परमेश्वरों की पहचान रखने वाले परमेश्वर हैं, और जो संकेत और चमत्कार नहीं दिखा सकते, वे चाहे कितने भी सत्य व्यक्त करें, आवश्यक नहीं कि वे परमेश्वर हों। वे यह नहीं समझते कि सत्य व्यक्त करना परमेश्वर की महान शक्ति और सर्वशक्तिमत्ता है; इसके बजाय, उन्हें लगता है कि सिर्फ संकेत और चमत्कार दिखाना ही परमेश्वरों की महान शक्ति और सर्वशक्तिमत्ता है। इसलिए, लोगों को जीतने और बचाने, उनका सिंचन करने, उनकी चरवाही करने और परमेश्वर के चुने हुए लोगों की अगुआई करने, उन्हें वास्तव में परमेश्वर के न्याय, ताड़ना, परीक्षणों और शोधन का अनुभव करने और सत्य समझने, अपने भ्रष्ट स्वभावों को त्यागने, और परमेश्वर के प्रति समर्पित होने और उसकी आराधना करने वाले लोग बनने में सक्षम बनाने, आदि के लिए सत्य व्यक्त करने के देहधारी परमेश्वर के व्यावहारिक कार्य की बात करें तो—मसीह-विरोधी इन सबको मनुष्य का कार्य मानते हैं, परमेश्वर का नहीं। मसीह-विरोधियों के विचार में, परमेश्वरों को वेदी के पीछे छिपा होना चाहिए, लोगों से चढ़ावे चढ़वाने चाहिए, लोगों द्वारा चढ़ाए गए खाद्य पदार्थ खाने चाहिए, उनकी जलाई गई धूपबत्ती का धुआँ सूँघना चाहिए, उनके मुसीबत में होने पर मदद के लिए हाथ बढ़ाना चाहिए, खुद को बहुत शक्तिशाली दिखाना चाहिए और लोगों की समझ के दायरे में उन्हें तत्काल सहायता प्रदान करनी चाहिए, और उनकी जरूरतें पूरी करनी चाहिए। मसीह-विरोधियों के अनुसार सिर्फ ऐसा परमेश्वर ही सच्चा परमेश्वर है। इस बीच, आज परमेश्वर जो कुछ भी करता है, उसमें उसे मसीह-विरोधियों का तिरस्कार झेलना पड़ता है। और ऐसा क्यों है? मसीह-विरोधियों के प्रकृति सार को देखते हुए, उन्हें जिस चीज की जरूरत है, वह सिंचन, चरवाही और उद्धार का वह कार्य नहीं है जो सृष्टिकर्ता सृजित प्राणियों पर करता है, बल्कि सभी चीजों में समृद्धि और उनकी आकांक्षाओं की पूर्ति करना, इस दुनिया में दंडित न किया जाना और आने वाली दुनिया में स्वर्ग जाना है। उनका दृष्टिकोण और जरूरतें सत्य के प्रति उनकी घृणा के उनके सार की पुष्टि करती हैं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद पंद्रह : वे परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते और वे मसीह के सार को नकारते हैं (भाग एक))। जब मैंने पहली बार यह अंश पढ़ा तो मैं थोड़ा चौंक गई : क्या यह मेरी वर्तमान अवस्था का सटीक वर्णन नहीं कर रहा था? पहले मैं सिर्फ इतना जानती थी कि मेरी आस्था में खोज करने का मेरा नजरिया गलत था, लेकिन यह अंश पढ़ने के बाद मुझे एहसास हुआ कि इस पूरे समय मैं अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के परमेश्वर पर विश्वास कर रही थी। पहले मैंने परमेश्वर के अनुग्रह का भरपूर आनन्द लिया था और उसके कुछ कर्म देखे थे। यह परमेश्वर की हमारे प्रति दया और सुरक्षा थी और उसने हमारी समस्याओं के अनुसार हमारे लिए मार्ग खोल दिया, जिससे हमें सामान्य जीवन जीने और उसका अनुसरण करने के लिए उपयुक्त स्थिति पाने की अनुमति मिली। जब मैं धीरे-धीरे कुछ सत्य समझने लगी तो परमेश्वर ने मेरे जीवन की जरूरतों के आधार पर मुझे शुद्ध करने और बदलने के लिए उपयुक्त परिस्थितियों का आयोजन किया और मुझे उसका ज्ञान पाने की अनुमति दी। यही तरीका है जिससे परमेश्वर मानवजाति को बचाता है। फिर भी परमेश्वर के अनुग्रह का इतना आनन्द लेने के बाद मैंने उसे अपनी धारणाओं में सीमित कर दिया, माना कि वह अनुग्रह और आशीष देने वाला परमेश्वर है। जब परमेश्वर के कार्य मेरी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं हुए तो मैंने अपनी धारणाओं के आधार पर उसका मूल्यांकन किया माना कि उसे मेरी रक्षा करनी चाहिए और मुझे इतना बीमार नहीं होने देना चाहिए। मैंने शब्दों में तो परमेश्वर का नाम स्वीकारा, लेकिन मैं अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अस्पष्ट परमेश्वर में विश्वास किया। यह परमेश्वर की निन्दा थी। इसका एहसास होने पर मैं भयभीत हो गई और और भी देखा कि यह बीमारी मेरे लिए कैसे एक प्रकार का अनुग्रह थी, जिसने परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाएँ सुधारने में मेरी मदद की। यह सब परमेश्वर का प्रेम और उद्धार था। मैंने जल्दी से परमेश्वर से पश्चात्ताप करने के लिए प्रार्थना की। मेरी बीमारी एक बार की बात नहीं थी, यह पुरानी थी, इसे लेकर कुछ कहा नहीं जा सकता था इसलिए मुझे प्रवेश के लिए एक मार्ग की खोज करने की आवश्यकता थी।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों के ये अंश देखे : “तुम्हें लग सकता है कि परमेश्वर पर विश्वास करना कष्ट सहने या उसके लिए कई चीजें करने से ताल्लुक रखता है; तुम्हें लग सकता है कि परमेश्वर में विश्वास का प्रयोजन तुम्हारी देह की शांति के लिए है, या इसलिए है कि तुम्हारी जिंदगी में सब-कुछ ठीक रहे, या इसलिए कि तुम आराम से रहो और हर चीज में सहज रहो। परंतु इनमें से कोई भी प्रयोजन ऐसा नहीं है, जिसे लोगों को परमेश्वर पर अपने विश्वास के साथ जोड़ना चाहिए। अगर तुम इन प्रयोजनों के लिए विश्वास करते हो, तो तुम्हारा दृष्टिकोण गलत है, और तुम्हें पूर्ण बनाया जाना बिलकुल संभव नहीं है। परमेश्वर के क्रियाकलाप, परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव, उसकी बुद्धि, उसके वचन, और उसकी अद्भुतता और अगाधता ही वे सब चीजें हैं, जिन्हें लोगों को समझना चाहिए। यह समझ होने पर, तुम्हें इसका उपयोग अपने हृदय को व्यक्तिगत माँगों, आशाओँ और धारणाओं से छुटकारा दिलाने के लिए करना चाहिए। केवल इन चीजों को दूर करके ही तुम परमेश्वर द्वारा अपेक्षित शर्तें पूरी कर सकते हो, और केवल ऐसा करके ही तुम जीवन प्राप्त कर सकते हो और परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हो। परमेश्वर पर विश्वास करने का प्रयोजन उसे संतुष्ट करना और उसके द्वारा अपेक्षित स्वभाव को जीना है, ताकि अयोग्य लोगों के इस समूह के माध्यम से उसके क्रियाकलाप और उसकी महिमा प्रकट हो सके। परमेश्वर पर विश्वास करने का यही सही दृष्टिकोण है और यही वह लक्ष्य भी है, जिसे तुम्हें पाना चाहिए। परमेश्वर पर विश्वास करने के बारे में तुम्हारा सही दृष्टिकोण होना चाहिए और तुम्हें परमेश्वर के वचनों को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने की आवश्यकता है और तुम्हें सत्य को जीने, और विशेष रूप से पूरे ब्रह्मांड में उसके व्यावहारिक कर्मों, उसके अद्भुत कर्मों को देखने, और साथ ही देह में उसके द्वारा किए जाने वाले व्यावहारिक कार्य को देखने में सक्षम होना चाहिए। अपने वास्तविक अनुभवों द्वारा लोग इस बात को समझ सकते हैं कि कैसे परमेश्वर उन पर अपना कार्य करता है और उनके प्रति परमेश्वर के इरादे क्या हैं। इस सबका प्रयोजन लोगों का भ्रष्ट शैतानी स्वभाव दूर करना है। ... जो लोग वास्तव में सत्य का अनुसरण करते हैं, परमेश्वर संबंधी ज्ञान की तलाश करते हैं, और जीवन की खोज करते हैं, केवल वे ही वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करते हैं” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा)। “तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो और परमेश्वर का अनुसरण करते हो, और इसलिए तुम्हारे पास परमेश्वर-प्रेमी हृदय होना चाहिए। तुम्हें अपना भ्रष्ट स्वभाव जरूर छोड़ देना चाहिए, तुम्हें परमेश्वर के इरादे पूरे करने का प्रयास अवश्य करना चाहिए और तुम्हें सृजित प्राणी का कर्तव्य अच्छे से निभाना ही चाहिए। चूँकि तुम परमेश्वर में विश्वास और उसका अनुसरण करते हो, तुम्हें अपना सर्वस्व उसे अर्पित कर देना चाहिए, और व्यक्तिगत चुनाव या माँगें नहीं करनी चाहिए, और तुम्हें परमेश्वर के इरादे पूरे करने चाहिए। चूँकि तुम्हें सृजित किया गया था, इसलिए तुम्हें उस प्रभु के प्रति समर्पण करना चाहिए जिसने तुम्हें सृजित किया, क्योंकि तुम्हारा स्वयं अपने ऊपर कोई स्वाभाविक प्रभुत्व नहीं है, और तुममें स्वयं अपनी नियति को नियंत्रित करने की क्षमता नहीं है। चूँकि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर में विश्वास करता है, इसलिए तुम्हें पवित्रता और परिवर्तन की खोज करनी चाहिए” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। परमेश्वर के वचनों के माध्यम से मुझे उसकी अपेक्षाओं की कुछ समझ मिली। हमारी आस्था में हमें आशीष और शांति की खोज नहीं करनी चाहिए, बल्कि हमें परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के लिए सृजित प्राणियों के रूप में अपनी जगह पर डटे रहना चाहिए, विभिन्न स्थितियों के माध्यम से परमेश्वर के इरादे और स्वभाव की समझ पानी चाहिए और आत्म-चिंतन करना चाहिए, खुद को जानना चाहिए और ऐसी स्थितियों के माध्यम से अपनी अशुद्धियों और आशीष की इच्छा को त्यागना चाहिए। सिर्फ ऐसा करने से ही हम स्वभावगत परिवर्तन पाकर उद्धार पा सकते हैं। पहले मेरी आस्था अनुग्रह पाने पर आधारित थी। इसलिए इतने लंबे समय तक बीमार रहने के बावजूद मैंने कभी सत्य की खोज नहीं की और मेरे जीवन को नुकसान झेलना पड़ा। जब मैंने समर्पण किया, सत्य की खोज की और परमेश्वर के वचनों और कार्यों का अनुभव करना शुरू किया तो मुझे परमेश्वर के नेक इरादों का एहसास होने लगा। मेरी देह को कुछ हद तक पीड़ा हुई, लेकिन इस स्थिति ने आस्था के बारे में मेरे गलत विचारों को सुधार दिया और मुझे अपनी आस्था में अपने घृणित इरादों को पहचानने और उन्हें समय रहते सुधारने की अनुमति दी। यह परमेश्वर की दया और प्रेम का और भी बड़ा उदाहरण था, मेरे देह को मिले अनुग्रह और आशीष से भी बड़ा। मैं अभी भी पूरी तरह से ठीक नहीं हुई थी और कभी-कभी मुझे दौरे पड़ते थे। मैं सिर्फ समर्पण करने और परमेश्वर के बारे में शिकायत न करने से संतुष्ट नहीं हो सकती थी, मुझे उसके इरादे की खोज जारी रखनी थी, इस पर चिंतन करना था कि मैंने कौन-सी भ्रष्टता प्रकट की, परमेश्वर को मेरे कौन-से पहलू से अभी भी घृणा है, और अपने भ्रष्ट स्वभाव सुलझाने के लिए परमेश्वर के वचनों का न्याय और ताड़ना स्वीकारनी थी। यही वह रास्ता है जिस पर मुझे चलना था। इसका एहसास होने पर मैंने परमेश्वर से कम दूरी महसूस की, अपने कर्तव्य में और अधिक सक्रिय हो गई, अपने काम में मुद्दों की समीक्षा करने पर ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया, उन क्षेत्रों से संबंधित सिद्धांतों का अध्ययन किया जिनमें मैं कमजोर थी और मुझे अपने पेशेवर कौशल में कुछ सुधार दिखाई देने लगा। धीरे-धीरे मेरा स्वास्थ्य बेहतर होने लगा है और दौरे कम होने लगे हैं। यह समझ और परिवर्तन पाने के लिए मेरा मार्गदर्शन करने के लिए परमेश्वर का धन्यवाद।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?