एक डॉक्टर का प्रायश्चित

23 अप्रैल, 2022

यांग फ़ैन, चीन

जब मैं एक डॉक्टर बनी तो मैं हमेशा विनम्र और पेशेवर रहने की कोशिश करती थी। मैं अच्छा काम करती थी और मैंने बहुत-से लोगों को ठीक किया। जल्दी ही, हमारे समुदाय के सब लोग मुझ पर भरोसा करने लगे। बरसों बाद, मैंने देखा कि दूसरे सब डॉक्टर नई कारें और घर खरीद चुके थे, जबकि मैं अब भी पुराने पुश्तैनी घर में रह रही थी। मैं अब भी साइकिल पर आती-जाती थी। मेरे जुड़वां बेटे बड़े हो रहे थे और मेरे सामने बहुत-से खर्चे थे, पर मेरे पास बहुत थोड़-से पैसे थे। मैं खर्चों के बारे में सोचती तो मैं न कुछ खा पाती न सो पाती। मैं सोचती : "ऐसा क्यों है कि मैं मुश्किल से ही घर चला पा रही हूँ, जबकि दूसरे सब डॉक्टर इतना पैसा कमा रहे हैं?"

फिर एक दिन ग्रामीण डॉक्टरों की कॉन्फ्रेंस में मैं अपने कुछ पुराने सहपाठी दोस्तों से बात कर रही थी। मैंने उनसे पूछा कि वे इतना कैसे कमा लेते थे। डॉक्टर सुन ने जवाब दिया, "केंद्रीय अधिकारियों ने कहा है : 'बिल्ली काली हो या सफेद, उसका काम चूहे पकड़ना है।' आज के समाज में पैसा ही सब कुछ है। पैसा कमाना अपने-आपमें एक हुनर है। लेकिन अगर तुम अपनी अंतरात्मा को बीच में लाओगी तो जिंदगी भर गरीब ही रहोगी!" एक दूसरी डॉक्टर ली ने कहा : "अगर तुम ज्यादा कमाना चाहती हो तो तुम्हें मरीजों को खुश रखना होगा। उनका इलाज करते समय उन्हें कुछ हॉर्मोन्स दो। इससे वे जल्दी अच्छे हो जाएंगे और यह गैरकानूनी भी नहीं है। इससे तुम्हारी साख बढ़ेगी, तुम्हारे पास ज्यादा मरीज भी आएंगे और पैसे भी।" एक और डॉक्टर जिन ने कहा : "'छोटी बीमारियों का बड़ा इलाज करो।' अगर कोई सर्दी की वजह से खांसी के इलाज के लिए आता है, तो आम इलाज से ज्यादा पैसे नहीं आएंगे, और समय भी ज्यादा लगेगा। अगर निमोनिया या फ्लू हो तो तुम ज्यादा कमा पाओगी। वे अच्छा महसूस करेंगे और हर कोई खुश रहेगा।" हर किसी के पास पैसे कमाने का अपना तरीका था। मैं थोड़ा चिंतित हो गई। क्या डॉक्टरों को इस तरह ईमान के बिना मरीजों से पैसे वसूलने चाहिए? क्या यह बहुत गिरा हुआ आचरण नहीं था? पर मैं उनके घरों और कारों के बारे में भी सोच रही थी, और वे सब कितने आत्म-विश्वास से बात कर रहे थे। जबकि मैं अब भी साइकिल से चिपकी हुई थी और कितनी गरीब थी। अगर मैंने वैसा नहीं किया जैसा वे कह रहे थे तो मैं ज्यादा पैसे कैसे कमाऊँगी? अपने परिवार को एक अच्छी जिंदगी कैसे दूँगी? और फिर, हर कोई यही तो कर रहा था। अगर मैं नैतिकता के साथ डॉक्टरी करती भी रही तो भी मैं समाज को नहीं बदल सकती। और इस तरह, ज्यादा पैसे के प्रलोभन के आगे मेरी अंतरात्मा हारती चली गई। मैंने अपने साथियों के तौर-तरीकों को आजमाने का फैसला किया। मैं मरीजों का ज्यादा इलाज करने लगी, उन्हें मंहगी दवाएं देने लगी।

एक दिन एक मरीज दाँत दर्द के लिए आया। यह सिर्फ जिंगीवाइटिस था और मैं उसे सस्ती दवा दे सकती थी। पर उसे दर्द से तड़पते देख मुझे डॉक्टर जिन की बात याद आ गई : "छोटी बीमारियों का बड़ा इलाज करो।" इसलिए मैंने उसे पश्चिमी और चीनी देशी दवाएं दोनों ही लिख दीं और कुछ इंजेक्शन भी लिख दिए। मुझे डर था कि वह इतनी सारी दवाओं को मना न कर दे, इसलिए मैंने हमदर्दी जताते हुए कहा : "दवाएं थोड़ी ज्यादा हैं, पर ये तुम्हारी बीमारी को जड़ से मिटा देंगी।" मरीज ने अपना गाल पकड़े हुए सिर हिलाया और चुपचाप पैसे देकर चला गया। उसे जाते देखकर, मेरी घबराहट कुछ कम हुई। मैंने हमेशा के मुकाबले बहुत ज्यादा पैसे कमा लिए थे और शुरू में थोड़े अपराध-बोध के बावजूद यह भावना जल्दी ही गायब हो गई। फिर एक दिन एक माँ अपने पाँच साल के बेटे के साथ आई। उसे सर्दी लग गई थी और थोड़ी खांसी थी, और उसे बस कुछ एंटीबायोटिक्स की जरूरत थी। पर मुझे याद आया कि इस तरह के इलाज से मुझे खास पैसे नहीं मिलने वाले। इसलिए मैंने बच्चे की माँ से कहा : "तुम्हारे बेटे को ट्रेकाइटिस है। उसे फौरन एक आईवी ड्रिप की जरूरत है, नहीं तो उसे निमोनिया हो जाएगा।" वह बहुत घबरा गई, पर उसने मेरी बात पर आँख मूंदकर विश्वास कर लिया, और मैंने उसके बेटे को चार दिन के लिए आईवी ड्रिप चढ़ा दिया। वे अस्पताल से निकले तो उन्होंने मुझे इतने ज्यादा पैसे दिए जो इस तरह के इलाज के लिए मेरी पहले की कमाई से कई गुना ज्यादा थे। मुझे अपराध-बोध हुआ, पर मैंने एक बार फिर दूसरे डॉक्टरों की बातों के बारे में सोचा : "ईमान तुम्हारे बिल नहीं चुका सकता, न तुम्हें रोटी खिला सकता है। अगर तुम इसकी सुनोगी तो हमेशा गरीब रहोगी।" यह सोचकर मेरा अपराध-बोध फौरन गायब हो गया। कभी-कभी लोगों को पैसा कमाने के लिए, समाज में जिंदा रहने के लिए झूठ बोलना पड़ता है। मेरे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं था।

बाद में, पुराने ब्रोंकाइटिस की एक मरीज मुझसे मिलने आई। उसे कुछ सादी दवाओं की जरूरत थी। पर इससे मुझे ज्यादा पैसे न मिलते। इसलिए मैंने उससे कहा : "तुम्हें आईवी चढ़ाने की जरूरत है, नहीं तो तुम्हें एंफिसीमा हो सकता है, जिससे बाद में दिल का दौरा भी पड़ सकता है।" मेरे उकसाने पर वह सात दिनों के लिए आईवी चढ़ाने के लिए तैयार हो गई। मुझे याद है, इलाज के आखरी दिन उसने मेरा हाथ अपने हाथों में लेकर कहा था : "शुक्रिया डॉक्टर। इस इलाज के बाद मैं बहुत अच्छी महसूस कर रही हूँ। अगर यह बीमारी एंफिसीमा या दिल के दौरे में बदल जाती तो मुझे बहुत तकलीफ झेलनी पड़ती।" यह सुनकर मेरी अंतरात्मा पर एक चोट-सी लगी और मेरा चेहरा लाल सुर्ख हो गया। लेकिन मैंने एक बार फिर यही सोचा : "इस समाज में कौन झूठ नहीं बोलता, बेईमानी नहीं करता? पैसा कमाना अपने-आपमें एक हुनर है।" यह सोचते हुए मेरी बेचैनी और चिंता कम होती चली गई। इस तरह मैं पैसे के लालच में दिनोदिन और पतित होती चली गई। कुछ साल बाद, मैंने काफी पैसे कमा लिए। मेरे पास एक बड़ा घर था, बच्चों की शादी हो गई थी, और मैं अच्छी जिंदगी जी रही थी। पर मैं हर समय एक अपराध-बोध महसूस करती थी। मैं अंदर से शांत नहीं थी। मैं हमेशा एक बेचैनी-सी महसूस करती थी। मुझे लगता था किसी को यह सब पता चल जाएगा और वह हरेक को मेरे बारे में बता देगा। यह विचार मुझे बहुत विचलित कर देता था।

एक दिन हमारे गाँव की एक बहन ने मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार सुनाया जिसके बाद मैं परमेश्वर के वचनों को अक्सर पढ़ने लगी। एक बार एक सभा में हमने ईमानदारी के बारे में परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। "तुम लोगों को पता होना चाहिए कि परमेश्वर ईमानदार इंसान को पसंद करता है। मूल बात यह है कि परमेश्वर निष्ठावान है, अत: उसके वचनों पर हमेशा भरोसा किया जा सकता है; इसके अतिरिक्त, उसका कार्य दोषरहित और निर्विवाद है, यही कारण है कि परमेश्वर उन लोगों को पसंद करता है जो उसके साथ पूरी तरह से ईमानदार होते हैं। ईमानदारी का अर्थ है अपना हृदय परमेश्वर को अर्पित करना; हर बात में उसके साथ सच्चाई से पेश आना; हर बात में उसके साथ खुलापन रखना, कभी तथ्यों को न छुपाना; अपने से ऊपर और नीचे वालों को कभी भी धोखा न देना, और मात्र परमेश्वर की चापलूसी करने के लिए चीज़ें न करना। संक्षेप में, ईमानदार होने का अर्थ है अपने कार्यों और शब्दों में शुद्धता रखना, न तो परमेश्वर को और न ही इंसान को धोखा देना। मैं जो कहता हूँ वह बहुत सरल है, किंतु तुम लोगों के लिए दुगुना मुश्किल है। बहुत-से लोग ईमानदारी से बोलने और कार्य करने की बजाय नरक में दंडित होना पसंद करेंगे। इसमें कोई हैरानी की बात नहीं कि जो बेईमान हैं उनके लिए मेरे भंडार में अन्य उपचार भी है। ... अंत में किसी व्यक्ति की नियति कैसे काम करती है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या उसके अंदर एक ईमानदार और भावुक हृदय है, और क्या उसके पास एक शुद्ध आत्मा है। यदि तुम ऐसे इंसान हो जो बहुत बेईमान है, जिसका हृदय दुर्भावना से भरा है, जिसकी आत्मा अशुद्ध है, तो तुम अंत में निश्चित रूप से ऐसी जगह जाओगे जहाँ इंसान को दंड दिया जाता है, जैसाकि तुम्हारी नियति में लिखा है। यदि तुम बहुत ईमानदार होने का दावा करते हो, मगर तुमने कभी सत्य के अनुसार कार्य नहीं किया है या सत्य का एक शब्द भी नहीं बोला है, तो क्या तुम तब भी परमेश्वर से पुरस्कृत किए जाने की प्रतीक्षा कर रहे हो? क्या तुम तब भी परमेश्वर से आशा करते हो कि वह तुम्हें अपनी आँख का तारा समझे? क्या यह सोचने का बेहूदा तरीका नहीं है? तुम हर बात में परमेश्वर को धोखा देते हो; तो परमेश्वर का घर तुम जैसे इंसान को, जिसके हाथ अशुद्ध हैं, जगह कैसे दे सकता है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तीन चेतावनियाँ)परमेश्वर के वचन पढ़कर मेरी समझ में आया कि परमेश्वर का सार निष्ठावान है और वह ईमानदार लोगों को पसंद करता है। परमेश्वर अपने साथ हमारे बोलों और बर्ताव में खुलापन चाहता है। हम अकेले हों या दूसरों के साथ, हमें परमेश्वर की निगरानी को स्वीकार करना चाहे और उसके या दूसरों के साथ झूठ नहीं बोलना चाहिए। हमें ईमानदार और भरोसेमंद होना चाहिए, क्योंकि सिर्फ ऐसे ही लोग बचाए और परमेश्वर के राज्य में ले जाए जा सकते हैं। यह सोचकर कि परमेश्वर हमसे क्या चाहता है, मुझे अहसास हुआ कि एक डॉक्टर के नाते, मैं अपने मरीजों और उनके सही इलाज के बारे में नहीं सोच रही थी, बल्कि ज्यादा पैसे कमाने के तरीके सोच रही थी। उनको ठीक करने की बजाय मैं उन्हें बेवकूफ बनाकर उनसे पैसे झटक रही थी। मैं उनके डर का गलत फायदा उठाकर मामूली बीमारी को गंभीर बना रही थी और इस बहाने उन्हें महंगी दवाएं और लंबा इलाज परोस रही थी। मैंने उनके पैसे बर्बाद करवाए थे। फिर भी वे मेरा शुक्रिया अदा कर रहे थे। मैं कितनी गिरी हुई, घृणित इंसान थी! हालांकि मैं पहले से बहुत ज्यादा कमा रही थी, पर मैं हमेशा बेचैन और अशांत रहती थी और मुझे सकून नहीं मिलता था। मैंने अपनी अंतरात्मा से आँखें फेर ली थीं। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि वह दूसरों से झूठ बोलने और उन्हें धोखा देने वालों से नफरत करता है, और ऐसे लोगों का अंत अच्छा नहीं होता। सिर्फ ईमानदार लोग ही परमेश्वर की प्रशंसा और उसका उद्धार पा सकते हैं। इसके बाद मैं एक ईमानदार इंसान बनना चाहने लगी। मैंने फैसला किया कि मैं अब कभी भी किसी से बेईमानी नहीं करूंगी, और मैं मरीजों का जरूरत से ज्यादा इलाज नहीं करूंगी। मैं इज्जत और ईमानदारी से डॉक्टरी का पेशा करना चाहती थी।

कुछ समय बाद, मुझे अहसास हुआ कि लोगों को ठगना और जरूरत से ज्यादा इलाज करना बंद करने के बाद से मेरी कमाई काफी कम हो गई थी। तब प्रशासक अस्पताल की कमाई क्लीनिकों की दवा की बिक्री से जुड़ी हुई थी। एक दिन अस्पताल ने प्रदर्शन मूल्यांकन के लिए एक मीटिंग बुलाई। चेयरमैन ने मुझ पर अस्पताल को नीचे गिराने का आरोप लगाया और हमारी "एडवांसस्ड क्लीनिक" वाली तख्ती हटा दी। अस्पताल ने अपने स्टाफ को प्रोत्साहन देना शुरू किया था। हर महीने, अगर कोई डॉक्टर अपने मासिक कोटे से ज्यादा दवा बिकवाता, तो अतिरिक्त लाभ का आधा उसे कमीशन के रूप में मिलता। मैंने हिसाब लगाया कि अगर मैं फिर से मरीजों का ज्यादा इलाज करने लगूँ, तो मुझे हर महीने 4,000 युआन की अतिरिक्त कमाई होगी, यानी साल में 50,000 युआन की अतिरिक्त कमाई। लेकिन अगर मैं ज्यादा इलाज करना वापस शुरू न करूँ, तो मैं कभी भी निर्धारित लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाऊँगी, और मेरी बहुत-सी कमाई चली जाएगी। मैं इस बारे में जितना ज्यादा सोचती उतना ही मुझे लगता कि मेरी लाइन में एक ईमानदार इंसान बनना मुमकिन नहीं था। पैसा कमाने के लिए लोगों को ठगना जरूरी था। और इस तरह मैं एक बार फिर परमेश्वर की इच्छा के खिलाफ जीने लगी। मैं अपनी अंतरात्मा को भुलाकर पुराने रास्ते पर चल पड़ी।

एक दिन एक विवाहित जोड़ा अपने बेटे को लेकर मेरे पास आया। उसे सर्दी लग गई थी, जिसकी वजह से उसे सांस का संक्रमण हो गया था। उसे ठीक होने के लिए सिर्फ कुछ सादी दवाओं की जरूरत थी। मैंने चिंता जताते हुए अपना स्टेथोस्कोप निकाला और बच्चे की छाती और पीठ पर लगाकर सुना। जांच के इस नाटक के बाद, मैंने उसके माता-पिता से गंभीरता से कहा : "आपके बच्चे को निमोनिया है, जो काफी फैल चुका है। आपको थोड़ा पहले आना चाहिए था! एक दिन और बीत जाता तो बड़ी मुश्किल हो जाती! खुशकिस्मती से अभी समय है। मैं उसे कुछ दिन के लिए आईवी ड्रिप चढ़ा देती हूँ, और वह ठीक हो जाएगा।" और इस तरह, मैं एक बार फिर मरीजों से पैसे ठगने लगी। मैंने बच्चे की बीमारी को बहुत खतरनाक बता दिया था। बाद में, मैंने खुद को धिक्कारा। मुझे डर था कि कहीं मेरा भेद खुल न जाए, इसलिए मैं हर दिन बहुत बेचैन महसूस करती रही। कभी-कभी मैं खुद से कहती कि यह बस आखरी बार है, इसके बाद ऐसा नहीं करूंगी। पर मैं पैसे के प्रलोभन को दबा न पाती, और खुद को ये पाप करने से न रोक पाती। मेरी जिंदगी एक कश्मकश बन गई। मैं जानती थी कि परमेश्वर हमसे ईमानदारी चाहता है, पर मैं कुछ भी करके मरीजों को ठगने से न रुक पाती।

बाद में मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : "ऐसी गंदी जगह में जन्म लेकर मनुष्य समाज द्वारा बुरी तरह संक्रमित कर दिया गया है, वह सामंती नैतिकता से प्रभावित हो गया है, और उसे 'उच्चतर शिक्षा संस्थानों' में पढ़ाया गया है। पिछड़ी सोच, भ्रष्ट नैतिकता, जीवन के बारे में क्षुद्र दृष्टिकोण, घृणित जीवन-दर्शन, बिलकुल बेकार अस्तित्व, भ्रष्ट जीवन-शैली और रिवाज—इन सभी चीजों ने मनुष्य के हृदय में गंभीर घुसपैठ कर ली है, उसकी अंतरात्मा को बुरी तरह खोखला कर दिया है और उस पर गंभीर प्रहार किया है। फलस्वरूप, मनुष्य परमेश्वर से और अधिक दूर हो गया है, और परमेश्वर का और अधिक विरोधी हो गया है। दिन-प्रतिदिन मनुष्य का स्वभाव और अधिक शातिर बन रहा है, और एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जो स्वेच्छा से परमेश्वर के लिए कुछ भी त्याग करे, एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जो स्वेच्छा से परमेश्वर की आज्ञा का पालन करे, इसके अलावा, न ही एक भी व्यक्ति ऐसा है जो स्वेच्छा से परमेश्वर के प्रकटन की खोज करे। इसके बजाय, इंसान शैतान की प्रभुता में रहकर, आनंद का अनुसरण करने के सिवाय कुछ नहीं करता और कीचड़ की धरती पर खुद को देह की भ्रष्टता में डुबा देता है। सत्य सुनने के बाद भी जो लोग अंधकार में जीते हैं, उसे अभ्यास में लाने का कोई विचार नहीं करते, न ही वे परमेश्वर का प्रकटन देख लेने के बावजूद उसे खोजने की ओर उन्मुख होते हैं। इतनी भ्रष्ट मानवजाति को उद्धार का मौका कैसे मिल सकता है? इतनी पतित मानवजाति प्रकाश में कैसे जी सकती है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है)। "कई हजार सालों की भ्रष्टता के बाद, मनुष्य संवेदनहीन और मंदबुद्धि हो गया है; वह एक दानव बन गया है जो परमेश्वर का इस हद तक विरोध करता है कि परमेश्वर के प्रति मनुष्य की विद्रोहशीलता इतिहास की पुस्तकों में दर्ज की गई है, यहाँ तक कि मनुष्य खुद भी अपने विद्रोही आचरण का पूरा लेखा-जोखा देने में असमर्थ है—क्योंकि मनुष्य शैतान द्वारा पूरी तरह से भ्रष्ट किया जा चुका है, और उसके द्वारा रास्ते से इतना भटका दिया गया है कि वह नहीं जानता कि कहाँ जाना है। आज भी मनुष्य परमेश्वर को धोखा देता है : मनुष्य जब परमेश्वर को देखता है तब उसे धोखा देता है, और जब वह परमेश्वर को नहीं देख पाता, तब भी उसे धोखा देता है। यहाँ तक कि ऐसे लोग भी हैं, जो परमेश्वर के शापों और कोप का अनुभव करने के बाद भी उसे धोखा देते हैं। इसलिए मैं कहता हूँ कि मनुष्य की समझ ने अपना मूल कार्य खो दिया है, और मनुष्य की अंतरात्मा ने भी अपना मूल कार्य खो दिया है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है)। परमेश्वर के वचनों से मुझे पता चला कि हम जिस समाज में रहते हैं और जो शिक्षा पाते हैं उसे शैतान ने भ्रष्ट कर दिया है। "धूर्तता के बिना धन नहीं आता," "पैसा सबसे पहले है," और "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए"—जैसे सभी फलसफे शैतान से आते हैं। ऐसे विचारों के असर और जहर से हमारे मूल्य विकृत हो जाते हैं। हम पैसे को सबसे ऊपर रखते हैं। हम ज्यादा कमाई के लिए अपनी नैतिकता को भी ताक पर रख देते हैं। हम झूठ बोलते हैं, धोखा देते हैं, और दिनोदिन और ज्यादा स्वार्थी, फरेबी, लालची और मक्कार होते जाते हैं, और अपनी मानवता खोते जाते हैं। एक डॉक्टर का कर्तव्य अपने मरीजों को ईमानदारी से ठीक करना है। यह मानवीय अंतरात्मा की सबसे पहली मांग है। पर पैसे के चक्कर में ज्यादातर डॉक्टर जरूरत से ज्यादा इलाज करते हैं और ज्यादा दवाएं लिखते हैं, और तो और, मरीजों को हॉर्मोन्स तक दे देते हैं। मरीजों को शुरू में खतरे का पता नहीं चलता, पर ज्यादा दवाओं और हॉर्मोन्स के इस्तेमाल से शरीर पर बहुत बुरा असर पड़ता है। बहुत ज्यादा दवाएं जहरीली साबित हो सकती हैं और गंभीर बीमारियों को जन्म दे सकती हैं। यह एक तरह से धीमी हत्या है। मैं जितना ज्यादा सोचती गई उतनी ही डरती चली गई। मुझे याद आया जब मैंने जवानी में डॉक्टर बनने का फैसला किया था। मैं शुरू में आम लोगों की मदद करना चाहती थी। पर इन शैतानी विचारों ने कि "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए", "पैसा सबसे पहले है," और "बिल्ली काली हो या सफेद, उसका काम चूहे पकड़ना है।" मुझे अपनी गिरफ्त में ले लिया, और मैं धीरे-धीरे अपनी अंतरात्मा और विवेक खोती चली गई। सिर्फ पैसे कमाने के लिए मैं तीन दिन की बीमारी को पाँच दिन तक खींचने लगी। अगर कोई बीमारी अठन्नी में ठीक हो सकती थी तो मैं इसे एक रुपए में ठीक करने लगी। शैतान ने मुझे इतना भ्रष्ट कर दिया था कि अपना ईमान, अपना विवेक खो बैठी थी। मेरा स्वभाव दिनोदिन और ज्यादा मक्कार होता चला गया था। मैं भेड़ की शक्ल में भेड़िया बन गई थी, जिसे अपने ईमान से ज्यादा पैसे की चिंता थी। परमेश्वर के वचनों को समझने के बाद मैं जान गई थी कि परमेश्वर हमें ईमानदार देखना चाहता है। फिर भी मैं पैसे के मोह से पीछा नहीं छुड़ा पाई और एक बार फिर अपने मरीजों को ठगने लगी। मैं देख रही थी कि शैतान के जहर किस तरह मेरी प्रकृति में घुलमिल गए थे। अगर परमेश्वर के वचनों के न्याय ने मेरा मार्गदर्शन करके मुझे मेरे झूठ का घिनौनापन और खतरे न दिखाए होते, तो मैं एक चालबाज की तरह ही जीती रहती। मैं पूरी जिंदगी बेचैनी और पछतावे से भरी रहती, और अपने दुष्ट व्यवहार के दंड के तौर पर नरक में जाती। आखिर मेरी समझ में आया कि हमें ईमानदार देखने की परमेश्वर की इच्छा क्यों इतनी महत्वपूर्ण है। ईमानदारी से जीने से हममें सत्यनिष्ठा और गरिमा आती है। अपने दिल को शांत रखने का यही एक तरीका है कि हम ईमानदार रहें। परमेश्वर की इच्छा को समझने के बाद मैंने उससे प्रार्थना की। मैं नए सिरे से जीने और अपने स्वार्थ को भूल जाने को तैयार थी, सत्य का अभ्यास करने और एक ईमानदार इंसान बनने को।

एक दिन, किसी दूसरे गाँव से कोई मरीज मेरे पास आया। बहुत सावधानी से जांच करने के बाद मैंने देखा कि उसकी टांग में नसों का अल्सर है। हाँ, यह आसानी से नहीं जाता और इसका इलाज बहुत मुश्किल है। पर मुझे एक गुप्त इलाज का पता था, जिससे यह बहुत कम खर्च में बिल्कुल ठीक हो सकता था। मरीज ने कहा कि वह कई डॉक्टरों और वैद्य-हकीमों को दिखा चुका था, पर हजारों युआन खर्च करके भी कोई फायदा नहीं हुआ था। यह सुनकर मैं सोचने लगी : "वह पहले ही हजारों युआन खर्च कर चुका है, इसलिए अगर मैं इलाज के लिए कुछ सौ युआन लेलूँ तो कोई बुरी बात नहीं है। यह मौका गंवाना बहुत बड़ी बेवकूफी होगी।" यह ख्याल आते ही मेरा दिल मचलने लगा, "यह आखरी बार होगा, इसके बाद मैं एक ईमानदार इंसान बन जाऊँगी।" लेकिन मैं उसे दवा लिख ही रही थी, कि मुझे परमेश्वर के सामने किया गया संकल्प याद आया। मैं प्रार्थना करने लगी : "हे परमेश्वर, मैं झूठ बोलने की लत छोड़ नहीं पाई हूँ। मैं जानती हूँ कि मुझे अपना वायदा और संकल्प नहीं तोड़ना चाहिए। परमेश्वर, मुझे इस लालच से उबरने और एक ईमानदार इंसान बनने के लिए शक्ति दो।" मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया : "जो लोग सच्चे मन से परमेश्वर में विश्वास करते हैं, परमेश्वर उनके हृदय में बसता है और उनके भीतर हमेशा परमेश्वर का आदर करने वाला और उसे प्रेम करने वाला हृदय होता है। जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उन्हें सावधानी और समझदारी से कार्य करना चाहिए, और वे जो कुछ भी करें वह परमेश्वर की अपेक्षा के अनुरूप होना चाहिये, उसके हृदय को संतुष्ट करने में सक्षम होना चाहिए। उन्हें मनमाने ढंग से कुछ भी करते हुए दुराग्रही नहीं होना चाहिए; ऐसा करना संतों की शिष्टता के अनुकूल नहीं होता" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी)। परमेश्वर के वचनों के इस अंश ने मुझे दिखाया कि सच्चे विश्वासी अपने दिल में परमेश्वर के लिए आदर रखते हैं और ईमानदार और भरोसेमंद होते हैं। वे परमेश्वर की निगरानी को स्वीकार करके सब कुछ खुलेआम करते हैं और दूसरों को धोखा नहीं देते। वे सब कुछ संतों जैसी मर्यादा से करते हैं और परमेश्वर की इच्छानुसार चलते हैं। वे परमेश्वर का अनादर या अवज्ञा नहीं करते और उसे नापसंद चीजों से दूर रहते हैं। मुझे बोध हुआ कि मुझे भ्रष्ट करने के लिए शैतान एक बार फिर पैसे का लालच दे रहा था, ताकि मैं झूठ बोलना जारी रखूँ। पर मैं जानती थी मुझे परमेश्वर का विद्रोह करके उसकी इच्छा के खिलाफ और नहीं चलना चाहिए। मैं परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन और प्रबुद्धता की आभारी थी। मैंने एक बार फिर परमेश्वर से प्रार्थना की : "हे परमेश्वर! तुमने इस मरीज को मेरी परीक्षा लेने के लिए भेजा है। पहले मैं पैसों के लिए झूठ बोलती और ठगती थी, और शैतान की तरह जीवनयापन करती थी। पर मैं आज से एक ईमानदार इंसान बनकर तुम्हें खुश करना और शैतान को शर्मिंदा करना चाहती हूँ।" प्रार्थना के बाद, मैंने मरीज से संजीदगी से कहा : "हालांकि इस बीमारी का इलाज बड़ा मुश्किल है, पर मेरे पास एक इलाज है जो तुम्हें पक्का ठीक कर देगा। और इसका खर्च सिर्फ 30 सेंट है।" अगर यह पहले हुआ होता और मैं तुम्हें यह दवा देती तो मैं कई गुना ज्यादा पैसे मांगती। पर अब परमेश्वर के वचनों ने मुझे सत्य का अभ्यास करने औए एक ईमानदार और हमदर्द इंसान बनने की हिम्मत दे दी है। अब मैं दूसरों को ठगने या धोखा देने का काम नहीं करूंगी। उस दिन मरीज के दवा लेकर जाने के बाद, मैं कितनी खुश और अंदर से कितनी शांत महसूस करती रही थी।

दस दिन बाद, मरीज वापस आया और मेरा शुक्रिया अदा करते हुए कहने लगा : "मैं इस बीमारी के इलाज के लिए सब जगह गया, पर कोई फर्क नहीं पड़ा। मैंने आपकी दवाएं अभी पूरी भी नहीं लीं, और मेरा जख्म ठीक हो गया है! यह चमत्कारी दवा है! आपकी बहुत-बहुत मेहरबानी! मैं हर किसी को आपके बारे में बताऊंगा। आप सिर्फ बेहद काबिल ही नहीं हो बल्कि पैसे भी कम लेती हो।" मैंने उसके ये कृतज्ञता भरे शब्द सुने तो मैं समझ गई कि मुझमें यह छोटा-सा बदलाव परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन से आया है।

मुझे याद आया कि मैं कैसे सोचा करती थी कि "पैसा सबसे पहले है," "धूर्तता के बिना धन नहीं आता," और "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए।" इन जहरीले विचारों के नशे में मैं अपनी अंतरात्मा, अपनी ईमानदारी और नैतिकता खो बैठी थी। मेरा दिल पत्थर का हो गया था। परमेश्वर के वचनों और उद्धार ने मेरी अंतरात्मा और मेरा विवेक लौटा दिया था, और मेरे खोए हुए सिद्धांत लौटा दिए थे। इसके बाद, मैं अपने पास आने वाले हर मरीज का ईमान से इलाज करने लगी। मैं उन्हें वही देती जो जरूरी होता, और उन्हें उनकी सही हालत बताती। मैं ईमानदार रहने के इस संकल्प पर टिकी रही। और जैसाकि होना था, मुझे बढ़चढ़कर परमेश्वर के आशीष मिलने लगे। मैं बेहद शांति और सकून महसूस करने लगी। मैं जिन मरीजों का इलाज करती थी वे मेरे बारे में दूसरों को बताने लगे। आसपास के सभी गांवों के लोग मुझसे इलाज करवाने आने लगे। मुझे लगता था कि सच्चाई और ईमानदारी पर चलकर ही कोई सच्चा इंसान बन सकता है। झूठ को ठुकराना और सच बोलना ईमानदारी की तरफ पहला कदम था, और मैं जानती हूँ कि परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार जीने और सही आचरण के लिए मुझे बहुत कुछ करना है।

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