अपने अहंकार से जागना
मैंने 2015 में सुसमाचार फैलाने का काम शुरू किया और परमेश्वर के मार्गदर्शन से मुझे थोड़ी-बहुत सफलता मिली। कभी-कभी मैं जिन्हें सुसमाचार सुनाता उनमें गहरी धारणाएँ होतीं, और वे सुसमाचार की आगे जाँच-पड़ताल करना नहीं चाहते थे। तो मैं परमेश्वर में विश्वास रखकर उससे प्रार्थना करता और धैर्य से उनके साथ सत्य पर संगति करता और वे तुरंत अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य को स्वीकार लेते। अपने कर्तव्य में थोड़ी सफलता पाकर, मुझे लगा कि मैं दूसरे भाई-बहनों से बेहतर हूँ, मानो मैं कोई दुर्लभ प्रतिभा हूँ।
तब मेरे साथी लियाम और मैं अलग-अलग कलीसिया का सिंचन कार्य सँभाल रहे थे। मेरी कलीसिया बड़ी थी, जिसमें काफी सदस्य थे, तो जब मैंने शुरू किया, मैं हमेशा परमेश्वर से प्रार्थना करता और उस पर निर्भर रहता, भाई-बहनों से चर्चा करता था। जल्दी ही हर कार्य सुचारु रूप से होने लगा। अधिकांश भाई-बहन नियत ढंग से सभाओं में भाग ले रहे थे और बड़े सक्रिय ढंग से अपने कर्तव्य करते थे। मैं खुद से बहुत प्रसन्न था। मैं सोच रहा था कि इतनी बड़ी कलीसिया और इतने सदस्य होने के बावजूद इतनी जल्दी परिणाम मिल रहे हैं, तो लगता है मुझमें कुछ काबिलियत जरूर है। मैंने देखा कि लियाम का सिंचन कार्य कुछ खास अच्छा नहीं चल रहा था, उसकी कलीसिया के कुछ ऐसे सिंचनकर्मियों के कर्तव्यों को समायोजित करने की जरूरत थी, जो काम के लिए सही नहीं थे, और कुछ को उनकी नकारात्मक स्थिति के कारण संगति की आवश्यकता थी। इसलिए मैंने उसे थोड़ा हिकारत से देखा और मुझे लगा कि वो मेरी मदद के बिना इन समस्याओं को नहीं सुलझा सकता। उसके बाद मैं उसके काम में हाथ बंटाने लगा, मैं सभाओं में सभी को गलतियों और त्रुटियों का सार समझाता, लोगों को उनकी नकारात्मक अवस्था से निकालने के लिए परमेश्वर के वचनों पर संगति करता, अनुपयुक्त सिंचनकर्मियों के कर्तव्यों को समायोजित करता। काम में जल्द ही तेजी आने लगी। यह देखकर कि मैंने कितनी जल्दी हमारी समस्याओं का समाधान कर लिया, मुझे और भी लगने लगा कि मेरे बिना काम नहीं चलेगा और मैं एक दुर्लभ प्रतिभा हूँ। मेरा अहंकार बढ़ता ही गया। दिल लगाकर कर्तव्य न करने को लेकर मैं अक्सर भाई-बहनों के बारे में शिकायत करता और यह कहते हुए उन्हें डाँटता : “सिंचन कार्य में कितना विलंब हो गया है। क्या कोई भी परमेश्वर की इच्छा पर ध्यान दे रहा है और कार्य ठीक से कर रहा है? आप सब लोग बहुत गैरजिम्मेदार और आलसी हैं। अच्छी बात यह है कि पिछले कुछ हफ्तों में थोड़ी प्रगति हुई है, वरना इस देरी का जिम्मा कौन लेता?” उस समय किसी की एक शब्द भी कहने की हिम्मत नहीं हुई। मैं सोचने लगा कि कहीं मेरी प्रतिक्रिया अनुचित तो नहीं थी, ज्यादा लेकिन फिर सोचा, बिना सख्ती दिखाए वे परवाह नहीं करेंगे। जब मैं अपने भाई-बहनों के काम में कोई समस्या या भटकाव देखता तो मैं अक्सर उन्हें नीची नजर से देखता, उन्हें फटकारता, और उनसे अपनी बात मनवाता, धीरे-धीरे उन्होंने मुझसे किनारा कर लिया, काम के अलावा वे मुझसे कभी कोई बात नहीं करते थे। कभी-कभी वे आपस में हंसते-खिलखिलाते थे, लेकिन मुझे देखते ही तितर-बितर हो जाते, मानो मुझसे डरते हों। चूंकि वे गड़बड़ करने और फटकारे जाने से डरते थे, इसलिए जब भी कुछ बात होती तो वे मेरे फैसले का इंतजार करते। यह स्थिति देखकर मुझे थोड़ी बेचैनी हुई। मैं सोचने लगा कि कहीं मैं अधिकारवादी बनकर मसीह विरोधी के पथ पर तो नहीं चल रहा। लेकिन फिर सोचा कि मुझे काम में दृढ़ रहने की जरूरत है। अगर मैंने थोड़ी सख्ती नहीं दिखाई तो कोई मेरी नहीं सुनेगा। फिर हमारा काम कैसे होगा? मुझे लगा सीधे समस्याओं पर बात करने का अर्थ है कि मुझमें धार्मिकता की समझ है। उसके बाद तो मेरा अहंकार और भी गंभीर हो गया, मैं चाहता था कि हर छोटी-बड़ी चीज में मेरी राय ही अंतिम हो, और मैं ही देखूँ कि सदस्यों की नियुक्ति और व्यवस्था कैसे हो रही थी, क्योंकि मुझे टीम में अपने जितना समर्थ कोई लगता ही नहीं था। जब मैं चर्चा करता भी था तो होता वही था जो मैं चाहता था, तो मुझे लगा कि मैं ही फैसला ले लूँ तो समय बचेगा। कभी जब मेरा अगुआ सभा में आता, तो मैं उसकी भी परवाह न करता, सोचता, “अगर आप अगुआ हैं तो क्या हुआ? क्या आप सुसमाचार साझा कर गवाही दे सकते हैं? क्या आप इस काम के एक पहलू को भी ठीक से कर सकते हैं? अगर आप केवल सभाओं में संगति कर सकते हैं, पर व्यावहारिक कार्य नहीं कर सकते, तो आप मेरी बराबरी कर ही नहीं सकते।” तो जब अगुआ मुझसे पूछते कि काम कैसा चल रहा है, तो मन होता, तो मैं ज्यादा बातें बताता, लेकिन जब बात करने का मन नहीं होता तो बस थोड़ा कुछ कहकर टाल जाता। मुझे लगता इस बारे में बात करने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि आखिर में काम तो मुझे ही करना है। अगुआ ने मेरे अहंकार को उजागर करते हुए कहा कि मैं हर काम में हमेशा अपनी बात मनवाता हूँ, भाई-बहनों के साथ अच्छे से काम नहीं करता। इस तरह काट-छाँट किए जाने पर, मैंने उसके सामने तो मान लिया कि मैं अहंकारी हूँ, लेकिन इस पर खास ध्यान नहीं दिया। मुझे लगा कि मुझमें अच्छी क्षमता है और मैं काबिल हूँ—अगर मैं काम अच्छे से करता हूँ, तो मैं थोड़ा अहंकारी हूँ भी तो क्या हुआ? फिर कलीसिया के अधिकांश कार्यों की अगुआई भी मैं ही करता था, तो वे क्या कर लेंगे—मुझे निकाल देंगे? मैंने अगुआ द्वारा की गई काट-छाँट पर जरा भी ध्यान नहीं दिया, सब पर अपना नियंत्रण रखते हुए कर्तव्य पूरी तरह से अपनी मर्जी से करता रहा, जब तक परमेश्वर ने मुझे उजागर नहीं कर दिया।
एक बार, एक नई स्थापित कलीसिया में सिंचन के लिए लोग चाहिए थे, मैंने लियाम और बाकी लोगों से बात किए बगैर, उनकी मदद के लिए एक बहन के जाने का इंतजाम कर दिया। मुझे लगा कि आम तौर पर वे मेरे सुझाव से सहमत होते हैं, इसलिए मेरे अकेले का निर्णय लेना काफी है। लेकिन मुझे हैरानी हुई जब पता चला कि चूँकि सत्य को लेकर उस बहन की समझ काफी उथली थी, इसलिए वह कार्य के योग्य नहीं थी और व्यावहारिक समस्याएँ हल नहीं कर सकती थी। यह कलीसिया के कार्य में एक गंभीर बाधा थी और बाद में उसका कर्तव्य बदलना पड़ा। लेकिन फिर भी मैंने आत्म-चिंतन नहीं किया। उसके बाद, मेरे भयंकर अहंकार के कारण, अपने कर्तव्य में सत्य सिद्धांत न खोज पाने और लोगों को कर्तव्य में सिद्धांतों का पालन करने की राह न दिखा पाने की वजह से, हर कोई बिना किसी वास्तविक परिणाम के बस इधर-उधर भाग रहा था। इससे वाकई हमारे काम की प्रगति में बाधा आई। तब भी, मैं अपनी समस्याओं को पूरी तरह समझ नहीं सका—बोझ न उठाने के लिए मैं बस औरों को ही दोष देता रहा। कुछ समय तक, मुझे अजीब-सा पूर्वाभास होता रहा कि जैसे कोई बड़ी गड़बड़ होने वाली है। मुझे समझ नहीं आता था कि सभाओं या प्रार्थनाओं में क्या कहूँ, कार्य बैठकों में अक्सर मुझे नींद आने लगती थी, किसी चीज में अंतर्दृष्टि नहीं रही। दिमाग में धुँधलापन महसूस होने लगा, कुछ करने को ताकत नहीं बची, मन करता था कि सिर्फ आराम करूँ। मैं जान गया कि मैंने पवित्र आत्मा का कार्य खो दिया है, लेकिन ऐसा क्यों हुआ यह समझ नहीं आया। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, मदद की गुहार लगाई ताकि खुद को समझ सकूँ।
कुछ दिनों के बाद, मेरे अगुआ ने सभा में आकर मेरी काट-छाँट की और मेरे बर्ताव को उजागर किया। उसने कहा, “तुम अहंकारी हो। हमेशा घमंड से लोगों को डांटते हो, उन्हें बेबस करते हो, और अक्सर अपनी वरिष्ठता का दिखावा करते हो। तुम किसी की नहीं सुनते और तुम्हारे साथ काम करना मुश्किल है। इसके अलावा, किसी के साथ चर्चा किए बगैर अपनी मनमर्जी करते हो, तुम स्वेच्छाचारी और निरंकुश हो। तुम्हारे व्यवहार को देखते हुए, हमने तुम्हें बर्खास्त करने का फैसला किया है।” उसके एक-एक शब्द ने सीधे मेरे दिल पर चोट किया। मैंने अपने बर्ताव पर विचार किया। मैंने हमेशा अपनी ही चलाई और तानाशाही की। क्या मैं एक मसीह-विरोधी जैसा नहीं हूँ? उस विचार ने मुझे सचमुच डरा दिया और मैंने मन में सोचा : “क्या मैं परमेश्वर द्वारा उजागर किया और निकाला जा रहा हूँ? क्या मेरी बरसों की आस्था का अंत इस तरह होगा?” कुछ दिन तो लगा जैसे मैं कोई प्रेत हूँ। उठने के साथ ही मुझे भय लगने लगता, समझ न आता कि पूरा दिन कैसे काटूँगा। मैंने परमेश्वर से यह कहते हुए प्रार्थना की, “परमेश्वर, मुझे पता है कि इसमें तुम्हारी दयालु इच्छा है, लेकिन समझ नहीं आ रहा कि इससे पार कैसे पाऊँ। हे परमेश्वर, मैं बहुत निराश हूँ। मुझे प्रबुद्ध करो ताकि तुम्हारी इच्छा जान सकूँ।” फिर मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : “परमेश्वर इस बात से वास्ता नहीं रखता कि तुम्हारे साथ हर दिन क्या होता है, तुम कितना काम करते हो, कितनी मेहनत करते हो—वह सिर्फ यह देखता है कि इन चीजों के प्रति तुम्हारा रवैया क्या है। और तुम इन चीजों को जिस रवैये और तरीके से करते हो, उसका संबंध किससे है? इसका संबंध तुम्हारे सत्य का अनुसरण करने या न करने के साथ ही तुम्हारे जीवन-प्रवेश से भी है। परमेश्वर तुम्हारे जीवन-प्रवेश को देखता है, तुम जिस मार्ग पर चलते हो, उसे देखता है। अगर तुम सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलते हो, तुम जीवन-प्रवेश कर चुके हो, तो तुम कर्तव्य निभाते समय दूसरों के साथ मिल-जुलकर सहयोग कर सकोगे और अपना कर्तव्य समुचित रूप से पूरा कर लोगे। लेकिन अपना कर्तव्य निभाते हुए अगर तुम यह अकड़ दिखाते हो कि तुम्हारे पास पूँजी है, तुम अपने काम को समझते हो और अनुभवी हो, तुम परमेश्वर की इच्छा के प्रति सचेत होकर किसी और से ज्यादा सत्य का अनुसरण करते हो, और फिर यह सोचते हो कि इन कारणों से तुममें अंतिम निर्णय लेने की योग्यता है और तुम किसी दूसरे के साथ कुछ भी चर्चा नहीं करते, हमेशा कानून अपने हाथ में लिए फिरते हो, अपने ही प्रबंधन में जुटे रहते हो, और हमेशा यह चाहते हो कि ‘बहार में अकेले फूल तुम ही खिलो,’ तो क्या तुम जीवन-प्रवेश के मार्ग पर चल रहे हो? नहीं—यह रुतबे के पीछे भागना है, यह पौलुस की राह पर चलना है, यह जीवन-प्रवेश का मार्ग नहीं है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्य का समुचित निर्वहन क्या है?)। “एक व्यक्ति कई सालों से सुसमाचार फैला रहा था और उसके पास इसका कुछ अनुभव था। सुसमाचार फैलाते हुए उसने बहुत सारी कठिनाइयों का सामना किया, यहाँ तक कि उसे कैद कर लिया गया और कई वर्षों के लिए जेल भेज दिया गया। जेल से बाहर आने के बाद उसने सुसमाचार फैलाना जारी रखा और सैकड़ों लोगों को जीत लिया, जिनमें से कुछ महत्वपूर्ण प्रतिभाएँ साबित हुईं; कुछ तो अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में भी चुने गए। नतीजतन, इस व्यक्ति ने खुद को बड़ी प्रशंसा के योग्य माना, और जहाँ भी वह जाता, दिखावा करते हुए और अपनी गवाही देते हुए शेखी बघारने में इसका पूँजी के रूप में इस्तेमाल करता : ‘मैं आठ साल के लिए जेल गया और अपनी गवाही में दृढ़ रहा। मैं सुसमाचार फैलाते हुए कई लोगों को जीत पाया, जिनमें से कुछ अब अगुआ या कार्यकर्ता हैं। परमेश्वर के घर में मैं श्रेय का पात्र हूँ, मैंने अपना योगदान दिया है।’ चाहे वह कहीं भी सुसमाचार फैला रहा होता, स्थानीय अगुआओं या कार्यकर्ताओं के सामने शेखी जरूर बघारता। वह यह भी कहता, ‘तुम लोगों को मेरी बात सुननी चाहिए; यहाँ तक कि तुम लोगों के वरिष्ठ अगुआओं को भी मुझसे बात करते समय विनम्र रहना चाहिए। जो ऐसा नहीं करेगा, उसे मैं सबक सिखा दूँगा!’ यह व्यक्ति दबंग है, है न? अगर ऐसा व्यक्ति सुसमाचार न फैलाता और उन लोगों को न जीत पाता, तो क्या वह इतना घमंडी होने की हिम्मत करता? वह वाकई ऐसा करता। वह इतना घमंडी हो सकता है, इससे साबित होता है कि यह उसकी प्रकृति में है। यह उसका प्रकृति-सार है। वह इतना अहंकारी बन गया है कि उनमें बिल्कुल भी समझ नहीं है। सुसमाचार फैलाने और कुछ लोगों को जीत लेने के बाद उसकी अभिमानी प्रकृति काफी बढ़ जाती है, वे और भी अधिक घमंडी हो जाते हैं। ऐसे लोग जहाँ भी जाते हैं, अपनी पूँजी के बारे में शेखी बघारते हैं, वे जहाँ भी जाते हैं, श्रेय का दावा करने की कोशिश करते हैं, यहाँ तक कि विभिन्न स्तरों के अगुआओं पर दबाव डालते हैं, उनके साथ समान स्तर पर रहने की कोशिश करते हैं, और यहाँ तक सोचते हैं कि उन्हें खुद वरिष्ठ अगुआ होना चाहिए। इस तरह के व्यक्ति के व्यवहार से जो कुछ प्रकट होता है, उसके आधार पर हम सभी को स्पष्ट होना चाहिए कि उनकी प्रकृति कैसी है, और उनका अंत क्या होने की संभावना है। जब कोई दानव परमेश्वर के घर में घुसपैठ करता है, तो अपना असली रंग दिखाने से पहले वह थोड़ी-सी सेवा करता है; चाहे कोई भी उसकी काट-छाँट करे, वह नहीं सुनता, और परमेश्वर के घर के विरुद्ध लड़ने में लगा रहता है। उसके कार्यों की प्रकृति क्या होती है? परमेश्वर की दृष्टि में वह मौत को दावत दे रहा होता है, और जब तक वह खुद को मार न डाले, तब तक चैन से नहीं बैठेगा। इसे कहने का यही एकमात्र उपयुक्त तरीका है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सुसमाचार का प्रसार करना सभी विश्वासियों का गौरवपूर्ण कर्तव्य है)। इसे पढ़कर मैं डर से कांपने लगा। लगा जैसे परमेश्वर मुझे सामने से उजागर कर रहा है, मेरी उस स्थिति और सबसे गहरे दफन राज का खुलासा कर रहा है जो मैंने कभी किसी को नहीं बताए थे। इन कुछ सालों में सुसमाचार साझा करते हुए मुझे कुछ परिणाम मिले, तो लगा कि मैंने बहुत बड़ा योगदान दिया है, मैं एक दुर्लभ प्रतिभा हूँ, दिमाग में मैं अपने हर काम का हिसाब रखता था। मुझे लगता था कि मुझे कुछ श्रेय मिलना चाहिए और मैं कलीसिया का एक स्तंभ हूँ। मैंने इन चीजों को निजी पूंजी मानकर, अहंकार में लोगों को हिकारत से देखा। मुझे लोगों को घृणा से डांटना भी अच्छा लगता था, जिससे भाई-बहन विवश हो रहे थे। मैं चाहता था सभी चीजों में मेरी बात ही आखिरी हो, मैं अपने कर्तव्य में कोई सहयोग नहीं करता था, बल्कि निरंकुश बनकर मनमर्जी चलाता था, जिससे कलीसिया के काम में बहुत ज्यादा देरी हो रही थी और बढ़ा पड़ रही थी। यहाँ तक कि जब अगुआ ने मेरी काट-छाँट की, तब भी मैंने ध्यान नहीं दिया। बल्कि अपनी वरिष्ठता का दिखावा किया। मैंने उसे हिकारत से देखा और सोचा कि वह मुझसे बेहतर नहीं है, मैं उसकी निगरानी या मार्गदर्शन स्वीकारना नहीं चाहता था। मैं सब-कुछ अपने आप तय करना चाहता था। मेरी अपेक्षा पर खरे न उतरने पर मैं भाई-बहनों को डाँटता-फटकारता, उनसे कहता, “कर्तव्य अच्छे से नहीं किया तो तुम सबको बर्खास्त करके निकाल दूँगा।” इस कारण वे हर वक्त काम में ही जुटे रहते थे, इस डर से कि कुछ गड़बड़ होने पर उनकी काट-छाँट की जाएगी या कर्तव्य से निकाल दिया जाएगा और वे एक गलत स्थिति में जीते थे। ये कर्तव्य करना कैसे हुआ? क्या ये दुष्टता और परमेश्वर का विरोध नहीं है? इस ख्याल ने मुझे सचमुच डरा दिया। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मैं ऐसी दुष्टता करूंगा, कि मैं भाई-बहनों को इतना बेबस और आहत कर दूंगा, इस हद तक काम में व्यवधान पैदा कर उसे बिगाड़ दूंगा। मैं परमेश्वर से लड़ रहा था, लेकिन सोचता था कि मैं उसे संतुष्ट करने के लिए कर्तव्य निभा रहा हूँ। मैं कितना अंधा, अज्ञानी और बेतुका था! मैंने परमेश्वर के वचनों से जाना कि ऐसी हरकतें करना मौत को दावत देना है। परमेश्वर के इस वाक्यांश “मौत को दावत देना,” से मुझे एहसास हुआ कि ऐसे व्यक्ति से परमेश्वर कितना घृणा करता और चिढ़ता है। यह दिल दहला देने वाला था, मानो परमेश्वर ने मुझे मौत की सज़ा दी हो। मुझे लगता था कि मैं अपने कर्तव्य के लिए सब-कुछ कुर्बान कर सकता हूँ, मैं हमेशा ऐसा करने में सक्षम रहा हूँ, निश्चित ही परमेश्वर मुझे स्वीकारेगा, थोड़े-बहुत अहंकार से क्या फर्क पड़ता है। लेकिन फिर एहसास हुआ, अगर मैंने सत्य का अनुसरण नहीं किया और अपने स्वभाव को नहीं बदल पाया, तो अपने काम में कितना भी त्याग कर लूँ या कितनी भी उपलब्धि हासिल कर लूँ, मैं बस एक सेवाकर्मी ही हूँ। परमेश्वर के वचनों के न्याय और प्रकाशन से मैंने उसका धार्मिक स्वभाव जाना जिसका अपमान नहीं किया जा सकता। मैंने देखा कि परमेश्वर अपने कार्यों में एकदम सैद्धांतिक है। दुनिया में अगर कोई व्यक्ति कुछ चीजें हासिल कर लेता है, तो शायद उसे कुछ पूंजी और लाभ मिल जाए। लेकिन परमेश्वर के घर में तो सत्य और धार्मिकता का ही बोलबाला है। कलीसिया में पूंजी और लाभ का उपयोग करना खुद को मारना, और परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचाना है।
फिर मैंने चिंतन किया कि मुझे क्यों लगा कि मेरे पास थोड़ी पूंजी है और क्यों अपने कर्तव्य में थोड़ा कुछ हासिल करके मैं इतना लापरवाह, अहंकारी और तानाशाह हो गया। मुझे कैसी प्रकृति नियंत्रित कर रही थी? मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : “अगर, अपने हृदय में, तुम वास्तव में सत्य को समझते हो, तो तुम्हें पता होगा कि सत्य का अभ्यास और परमेश्वर की आज्ञा का पालन कैसे करना है, तुम स्वाभाविक रूप से सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना शुरू कर दोगे। अगर तुम जिस मार्ग पर चल रहे हो वह सही है, और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है, तो पवित्र आत्मा का कार्य तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेगा—ऐसी स्थिति में तुम्हारे परमेश्वर को धोखा देने की संभावना कम से कम होगी। सत्य के बिना, बुरे काम करना आसान है और तुम यह अपनी मर्जी के बिना करोगे। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारा स्वभाव अहंकारी और दंभी है, तो तुम्हें परमेश्वर का विरोध न करने को कहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तुम खुद को रोक नहीं सकते, यह तुम्हारे नियंत्रण के बाहर है। तुम ऐसा जानबूझकर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, उनके कारण तुम खुद को ऊँचा उठाओगे, निरंतर खुद का दिखावा करोगे; वे तुम्हें दूसरों का तिरस्कार करने के लिए मजबूर करेंगे, वे तुम्हारे दिल में तुम्हें छोड़कर और किसी को नहीं रहने देंगे; वे तुम्हारे दिल से परमेश्वर का स्थान छीन लेंगे, और अंततः तुम्हें परमेश्वर के स्थान पर बैठने और यह माँग करने के लिए मजबूर करेंगे और चाहेंगे कि लोग तुम्हें समर्पित हों, तुमसे अपने ही विचारों, ख्यालों और धारणाओं को सत्य मानकर पूजा करवाएँगे। लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन इतनी बुराई करते हैं!” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है)। “कई प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव हैं जो शैतान के स्वभाव में शामिल हैं, लेकिन जो सबसे स्पष्ट और सबसे अलग है, वह एक अहंकारी स्वभाव है। अहंकार मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव की जड़ है। लोग जितने ज्यादा अहंकारी होते हैं, उतने ही ज्यादा अविवेकी होते हैं और वे जितने ज्यादा अविवेकी होते हैं, उतनी ही ज्यादा उनके द्वारा परमेश्वर का प्रतिरोध किए जाने की संभावना होती है। यह समस्या कितनी गम्भीर है? अहंकारी स्वभाव के लोग न केवल बाकी सभी को अपने से नीचा मानते हैं, बल्कि, सबसे बुरा यह है कि वे परमेश्वर को भी हेय दृष्टि से देखते हैं और उनके दिल में परमेश्वर का कोई भय नहीं होता। भले ही लोग परमेश्वर में विश्वास करते और उसका अनुसरण करते दिखायी दें, तब भी वे उसे परमेश्वर क़तई नहीं मानते। उन्हें हमेशा लगता है कि उनके पास सत्य है और वे अपने बारे में बहुत ऊँचा सोचते हैं। यही अहंकारी स्वभाव का सार और जड़ है और इसका स्रोत शैतान में है। इसलिए, अहंकार की समस्या का समाधान अनिवार्य है। यह भावना कि मैं दूसरों से बेहतर हूँ—एक तुच्छ मसला है। महत्वपूर्ण बात यह है कि एक व्यक्ति का अहंकारी स्वभाव उसको परमेश्वर के प्रति, उसके विधान और उसकी व्यवस्था के प्रति समर्पण करने से रोकता है; इस तरह का व्यक्ति हमेशा दूसरों पर नियंत्रण स्थापित करने व सत्ता के लिए परमेश्वर से होड़ करने की ओर प्रवृत्त होता है। इस तरह के व्यक्ति के हृदय में परमेश्वर के प्रति तनिक भी भय नहीं होता, परमेश्वर से प्रेम करना या उसके प्रति समर्पण करना तो दूर की बात है। जो लोग अहंकारी और दंभी होते हैं, खास तौर से वे, जो इतने घमंडी होते हैं कि अपनी सुध-बुध खो बैठते हैं, वे परमेश्वर पर अपने विश्वास में उसके प्रति समर्पित नहीं हो पाते, यहाँ तक कि बढ़-बढ़कर खुद के लिए गवाही देते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर का सबसे अधिक विरोध करते हैं और उन्हें परमेश्वर का बिलकुल भी भय नहीं होता। यदि लोग उस मुकाम पर पहुँचना चाहते हैं जहाँ उनके दिल में परमेश्वर के प्रति भय हो तो सबसे पहले उन्हें अपने अहंकारी स्वभाव का समाधान करना होगा। जितना अधिक तुम अपने अहंकारी स्वभाव का समाधान करोगे, तुम्हारे दिल में परमेश्वर के लिए उतना ही अधिक भय होगा और केवल तभी तुम उसके प्रति समर्पित होकर सत्य प्राप्त कर सकते हो और उसे जान सकते हो। केवल सत्य को प्राप्त करने वाले ही वास्तव में मनुष्य होते हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे सिखाया कि परमेश्वर के खिलाफ अवहेलना और विरोध की जड़ अहंकार है। अहंकारी प्रकृति वाला खुद को परमेश्वर का दमन और बुराई करने से नहीं रोक पाता। इस दौरान मैंने जो उजागर किया था उस पर चिंतन करते हुए मुझे समझ आया कि मेरा व्यवहार मेरी अहंकारी प्रकृति के अधीन था। थोड़ी-सी चीजें हासिल करके मैं उड़ने लगा था, मुझे लगता था कि मेरे पास अच्छी काबिलियत है, मैं एक दुर्लभ प्रतिभा हूँ और मेरे बिना कलीसिया का काम नहीं चल सकता। मैंने दूसरे भाई-बहनों को हिकारत से देखा, अक्सर अपने पद का दुरुपयोग कर उन्हें डांटा, बेबस किया, उन्हें कुछ नहीं समझा। मैं अपने कर्तव्य में तानाशाह और निरंकुश था, किसी से किसी बात पर चर्चा नहीं करता था। मुझे लगता कि मैं अकेले ही सही हूँ और एकतरफा निर्णय ले सकता हूँ। मैं बेहद अभिमानी था और मेरे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल भी नहीं था। जब अगुआ ने मेरी काट-छाँट की, तो मैंने माना कि मैं अहंकारी हूँ, लेकिन इसकी परवाह नहीं की। मुझे तो ये भी लगा कि अहंकार में कुछ बुरा नहीं है, मुझे लगता था अहंकारी कहलाने का मतलब है कि मुझमें कुछ कौशल है। अगर मेरे पास कोई पूंजी न होती, तो मैं अहंकारी क्यों होता? मैं एकदम बेतुका और बेशर्म था। “सारे ब्रह्मांड का सर्वोच्च शासक बस मैं ही हूँ,” इस शैतानी विष से जी रहा था, ऐसे पेश आता था मानो मैं कलीसिया में एक बादशाह हूँ और मेरा कहा ही अंतिम होगा। मैं बड़े लाल अजगर की तानाशाही से किस प्रकार अलग था? बड़ा लाल अजगर अहंकारी और अराजक है, जो उनकी नहीं सुनता, वो उसे अभूतपूर्व साधनों से हिंसापूर्वक दबाते हैं। मैं कलीसिया में तानाशाह और अड़ियल था, किसी की निगरानी बर्दाश्त नहीं करता था। क्या ऐसा स्वभाव बड़े लाल अजगर के समान नहीं था? तभी मुझे एहसास हुआ कि मैं कितनी अभिमानी रहा हूँ, मुझे न लोगों की परवाह की, न ही परमेश्वर की, मैं अनजाने में सत्य के विरुद्ध जा रहा था, परमेश्वर से होड़ कर रहा था और उसका विरोध करने के मार्ग पर था। अगर मैंने पश्चाताप नहीं किया, तो यकीनन बड़े लाल अजगर की ही तरह परमेश्वर द्वारा शापित और दंडित किया जाऊंगा। तब मुझे यह बिल्कुल स्पष्ट हो गया कि मेरी अहंकारी प्रकृति के परिणाम कितने गंभीर हैं, मेरी समस्या कोई छोटी-मोटी भ्रष्टता दिखाने जैसी नहीं थी, जैसा कि मैंने पहले सोचा था। मुझे तब की याद आई जब मैंने दूसरों को डांटकर, नीचा दिखाकर खुद को ऊंचा उठाया था, मैं ऐसे बोलता और खुद को पेश करता मानो दुनिया में मेरे बराबर कोई नहीं है। मुझे अपने आपसे घिन आने लगी और नफरत होने लगी। मैंने संकल्प लिया कि मुझे हर चीज में सिद्धांत खोजते हुए, उचित ढंग से सत्य का अनुसरण करना है, परमेश्वर का भय मानने वाला दिल रखना है और अपनी अहंकारी प्रकृति के अनुसार जीते हुए परमेश्वर का विरोध नहीं करना है।
बाद में जब मैं खोज कर रहा था कि अपने कर्तव्य में, सफलता मिलने पर मेरा उचित व्यवहार कैसा होना चहिए, तो मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “क्या तुम अपना कर्तव्य निभाने के दौरान परमेश्वर का मार्गदर्शन और पवित्र आत्मा का प्रबोधन महसूस करने में सक्षम हो? (हाँ।) अगर तुम पवित्र आत्मा के कार्य को महसूस करने में सक्षम हो, फिर भी अपने बारे में ऊँची राय रखते हो और सोचते हो कि तुम वास्तविकता से युक्त हो, तो यह क्या हो रहा है? (जब हमारा कर्तव्य-पालन कुछ सफल हो जाता है, तो हम सोचते हैं कि आधा श्रेय परमेश्वर का है और आधा हमारा। हम अपने सहयोग को असीम रूप से बढ़ा-चढ़ा लेते हैं, और सोचते हैं कि हमारे सहयोग से ज्यादा महत्वपूर्ण कुछ नहीं था, और परमेश्वर का प्रबोधन इसके बिना संभव नहीं होता।) तो परमेश्वर ने तुम्हें प्रबुद्ध क्यों किया? क्या परमेश्वर अन्य लोगों को भी प्रबुद्ध कर सकता है? (हाँ।) जब परमेश्वर किसी को प्रबुद्ध करता है, तो यह परमेश्वर का अनुग्रह होता है। और तुम्हारी ओर से वह छोटा-सा सहयोग क्या है? क्या वह कोई ऐसी चीज है, जिसके लिए तुम्हें श्रेय दिया जाए—या वह तुम्हारा कर्तव्य और जिम्मेदारी है? (यह हमारा कर्तव्य और जिम्मेदारी है।) जब तुम मानते हो कि यह तुम्हारा कर्तव्य और जिम्मेदारी है, तो तुम सही मनःस्थिति में होते हो, और तब तुम इसका श्रेय लेने की कोशिश करने के बारे में नहीं सोचोगे। अगर तुम हमेशा यह सोचते हो, ‘यह मेरा योगदान है। क्या परमेश्वर का प्रबोधन मेरे सहयोग के बिना संभव होता? इस कार्य के लिए इंसान के सहयोग की जरूरत है; यह उपलब्धि मुख्य रूप से हमारे सहयोग की बदौलत होती है,’ तो तुम गलत हो। अगर पवित्र आत्मा ने तुम्हें प्रबुद्ध न किया होता, और अगर किसी ने तुम्हारे साथ सत्य सिद्धांतों पर संगति न की होती, तो तुम सहयोग कैसे कर पाते? तुम्हें पता ही नहीं होता कि परमेश्वर की क्या अपेक्षा है, न ही तुम्हें अभ्यास का मार्ग पता होता। अगर तुम परमेश्वर की आज्ञा का पालन और सहयोग करना भी चाहते, तो भी तुम यह न जानते कि कैसे करें। क्या तुम्हारा यह ‘सहयोग’ केवल खोखले शब्द नहीं हैं? सच्चे सहयोग के बिना, तुम केवल अपने विचारों के अनुसार कार्य कर रहे होते हो—उस स्थिति में, तुम जो कर्तव्य निभाते हो, क्या वह मानक के अनुरूप हो सकता है? बिल्कुल नहीं, और यह विचाराधीन मुद्दे की ओर संकेत करता है। यह किस समस्या का संकेत देता है? व्यक्ति चाहे जो भी कर्तव्य करे, उसमें क्या वह परिणाम प्राप्त करता है, क्या मानक के अनुरूप अपना कर्तव्य निभाता है और परमेश्वर का अनुमोदन पाता है या नहीं, यह परमेश्वर के क्रियाकलापों पर निर्भर करता है। भले ही तुम अपनी जिम्मेदारियाँ और कर्तव्य पूरे कर दो, लेकिन अगर परमेश्वर कार्य न करे, अगर वह तुम्हें प्रबुद्ध न करे और तुम्हारा मार्गदर्शन न करे, तो तुम अपना मार्ग, अपनी दिशा या अपने लक्ष्य नहीं जान पाओगे। अंततः इसका क्या परिणाम होता है? लगातार परिश्रम करने के बाद, तुमने अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाया होगा, न ही तुमने सत्य और जीवन प्राप्त किया होगा—यह सब व्यर्थ हो गया होगा। इसलिए, तुम्हारे कर्तव्य का मानक अनुरूप होना, इससे तुम्हारे भाई-बहनों को लाभ मिलना, और परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त करना, ये सब परमेश्वर पर निर्भर करता है! लोग केवल वही चीजें कर सकते हैं, जिन्हें करने में वे व्यक्तिगत रूप से सक्षम होते हैं, जिन्हें उन्हें करना चाहिए और जो उनकी अंतर्निहित क्षमताओं के भीतर होती हैं—इससे ज्यादा कुछ नहीं। इसलिए, अंततः प्रभावशाली ढंग से कर्तव्य निभाना परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन और पवित्र आत्मा के प्रबोधन और अगुआई पर निर्भर करता है; केवल तभी तुम सत्य को समझ सकते हो और परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिए गए मार्ग और उसके द्वारा निर्धारित सिद्धांतों के अनुसार परमेश्वर का आदेश पूरा कर सकते हो। ये परमेश्वर के अनुग्रह और आशीष हैं, अगर लोग यह नहीं देख पाते, तो वे अंधे हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि कर्तव्य में मुझे मिली उपलब्धि का पूरा श्रेय परमेश्वर के अनुग्रह और पवित्र आत्मा के प्रबोधन और मार्गदर्शन को जाता है। परमेश्वर देह बना और मनुष्य का सिंचन और आपूर्ति करने के लिए उसकी उसने सत्य व्यक्त किया, सत्य सिद्धांतों के सभी पहलुओं पर स्पष्टता और ठोस रूप से संगति की। तब जाकर मैं कुछ सत्य समझ पाया, कर्तव्य में मुझे दिशा मिली, अभ्यास का पथ मिला, यह सब मेरी अच्छी क्षमता या कार्य करने में समर्थ होने के कारण नहीं हुआ। परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन या पवित्र आत्मा के प्रबोधन के बिना, काबिलियत या बोलने की कला के बावजूद, मैं कुछ हासिल नहीं कर पाता। मैंने यह जो थोड़ा-सा काम किया था, वह मात्र एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना था। यह मेरा दायित्व था। चाहे कर्तव्य जो भी हो, एक सृजित प्राणी को उसे करना चाहिए। कोई भी उपलब्धि मात्र वही होती है जो किया जाना चाहिए, यह हमारा निजी योगदान या पूंजी नहीं होनी चाहिए। लेकिन पता नहीं मैं किस मिट्टी का बना था। मुझे लगा कुछ उपलब्धियों का मतलब है कि मेरी क्षमता अच्छी है और मैं अपने काम में निपुण हूँ, और इस बात का मैंने लाभ उठाया। मैं परमेश्वर की महिमा चुराते हुए अपने आपसे बहुत खुश था। मैं बेहद घमंडी और विवेकशून्य था! वास्तव में, इस पर विचार करता हूँ तो लगता है कि अहंकारी भाव से काम करते हुए न केवल मैंने कुछ हासिल नहीं किया, बल्कि अक्सर काम में देरी भी की। जैसे कि जब मैंने लापरवाही से गलत व्यक्ति को सिंचन कार्य सौंप दिया, तो बहुत से नवागतों को समय पर सिंचन और पोषण नहीं मिल पाया, जिससे कलीसिया का काम गंभीर रूप से बाधित हो गया। और साथ ही, मैं सत्य सिद्धांतों में प्रवेश नहीं कर रहा था, न ही दूसरों को कर्तव्य में सिद्धांतों का पालन करने की राह दिखा रहा था। यानी हम अपने काम में कुछ हासिल नहीं कर पा रहे थे और इससे हमारी प्रगति में देर हो गई। लेकिन इन सब बातों पर मैंने कभी विचार ही नहीं किया। इसके बजाय, मैं खुद को बधाई देकर और भी अहंकारी हो गया, मुझे लगने लगा कि मेरे बिना कलीसिया का काम नहीं चल सकता। परमेश्वर अगर मुझे प्रबुद्ध कर सकता है, तो औरों को भी कर सकता है, तो क्या मेरी बर्खास्तगी के बाद भी कलीसिया का काम जैसा चल रह था वैसा चलता नहीं रह सकता? मैं इतना अहंकारी और अज्ञानी था इसलिए मुझे लगा कि मेरे बिना कलीसिया का काम नहीं चल सकता। मुझे अनुग्रह के युग के पौलुस का ख्याल आया। थोड़ा काम करके उसे लगा कि उसके पास पूंजी है, उसने दूसरों को कुछ नहीं समझा। उसने सीधे कहा कि वह महानतम शिष्य से कम नहीं है, और वह अक्सर पतरस को नीचा दिखाता था। आखिरकार, उसने अपने काम की एवज में परमेश्वर से एक पुरस्कार, एक मुकुट माँगा। वह मूर्खता की हद तक अहंकारी था। क्या मैं भी पौलुस जैसा नहीं था? मैं उसके ही मार्ग पर चल रहा था। परमेश्वर के वचनों के न्याय और प्रकाशन के बिना, मैं अपनी समस्याओं से अनजान रहता, सोचता कि मैं महान हूँ। यह सब देखकर मुझे अपने आपसे सचमुच घृणा होने लगी। मैं परमेश्वर के सामने पाप स्वीकारकर पश्चाताप करना चाहता था।
फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “क्या कोई जानता है कि परमेश्वर मानवजाति और समस्त सृष्टि के बीच कितने वर्षों से कार्य कर रहा है? जितने वर्षों से परमेश्वर कार्य करते हुए समस्त मानवजाति का प्रबंधन कर रहा है, उनकी विशिष्ट संख्या अज्ञात है; कोई भी सटीक आँकड़ा नहीं दे सकता, और परमेश्वर इन मामलों की जानकारी मानवजाति को नहीं देता। लेकिन, अगर शैतान ऐसा कुछ करता, तो क्या वह इसकी जानकारी देता? वह निश्चित रूप से देता। वह ज्यादा लोगों को धोखा देने और ज्यादा लोगों को अपने योगदान से अवगत कराने के लिए दिखावा करना चाहता है। परमेश्वर इन मामलों की जानकारी क्यों नहीं देता? परमेश्वर के सार का एक विनम्र और छिपा रहने वाला पहलू है। विनम्र और छिपे होने का उलटा क्या है? वह है अहंकारी होना और अपना प्रदर्शन करना। ... मानव-जाति का मार्गदर्शन करते हुए परमेश्वर ऐसा महान कार्य करता है, और वह पूरे ब्रह्मांड का संचालन करता है। उसका अधिकार और सामर्थ्य बहुत व्यापक है, फिर भी उसने कभी नहीं कहा, ‘मेरा सामर्थ्य असाधारण है।’ वह सभी चीजों के बीच छिपा रहता है, हर चीज का संचालन करता है, और मानव-जाति का भरण-पोषण करता है, जिससे पूरी मानव-जाति का अस्तित्व पीढ़ी-दर-पीढ़ी बना रहता है। उदाहरण के लिए, हवा और धूप को या पृथ्वी पर मानव-अस्तित्व के लिए आवश्यक सभी भौतिक वस्तुओं को लो—ये सब लगातार बहती रहती हैं। परमेश्वर मनुष्य का पोषण करता है, यह असंदिग्ध है। अगर शैतान कुछ अच्छा करे, तो क्या वह चुप रहेगा, और एक गुमनाम नायक बना रहेगा? कभी नहीं। वह वैसा ही है, जैसे कलीसिया में कुछ मसीह-विरोधी हैं, जिन्होंने पहले जोखिम भरा काम किया, जिन्होंने चीजें त्याग दीं और कष्ट सहे, जो शायद जेल भी गए हों; ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने कभी परमेश्वर के घर के कार्य के एक पहलू में योगदान दिया था। वे ये चीजें कभी नहीं भूलते, उन्हें लगता है कि इन कामों के लिए वे आजीवन श्रेय के पात्र हैं, वे सोचते हैं कि ये उनकी जीवन भर की पूँजी हैं—जो दर्शाता है कि लोग कितने ओछे हैं! लोग सच में ओछे हैं, और शैतान बेशर्म है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग दो))। “परमेश्वर मानवजाति से प्रेम करता है, मानवजाति की देखभाल करता है, मानवजाति के लिए चिंता दिखाता है, इसके साथ ही साथ लगातार और बिना रुके मानवजाति के लिए आपूर्तियाँ करता है। वह कभी अपने हृदय में यह महसूस नहीं करता कि यह एक अतिरिक्त कार्य है या जिसे ढेर सारा श्रेय मिलना चाहिए। न ही वह यह महसूस करता है कि मानवता को बचाना, उनके लिए आपूर्तियाँ करना, और उन्हें सब कुछ देना, मानवजाति के लिए एक बहुत बड़ा योगदान है। वह मानवजाति को अपने तरीके से और स्वयं के सार और जो वह स्वयं है और जो उसके पास है, उसके माध्यम से बस खामोशी से एवं चुपचाप प्रदान करता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मानवजाति को उससे कितना भोजन प्रबंध एवं कितनी सहायता प्राप्त होती है, परमेश्वर इसके बारे में कभी नहीं सोचता या श्रेय लेने की कोशिश नहीं करता। यह परमेश्वर के सार द्वारा निर्धारित होता है और साथ ही यह परमेश्वर के स्वभाव की बिलकुल सही अभिव्यक्ति भी है” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर I)। मैंने परमेश्वर के वचनों पर विचार किया, देखा कि उसका स्वभाव और सार कितना परोपकारी है। परमेश्वर सृष्टिकर्ता है जो हर चीज पर शासन और उसका पोषण करता है। वो फिर से देहधारण कर इंसान को बचाने के लिए सत्य व्यक्त कर रहा है, हमारे लिए एक बड़ी कीमत चुका रहा है। हालांकि, उसने कभी इसे मानवजाति के लिए बहुत बड़ा योगदान नहीं समझा। उसने कभी भी बढ़ा-चढ़ाकर नहीं बोला, अहंकार नहीं किया। वह बस चुपचाप अपना काम करता है, परमेश्वर का जीवन सार इतना परोपकारी है, वह किसी तरह का कोई अहंकार या दिखावा नहीं करता। वह हमारे प्रेम और अनंत स्तुति के योग्य है। मैं एक तुच्छ इंसान हूँ, शून्य हूँ, लेकिन फिर भी मैं अहंकारी था, हमेशा चाहता था कि अंतिम निर्णय मेरा हो। जरा-सी सफलता पर इतना इतरा रहा था, मानो यह किसी तरह की महान कृति या विशाल योगदान हो। मैं सभी को हिकारत से देखता था, हर काम अपने तरीके से करता था। मैं बेहद विवेकहीन और छिछला था। परमेश्वर कितना विनम्र और छिपा हुआ है, उसका सार परोपकारी है, जिसके कारण मुझे और दृढ़ता से यह महसूस होता है कि मेरा अहंकारी स्वभाव कितना कुत्सित और घिनौना है, इसके कारण मैं जल्द से जल्द सत्य समझकर ऐसे स्वभाव से छुटकारा चाहता था, इंसान की तरह जीना चाहता था।
एक सभा में, मैंने परमेश्वर के वचनों में यह अंश पढ़ा। परमेश्वर कहते हैं : “आज परमेश्वर तुम लोगों का न्याय करता है, तुम लोगों को ताड़ना देता है, और तुम्हारी निंदा करता है, लेकिन तुम्हें यह अवश्य जानना चाहिए कि तुम्हारी निंदा इसलिए की जाती है, ताकि तुम स्वयं को जान सको। वह इसलिए निंदा करता है, शाप देता है, न्याय करता और ताड़ना देता है, ताकि तुम स्वयं को जान सको, ताकि तुम्हारे स्वभाव में परिवर्तन हो सके, और, इसके अलावा, तुम अपनी कीमत जान सको, और यह देख सको कि परमेश्वर के सभी कार्य धार्मिक और उसके स्वभाव और उसके कार्य की आवश्यकताओं के अनुसार हैं, और वह मनुष्य के उद्धार के लिए अपनी योजना के अनुसार कार्य करता है, और कि वह धार्मिक परमेश्वर है, जो मनुष्य को प्यार करता है, उसे बचाता है, उसका न्याय करता है और उसे ताड़ना देता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के उद्धार के लिए तुम्हें सामाजिक प्रतिष्ठा के आशीष से दूर रहकर परमेश्वर की इच्छा को समझना चाहिए)। इसे पढ़कर, मैं परमेश्वर के वचनों से बहुत प्रेरित हुआ, मैंने उसकी इच्छा को बेहतर ढंग से समझा। मैं भ्रष्ट स्वभाव के भरोसे अपना कर्तव्य कर रहा था, काम को बाधित कर रहा था, इसलिए कलीसिया ने मुझे सिद्धांतों के आधार पर बर्खास्त कर दिया। मुझे लगा परमेश्वर मुझे उजागर करके निकाल रहा है, मैंने सोचा कि वह मुझे दंड दे रहा है और मुझे बचाया नहीं जा सकता। आखिर में मुझे एहसास हुआ कि मुझे बर्खास्त किए जाने का मतलब मुझे उजागर करना या निकालना नहीं था। उस बर्खास्तगी ने अच्छे समय में उठाए जा रहे मेरे दुष्ट कदमों को रोक दिया। इसने मुझे मेरे भ्रष्ट स्वभाव से अवगत कराया और मुझे यह दिखाया कि मैं गलत मार्ग पर हूँ। यह मेरे लिए परमेश्वर का उद्धार और सबसे वास्तविक प्रेम था।
उसके बाद, एक सभा में मैंने खुद को उजागर कर विश्लेषण किया कि किस प्रकार पहले मैं कर्तव्य में अहंकारी था, कैसे मैंने भाई-बहनों को आहत किया, कैसे बर्खास्त होने के बाद आत्म-चिंतन किया। पहले मुझे लगा था कि यह देखकर सभी मुझसे घृणा करेंगे कि मैं कितना अमानवीय था, मुझसे कोई रिश्ता नहीं रखना चाहेंगे, लेकिन हैरत है कि उन्होंने मेरी आलोचना नहीं की। मैं उनके कर्ज में और भी डूबा हुआ महसूस करने लगा। मैं सभी को अपने अहंकारी स्वभाव से आहत कर रहा था, मैं कितना अमानवीय था। बाद में, जब मैंने भाई-बहनों के साथ फिर से कर्तव्य करना शुरू किया, तो मैंने अपनी अहमियत नहीं दिखाई। भाई-बहनों को उनकी गलतियों के लिए हिकारत से देखना, उनकी गलतियों पर मुँह बनाना बंद कर दिया, अब मैं उनसे उचित ढंग से पेश आने में सक्षम था। मैंने समस्याओं पर सबकी सलाह ध्यान से सुनने का प्रयास भी किया, खुद पर अत्यधिक विश्वास रखना और मनमानी करना बंद कर दिया। थोड़े समय में मेरी स्थिति में अच्छा बदलाव आया, मैं फिर से पर्यवेक्षक नियुक्त किया गया। मुझे दिल से पता था कि परमेश्वर मेरा उत्कर्ष कर मुझ पर अनुग्रह कर रहा है। मैंने पहले की बात सोची कि कैसे मैं अपने कर्तव्य में अहंकारी था, कैसे मैंने कलीसिया के काम और भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश को बाधित किया, उसमें व्यवधान डाला, और फिर भी कैसे कलीसिया ने मुझे इतना महत्वपूर्ण कर्तव्य निभाने का एक और मौका दिया। मैंने सच में परमेश्वर की कृपा और उदारता का अनुभव किया। उसके बाद से अपने कर्तव्य में मैंने मनमानी करने के लिए अपने अहंकारी स्वभाव पर निर्भर रहना बंद कर दिया। अब मुझमें थोड़ा परमेश्वर का भय मानने वाला दिल था और मैं उससे लगातार प्रार्थना करता था। जब कोई समस्या आती जिसे मैं हल न कर पाता, तो मैं दूसरों से उस पर चर्चा करके साथ में सत्य सिद्धांतों की खोज करता। कुछ समय तक ऐसा करने के बाद, मैंने हमारी पूरी टीम के प्रदर्शन में काफी सुधार महसूस किया। जब मैं किसी साथी के बगैर, दूसरों से चर्चा किए बिना, सब-कुछ अपने दम पर कर रहा था, तो मैं थक जाता था। बहुत-सी बातें थीं जिनका मैं ध्यान नहीं रख पाता था या पूरी तरह से विचार नहीं कर पाता था, इसलिए हमें अच्छे नतीजे नहीं मिले। लेकिन अब मैं हर मुद्दे पर अपने भाई-बहनों के साथ चर्चा करता हूँ और हम एक-दूसरे की कमियों की भरपाई अपनी खूबियों से करते हैं, अब समस्याएँ हल करना कितना अधिक आसान है। लोगों के साथ सहयोग करके, मैंने जान लिया कि उनमें भी क्षमता है। कुछ लोग अपने कर्तव्यों में सत्य खोजने और सिद्धांत के अनुसार काम करने पर ध्यान देते हैं। कुछ में उतनी क्षमता न हो, पर वे परिश्रमी हैं, कलीसिया के काम को कायम रखते हैं। वह क्षमता मेरे अंदर नहीं है। पहले, मुझे लगता था कि मैं दूसरों से श्रेष्ठ और अधिक बलवान हूँ, अक्सर खुद को ऊँचा उठाता था और उन्हें डाँटता था, हर किसी को बेबस और खुद से दूर महसूस कराता था जो मेरे लिए पीड़ादायक था। अब मैं जान गया हूँ कि मैं बस एक सृजित प्राणी हूँ, एक भ्रष्ट इंसान हूँ, और ऐसा कुछ नहीं है जो मुझे भीड़ से अलग करता है। मैं भाई-बहनों के साथ सामान्य रूप से बात करता हूँ और सामंजस्य के साथ सहयोग करता हूँ। अपनी कमियों को दूर करने के लिए मैं अपने भाई-बहनों की खूबियों से सीख सकता हूँ। यह जीने का ज्यादा स्वतंत्र और आसान तरीका है।
करीब सालभर बाद एक सभा में, सभी ने उस साल जो कुछ अनुभव किया और सीखा, उस पर संगति की। मैं शांति से सुनता रहा, सोचता रहा कि मैंने उस साल में क्या पाया है। तब मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर ने मुझे बदलकर मेरी जान बचाई थी। अगर ऐसा न हुआ होता, तो मुझे अभी भी देख न पाता कि मेरी अहंकारी प्रकृति कितनी गंभीर है, जान न पाता कि थोड़ी खूबियों के दम पर मैं आत्म-तुष्ट और स्वेच्छाचारी बन गया था और मुझे अभी भी इसका एहसास नहीं होता कि मैं परमेश्वर का विरोधी था। यह परमेश्वर का अनुशासन, और उसके वचनों का प्रकाशन था जिसने मुझे मेरी अहंकारी प्रकृति को जानने दिया। उसने मुझे परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के बारे में भी सिखाया, और मुझमें परमेश्वर का थोड़ा भय मानने वाला दिल पैदा किया। मैं परमेश्वर के उद्धार के लिए बहुत आभारी हूँ!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?