मेरा अहंकारी स्वभाव कैसे बदला

04 नवम्बर, 2020

जिंगवेई, अमेरिका

सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "परमेश्वर के कार्य का प्रत्येक कदम—चाहे यह कठोर शब्द हों, न्याय हो या ताड़ना हो—मनुष्य को पूर्ण बनाता है और बिलकुल उचित होता है। युगों-युगों में कभी परमेश्वर ने ऐसा कार्य नहीं किया है; आज वह तुम लोगों के भीतर कार्य करता है ताकि तुम उसकी बुद्धि को सराहो। यद्यपि तुम लोगों ने अपने भीतर कुछ कष्ट सहा है, फिर भी तुम्हारे हृदय स्थिर और शांत महसूस करते हैं; यह तुम्हारे लिए आशीष है कि तुम परमेश्वर के कार्य के इस चरण का आनंद ले सकते हो। इस बात की परवाह किए बिना कि तुम भविष्य में क्या प्राप्त कर सकते हो, आज अपने भीतर परमेश्वर के जिस कार्य को तुम देखते हो, वह प्रेम है। यदि मनुष्य परमेश्वर के न्याय और उसके शोधन का अनुभव नहीं करता, तो उसके कार्यकलाप और उसका उत्साह सदैव सतही रहेंगे, और उसका स्वभाव सदैव अपरिवर्तित रहेगा। क्या इसे परमेश्वर द्वारा प्राप्त किया गया माना जा सकता है? यद्यपि आज भी मनुष्य के भीतर बहुत कुछ है जो काफी अहंकारी और दंभी है, फिर भी मनुष्य का स्वभाव पहले की तुलना में बहुत ज्यादा स्थिर है। तुम्हारे प्रति परमेश्वर का व्यवहार तुम्हें बचाने के लिए है, और हो सकता है कि यद्यपि तुम इस समय कुछ पीड़ा महसूस करो, फिर भी एक ऐसा दिन आएगा जब तुम्हारे स्वभाव में बदलाव आएगा। उस समय, तुम पीछे मुड़कर देखने पर पाओगे कि परमेश्वर का कार्य कितना बुद्धिमत्तापूर्ण है और उस समय तुम परमेश्वर की इच्छा को सही मायने में समझ पाओगे" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पीड़ादायक परीक्षणों के अनुभव से ही तुम परमेश्वर की मनोहरता को जान सकते हो)। मुझे लगता था कि सिर्फ़ अपने कर्तव्य में कीमत चुकाने की इच्छा और उत्साह होने से ही मुझे परमेश्वर की स्वीकृति मिल जाएगी। मैंने उसके वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करने या अपने स्वभाव को बदलने पर ध्यान नहीं दिया। मैं बस अहंकारी और तानाशाह बनकर अपना कर्तव्य निभाती रही। मैंने भाई-बहनों को बेबस कर दिया और कलीसिया के काम को भी नुकसान पहुँचाया। आखिर में मुझे पता चला कि परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के बिना, मेरा भ्रष्ट स्वभाव न तो शुद्ध हो सकता है, न बदल सकता है और मैं परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए कभी भी अपना कर्तव्य भी नहीं निभा पायी। मैंने सचमुच ये अनुभव किया कि परमेश्वर का न्याय और ताड़ना हमारे लिए उद्धार है।

2016 में मुझे सेट डिज़ाइनर का काम सौंपा गया। मैं ये सोचकर बहुत खुश थी, "मैंने इंटीरियर डिज़ाइन की पढ़ाई की है और इसमें मुझे चार साल का तजुर्बा है। इस काम को अच्छे से करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए, मुझे अपने पेशेवर गुणों का पूरा इस्तेमाल करना होगा।" फिर मैंने भाई-बहनों के साथ मिलकर कई गुण सीखे और सिद्धांतों पर सहभागिता की। कुछ समय बाद मुझे अपने काम में सफलता मिलने लगी। जब मैं किसी को ऐसा कहते सुनती, "तुम लोगों ने ये सेट काफ़ी अच्छा बनाया। बिल्कुल असली लग रहा है," तब मैं जवाब में तो इसे परमेश्वर का मार्गदर्शन बताती, लेकिन मन ही मन कहती, "हाँ, बेशक, आखिर इसे डिज़ाइन किसने किया है? मैं इस काम में माहिर हूँ!" मेरा अभिमान बहुत बढ़ गया और मैं काफ़ी ऊँची आवाज़ में बात करने लगी। जब भी कोई अपने काम में कुछ गलती करता, तो मैं उसे नीचा दिखाती थी। मैंने उनके साथ मंच की व्यवस्था पर चर्चा करनी बंद कर दी। मैंने सोचा, क्योंकि मैंने डिज़ाइन की पढ़ाई की है, इसलिए मुझे दूसरों की ज़रूरत नहीं, इससे समय की बर्बादी होती है, क्योंकि आखिर वो मेरी योजनाओं के साथ ही चलेंगे। मैं खुद ही दिमाग में एक नक्शा बनाकर डायरेक्टर से चर्चा करने चली जाती।

टीम की अगुआ के रूप में तरक्की पाने के बाद, मैं भाई-बहनों को और भी ज़्यादा नज़रंदाज़ करने लगी। एक बार जब हम रेस्टोरेंट का दृश्य तैयार कर रहे थे, हमारी टीम के भाई झांग ने कहा, "सामने का दरवाज़ा काफ़ी छोटा है, ये अच्छा नहीं दिख रहा।" मैंने उसकी बात नहीं सुनी। मैंने सोचा, "मैंने बहुत से रेस्टोरेंट के सेट डिज़ाइन किये हैं। क्या तुम्हें वाकई लगता है कि मुझे दरवाज़े की ऊंचाई के बारे में नहीं पता? तुमने तो न ज़्यादा सेट बनाये हैं, न डिज़ाइन की पढ़ाई की है, बिना किसी व्यवहारिक अनुभव के तुम मुझे मेरा ही काम सिखाना चाहते हो।" मैंने तुरंत उसके सुझाव को नकार दिया और सब कुछ अपने हिसाब से ही करवाया। कैमरामैन ने देखा तो बोला, दरवाज़ा काफ़ी छोटा है और इससे दृश्य ठीक नहीं लगेगा। वो इस तरह से शूट नहीं कर पायेगा। हमारे पास नया दरवाज़ा बनाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा था। फिर, हमें एक नयी अलमारी बनाने की ज़रूरत पड़ी, तो मैंने भाई चेन को मेरी ड्रॉइंग के अनुसार अलमारी बनाने को कहा। उसने कहा, "बीच का हिस्सा काफ़ी चौड़ा है। ये अच्छा नहीं लग रहा है। इसे थोड़ा पतला बना लें तो?" मैंने सोचा, "मैंने ऑनलाइन हर तरह की चीज़ें देखी हैं और इसकी नाप बिल्कुल सही है। जैसा मैं कहती हूँ वैसा करो, तुमसे कोई गलती नहीं होगी।" अपनी बात पर अड़े रहकर, मैंने कहा, "तुम कैसी बात कर रहे हो? मेरी ड्रॉइंग के हिसाब से ही बनाओ!" आखिर में, सभी ने कहा कि बीच का हिस्सा काफ़ी चौड़ा है और अच्छा नहीं लग रहा है। भाई चेन को अलमारी में सुधार करने के लिए और समय देना पड़ा, जिससे फ़िल्माने की प्रगति रुक गयी। फिर भी मैंने खुद पर विचार करने या खुद को जानने की कोशिश नहीं की और इसे नज़रअंदाज़ कर दिया। मैंने सोचा, "कभी-कभी गलतियाँ किससे नहीं होती? इसे ठीक करने के लिए थोड़ा समय और कुछ चीज़ें चाहिए, बस।"

एक बार एक सभा के बाद, भाई झांग ने मेरे बारे में ये कहा : "मैंने हाल ही में दूसरों के साथ काम करते वक्त आपका अड़ियल रवैया देखा है। आप हमारे सुझावों पर ध्यान नहीं देती हैं, और कुछ अच्छे सुझावों को भी नकार देती हैं। आप सरपरस्ती से बात करके दूसरों को दबा देती हैं, हमेशा अपने तरीके से काम करने को कहती रहती हैं। ये सब एक अहंकारी स्वभाव दिखाती हैं।" मैंने ज़बानी तौर पर तो इसे स्वीकार कर लिया, लेकिन सोचने लगी, "हाँ, मैं अहंकारी हूँ, लेकिन ये कोई बड़ी बात नहीं है।" कुछ दिनों के बाद, मेरे अहंकारी स्वभाव के लिए भाई लियू ने भी ये कहते हुए मेरा निपटारा किया कि मैं दूसरों की बात नहीं सुनती और उन्हें दबाती हूँ। उनकी बात खत्म होने से पहले ही मेरा पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया। मैंने सोचा, "तुममें से कोई भी मेरी बराबरी नहीं कर सकता। तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझसे निपटने की?" मैं जितना इस बारे में सोचती, उतना ही इसे अस्वीकार कर देती। मैं तो परमेश्वर की प्रार्थना में भी बहाने बनाने लगी थी। ऐसा करते रहने से, मेरी आत्मा और भी ज़्यादा काली और निराश होने लगी। मैं सेट के डिज़ाइन अच्छे से नहीं बना पा रही थी, फिर भी मैंने खुद पर विचार नहीं किया। एक दिन एक मेटल की कुर्सी के किनारे से मेरा पैर टकरा गया, जिससे मुझे काफ़ी गहरी चोट लगी। मुझे सात टाँके लगे। मैं जानती थी, ये कोई दुर्घटना नहीं बल्कि इसके पीछे ज़रूर परमेश्वर की इच्छा छिपी है। आख़िरकार मैंने अपने दिल को शांत कर खुद पर विचार किया। जब भी भाई-बहनों के पास कोई सुझाव या मददगार बातें होतीं, तो मैं उनसे असहमत होकर उनका विरोध करती। उनके प्रति मेरा रवैया बिल्कुल भी सहयोगी या विनम्र नहीं था। मैं बहुत कठोर थी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए कहा कि अपने भ्रष्ट स्वभाव को पहचानने में वो मेरा मार्गदर्शन करे।

मैंने अपनी सुबह की भक्ति में परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "यदि तुम दूसरों को अपने से कम मानते हो, तो तुम आत्मतुष्ट और दंभी हो और किसी के भी काम के नहीं हो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 22)। "ऐसा मत सोचो कि तुम एक अंतर्जात प्रतिभा हो, जो स्वर्ग से थोड़ी ही निम्न, किंतु पृथ्वी से बहुत अधिक ऊँची है। तुम किसी भी अन्य से ज्यादा होशियार नहीं हो—यहाँ तक कि यह भी कहा जा सकता है कि पृथ्वी पर जितने भी विवेकशील लोग हैं, तुम उनसे कहीं ज्यादा मूर्ख हो, क्योंकि तुम खुद को बहुत ऊँचा समझते हो, और तुममें कभी भी हीनता की भावना नहीं रही; ऐसा लगता है कि तुम मेरे कार्यों को बड़े विस्तार से अनुभव करते हो। वास्तव में, तुम ऐसे व्यक्ति हो, जिसके पास विवेक की मूलभूत रूप से कमी है, क्योंकि तुम्हें इस बात का कुछ पता नहीं है कि मैं क्या करूँगा, और उससे भी कम तुम्हें इस बात की जानकारी है कि मैं अभी क्या कर रहा हूँ। इसीलिए मैं कहता हूँ कि तुम जमीन पर कड़ी मेहनत करने वाले किसी बूढ़े किसान के बराबर भी नहीं हो, ऐसा किसान, जिसे मानव-जीवन की थोड़ी भी समझ नहीं है और फिर भी जो जमीन पर खेती करते हुए स्वर्ग के आशीषों पर निर्भर करता है। तुम अपने जीवन के संबंध में एक पल भी विचार नहीं करते, तुम्हें यश के बारे में कुछ नहीं पता, और तुम्हारे पास कोई आत्म-ज्ञान तो बिलकुल नहीं है। तुम इतने 'उन्नत' हो!" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो लोग सीखते नहीं और अज्ञानी बने रहते हैं : क्या वे जानवर नहीं हैं?)। इसे पढ़कर मैं बहुत दुखी हो गयी। ऐसा लगा जैसे हर वचन मुझे उजागर कर रहा हो। जब से मैं सेट डिज़ाइनर बनी, तब से खुद को एक ऐसी प्रतिभा समझने लगी थी जिसका कोई सानी नहीं, क्योंकि मुझे इस कारोबार की समझ के साथ काफ़ी अनुभव भी था। मैं भाई-बहनों के सामने घमंडी बन गयी थी, ख़ुद को माहिर समझती थी जिसकी कोई बराबरी नहीं कर सकता। आख़िरी फ़ैसला मेरा ही होता था और मैं सबके साथ मिलकर काम पर चर्चा नहीं करना चाहती थी। मैं इसे समय की बर्बादी समझती थी क्योंकि उन्हें डिज़ाइन की कोई समझ तो थी नहीं। जब भी मैं बेमन से किसी बात पर चर्चा करती, तो मुझे लगता था जैसे सारी जानकारी मेरे पास है, इसलिए मैं चीज़ों को ज्यादा अच्छे से समझ सकती हूँ। मैं उनके सुझावों पर ध्यान देने के बजाय उन्हें नज़रंदाज़ कर देती। मेरे मन में दूसरों के लिए कोई इज्ज़त नहीं थी। जब कभी भाई-बहन मेरे अहंकार के बारे में बताकर मुझे खुद पर विचार करने के लिए कहते, तो मैं इसे अस्वीकार करके उनका विरोध करती। मुझे एहसास हुआ कि मैं बेहद अहंकारी हो गयी हूँ। अपने अहंकारी स्वभाव के वश में आकर, मैं सभी को नीचा दिखाती, और भाई-बहनों को दुखी और बेबस कर देती थी। मैं अपने काम को लेकर अहंकारी और तानाशाह बन गयी थी, दूसरों को अपनी बात मानने पर मजबूर करती, उनसे दोबारा काम करवाती जिससे कलीसिया के काम में बाधा पहुँचती थी। मैं वाकई बुरे काम कर रही थी! इस बात का एहसास होने पर, मैं थोड़ा डर गयी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और पश्चाताप किया। मैं अब अपना काम अहंकारी बनकर नहीं करना चाहती थी।

इसके बाद से मैं अपने काम में अपने अहम को परे रखकर दूसरों के सुझावों पर अधिक ध्यान देने लगी, ताकि अपनी कमियों को ठीक कर सकूँ। कभी-कभी जब मैं कोई डिज़ाइन बनाती तो भाई-बहन मुझे बहुत से ऐसे सुझाव देने लगते जो मेरी सोच से अलग होते थे। उन्हें अस्वीकार करने के बारे में सोचते ही मुझे याद आता कि मैं दोबारा अहंकारी बन रही हूँ। मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना करती, ताकि मुझे अपने अहम का त्याग करने और अपने भ्रष्ट स्वभाव से पीछा छुड़ाने के लिए मार्गदर्शन मिले। मैं किसी ऐसे के सुझाव को मानना चाहती थी जिससे परमेश्वर के घर के कार्य को सबसे अधिक फायदा हो। जब से मैंने दूसरों के सुझाव मानने शुरू किये, मैंने देखा कि हमारे मंच के उपकरण बेहतर काम करने लगे थे, वो पहले से ज़्यादा कार्यशील और व्यवहारिक थे और आसानी से तैयार भी हो जाते थे। मुझे परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने का अच्छा फल मिला। लेकिन अपनी अहंकारी प्रकृति को अच्छे से नहीं समझने के कारण मुझमें आत्मचेतना की कमी थी। कुछ महीनों बाद मैंने देखा कि सभी को हमारा सेट अच्छा लग रहा था और मुझे अपने काम में थोड़ी सफलता भी मिली। इससे पहले कि मुझे पता चलता, मेरा अहंकारी स्वभाव दोबारा सामने आने लगा।

एक बार जब हम सब मिलकर एक अमीर आदमी के घर का सेट तैयार कर रहे थे, मैंने सोचा, "ऐसे इंसान के पास तो महंगी चीज़ें होंगी, ताकि उसका रुतबा दिखे।" मैंने भाई-बहनों से सेट को बिल्कुल अपने अनुसार बनवाया। भाई झांग ने कहा कि ये ज़्यादा आधुनिक लगने के कारण मुख्य किरदार के ज़माने से मेल नहीं खा रहा। मुझे ये सुनकर अच्छा नहीं लगा। मैंने सोचा, "तुम्हें क्या पता? इसे कहते हैं समय के साथ चलना। हमें ज़माने के दायरे से बाहर निकलकर सेट को उसके रुतबे के अनुसार डिज़ाइन करना चाहिए। जैसा कि मुझे लगता है, शायद तुम इन मकानों की बनावट या शैली के बारे में कुछ भी नहीं जानते। तुम्हारे विचार बहुत पुराने हैं।" मैंने उनसे कहा, "मुझे उस ज़माने का अंदाज़ा है।" मुझ पर भरोसा रखो। थोड़ी देर बाद, भाई चेन ने भी कहा कि खिड़कियाँ बहुत ज़्यादा आधुनिक लग रही हैं। मैं बहुत परेशान हो गयी, सोचने लगी कि ये लोग इतने पुराने ख्यालों वाले और अड़ियल क्यों हैं। मैंने अपने गुस्से पर काबू रखते हुए उन्हें मेरा सुझाव मानने को कहा। इस पर भाई चेन चुप हो गये। जब सेट बनकर तैयार हुआ, तो मुझे डायरेक्टर की बात सुनकर हैरानी हुई, उन्होंने कहा कि हमारे सेट में वास्तविकता का अभाव है और यह काफ़ी भड़कीला भी है, और मुख्य किरदार की उम्र से मेल नहीं खा रहा है। हमें उसे दोबारा बनाना पड़ा। मैंने इस बार भी इसे नज़रंदाज़ कर दिया। मुझे लगा उन्हें तारीफ़ करनी नहीं आती। क्योंकि ये सेट किसी को नहीं पसंद आया, इसलिए मुझे बेमन से इसे दोबारा बनवाना पड़ा।

बाद में, हमें एक सेट के लिए अस्सी के दशक की शैली के बड़े और आलीशान बिस्तर की ज़रूरत पड़ी। मुझे लगा हमें इसके लिए बहुत पैसे देने पड़ेंगे, लेकिन भाई झांग ने कहा कि अगर वो इसे खुद बनायेंगे तो काफ़ी पैसे बच जायेंगे, उनके दिमाग में पूरी योजना है। मुझे उनका सुझाव पसंद नहीं आया। खुद बनाने पर बेशक पैसे कम लगेंगे, लेकिन ये उतना टिकाऊ नहीं होगा। क्या ये मेहनत की बर्बादी नहीं है? मैंने डायरेक्टर से भी कहा कि भाई झांग का सुझाव बेकार है। डायरेक्टर ने मेरे बजट को बहुत ज़्यादा बताया, इसलिए उन्होंने वो सीन ही निकाल दिया। भाई झांग ने बाद में एक और सुझाव दिया, जिस पर मैंने उन्हें नासमझ और जिद्दी समझकर लंबा-चौड़ा भाषण सुना दिया। मुझे उस भाई को दबाते देख, एक और बहन ने मुझे अहंकारी बताया। मैंने उसकी बात नहीं मानी। यहाँ तक कि डायरेक्टर के साथ सेट की व्यवस्थाओं पर चर्चा करते वक्त भी मैं अहंकारी और जिद्दी बनी रही। इसलिए, कभी-कभी सेट हमारी ज़रूरत से बिल्कुल अलग बनते और हमें उसे दोबारा बनाना पड़ता। इससे फ़िल्म की शूटिंग रुक गयी।

जल्द ही मुझे इस काम से हटा दिया गया। अगुआ ने मुझसे कहा, "भाई-बहनों का कहना है कि तुम अहंकारी हो, तुम चीज़ें अपने हिसाब से करती हो, आख़िरी फ़ैसला भी तुम्हारा ही होता है। तुम लोगों पर रोब झाड़ती हो। तुम खुद को अगुआ और दूसरों को अपने नीचे काम करने वाला समझती हो। हर कोई तुम्हारे आगे खुद को बेबस महसूस करता है।" ये सुनकर मैं हैरान रह गयी। मैंने कभी खुद को दूसरों के सामने इतना ज़्यादा अहंकारी और बेतुका नहीं समझा था। मैं इतनी परेशान हो गयी कि मैंने अगुआ की किसी और बात पर ध्यान नहीं दिया। मैं कुछ दिनों तक बहुत दुखी रही। मैं न खा पायी और न ही ढंग से सो पायी। खुद पर विचार करते वक्त परमेश्वर के वचनों की ये पंक्ति मुझे याद आयी : "तुम में से प्रत्येक व्यक्ति को नए सिरे से जाँच करनी चाहिए कि अपने पूरे जीवन में तुमने परमेश्वर पर किस तरह से विश्वास किया है" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, प्रस्तावना)। मैंने ये सोचकर इस पर विचार किया, "मुझे परमेश्वर में विश्वास करते हुए पाँच साल हो गए, लेकिन मैंने कभी खुद पर विचार करने या खुद को पहचानने की कोशिश नहीं की। मैंने बिना सोचे-समझे इतना अहंकार प्रकट किया। मुझे सचमुच खुद पर विचार करना होगा।" मैंने परमेश्वर से ये प्रार्थना की : "हे परमेश्वर, मेरा मार्गदर्शन करो और मुझे प्रबुद्ध बनाओ, ताकि मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव को समझकर, अपने अहम का त्याग कर सकूँ। मैं पश्चाताप करना चाहती हूँ।" एक दिन मैं किसी काम से फ़िल्म की शूटिंग वाली जगह पर गयी, जहाँ पर पुराने ज़माने का कैंग बना था, बिल्कुल वैसा ही जैसा भाई झांग ने सुझाया था। इसमें मेरे शुरुआती बजट से करीब आधे पैसे लगे थे। भाई झांग और अन्य लोगों ने मिलकर गत्ते से मंच के बहुत से ज़रूरी उपकरण भी बनाये थे। वो अच्छे तो दिख ही रहे थे, उन्हें बनाने में समय, मेहनत और चीज़ें भी कम लगी थीं। ये सब देखकर मुझे खुद पर शर्म आयी। मुझे पता चला मैं कितनी अहंकारी हूँ और मैंने फ़िल्म के काम में कितनी देरी कर दी। मैं खुद से पूछने लगी, "मैं इतनी अहंकारी क्यों बनी, सबको अपनी बात सुनने पर मजबूर क्यों किया? इन सबकी असली जड़ क्या है?"

अगली सुबह अपनी भक्ति के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचनों में ये पढ़ा : "अगर तुम्हारे भीतर वाकई सत्य है, तो जिस मार्ग पर तुम चलते हो वह स्वाभाविक रूप से सही मार्ग होगा। सत्य के बिना, बुरे काम करना आसान है और तुम यह अपनी मर्जी के बिना करोगे। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारे भीतर अहंकार और दंभ मौजूद हुआ, तो तुम परमेश्वर की अवहेलना करने से खुद को रोकना असंभव पाओगे; तुम्हें महसूस होगा कि तुम उसकी अवहेलना करने के लिए मज़बूर किये गये हो। तुम ऐसा जानबूझ कर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, वे तुमसे स्वयं की प्रशंसा करवाने की वजह होंगे, निरंतर तुमको दिखावे में रखवाएंगे और अंततः परमेश्वर के स्थान पर बैठाएंगे और स्वयं के लिए गवाही दिलवाएंगे। अंत में तुम आराधना किए जाने हेतु सत्य में अपने स्वयं के विचार, अपनी सोच, और अपनी स्वयं की धारणाएँ बदल लोगे। देखो लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन कितनी बुराई करते हैं!"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है')। इसे पढ़कर मुझे बहुत बुरा लगने लगा। मैं अपने अहंकारी स्वभाव के बारे में तो जानती थी लेकिन मुझे अहंकार के नतीजों के बारे में कुछ नहीं पता था। आख़िरकार परमेश्वर के वचनों से मुझे ये एहसास हुआ और अपनी बातों और कर्मों पर विचार करके मैंने जाना कि यह मुझे बुरा काम और परमेश्वर का विरोध करने पर मजबूर करता है। अपनी अहंकारी प्रकृति के कारण मैं खुद को इतना महान समझने लगी थी कि दूसरों के बारे में सोचना बंद कर दिया क्योंकि मेरे अंदर कुछ गुण हैं। मुझे लगता था हर चीज़ के बारे में मेरी समझ बिल्कुल सही है, इसलिए कोई मेरी बराबरी नहीं कर सकता, दूसरों को मेरे मुताबिक ही काम करना होगा। अगर मैंने कहा "बायें" जाओ तो कोई "दायें" नहीं जा सकता, किसी को मुझे सुझाव देने का हक़ नहीं। जो भी मेरी बात नहीं सुनता मैं उसे डांट देती, मैं एकदम जिद्दी और तानाशाह बन गई थी। मैं हावी होकर मसीह विरोधी मार्ग पर चलने लगी थी। परमेश्वर के इन वचनों ने, "तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो," मुझे ये सोचने पर मजबूर कर दिया कि मेरे काम में कितना ज़्यादा दिखावा था। मैंने कभी परमेश्वर की इच्छा या सत्य के सिद्धांतों की खोज नहीं की। जब भी कोई सुझाव देता तो मैं न तो इसे परमेश्वर का सुझाव मानती और न ही उसका मार्गदर्शन। मैं सिर्फ़ अपने ही विचारों को श्रेष्ठ मानती थी। मुझे एहसास हुआ मेरे दिल में परमेश्वर के लिए कोई श्रद्धा नहीं है। मैं अपने अहंकार में दूसरों का अपमान करती थी, मेरे दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं थी। आस्था में, मुझे सत्य और पवित्र आत्मा के कार्य के प्रति समर्पित होना चाहिए। भाई-बहनों के सुझाव मुझे पसंद आएँ या न आएँ, मुमकिन है कि वो पवित्र आत्मा से आएँ हों। मुझे सुझाव को स्वीकार करके परमेश्वर का भय मानने वाले समर्पित दिल से इसके बारे में जानना चाहिए। अगर ये सत्य के अनुरूप है और इससे परमेश्वर के घर को फ़ायदा होता है, तो मुझे इसका पालन करके इसे अमल में लाना चाहिए। अगर मैं पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन से आयी किसी बात को नकार दूँ, तो ये आत्मा के कार्य को रोकना और परमेश्वर का विरोध करना हुआ। इससे परमेश्वर के स्वभाव का अपमान होता है। मैंने अहंकारी और तानाशाह बनकर अपना कर्तव्य निभाया, और बेहतरीन सुझावों को नकार कर भाई-बहनों को दबाया। इससे कलीसिया के काम में रुकावट आयी। मेरी बर्खास्तगी मुझ पर परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का प्रकटन थी। मैंने भाई-बहनों को बहुत चोट पहुँचाई, कलीसिया के काम का नुकसान किया, ये सोचकर, मैंने खुद को दोषी महसूस किया, मुझे पछतावा होने लगा। मुझे अपनी भ्रष्टता से नफ़रत हो गयी। लेकिन मैं परमेश्वर की बहुत आभारी भी थी क्योंकि अगर मेरा कठोर न्याय न हुआ होता, ताड़ना न दी गयी होती तो अपने अहंकार और ज़िद के कारण, मैंने खुद को कभी न जाना होता। मैं परमेश्वर का विरोध करती रहती।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : "प्रतिभाशाली और गुणवान लोगों के विचार, कार्य और मानसिकता अधिकांश समय सत्य के विपरीत होते हैं, किन्तु उन्हें स्वयं इसका पता नहीं होता। वे फिर भी सोचते हैं, 'देखो, मैं कितना होशियार हूँ; मैंने इतने चतुराईभरे विकल्प चुने हैं! इतने बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय! तुम लोगों में से कोई भी मेरी बराबरी नहीं कर सकता।' वे सदैव आत्मुग्धता और आत्म-प्रशंसा की मनःस्थिति में रहते हैं। उनके लिए अपने हृदय को शांत कर पाना और यह सोच पाना कठिन होता है कि परमेश्वर उनसे क्या चाहता है, सत्य क्या है और सत्य के सिद्धांत क्या हैं। उनके लिए सत्य में और परमेश्वर के वचनों में प्रवेश कर पाना कठिन होता है, और उनके लिए सत्य को अभ्यास में लाने के सिद्धांतों को खोजना या समझना, और सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर पाना मुश्किल होता है"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'जीवन जीने के लिए लोग ठीक-ठीक किस पर भरोसा करते रहे हैं')। परमेश्वर के वचनों ने मुझे एहसास कराया कि अगर हम अपने जीवन में अपने गुणों और खूबियों के भरोसे रहे, तो अधिक अहंकारी और आत्मतुष्ट बन जाएंगे, सत्य के सिद्धांतों की खोज किये बिना ही उन बातों को सत्य समझ बैठेंगे। मुझे लगता था मेरे अंदर कुछ खास गुण हैं, इसलिए वो मेरे बिना सेट डिज़ाइन और ज़रूरी उपकरण नहीं बना पाएंगे, जबकि सच्चाई ये है कि उनमें से कुछ ने बिना किसी पेशेवर अनुभव के ही अपना काम बहुत अच्छे से किया था, सेट का सामान भी मुझसे बेहतर बनाया। मुझे लगता था मेरे अंदर गहरी समझ, गुण और अच्छे विचार हैं, लेकिन मैंने सब गड़बड़ कर दी। मेरी बनायी चीज़ें बेकार थीं और उन्हें दोबारा बनाना पड़ता था, जिससे समय, मेहनत और पैसे की बर्बादी होती थी। मैंने जाना कि बिना सत्य के सिद्धांतों की खोज किये, सिर्फ़ अपने गुणों पर निर्भर रहकर, मैं पवित्र आत्मा के कार्य से वंचित थी, इसलिए अपना काम ठीक से नहीं कर पायी। जब इंसान का मन सही जगह पर होता है, तो परमेश्वर उसे प्रबुद्ध करके मार्गदर्शन देता है। परमेश्वर जो बुद्धि प्रदान करता है, उसका अंदाज़ा कोई इंसान नहीं लगा सकता। मुझे एहसास हुआ कि मेरे उस गुण और कौशल का कोई महत्व नहीं, जिन पर मुझे इतना गर्व था। उनसे फ़ायदा उठाने की कोशिश अहंकार से भरी और बेतुकी थी। यह सोचकर मुझे बहुत शर्म आयी। फिर मैंने परमेश्वर से ये प्रार्थना की: "अब मैं अपने अहंकारी स्वभाव के वश में नहीं रहना चाहती। मैं दृढ़ता से सत्य का अनुसरण और अभ्यास करने के साथ-साथ अच्छे से अपना कर्तव्य निभाना चाहती हूँ।"

उसके बाद, मुझे नए विश्वासियों के सिंचन का काम सौंपा गया, इस बार मैं काम करते समय सबके साथ अच्छे से पेश आयी। जब भी कोई नया काम आता, तो मैं परमेश्वर की इच्छा की खोज करते हुए दूसरों के सुझावों पर ज़्यादा ध्यान देती। एक बार टीम के एक भाई ने मुझसे कहा, "भाई-बहनों को सिंचन और सहयोग देने का आपका तरीका थोड़ा कठोर है। ये इतना प्रभावी नहीं है। अगर आप हर किसी की कमज़ोरी को अलग-अलग बताकर उनका सिंचन करने पर ध्यान दे पायें, तो बेहतर होगा।" मैं उसकी बात से सहमत नहीं थी। मुझे लगा मैं अपना पूरा अनुभव इस्तेमाल कर रही हूँ, मैं गलत कैसे हो सकती हूँ? मैं उसका अपमान करने ही वाली थी कि मुझे एहसास हुआ, मेरा अहंकार दोबारा मुझ पर काबू पाना चाहता है। मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की, फिर उसके वचनों का ये अंश मुझे याद आया : "जब दूसरे लोग अपनी असहमतियों को व्‍यक्‍त करते हैं—ऐसे में दुराग्रही होने से बचने के लिए तुम किस तरह का अभ्यास कर सकते हो? पहले तुम्हारा रवैया विनम्र होना चाहिए, जिसे तुम सही समझते हो उसे बगल में रख दो, और हर किसी को संगति करने दो। भले ही तुम अपने तरीके को सही मानो, तुम्‍हें उस पर ज़ोर नहीं देते रहना चाहिए। यह, सर्वप्रथम, एक तरह की प्रगति है; यह सत्‍य की खोज करने, स्‍वयं को नकारने और परमेश्‍वर की इच्‍छा पूरी करने की प्रवृत्ति को दर्शाता है। जैसे ही तुम्‍हारे भीतर यह प्रवृत्ति पैदा होती है, उस समय तुम अपनी धारणा से चिपके नहीं रहते, तुम प्रार्थना करते हो। चूँकि तुम सही और गलत का भेद नहीं जानते, इसलिए तुम परमेश्वर को अवसर देते हो कि वह तुम्‍हें उजागर करे और बताए कि करने लायक सबसे श्रेष्‍ठ और सबसे उचित कर्म क्‍या है। जैसे-जैसे संगति में हर कोई शामिल होता है, पवित्र आत्‍मा तुम सभी को प्रबुद्धता प्रदान करता है" (परमेश्‍वर की संगति)। मैं पहले बहुत अहंकारी और जिद्दी हुआ करती थी, दूसरों को दबाती थी जिससे परमेश्वर के घर के कार्य में रुकावट आती थी। मैं जानती थी ये चलेगा नहीं, लोगों को दबाना, परमेश्वर का विरोध करना, मुझे दूसरों के सुझावों को भी सुनना होगा। पहले मुझे इसे स्वीकार करके, इसके प्रति समर्पित होकर परमेश्वर की इच्छा जाननी चाहिए। परमेश्वर का मार्गदर्शन पाने का यही एकमात्र तरीका है। इसलिए, मैंने शांत मन से इस भाई की बात सुनी, फिर मुझे एहसास हुआ कि मेरे तरीकों में वाकई सुधार करने की ज़रूरत है। उसका सुझाया गया तरीका बेहतर और अनुकूल था। इसे अभ्यास में लाने पर मुझे पता चला कि ये वाकई फायदेमंद है। इसके बाद, भाई-बहन जब भी मुझे सुझाव देते, तो मैं उनका विरोध करने के बजाय उन्हें स्वीकार करके उनके बारे में पता करती और अभ्यास करने का बेहतर मार्ग खोजने के लिए उनसे कई बातों पर चर्चा भी करती। उसके बाद लोग कहने लगे कि इस तरह के सिंचन से उन्हें बहुत फ़ायदा हुआ है। मुझे बहुत संतुष्टि मिली। मैं जानती थी ये परमेश्वर का मार्गदर्शन है, मैंने उसका धन्यवाद करते हुए उसकी प्रशंसा की। मैंने परमेश्वर के उस आशीष का भी अनुभव किया जो अहंकारपूर्वक काम करने के बजाय, सत्य के सिद्धांतों का अभ्यास करने से मिलता है।

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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