आराम की चाह से मैं बर्बाद होते-होते बची

19 जुलाई, 2022

बाई क्षुए, दक्षिण कोरिया

2019 में मुझ पर कलीसिया के वीडियो के काम की जिम्मेदारी थी, साथ ही मैं एक अगुआ भी थी। परमेश्वर ने मुझे इतना ऊंचा उठाया, तो मैंने काम अच्छे से करने की कसम खाई। इसके बाद, मैंने काम में पूरा दिल झोंक दिया और अपनी साथी बहन से कलीसिया का यह काम करना सीख लिया। मैं छोटी-बड़ी हर सभा में शामिल रहने की कोशिश करती। रोज वीडियो की समीक्षा भी करती। मैं हर दिन बहुत व्यस्त रहती थी। पर कुछ समय बाद, मैं थक गई, और धीरे-धीरे अपनी प्रतिज्ञा भूलने लगी। इतनी व्यस्त ज़िंदगी का दिनोदिन अधिक विरोध करने लगी। खासकर जब मैं वीडियो की समीक्षा कर रही होती थी, मुझे बहुत सोचना पड़ता था, फिर नजर आई कमियों को दूर करने के लिए सही सुझाव देने पड़ते थे। दिमागी रूप से यह मुझे बहुत थकाने वाला लगता था, मैं इसे नहीं करना चाहती थी। फिर, मैं वीडियो समीक्षा में ढील बरतने लगी कुछ को तो सरसरी नजर से ही निपटाने लगी। कई बार मैं कुछ समस्याओं को साफ देखकर भी अनदेखा करती, ताकि इनका कोई हल न सोचना पड़े, और कुछ भी न कहती। मैं अपने काम में निरंतर लापरवाह होती जा रही थी, जिस कारण वीडियो बार-बार संशोधन के लिए लौट रहे थे। इससे बहुत-से लोगों की मेहनत बेकार जा रही थी। ये बड़े गंभीर नतीजे थे, पर मैंने फिर भी आत्मचिंतन नहीं किया। मुझे लगा कि इसका मुझसे कोई सीधा संबंध नहीं था, दूसरों के वीडियो में समस्याएँ थीं इसलिए ही यह हो रहा था।

एक बार, मेरे हाथ में एक ऐसा वीडियो आया जिसमें बड़ी समस्या थी और कुछ नए विचार चाहिए थे। सभी अपने-अपने विचार देने लगे तो मेरा सिर घूमने लगा। इसके बारे में सोचना थका देता था, इसलिए मैंने पूरी योजना दूसरों पर छोड़ते हुए सभी को कोई-न-कोई काम सौंप दिया, कहा कि मैं पूरे काम पर नजर रख रही हूँ। ताकि मेरा नजर न रखना, खोज-खबर न लेना सही लगे। पर उनमें से किसी ने भी पहले ऐसे मसले नहीं देखे थे, वे कुछ सिद्धांत सही से नहीं समझते थे, यह भी नहीं पता था कि इतना जटिल काम कैसे संभालें, लिहाजा काम आगे नहीं बढ़ पाया और आखिर में वीडियो पर काम बंद हो गया। मेरी साथी बहन लियु ने देखा कि हम निष्प्रभावी थे और काम की रफ्तार धीमी थी, इसलिए उसने हम सबको चेताते हुए कहा कि हमें तेजी दिखानी होगी। मैंने शिकायत की कि वह बहुत सख्ती बरत रही है, दूसरे भी मुझसे सहमत हो गए, और उसकी व्यवस्थाएँ ठुकरा दीं। इससे बहन लियु बेबस हो गई, हमारे साथ काम की व्यवस्थाओं की चर्चा करते हुए बहुत सँभलकर बोलने लगी। इससे देर पर देर होने लगी, और हमारी प्रगति रुक गई। मैं आमतौर से पेशेवर कौशल सीखने की ज्यादा परवाह नहीं करती थी, मुझे प्रशिक्षण सामग्री जुटाना बहुत बड़ा झंझट लगता था, इसलिए मैं इसे बहन लियु के मत्थे मढ़ देती थी। कभी-कभी अपने काम में व्यस्त होने का बहाना करके प्रशिक्षण में हिस्सा न लेती। इस तरह, मैं काम में सुस्त और ढीली पड़ती गई। एक बार काम पर चर्चा के लिए मैंने पहले कोई तैयारी नहीं की, जिससे सभी का वक्त बर्बाद हुआ।

फिर एक दिन, सीढ़ियों से नीचे उतरते हुए गिर पड़ी और टखने में मोच आ गई। मैंने यह नहीं सोचा कि ऐसा क्यों हुआ, बस यही सोचा कि टखने के दर्द के कारण चलो कुछ दिन आराम ही करूंगी। बहन लियु ने मुझे उजागर करके मेरा कई बार निपटान किया, कहा कि अपने कर्तव्य में मैं कोई बोझ नहीं उठाती, जिससे कलीसिया के काम में देर होती है और दूसरों पर बुरा असर पड़ता है। उसके साथ संगति के बाद मैं कुछ दिन जोश में रहती, फिर वापस से वैसे ही ढीली पड़ जाती। मुझे इसकी गंभीरता का एहसास ही नहीं था, खुद को छूट देती जा रही थी, सोचती कि बस मैं थोड़ी-सी आलसी ही तो हूँ, अहंकारी तो नहीं हूँ, मनमानी करके दूसरों को रोकती या दबाती तो नहीं, यह कोई बड़ी बात नहीं थी। जो भी हो, मैं काबिल थी और थोड़ा-बहुत पेशेवर हुनर भी था, इसलिए मुझे बर्खास्त नहीं किया जाएगा। और इसलिए, बहन लियु की चेतावनी को अनसुना कर दिया, मैंने इन नसीहतों को गंभीरता से नहीं लिया। मैं अपने काम में ढील बरतती रही, कुछ कामों को तो एक बोझ, एक झंझट ही समझती रही। अपने कर्तव्य में इतनी ढिलाई के कारण बहुत-से वीडियो दोबारा ठीक करने के लिए वापस आ रहे थे, उन्हें रिलीज करने में अरसा बीत जाता था।

एक सुबह एक वरिष्ठ अगुआ अचानक ही आ गई और बोली कि हमारे काम से नतीजे नहीं मिल रहे हैं, जिन मसलों पर बात हो चुकी है वे भी ठीक नहीं हो रहे। उसने जानना चाहा कि असली समस्या क्या थी। उसने यह भी पूछा कि क्या हम इस काम के काबिल थे, कहा कि अगर चीजें ऐसी ही रहीं तो हम सब बर्खास्त हो जाएंगे। यह सुनकर मैं डर गई। कलीसिया अगुआ होने के साथ-साथ मैं काम की प्रमुख भी थी, इसलिए सब कुछ खराब होने के लिए सीधे जिम्मेदार थी। यह सब मेरी ढीलाई की वजह से ही हुआ था। यह सोचते हुए मुझे एहसास हुआ कि मुझसे भारी भूल हुई है। वरिष्ठ अगुआ को जल्दी ही पता चल गया कि मैं अपना काम कैसे करती थी, और उसने मुझे बर्खास्त कर दिया। उसने बड़ी सख्ती से मेरा निपटान और काट-छांट भी की, कहा कि परमेश्वर के घर ने मुझे एक महत्वपूर्ण काम सौंपा था, पर इतनी समस्याएँ और मुश्किलें देखकर भी मैंने कोई परवाह नहीं की। मुझे सिर्फ अपने शारीरिक सुखों की परवाह थी, जिसके कारण महीनों तक वीडियो की प्रगति रुक गई। मैं परमेश्वर के घर का नुकसान कर रही थी और मुझमें जमीर नाम की चीज ही नहीं थी! परमेश्वर के घर ने मुझे विकसित किया, पर मुझे परमेश्वर की इच्छा की परवाह नहीं थी, यह बहुत ही निराश करने वाली बात थी। एक अगुआ होकर मैंने अपना कर्तव्य अच्छे से नहीं निभाया। न कुछ सीखा, न तरक्की कर पाई, विकसित किए जाने योग्य भी नहीं थी। उसने कहा कि प्रायश्चित करके खुद को न बदला तो मुझे निकाल दिया जाएगा। उसके शब्द मेरे लिए बहुत बड़ा झटका थे। मेरा दिमाग चकरा गया और मैं खुद से बार-बार पूछती रही : मैं इतने महीनों से क्या कर रही हूँ? चीजें इस मुकाम तक कैसे पहुँच गईं? यह सुनकर कि मैं विकसित किए जाने के काबिल नहीं थी, मुझे अपना भविष्य खत्म होता महसूस हुआ। मैं बहुत परेशान हो गई, लगा जैसे किसी ने मेरी सारी शक्ति निचोड़ ली हो। अपने कर्तव्य को न सँजोने के लिए मुझे खुद से कोफ्त होने लगी, पर अब बहुत देर हो चुकी थी।

बर्खास्त होने के बाद मैं निराशा की नकारात्मक दशा में चली गई। मुझे लगता था कि हर कोई मेरी असलियत जान चुका है, वे सब मुझे एक बुरी मिसाल समझकर किनारे कर देंगे। और परमेश्वर भी मुझसे घृणा करेगा। मेरा निपटान करते वक्त अगुआ ने जो कुछ कहा था, वह मुझे तीर की तरह चुभ रहा था। मुझे लगता था कि मुझे उजागर करके बाहर कर दिया गया था। वे बड़े दर्दनाक दिन थे। फिर एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिसने मुझे झकझोर दिया। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "यदि तुम परमेश्वर के प्रति समर्पित होकर ईमानदारी से अपने कर्तव्य का पालन करते हो, तो क्या तुम तब भी नकारात्मक और कमजोर हो सकते हो जब तुमसे निपटा जाए और तुम्हारी काट-छाँट की जाए? यदि तुम सच में नकारात्मक और कमजोर हो जाते हो तो क्या किया जाना चाहिए? (हमें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, उस पर निर्भर रहना चाहिए, परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा करने का प्रयास और उस पर विचार करना चाहिए, इस बात पर विचार करना चाहिए कि हमसे क्या गलती हो गई, हमने क्या भूल की है; किन क्षेत्रों में हमारा पतन हो गया है, वहीं से हमें फिर से ऊपर चढ़ना चाहिए।) सही कहा। जिन बातों को तुमने समझ लिया है, जो बातें स्पष्ट हो गई हैं, उनका अभ्यास करो; अपनी गलतियों को इकट्ठा मत करो, हार मत मानो, उन चीजों को संतुलित दिमाग से समझो। कोई भी जानबूझकर तुम्हारे लिए मुश्किलें खड़ी नहीं कर रहा है; तुम्हारा निपटारा करते और तुम्हारी काट-छाँट करते समय भले ही थोड़े कठोर शब्दों का प्रयोग किया गया हो, इसका कारण यह है कि तुमने कुछ बहुत अप्रिय किया था, अनजाने में सिद्धांतों का उल्लंघन कर दिया था—ऐसी परिस्थितियों में तुमसे कैसे न निपटा जाए? तुमसे इस तरह निपटे जाने में दरअसल तुम्हारी ही मदद के लिए है, यह तुम्हारे लिए प्रेम है और यदि तुम इसे नहीं समझ सकते, तो तुममें जरा भी समझ नहीं है" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। परमेश्वर के वचन पढ़ते हुए मेरी आँखों से लगातार आँसू बहते रहे। अगुआ ने मेरा निपटान करते समय बिल्कुल सही कहा था, मेरी इतनी कड़ी आलोचना इसलिए की थी क्योंकि मैंने जो कुछ किया था वह बेहद नागवार था। पर मैं हिम्मत नहीं हार सकती। मुझे अपनी नाकामी पर आत्मचिंतन करके बदलना और प्रायश्चित करना होगा। यही सही रवैया होगा। इसलिए मैंने प्रार्थना की, परमेश्वर से मेरे आत्मचिंतन में मुझे राह दिखाने के लिए कहा।

एक दिन, मैंने परमेश्वर के कुछ वचन सुने, जिनमें झूठे अगुआओं का खुलासा और विश्लेषण किया गया था। इससे मुझे खुद को थोड़ा समझने में मदद मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "झूठे अगुआ असली काम नहीं करते, लेकिन वे अधिकारी बनना जानते हैं। अगुआ बनकर वे सबसे पहला काम क्या करते हैं? वे लोगों का दिल जीतने की कोशिश करते हैं। वे 'एक नए प्रबंधक को अपनी सशक्त छवि बनानी चाहिए' का दृष्टिकोण अपनाते हैं : पहले वे लोगों का दिल जीतने वाले कुछ काम करते हैं, लोगों के जीवन को आरामदायक बनाने के लिए कुछ काम शुरू कर देते हैं, उन पर एक अच्छा प्रभाव बनाने की कोशिश करते हैं, यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि वे जनता के साथ जुड़े हैं, ताकि हर कोई उनकी प्रशंसा करे और कहे कि वे उनके अभिभावक की तरह हैं, जिसके बाद वे आधिकारिक तौर पर पदभार संभाल लेते हैं। उन्हें लगता है कि अब उन्हें लोकप्रिय समर्थन मिल गया है और उनका पद सुरक्षित है, अब उनके लिए अपने रुतबे का सुख लेना सही और उचित है। उनका आदर्श वाक्य होता है, 'जीवन सिर्फ खाने और कपड़े पहनने के बारे में है,' 'चार दिन की ज़िंदगी है, मौज कर लो' और 'आज मौज करो, कल की फिक्र कल करना।' वे आने वाले हर दिन का आनंद लेते हैं, भरपूर मजा करते हैं और भविष्य के बारे में कोई विचार नहीं करते, वे इस बात पर तो बिल्कुल विचार नहीं करते कि एक अगुआ को कौन-सी जिम्मेदारियां निभानी चाहिए और किन कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। वे तुच्छ कार्य करने के लिए आदतन कुछ शब्द और वाक्यांश रट लेते हैं, लेकिन वे कोई वास्तविक कार्य नहीं करते, वे कलीसिया की समस्याओं को पूरी तरह हल करने के लिए उन्हें गहराई से समझने की कोशिश नहीं करते। ऐसे सतही काम करने की क्या तुक है? क्या यह धोखेबाजी नहीं है? क्या ऐसे नकली अगुआ को गंभीर जिम्मेदारियां सौंपी जा सकती हैं? क्या वे अगुआओं और कर्मियों के चयन के लिए परमेश्वर के घर के सिद्धांतों और शर्तों के अनुरूप हैं? (नहीं।) ऐसे लोगों में न तो अंतरात्मा होती है और न ही विवेक, उनमें जिम्मेदारी की कोई भावना नहीं होती और फिर भी वे मन ही मन आधिकारिक तौर पर एक अगुआ के रूप में सेवा करना चाहते हैं—वे इतने बेशर्म क्यों होते हैं? कुछ लोग जिनमें जिम्मेदारी की भावना होती है, वे खराब क्षमता के होते हैं और वे अगुआ नहीं हो सकते—फिर उस इंसानी कचरे की तो बात ही क्या करें जिसमें जिम्मेदारी का रत्तीभर भी एहसास नहीं होता; उनमें अगुआ बनने की योग्यता तो और भी कम होती है। ऐसे लोग कितने आलसी होते हैं? वे कोई समस्या खोजते हैं, वे जानते हैं कि यह समस्या है, लेकिन वे उसे बेकार समझकर उस ओर ध्यान नहीं देते। वे कितने गैर-जिम्मेदार होते हैं! हो सकता है कि वे अच्छे वक्ता हों और उनमें थोड़ी-बहुत क्षमता भी नजर आए, लेकिन जब कलीसिया में कई तरह की समस्याएं पैदा होती हैं, तो वे उनका समाधान नहीं कर पाते। वे चाहे कितने भी समय से काम कर रहे हों, समस्याएं बढ़ती जाती हैं, वे पारिवारिक विरासत की तरह बन जाती हैं जो उनकी चिंता का विषय नहीं होतीं, फिर भी ये अगुआ आदतन कुछ तुच्छ कार्य करने पर जोर देते रहते हैं। और अंतिम परिणाम क्या होता है? क्या वे कलीसिया के काम को बिगाड़ नहीं देते, क्या वे उसका कबाड़ा नहीं कर देते? क्या वे कलीसिया में अराजकता और विखंडन पैदा नहीं कर देते? यह परिणाम तो आना ही है" (नकली अगुआओं की पहचान करना)। "ये अकर्मण्य झूठे अगुआ एक अगुआ या कर्मी होने को सुख भोगने का पद मानते हैं। किसी अगुआ द्वारा कर्तव्य-पालन और कार्य-निष्पादन को ऐसे लोग एक बाधा और झंझट समझते हैं। उनके दिल में परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति अवज्ञा का भाव होता है : अगर उनसे नजर रखने या काम में आ रही समस्याओं का पता लगाने और फिर उसका अनुसरण कर उसे हल करने को कहा जाए, तो ऐसा करने की उनकी जरा भी इच्छा नहीं होती। अगुआओं और कर्मियों का यही तो काम होता है, यह उनका कार्य है। यदि तुम ऐसा नहीं करते—यदि तुम इसे करने के इच्छुक नहीं हो—तो फिर तुम अगुआ या कर्मी क्यों बनना चाहते हो? तुम अपने कर्तव्य का पालन परमेश्वर की इच्छा के प्रति सचेत रहने के लिए करते हो या अफसरशाही के तमगे का आनंद लेने के लिए करते हो? क्या किसी आधिकारिक पद पर बैठने की इच्छा पालकर अगुआ बनना तुम्हारी बेशर्मी नहीं है? इससे ज्यादा गिरा हुआ चरित्र नहीं हो सकता, इन लोगों में स्वाभिमान नाम की कोई चीज नहीं होती, ये लोग बेशर्म होते हैं" (नकली अगुआओं की पहचान करना)। परमेश्वर के ये वचन पढ़ते हुए ऐसा लगा जैसे वह आमने-सामने बैठकर मेरा विश्लेषण कर रहा है। मैं बिल्कुल उसी तरह की आलसी अगुआ थी। शुरू से ही, मुझे लगता था कि प्रभारी व्यक्ति न सिर्फ अधिकार से बोलता है, बल्कि दूसरों का आदर भी पाता है, इसलिए मैंने खूब मेहनत की और इस रुतबे के लिए कष्ट झेले। मैंने अपनी झूठी छवि बनाई, ताकि सभी लोग सोचें कि मैं काफी जिम्मेदारी उठा सकती हूँ। यह पद और दूसरों का भरोसा हासिल कर लेने के बाद, मैंने अपना असली रंग दिखाना शुरू कर दिया। मैं अपने रुतबे से जुड़ी श्रेष्ठता की भावना का लुत्फ लेने लगी, सारा काम और तमाम मुश्किलें देखकर मैं झंझट नहीं लेना चाहती थी। मुझे यह सब बड़ा बोझिल लगा, इसलिए मैंने काम का बोझ और अपनी चिंता कम करने की सोची। मुझे वीडियो की समीक्षा से जुड़ी मगजपच्ची पर बड़ी कोफ्त होती, इसलिए मैं यूँ ही गोलमोल सुझाव देने लगी, जिससे दूसरों को बार-बार सुधार करना पड़ता, और सभी की मेहनत बर्बाद होती। जब मेरी जिम्मेदारी वाले वीडियो में समस्याएँ आतीं, तो मैं हल ढूँढने में दिमाग लगाने के बजाय, अपने रुतबे का फायदा उठाकर चालें चलती, काम दूसरों के सिर मढ़ देती और कोई खोज-खबर तक न लेती। इससे समस्याएँ अनसुलझी ही रह जातीं और हमारे काम में कोई तरक्की न हो पाती। मैं ग्रुप ट्रेनिंग से बचने के लिए कई बहाने बनाती, मौका मिलते ही इसे किसी और पर डाल देती। मैं जरूरी कामों की योजना भी धीरे-धीरे बनाती और शिकायतें करती, जिससे मेरी साथी बेबस हो गई। मैं बहुत सारा काम जल्दी नहीं निपटा रही थी इसलिए हम तरक्की नहीं कर पाए। ... अपने किए को याद करके सचमुच खुद को थप्पड़ जड़ने का मन हुआ। थोड़ा रुतबा मिलते ही मैं आराम चाहने लगी, चालबाजी और धूर्तता करने लगी। मैंने अपने काम को बच्चों का खेल समझा, कोई जिम्मेदारी महसूस नहीं की। मैंने समस्याओं को उसी वक्त नहीं सुलझाया और परमेश्वर के घर को नुकसान होते देख भी उदासीन रही। मैंने जो कुछ किया था, वह कम्युनिस्ट पार्टी के अधिकारियों की करतूतों से अलग कैसे था? वे रुतबे के लिए सभी हथकंडे आजमाते हैं और आम लोगों की समस्याएँ नहीं सुलझाते। वे सिर्फ खाना-पीना और सत्ता को निजी फायदे के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं। यह दुष्टता और बेशर्मी है। मैं भी ऐसी ही थी। परमेश्वर के घर ने मुझे कितना महत्वपूर्ण काम दिया था, पर मुझे बस दैहिक सुविधाओं और अपने आराम की चिंता थी। मुझमें इंसानियत नहीं थी, मैंने कोई वास्तविक काम भी नहीं किया। यह समय सुसमाचार फैलाने का सबसे अहम समय है, इसलिए जितनी जल्दी ये गवाही के वीडियो ऑनलाइन आ जाएँ उतने ही ज्यादा लोग सच्चे रास्ते की खोज और जांच कर सकते है। पर मैंने परमेश्वर की इच्छा पर विचार नहीं किया। अपने कर्तव्य में कोताही करके परमेश्वर के घर के काम में अत्यधिक देर होने दी। मैं स्वार्थी और कुटिल थी, मुझमें जरा भी इंसानियत नहीं थी। मुझे साफ दिख रहा था कि मैं कितनी आलसी, खुदगर्ज और घिनौनी थी। धोखे से इस ओहदे पर पहुँचकर मैंने व्यवहारिक काम नहीं किया। मेरा चरित्र खराब था, मैं भरोसे के काबिल नहीं थी। मुझमें नैतिकता की भावना नहीं थी। यह सब सोचते हुए मेरे दिल में रह-रहकर टीस उठती रही। मैंने प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मुझमें इंसानियत की बहुत कमी है। मैंने यह आदेश स्वीकार किया पर अपना काम ठीक-से नहीं किया, जिससे परमेश्वर के घर के काम में रुकावट आई। परमेश्वर, मेरी बर्खास्तगी के पीछे तुम्हारी धार्मिकता थी। मैं प्रायश्चित करके बदलना चाहती हूँ—मुझे राह दिखाओ कि मैं खुद को जान सकूँ!"

आत्मचिंतन करते हुए मुझे याद आया कि इस बारे में दूसरों ने कितनी ही बार मेरे साथ संगति की थी, मुझे चेतावनी देकर मेरा निपटान भी किया था, पर मैंने ही इस पर ध्यान नहीं दिया। मुझे आलसी होना और शारीरिक सुखों की चाह रखना कोई बड़ी समस्या नहीं लगी, मैं किसी को दुखी करने, दबाने का काम नहीं कर रही थी। मेरी योग्यता और काम की समझ को देखते हुए, मुझे लगा मेरे आलस के लिए कलीसिया मुझे बर्खास्त नहीं करेगी। परमेश्वर के वचन पढ़ने से पहले, मुझे एहसास ही नहीं था कि ये मेरी धारणाएँ और कल्पनाएँ भर थीं। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "अधिक गंभीर समस्या किन्हें होती है : आलसी लोगों को या खराब क्षमता वाले लोगों को? (आलसी लोगों को।) आलसी लोगों को गंभीर समस्या क्यों होती है? (खराब क्षमता वाले लोग अगुआ या कर्मी नहीं बन सकते, लेकिन जब वे अपनी क्षमता से मेल खाने वाला कोई कार्य करते हैं, तो कुछ हद तक प्रभावी हो सकते हैं। लेकिन आलसी लोग कुछ नहीं कर सकते, वे क्षमता होते हुए भी कुछ नहीं करते।) आलसी लोग कुछ नहीं कर सकते। संक्षेप में, वे कचरा होते हैं। वे अयोग्य और दोषयुक्त होते हैं। आलसी लोगों की क्षमता कितनी भी अच्छी क्यों न हो, वह नुमाइश से ज्यादा कुछ नहीं होती; उनकी अच्छी क्षमता किसी काम की नहीं होती। क्योंकि वे बहुत आलसी होते हैं, उन्हें पता तो होता है कि क्या करना है, लेकिन वे उसे करते नहीं; समस्या का पता चल जाने पर भी वे समाधान की तलाश नहीं करते; वे जानते हैं कि कार्य को प्रभावी बनाने के लिए उन्हें किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा, लेकिन वे इस तरह की बहुमूल्य पीड़ा सहने को तैयार नहीं होते। परिणामस्वरूप, उन्हें न तो सत्य प्राप्त होता है और न ही वे कोई वास्तविक कार्य करते हैं। वे उन कष्टों को सहने को भी तैयार नहीं होते जिन्हें सहने की उनसे अपेक्षा की जाती है; वे केवल आराम के लालची होते हैं, उन्हें दैहिक-सुख का, अवकाश के समय की मौज-मस्ती का, स्वतंत्रता के मजे का, आराम और सुखी जीवन के आनंद का पता होता है। क्या वे लोग निकम्मे नहीं होते? ऐसे लोग और क्या कर सकते हैं? क्या उनके नैतिक चरित्र में समस्या नहीं होती? मुझे लगता है कि ऐसा व्यक्ति उस इंसान से भी बदतर है जो खराब क्षमता के बावजूद कीमत चुकाने को तैयार है। कम से कम क्षमता और योग्यता के आधार पर, खराब क्षमता वाला व्यक्ति उपयोगी तो होता है; अगर उसे उसकी योग्यता के अनुरूप कोई काम दिया जाए, तो वह उसे कर सकता है, उसमें लगा रहकर खुद को समर्पित कर सकता है। लेकिन जो व्यक्ति वास्तविक कार्य नहीं करता, वह न केवल अपने कर्तव्य को ठीक से करने में असमर्थ है, बल्कि उसकी सेवा भी मानक के अनुरूप नहीं होती, वह कचरा होता है, उससे बदतर कोई नहीं होता" (नकली अगुआओं की पहचान करना)। "तुम परमेश्वर के आदेशों को कैसे लेते हो, यह अत्यंत महत्वपूर्ण है, और यह एक बहुत ही गंभीर मामला है। परमेश्वर ने जो लोगों को सौंपा है, यदि तुम उसे पूरा नहीं कर सकते, तो तुम उसकी उपस्थिति में जीने के योग्य नहीं हो और तुम्हें दण्डित किया जाना चाहिए। इसे स्वर्ग द्वारा आदेशित और पृथ्वी द्वारा स्वीकार किया गया है कि मनुष्यों को परमेश्वर द्वारा दिए जाने वाले सभी आदेश पूरे करने चाहिए; यह उनका सर्वोच्च दायित्व है, और उतना ही महत्वपूर्ण है जितना उनका जीवन है। यदि तुम परमेश्वर के आदेशों को गंभीरता से नहीं लेते, तो तुम उसके साथ सबसे कष्टदायक तरीक़े से विश्वासघात कर रहे हो, और तुम यहूदा से भी अधिक शोकजनक हो और तुम्हें शाप दिया जाना चाहिए" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें')। पर परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे एहसास हुआ कि भले ही मैं किसी का कुछ नहीं बिगाड़ रही थी, पर मैंने परमेश्वर के आदेश को हल्के में लिया और उसके घर का काम रोका। यह उससे गंभीर विश्वासघात था और यहूदा से भी ज्यादा घिनौना था। मैं कर्तव्य से जुड़ी अपनी हर हरकत को याद करके काँप उठी। मैंने दूसरों की संगति बार-बार अनसुनी की, मुझे जैसे-तैसे काम करना गलत नहीं लगा, और इस भ्रम में रही कि मैं काबिल हूँ, अपना काम जानती हूँ, इसलिए आलसी होने के लिए मुझे बर्खास्त नहीं किया जाएगा। मैं कितनी संवेदनहीन और दुराग्रही थी, यह दयनीय और हास्यास्पद था, मुझे पता न था कि यह कितना खतरनाक था। परमेश्वर ने साफ कहा है कि वह काबिल लेकिन आलसी और धूर्त लोगों से नफरत करता है, उनमें इंसानियत नहीं होती, वे घिनौने होते हैं और भरोसे के काबिल नहीं होते। उनसे वे लोग बेहतर होते हैं जो कम योग्यता के बावजूद ज्यादा कष्ट उठाते हैं। वे अपने कर्तव्य में ईमानदार होते हैं। वे दिल से काम करते हैं और जिम्मेदार होते हैं। जहाँ तक मेरी बात है, मुझे लगता था मैं बुरी नहीं थी, क्योंकि मुझमें थोड़ी काबिलियत थी, जबकि सच यह था कि मैं वे बुनियादी काम भी नहीं कर पाती थी जो सृजित प्राणी को करने चाहिए। यह किस तरह की इंसानियत और योग्यता थी? यही वह मुकाम था जब मुझे अपनी असलियत पता चली, मैं समझ गई कि अगुआ ने क्यों कहा कि मैं विकसित किए जाने योग्य नहीं थी, और अगर मैं प्रायश्चित करके नहीं बदली तो बाहर कर दी जाऊँगी। इस तरह की इंसानियत, आलस और चालबाजी के साथ, कर्तव्य के प्रति गैर-जिम्मेदार रहते हुए, मैं भरोसे के काबिल नहीं थी, मुझे बर्खास्त करना, बाहर करना ठीक ही था। मैंने जो समय बर्बाद किया, उस बारे में सोचकर मैंने खुद को परमेश्वर का कर्जदार माना। अब मैं अच्छे से सत्य का अनुसरण करना चाहती थी, अपना कर्तव्य निभाकर परमेश्वर को संतुष्ट करना, उसके प्रेम को लौटाना चाहती थी।

बाद में मुझे लिखित सामग्री की टीम में रखा गया। वहाँ बहुत सारा काम था, हर दिन व्यस्त रहती थी, इसलिए मैं खुद को चेताती रहती थी कि मुझे अच्छी तरह काम करना है और देहासक्ति में नहीं पड़ना। मैं अपने कर्तव्य के लिए बोझ उठाने में सफल रही। कुछ समय बाद मुझे लगा कि मैं थोड़ा बदल गई हूँ। पर काम का बोझ बढ़ने के साथ कुछ मुश्किलें आने लगीं, तो मेरी प्रकृति फिर अपना रंग दिखाने लगी। मैं सोचने लगी यह दिमाग को थका देने वाला है, इसलिए ज्यादा जटिल मसले मैं दूसरों को ही सुलझाने दूँगी। एक बहन ने कई बार कहा कि मैं बस जैसे-तैसे काम निपटा रही हूँ, काम को गंभीरता से लेने को चेताया। मैं हामी भरकर कुछ दिन मेहनत करती, लेकिन जब कोई जटिल काम आ जाता तो मैं सोचती इसमें बहुत मगजमारी है, बहुत झंझट है, और उसे वैसे ही छोड़ देती। ऐसे ही दिन बीतते रहे। अच्छे नतीजे न हासिल करने के कारण हमारी टीम की दो बहनों का तबादला हुआ तो मुझे कुछ बुरा होने की आशंका होने लगी। मैं भी उनसे कोई बेहतर काम नहीं कर रही थी, मैंने देखा कि मुझे छोड़कर बाकी सभी ज्यादा प्रगति कर रहे थे। मैं अपनी टीम में सबसे खराब थी। भले ही मैं अब भी अपना काम कर रही थी, पर मैं बेचैन हो गई चिंता करने लगी कि अब तबादले की बारी मेरी है। फिर, मैंने एक बहन से अपनी दशा के बारे में बात की, तो उसने कहा समस्या मेरी योग्यता नहीं है, पर मेरा ढीला होना है। मुझे यह काम करते थोड़ा समय हो गया था पर मैं अब भी बुनियादी गलतियाँ कर रही थी, मतलब काम को लेकर मेरे रवैये में ही जरूर कुछ गड़बड़ थी। उसकी बातों ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। मैंने सोचा मैं काम ठीक-से करने का पहले ही संकल्प कर चुकी हूँ, फिर मेरा रवैया अब भी वैसा ही क्यों है? मैंने परमेश्वर के सामने जाकर प्रार्थना की और जवाब खोजा।

एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिससे अपनी समस्या को लेकर मेरी समझ थोड़ी और स्पष्ट हुई। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "कुछ लोग चाहे जो भी काम करें या कोई भी कर्तव्य निभाएँ, वे उसमें सफल नहीं हो पाते, यह उनके लिए बहुत अधिक होता है, वे किसी भी उस दायित्व या जिम्मेदारी को निभाने में असमर्थ होते हैं, जो लोगों को निभानी चाहिए। क्या वे कचरा नहीं हैं? क्या वे अभी भी इंसान कहलाने लायक हैं? कमअक्ल लोगों, मानसिक रूप से विकलांगों और जो विभिन्न मानसिक और शारीरिक अक्षमताओं से ग्रस्त हैं, उन्हें छोड़कर, क्या कोई ऐसा जीवित व्यक्ति है जिसे अपने कर्तव्यों का पालन और अपनी जिम्मेदारियों को पूरा नहीं करना चाहिए? लेकिन इस तरह के कचरा लोग सिर्फ आलसी बने रहना चाहते हैं, वे अपनी जिम्मेदारियों को पूरा नहीं करना चाहते; निहितार्थ यह है कि वे एक सही व्यक्ति की तरह आचरण नहीं करना चाहते। परमेश्वर ने उन्हें क्षमता और गुण दिए हैं, उसने उन्हें बुद्धि और ज्ञान दिया, उन्हें इंसान बनने का अवसर दिया, फिर भी वे अपने कर्तव्य-पालन के प्रति लापरवाह होते हैं, वे कोई जिम्मेदारी उठाने को तैयार नहीं होते। क्या ऐसा व्यक्ति मनुष्य कहलाने लायक भी है? उन्हें कोई भी काम दे दिया जाए—चाहे वह महत्वपूर्ण हो या सामान्य, कठिन हो या सरल—वे लापरवाह और अनमने बने रहते हैं, हमेशा आलसी बनकर काम से जी चुराते हैं। समस्याएँ आने पर अपनी जिम्मेदारी दूसरों पर थोपने की कोशिश करते हैं। वे कचरा हैं—निरर्थक कचरा। समाज में कौन व्यक्ति होगा जो जीने के लिए खुद पर निर्भर न होगा? लोगों को बड़े होकर काम पर जाना पड़ता है और रोजी-रोटी के लिए पैसा कमाना पड़ता है। घर में रहकर इंसान आलसी हो जाता है और असहज महसूस करने लगता है। हो सकता है कि उनके माता-पिता उन्हें सहारा देने को तैयार हों, उन्हें बहुत प्यार करते हों और शायद न चाहते हों कि वे बाहर जाकर कठिनाई और थकावट सहे, लेकिन एक वयस्क की मानसिकता कैसी होनी चाहिए? तुम्हें अब अपने माता-पिता पर बोझ नहीं बनना चाहिए, तुम अब बच्चे नहीं रहे, तुम्हें वही करना चाहिए जो बड़े लोग करते हैं और अपने लिए खुद रोजी-रोटी कमानी चाहिए। क्या एक वयस्क की मानसिकता ऐसी नहीं होनी चाहिए? जब इंसान की मानसिकता ऐसी होती है, तो उसमें एक खास जिम्मेदारी का भाव आता है, उसमें एक सामान्य मानवता का विवेक आता है। आज हम जिस कचरे की बात कर रहे हैं, क्या उनमें सामान्य मानवता का विवेक होता है? (नहीं।) वे बिना कुछ काम किए हासिल करना चाहते हैं, कभी जिम्मेदारी नहीं लेना चाहते, मुफ्त के भोजन की फिराक में रहते हैं, उन्हें दिन में तीन बार अच्छा भोजन चाहिए होता है—वे चाहते हैं कि कोई उनके लिए पलकें बिछाए रहे और भोजन भी स्वादिष्ट हो—और यह सब बिना कोई काम किए मिल जाए। क्या यह एक परजीवी की मानसिकता नहीं है? क्या परजीवियों में विवेक और समझ होती है? क्या उनमें गरिमा और निष्ठा होता है? बिलकुल नहीं; वे सभी मुफ्तखोर कचरा होते हैं" (नकली अगुआओं की पहचान करना)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि ज़मीर और समझ वाले लोग अपना सब कुछ कर्तव्य में झोंक देते हैं, परमेश्वर के आदेश के लिए अपनी पूरी कोशिश करते हुए जिम्मेदार रहते हैं। जबकि सामान्य इंसानियत से रहित निकम्मे लोग जरा भी तकलीफ या असुविधा बर्दाश्त नहीं करते, चालें चलकर काम चलाते हैं, अपनी ज़िम्मेदारी या दायित्व के बारे में सोचते तक नहीं। अगर परमेश्वर ने उन्हें योग्यता और गुण भी दिए हैं, और कर्तव्य निभाने का मौका भी, तो भी कुछ भी न सीखने और हमेशा दैहिक सुखों की चाह के कारण, वे जरा भी जिम्मेदारी महसूस नहीं करते, आखिर में कुछ भी नहीं कर पाते और किसी काम के नहीं रहते। मुझे लगा मैं भी वैसी ही निकम्मी थी जैसा परमेश्वर ने बताया था। बर्खास्तगी के बाद, कलीसिया ने मुझे लिखित सामग्री का काम दिया, जो परमेश्वर द्वारा ऊंचा उठाया जाना था। पर मैंने इसे भी चाव से नहीं लिया, इसके बजाय अपने कर्तव्य के प्रति वही निकम्मा रवैया अपनाए रखा। मुझे अच्छी तरह पता था कि मैं मसलों में ढिलाई बरत रही हूँ, पर मैं सुधरने के लिए तैयार नहीं थी, सोच-विचार में ज्यादा दिमाग लगाने या समय देने को तैयार नहीं थी। नतीजतन, मैं अपने काम में आगे नहीं बढ़ पा रही थी। मैं भी इसी बात को लेकर बड़ी परेशान थी। मैं हर मुश्किल से पीछे क्यों हटती थी, हर तकलीफ से दुबकती क्यों थी?

एक बार अपने भक्ति कार्यों में मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े, जिनसे मैं अपनी समस्या की जड़ को समझ पाई। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "आज, तुम मेरी बातों पर विश्वास नहीं करते, और उन पर ध्यान नहीं देते; जब इस कार्य को फैलाने का दिन आएगा, और तुम उसकी संपूर्णता को देखोगे, तब तुम्हें अफसोस होगा, और उस समय तुम भौंचक्के रह जाओगे। आशीषें हैं, फिर भी तुम्हें उनका आनंद लेना नहीं आता, सत्य है, फिर भी तुम्हें उसका अनुसरण करना नहीं आता। क्या तुम अपने-आप पर अवमानना का दोष नहीं लाते? आज, यद्यपि परमेश्वर के कार्य का अगला कदम अभी शुरू होना बाकी है, फिर भी तुमसे जो कुछ अपेक्षित है और तुम्हें जिन्हें जीने के लिए कहा जाता है, उनमें कुछ भी असाधारण नहीं है। इतना सारा कार्य है, इतने सारे सत्य हैं; क्या वे इस योग्य नहीं हैं कि तुम उन्हें जानो? क्या परमेश्वर की ताड़ना और न्याय तुम्हारी आत्मा को जागृत करने में असमर्थ हैं? क्या परमेश्वर की ताड़ना और न्याय तुममें खुद के प्रति नफरत पैदा करने में असमर्थ हैं? क्या तुम शैतान के प्रभाव में जी कर, और शांति, आनंद और थोड़े-बहुत दैहिक सुख के साथ जीवन बिताकर संतुष्ट हो? क्या तुम सभी लोगों में सबसे अधिक निम्न नहीं हो? उनसे ज्यादा मूर्ख और कोई नहीं है जिन्होंने उद्धार को देखा तो है लेकिन उसे प्राप्त करने का प्रयास नहीं करते; वे ऐसे लोग हैं जो पूरी तरह से देह-सुख में लिप्त होकर शैतान का आनंद लेते हैं। तुम्हें लगता है कि परमेश्वर में अपनी आस्था के लिए तुम्‍हें चुनौतियों और क्लेशों या कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ेगा। तुम हमेशा निरर्थक चीजों के पीछे भागते हो, और तुम जीवन के विकास को कोई अहमियत नहीं देते, बल्कि तुम अपने फिजूल के विचारों को सत्य से ज्यादा महत्व देते हो। तुम कितने निकम्‍मे हो! तुम सूअर की तरह जीते हो—तुममें और सूअर और कुत्ते में क्या अंतर है? जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, बल्कि शरीर से प्यार करते हैं, क्या वे सब पूरे जानवर नहीं हैं? क्या वे मरे हुए लोग जिनमें आत्मा नहीं है, चलती-फिरती लाशें नहीं हैं? तुम लोगों के बीच कितने सारे वचन कहे गए हैं? क्या तुम लोगों के बीच केवल थोड़ा-सा ही कार्य किया गया है? मैंने तुम लोगों के बीच कितनी आपूर्ति की है? तो फिर तुमने इसे प्राप्त क्यों नहीं किया? तुम्हें किस बात की शिकायत है? क्या यह बात नहीं है कि तुमने इसलिए कुछ भी प्राप्त नहीं किया है क्योंकि तुम देह से बहुत अधिक प्रेम करते हो? क्योंकि तुम्‍हारे विचार बहुत ज्यादा निरर्थक हैं? क्योंकि तुम बहुत ज्यादा मूर्ख हो? यदि तुम इन आशीषों को प्राप्त करने में असमर्थ हो, तो क्या तुम परमेश्वर को दोष दोगे कि उसने तुम्‍हें नहीं बचाया? ... तुम जैसा डरपोक इंसान, जो हमेशा दैहिक सुख के पीछे भागता है—क्या तुम्‍हारे अंदर एक दिल है, क्या तुम्‍हारे अंदर एक आत्मा है? क्या तुम एक पशु नहीं हो? मैं बदले में बिना कुछ मांगे तुम्‍हें एक सत्य मार्ग देता हूँ, फिर भी तुम उसका अनुसरण नहीं करते। क्या तुम उनमें से एक हो जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं? मैं तुम्‍हें एक सच्चा मानवीय जीवन देता हूँ, फिर भी तुम अनुसरण नहीं करते। क्या तुम कुत्ते और सूअर से भिन्न नहीं हो? सूअर मनुष्य के जीवन की कामना नहीं करते, वे शुद्ध होने का प्रयास नहीं करते, और वे नहीं समझते कि जीवन क्या है। प्रतिदिन, उनका काम बस पेट भर खाना और सोना है। मैंने तुम्‍हें सच्चा मार्ग दिया है, फिर भी तुमने उसे प्राप्त नहीं किया है: तुम्‍हारे हाथ खाली हैं। क्या तुम इस जीवन में एक सूअर का जीवन जीते रहना चाहते हो? ऐसे लोगों के जिंदा रहने का क्या अर्थ है? तुम्‍हारा जीवन घृणित और ग्लानिपूर्ण है, तुम गंदगी और व्यभिचार में जीते हो और किसी लक्ष्य को पाने का प्रयास नहीं करते हो; क्या तुम्‍हारा जीवन अत्यंत निकृष्ट नहीं है? क्या तुम परमेश्वर की ओर देखने का साहस कर सकते हो? यदि तुम इसी तरह अनुभव करते रहे, तो क्या केवल शून्य ही तुम्हारे हाथ नहीं लगेगा? तुम्हें एक सच्चा मार्ग दे दिया गया है, किंतु अंततः तुम उसे प्राप्त कर पाओगे या नहीं, यह तुम्हारी व्यक्तिगत खोज पर निर्भर करता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। मैंने इस अंश को कई बार पढ़ा। खासकर जब भी मैं "जानवर", "कुत्ते और सूअर" या "निकृष्ट" जैसे शब्द पढ़ती तो यह मुझे यह अपने चेहरे पर एक तमाचे जैसा लगता। मैंने खुद से पूछा, "मैं असल में परमेश्वर में विश्वास क्यों करती हूँ? क्या सिर्फ सुख भोगने के लिए? परमेश्वर के इतने सारे वचन पढ़ने के बाद भी मेरे जीवन के लक्ष्य इतने तुच्छ क्यों हैं?" मुझे लगा कि शैतान ने मुझे बहुत गहराई से भ्रष्ट कर दिया था। शैतानी फलसफे कि "जीवन सिर्फ खाने-पीने और कपड़े पहनने के बारे में है" "चार दिन की जिंदगी है, मौज कर लो" और "आज मौज करो, कल की फिक्र कल करना" ऐसे वाक्य थे जो मेरे जीवन-मंत्र बन चुके थे। शरीर का सुख और आनंद मेरे जीवन के प्रमुख लक्ष्य थे। मुझे याद आया, मेरे सहपाठी हाई स्कूल में दाखिले के इम्तहान के लिए पागलों की तरह पढ़ रहे थे, मुझे यह बहुत थकाने वाला लगता था, तो मैं खेलने चली जाती थी। मुझे लगता था कि मुझे खुद का ख्याल रखना चाहिए, हर आने वाले पल का मजा लेना चाहिए, कल चाहे कुछ भी हो। मेरे सहपाठी कहते थे कि मैं आरामतलब हूँ, पर मुझे लगता यह जीने का अच्छा तरीका है। मैं हर दिन बिना किसी दबाव या चिंता के खुश रहती थी। मैं ऐसी ही जिंदगी चाहती थी। आस्था पाने और कर्तव्य में लगने के बाद भी मैंने अपना नजरिया नहीं बदला। जब भी कोई जटिल या मुश्किल काम आता, इसे झंझट समझकर मैं इससे बचना चाहती, थोड़ा-सा भी शारीरिक कष्ट या तनाव न झेलती। मुझे कुछ भी न करना, इधर-उधर घूमना अच्छा लगता था। पर इस तरह से जीकर मैंने असल में क्या हासिल किया था? अपने कर्तव्य में मैं कोई तरक्की नहीं कर पाई, अपना चरित्र और गरिमा खो बैठी, क्योंकि मैं गैर-जिम्मेदार थी और कलीसिया का काम रोके बैठी थी। परमेश्वर नफरत करने लगा, भाई-बहन भी नाराज थे। जिंदगी से जुड़े ये शैतानी फलसफे बहुत नुकसान पहुंचाते हैं। इस तरह से जीकर मैं अपनी सत्यनिष्ठा और गरिमा खो बैठी, पूरी तरह निठल्ली और एक जानवर बन गई, जिसका ज़िंदगी में कोई मकसद न था। यह बहुत कुत्सित और घिनौना था! हकीकत में, मुश्किलों से सामना होने पर, परमेश्वर इस हालात का इस्तेमाल करके चाहता था कि मैं सत्य खोजूँ, समझूँ और उसे हासिल करूँ। पर मैंने परमेश्वर द्वारा ऊंचा उठाए जाने को नहीं सँजोया, सत्य पाने के तमाम अवसर भी गंवा दिए। "निश्‍चिन्त रहने के कारण मूढ़ लोग नष्‍ट होंगे" (नीतिवचन 1:32)। यह कितना सच है। परमेश्वर के वचनों में भी कहा गया है, "मनुष्य की देह साँप के समान है : इसका सार उसके जीवन को हानि पहुँचाना है—और जब पूरी तरह से उसकी मनमानी चलने लगती है, तो तुम जीवन पर से अपना अधिकार खो बैठते हो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल परमेश्वर से प्रेम करना ही वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करना है)। यह सोचते हुए कि मैंने बार-बार परमेश्वर के आदेश को कितने हल्के से लिया, कितने अनमोल लम्हे गँवाए थे, मैं बहुत परेशान हो गई और लगातार रोती रही। मैं पश्चाताप से भर गई और अपनी तमाम बुरी करतूतों पर पछताने लगी। ये चीजें परमेश्वर में मेरी आस्था पर धब्बा थीं, जिन्हें धोया नहीं जा सकता, इसके लिए मैं हमेशा पछताती रहूँगी! मुझे दिल की गहराइयों से खुद से घृणा होने लगी। आंसुओं के बीच मैंने प्रार्थना की, "परमेश्वर, मैंने तुम्हें निराश किया है। इतने सालों से विश्वासी होते हुए भी मैंने सत्य नहीं खोजा, सिर्फ शरीर के क्षणिक सुख ढूंढती रही। मैं कितनी पतित हूँ! परमेश्वर, मैंने आखिरकार शरीर का सार समझ लिया है, भले ही मैं अपने अपराधों की भरपाई न कर पाऊँ, पर मैं प्रायश्चित करना और सत्य का अनुसरण करके एक नई शुरुआत करना चाहती हूँ।"

एक बहन ने बाद में मुझे परमेश्वर के वचन भेजे, जिनसे मुझे अभ्यास और प्रवेश का एक रास्ता मिला। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "जब लोगों के पास विचार होते हैं, तो उनके पास विकल्प होते हैं। अगर उनके साथ कुछ हो जाता है और वे गलत विकल्प चुन लेते हैं, तो उन्हें वापस मुड़ना चाहिए और सही विकल्प चुनना चाहिए; उन्हें अपनी गलती पर अड़े नहीं रहना चाहिए। ऐसा करने वाला इंसान चतुर होता है। लेकिन अगर वे जानते हैं कि उन्होंने गलत विकल्प चुना है और फिर भी वापस नहीं मुड़ते, तो फिर वे ऐसे इंसान हैं जो सत्य से प्रेम नहीं करते, और ऐसा इंसान वास्तव में परमेश्वर को नहीं चाहता। उदाहरण के लिए मान लो, जब तुमने कुछ किया था, तो तुम लापरवाह और आलसी थे। तुमने ढिलाई बरतने और परमेश्वर की जाँच से बचने की कोशिश की। ऐसे समय में, प्रार्थना करने के लिए जल्दी से परमेश्वर के सामने जाओ, और विचार करो कि क्या यह कार्य करने का सही तरीका था। फिर इस बारे में सोचो : 'मैं परमेश्वर में विश्वास क्यों करता हूँ? इस तरह की ढिलाई भले ही लोगों की नजर से बच जाए, लेकिन क्या परमेश्वर की नजर से बचेगी? इसके अलावा, परमेश्वर में मेरा विश्वास ढीला होने के लिए नहीं है—यह बचाए जाने के लिए है। मेरा इस तरह काम करना सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति नहीं है, न ही यह परमेश्वर को प्रिय है। नहीं, मैं बाहरी दुनिया में सुस्त हो सकता हूँ, जैसा चाहूँ वैसा कर सकता हूँ, लेकिन अब मैं परमेश्वर के घर में हूँ, मैं परमेश्वर के प्रभुत्व में हूँ, परमेश्वर की आँखों की जाँच के अधीन हूँ। मैं एक इंसान हूँ, मेरे पास अंतरात्मा होनी चाहिए, मैं जैसा चाहूँ वैसा नहीं कर सकता। मुझे परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करना चाहिए, मुझे लापरवाह या अनमना नहीं होना चाहिए, मैं सुस्त नहीं हो सकता। तो सुस्त, लापरवाह और अनमना न होने के लिए मुझे कैसे काम करना चाहिए? मुझे इसमें कुछ प्रयास करना चाहिए। अभी मुझे लगा कि इसे इस तरह करना बहुत अधिक कष्टप्रद था, मैं कठिनाई से बचना चाहता था, लेकिन अब मैं समझता हूँ : ऐसा करने में बहुत परेशानी हो सकती है, लेकिन यह कारगर है, और इसलिए इसे ऐसे ही किया जाना चाहिए।' जब तुम काम कर रहे होते हो और फिर भी कठिनाई से डरते हो, तो ऐसे समय तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए : 'हे परमेश्वर! मैं आलसी और धोखेबाज हूँ, मैं तुमसे विनती करता हूँ कि मुझे अनुशासित करो, मुझे फटकारो, ताकि मेरे अंत:करण में एक बोध हो, और शर्म की भावना हो। मैं लापरवाह और अनमना नहीं होना चाहता। मैं तुमसे विनती करता हूँ कि मुझे मेरी विद्रोहशीलता और कुरूपता दिखाने के लिए मेरा मार्गदर्शन करो और मुझे प्रबुद्ध करो।' जब तुम इस प्रकार प्रार्थना करते हो, चिंतन और खुद को जानने का प्रयास करते हो, तो यह खेद की भावना उत्पन्न करता है, और तुम अपनी कुरूपता से घृणा करने में सक्षम होते हो, और तुम्हारे हृदय की दशा बदलने लगती है, और तुम इस पर विचार करने और अपने आप से यह कहने में सक्षम होते हो, 'मैं लापरवाह और अनमना क्यों हूँ? मैं हमेशा ढीला क्यों पड़ने लगता हूँ? इस प्रकार कार्य करना अंतरात्मा या समझदारी से रहित होना है—क्या मैं अब भी ऐसा इंसान हूँ जो परमेश्वर में विश्वास करता है? मैं चीजों को गंभीरता से क्यों नहीं लेता? क्या मुझे थोड़ा और समय और प्रयास नहीं लगाना चाहिए? यह कोई बड़ा बोझ नहीं है। मुझे यही करना चाहिए; अगर मैं यह भी नहीं कर सकता, तो क्या मैं इंसान कहलाने के लायक हूँ?' नतीजतन, तुम शपथ लेते हो : 'हे परमेश्वर! मैं तुम्हारे योग्य नहीं हूँ, मैं वास्तव में अंतरात्मा या समझदारी से रहित हूँ, मुझमें मानवता नहीं है, मैं पश्चात्ताप करना चाहता हूँ। मैं तुमसे विनती करता हूँ कि मुझे माफ कर दो, मैं निश्चित रूप से बदल जाऊँगा। मैं वास्तव में बहुत अधिक भ्रष्ट हूँ, मैंने मनुष्य की छवि नहीं जी है, और अगर मैं पश्चात्ताप नहीं करता, तो मैं चाहूँगा कि तुम मुझे दंड दो।' बाद में तुम्हारी मानसिकता में बदलाव आता है और तुम बदलने लगते हो। तुम कम लापरवाही से और कम अनमने होकर, अलग तरह से कार्य करते हो और अलग तरह से अपने कर्तव्य निभाते हो, तुम जो कुछ भी करते हो, उसे गंभीरता से लेते हो। तुम थकावट महसूस नहीं करते, बल्कि इस तरह से अपना कर्तव्य निभाना तुम्हें अद्भुत लगता है, और तुम्हारा हृदय शांत और हर्षित होता है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है')। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि कर्तव्य में खुद को झोंक देना हमारी सबसे बुनियादी ज़िम्मेदारी है। काम कितना ही कठिन क्यों न हो, आसान हो या जटिल, हमें अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए, इसे पूरे दिल से और गंभीरता से करना चाहिए। हमें हर मुमकिन कोशिश करनी चाहिए। अपने कर्तव्य के प्रति यही सही रवैया है। परमेश्वर के वचन हमें अभ्यास का रास्ता भी दिखाते हैं। जब हमें लगता है कि हम चालबाजी या धूर्तता करना चाहते हैं, तो हमें शरीर का सुख त्यागकर परमेश्वर की जांच-पड़ताल स्वीकारनी चाहिए। उसके वचनों पर मनन कर, मुझे मनुष्यों के लिए उसकी समझ और करुणा का एहसास हुआ। वह अभ्यास और प्रवेश के इन रास्तों को लेकर बिल्कुल स्पष्ट है, ताकि हम एक इंसान की तरह जीवनयापन कर सकें। परमेश्वर की इच्छा और अपेक्षा समझकर, मैंने प्रार्थना की और सचेत मन से अपने देह-सुख का त्याग किया।

एक बार मैं फिर से एक मुश्किल समस्या में फंस गई, मन हुआ कि जैसे-तैसे काम करके बस खानापूरी कर दूँ। तो मैंने झट से प्रार्थना की : "परमेश्वर, मैं फिर अपने कर्तव्य में धूर्तता कर रही हूँ, पर मैं ऐसा रवैया अपनाना नहीं चाहती। देहसुख को त्यागने, सत्य का अभ्यास करने और कर्तव्य अच्छी तरह निभाने के लिए मुझे राह दिखाओ।" प्रार्थना के बाद, मुझे ध्यान आया कि दूसरों को मेरी चालबाजी और धूर्तता का पता न भी चले, पर परमेश्वर को पता होगा। वह देखेगा कि मैं सत्य का अभ्यास कर रही हूँ या देह की चिंता में हूँ। फिर मैंने दिल को शांत करके विचार किया, और अनजाने में ही, कुछ सिद्धांत मुझे बिल्कुल स्पष्ट हो गए। समस्या बहुत जल्दी ही हल हो गई। इस तरह अभ्यास करके, मुझे दिल में शांति महसूस हुई, यह कर्तव्य निभाने का काफी बढ़िया तरीका था। इसके साथ ही तबादले से जुड़ा मेरा डर भी जाने कहाँ गायब हो गया।

परमेश्वर का धन्यवाद! इस तरह थोड़ा बदल पाना परमेश्वर द्वारा मेरा उद्धार था, मैं परमेश्वर के वचनों के न्याय और पोषण से थोड़ा-थोड़ा करके जागृत हुई। परमेश्वर का न्याय और ताड़ना सबसे बड़ा उद्धार है!

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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