आराम की चाह से मैं बर्बाद होते-होते बची
2019 में मुझ पर वीडियो के काम की जिम्मेदारी थी, साथ ही मैं एक अगुआ भी थी। मैंने कर्तव्य अच्छे से करने की कसम खाई। इसके बाद, मैंने कर्तव्य में पूरा दिल झोंक दिया और अपनी साथी बहन से कलीसिया का यह काम करना सीख लिया। मैं छोटी-बड़ी हर सभा में शामिल रहने की कोशिश करती। जब भाई-बहनों की हालत बुरी होती, तो मैं उनके साथ संगति करने के लिए परमेश्वर के वचन ढूंढती और उनकी समस्याएं हल करती। सबसे बड़ी बात, रोज भाई-बहनों के बनाए वीडियो की समीक्षा भी करती। मैं हर दिन बहुत व्यस्त रहती थी। कुछ समय बाद, मैं थक गई, और धीरे-धीरे अपनी प्रतिज्ञा भूलने लगी। इतनी व्यस्त ज़िंदगी का दिनोदिन अधिक विरोध करने लगी। खासकर जब मैं वीडियो की समीक्षा कर रही होती थी, मुझे बहुत सोचना पड़ता था, फिर नजर आई कमियों को दूर करने के लिए सही सुझाव देने पड़ते थे। शारीरिक और दिमागी रूप से यह मुझे बहुत थकाने वाला लगता था। इस तरह से सोचने पर, मैं वीडियो समीक्षा में ढील बरतने लगी। कुछ को तो सरसरी नजर से ही देखकर निपटाने लगी। कई बार मैं कुछ समस्याओं को साफ देखकर भी अनदेखा करती, ताकि इनका कोई हल न सोचना पड़े, और कुछ भी न कहती। मैं अपने काम में निरंतर लापरवाह होती जा रही थी, जिस कारण वीडियो बार-बार संशोधन के लिए लौट रहे थे। इससे बहुत-से लोगों की मेहनत बेकार जा रही थी। ये बड़े गंभीर नतीजे थे, पर मैंने फिर भी आत्मचिंतन नहीं किया। मुझे लगा कि इसका मुझसे कोई सीधा संबंध नहीं था, दूसरों के वीडियो में समस्याएँ थीं इसलिए ही यह हो रहा था।
एक बार, मेरे हाथ में एक ऐसा वीडियो आया जिसमें असली तकनीकी समस्या थी और कुछ नए विचार चाहिए थे। मेरे भाई-बहन अपने-अपने विचार देने लगे तो मेरा सिर घूमने लगा। मैंने सोचा, “इसके बारे में सोचना बहुत थकाऊ है, मैं पूरी योजना उन्हें ही बनाने दूंगी!” मैंने काम दूसरे को सौंपते हुए यह बहाना बनाया कि मैं पूरे काम की प्रभारी हूँ, ताकि मेरा नजर न रखना और वीडियो की खोज-खबर न लेना सही लगे। पर उनमें से किसी ने भी पहले ऐसे मसले नहीं देखे थे, और वे कुछ सिद्धांत सही से नहीं समझते थे, उन्हें यह भी नहीं पता था कि इतना जटिल काम कैसे संभालें, लिहाजा काम आगे नहीं बढ़ पाया और आखिर में वीडियो पर काम बंद हो गया। मेरी साथी लीया ने देखा कि हम निष्प्रभावी थे और काम की रफ्तार धीमी थी, इसलिए उसने हम सबको चेताते हुए कहा कि हमें तेजी दिखानी होगी। मैंने शिकायत की कि वह बहुत सख्ती बरत रही है, दूसरे भाई-बहन भी मुझसे सहमत हो गए, और उसकी व्यवस्थाएँ ठुकरा दीं। इससे लीया बेबस हो गई, हमारे साथ काम की व्यवस्थाओं की चर्चा करते हुए बहुत सँभलकर बोलने लगी। इससे देर पर देर होने लगी, और हमारी प्रगति रुक गई। मैं आमतौर से पेशेवर कौशल सीखने की ज्यादा परवाह नहीं करती थी, मुझे प्रशिक्षण सामग्री जुटाना असली झंझट लगता था, इसलिए मैं इसे लीया के मत्थे मढ़ देती थी। कभी-कभी अपने कर्तव्य में व्यस्त होने का बहाना करके प्रशिक्षण में हिस्सा न लेती। इस तरह, मैं दिनोदिन कर्तव्य में सुस्त और ढीली पड़ती गई। एक बार काम पर चर्चा के लिए मैंने पहले कोई तैयारी नहीं की, जिससे सभी का वक्त बर्बाद हुआ।
फिर एक दिन, सीढ़ियों से नीचे उतरते हुए गिर पड़ी और टखने में मोच आ गई। मैंने यह नहीं सोचा कि ऐसा क्यों हुआ, बस यही सोचा कि टखने के दर्द के कारण चलो कुछ दिन आराम ही करूंगी। लीया ने मुझे उजागर करके कई बार मेरी काट-छाँट की, कहा कि अपने कर्तव्य में मैं कोई बोझ नहीं उठाती, जिससे कलीसिया के काम में देर होती है और दूसरों पर बुरा असर पड़ता है। उसके साथ संगति के बाद मैं कुछ दिन जोश में रहती, फिर वापस से वैसे ही ढीली पड़ जाती। मैंने सोचा ही नहीं था कि समस्या इतनी गंभीर थी, और खुद को छूट देती जा रही थी, सोचती थी, “मैं बस थोड़ी-सी आलसी ही तो हूँ, पर अहंकारी तो नहीं हूँ, मनमानी करके दूसरों को रोकती या दबाती तो नहीं, यह कोई बड़ी बात नहीं है। जो भी हो, मैं काबिल हूँ और थोड़ा-बहुत पेशेवर हुनर भी है, तो मुझे बर्खास्त नहीं किया जाएगा।” और इसलिए, लीया की चेतावनी को एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल दिया, मैंने इन नसीहतों को गंभीरता से नहीं लिया। मैं अपने कर्तव्य में ढील बरतती रही, कुछ कामों को तो एक बोझ, एक झंझट ही समझती रही। इतनी ढिलाई के कारण बहुत-से वीडियो दोबारा ठीक करने के लिए वापस आ रहे थे, उन्हें रिलीज करने में अरसा बीत जाता था।
एक सुबह एक वरिष्ठ अगुआ अचानक ही आ गई और बोली कि हमारे कर्तव्य से नतीजे नहीं मिल रहे हैं, जिन मसलों पर बात हो चुकी है वे भी ठीक नहीं हो रहे। उसने हमसे जानना चाहा कि असली समस्या क्या थी। उसने यह भी पूछा कि क्या हम इस कर्तव्य के काबिल थे, कहा कि अगर चीजें ऐसी ही चलती रहीं तो हम सब बर्खास्त कर दिए जाएंगे। यह सुनकर मैं डर गई। कलीसिया अगुआ होने के साथ-साथ मैं काम की प्रमुख भी थी, इसलिए सब कुछ खराब होने के लिए सीधे जिम्मेदार थी। यह सब मेरी ढिलाई की वजह से ही हुआ था। इस बारे में जितना सोचा उतना ही मुझे समस्या की गंभीरता का एहसास हुआ। वरिष्ठ अगुआ को जल्दी ही पता चल गया कि मैं अपना कर्तव्य कैसे करती थी, और उसने मुझे बर्खास्त कर दिया। उसने बड़ी सख्ती से मेरी काट-छाँट करते हुए कहा, “कलीसिया ने तुम्हें एक महत्वपूर्ण काम सौंपा है, पर इतनी सारी समस्याएँ और मुश्किलें देखकर भी तुमने इनकी कोई परवाह नहीं की। तुम्हें सिर्फ अपने शारीरिक सुखों की परवाह है, जिसके कारण महीनों तक वीडियो की प्रगति रुक गई। तुम में जमीर नाम की चीज ही नहीं है! कलीसिया तुम्हें विकसित करती रही, पर तुम्हें परमेश्वर की इच्छा की परवाह ही नहीं है, यह बहुत ही निराश करने वाली बात है। एक अगुआ होकर भी तुम अपना कर्तव्य अच्छे से नहीं निभा रही। न कुछ सीख रही हो, न तरक्की कर पाई हो, विकसित किए जाने योग्य भी नहीं हो। अगर तुमने प्रायश्चित करके खुद को न बदला तो निकाल दी जाओगी।” उसके शब्द मेरे लिए बहुत बड़ा झटका थे। मेरा दिमाग चकरा गया और मैं खुद से बार-बार पूछती रही : मैं इतने महीनों से क्या कर रही हूँ? चीजें इस मुकाम तक कैसे पहुँच गईं? यह सुनकर कि मैं विकसित किए जाने के काबिल नहीं थी, मुझे अपना भविष्य खत्म होता महसूस हुआ। मैं बहुत परेशान हो गई, लगा जैसे किसी ने मेरी सारी शक्ति निचोड़ ली हो। अपने कर्तव्य को न सँजोने के लिए मुझे खुद से कोफ्त होने लगी, पर अब बहुत देर हो चुकी थी।
बर्खास्त होने के बाद मैं निराशा की नकारात्मक दशा में चली गई। मुझे लगता था कि हर कोई मेरी असलियत जान चुका है, वे सब मुझे एक बुरी मिसाल समझकर किनारे कर देंगे। और परमेश्वर भी मुझसे घृणा करेगा। मेरी काट-छाँट करते वक्त अगुआ ने जो कुछ कहा था, वह मुझे तीर की तरह चुभ रहा था। मुझे लगता था कि मुझे उजागर करके बाहर कर दिया गया था। वे मेरे लिए बड़े दर्दनाक दिन थे। फिर एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिसने मेरे दिल को छू लिया। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “यदि तुम परमेश्वर के प्रति निष्ठावान हो, और अपना कर्तव्य ईमानदारी से निभाते हो, तो क्या तुम तब भी काट-छाँट के समय निराश और कमजोर हो पाओगे? यदि तुम सचमुच निराश और कमजोर हो जाते हो तो क्या किया जाना चाहिए? (हमें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और परमेश्वर पर निर्भर रहना चाहिए, कोशिश करनी चाहिए और सोचना चाहिए कि परमेश्वर क्या चाहता है, इस पर आत्मचिंतन करना चाहिए कि हममें क्या कमी है, हमने क्या गलतियाँ की हैं; जिन क्षेत्रों में हम नीचे गिरे हैं, उन्हीं में हमें फिर से ऊपर चढ़ना चाहिए।) सही है। निराशा और कमजोरी बड़ी समस्याएँ नहीं हैं। परमेश्वर उनकी निंदा नहीं करता। जब तक कोई व्यक्ति जहाँ गिरा था, वहाँ से वापस ऊपर चढ़ सकता है, और अपना सबक सीख सकता है, और सामान्य रूप से अपना कर्तव्य निभा सकता है, तो बस इतना बहुत है। कोई भी इसे तुम्हारे विरुद्ध इस्तेमाल नहीं करेगा, इसलिए बहुत अधिक निराश न हो। यदि तुम अपना कर्तव्य छोड़ोगे और उससे भागोगे, तो तुम स्वयं को पूरी तरह से बर्बाद कर लोगे। हर कोई कभी न कभी निराश और कमजोर होता है—बस सत्य की खोज करते रहो, और निराशा और कमजोरी आसानी से हल हो जाएगी। कुछ लोगों की दशा केवल परमेश्वर के वचनों का एक अध्याय पढ़ने या कुछ भजन गाने भर से पूरी तरह बदल जाती है; वे परमेश्वर के समक्ष प्रार्थना में अपना हृदय खोल पाते हैं, और उसकी स्तुति कर पाते हैं। क्या फिर भी उनकी समस्या का समाधान नहीं हुआ है? काट-छाँट किया जाना वास्तव में बहुत अच्छी बात है। भले ही वे वचन जो तुम्हारी काट-छाँट करते हैं और तुम्हारी काट-छाँट करते हैं, थोड़े कठोर, थोड़े चुभने वाले होते हैं, ऐसा इसलिए है क्योंकि तुमने बिना सोचे-समझे काम किया है, और तुम्हें एहसास भी नहीं कि तुमने सिद्धांतों का उल्लंघन किया है—ऐसी परिस्थितियों में तुम्हारे साथ काट-छाँट क्यों नहीं की जानी चाहिए? इस तरह से तुम्हारी काट-छाँट वास्तव में तुम्हारी मदद करना है, यह तुम्हारे लिए प्रेम है। तुमको इसे समझना चाहिए और शिकायत नहीं करनी चाहिए। इसलिए यदि काट-छाँट निराशा और शिकायत को जन्म देती है, तो यह मूर्खता और अज्ञानता है, किसी नासमझ का व्यवहार है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़ते हुए मेरी आँखों से लगातार आँसू बहते रहे। अगुआ ने मेरी काट-छाँट करते और मुझे उजागर करते समय बिल्कुल सही कहा था, और इतनी सख्ती से काट-छाँट करके मुझे इसलिए उजागर किया गया था क्योंकि मैंने जो कुछ किया था वह बेहद नागवार था। पर मुझे हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। मुझे जल्द से जल्द अपनी नाकामी पर आत्मचिंतन करके बदलना और प्रायश्चित करना होगा। यही सही रवैया है जो मुझे अपनाना चाहिए। इसलिए मैंने प्रार्थना की, परमेश्वर से इस विफलता में आत्मचिंतन करने और खुद को जानने में मुझे राह दिखाने के लिए कहा।
एक दिन, मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े, जिनमें झूठे अगुआओं का खुलासा और विश्लेषण किया गया था। इससे मुझे खुद को थोड़ा समझने में मदद मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “झूठे अगुआ असली काम नहीं करते, लेकिन वे अधिकारी बनना जानते हैं। अगुआ बनकर वे सबसे पहला काम क्या करते हैं? वे लोगों का दिल जीतने की कोशिश करते हैं। वे ‘एक नए प्रबंधक को अपनी सशक्त छवि बनानी चाहिए’ का दृष्टिकोण अपनाते हैं : पहले वे लोगों की चापलूसी करने के लिए कुछ काम करते हैं, लोगों के जीवन को आरामदायक बनाने के लिए कुछ काम शुरू कर देते हैं, उन पर एक अच्छा प्रभाव बनाने की कोशिश करते हैं, यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि वे जनता के साथ जुड़े हैं, ताकि हर कोई उनकी प्रशंसा करे और कहे कि ‘वे हमारे माता-पिता की तरह हैं!’ फिर वे आधिकारिक तौर पर पदभार सँभाल लेते हैं। उन्हें लगता है कि अब उन्हें लोकप्रिय समर्थन मिल गया है और उनका पद सुरक्षित है, अब उनके लिए अपने रुतबे का सुख लेना सही और उचित है। उनका आदर्श वाक्य होता है, ‘जीवन सिर्फ खाने और कपड़े पहनने के बारे में है,’ ‘चार दिन की ज़िंदगी है, मौज कर लो,’ और ‘आज मौज करो, कल की फिक्र कल करना।’ वे आने वाले हर दिन का आनंद लेते हैं, भरपूर मजा करते हैं और भविष्य के बारे में कोई विचार नहीं करते, वे इस बात पर तो बिल्कुल विचार नहीं करते कि एक अगुआ को कौन-सी जिम्मेदारियां निभानी चाहिए और किन कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। वे कुछ शब्दों और सिद्धांतों का प्रचार करते हैं और दिखावे के लिए कुछ तुच्छ कार्य करते हैं, लेकिन वे कोई वास्तविक कार्य नहीं करते। वे कलीसिया में वास्तविक समस्याओं का पता लगाने की कोशिश नहीं करते, ताकि उन्हें पूरी तरह हल कर सकें। ऐसे सतही काम करने की क्या तुक है? क्या यह धोखेबाजी नहीं है? क्या ऐसे नकली अगुआ को गंभीर जिम्मेदारियां सौंपी जा सकती हैं? क्या वे अगुआओं और कर्मियों के चयन के लिए परमेश्वर के घर के सिद्धांतों और शर्तों के अनुरूप हैं? (नहीं।) ऐसे लोगों में न तो अंतरात्मा होती है और न ही विवेक, उनमें जिम्मेदारी की कोई भावना नहीं होती और फिर भी वे आधिकारिक तौर पर एक कलीसिया-अगुआ के रूप में सेवा करना चाहते हैं—वे इतने बेशर्म क्यों होते हैं? कुछ लोग, जिनमें जिम्मेदारी की भावना होती है, अगर खराब क्षमता के हों, तो वे अगुआ नहीं हो सकते—फिर उस इंसानी कचरे की तो बात ही क्या करें जिसमें जिम्मेदारी का रत्तीभर भी एहसास नहीं होता; उनमें अगुआ बनने की योग्यता तो और भी कम होती है। ऐसे अकर्मण्य नकली अगुआ कितने आलसी होते हैं? वे कोई समस्या खोजते हैं, वे जानते हैं कि यह समस्या है, लेकिन वे उसे बेकार समझकर उस ओर ध्यान नहीं देते। वे कितने गैर-जिम्मेदार होते हैं! हालाँकि वे अच्छे वक्ता हो सकते हैं और उनमें थोड़ी क्षमता भी प्रतीत होती है, लेकिन वे कलीसिया के काम में आने वाली विभिन्न समस्याएँ हल नहीं कर सकते, जिससे काम रुक जाता है और समस्याएँ बढ़ती चली जाती हैं। इसके बावजूद ये अगुआ इन समस्याओं से कोई सरोकार नहीं रखते और काम के नाम पर कुछ फालतू काम करने पर अड़े रहते हैं। और अंतिम परिणाम क्या होता है? क्या वे कलीसिया के काम में गड़बड़ी नहीं करते, क्या वे उसे खराब नहीं कर देते? क्या वे कलीसिया में अराजकता और विखंडन पैदा नहीं करते? यह अपरिहार्य परिणाम है” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (8))। “सभी नकली अगुआ कभी व्यावहारिक कार्य नहीं करते, और वे ऐसे व्यवहार करते हैं जैसे उनकी अगुआई की भूमिका कोई आधिकारिक पद हो, और वे अपनी हैसियत के लाभों का पूरी तरह से आनंद लेते हैं। किसी अगुआ द्वारा कर्तव्य-पालन और कार्य-निष्पादन को ऐसे लोग एक बाधा और झंझट समझते हैं। उनके दिल में कलीसिया के कार्य के प्रति अवज्ञा का भाव होता है : अगर उनसे कार्य पर नजर रखने या उसमें आ रही समस्याओं का पता लगाने और फिर उसका अनुसरण कर उसे हल करने को कहा जाए, तो ऐसा करने की उनकी जरा भी इच्छा नहीं होती। अगुआओं और कर्मियों का यही तो काम होता है, यह उनका कार्य है। यदि तुम ऐसा नहीं करते—यदि तुम इसे करने के इच्छुक नहीं हो—तो फिर तुम अगुआ या कर्मी क्यों बनना चाहते हो? तुम अपने कर्तव्य का पालन परमेश्वर की इच्छा के प्रति सचेत रहने के लिए करते हो या एक पदाधिकारी बनने और हैसियत के साज-सामान का आनंद लेने के लिए करते हो? अगर तुम सिर्फ किसी आधिकारिक पद पर बैठने की इच्छा रखते हो, तो क्या अगुआ बनना बेशर्मी नहीं है? इससे ज्यादा गिरा हुआ चरित्र नहीं हो सकता—इन लोगों में स्वाभिमान नाम की कोई चीज नहीं होती, ये लोग बेशर्म होते हैं” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (8))। परमेश्वर के ये वचन पढ़ते हुए मुझे बेहद शर्मिंदगी हुई। क्या मैं बिल्कुल उसी तरह की निष्क्रिय झूठी अगुआ नहीं थी जिसके बारे में परमेश्वर ने जिक्र किया था? शुरू से ही, मुझे लगता था कि प्रभारी व्यक्ति न सिर्फ आखिरी फैसला करता है, बल्कि दूसरों का आदर भी पाता है, इसलिए मैंने खूब मेहनत की और इस रुतबे के लिए कष्ट झेले। मैंने अपनी झूठी छवि बनाई, ताकि सभी लोग सोचें कि मैं काफी जिम्मेदारी उठा सकती हूँ। यह पद और दूसरों का भरोसा हासिल कर लेने के बाद, मैंने अपना असली रंग दिखाना शुरू कर दिया। मैं रुतबे की चाह के जाल में फंसने लगी, इतना सारा काम और तमाम मुश्किलें देखकर मैं झंझट नहीं लेना चाहती थी। मुझे यह सब बड़ा बोझिल लगा, इसलिए मैंने काम का बोझ और अपनी चिंता कम करने की सोची। मुझे वीडियो की समीक्षा से जुड़ी मगजपच्ची पर बड़ी कोफ्त होती, इसलिए मैं यूँ ही गोलमोल सुझाव देने लगी, जिससे दूसरों को बार-बार सुधार करना पड़ता, और सभी की मेहनत बर्बाद होती। जब मेरी जिम्मेदारी वाले वीडियो में समस्याएँ आतीं, तो मैं हल ढूँढने में दिमाग लगाने के बजाय, अपने रुतबे का फायदा उठाकर चालें चलती, काम दूसरों के सिर मढ़ देती और फिर उनकी अवहेलना और अनदेखी करती। इससे समस्याएँ अनसुलझी ही रह जातीं और हमारे काम में कोई तरक्की न हो पाती। मैं तकनीकी ट्रेनिंग से बचने के लिए कई बहाने बनाती, मौका मिलते ही इसे किसी और पर डाल देती। मैं जरूरी कामों की योजना भी धीरे-धीरे बनाती और शिकायतें करती, जिससे मेरी साथी बेबस हो गई। मैं बहुत सारा काम जल्दी नहीं निपटा रही थी इसलिए हम तरक्की नहीं कर पाए। अपने किए को याद करके सचमुच खुद को थप्पड़ जड़ने का मन हुआ। थोड़ा रुतबा मिलते ही मैं आराम चाहने लगी, चालबाजी और धूर्तता करने लगी। मैंने अपने काम को बच्चों का खेल समझा, कोई जिम्मेदारी महसूस नहीं की। मैंने समस्याओं को उसी वक्त नहीं सुलझाया और कलीसिया के काम को नुकसान होते देख भी उदासीन रही। मैंने जो कुछ किया था, वह कम्युनिस्ट पार्टी के अधिकारियों की करतूतों से अलग कैसे था? वे रुतबे के लिए सभी हथकंडे आजमाते हैं और रुतबा पा लेने के बाद आम लोगों की समस्याएँ नहीं सुलझाते। वे सिर्फ खाने-पीने के अपने तरीके में धोखा देना और सत्ता को निजी फायदे के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं। यह दुष्टता और बेशर्मी है। मैं भी ऐसी ही थी। कलीसिया ने मुझे कितना महत्वपूर्ण काम दिया था, पर मुझे बस दैहिक सुविधाओं और अपने आराम की चिंता थी। मैंने कोई वास्तविक काम भी नहीं किया। यह सुसमाचार फैलाने का सबसे अहम समय है, इसलिए जितनी जल्दी ये गवाही के वीडियो ऑनलाइन आ जाएँ उतने ही ज्यादा लोग सच्चे रास्ते की खोज और जांच कर सकते हैं। पर मैंने परमेश्वर की इच्छा पर बिल्कुल भी विचार नहीं किया। अपने कर्तव्य में कोताही करके कलीसिया के काम में अत्यधिक देर होने दी। मैं स्वार्थी और कुटिल थी, मुझमें जरा भी इंसानियत नहीं थी। मुझे साफ दिख रहा था कि मैं कितनी आलसी, खुदगर्ज और घिनौनी थी। धोखे से इस ओहदे पर पहुँचकर मैंने व्यवहारिक काम नहीं किया। मेरा चरित्र खराब था, मैं भरोसे के काबिल नहीं थी। मुझमें नैतिकता की भावना नहीं थी। इन सारी बातों पर विचार करते हुए मेरे दिल में रह-रहकर टीस उठती रही। मैंने प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मुझमें इंसानियत की बहुत कमी है। मैंने यह कर्तव्य स्वीकार किया पर अपना काम ठीक-से नहीं किया, जिससे कलीसिया के काम में रुकावट आई। परमेश्वर, मेरी बर्खास्तगी के पीछे तुम्हारी धार्मिकता थी। मैं प्रायश्चित करके बदलना चाहती हूँ—मुझे राह दिखाओ कि मैं खुद को जान सकूँ!”
आत्मचिंतन करते हुए, मुझे याद आया कि दूसरों ने कितनी ही बार मेरे साथ संगति की थी, मेरी समस्याएं बताई थी, और मेरी काट-छाँट करके मुझे उजागर भी किया था, पर मैंने ही इस पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया। मुझे अभी भी आलसी होना और शारीरिक सुखों की चाह रखना कोई बड़ी समस्या नहीं लगी, मैं किसी को दुखी करने, दबाने का काम नहीं कर रही थी। सबसे बड़ी बात, मेरी योग्यता और काम की समझ को देखते हुए, मुझे लगा मेरे आलस के लिए कलीसिया मुझे बर्खास्त नहीं करेगी। परमेश्वर के वचन पढ़ने से पहले, मुझे एहसास ही नहीं था कि ये मेरी धारणाएँ और कल्पनाएँ भर थीं। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “अधिक गंभीर समस्या किन्हें होती है : आलसी लोगों को या खराब क्षमता वाले लोगों को? (आलसी लोगों को।) आलसी लोगों को गंभीर समस्या क्यों होती है? (खराब क्षमता वाले लोग अगुआ या कर्मी नहीं बन सकते, लेकिन जब वे अपनी क्षमता से मेल खाने वाला कोई कर्तव्य निभाते हैं, तो कुछ हद तक प्रभावी हो सकते हैं। लेकिन आलसी लोग कुछ नहीं कर सकते, वे क्षमता होते हुए भी कुछ नहीं करते।) आलसी लोग कुछ नहीं कर सकते। संक्षेप में, वे कचरा होते हैं, जो आलस के चलते अशक्त हैं। आलसी लोगों की क्षमता कितनी भी अच्छी क्यों न हो, वह नुमाइश से ज्यादा कुछ नहीं होती; उनकी अच्छी क्षमता किसी काम की नहीं होती। क्योंकि वे बहुत आलसी होते हैं, उन्हें पता तो होता है कि क्या करना है, लेकिन वे उसे करते नहीं; अगर उन्हें समस्या का पता चल भी जाता है, तो वे इसके समाधान के लिए सत्य की तलाश नहीं करते; वे जानते हैं कि कार्य को प्रभावी बनाने के लिए उन्हें किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा, लेकिन वे इस तरह की बहुमूल्य पीड़ा सहने को तैयार नहीं होते। परिणामस्वरूप, उन्हें न तो सत्य प्राप्त होता है और न ही वे कोई वास्तविक कार्य करते हैं। वे उन कष्टों को सहने को भी तैयार नहीं होते जिन्हें सहने की लोगों से अपेक्षा की जाती है; वे केवल आराम के लालची होते हैं, उन्हें सिर्फ आनंद और फुरसत के समय की मौज-मस्ती का, स्वतंत्र और आरामदायक जीवन के आनंद का पता होता है। क्या वे निकम्मे नहीं हैं? जो लोग कठिनाई सहन नहीं कर सकते वे जीने के लायक नहीं होते। जो लोग हमेशा एक परजीवी के रूप में जीना चाहते हैं, उनमें न तो जमीर होता है और न ही विवेक; वे जानवर होते हैं, ऐसे होते हैं जो सेवा प्रदान करने योग्य भी नहीं होते। क्योंकि वे कठिनाई सहन नहीं कर पाते, वे जो सेवा प्रदान करते हैं वह घटिया होती है और यदि वे सत्य पाना चाहें, तो उसकी आशा और भी कम होती है। जो व्यक्ति कष्ट नहीं उठा सकता, सत्य से प्रेम नहीं करता, वह निकम्मा होता है, सेवा प्रदान करने योग्य भी नहीं होता। ऐसे लोग मानवता से पूरी तरह विहीन पशु हैं। ऐसे लोगों को बहिष्कृत कर देना पूरी तरह से परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होता है” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (8))। “तुम परमेश्वर के आदेशों को कैसे लेते हो, यह अत्यंत महत्वपूर्ण है, और यह एक बहुत ही गंभीर मामला है। परमेश्वर ने जो लोगों को सौंपा है, यदि तुम उसे पूरा नहीं कर सकते, तो तुम उसकी उपस्थिति में जीने के योग्य नहीं हो और तुम्हें दंडित किया जाना चाहिए। यह पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित है कि मनुष्यों को परमेश्वर द्वारा दिए जाने वाले सभी आदेश पूरे करने चाहिए। यह मनुष्य का सर्वोच्च दायित्व है, और उतना ही महत्वपूर्ण है जितना उनका जीवन है। यदि तुम परमेश्वर के आदेशों को गंभीरता से नहीं लेते, तो तुम उसके साथ सबसे कष्टदायक तरीक़े से विश्वासघात कर रहे हो। इसमें, तुम यहूदा से भी अधिक शोचनीय हो और तुम्हें शाप दिया जाना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे एहसास हुआ कि भले ही मैं किसी का कुछ नहीं बिगाड़ रही थी, पर मैंने अपने कर्तव्य को हल्के में लिया और कलीसिया का काम रोका। यह उससे गंभीर विश्वासघात था और यहूदा से भी ज्यादा घिनौना था। मैं कर्तव्य से जुड़ी अपनी हर हरकत को याद करके काँप उठी। मैंने दूसरों की संगति और सलाह बार-बार अनसुनी की, इस भ्रम में रही कि मैं काबिल हूँ, अपना काम जानती हूँ, इसलिए आलसी होने के लिए मुझे बर्खास्त नहीं किया जाएगा। मैं कितनी संवेदनहीन और दुराग्रही थी। यह दयनीय और हास्यास्पद था, मुझे पता न था कि यह कितना खतरनाक था। परमेश्वर ने साफ कहा है कि वह काबिल लेकिन आलसी और कपटी लोगों से नफरत करता है, उनमें इंसानियत नहीं होती, वे घिनौने होते हैं और भरोसे के काबिल नहीं होते। उनसे वे लोग बेहतर होते हैं जो कम योग्यता के बावजूद व्यावहारिक और मेहनती होते हैं, और ज्यादा कष्ट उठाने की चाह रखते हैं। वे अपने कर्तव्य में ईमानदार होते हैं। वे दिल से कर्तव्य करते हैं, कर्तव्यनिष्ठ और जिम्मेदार होते हैं। जहाँ तक मेरी बात है, देखने में लगता था कि मुझमें थोड़ी काबिलियत थी, जबकि सच यह था कि मैं वे बुनियादी कर्तव्य भी नहीं कर पाती थी जो सृजित प्राणी को करने चाहिए। यह किस तरह की इंसानियत और योग्यता थी? यही वह मुकाम था जब मुझे अपनी असलियत पता चली, मैं समझ गई कि अगुआ ने क्यों कहा कि मैं विकसित किए जाने योग्य नहीं थी, और अगर मैं प्रायश्चित करके नहीं बदली तो बाहर कर दी जाऊँगी। इस तरह की इंसानियत, आलस और चालबाजी के साथ, कर्तव्य के प्रति गैर-जिम्मेदार रहते हुए, मैं भरोसे के काबिल नहीं थी, मुझे बर्खास्त करके बाहर कर देना ठीक ही था। मैंने जो समय बर्बाद किया, उस बारे में सोचकर मैंने खुद को परमेश्वर का कर्जदार माना। अब मैं अच्छे से सत्य का अनुसरण करना चाहती थी, और परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाने के लिए अपना कर्तव्य सही तरीके से निभाना चाहती थी।
बाद में, मैं पाठ्य सामग्री का काम करने लगी। वहाँ बहुत सारा काम था, हर दिन व्यस्त रहती थी, इसलिए मैं खुद को चेताती रहती थी कि मुझे अच्छी तरह कर्तव्य निभाना है और देहासक्ति में नहीं पड़ना। शुरुआत में, मैं अपने कर्तव्य के लिए जिम्मेदार थी। मुझे लगा कि मैं थोड़ा बदल गई हूँ। पर काम का बोझ बढ़ने के साथ कुछ मुश्किलें और समस्याएं आने लगीं, तो मेरी प्रकृति ने फिर से अपना रंग दिखाया। मैं सोच रही थी, “इन समस्याओं को हल करना दिमाग को थका देने वाला है, बस एक बार सरसरी नजर से देख लेना काफी होगा, और ज्यादा जटिल मसले मैं दूसरों को ही सुलझाने दूँगी।” एक बहन ने कई बार कहा कि मैं बस जैसे-तैसे काम निपटा रही हूँ, कर्तव्य को गंभीरता से लेने को चेताया। मैं हामी भरकर कुछ दिन मेहनत करती, लेकिन जब कोई जटिल काम आ जाता तो मैं सोचती इसमें बहुत मगजमारी है, बहुत झंझट है, और उसे वैसे ही छोड़ देती। ऐसे ही दिन बीतते रहे। बाद में, अच्छे नतीजे न हासिल करने के कारण हमारी टीम की दो बहनों का तबादला हुआ तो एकदम से मुझे कुछ बुरा होने की आशंका होने लगी। मैं भी उनसे कोई बेहतर ढंग से कर्तव्य नहीं निभा रही थी, मैंने देखा कि मुझे छोड़कर बाकी सभी ज्यादा प्रगति कर रहे थे। मैं अपनी टीम में सबसे खराब थी। भले ही मैं अब भी अपना कर्तव्य कर रही थी, पर मैं बेचैन हो गई चिंता करने लगी कि अब तबादले की बारी मेरी है। मैंने एक बहन से अपनी दशा के बारे में बात की, तो उसने कहा कि अपने कर्तव्य में अच्छे नतीजे हासिल न कर पाने की वजह मुझमें योग्यता न होना नहीं, बल्कि काम में बहुत ढीली होना थी। मुझे यह कर्तव्य करते थोड़ा समय हो गया था पर मैं अब भी बुनियादी गलतियाँ कर रही थी, मतलब कर्तव्य को लेकर मेरे रवैये में ही जरूर कुछ गड़बड़ थी। उसकी बातों ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। मैंने सोचा मैं कर्तव्य ठीक-से करने का पहले ही संकल्प कर चुकी हूँ, फिर अभी इससे ऐसे क्यों पेश आ रही थी? मैंने परमेश्वर के सामने जाकर प्रार्थना की और जवाब खोजा।
एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिससे अपनी समस्या को लेकर मेरी समझ थोड़ी और स्पष्ट हुई। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “कुछ लोग चाहे जो भी काम करें या कोई भी कर्तव्य निभाएँ, वे उसमें सफल नहीं हो पाते, यह उनके लिए बहुत अधिक होता है, वे किसी भी उस दायित्व या जिम्मेदारी को निभाने में असमर्थ होते हैं, जो लोगों को निभानी चाहिए। क्या वे कचरा नहीं हैं? क्या वे अभी भी इंसान कहलाने लायक हैं? कमअक्ल लोगों, मानसिक रूप से विकलांगों और जो शारीरिक अक्षमताओं से ग्रस्त हैं, उन्हें छोड़कर, क्या कोई ऐसा जीवित व्यक्ति है जिसे अपने कर्तव्यों का पालन और अपनी जिम्मेदारियों को पूरा नहीं करना चाहिए? लेकिन इस तरह के लोग धूर्त होते हैं और हमेशा बेईमानी करते हैं, और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं करना चाहते; निहितार्थ यह है कि वे एक सही व्यक्ति की तरह आचरण नहीं करना चाहते। परमेश्वर ने उन्हें क्षमता और गुण दिए, उसने उन्हें इंसान बनने का अवसर दिया, लेकिन वे अपने कर्तव्य-पालन में इनका इस्तेमाल नहीं कर पाते। वे कुछ नहीं करते, लेकिन हर चीज का आनंद लेना चाहते हैं। क्या ऐसा व्यक्ति मनुष्य कहलाने लायक भी है? उन्हें कोई भी काम दे दिया जाए—चाहे वह महत्वपूर्ण हो या सामान्य, कठिन हो या सरल—वे हमेशा लापरवाह और अनमने, आलसी और धूर्त बने रहते हैं। समस्याएँ आने पर अपनी जिम्मेदारी दूसरों पर थोपने की कोशिश करते हैं; वे कोई जिम्मेदारी नहीं लेते, अपना परजीवी जीवन जीते रहना चाहते हैं। क्या वे बेकार कचरा नहीं हैं? समाज में कौन व्यक्ति होगा जो जीने के लिए खुद पर निर्भर न होगा? व्यक्ति जब बड़ा हो जाता है, तो उसे अपना भरण-पोषण खुद करना चाहिए। उसके माता-पिता ने अपनी जिम्मेदारी निभा दी है। भले ही उसके माता-पिता उसकी मदद करने के लिए तैयार हों, वह इससे असहज होगा, और उसे यह पहचानने में सक्षम होना चाहिए, ‘मेरे माता-पिता ने बच्चे पालने का अपन काम पूरा कर दिया है। मैं वयस्क और हृष्ट-पुष्ट हूँ—मुझे स्वतंत्र रूप से जीने में सक्षम होना चाहिए।’ क्या एक वयस्क में इतनी न्यूनतम समझ नहीं होनी चाहिए? अगर व्यक्ति में वास्तव में समझ है, तो वह अपने माता-पिता के टुकड़ों पर पलता नहीं रह सकता; वह दूसरों की हँसी का पात्र बनने से, शर्मिंदा होने से डरेगा। तो क्या किसी बेकार आवारा में कोई समझ होती है? (नहीं।) वे बिना कुछ काम किए हासिल करना चाहते हैं, कभी जिम्मेदारी नहीं लेना चाहते, मुफ्त के भोजन की फिराक में रहते हैं, उन्हें दिन में तीन बार अच्छा भोजन चाहिए होता है—वे चाहते हैं कि कोई उनके लिए पलकें बिछाए रहे और भोजन भी स्वादिष्ट हो—और यह सब बिना कोई काम किए मिल जाए। क्या यह एक परजीवी की मानसिकता नहीं है? क्या परजीवियों में विवेक और समझ होती है? क्या उनमें गरिमा और निष्ठा होती है? बिल्कुल नहीं; वे सभी मुफ्तखोर निकम्मे होते हैं, जमीर या विवेक से रहित जानवर। उनमें से कोई भी परमेश्वर के घर में बने रहने के योग्य नहीं है” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (8))। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि ज़मीर और समझ वाले लोग अपना सब कुछ कर्तव्य में झोंक देते हैं और उसे अच्छी तरह पूरा करते हैं। जबकि सामान्य इंसानियत और विवेक से रहित लोग जरा भी तकलीफ या असुविधा बर्दाश्त नहीं करते, चालें चलकर काम चलाते हैं, अपनी ज़िम्मेदारी या दायित्व के बारे में सोचते तक नहीं। अगर परमेश्वर ने उन्हें योग्यता और गुण भी दिए हैं, और कर्तव्य निभाने का मौका भी, तो भी कुछ भी न सीखने और केवल दैहिक सुखों की चाह के कारण, वे जरा भी जिम्मेदारी महसूस नहीं करते, आखिर में कुछ भी नहीं कर पाते और किसी काम के नहीं रहते। मैं भी उन लोगों जैसी ही थी जिनके बारे में परमेश्वर ने बताया था। बर्खास्तगी के बाद, कलीसिया ने मुझे पाठ्य सामग्री का काम दिया, जो प्रायश्चित का मौका देना था, पर मैं इसे भी संजोना नहीं जानती थी। मैं अपने कर्तव्य में सुधरने के लिए तैयार नहीं थी, जब मैंने वास्तविक परेशानियों का सामना किया, तो उन्हें सुलझाने की जिम्मेदारी किसी और के मत्थे मढ़ दी, मैं सोच-विचार में ज्यादा दिमाग लगाने या समय देने को बिल्कुल भी तैयार नहीं थी। नतीजतन, मैं अपने कर्तव्य में आगे नहीं बढ़ पा रही थी। मैं बड़ी परेशानी में थी : मैं हर मुश्किल से पीछे क्यों हटती थी, हर तकलीफ से दुबकती क्यों थी?
एक बार अपने भक्ति कार्यों में मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े, जिनसे मैं समस्या की जड़ को समझ पाई। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “आज, तुम मेरी बातों पर विश्वास नहीं करते, और उन पर ध्यान नहीं देते; जब इस कार्य को फैलाने का दिन आएगा, और तुम उसकी संपूर्णता को देखोगे, तब तुम्हें अफसोस होगा, और उस समय तुम भौंचक्के रह जाओगे। आशीषें हैं, फिर भी तुम्हें उनका आनंद लेना नहीं आता, सत्य है, फिर भी तुम्हें उसका अनुसरण करना नहीं आता। क्या तुम अपने-आप पर अवमानना का दोष नहीं लाते? आज, यद्यपि परमेश्वर के कार्य का अगला कदम अभी शुरू होना बाकी है, फिर भी तुमसे जो कुछ अपेक्षित है और तुम्हें जिन्हें जीने के लिए कहा जाता है, उनमें कुछ भी असाधारण नहीं है। इतना सारा कार्य है, इतने सारे सत्य हैं; क्या वे इस योग्य नहीं हैं कि तुम उन्हें जानो? क्या परमेश्वर की ताड़ना और न्याय तुम्हारी आत्मा को जागृत करने में असमर्थ हैं? क्या परमेश्वर की ताड़ना और न्याय तुममें खुद के प्रति नफरत पैदा करने में असमर्थ हैं? क्या तुम शैतान के प्रभाव में जी कर, और शांति, आनंद और थोड़े-बहुत दैहिक सुख के साथ जीवन बिताकर संतुष्ट हो? क्या तुम सभी लोगों में सबसे अधिक निम्न नहीं हो? उनसे ज्यादा मूर्ख और कोई नहीं है जिन्होंने उद्धार को देखा तो है लेकिन उसे प्राप्त करने का प्रयास नहीं करते; वे ऐसे लोग हैं जो पूरी तरह से देह-सुख में लिप्त होकर शैतान का आनंद लेते हैं। तुम्हें लगता है कि परमेश्वर में अपनी आस्था के लिए तुम्हें चुनौतियों और क्लेशों या कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ेगा। तुम हमेशा निरर्थक चीजों के पीछे भागते हो, और तुम जीवन के विकास को कोई अहमियत नहीं देते, बल्कि तुम अपने फिजूल के विचारों को सत्य से ज्यादा महत्व देते हो। तुम कितने निकम्मे हो! तुम सूअर की तरह जीते हो—तुममें और सूअर और कुत्ते में क्या अंतर है? जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, बल्कि शरीर से प्यार करते हैं, क्या वे सब पूरे जानवर नहीं हैं? क्या वे मरे हुए लोग जिनमें आत्मा नहीं है, चलती-फिरती लाशें नहीं हैं? तुम लोगों के बीच कितने सारे वचन कहे गए हैं? क्या तुम लोगों के बीच केवल थोड़ा-सा ही कार्य किया गया है? मैंने तुम लोगों के बीच कितनी आपूर्ति की है? तो फिर तुमने इसे प्राप्त क्यों नहीं किया? तुम्हें किस बात की शिकायत है? क्या यह बात नहीं है कि तुमने इसलिए कुछ भी प्राप्त नहीं किया है क्योंकि तुम देह से बहुत अधिक प्रेम करते हो? क्योंकि तुम्हारे विचार बहुत ज्यादा निरर्थक हैं? क्योंकि तुम बहुत ज्यादा मूर्ख हो? यदि तुम इन आशीषों को प्राप्त करने में असमर्थ हो, तो क्या तुम परमेश्वर को दोष दोगे कि उसने तुम्हें नहीं बचाया? ... तुम जैसा डरपोक इंसान, जो हमेशा दैहिक सुख के पीछे भागता है—क्या तुम्हारे अंदर एक दिल है, क्या तुम्हारे अंदर एक आत्मा है? क्या तुम एक पशु नहीं हो? मैं बदले में बिना कुछ मांगे तुम्हें एक सत्य मार्ग देता हूँ, फिर भी तुम उसका अनुसरण नहीं करते। क्या तुम उनमें से एक हो जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं? मैं तुम्हें एक सच्चा मानवीय जीवन देता हूँ, फिर भी तुम अनुसरण नहीं करते। क्या तुम कुत्ते और सूअर से भिन्न नहीं हो? सूअर मनुष्य के जीवन की कामना नहीं करते, वे शुद्ध होने का प्रयास नहीं करते, और वे नहीं समझते कि जीवन क्या है। प्रतिदिन, उनका काम बस पेट भर खाना और सोना है। मैंने तुम्हें सच्चा मार्ग दिया है, फिर भी तुमने उसे प्राप्त नहीं किया है : तुम्हारे हाथ खाली हैं। क्या तुम इस जीवन में एक सूअर का जीवन जीते रहना चाहते हो? ऐसे लोगों के जिंदा रहने का क्या अर्थ है? तुम्हारा जीवन घृणित और ग्लानिपूर्ण है, तुम गंदगी और व्यभिचार में जीते हो और किसी लक्ष्य को पाने का प्रयास नहीं करते हो; क्या तुम्हारा जीवन अत्यंत निकृष्ट नहीं है? क्या तुम परमेश्वर की ओर देखने का साहस कर सकते हो? यदि तुम इसी तरह अनुभव करते रहे, तो क्या केवल शून्य ही तुम्हारे हाथ नहीं लगेगा? तुम्हें एक सच्चा मार्ग दे दिया गया है, किंतु अंततः तुम उसे प्राप्त कर पाओगे या नहीं, यह तुम्हारी व्यक्तिगत खोज पर निर्भर करता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। मैंने इस अंश को कई बार पढ़ा। खासकर जब भी मैं “जानवर,” “कुत्ते और सूअर,” या “निकृष्ट” जैसे शब्द पढ़ती तो यह मुझे यह अपने चेहरे पर एक तमाचे जैसा लगता। मैंने खुद से पूछा, “मैं असल में परमेश्वर में विश्वास क्यों करती हूँ? क्या सिर्फ सुख भोगने के लिए? परमेश्वर के इतने सारे वचन पढ़ने के बाद भी मेरे जीवन के लक्ष्य इतने तुच्छ क्यों हैं?” मुझे लगा कि शैतान ने मुझे बहुत गहराई से भ्रष्ट कर दिया था। शैतानी फलसफे कि “जीवन सिर्फ खाने और कपड़े पहनने के बारे में है,” “चार दिन की ज़िंदगी है, मौज कर लो,” और “आज मौज करो, कल की फिक्र कल करना” ऐसे वाक्य थे जो मेरे जीवन-मंत्र बन चुके थे। मैं शरीर के सुख और आनंद को अपने जीवन के प्रमुख लक्ष्य मानती थी। मुझे याद आया, मेरे सहपाठी हाई स्कूल में दाखिले के इम्तहान के लिए पागलों की तरह पढ़ रहे थे, मुझे यह बहुत थकाने वाला लगता था, तो मैं खेलने चली जाती थी। मुझे लगता था कि मुझे खुद का ख्याल रखना चाहिए, हर आने वाले पल का मजा लेना चाहिए, कल चाहे कुछ भी हो। मेरे सहपाठी कहते थे कि मैं आरामतलब हूँ, पर मुझे लगता यह जीने का अच्छा तरीका है। मैं हर दिन बिना किसी दबाव या चिंता के खुश रहती थी। मैं ऐसी ही जिंदगी चाहती थी। आस्था पाने और कर्तव्य में लगने के बाद भी मैंने अपना नजरिया नहीं बदला। जब भी कोई जटिल या मुश्किल काम आता, इसे झंझट समझकर मैं इससे बचना चाहती, थोड़ा-सा भी शारीरिक कष्ट या तनाव न झेलती। मुझे कुछ भी न करना, इधर-उधर घूमना अच्छा लगता था। पर इस तरह से जीकर मैंने असल में क्या हासिल किया था? अपने कर्तव्य में मैं कोई तरक्की नहीं कर पाई, अपना चरित्र और गरिमा खो बैठी, क्योंकि मैं गैर-जिम्मेदार थी और कलीसिया का काम रोके बैठी थी। मैंने परमेश्वर के मन में चिढ़ पैदा की थी, भाई-बहन भी नाराज थे। जिंदगी से जुड़े ये शैतानी फलसफे बहुत नुकसान पहुंचाते हैं! इस तरह से जीकर मैं अपनी सत्यनिष्ठा या गरिमा खो बैठी, जिसका ज़िंदगी में कोई सही मकसद न था। यह बहुत घिनौना था! हकीकत में, अपने कर्तव्य में मुश्किलों से सामना होने पर, यह परमेश्वर की इच्छा थी कि मैं सत्य खोजूँ, समझूँ और उसे हासिल करूँ। पर मैंने इसे नहीं सँजोया, सत्य पाने के तमाम अवसर भी गंवा दिए। बाइबल कहती है : “निश्चिन्त रहने के कारण मूढ़ लोग नष्ट होंगे” (नीतिवचन 1:32)। यह कितना सच है। परमेश्वर के वचनों में कहा गया है : “मनुष्य की देह साँप के समान है : इसका सार उसके जीवन को हानि पहुँचाना है—और जब पूरी तरह से उसकी मनमानी चलने लगती है, तो तुम जीवन पर से अपना अधिकार खो बैठते हो” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल परमेश्वर से प्रेम करना ही वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करना है)। मैंने सोचा कि कैसे मैंने बार-बार अपने कर्तव्य को कितने हल्के से लिया, कैसे मैंने काम को नुकसान पहुंचाया, तो खुद को परमेश्वर का ऋणी महसूस किया। मैं अफसोस और पछतावे से भर गई, और लगातार रोती रही। ये चीजें परमेश्वर में मेरी आस्था पर धब्बा थीं, जिन्हें धोया नहीं जा सकता, इसके लिए मैं हमेशा पछताती रहूँगी! मुझे दिल की गहराइयों से खुद से घृणा होने लगी। आंसुओं के बीच मैंने प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैंने तुम्हें निराश किया है। इतने सालों से विश्वासी होते हुए भी मैंने सत्य नहीं खोजा, सिर्फ शरीर के क्षणिक सुख ढूंढती रही। मैं कितनी पतित हूँ! परमेश्वर, मैंने आखिरकार शरीर का सार समझ लिया है, भले ही मैं अपने अपराधों की भरपाई न कर पाऊँ, पर मैं प्रायश्चित करना और सत्य का अनुसरण करके एक नई शुरुआत करना चाहती हूँ।”
एक बहन ने बाद में मुझे परमेश्वर के वचन भेजे, जिनसे मुझे अभ्यास और जीवन प्रवेश का एक रास्ता ढूंढने में मदद मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “जब लोगों के पास विचार होते हैं, तो उनके पास विकल्प होते हैं। अगर उनके साथ कुछ हो जाता है और वे गलत विकल्प चुन लेते हैं, तो उन्हें वापस मुड़ना चाहिए और सही विकल्प चुनना चाहिए; उन्हें अपनी गलती पर अड़े नहीं रहना चाहिए। ऐसे लोग चतुर होते हैं। लेकिन अगर वे जानते हैं कि उन्होंने गलत विकल्प चुना है और फिर भी वापस नहीं मुड़ते, तो फिर वे ऐसे इंसान हैं जो सत्य से प्रेम नहीं करते, और ऐसा इंसान वास्तव में परमेश्वर को नहीं चाहता। उदाहरण के लिए मान लो, अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम लापरवाह और आलसी होना चाहते हो। तुम ढिलाई बरतने और परमेश्वर की जाँच से बचने की कोशिश करते हो। ऐसे समय में, प्रार्थना करने के लिए जल्दी से परमेश्वर के सामने जाओ, और विचार करो कि क्या यह कार्य करने का सही तरीका था। फिर इस बारे में सोचो : ‘मैं परमेश्वर में विश्वास क्यों करता हूँ? इस तरह की ढिलाई भले ही लोगों की नजर से बच जाए, लेकिन क्या परमेश्वर की नजर से बचेगी? इसके अलावा, परमेश्वर में मेरा विश्वास ढीला होने के लिए नहीं है—यह बचाए जाने के लिए है। मेरा इस तरह काम करना सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति नहीं है, न ही यह परमेश्वर को प्रिय है। नहीं, मैं बाहरी दुनिया में सुस्त हो सकता हूँ और जैसा चाहूँ वैसा कर सकता हूँ, लेकिन अब मैं परमेश्वर के घर में हूँ, मैं परमेश्वर की संप्रभुता में हूँ, परमेश्वर की आँखों की जाँच के अधीन हूँ। मैं एक इंसान हूँ, मुझे अपनी अंतरात्मा के अनुसार कार्य करना चाहिए, मैं जैसा चाहूँ वैसा नहीं कर सकता। मुझे परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करना चाहिए, मुझे लापरवाह या अनमना नहीं होना चाहिए, मैं सुस्त नहीं हो सकता। तो सुस्त, लापरवाह और अनमना न होने के लिए मुझे कैसे काम करना चाहिए? मुझे कुछ प्रयास करना चाहिए। अभी मुझे लगा कि इसे इस तरह करना बहुत अधिक कष्टप्रद था, मैं कठिनाई से बचना चाहता था, लेकिन अब मैं समझता हूँ : ऐसा करने में बहुत परेशानी हो सकती है, लेकिन यह कारगर है, और इसलिए इसे ऐसे ही किया जाना चाहिए।’ जब तुम काम कर रहे होते हो और फिर भी कठिनाई से डरते हो, तो ऐसे समय तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए : ‘हे परमेश्वर! मैं आलसी और धोखेबाज हूँ, मैं तुमसे विनती करता हूँ कि मुझे अनुशासित करो, मुझे फटकारो, ताकि मेरा अंतःकरण कुछ महसूस करे और मुझे शर्म आए। मैं लापरवाह और अनमना नहीं होना चाहता। मैं तुमसे विनती करता हूँ कि मुझे मेरी विद्रोहशीलता और कुरूपता दिखाने के लिए मेरा मार्गदर्शन करो और मुझे प्रबुद्ध करो।’ जब तुम इस प्रकार प्रार्थना करते हो, चिंतन और खुद को जानने का प्रयास करते हो, तो यह खेद की भावना उत्पन्न करेगा, और तुम अपनी कुरूपता से घृणा करने में सक्षम होगे, और तुम्हारी गलत दशा बदलने लगेगी, और तुम इस पर विचार करने और अपने आप से यह कहने में सक्षम होगे, ‘मैं लापरवाह और अनमना क्यों हूँ? मैं हमेशा ढीला होने की कोशिश क्यों करता हूँ? ऐसा कार्य करना अंतरात्मा या समझदारी से रहित होना है—क्या मैं अब भी ऐसा इंसान हूँ जो परमेश्वर में विश्वास करता है? मैं चीजों को गंभीरता से क्यों नहीं लेता? क्या मुझे थोड़ा और समय और प्रयास लगाने की जरूरत नहीं? यह कोई बड़ा बोझ नहीं है। मुझे यही करना चाहिए; अगर मैं यह भी नहीं कर सकता, तो क्या मैं इंसान कहलाने के लायक हूँ?’ नतीजतन, तुम एक संकल्प करोगे और शपथ लोगे : ‘हे परमेश्वर! मैंने तुम्हें नीचा दिखाया है, मैं वास्तव में बहुत गहराई तक भ्रष्ट हूँ, मैं अंतरात्मा या समझदारी से रहित हूँ, मुझमें मानवता नहीं है, मैं पश्चात्ताप करना चाहता हूँ। मैं तुमसे विनती करता हूँ कि मुझे माफ कर दो, मैं निश्चित रूप से बदल जाऊँगा। अगर मैं पश्चात्ताप नहीं करता, तो मैं चाहूँगा कि तुम मुझे दंड दो।’ बाद में तुम्हारी मानसिकता बदल जाएगी और तुम बदलने लगोगे। तुम कम लापरवाही से और कम अनमने होकर कार्य करोगे, कर्तव्यनिष्ठा से अपने कर्तव्य निभाओगे और कष्ट उठाने और कीमत चुकाने में सक्षम होगे। तुम महसूस करोगे कि इस तरह से अपना कर्तव्य निभाना अद्भुत है, और तुम्हारे हृदय में शांति और आनंद होगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि इंसान के रूप में अपने कर्तव्य में खुद को झोंक देना ही सबसे बुनियादी चीज है। कर्तव्य कितना ही कठिन क्यों न हो, आसान हो या जटिल, हमें अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए, इसे पूरे दिल से और गंभीरता से करना चाहिए। हमें हर मुमकिन कोशिश करनी चाहिए। अपने कर्तव्य के प्रति यही सही रवैया है। परमेश्वर के वचन अभ्यास का रास्ता दिखाते हैं। जब हम चालबाजी या धूर्तता करना चाहते हैं, तो हमें शरीर का सुख त्यागकर परमेश्वर की जांच-पड़ताल स्वीकारनी चाहिए। उसके वचनों पर मनन कर, मुझे मनुष्यों के लिए उसकी समझ और करुणा का एहसास हुआ। वह अभ्यास और प्रवेश के इन रास्तों को लेकर बिल्कुल स्पष्ट है, ताकि हम एक इंसान की तरह जीवनयापन कर सकें। परमेश्वर की इच्छा और अपेक्षा समझकर, मैंने प्रार्थना की और सचेत मन से अपने देह-सुख का त्याग किया।
एक बार, जब मैं फिर से एक मुश्किल समस्या में फंस गई और उस समय मन हुआ कि जैसे-तैसे कर्तव्य करके बस खानापूरी कर दूँ, तो मैंने झट से प्रार्थना की : “परमेश्वर, मैं फिर अपने कर्तव्य में धूर्तता कर रही हूँ, पर मैं ऐसा रवैया अपनाना नहीं चाहती। देहसुख को त्यागने, सत्य का अभ्यास करने और कर्तव्य अच्छी तरह निभाने के लिए मुझे राह दिखाओ।” प्रार्थना के बाद, मुझे ध्यान आया कि दूसरों को मेरी चालबाजी और धूर्तता का पता न भी चले, पर परमेश्वर को पता होगा। वह देखेगा कि मैं सत्य का अभ्यास कर रही हूँ या देह-सुख की चिंता में हूँ। यह सोचते हुए, मैंने दिल को शांत करके विचार किया कि इस समस्या को कैसे सुलझाऊं, और अनजाने में ही, कुछ सिद्धांत मुझे ज्यादा स्पष्ट हो गए। समस्या बहुत जल्दी ही हल हो गई। कई बार इस तरह अभ्यास करके, मेरा दिल बहुत शांत हो गया और मुझे लगा कि यह कर्तव्य निभाने का काफी बढ़िया तरीका था। इसके साथ ही तबादले से जुड़ा मेरा डर भी जाने कहाँ गायब हो गया।
इस तरह थोड़ा बदल पाना परमेश्वर द्वारा मेरा उद्धार था, मैं परमेश्वर के वचनों के न्याय, प्रकाशन और पोषण से थोड़ा-थोड़ा करके जागृत हुई। परमेश्वर का धन्यवाद!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?