अलविदा, ख़ुशामदी जनो!
परमेश्वर में आस्था रखने से पहले, मैं खुशामदी लोगों को बहुत अच्छा समझती थी। उनका स्वभाव बहुत भला लगता था, कभी किसी से टेढ़ी बात नहीं करते थे, सभी उन्हें पसंद करते थे, और वे लोग किसी को भी नाराज़ नहीं करते थे। मैं भी ऐसी इंसान बनना चाहती थी। क्योंकि बचपन से ही मैंने पढ़ाई और समाज में ऐसी बातें ही सीखी थीं कि "सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है," "जब पता हो कि कुछ गड़बड़ है, तो चुप रहना ही बेहतर है," "ज्ञानी लोग आत्म-रक्षा में अच्छे होते हैं वे बस गलतियाँ करने से बचते हैं," "किसी भी बात को बहुत गंभीरता से मत लो," "जब अज्ञान ही आनंद है, तो बुद्धिमान होना मूर्खता है," और "अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है।" मैंने इन बातों को अपना जीवन-दर्शन बना लिया। इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि कोई मित्र है, परिवार है या परिचित है, मैं किसी को भी नाराज़ नहीं करती थी, मैं वही करती थी जो लोग चाहते थे। मेरे अच्छे बर्ताव लिए सब लोग मेरी तारीफ करते थे। मुझे भी लगता था कि अगर इस अंधकारमय, दुष्ट समाज में जीना है, तो सबके साथ अच्छे रिश्ते बनाकर रखने चाहिए, तभी तुम अपनी जगह बना सकते हो। ये तो मैंने बाद में जाकर, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार किया, परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना का अनुभव किया, और सत्य को थोड़ा-बहुत समझी कि जीने के ये सिद्धांत शैतानी फलसफे और शैतानी विष हैं, न कि वे सिद्धांत जिन पर इंसान को चलना चाहिए। मैंने जाना कि इस तरह से जीने से मैं अधिक कुटिल, मक्कार, स्वार्थी और घिनौनी हो गयी हूँ, और मुझमें ज़रा-सी भी इंसानियत नहीं बची है। आखिरकार मुझे अपने आपसे नफरत होने लगी और मैंने परमेश्वर के आगे प्रायश्चित किया।
2018 में, मैं जिले की अगुआ चुनी गई। शुरू में तो, मुझे कलीसिया के कामकाज के बारे में कुछ पता ही नहीं था। मेरी साथी, बहन लियू को यह काम करते हुए एक साल से भी ऊपर हो गया था, वह कलीसिया के हर तरह के काम से परिचित थी, तो मैं उससे अपनी समस्याओं और परेशानियों की चर्चा करती, और वो मेरी काफी मदद करती। बाद में, मैंने बहन लियू को कई बार यह कहते सुना कि एक अगुआ के तौर पर फलाँ कलीसिया की ज़िम्मेदारी संभालने वाली बहन झांग, काफी समय से अपने काम में लापरवाही बरत रही है और व्यवहारिक काम नहीं कर रही, सभाओं में व्यर्थ की बातें और सिद्धांत फैला रही है, वह अहंकारी और दंभी है, वो न तो किसी और के सुझाव मानती है और न किसी की मदद लेती है। उस वक्त मैंने सोचा, ये सारी बातें एक नकली अगुआ को दर्शाती हैं जो व्यवहारिक काम नहीं करता, और चूँकि बहन लियू को ये सारी बातें पता थीं, इसलिए मुझे हैरानी हुई कि उसने कुछ बदलाव करके, बहन झांग को निकाला क्यों नहीं। मैं उससे कुछ कहना चाहती थी, लेकिन फिर मुझे लगा कि मैंने हाल ही में कामकाज संभाला है, और वैसे भी मैं बहन झांग को अच्छी तरह नहीं जानती। अगर मैंने सीधे तौर पर कुछ कह दिया, तो हो सकता है जल्दबाज़ी दिखाने और दूसरों के प्रति प्रेमपूर्ण व्यवहार न करने के कारण बहन लियू मेरी आलोचना करे। ये सोचकर, मैंने बहन लियू से घुमा-फिराकर बात की, लेकिन उसने इस पर कोई ज़्यादा ध्यान नहीं दिया और मुझसे कहा कि मैं प्यार से बहन झांग की मदद करूँ। मैंने सोचा, "बहन लियू को किसी अगुआ को हटाने के सिद्धांतों की जानकारी अवश्य होगी, इसलिए अगर मैंने फिर से इस बात का ज़िक्र किया, तो कहीं उसे ये तो नहीं लगेगा कि मेरे कहने का मतलब है कि वो व्यवहारिक काम नहीं करती? और यकीनन उसे यही लगेगा कि मैं बहुत ज़्यादा दिक्कतें पैदा कर रही हूँ, मेरे साथ काम करना मुश्किल है। अगर इस बात को लेकर हमारे बीच खटास आ गयी, तो आगे चलकर हम लोग साथ में कामकाज कैसे कर पाएँगे?" यहाँ आकर, मैंने कुछ न कहने का मन बना लिया।
मैंने बहन झांग की समस्याओं का खुलासा और विश्लेषण करने के लिए कई बार उससे संगति की। उसने उन चीज़ों को स्वीकारने के बजाय, मुझसे बहस करनी शुरू कर दी। उसके फौरन बाद, कुछ भाई-बहनों ने बहन झांग की शिकायत कर दी कि वो व्यवहारिक काम नहीं कर रही। तब जाकर मुझे पता चला कि बहन झांग की समस्या गंभीर है, और अगर हमने सही समय पर उसका निपटारा नहीं किया, तो इससे कलीसिया के काम में और भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश में देरी होगी। तो, मैंने फिर से बहन लियू के साथ बहन झांग को बर्खास्त करने का मामला उठाया। लेकिन बहन लियू ने कहा, "ये शिकायतें हमने अपने वरिष्ठों को भेज दी हैं। जब तक वो लोग इसकी तह में नहीं चले जाते, तब तक उसके निष्कासन को रोककर रखते हैं।" मैंने सोचा, "शिकायतों और हालात को देखकर, हम लोग समझ सकते हैं कि बहन झांग ने व्यवहारिक काम नहीं किया, बल्कि लंबे समय से लापरवाही बरतते हुए, सिर्फ निरर्थक बातों और सिद्धांतों की चर्चा की है। हम लोग पहले ही जान चुके हैं कि वो नकली अगुआ है, इसलिए सिद्धांतों के अनुसार, उसे जल्दी से जल्दी निकाल दिया जाना चाहिए। हम लोग जिले की अगुआ हैं, और कलीसिया में एक नकली अगुवा आ गयी है, लेकिन इस मामले को तुरंत निपटाने के बजाय, हम लोग इसे वरिष्ठों पर छोड़ रहे हैं। क्या यह मामले को लटकाना और एक नकली अगुआ को इस बात की इजाज़त देना नहीं है कि वो भाई-बहनों को नुकसान पहुँचाती रहे? यह शैतान का साथ देने और परमेश्वर के विरुद्ध जाने से कम नहीं है! यह एक बहुत ही गंभीर मसला है!" मैं इस बारे में बहन लियू से दोबारा बात करना चाहती थी, लेकिन मैंने सोचा कि पिछली बार जब मैंने उससे बात की थी, तो वो बहन झांग को हटाना नहीं चाहती थी, और मुझसे बोली थी कि मैं उसके साथ प्यार से पेश आऊँ। मैंने देखा कि उन दोनों में काफी अच्छी बनती है, इसलिए अगर मैंने फिर से बहन झांग के निष्कासन का मसला उठाया, तो बहन लियू कह सकती है कि मैं बहुत अहंकारी हूँ। जब लोग नए-नए काम पर आते हैं, तो उन्हें अपनी काबिलियत साबित करनी पड़ती है, तो क्या उसे नहीं लगेगा कि मैं सिर्फ दिखावा कर रही हूँ? मैंने तय किया कि मैं कुछ नहीं कहूँगी। कम से कम हमारे वरिष्ठ तथ्यों की जाँच-पड़ताल तो कर रहे हैं। कुछ दिनों में ऐसा क्या नुकसान हो जाएगा। और इसलिए, बात मेरी ज़बान पर आते-आते रह गयी। कुछ दिनों के बाद, जब हमारे वरिष्ठों ने मामले की छानबीन कर ली, तो उन्होंने इस मामले पर तुरंत कार्रवाई न करने के लिए हमें आड़े हाथों लिया और कहा कि हमने कलीसिया के काम में बाधा पहुँचाकर, उसे अस्तव्यस्त किया है, और अपने भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश को लटकाया है। उन्होंने कहा कि ऐसा करना शैतान के साथी की तरह काम करना और भाई-बहनों को नुकसान पहुँचाना है। ये सुनकर, मुझे बहुत बुरा लगा। मुझे एहसास हुआ कि अच्छी तरह जानते हुए भी मैंने सत्य पर अमल नहीं किया और सिद्धांतों को कायम नहीं रखा। मैंने वाकई एक नकली अगुआ को बचाया था। मैं उसे छिपाने की कोशिश कर रही थी। इसलिए, मैंने उसे बर्खास्त करने में देरी नहीं की। लेकिन उसके बाद, मुझे थोड़ा अफसोस हुआ और मैं बेचैन हो गयी, मैंने इस अवसर का लाभ उठाकर आत्म-चिंतन नहीं किया। बाद में मुझे पता चला कि बहन लियू सभाओं में हमेशा निरर्थक और सिद्धांतों की बातें करती थी, वो भाई-बहनों की समस्याएँ और मुश्किलें हल नहीं कर पाती थी। जब मैंने उसकी कुछ समस्याओं और कमियों की तरफ इशारा किया, तो उसने मानने से इंकार कर दिया, मुझसे बहस और कुतर्क करने की कोशिश की। उसे जिस काम का दायित्व दिया गया था, उसमें से कुछ भी नहीं हो पाया था, और जब हमारे वरिष्ठों ने उसकी काट-छाँट और निपटारा किया, तो उसने मानने से इंकार कर दिया। वो अपने काम में नकारात्मक और ढीली पड़ चुकी थी, शिकायतों और गलतफहमियों की दलदल में फँस चुकी थी। उस समय, मैं उसकी दशा को उजागर करना चाहती थी, लेकिन मुझे एहसास हुआ कि उसकी साथी होने के नाते, अगर हमने अपना काम अच्छे से नहीं किया है, तो उसकी ज़िम्मेदार मैं भी हूँ, और अगर मैंने उसकी समस्या का विश्लेषण किया, तो वो कहेगी कि मैंने समझदारी नहीं दिखायी, इसलिए मेरी हिम्मत नहीं हुई। इसके बजाय, मैंने उसे दिलासा देने और उत्साहित करने का प्रयास किया, ताकि वो निराश न हो। लेकिन उसके बाद, मुझे एहसास हुआ कि बहन लियू अभी भी बदली नहीं है। उसमें आत्म-जागरुकता बिल्कुल नहीं थी! अगर चीज़ें ऐसे ही चलती रहीं, तो इससे कलीसिया के काम में देरी होगी और भाई-बहनों को नुकसान होगा। मुझे एहसास हुआ कि मुझे जल्दी से जल्दी हमारे वरिष्ठों को सूचित करना पड़ेगा। कलीसिया एक सामान्य मत सर्वेक्षण कर रही थी, और हमारे वरिष्ठों ने मुझे बहन लियू के बारे में एक मूल्यांकन लिखने को कहा। मैं लिखने को तैयार थी, लेकिन मुझे याद आया कि ज़्यादातर भाई-बहन उसकी असलियत न जानने के कारण उसका साथ देते हैं। अगर मैंने बहन लियू की समस्या को उजागर किया, तो क्या वो लोग ये कहेंगे कि मैं साज़िश कर रही हूँ और उसे निकलवाना चाहती हूँ, ताकि मैं सबकुछ अपनी मुट्ठी में कर सकूँ? इसके अलावा, हम लोग अपने कामकाज में साझीदार थे, और उसने मेरी काफी मदद की थी। अगर उसे वाकई हटा दिया गया, तो क्या वो मुझसे नफरत नहीं करेगी? मेरे मन में उधेड़बुन चलती रही, और आखिरकार मैंने तय किया कि मैं उसके व्यवहारिक काम न करने और सच को न स्वीकारने के सारे ब्यौरे पर लीपा-पोती कर दूँगी। लेकिन मूल्यांकन प्रस्तुत कर देने के बावजूद, मैं अपने दिल की बेचैनी को दबा न सकी। मैं जानती थी कि मैं तथ्यों को छिपाकर परमेश्वर से दगा कर रही हूँ, मुझे और भी ज़्यादा आध्यात्मिक अंधेरा महसूस होने लगा। परमेश्वर के वचनों को पढ़ते समय हमेशा मेरी आँख लग जाती थी, और मुझे सभाओं में संगति से ज़रा भी प्रबोधन या प्रकाशन नहीं मिल पाता था। मुझे अपने भाई-बहनों की समस्याओं के बारे में कुछ भी पता नहीं चल पाता था। मैं हर दिन बिना किसी उत्साह के अस्त-व्यस्त रहती थी, और मुझे लगता था कि परमेश्वर ने मुझे छोड़ दिया है।
बाद में हमारे वरिष्ठों ने चीज़ों की छानबीन की, और बहन लियू को व्यवहारिक काम न करने और एक नकली अगुआ होने के कारण निकाल दिया गया। मैंने उस समय बेहद शर्मिंदगी महसूस की और खुद को धिक्कारा, खास तौर से जब मैंने परमेश्वर के इन वचनों पर विचार किया, "समाज में, तुम्हें बहुत से अच्छे लोग बहुत उत्कृष्ट तरीके से बोलते दिख जाएंगे, और भले ही बाहर से ऐसा लगे कि उन्होंने कोई बड़ी दुष्टता नहीं की है, किन्तु अंतरतम में वे धोखेबाज और झूठे होते हैं। विशेष रूप से, वे यह देखने में सक्षम होते हैं कि हवा किधर को बहती है, और वे अपनी बातों में चिकने-चुपड़े और दुनियादारी वाले होते हैं। जैसा कि मैं इसे देखता हूँ, ऐसा 'अच्छा व्यक्ति' एक झूठा है, पाखंडी है; वह बस अच्छा होने का दिखावा करा रहा है। जो लोग किसी सुखद माध्यम से चिपके रहते हैं वे सबसे भयावह होते हैं। वे किसी का अपमान नहीं करने की कोशिश करते हैं, वे लोगों-को-खुश करने वाले होते हैं, वे सभी चीज़ों में हामी भरते हैं, और कोई भी उनकी वास्तविक प्रकृति का पता नहीं लगा सकता है। इस तरह का व्यक्ति एक जीवित शैतान है!"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'केवल सत्य को अभ्यास में ला कर ही तू भ्रष्ट स्वभाव के बंधनों को त्याग सकता है')। परमेश्वर के वचन बताते हैं कि खुशामदी लोग बेहद कपटी और धूर्त होते हैं, वे जीते-जागते शैतान होते हैं। मुझे लगा कि मैं ऐसी ही हूँ। मुझे काफी पहले पता चल चुका था कि बहन लियू एक नकली अगुआ है, लेकिन मैं उसके साथ अपने रिश्तों को और खुद को बचाने के लिए, परमेश्वर को भी नाराज़ करने को तैयार हो गयी, और इस तरह मैंने सत्य पर अमल नहीं किया। मैंने फिर से एक नकली अगुआ पर पर्दा डाला, परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करके अपराध किया। मुझे लगा कि मैं खत्म हो गयी हूँ, परमेश्वर अब मेरे जैसी इंसान को नहीं बचाएगा। मेरे कुछ दिन दुख और निराशा में गुज़रे। किसी भी काम में मेरी रुचि नहीं रही। लेकिन बाद में, मुझे परमेश्वर के वचन याद आए : "चाहे तुमने कोई भी ग़लतियाँ क्यों न की हो, चाहे तुम कितनी दूर तक भटक क्यों न गए हो या तुमने कितने गंभीर अपराध क्यों न किए हों, इन्हें अपना बोझ या अतिरिक्त सामान मत बनने दो जिन्हें तुम्हें परमेश्वर को समझने की अपनी खोज में ढोना पड़ता है। निरन्तर आगे बढ़ते जाओ। हर वक्त, परमेश्वर मनुष्य के उद्धार को अपने हृदय में रखता है; यह कभी नहीं बदलता है। यह परमेश्वर के सार का सबसे अधिक मूल्यवान हिस्सा है" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। मैंने परमेश्वर के इन वचनों पर बार-बार सोचा, और मुझे लगा कि हर वचन और पंक्ति में मेरे लिए दया और आशा है। हालाँकि मेरी दुष्टता ने परमेश्वर के स्वभाव का अपमान किया है, लेकिन परमेश्वर फिर भी अपने वचनों से मुझे दिलासा और उत्साह दे रहा है, और मुझे आगे बढ़ते रहने के लिए कह रहा है। मैंने बहुत ही कृतज्ञ महसूस किया, और अपने आपसे कहा कि मैं अब निराश नहीं बैठ सकती। जहाँ से मैं नाकाम हुई हूँ, मुझे वहीं से खड़ा होना है। मुझे आत्म-चिंतन करके, अपनी समस्याओं को समझना चाहिए और उन्हें दूर करने के लिए सत्य की खोज करनी चाहिए।
मैंने बाद में परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : "तुम सभी कहते हो कि तुम परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील हो और कलीसिया की गवाही की रक्षा करोगे, लेकिन वास्तव में तुम में से कौन परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील रहा है? अपने आप से पूछो : क्या तुम उसके बोझ के प्रति विचारशील रहे हो? क्या तुम उसके लिए धार्मिकता का अभ्यास कर सकते हो? क्या तुम मेरे लिए खड़े होकर बोल सकते हो? क्या तुम दृढ़ता से सत्य का अभ्यास कर सकते हो? क्या तुम में शैतान के सभी दुष्कर्मों के विरूद्ध लड़ने का साहस है? क्या तुम अपनी भावनाओं को किनारे रखकर मेरे सत्य की खातिर शैतान का पर्दाफ़ाश कर सकोगे? क्या तुम मेरी इच्छा को स्वयं में पूरा होने दोगे? सबसे महत्वपूर्ण क्षणों में क्या तुमने अपने दिल को समर्पित किया है? क्या तुम ऐसे व्यक्ति हो जो मेरी इच्छा पर चलता है? स्वयं से ये सवाल पूछो और अक्सर इनके बारे में सोचो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 13)। परमेश्वर के वचनों और उपदेशों को पढ़कर, मुझे लगा जैसे किसी पीड़ा ने मेरे दिल को छलनी कर दिया। मैंने जाना कि मैं एक अस्थिर और चालाक खुशामदी इंसान हूँ। समस्या का सामना होने पर, मैंने खुद को बचाने के लिए सबकुछ किया और परमेश्वर के घर के हितों की चिंता नहीं की, मुझे अपने कर्तव्यों के निर्वहन में किसी दायित्व या भार का बोध नहीं था। जब नकली अगुआ का असली चेहरा सामने आया, तो मुझे फौरन इस चीज़ को संभाल लेना चाहिए था, मगर खुद को बचाने और बहन लियू को नाराज़ करने के भय से, मैं सत्य पर अमल करने या मामले को उजागर करने और शिकायत करने से डर गयी। मैंने जानबूझकर सत्य को छिपाया, और उसे बचाने के लिए सत्य पर पर्दा डाल दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि कलीसिया के काम का हर पहलू प्रभावित हुआ और भाई-बहनों को उपयुक्त कलीसियाई जीवन से वंचित होना पड़ा। मैंने सोचा, परमेश्वर के घर ने मुझे इतनी अहम ज़िम्मेदारी सौंपी थी, लेकिन जब कलीसिया में नकली अगुआ का असली चेहरा सामने आया, तो मैंने अपने हितों की रक्षा के लिए सत्य के सिद्धांतों की बलि दे दी, और हर बार शैतान के साथ खड़ी होकर उसे बचाती रही। मैं अच्छी तरह जानती थी कि इससे कलीसिया के काम का नुकसान होगा, लेकिन फिर भी मैंने सत्य पर अमल नहीं किया या धार्मिकता को कायम नहीं रखा। जब कभी किसी को नाराज़ करने की नौबत आई, मैंने सत्य के सिद्धांतों का त्याग कर दिया। मैं खुदगर्ज़ी से, अपने हित में काम कर रही थी। क्या इस तरह से काम करना परमेश्वर के घर के काम को अस्त-व्यस्त और बाधित करना और शैतान की सहयोगी की तरह काम करना नहीं है? मैंने सत्य पर अमल करने या सिद्धांतों को कायम रखने का साहस नहीं दिखाया। मैं बिल्कुल भी धार्मिक नहीं थी। मैं कलीसिया की अगुआ बनने के लायक कैसे हो सकती थी? मैं स्वार्थी, घिनौनी, अस्थिर, कपटी और तुच्छ थी! ये बात मुझे खास तौर से चुभी जब मैंने विचार किया कि परमेश्वर के वचन बताते हैं कि परमेश्वर को खुशामदी लोगों से नफरत और घृणा है, और वह उन्हें नहीं बचाता, और उपदेश भी बार-बार कहते हैं कि परमेश्वर का घर दृढ़ता से खुशामदी लोगों और अगुआओं को नकारता है, क्योंकि उनके दिल में दुष्टता होती है, और वे लोग परमेश्वर के घर को और भाई-बहनों को सिर्फ नुकसान ही पहुँचा सकते हैं। नकली अगुआओं को बचाकर, मैं पहले ही परमेश्वर और उसके स्वभाव का अपमान कर चुकी थी, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : "हे परमेश्वर, मैंने बार-बार तेरी इच्छा का उल्लंघन किया है। मैं सच्चाई अच्छी तरह जानती थी लेकिन मैंने उस पर अमल नहीं किया, और इसके चलते कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचाया। मैं तेरे शापों और सज़ा को स्वीकारने के लिए तैयार हूँ। तू भविष्य में मेरे साथ जैसे चाहे पेश आए, मैं तेरी इच्छा का पालन करूँगी और तेरे आगे प्रायश्चित करूँगी।"
मैं सोचने लगी आखिर मैं लोगों को खुश करने की कोशिश क्यों कर रही थी और जब मेरे सामने समस्याएँ आईं तो मैं सत्य पर अमल क्यों नहीं कर पायी? कौन-सी चीज़ मुझे अपने वश में कर रही थी? बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : "शैतान राष्ट्रीय सरकारों और प्रसिद्ध एवं महान व्यक्तियों की शिक्षा और प्रभाव के माध्यम से लोगों को दूषित करता है। उनके शैतानी शब्द मनुष्य के जीवन-प्रकृति बन गए हैं। 'स्वर्ग उन लोगों को नष्ट कर देता है जो स्वयं के लिए नहीं हैं' एक प्रसिद्ध शैतानी कहावत है जिसे हर किसी में डाल दिया गया है और यह मनुष्य का जीवन बन गया है। जीने के लिए दर्शन के कुछ अन्य शब्द भी हैं जो इसी तरह के हैं। शैतान प्रत्येक देश की उत्तम पारंपरिक संस्कृति के माध्यम से लोगों को शिक्षित करता है और मानवजाति को विनाश की विशाल खाई में गिरने और उसके द्वारा निगल लिए जाने पर मजबूर कर देता है, और अंत में परमेश्वर लोगों को नष्ट कर देता है क्योंकि वे शैतान की सेवा करते हैं और परमेश्वर का विरोध करते हैं। ... अभी भी लोगों के जीवन में, और उनके आचरण और व्यवहार में कई शैतानी विष उपस्थित हैं—उनमें बिलकुल भी कोई सत्य नहीं है। उदाहरण के लिए, उनके जीवन दर्शन, काम करने के उनके तरीके, और उनकी सभी कहावतें बड़े लाल अजगर के विष से भरी हैं, और ये सभी शैतान से आते हैं। इस प्रकार, सभी चीजें जो लोगों की हड्डियों और रक्त में बहें, वह सभी शैतान की चीज़ें हैं। उन सभी अधिकारियों, सत्ताधारियों और प्रवीण लोगों के सफलता पाने के अपने ही मार्ग और रहस्य होते हैं, तो क्या ऐसे रहस्य उनकी प्रकृति का उत्तम रूप से प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं? वे दुनिया में कई बड़ी चीज़ें कर चुके हैं और उन के पीछे उनकी जो चालें और षड्यंत्र हैं उन्हें कोई समझ नहीं पाता है। यह दिखाता है कि उनकी प्रकृति आखिर कितनी कपटी और विषैली है। शैतान ने मनुष्य को गंभीर ढंग से दूषित कर दिया है। शैतान का विष हर व्यक्ति के रक्त में बहता है, और यह देखा जा सकता है कि मनुष्य की प्रकृति दूषित, बुरी और प्रतिक्रियावादी है, शैतान के दर्शन से भरी हुई और उसमें डूबी हुई है—अपनी समग्रता में यह प्रकृति परमेश्वर के साथ विश्वासघात करती है। इसीलिए लोग परमेश्वर का विरोध करते हैं और परमेश्वर के विरूद्ध खड़े रहते हैं"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें')। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर, मुझे अपने खुशामदी बर्ताव के मूल कारण का पता चल गया। इसकी वजह ये थी कि बचपन से मेरी शिक्षा-दीक्षा सीसीपी के द्वारा हुई थी, मेरे अंदर तमाम प्रपंची फलसफे, तर्क और नियम भरे हुए थे, जैसे "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये," "पुरुष संत नहीं हैं; वे दोष से मुक्त कैसे हो सकते हैं?" "जब पता हो कि कुछ गड़बड़ है, तो चुप रहना ही बेहतर है," और यह भी "ज्ञानी लोग आत्म-रक्षा में अच्छे होते हैं वे बस गलतियाँ करने से बचते हैं," "अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है," वगैरह-वगैरह। इन बातों ने मेरे दिल में गहरी जड़ें जमा ली थीं और मैं इन्हीं के अनुसार जी रही थी। मैं और भी ज़्यादा अहंकारी, दंभी, स्वार्थी, घिनौनी, अस्थिर और कपटी हो गयी। मैंने इन बातों को अपने जीवन का आदर्श-वाक्य बना लिया। मैं लोगों से मिलते-जुलते समय उनकी हर बात और हाव-भाव पर गौर करती थी, और हर एक के साथ अपने रिश्तों को बड़े एहतियात के साथ संभाल कर रखती थी। मैं खुशामदी और मध्यमार्गी इंसान थी, मैं किसी को नाराज़ नहीं करती थी, मुझमें सच बोलने या धार्मिकता को कायम रखने की हिम्मत नहीं थी, मैं ज़रा-सा भी गरिमापूर्ण जीवन नहीं जी रही थी। जब कलीसिया में नकली अगुआओं का असली चेहरा सामने आया, तो मैं बहन लियू की नाराज़गी से डर गयी, अपने सिद्धांतों को ताक पर रखकर, मैं कायर बन गयी, उन्हें अपने भाई-बहनों का नुकसान करने दिया और परमेश्वर के घर के कार्य में रुकावट डालने दी। मैं खुद को एक नेक इंसान कैसे कह सकती हूँ? मैं काले दिल की, "अच्छी इंसान" थी, शैतान की घिनौनी गुलाम। मुझमें न साहस था, न धार्मिकता। अगर मैंने पहले ही विश्लेषण करके बहन लियू की मदद की होती, तो शायद उसने इतने अपराध न किए होते, परमेश्वर के घर के कार्य और भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश में शायद रुकावट न आयी होती, और मैंने परमेश्वर के स्वभाव का अपमान न किया होता। आखिरकार तब, मैंने जाना कि ये शैतानी प्रपंची फलसफे और खुशामदी रवैया लोगों की हानि और विनाश ही कर सकते हैं, और वही हालत मेरी भी कर सकते हैं। जो सच्चाइयाँ उजागर हुईं, उनसे आखिरकार मैंने यही समझा कि शैतानी प्रपंची फलसफे, तर्क और नियम लोगों को सिर्फ धोखा देते हैं, उन्हें भ्रष्ट करते हैं। ये परमेश्वर के वचनों और सत्य के दुश्मन हैं। जब हम इन शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हैं, तो हम चाहे कितने भी दयालु, सुशील या स्वीकार्य नज़र आएँ, हम अस्थिर, कपटी, घिनौने और दया के पात्र ही होते हैं। अगर हम सत्य पर अमल और प्रायश्चित न करें, बदलाव न लाएँ, तो यकीनन परमेश्वर हमारा त्याग करके हमें हटा देगा।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचन का एक और अंश पढ़ा : "मूल बात यह है कि परमेश्वर निष्ठावान है, अत: उसके वचनों पर हमेशा भरोसा किया जा सकता है; इसके अतिरिक्त, उसका कार्य दोषरहित और निर्विवाद है, यही कारण है कि परमेश्वर उन लोगों को पसंद करता है जो उसके साथ पूरी तरह से ईमानदार होते हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तीन चेतावनियाँ)। "यह कि परमेश्वर लोगों से ईमानदार बनने का आग्रह करता है यह साबित करता है कि वो वास्तव में उन लोगों से घृणा करता है जो बेईमान हैं और परमेश्वर बेईमान लोगों को पसंद नहीं करता। परमेश्वर कपटी लोगों को पसंद नहीं करता है, इस तथ्य का अर्थ है कि वो उनके कार्यों, स्वभाव, और मंशाओं से नफ़रत करता है; अर्थात, परमेश्वर उनके कार्य करने के तरीके को पसंद नहीं करता। इसलिए, अगर हमें परमेश्वर को प्रसन्न करना है, तो हमें सबसे पहले अपने कार्यों और अपने मौजूदा अस्तित्व को बदलना होगा"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास')। "परमेश्वर में एक बार विश्वास करने के बाद, जब तुम परमेश्वर के सामने आते हो लेकिन तुम अभी-भी उसी पुराने तरीके से जीते हो, तो क्या परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास सार्थक और मूल्यवान है? तुम्हारे जीवन के लक्ष्य और सिद्धांत और जीवन जीने के तरीके नहीं बदले हैं, और एकमात्र चीज़ जो तुम्हें अविश्वासियों के ऊपर करती है वो है परमेश्वर की तुम्हारी अभिस्वीकृति। बाहर से तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हुए प्रतीत होते हो, लेकिन तुम्हारे जीवन स्वभाव में ज़रा सा भी बदलाव नहीं हुआ है। अंत में, तुम्हें बचाया नहीं जाएगा। इस तरह, क्या यह एक खोखला विश्वास, और खोखला आनंद नहीं है?"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'केवल सत्य को अभ्यास में ला कर ही तू भ्रष्ट स्वभाव के बंधनों को त्याग सकता है')। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैंने जाना कि परमेश्वर का सार निष्ठावान होना है। वह ईमानदार लोगों को चाहता है और धोखेबाज़ों से नफरत करता है। जब मैं इन शैतानी फलसफों के अनुसार जी रही थी, तब न तो चीज़ों के प्रति मेरे विचारों में कोई बदलाव आया, न ही मेरे आचरण में। मैं अविश्वासियों जैसी ही थी। उस ढंग से मैंने परमेश्वर में कितने ही बरस आस्था क्यों न रखी हो, मैं न तो कभी सत्य को प्राप्त कर पाती, न ही पूर्ण उद्धार। जो लोग सत्य पर अमल करते हैं, जो ईमानदार हैं, जिनके दिलों में कपट नहीं है, जिनमें सत्य के सिद्धांतों पर कायम रहने का साहस है, जिनमें न्याय-बोध है, जो हर चीज़ में परमेश्वर के साथ खड़े रहते हैं और परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील हैं, केवल उन्हीं से परमेश्वर प्रेम करता है, और केवल वही लोग उसके द्वारा पूरी तरह से बचाए जा सकते हैं! परमेश्वर की अपेक्षाओं को समझकर, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और शपथ ली कि मैं प्रायश्चित करूँगी, सत्य पर अमल करूँगी और एक ईमानदार इंसान बनूँगी।
कुछ महीनों के बाद, मुझे पता चला कि मेरा नया साथी भाई ली सभाओं में हमेशा निरर्थक बातें करता है, सिद्धांतों पर बोलता है और दिखावा करता है। मैंने उसके साथ कई बार संगति की, लेकिन उसमें कोई सुधार नहीं आया, तो मैंने इस बारे में अपने वरिष्ठों को बता दिया। लेकिन तब, उन्होंने मुझे उसके बर्ताव का विश्लेषण करने और उसे उजागर करने के लिए कहा, मैं इस बात से डर गयी। इन बातों को लेकर मेरी ज़बान चिपक गयी, क्योंकि भाई ली वहाँ अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने वाला सबसे पुराना व्यक्ति था। उसे एक तरह से एल्डर का दर्जा हासिल था, और वह पहले कई बार काम में मेरी मदद कर चुका था। अगर मैंने उसकी दशा को उजागर कर दिया, तो वो मेरे बारे में क्या सोचेगा? क्या वो नाराज़ हो जाएगा? तब, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "अगर तुम्हारे पास एक 'नेक व्यक्ति' होने की प्रेरणाएं और दृष्टिकोण हैं, तो तुम हमेशा ऐसे मामलों में पिछड़ जाओगे और विफल हो जाओगे। तो इन परिस्थितियों में तुम्हें क्या करना चाहिये? इस तरह की चीज़ों से सामना होने पर, तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिये। उससे मांगो कि वो तुम्हें शक्ति दे, और तुम्हें सिद्धांत का पालन करने में समर्थ करे, वो करो जो तुम्हें करना चाहिये, चीज़ों को सिद्धांत के अनुसार नियंत्रित करो, अपनी बात पर मजबूती से खड़े रहो, और परमेश्वर के घर के कार्य को होने वाले किसी भी नुकसान को रोको। अगर तुम अपने हितों को, अपनी प्रतिष्ठा और एक 'नेक व्यक्ति' होने के दृष्टिकोण को छोड़ने में सक्षम हो, और अगर तुम एक ईमानदार, संपूर्ण हृदय के साथ वह करते हो जो तुम्हें करना चाहिये, तो तुमने शैतान को हरा दिया है, और तुमने सत्य के इस पहलू को हासिल कर लिया है"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'आप सत्य की खोज तभी कर सकते हैं जब आप स्वयं को जानें')। परमेश्वर के वचन का अंश पढ़कर मेरा अंतर्मन साफ हुआ कि यह काम मुझे इसलिए मिला है क्योंकि परमेश्वर मुझे आज़मा रहा है और मुझे प्रायश्चित का एक मौका दे रहा है। परमेश्वर देखना चाहता है कि मैं इस मसले को कैसे हल करती हूँ। मैं अब अपने रिश्तों को उस ढंग से नहीं बचा सकती जैसे पहले किया करती थी। मुझे कलीसिया के काम को प्राथमिकता देनी होगी, सत्य पर अमल करना होगा और धार्मिकता कायम रखनी होगी। अगर भाई ली सत्य का अनुसरण करने वाला इंसान होता, तो वो आत्म-चिंतन करने और खुद को समझने के लिए संगति का इस्तेमाल करके विश्लेषण कर सकता था, इससे उसे जीवन-प्रवेश में मदद मिलती, इस तरह वो और अधिक अपराध करने से बच सकता था। और इसलिए, मैं भाई ली से मिलने गयी, मैंने परमेश्वर के वचनों के इस्तेमाल से, एक-एक करके उसकी दशा और व्यवहार को उजागर किया और उसका विश्लेषण किया। मुझे हैरानी हुई जब उसने बुरा मानने के बजाय, पश्चाताप करते हुए कहा, "अगर तुमने इस ढंग से मुझे उजागर करके मेरा विश्लेषण न किया होता, तो मैं अपनी समस्याओं को कभी समझ न पाता। मैं वाकई आत्म-चिंतन करना और प्रवेश पाना चाहता हूँ।" भाई ली की बातों ने मेरे दिल को छू लिया। मैं इस बात को लेकर चिंतित थी कि उसे उजागर करूँगी तो वो बुरा मान जाएगा, लेकिन वो सब मेरी मन की कल्पना थी। उस समय, मैंने सचमुच अनुभव किया कि सत्य पर अमल करने और ईमानदार इंसान बनने से मन को शांति और सुकून मिलता है, और हम परमेश्वर के और करीब होते जाते हैं। मुझे यह भी वास्तव में अनुभव हुआ कि परमेश्वर के घर के कार्य को बचाने का एकमात्र तरीका सत्य पर अमल करना और सिद्धांतों के अनुरूप चीज़ों को संभालना है। वास्तव में अपने भाई-बहनों की मदद करने का यही एकमात्र तरीका है। परमेश्वर के न्याय और ताड़ना से, मेरे कुछ गलत विचारों बदलाव आ गया, मेरे अस्थिर, चालाक, शैतानी स्वभाव में भी थोड़ा बदलाव आया। अब, जब मैं अपने भाई-बहनों को भ्रष्टता का प्रदर्शन करते देखती हूँ, या कभी कोई काम इस ढंग से किया जाता है जिसमें सत्य के सिद्धांतों को ताक पर रख दिया जाता है, तो मैं उन पर पर्दा नहीं डालती, उन्हें छिपाती नहीं, या लोगों से अपने रिश्तों को बचाने की कोशिश नहीं करती। मैं निष्ठापूर्वक सत्य पर अमल कर सकती हूँ, संगति, सहायता और गलतियों की ओर इशारा करके चीज़ों को उजागर कर सकती हूँ। हालाँकि मैं आज भी कभी-कभी झिझकती हूँ और मुझे लोगों को नाराज़ करने से डर लगता है, मैं परमेश्वर से प्रार्थना कर सकती हूँ, अपना त्याग कर सकती हूँ, सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप अभ्यास कर सकती हूँ, अब मैं शैतानी फलसफों के अनुसार नहीं जीती। इस तरह के अभ्यास से, मुझे बहुत ज़्यादा शांति और स्थिरता महसूस होती है। मुक्ति का एहसास होता है। ये बदलाव लाना और इन सब चीज़ों को हासिल करना पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना का ही परिणाम था।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?