अपनी बीमारी की चिंता से मुक्ति
मेरी माँ को कैंसर था, वो मेरी शादी से पहले ही चल बसी, मेरे डैड को 57 की उम्र में हाई ब्लड प्रेशर हो गया, जिससे उनकी एक रक्त वाहिका फट गई, उनके आधे शरीर को लकवा मार गया और वे 15 साल बिस्तर पर पड़े रहे। फिर इसी पीड़ा में चल बसे। अपने डैड को इतनी पीड़ा में देख मेरा दिल दहल गया। मुझे भी ब्लड प्रेशर और एंजाइना की समस्या है। कभी-कभी मेरा आधा सिर सुन्न पड़ जाता था, लगता था जैसे कोई सूई चुभो रहा हो। मुझे और भी कई बीमारियाँ थीं, और लंबे समय से दवाओं पर निर्भर थी। मुझे एहसास हुआ कि मुझमें मेरे डैड वाले लक्षण नजर आ रहे थे, और मैं हमेशा चिंतित रहती थी : “अब मेरी उम्र हो रही है। मैं भी अपने डैड की तरह बेबस हो गई तो क्या होगा? कैसे जी पाऊँगी? अपना कर्तव्य कैसे निभाऊँगी, सत्य का अनुसरण कैसे करूँगी? कर्तव्य नहीं निभा पाई, तो कैसे बचाई जाऊँगी?” जब भी कोई लक्षण दिखाई देते, तो मैं बहुत बेचैन हो जाती। एक बार, एक कलीसिया को फौरन किसी की मदद की जरूरत पड़ी। एक बड़े अगुआ ने मुझसे उनकी मदद करने को कहा, पर मैं सोचने लगी : “उस कलीसिया में बहुत सारी समस्याएँ हैं। अगर वहाँ गई तो बहुत दिक्कत होगी, बहुत मेहनत करनी पड़ेगी। मेरी सेहत अच्छी नहीं है, वहाँ जाऊँगी तो और ज्यादा थक जाऊँगी। क्या मेरी स्थिति बदतर होती जाएगी? अगर बीमार पड़ गई तो क्या करूँगी?” तो, मैंने मना कर दिया। कुछ महीनों बाद, उस कलीसिया को मदद की बहुत जरूरत थी, बड़े अगुआ फिर से इस बारे में बात करने आए। मुझे लगा मैं दोषी हूँ। पहले मैंने परमेश्वर की इच्छा पर ध्यान नहीं दिया था, इससे मैं बहुत परेशान रही थी। मैं फिर से उस कर्तव्य के लिए मना नहीं कर सकती थी, तो जाने के लिए राजी हो गई।
लेकिन कलीसिया पहुँचते ही मैंने देखा उन्हें अपने कार्य में कोई परिणाम नहीं मिल रहे थे, मुझे काफी दबाव महसूस हुआ। परिणामों को बेहतर करने के लिए बहुत-सी समस्याओं को हल करना जरूरी था, और यह काम बहुत मुश्किल होता। मेरा सिर घूमे जा रहा था। फिर से सुन्न पड़ने लगा था, और मैं बेचैन हो रही थी, मानो मेरे दिमाग में कीड़े रेंग रहे हों। मैं सो नहीं पाई, तो दिन भर बिल्कुल भी ऊर्जा नहीं रही। मैं पूरी तरह कमजोर पड़ गई, कोई ताकत नहीं बची थी। मैं थोड़ी चिंतित थी। क्या मेरी स्थिति बद से बदतर होती जाएगी? अगर मेरे डैड की तरह मेरी रक्त वाहिकाएँ भी जाम हो गईं, तो क्या मैं गिर पडूँगी? अगर मैं नकारा या लाचार हो गई या मर ही गई, तो अपना कर्तव्य कैसे निभाऊँगी, मेरा उद्धार कैसे होगा? मैं अपनी बीमारी के कारण बहुत चिंता में थी, भले ही मैं सुसमाचार कार्य की प्रभारी थी, पर मैं समस्या की बारीकियों पर ध्यान नहीं देना चाहती थी। मैं काम की बारीकियों पर बहुत कम ध्यान दे रही थी, डरती थी कि खुद को ज्यादा थकाया तो अशक्त हो जाऊँगी। मैं बहुत बेसब्र थी, और इस भारी सुसमाचार कार्य का जिम्मा नई अगुआ को सौंप देना चाहती थी। वैसे भी इस कलीसिया को सुसमाचार कार्य में ज्यादा कुछ हासिल नहीं हो रहा था, और मैं भी समस्याओं की बारीकियों में नहीं गई, यानी काम बिल्कुल भी आगे नहीं बढ़ा। मुझे बस यही चिंता थी कि कहीं मेरी हालत और खराब न हो जाए, और अगर ऐसा हुआ, तो मेरी जिंदगी ही खत्म हो जाएगी। अगर मैं मर गई, तो अपना कर्तव्य निभाकर बचाई नहीं जा सकती। फिर मैंने सोचा, मैं कर्तव्य निभा रही हूँ, तो परमेश्वर मुझे बचाएगा, और शायद मेरी तबीयत ज्यादा खराब न हो। तो, इसके बाद मैं थोड़ी शांत हुई। फिर भी, मेरी चिंता मुझे बार-बार बेचैन कर देती थी। खासकर जब मैंने देखा कि मेरे साथ काम कर रहे लगभग 70 साल की उम्र के एक भाई को कोई बीमारी नहीं थी, लेकिन मैं उनसे छोटी होकर भी बीमारी से त्रस्त थी, तो मैं उदास हो गई : “इन भाई की तो सेहत अच्छी है, तो उन्हें अपना कर्तव्य निभाने में कोई दिक्कत नहीं आती होगी। मैं स्वस्थ क्यों नहीं हूँ?” मैं बहुत बेबस महसूस कर रही थी, अपने कर्तव्य को लेकर नकारात्मक हो गई थी। दिसंबर 2022 के आखिर में, महामारी फिर से बढ़ गई। मुझे पहले से ही कई सारी बीमारियाँ थीं, फिर कोविड हो गया। मुझे बुखार था, शरीर में कमजोरी थी, खाँसी में खून आ रहा था। मेरी भूख मर गई थी और मैं दो हफ्तों तक कुछ खा भी नहीं पाई। उस समय मेरा मन बहुत खराब था। मैंने सोचा, “मैं तो गई, मेरी सेहत एकदम खराब हो चुकी है। अगर मैं मर गई, तो अपना कर्तव्य कैसे निभा पाऊँगी? कुछ लोगों को कोविड होने के बाद कई दिनों तक खाँसी रही, फिर वे ठीक हो गए। मैंने कभी अपना कर्तव्य निभाना नहीं छोड़ा, मुझे कई दिनों तक तेज बुखार रहा, कुछ खा भी नहीं पा रही थी। मैं इतनी बीमार कैसे पड़ गई?” इस बारे में जितना सोचती उतनी ही निराश होती, मैं बहुत दुखी थी। कुछ समय बाद, मेरा बुखार उतर गया, मगर मेरे साथ काम करने वाले दो लोगों को कोविड हो गया, वहाँ कलीसिया का कार्य करने वाला कोई नहीं था। कोई उपाय न होने के कारण, मुझे अपनी कमजोरी के साथ सभाओं में जाना पड़ा। बीमार होते हुए भी दो-तीन दिनों तक भागा-दौड़ी की, महामारी के कारण कई कामों में तालमेल बिठाना मुश्किल था। मैं दिल से काम नहीं कर रही थी, और मुझे काम बहुत मुश्किल लग रहा था। मेरी सेहत बद से बदतर हो रही थी, अच्छे से काम नहीं कर रही थी, तो सोचा घर जाकर आराम कर लूँ और ठीक होकर आऊँ। शायद मैं थोड़ी बेहतर हो जाऊँ। मेरे मेजबान के घर पर, अचानक मेरी एंजाइना की समस्या बढ़ गई, लगा जैसे अब मुझसे और नहीं सहा जाएगा। मैं सोच रही थी, “अगर मैं अगुआ का कर्तव्य निभाती रही, तो मेरी सेहत और बिगड़ जाएगी। बेहतर होगा मैं ये कर्तव्य न करूँ।” मैं बहुत हताश हो गई, दो-तीन दिन बिस्तर पर पड़ी रही। लगा कि अगर मुझे ठीक होना है, तो खुद ही अपनी सेहत का बेहतर ध्यान रखना होगा, और यह यथार्थवादी था। मैंने अपने विचार बताने के लिए अगुआ को चिट्ठी लिखी, और इसे भेजते ही घर वापस आ गई। घर आते हुए बस यही सोचती रही, “मैं इतने समय से विश्वासी रही हूँ, पर मेरी हालत ऐसी है, ठीक से अपना कर्तव्य भी नहीं निभा सकती। लगता है इस बार पूरी तरह उजागर हो गई हूँ; क्या मैं अभी भी बचाई जा सकती हूँ?” घर आकर मैं बिस्तर पर लेट गई, अंदर से खाली महसूस कर रही थी, सो भी नहीं पाई। मन में अपराध बोध था। मैंने सुसमाचार कार्य की उन सभी बारीकियों के बारे में भी सोचा जिन्हें ठीक करने की जिम्मेदारी मेरी थी। अगर मैं घर पर रही, तो इससे कलीसिया के कार्य में यकीनन देरी होगी। ऐसा करना परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप नहीं होगा। क्या मैं हार मानकर परमेश्वर को धोखा नहीं दे रही थी? मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर! मैं इस परिस्थिति में इतनी कमजोर क्यों पड़ गई, कर्तव्य निभाने का मन भी नहीं कर रहा? मैं जानती हूँ ये तुम्हारी इच्छा के अनुरूप नहीं है, पर मैं और नहीं सह सकती। मुझमें जरा भी ताकत नहीं बची है। हे परमेश्वर, मैं एकदम हार गई हूँ, बहुत पीड़ा में हूँ। मुझे प्रबुद्ध बनाओ, रास्ता दिखाओ, मुझे आस्था और शक्ति दो।”
अपनी खोज में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “चाहे तुम बीमार हो या पीड़ा में, जब तक तुम्हारी एक भी साँस बाकी है, जब तक तुम जिंदा हो, जब तक तुम चल-फिर और बोल सकते हो, तब तक तुममें अपना कर्तव्य निभाने की ऊर्जा है, और तुम्हें विवेकशील होकर अपने कर्तव्य-निर्वाह में सुव्यवहार दिखाना चाहिए। तुम्हें एक सृजित प्राणी के कर्तव्य, या सृष्टिकर्ता द्वारा तुम्हें दी गई जिम्मेदारी का परित्याग नहीं करना चाहिए। जब तक तुम अभी मरे नहीं हो, तुम्हें अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए, और अच्छी तरह पूरा करना चाहिए” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। मैंने परमेश्वर के वचनों का एक भजन भी सुना “मनुष्य को बचाना बहुत मुश्किल है” : “कोई भी जीवनपर्यंत परमेश्वर के अनुसरण के मार्ग पर चलने, जीवन प्राप्त करने के लिए सत्य पाने का प्रयास करने, परमेश्वर के बारे में ज्ञान प्राप्त करने और अंततः पतरस की तरह सार्थक जीवन जीने का इरादा नहीं रखता है, और इसलिए, लोग दैहिक सुखों की लालसा में चलते-चलते भटक जाते हैं। दर्द का सामना करने पर उनके निराश और कमजोर हो जाने की संभावना रहेगी, और उनके दिलों में परमेश्वर के लिए जगह नहीं होगी। पवित्र आत्मा उनमें कार्य नहीं करेगा, और कुछ लोग तो पलट जाना भी पसंद करेंगे। उन्होंने अपने विश्वास के वर्षों में जो भी प्रयास किए थे वे व्यर्थ हो गए हैं, और यह बहुत खतरनाक बात है! कितने अफसोस की बात है कि उनकी सारी पीड़ाएँ, उन्होंने जो अनगिनत उपदेश सुने, और परमेश्वर का अनुसरण करते हुए जो वर्ष बिताए, सब व्यर्थ हो गए हैं! लोगों के लिए पतन के रास्ते पर जाना आसान है, और वास्तव में, सही रास्ते पर चलना और पतरस का रास्ता चुनना कठिन है। अधिकतर लोगों की सोच अस्पष्ट होती है। वे स्पष्ट नहीं देख पाते कि कौनसा मार्ग सही है और कौनसा उससे भटकाने वाला है। चाहे वे कितने भी उपदेश सुनें, परमेश्वर के कितने भी वचन पढ़ें, भले ही वे जानते हों कि वही परमेश्वर है, फिर भी वे उस पर पूरी तरह से विश्वास नहीं करते। वे जानते हैं कि यह सच्चा मार्ग है, लेकिन वे इस पर चल नहीं पाते। लोगों को बचाना कितना कठिन होता है!” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सही मार्ग चुनना परमेश्वर में विश्वास का सबसे महत्वपूर्ण भाग है)। ये भजन सुनकर मैं रो पड़ी। परमेश्वर के वचन मेरे दिल को छू गए, और मुझे अभ्यास का मार्ग दिखाया। भले ही मैं बीमार थी, पर जब तक मुझमें साँस बाकी थी, और चल-बोल सकती थी, तब तक एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य नहीं त्याग सकती। अपनी बीमारी के बारे में विचार करने पर, मैंने देखा कि यह इतनी भी बुरी नहीं थी कि मुझसे काम न होता। मुझे बस थोड़ी कमजोरी थी और कर्तव्य निभाने के लिए थोड़ा कष्ट उठाने की जरूरत थी। लेकिन मैं अपने कर्तव्य को दरकिनार कर घर आ गई। मैं कई सालों से विश्वासी हूँ, मैंने परमेश्वर के बहुत-से वचन सुने हैं। क्या मैं वाकई अपना कर्तव्य त्यागना चाहती थी। यह नासमझी थी! मुझे एहसास हुआ कि मैं इतनी नकारात्मक नहीं हो सकती। इस तरह मेरा कर्तव्य त्यागना क्या परमेश्वर की नजरों में शर्म की बात नहीं है? चाहे मैं जब भी ठीक होऊँ, जब तक मुझमें साँसें बाकी हैं, मेरा कर्तव्य कितना भी मुश्किल हो, मुझे अपनी भरसक कोशिश करनी होगी। परमेश्वर के वचनों ने मुझे कर्तव्य निभाने की प्रेरणा दी, और मैंने खुद को आजाद महसूस किया। मैंने अपनी दशा बदलती देखी, तो अपना कर्तव्य निभाने के लिए वापस लौट गई।
फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “फिर ऐसे लोग होते हैं जिनकी सेहत ठीक नहीं है, जिनका शारीरिक गठन कमजोर और ऊर्जाहीन है, जिन्हें अक्सर छोटी-बड़ी बीमारियाँ पकड़ लेती हैं, जो दैनिक जीवन में जरूरी बुनियादी काम भी नहीं कर पाते, और जो न सामान्य लोगों की तरह जी पाते हैं, न तरह-तरह के काम कर पाते हैं। ऐसे लोग अपने कर्तव्य निभाते समय अक्सर बेआराम और बीमार महसूस करते हैं; कुछ लोग शारीरिक रूप से कमजोर होते हैं, कुछ को वास्तविक बीमारियाँ होती हैं, और बेशक कुछ ऐसे भी होते हैं जिन्हें किसी-न-किसी प्रकार के ज्ञात और संभाव्य रोग हैं। ऐसी व्यावहारिक शारीरिक मुश्किलों के कारण ऐसे लोग अक्सर संताप, व्याकुलता और चिंता की नाकारात्मक भावनाओं में डूब जाते हैं। वे किस बात को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित अनुभव करते हैं? उन्हें चिंता होती है कि अगर वे अपना कर्तव्य इसी तरह निभाते रहे, परमेश्वर के लिए खुद को इसी तरह खपाते रहे, भाग-दौड़ करते रहे, हमेशा थका हुआ महसूस करते रहे, तो कहीं उनकी सेहत और ज्यादा न बिगड़ जाए? 40 या 50 के होने पर क्या वे बिस्तर से लग जाएँगे? क्या ये चिंताएँ सही हैं? क्या कोई इससे निपटने का ठोस तरीका बताएगा? इसकी जिम्मेदारी कौन उठाएगा? जवाबदेह कौन होगा? कमजोर सेहत वाले और शारीरिक तौर पर अयोग्य लोग ऐसी बातों को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित अनुभव करते हैं। बीमार लोग अक्सर सोचते हैं, ‘ओह, मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने को दृढ़संकल्प हूँ, मगर मुझे यह बीमारी है। मैं परमेश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि वह मुझे हानि न होने दे, और परमेश्वर की सुरक्षा के तहत मुझे डरने की जरूरत नहीं। लेकिन अपना कर्तव्य निभाते समय अगर मैं थक गया, तो क्या मेरी हालत बिगड़ जाएगी? अगर मेरी हालत बिगड़ गई तो मैं क्या करूँगा? अगर किसी ऑपरेशन के लिए मुझे अस्पताल में दाखिल होना पड़ा और मेरे पास वहाँ देने को पैसे न हों, तो अगर मैं अपने इलाज के लिए पैसे उधार न लूँ, तो कहीं मेरी हालत और ज्यादा न बिगड़ जाए? और अगर ज्यादा बिगड़ गई, तो कहीं मैं मर न जाऊँ? क्या ऐसी मृत्यु को सामान्य मृत्यु माना जा सकेगा? अगर मैं सच में मर गया, तो क्या परमेश्वर मेरे निभाए कर्तव्य याद रखेगा? क्या माना जाएगा कि मैंने नेक कार्य किए थे? क्या मुझे उद्धार मिलेगा?’ ऐसे भी कुछ लोग हैं जो जानते हैं कि वे बीमार हैं, यानी वे जानते हैं कि उन्हें वास्तव में कोई-न-कोई बीमारी है, मिसाल के तौर पर, पेट की बीमारियाँ, निचली पीठ और टाँगों का दर्द, गठिया, संधिवात, साथ ही त्वचा रोग, स्त्री रोग, यकृत रोग, उच्च रक्तचाप, दिल की बीमारी, वगैरह-वगैरह। वे सोचते हैं, ‘अगर मैं अपना कर्तव्य निभाता रहा, तो क्या परमेश्वर का घर मेरी बीमारी के इलाज का खर्च उठाएगा? अगर मेरी बीमारी बदतर हो गई और इससे मेरा कर्तव्य-निर्वहन प्रभावित हुआ, तो क्या परमेश्वर मुझे चंगा करेगा? परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद दूसरे लोग ठीक हो गए हैं, तो क्या मैं भी ठीक हो जाऊँगा? क्या परमेश्वर मुझे ठीक कर देगा, उसी तरह जैसे वह दूसरों को दयालुता दिखाता है? अगर मैंने निष्ठा से अपना कर्तव्य निभाया, तो परमेश्वर को मुझे चंगा कर देना चाहिए, लेकिन अगर मैं सिर्फ यह कामना करूँ कि परमेश्वर मुझे चंगा कर दे और वह न करे, तो फिर मैं क्या करूँगा?’ जब भी वे इन चीजों के बारे में सोचते हैं, उनके दिलों में व्याकुलता की तीव्र भावना उफनती है। हालाँकि वे अपना कर्तव्य-निर्वाह कभी नहीं रोकते, और हमेशा वह करते हैं जो उन्हें करना चाहिए, फिर भी वे अपनी बीमारी, अपनी सेहत, अपने भविष्य और अपने जीवन-मृत्यु के बारे में निरंतर सोचते रहते हैं। अंत में, वे खयाली पुलाव वाले इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, ‘परमेश्वर मुझे चंगा कर देगा, परमेश्वर मुझे सुरक्षित रखेगा। परमेश्वर मेरा परित्याग नहीं करेगा, और अगर वह मुझे बीमार पड़ता देखेगा, तो कुछ किए बिना अलग खड़ा नहीं रहेगा।’ ऐसी सोच का बिल्कुल कोई आधार नहीं है, और कहा जा सकता है कि यह एक प्रकार की धारणा है। ऐसी धारणाओं और कल्पनाओं के साथ लोग कभी अपनी व्यावहारिक मुश्किलों को दूर नहीं कर पाएँगे, और अपनी सेहत और बीमारियों को लेकर अपने अंतरतम में वे अस्पष्ट रूप से संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करेंगे; उन्हें कोई अंदाजा नहीं होता कि इन चीजों की जिम्मेदारी कौन उठाएगा, या क्या कोई इनकी जिम्मेदारी उठाएगा भी” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। अगर परमेश्वर ये सब नहीं कहता, तो मुझे पता ही नहीं चलता कि अपनी बीमारी की चिंता करते रहना नकारात्मक भावना है, और मुझे ये सही लगता। अब मुझे एहसास हुआ कि मैं इस नकारात्मक भावना में गहराई तक डूबी हुई थी। क्योंकि मुझमें हाई ब्लड प्रेशर और एंजाइना के लक्षण थे, तो ये लक्षण बार-बार सामने आते थे। जब मैं अपने कर्तव्य में ज्यादा कष्ट उठाती और ज्यादा थक जाती, तो मुझे चिंता होती थी कि मेरी हालत पहले से ज्यादा गंभीर हो जाएगी। अगर मैं मर गई, तो अपना कर्तव्य कैसे निभाऊँगी? मुझे डर था कि मैं उद्धार पाने का मौका गँवा दूँगी। जब मेरी सेहत उतनी खराब नहीं होती, तो कर्तव्य निभाना जारी रखती थी। मुझे लगा मैं कीमत चुका रही थी तो परमेश्वर मेरी रक्षा करेगा, पर जैसे ही मेरी बीमारी के लक्षण सामने आए, तो मुझमें निराशा की भावनाएँ पैदा होने लगीं। अपने भविष्य की चिंता में ठीक से अपना कर्तव्य नहीं निभा पा रही थी। अपनी देह के बारे में जितना सोचती, उतना ही ज्यादा मौत से डर लगता और खराब सेहत के कारण कठिनाई और पीड़ा बढ़ती जाती। और जब मैंने वो समय याद किया जब मेरे डैड बिस्तर पर पड़े थे, रोज असहनीय पीड़ा में होते थे, बेबसी में सफेद दीवार को ताकते रहते थे, सारी उम्मीद खो दी थी, मुझे डर था मेरी हालत भी उनके जैसी हो जाएगी। इसलिए कर्तव्य निभाते हुए हमेशा अपनी देह के बारे में सोचती रहती। मैं डरपोक थी, अपना सब कुछ झोंकने से डरती थी। सुसमाचार कार्य की बारीकियाँ जानने के लिए कड़ी मेहनत नहीं करना चाहती थी, यानी काम कभी आगे बढ़ा ही नहीं। और जब मुझे कोविड हुआ और मेरी हालत ज्यादा खराब हो गई, तो मेरी चिंता और गंभीर हो गई। अब मैं अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहती थी, तो मैं हार मानकर घर चली आई। मैंने देखा उस नकारात्मक भावना का कितना ज्यादा प्रभाव पड़ा था। उस चिंता में जीते हुए, मैं परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करती जा रही थी, मेरा जीवन ज्यादा निराशाजनक और कष्टदायी होता गया। दरअसल, मैं जानती थी, जन्म, बुढ़ापा, बीमारी, और मौत, सब परमेश्वर के हाथों में है, मेरे वश में कुछ नहीं है, और मैं इस बीमारी को टाल नहीं सकती। मुझे इसका सामना करते हुए परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए। मैं कितनी भी दुखी हो जाऊँ, पर कुछ बदल नहीं सकती। क्योंकि मैं हमेशा अपनी संभावनाएँ और बचने के रास्ते ढूँढती रहती थी, तो हर पल चिंता में घिरी रहती। मैं खुद को अनावश्यक तनाव और पीड़ा दे रही थी। मैं एकदम बेवकूफ थी! इसका एहसास होने पर, अब मैं उस नकारात्मक स्थिति में नहीं रहना चाहती थी।
फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “जब बीमारी दस्तक दे, तो लोगों को किस पथ पर चलना चाहिए? उन्हें कैसे चुनना चाहिए? लोगों को संताप, व्याकुलता और चिंता में डूबकर अपने भविष्य की संभावनाओं और रास्तों के बारे में सोच-विचार नहीं करना चाहिए। इसके बजाय लोग खुद को जितना ज्यादा ऐसे वक्त और ऐसी खास स्थितियों और संदर्भों में, और ऐसी फौरी मुश्किलों में पाएँ, उतना ही ज्यादा उन्हें सत्य खोजकर उसका अनुसरण करना चाहिए। ऐसा करके ही पहले तुमने जो धर्मोपदेश सुने हैं और जो सत्य समझे हैं, वे बेकार नहीं होंगे, और उनका प्रभाव होगा। तुम खुद को जितना ज्यादा ऐसी मुश्किलों में पाते हो, तुम्हें उतना ही अपनी आकांक्षाओं को छोड़कर परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पित होना चाहिए। तुम्हारे लिए ऐसी स्थिति बनाने और इन हालात की व्यवस्था करने में परमेश्वर का प्रयोजन तुम्हें संताप, व्याकुलता और चिंता की भावनाओं में डुबोना नहीं है, यह इस बात के लिए भी नहीं है कि तुम परमेश्वर की परीक्षा ले सको कि क्या वह बीमार पड़ने पर तुम्हें ठीक करेगा, या उस मामले का सत्य जानने की कोशिश करो; परमेश्वर तुम्हारे लिए ये विशेष स्थितियाँ या हालात इसलिए बनाता है कि तुम ऐसी स्थितियों और हालात में सत्य में गहन प्रवेश पाने और परमेश्वर को समर्पण करने के लिए व्यावहारिक सबक सीख सको, ताकि तुम ज्यादा स्पष्ट और सही ढंग से जान सको कि परमेश्वर सभी लोगों, घटनाओं और चीजों को कैसे आयोजित करता है। मनुष्य का भाग्य परमेश्वर के हाथों में होता है, और लोग इसे भाँप सकें या नहीं, वे इस बारे में सचमुच अवगत हों या न हों, उन्हें आज्ञा माननी चाहिए, प्रतिरोध नहीं करना चाहिए, ठुकराना नहीं चाहिए और निश्चित रूप से परमेश्वर की परीक्षा नहीं लेनी चाहिए। किसी भी हालत में तुम्हारी मृत्यु हो सकती है, और अगर तुम प्रतिरोध करते हो, ठुकराते हो और परमेश्वर की परीक्षा लेते हो, तो यह कहने की जरूरत नहीं कि तुम्हारा अंत कैसा होगा। इसके विपरीत अगर उन्हीं स्थितियों और हालात में तुम यह खोज पाओ कि किसी सृजित प्राणी को सृष्टिकर्ता के आयोजनों के प्रति कैसे समर्पण करना चाहिए, यह खोज पाओ कि तुम्हें कौन-से सबक सीखने हैं, परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए पैदा की गई स्थितियों में कौन-से भ्रष्ट स्वभाव तुम्हें जानने हैं, ऐसी स्थितियों में परमेश्वर की इच्छा को समझना है, और परमेश्वर की माँगें पूरी करने के लिए अपनी गवाही अच्छी तरह देनी है, तो तुम्हें बस यही करना चाहिए। जब परमेश्वर किसी को छोटी या बड़ी बीमारी देने की व्यवस्था करता है, तो ऐसा करने के पीछे उसका उद्देश्य तुम्हें बीमार होने के पूरे विवरण, बीमारी से तुम्हें होने वाली हानि, और बीमारी से होने वाली तकलीफों और मुश्किलों और तुम्हारे मन में उठने वाली विभिन्न भावनाओं को समझने देना नहीं है—उसका प्रयोजन यह नहीं है कि तुम बीमार होकर बीमारी को समझो। इसके बजाय उसका प्रयोजन यह है कि बीमारी से तुम सबक सीखो, सीखो कि परमेश्वर की इच्छा को कैसे महसूस करें, अपने द्वारा प्रदर्शित भ्रष्ट स्वभावों और बीमार होने पर परमेश्वर के प्रति अपनाए गए अपने गलत रवैयों को जानो, और सीखो कि परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति कैसे समर्पित हों, ताकि तुम परमेश्वर के प्रति सच्ची आज्ञाकारिता प्राप्त कर सको, और अपनी गवाही में डटे रह सको—यह बिल्कुल अहम है। परमेश्वर बीमारी के जरिए तुम्हें बचाना और स्वच्छ करना चाहता है। वह तुम्हारी किस चीज को स्वच्छ करना चाहता है? वह परमेश्वर से तुम्हारी तमाम अत्यधिक आकांक्षाओं और माँगों, और यहाँ तक कि हर कीमत पर जीवित रहने और जीने की तुम्हारी विविध योजनाओं, फैसलों और चालों को स्वच्छ करना चाहता है। परमेश्वर तुमसे नहीं कहता कि योजनाएँ बनाओ, वह तुमसे नहीं कहता कि न्याय करो, और उससे अत्यधिक आकांक्षाएँ रखो; उसकी बस इतनी अपेक्षा होती है कि तुम उसके प्रति समर्पित रहो, और समर्पण करने के अपने अभ्यास और अनुभव में, तुम बीमारी के प्रति अपने रवैये को जान लो, और उसके द्वारा तुम्हें दी गई शारीरिक स्थितियों के प्रति अपने रवैये को और साथ ही अपनी निजी कामनाओं को जान लो। जब तुम इन चीजों को जान लेते हो, तब तुम समझ सकते हो कि तुम्हारे लिए यह कितना फायदेमंद है कि परमेश्वर ने तुम्हारे लिए बीमारी की परिस्थितियों की व्यवस्था की है, या उसने तुम्हें ये शारीरिक दशाएँ दी हैं; और तुम समझ सकते हो कि तुम्हारा स्वभाव बदलने, तुम्हारे उद्धार हासिल करने, और तुम्हारे जीवन-प्रवेश में ये कितनी मददगार हैं। इसीलिए जब बीमारी दस्तक देती है, तो तुम्हें हमेशा यह नहीं सोचना चाहिए कि उससे कैसे बच निकलें, दूर भाग जाएँ या उसे ठुकरा दें” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं उसकी इच्छा समझ गई। बीमार पड़ने पर, मुझे चिंता की नकारात्मक भावना में फँसना नहीं चाहिए, यह नहीं जाँचना चाहिए कि परमेश्वर मुझे ठीक करेगा या नहीं। बल्कि, मुझे परमेश्वर के बनाए परिवेश में उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना सीखना चाहिए। बीमार पड़ने का मतलब ये नहीं कि परमेश्वर जानबूझकर मेरे लिए चीजें कठिन बना रहा है। वह चाहता है मैं सत्य खोजूँ और समझूँ कि मुझे कौन सी सीख लेनी चाहिए। पीछे मुड़कर देखूँ, तो जब मैं बीमार थी, शारीरिक तकलीफ में थी, तब अपने आगे के मार्ग और भविष्य को लेकर चिंतित थी, डरती थी कि मैं मर जाऊँगी और उद्धार नहीं पा सकूँगी। लगा कि परमेश्वर ने मुझे बाहर निकालने के लिए ऐसे हालात बनाए थे। यह परमेश्वर के बारे में मेरी सबसे बड़ी गलतफहमी थी। पर असल में, ये परमेश्वर की इच्छा बिल्कुल नहीं थी। उसने ऐसे हालात बनाए ताकि मुझे बीमारी का व्यावहारिक अनुभव मिले, मेरी आंतरिक भ्रष्टता और कमियाँ सामने आएँ, और ये देख सकूँ कि भले ही मैंने परमेश्वर में विश्वास होने का दावा किया, पर दिल से नहीं मानती थी कि हर चीज पर उसका शासन है। इसने मुझे यह भी दिखाया कि जब मैं बीमार पड़ी तो मुझे बस अपनी देह की चिंता थी। मैं जानती थी कलीसिया के कार्य के लिए फौरन किसी की जरूरत थी, फिर भी कर्तव्य निभाने से मना किया। बाद में भले ही मैंने बेमन से इसे स्वीकार लिया, पर दिल से इसके लिए कीमत नहीं चुका रही थी। जब कोविड होने पर मेरी हालत ज्यादा खराब हो गई, तो मैंने परमेश्वर से कुतर्क और उसका विरोध किया। अंत में मैंने अपना कर्तव्य त्यागकर परमेश्वर को धोखा दिया, जिससे कलीसिया के कार्य को नुकसान हुआ। मैंने देखा कि इतने समय से विश्वासी होकर भी, मुझमें परमेश्वर का कोई भय नहीं था, और अपने कर्तव्य के प्रति मेरा रवैया बहुत ही लापरवाह था। मुझे एहसास हुआ कि अगर मैं शारीरिक रूप से स्वस्थ होती, तो भी अपने भ्रष्ट स्वभावों को हल किए बिना, मैं परमेश्वर का विरोध करती और उसे धोखा देती रहती, और मुझे उसकी स्वीकृति नहीं मिलती। परमेश्वर ने मुझे बीमार होने दिया ताकि मेरी आस्था की मिलावटों को शुद्ध किया जा सके और मेरा शैतानी स्वभाव बदल सके। मगर मैंने कभी परमेश्वर के सच्चे इरादों के बारे में नहीं सोचा। मैं हमेशा अपनी बीमारी को लेकर चिंतित और दुखी रहती थी, ऐसे हालात बनाने के लिए परमेश्वर की प्रतिरोधी थी, अपनी योजनाओं-व्यवस्थाओं के बारे में सोचती रहती थी। मुझे यह भी लगा कि परमेश्वर मुझे बाहर निकालना चाहता है। मैं वाकई बहुत विद्रोही थी, मुझमें मानवता और विवेक की कमी थी। मुझे अपनी बीमारी के प्रति ऐसा रवैया नहीं अपनाना था। अपना रवैया ठीक करना था, अपने भ्रष्ट स्वभावों पर विचार करके उन्हें पहचानना, और बीमारी के दौरान सत्य का अनुसरण करना था। मुझे यही करना चाहिए था।
फिर मैंने आत्म-चिंतन किया। बीमार पड़ने के बाद मेरी लगातार चिंता की जड़ क्या थी? परमेश्वर के वचनों में मैंने ये पढ़ा : “बहुत-से लोग केवल इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनको चंगा कर सकता हूँ। बहुत-से लोग सिर्फ इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनके शरीर से अशुद्ध आत्माओं को निकालने के लिए अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करूँगा, और बहुत-से लोग मुझसे बस शांति और आनंद प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। ... जब मैंने मनुष्य को नरक का कष्ट दिया और स्वर्ग के आशीष वापस ले लिए, तो मनुष्य की लज्जा क्रोध में बदल गई। जब मनुष्य ने मुझसे खुद को चंगा करने के लिए कहा, तो मैंने उस पर ध्यान नहीं दिया और उसके प्रति घृणा महसूस की; तो मनुष्य मुझे छोड़कर चला गया और बुरी दवाइयों तथा जादू-टोने का मार्ग खोजने लगा। जब मैंने मनुष्य द्वारा मुझसे माँगा गया सब-कुछ वापस ले लिया, तो हर कोई बिना कोई निशान छोड़े गायब हो गया। इसलिए मैं कहता हूँ कि मनुष्य मुझ पर इसलिए विश्वास करता है, क्योंकि मैं बहुत अनुग्रह देता हूँ, और प्राप्त करने के लिए और भी बहुत-कुछ है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विश्वास के बारे में क्या जानते हो?)। परमेश्वर ने मेरी स्थिति उजागर कर दी। आस्था पर मेरा दृष्टिकोण क्या वही नहीं था जो अभी परमेश्वर ने बताया? मेरी आस्था बस आशीष पाने के लिए थी, मैं परमेश्वर से सौदा करना चाहती थी। अपने कर्तव्यों में जब मुझे सेहत की कोई बड़ी समस्या नहीं थी, तो लगता था मुझे परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा मिली है, मेरे पास उद्धार का मौका था, तो मैं अपने कर्तव्य में कष्ट उठाने और कीमत चुकाने को तैयार थी। जब मैं बीमार हुई और इसके लक्षण कम होते नहीं दिख रहे थे, तो मैं खुद को अपने कर्तव्य में नहीं झोंक सकी, और सुसमाचार कार्य में भी मन नहीं लगा पाई। मुझे बस अपने भविष्य और किस्मत की फिक्र थी। मुझे चिंता थी, क्या मैं मर जाऊँगी, क्या मुझे आशीष मिलेगी। कोविड के कारण हालत गंभीर होने और दो हफ्तों तक बीमार रहने पर, तो मैंने शिकायत की कि परमेश्वर मेरी सुरक्षा नहीं कर रहा, और अपना कर्तव्य तक नहीं निभाना चाहा। आशीष पाने की उम्मीदों पर पानी फिरते देखकर, मेरी वास्तविक प्रकृति उजागर हो गई। मैंने परमेश्वर से मुँह मोड़कर अपना कर्तव्य त्याग दिया और उसे धोखा दिया। मैं पूरी तरह परमेश्वर के विरुद्ध हो गई, उसके खिलाफ विद्रोह और विरोध किया। परमेश्वर से कुतर्क करते हुए, नकारात्मक और विरोधी बनी रही—मेरी मानवता और समझ कहाँ थी? इस बारे में सोचती हूँ, तो ऐसे हालात बनाने के लिए मैं परमेश्वर की बड़ी आभारी थी। भले ही मुझे थोड़ी शारीरिक पीड़ा हुई, पर मैं अपनी आस्था की मिलावटों और परमेश्वर के खिलाफ जाने के अपने शैतानी स्वभाव के बारे में कुछ बातें समझ पाई। मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर मेरे साथ जो भी करता है वह उद्धार के लिए है, यह सब प्रेम ही है।
फिर मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े और मृत्यु के विषय पर अंतर्दृष्टि हासिल की। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “तुम्हें कोई बड़ी बीमारी हो या छोटी, जब तुम्हारी बीमारी गंभीर हो जाए या तुम मौत के करीब पहुँच जाओ, बस एक चीज याद रखो : मृत्यु से डरो मत। चाहे तुम कैंसर की अंतिम अवस्था में हो, तुम्हारी खास बीमारी की मृत्यु दर बहुत ज्यादा हो, फिर भी मृत्यु से डरो मत। तुम्हारा कष्ट चाहे जितना बड़ा हो, अगर तुम मृत्यु से डरोगे, तो समर्पण नहीं करोगे। ... अगर तुम्हारी बीमारी इतनी गंभीर हो जाए कि शायद तुम मर सकते हो, और इस बीमारी की मृत्यु दर ज्यादा हो, भले ही व्यक्ति की उम्र जितनी भी हो जिसे भी यह बीमारी हुई हो, और लोगों के बीमार होने से लेकर मरने तक का अंतराल बहुत कम हो, तब तुम्हें अपने दिल में क्या सोचना चाहिए? ‘मुझे मृत्यु से नहीं डरना चाहिए, अंत में सबकी मृत्यु होती है। लेकिन परमेश्वर के प्रति समर्पण एक ऐसी चीज है जो ज्यादातर लोग नहीं कर पाते, और मैं इस बीमारी का उपयोग परमेश्वर के प्रति समर्पण को अमल में लाने के लिए कर सकता हूँ। मुझे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने की सोच और रवैया अपनाना चाहिए, और मुझे मृत्यु से नहीं डरना चाहिए।’ मरना आसान है, जीने से ज्यादा आसान। तुम अत्यधिक पीड़ा में हो सकते हो, और तुम्हें इसका पता भी नहीं होगा, और जैसे ही तुम्हारी आँखें बंद होती हैं, तुम्हारी साँस थम जाती है, तुम्हारी आत्मा शरीर छोड़ देती है, और तुम्हारा जीवन खत्म हो जाता है। मृत्यु इसी तरह होती है; यह इतनी ही सरल है। मृत्यु से न डरना वह रवैया है जिसे अपनाना चाहिए। इसके अलावा तुम्हें इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए कि क्या बीमारी बदतर हो जाएगी, या इलाज नहीं हो सका तो क्या तुम मर जाओगे, या तुम्हारे मरने में कितना वक्त लगेगा, या मृत्यु का समय आने पर तुम्हें कैसी पीड़ा होगी। तुम्हें इन चीजों के बारे में चिंता नहीं करनी चाहिए; ये वो चीजें नहीं हैं जिनकी तुम्हें चिंता नहीं करनी चाहिए। ऐसा इसलिए कि वह दिन तो आना ही है, किसी वर्ष, किसी महीने, या किसी निश्चित दिन आना ही है। तुम इससे छुप नहीं सकते, इससे बचकर नहीं निकल सकते—यह तुम्हारा भाग्य है। तुम्हारा तथाकथित भाग्य परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्धारित है, और पहले ही उसके द्वारा व्यवस्थित है। तुम्हारा जीवनकाल और मृत्यु के समय तुम्हारी उम्र और समय परमेश्वर ने पहले ही तय कर रखा है। तो फिर तुम किसकी चिंता कर रहे हो? तुम इसकी चिंता कर सकते हो, मगर इससे कुछ भी नहीं बदलेगा; तुम इसकी चिंता कर सकते हो, मगर तुम इसे होने से नहीं रोक सकते; तुम इसकी चिंता कर सकते हो, मगर तुम उस दिन को आने से नहीं रोक सकते। इसलिए, तुम्हारी चिंता बेकार है, और इससे बस तुम्हारी बीमारी का बोझ और भी भारी हो जाता है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मुझे स्पष्ट हो गया कि सबकी मौत परमेश्वर तय करता है, और चिंता करने से कुछ नहीं होगा। जब भी मुझे बीमारी के लक्षण या बेचैनी महसूस होती, तो चिंता होती थी कि अगर ये लक्षण बिगड़ गए, तो शायद मैं अपनी जान ही गँवा दूँ। मैं समझ नहीं पाई कि सबकी मृत्यु का समय परमेश्वर ने पहले से निर्धारित किया है, और यह कर्तव्य निभाने की थकावट से तय नहीं होता है। मैंने याद किया कैसे मेरी आंटी जवान होकर भी कमजोर और बीमारी से ग्रस्त थी, अस्पताल आना-जाना लगा रहता था। हम सभी को लगा कि वो ज्यादा दिन जिंदा नहीं रहेगी। मगर हैरानी की बात है, उम्र बढ़ने के साथ उनकी सेहत काफी बेहतर हो गई है। 80 साल की होकर भी अपना ध्यान खुद रख सकती है। मगर उनके पति जो हमेशा तंदुरुस्त रहते थे और कभी बीमार नहीं पड़ते थे, उन्हें अचानक लीवर कैंसर हो गया और वे चल बसे। असल दुनिया के इन उदाहरणों से मैंने देखा कि हमारा जीना-मरना परमेश्वर के नियम और व्यवस्थाओं के अधीन है। मुझे कई बीमारियाँ थीं। क्या मेरी स्थिति बदतर होगी, क्या मैं मर जाऊँगी—इसे चिंता करके हल नहीं किया जा सकता। यह सब परमेश्वर के नियम पर निर्भर है। हमारे मरने का अपने कर्तव्य में थकावट से कोई लेना-देना नहीं है। कुछ लोग न तो कोई कर्तव्य निभाते हैं और न ही अपनी सेहत का ख्याल रखते हैं, पर वे भी मरेंगे। मैं ऐसी विश्वासी थी जिसे परमेश्वर के नियम में विश्वास नहीं था, हमेशा मौत की चिंता में जीती थी। परमेश्वर में मेरी आस्था सच्ची नहीं थी। सच तो यह है, मरते सभी हैं। यह प्रकृति का विधान है। मौत से डरना नहीं चाहिए। हमारा जीना-मरना परमेश्वर ने पहले से तय किया है, मुझे उसकी व्यवस्था के प्रति समर्पण करना चाहिए। चाहे मुझे कभी भी मौत आए, मुझे शांति से उसका सामना करना चाहिए। मुझे अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित होकर अपना सब कुछ झोंक देना चाहिए, और मृत्यु के समय पछतावा करने की गुंजाइश नहीं छोड़नी चाहिए, यही संतुष्ट और शांत रहने का एकमात्र तरीका है। अगर मैं चिंता की नकारात्मक भावना में जीती रही, हमेशा अपनी देह के लिए योजनाएँ बनाती रही, अपने कर्तव्य में ईमानदारी से सब कुछ न झोंक पाई, तो पछतावे और अपराध बोध से भर जाऊँगी, और कलीसिया के कार्य में बाधक बनूँगी, फिर मेरी सेहत कितनी भी अच्छी हो, मेरा जीवन निरर्थक होगा, और अंत में परमेश्वर मुझे दंडित करेगा। यह सब समझकर, मैंने खुद को मुक्त महसूस किया।
फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिसने मेरे दिल को छू लिया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “व्यक्ति के जीवन का मूल्य क्या है? क्या यह केवल खाने, पीने और मनोरंजन जैसे शारीरिक सुखों में शामिल होने की खातिर है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) तो फिर यह क्या है? तुम लोग अपने विचार साझा करो। (व्यक्ति को अपने जीवन में कम से कम एक सृजित प्राणी के कर्तव्य को पूरा करने का लक्ष्य हासिल करना चाहिए।) सही कहा। ... अपने पूरे जीवनकाल के दौरान, तुम्हें अपना लक्ष्य पूरा करना चाहिए; यह सबसे महत्वपूर्ण है। हम किसी बड़े लक्ष्य, कर्तव्य या जिम्मेदारी को पूरा करने की बात नहीं कर रहे हैं; लेकिन कम से कम, तुम्हें कुछ तो हासिल करना चाहिए। उदाहरण के लिए, कलीसिया में, कुछ लोग अपनी सारी कोशिश सुसमाचार फैलाने में लगा देते हैं, अपने पूरे जीवन की ऊर्जा समर्पित करते हैं, बड़ी कीमत चुकाते और कई लोगों को जीतते हैं। इस वजह से, उन्हें लगता है कि उनका जीवन व्यर्थ नहीं गया है, उसका मूल्य है और यह राहत देने वाला है। बीमारी या मृत्यु का सामना करते समय, जब वे अपने पूरे जीवन का सारांश निकालते हैं और उन सभी चीजों के बारे में सोचते हैं जो उन्होंने कभी की थीं, जिस रास्ते पर वे चले, तो उन्हें अपने दिलों में तसल्ली मिलती है। उन्हें किसी दोषारोपण या पछतावे का अनुभव नहीं होता। कुछ लोग कलीसिया में अगुआई करते समय या कार्य के किसी खास पहलू की अपनी जिम्मेदारी में कोई कसर नहीं छोड़ते। वे अपनी अधिकतम क्षमता का उपयोग करते हैं, अपनी पूरी ताकत लगाते हैं, अपनी सारी ऊर्जा खर्च करते हैं और जो काम करते हैं उसकी कीमत चुकाते हैं। अपने सिंचन, अगुआई, सहायता और समर्थन से, वे कई लोगों को उनकी कमजोरियों और नकारात्मकता के बीच मजबूत बनने और दृढ़ रहने में मदद करते हैं ताकि वे पीछे हटने के बजाय परमेश्वर की उपस्थिति में वापस आएँ और अंत में उसकी गवाही भी दें। इसके अलावा, अपनी अगुआई की अवधि के दौरान, वे कई महत्वपूर्ण कार्य पूरे करते हैं, बहुत-से दुष्ट लोगों को कलीसिया से निकालते हैं, परमेश्वर के चुने हुए अनेक लोगों की रक्षा करते हैं, और कई बड़े नुकसानों की भरपाई भी करते हैं। ये सभी चीजें उनकी अगुआई के दौरान ही हासिल होती हैं। वे जिस रास्ते पर चले, उसे पीछे मुड़कर देखते हुए, बीते बरसों में अपने द्वारा किए गए काम और चुकाई गई कीमत को याद करते हुए, उन्हें कोई पछतावा या दोषारोपण महसूस नहीं होता। वे मानते हैं कि उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया जिसके लिए उन्हें पछताना पड़े, और वे अपने दिलों में मूल्य, स्थिरता और शांति की भावना के साथ जीते हैं। यह कितना अद्भुत है! यही परिणाम होता है न? (हाँ।) स्थिरता और राहत की यह भावना, पछतावे का न होना, सकारात्मक चीजों और सत्य का अनुसरण करने का परिणाम और पुरस्कार हैं। आओ, लोगों के लिए ऊँचे मानक स्थापित न करें। एक ऐसी स्थिति पर विचार करें जहाँ व्यक्ति को ऐसे कार्य का सामना करना पड़ता है जो उसे अपने जीवनकाल में करना चाहिए या वह करना चाहता है। अपना पद जान लेने के बाद, वह दृढ़ता से उस पर बना रहता है बहुत कष्ट उठाता है, कीमत चुकाता है, और जिस चीज पर काम करना चाहिए और जिसे पूरा करना चाहिए उसे हासिल और पूरा करने के लिए अपनी सारी ऊर्जा समर्पित कर देता है। जब वह अंत में हिसाब देने के लिए परमेश्वर के सामने खड़ा होता है, तो वह काफी संतुष्ट महसूस करता है, उसके दिल में कोई दोषारोपण या पछतावा नहीं होता है। उसमें राहत और फलवान होने की भावना होती है कि उसने एक मूल्यवान जीवन जिया है। क्या यह एक महत्वपूर्ण लक्ष्य नहीं है? इसका पैमाना चाहे जो भी हो, मुझे बताओ, क्या यह व्यावहारिक है? (यह व्यावहारिक है।) क्या यह विशिष्ट है? यह पर्याप्त रूप से विशिष्ट, व्यावहारिक और यथार्थवादी है। तो, एक मूल्यवान जीवन जीने और अंत में इस प्रकार का पुरस्कार प्राप्त करने के लिए, क्या व्यक्ति के शरीर का थोड़ा कष्ट सहना और थोड़ी कीमत चुकाना सार्थक है, भले ही वह थकान और शारीरिक बीमारी का अनुभव करे? (यह सार्थक है।) जब कोई व्यक्ति इस संसार में आता है, तो यह केवल देह के आनंद के लिए नहीं होता है, न ही यह केवल खाने, पीने और मौज-मस्ती करने के लिए होता है। व्यक्ति को केवल उन चीजों के लिए नहीं जीना चाहिए; यह मानव जीवन का मूल्य नहीं है, न ही यह सही मार्ग है। मानव जीवन के मूल्य और अनुसरण के सही मार्ग में कुछ मूल्यवान हासिल करना या एक या अनेक मूल्यवान कार्य करना शामिल है। इसे करियर नहीं कहा जाता है; इसे सही मार्ग कहा जाता है, इसे उचित कार्य भी कहा जाता है। मुझे बताओ, क्या व्यक्ति के लिए किसी मूल्यवान कार्य को पूरा करना, सार्थक और मूल्यवान जीवन जीना और सत्य का अनुसरण करना और उसे प्राप्त करना इस योग्य है कि उसके लिए कीमत चुकाई जाए? यदि तुम वास्तव में सत्य का अनुसरण करने और उसे समझने, जीवन में सही मार्ग पर चलने, अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से पूरा करने, और एक मूल्यवान और सार्थक जीवन जीने की इच्छा रखते हो, तो तुम्हें अपनी सारी ऊर्जा लगाने, कीमत चुकाने, अपना सारा समय और जीवन के बचे हुए दिन देने में संकोच नहीं करना चाहिए। यदि तुम इस अवधि के दौरान थोड़ी बीमारी का अनुभव करते हो, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा, इससे तुम टूट नहीं जाओगे। क्या यह जीवन भर आराम और आलस्य के साथ जीने, शरीर को इस हद तक पोषित करने कि वह सुपोषित और स्वस्थ हो, और अंत में दीर्घायु होने से ज्यादा बेहतर नहीं है? (हाँ।) इन दोनों विकल्पों में से कौन-सा एक मूल्यवान जीवन के लिए अधिक हितकर है? इनमें से कौन-सा विकल्प लोगों को अंत में मृत्यु का सामना करते हुए राहत दे सकता है, जिससे उन्हें कोई पछतावा नहीं होगा? (एक सार्थक जीवन जीना।) सार्थक जीवन जीने का अर्थ है अपने दिल में परिणाम और सुकून महसूस करना। उन लोगों का क्या जो अच्छा खाना खाते हैं और जिनके चेहरे पर मृत्यु तक गुलाबी चमक बनी रहती है? वे सार्थक जीवन नहीं जीते हैं, तो मरने पर उन्हें कैसा महसूस होता है? (मानो उनका जीवन व्यर्थ रहा।) ये तीन शब्द चुभने वाले हैं—जीवन व्यर्थ रहना। ‘जीवन व्यर्थ रहने’ का क्या अर्थ है? (अपना जीवन बर्बाद करना।) जीवन व्यर्थ रहना, अपना जीवन बर्बाद करना—इन दो वाक्यांशों का आधार क्या है? (अपने जीवन के अंत में उन्हें पता चलता है कि उन्होंने कुछ भी हासिल नहीं किया है।) फिर व्यक्ति को क्या हासिल करना चाहिए? (उन्हें सत्य प्राप्त करना चाहिए या इस जीवन में मूल्यवान और सार्थक चीजें हासिल करनी चाहिए। उन्हें एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए। यदि वे यह सब करने में विफल रहते हैं और केवल अपने शरीर के लिए जीते हैं, तो उन्हें लगेगा कि उनका जीवन व्यर्थ चला गया और बर्बाद हो गया।)” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (6))। परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़कर, मैंने मानव जीवन का मतलब समझा। मैंने विचार किया कि कैसे अब मेरे पास एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने का मौका है, और यह करना सबसे धार्मिक चीज है। अविश्वासी भोजन, शराब, और आनंद के पीछे भागते हैं, और भले ही उन्हें शारीरिक सुख मिलता है और वे ज्यादा कष्ट नहीं सहते, पर मौत का सामना होने पर उन्हें जीवन जीने का अर्थ पता नहीं होता। ऐसा जीवन जीना व्यर्थ है। मैं अपने जीवन में परमेश्वर द्वारा ऊँचा उठाई जा सकती हूँ, अपने कर्तव्य में अगुआ बन सकती हूँ, तो इसमें अपना सब कुछ झोंक देना चाहिए और ऊपरवाले की अपेक्षाओं के मुताबिक कलीसिया के प्रोजेक्ट की जिम्मेदारी उठानी चाहिए, सत्य का अनुसरण करने और सिद्धांतों के अनुसार कर्तव्य निभाने में भाई-बहनों की अगुआई करनी चाहिए, और राज्य का सुसमाचार फैलाने में अपनी भूमिका निभानी चाहिए—यही सबसे सार्थक चीज है। लेकिन अगर लोग सिर्फ देह के लिए जीवन जीते हैं, तो वे अपने दिन बर्बाद कर रहे हैं, और यह सब निरर्थक है। पहले, जब मैं अपना कर्तव्य त्यागकर घर चली जाती, ताकि चक्कर खाकर गिर न जाऊँ, भले ही मैं घर पर थी और मुझे शारीरिक पीड़ा नहीं थी, और मुझे कलीसिया के कार्य की इतनी चिंता करने की भी जरूरत नहीं थी, पर मैं अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं उठा रही थी, और अंदर से खोखला महसूस करती थी। मैं अपराध बोध से भरी रहती थी, वास्तविक शांति या आनंद बिल्कुल नहीं था। मैंने देखा कि देह-सुख के लिए जीवन जीना एकदम निरर्थक है, और चाहे मैं अपनी सेहत का कितना भी ध्यान रख लूँ, सब खोखला ही रहेगा। भले ही मैं थोड़ी थक गई थी और कर्तव्य निभाने में थोड़ा कष्ट भी सहा, पर मुझे सत्य हासिल करके सुकून और शांति मिली। यही सबसे सार्थक जीवन है। इससे मैंने यह निजी अनुभव भी पाया कि कैसे एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना ही हमारे लिए परिपूर्ण, सार्थक जीवन जीने के साथ ही दिल में सच्चा सुकून और आनंद पाने का तरीका है। सिर्फ देह को संजोने से जीवन खोखला रह जाता है, व्यक्ति सत्य का अनुसरण करके बचाए जाने का मौका गँवा देता है। यह सब समझने के बाद, मुझे फिर से अपना कर्तव्य निभाने की प्रेरणा मिल गई। मुझे सुसमाचार कार्य में कोई परिणाम नहीं मिल रहा था, तो मुझे हालात की व्यावहारिकता को समझना था, समस्याएँ हल करने के लिए सिद्धांत खोजने थे, मुझसे जो बन पड़े वो करना था, कार्य के परिणामों को बेहतर बनाने की कोशिश करनी थी। इस तरह अपना कर्तव्य निभाने को लेकर मुझे कोई शर्मिंदगी या पछतावा नहीं होगा। जब मैं सुसमाचार कार्य में व्यस्त थी और कठिनाइयों का सामना करती थी, तो कभी-कभी खुद को थका देने या समस्याएँ हल करने में बीमार पड़ जाने की चिंता रहती थी, पर मुझे एहसास हुआ कि मैं चिंता की हालत में जीती नहीं रह सकती। तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, चाहे मेरी बीमारी गंभीर हो या न हो, मैं पहले की तरह तुम्हारे खिलाफ विद्रोही नहीं बनना चाहती। मेरा जीना-मरना पूरी तरह से तुम्हारे हाथों में है, और मैं तुम्हारे आयोजनों-व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहती हूँ।” प्रार्थना के बाद मेरी चिंता कम हुई। मैंने सुसमाचार कार्य की समस्याएँ हल करने के लिए कुछ भाई-बहनों के साथ संगति की। सबने साथ मिलकर सिद्धांत खोजे, विकल्पों पर चर्चा की, और हमें कर्तव्य निभाने का मार्ग मिल गया। सुसमाचार कार्य में प्रगति हुई, और हमें कुछ सिद्धांत और स्पष्ट हो गए।
मार्च 2023 में, कलीसिया ने बड़े अगुआओं का चुनाव कराया, जिसमें मैं अगुआ चुनी गई। मैं जानती थी कि मुझे इस कर्तव्य में ज्यादा बोझ उठाना होगा और मुझे अभी भी अपनी सेहत की चिंता थी, पर मैं अब अपनी देह का ख्याल नहीं रखना चाहती थी। मैं वाकई कर्तव्य निभाने के इस अवसर को संजोना चाहती थी। बाद में, अपना कर्तव्य निभाते हुए, मैं अपनी सेहत के हिसाब से जरूरी बदलाव कर पाई, अच्छा महसूस नहीं करने पर थोड़ा आराम कर लेती, और व्यायाम के लिए समय निकालती। इस तरह कर्तव्य निभाकर मैं ज्यादा थकती नहीं थी, अपनी बीमारी से बेबस भी नहीं थी। समय के साथ, मेरा सिर पहले जैसा सुन्न नहीं रहता। अब लगता है कि मुझे अपने बचे हुए समय को संजोना चाहिए, और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाना ही सबसे महत्वपूर्ण है। मैं परमेश्वर की आभारी हूँ जो उसने ऐसे हालात बनाए ताकि मुझे सीख मिले। अब मैं बीमार पड़ने को लेकर लगातार चिंता नहीं करती।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?