कर्तव्य निभाने का वरिष्ठता से कोई संबंध नहीं
मैं कई सालों से भजनों की रिकॉर्डिंग कर रहा हूँ। मैं काफी समय से विश्वासी रहा हूँ, इसलिए कुछ भाई-बहन रिकॉर्डिंग से पहले मुझे परमेश्वर के वचन के भजन के बोलों के बारे में अपनी समझ पर संगति करने को कहते। कभी-कभी, समूह अगुआ युवा भाई-बहनों को मेरे साथ परमेश्वर के वचनों पर संगति करने को कहते। समय के साथ, मैंने देखा कि परमेश्वर के वचनों पर संगति के मामले में, मुझे अपने भाई-बहनों और समूह अगुआ की मंजूरी मिल चुकी है, और मैं बहुत खुश था। हालांकि मैं बहुत खराब गाता था, पर परमेश्वर के वचनों को मैं अन्य भाई-बहनों से बेहतर समझ पाता था। अपने भाई-बहनों की सराहना पाने के लिए, जब भी वे मुझसे भजन के बोलों पर अपनी समझ साझा करने को कहते, तो मैं पहले ही सोचकर रखता, संदर्भ के लिए भजन के बोलों से जुड़ी कुछ संगति या वीडियो भी खोज लेता। इस तरह, मेरी संगति से जो समझ मिलती वह दूसरों से बेहतर होती। इसके अलावा, भले ही मैं कहता कि सबकी ग्रहण करने की क्षमता सीमित होती है, और हमें अपनी समझ पर संगति करनी चाहिए, पर जब दूसरे संगति करते तो मैं बिल्कुल भी ध्यान नहीं देता। बल्कि, मैं सिर्फ दूसरों के मुकाबले एकदम अलग समझ साझा करने की सोचता रहता था। कभी-कभी, मैं पहले भाई-बहनों से संगति करने को कहता और उनकी संगति पूरी होने पर उनमें कमियां निकालता, उन्हें बताता कि इस गाने के बोलों को लेकर मेरी समझ क्या है। इसके बाद, कुछ भाई-बहन खुशी से कहते, "आपकी संगति से हमें बहुत मदद मिली।" कुछ कहते, "मेरे पास परमेश्वर के वचनों का अनुभव और समझ बहुत कम है। आगे से कोई भी गाना रिकॉर्ड करने से पहले मैं आपके साथ संगति करूंगा।" यह सब सुनकर, हालांकि मैं उन्हें दूसरों पर निर्भर न रहने को और परमेश्वर के वचनों पर विचार करने पर ध्यान देने को कहता, पर अपने दिल में, अनजाने में ही खुद की बड़ाई करने लगता था।
कई ऐसी सभाएं भी हुई जहाँ हमने मसीह-विरोधियों को पहचानने के बारे में संगति की, तब कुछ भाई-बहनों ने मुझसे कहा, "भाई, हमें मसीह-विरोधियों को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचनों की कम समझ है, हम वास्तविक हालात देखकर उन्हें पहचान नहीं पाते। कृपया हमारे साथ संगति करें!" ऐसे समय पर, मैं कहने को तो कह देता कि मेरी समझ भी कम है, पर दिल में खुद को दूसरों से बेहतर मानता था। मुझे लगता मैंने लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास किया है, बहुत से लोगों से मिला हूँ, कई चीजों का अनुभव किया है, तो परमेश्वर के वचन की मेरी समझ औरों से ज्यादा गहरी थी। इसके बाद, मैंने मसीह-विरोधियों की लोगों को धोखा देने से जुड़ी घटनाओं पर संगति की, जिनके बारे में मैंने सुन रखा था। जब मैंने देखा कि सभी ध्यान से मेरी बातें सुन रहे हैं, तो इतनी अहमियत पाने के एहसास पर मुझे बहुत खुशी हुई। धीरे-धीरे, मुझे पता चला कि कुछ भाई-बहन भजन के बोलों के अर्थ पर ज्यादा सोचते नहीं थे, वे बस मेरी संगति का इंतज़ार करते थे। उस वक्त मुझमें संवेदना नहीं थी, न ये पता था कि मुझे आत्मचिंतन करना चाहिए। इसके गलत होने का बस थोड़ा-सा एहसास था। मैंने यह भी सोचा कि मैं तो बस परमेश्वर के वचन पर अपनी समझ पर संगति करता हूँ, और इससे भाई-बहनों को मदद मिलती है, तो परेशानी की कोई बात नहीं होनी चाहिए। इसलिए, मैंने इस बारे में ज्यादा नहीं सोचा। और इस तरह, अनजाने में, मैंने खुद को आसन पर बिठा दिया।
एक बार, रिकॉर्डिंग से पहले, एक छोटी बहन ने मुझसे कहा, "भाई, हमें इस भजन से जुड़ी बाइबल की कोई कहानी सुनाइए!" कहानी को दिलचस्प बनाने के लिए, मैंने यहोवा परमेश्वर के वचनों के लहजे की नकल उतारी। कुछ शब्द बोलते ही मुझे बड़ी बेचैनी होने लगी। मैंने सोचा, "क्या मेरा परमेश्वर के वचनों के लहजे की नकल उतारना गलत है?" मगर फिर सोचा, मैं ऐसा रिकॉर्डिंग में लोगों की मदद के लिए कर रहा था, इसलिए मुझे इसमें कोई परेशानी नहीं दिखी। हालांकि, थोड़ी देर बोलने पर ही, छोटी बहन ने मुझसे कहा, "भाई, मुझे नींद आ रही है।" यह सुनकर, मेरा चेहरा तमतमा गया, और मैं फौरन रुक गया। उस दौरान कोई भी अच्छी हालत में नहीं था, तो रिकॉर्डिंग भी काफी खराब रही, पर मैंने आत्मचिंतन नहीं किया। उसी दिन शाम को, अचानक मेरे पेट की तकलीफ बढ़ गई। दवाई लेने के बाद भी, बार-बार मेरे पेट में दर्द हो रहा था। आधी रात को करीब दो बजे, मेरे पेट में अचानक बहुत तेज दर्द उठा। यह इतना तकलीफदेह था कि मैं बिस्तर पर लोटने लगी। लगा जैसे किसी भी पल मेरी मौत हो जाएगी। उस वक्त, मुझे परमेश्वर के वचन याद आए, "लेकिन किसी भी गंभीर बीमारी के होते ही—जब तुम बीमारी से बिस्तर पर पड़ जाते हो, और जब, जैसे अचानक ही, जीवन असहनीय हो जाता है—उस तरह का संवेदन या बीमारी कोई दुर्घटना नहीं होती है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'हर चीज को सत्य की आँखों से देखो')। परमेश्वर के वचनों की चेतावनी से, मुझे एहसास हुआ कि इस बीमारी का अचानक उभर आना कोई संयोग नहीं था, यह परमेश्वर की मंजूरी से हुआ था, तो मैंने हाल ही में उजागर हुए हालात पर चिंतन करने लगा। मुझे समझ आया कि रिकॉर्डिंग से पहले, बाइबल की कहानी ज्यादा दिलचस्प बनाने और भाई-बहनों की नजरों में ऊंचा उठने के लिए, मैंने जानबूझकर परमेश्वर की वाणी की नकल उतारी। मैं अपनी हरकतों से हैरान था। मैंने परमेश्वर के वचनों को याद किया, "तुम्हें परमेश्वर की गवाही का आदर करना चाहिए। तुम परमेश्वर के कार्य और उसके मुँह से निकले वचनों की उपेक्षा नहीं करोगे। तुम परमेश्वर के कथनों के लहजे और लक्ष्यों की नकल नहीं करोगे" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, नये युग की आज्ञाएँ)। "तुम्हें अपने क़दमों के प्रति सचेत रहना चाहिए, ताकि तुम परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए निर्दिष्ट की गई सीमा का अतिक्रमण करने से बच सको। अगर तुम अतिक्रमण करते हो, तो यह तुम्हारे द्वारा परमेश्वर की स्थिति में खड़े होने और अहंकार भरे और आडंबरपूर्ण शब्द कहने का कारण बनेगा, जिसके लिए परमेश्वर तुमसे घृणा करने लगेगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, नये युग की आज्ञाएँ)। इस पर विचार करके मैं बहुत डर गया। परमेश्वर ने हमें बहुत पहले चेताया था कि हमें अपने स्थान पर रहकर, अपनी ज़बान पर लगाम रखनी चाहिए, परमेश्वर के कथनों के लहजे की नकल नहीं करनी चाहिए, वरना परमेश्वर हमसे नफरत करेगा। इसके बावजूद, लोगों की नजरों में ऊंचा उठने के लिए, मैंने परमेश्वर के लहजे की नकल की। क्या ऐसा करके मैं परमेश्वर की जगह खड़ा नहीं हो रहा था? इससे परमेश्वर के स्वभाव का बहुत अपमान होता है। तब जाकर एहसास हुआ कि यह मेरे लिए परमेश्वर का अनुशासन था। मैंने फौरन परमेश्वर से प्रार्थना की। "परमेश्वर, मैं बहुत बेशर्म हूँ। अपने भाई-बहनों की सराहना पाने के लिए, दिखावा करने के लिए, मैंने तुम्हारी वाणी के लहजे की नकल की। मैं इतना अहंकारी था कि अपना विवेक ही खो बैठा। परमेश्वर, मैं पश्चाताप करना चाहता हूँ, राह दिखाओ कि मैं खुद को समझ सकूँ।" मैं चिंतन और प्रार्थना करता रहा, परमेश्वर के साथ खोजता रहा, और पता भी नहीं चला कब मेरा दर्द कम हो गया।
इसके बाद, मैंने सोचा, मैं ऐसा कैसे कर सकता हूँ? चिंतन में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "आज तुम लोग एक बहुत बड़ी समस्या का सामना कर रहे हो। वह समस्या क्या है? समस्या यह है कि चूँकि तुम लोग थोड़े सिद्धांतों का उपदेश देने में सक्षम हो, और कुछ आध्यात्मिक कहावतों की समझ रखते हो, और खुद को जानने के अपने अनुभवों के बारे में थोड़ी बात कर सकते हो, इसलिए तुम्हें लगता है कि तुम सत्य समझते हो, कि परमेश्वर में तुम्हारी आस्था एक निश्चित स्तर पर पहुँच गई है, कि तुम लोग ज्यादातर लोगों से ऊपर हो। लेकिन वास्तव में, तुम लोगों ने सत्य की वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है, और लोग तुम्हें समर्थन और पोषण न दें, लोग तुम्हारे साथ सत्य की संगति और तुम्हारा मार्गदर्शन न करें, तो तुम लोग एकदम से ठहर जाओगे और तुम लोग स्वच्छंद हो जाओगे। तुम लोग परमेश्वर की गवाही देने का कार्य की ज़िम्मेदारी लेने में असमर्थ हो, तुम परमेश्वर का आदेश पूरा करने में सक्षम नहीं हो, फिर भी, अंदर से तुम लोग अभी भी अपने बारे में ऊँची राय रखते हो, तुम्हें लगता है कि तुम ज्यादातर लोगों से ज्यादा समझते हो—लेकिन वास्तव में तुम लोगों में आध्यात्मिक कद की कमी है, तुमने सत्य की वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है, और केवल सिद्धांत के कुछ शब्द और वाक्यांश समझने में सक्षम होने से ही तुम अहंकारी हो गए हो। जैसे ही लोग इस तरह की स्थिति में प्रवेश करते हैं, जब उन्हें लगता है कि वे पहले ही सत्य प्राप्त कर चुके हैं, और आत्म-तुष्ट हो जाते हैं, तो वे किस तरह के खतरे में होते हैं? अगर कोई ऐसा नकली अगुआ या मसीह-विरोधी वास्तव में दिखाई दे, जिस पर विश्वास हो जाए तो तुम लोग निस्संदेह झाँसे में आ जाओगे और उसका अनुसरण करना शुरू कर दोगे। यह खतरनाक है, है न? तुम लोगों के अहंकारी, दंभी और आत्म-तुष्ट होने की संभावना है—उस स्थिति में, क्या तुम लोग परमेश्वर से भटक नहीं जाओगे? क्या तुम परमेश्वर से मुँह नहीं मोड़ लोगे और अपने रास्ते नहीं चल दोगे? सत्य की वास्तविकता के बिना तुम परमेश्वर की गवाही नहीं दे पाओगे; तुम लोग केवल अपनी गवाही दोगे और खुद का दिखावा करोगे—और क्या तब भी तुम खतरे में नहीं होंगे? ... हो सकता है, तुम लोगों ने कई वर्षों तक अपने कर्तव्य निभाए हों, लेकिन जीवन में तुम्हारे प्रवेश में कोई स्पष्ट प्रगति नहीं हुई है, तुम केवल कुछ सतही सिद्धांत समझते हो, और तुम्हें परमेश्वर के स्वभाव और सार का कोई सच्चा ज्ञान नहीं है, तुममें कोई उल्लेखनीय अंतर्दृष्टि नहीं है—और अगर आज तुम लोगों का यह आध्यात्मिक कद है, तो तुम लोगों के क्या करने की संभावना होगी? तुम लोगों में कौन-सी भ्रष्टताएँ बाहर निकल कर आएँगी? (अहंकार और दंभ।) क्या तुम्हारा अहंकार और दंभ घनीभूत होंगे, या अपरिवर्तित रहेंगे? (वे घनीभूत होंगे।) वे घनीभूत क्यों होंगे? (क्योंकि हम खुद को अत्यधिक योग्य समझेंगे।) और अत्यधिक योग्यता वाले लोग स्वयं को किस पर आधारित मानते हैं? इस पर कि उन्होंने कोई कर्तव्य विशेष कितने वर्षों तक किया है, कितना अनुभव प्राप्त किया है, है न? अगर बात ऐसी है तो, क्या तुम लोग धीरे-धीरे वरिष्ठता को ध्यान में रखकर सोचना शुरू नहीं कर दोगे? उदाहरण के लिए, एक भाई ने कई वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास किया है और लंबे समय तक कर्तव्य निभाया है, इसलिए वह इस कर्तव्य के बारे में बात करने के लिए सबसे योग्य है; एक बहन को यहाँ कुछ ही समय हुआ है, और हालाँकि उसमें थोड़ी-बहुत क्षमता है, पर उसे यह कर्तव्य निभाने का अनुभव नहीं है, और उसे परमेश्वर पर विश्वास किए लंबा समय नहीं हुआ है, इसलिए वह उसके बारे में बात करने के लिए सबसे कम योग्य है। बात करने के लिए सबसे योग्य इंसान मन में सोचता है, 'चूँकि मेरे पास वरिष्ठता है, इसलिए इसका मतलब है कि मेरे कर्तव्य का प्रदर्शन मानक अनुरूप है, और मेरी खोज अपने चरम पर पहुँच गई है, और ऐसा कुछ नहीं है जिसके लिए मुझे प्रयास करना चाहिए या जिसमें मुझे प्रवेश करना चाहिए। मैंने यह कर्तव्य बखूबी निभाया है, मैंने यह काम कमोबेश पूरा कर दिया है, परमेश्वर को संतुष्ट होना चाहिए।' और इस तरह वे आत्म-तुष्ट होने लगते हैं। क्या यह इंगित करता है कि उन्होंने सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर लिया है? उन्होंने प्रगति करना बंद कर दिया है। उन्होंने अभी भी सत्य या जीवन प्राप्त नहीं किया है, और फिर भी वे खुद को अत्यधिक योग्य समझते हैं, और वरिष्ठता को ध्यान में रखकर बात करते हैं, और परमेश्वर द्वारा पुरस्कार की प्रतीक्षा करते हैं। क्या यह अहंकारी स्वभाव का बाहर आना नहीं है? जब लोग 'अत्यधिक योग्य' नहीं होते, तो वे सतर्क रहना जानते हैं, वे खुद को गलतियाँ न करने की याद दिलाते हैं; जब वे खुद को अत्यधिक योग्य मान लेते हैं, तो वे अहंकारी हो जाते हैं, अपने बारे में ऊँची राय रखना शुरू कर देते हैं, और उनके आत्म-तुष्ट होने की संभावना होती है। ऐसे समय, क्या उनके परमेश्वर से पुरस्कार और मुकुट माँगने की संभावना नहीं होती, जैसा कि पौलुस ने किया था? (हाँ।) इंसान और परमेश्वर के बीच क्या संबंध है? यह सृजनकर्ता और सृजित प्राणियों के बीच का संबंध नहीं है। यह एक लेनदेन के संबंध से ज्यादा कुछ नहीं। और जब ऐसा होता है, तो लोगों का परमेश्वर के साथ कोई संबंध नहीं होता, और संभव है कि परमेश्वर उनसे अपना चेहरा छिपा ले—जो एक खतरनाक संकेत है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'निरंतर परमेश्वर के सामने रहकर ही तू उद्धार के पथ पर चल सकता है')। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैंने उसकी तुलना अपनी हालत से की। भजन समूह में काम शुरू करने के बाद, जब मैंने देखा कि मेरे आसपास के ज्यादातर भाई-बहन बहुत कम समय से परमेश्वर के विश्वासी हैं, तो मैं अनजाने ही खुद को वरिष्ठ समझने लगा। मुझे लगा कि मैंने उनसे ज्यादा समय से परमेश्वर में विश्वास किया है, तो मैं समूह में सबसे वरिष्ठ हुआ। इसलिए मैंने खुद को ऊंची जगह पर बिठा लिया। भाई-बहनों से बात करते हुए, मैं हमेशा खुद को ज्यादा अनुभवी और वरिष्ठ समझता था। भजन के बोलों की अपनी समझ पर संगति करते समय, मैं तय कर लेता था कि उनके पास ज्यादा अनुभव नहीं होगा, परमेश्वर के वचन की सतही समझ होगी, और उनकी संगति में ज्यादा रोशनी या समझ नहीं होगी, इसलिए जब वे संगति करते तो मैं कभी ध्यान से नहीं सुनता। मैं हमेशा भाई-बहनों को पहले संगति करने देता, और उसके बाद ऐसी समझ सामने रखता जिनका उन्हें बोध नहीं था, जिससे लगता था कि मैं दूसरों से बेहतर जानता हूँ। अपने इन विचारों से, मुझे एहसास हुआ कि मेरी प्रकृति बहुत अहंकारी थी। परमेश्वर में अपने बरसों के विश्वास और उपदेश सुनने को मैंने अपनी पूंजी मान लिया, इसे दिखावा करने में इस्तेमाल किया, फिर भी मुझे कोई अपराध-बोध नहीं था। मुझमें जरा-भी शर्म नहीं थी! परमेश्वर के वचन की अपनी थोड़ी-सी समझ को मैं कैसे बढ़ा-चढ़ाकर दिखा सकता था। क्या यह पवित्र आत्मा के प्रबोधन का नतीजा नहीं था? मगर परमेश्वर का उत्कर्ष कर उसकी गवाही देने के बजाय, मैंने उसकी महिमा चुराने की कोशिश की और पवित्र आत्मा के कार्य का इस्तेमाल दिखावा करने के लिए किया। मैं बहुत ही बेशर्म था!
फिर, मैंने परमेश्वर के ये वचन याद किए। "सत्य स्वयं परमेश्वर का जीवन है; यह उसके स्वभाव, सार और स्वरूप का प्रतिनिधित्व करता है। अगर तुम कहते हो कि कुछ अनुभव और ज्ञान होने से तुम्हें सत्य मिल गया है, तो क्या तुमने पवित्रता प्राप्त कर ली है? तुम अभी भी भ्रष्टता क्यों दिखाते हो? तुम विभिन्न प्रकार के लोगों के बीच अंतर क्यों नहीं कर पाते? तुम परमेश्वर की गवाही क्यों नहीं दे पाते? अगर तुम कुछ सत्य समझते भी हो, तो भी क्या तुम परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर सकते हो? क्या तुम परमेश्वर के स्वभाव को जी सकते हो? तुम्हारे पास सत्य के किसी निश्चित पहलू के बारे में कुछ अनुभव, ज्ञान और प्रकाश हो सकता है, लेकिन तुम लोगों को जो प्रदान कर सकते हो, वह बेहद सीमित है और लंबे समय तक नहीं टिक सकता। ऐसा इसलिए है, क्योंकि तुम्हारी समझ और तुम्हारे द्वारा प्राप्त किया गया प्रकाश सत्य के सार का प्रतिनिधित्व नहीं करते, और वे सत्य की संपूर्णता का प्रतिनिधित्व भी नहीं करते। वे सत्य के केवल एक पक्ष या एक छोटे-से पहलू का प्रतिनिधित्व करते हैं, वे केवल एक स्तर हैं जिसे मनुष्य द्वारा प्राप्त किया जा सकता है और जो अभी भी सत्य के सार से दूर है। यह थोड़ा-सा प्रकाश, प्रबुद्धता, अनुभव और ज्ञान कभी सत्य का स्थान नहीं ले सकता। भले ही सभी लोगों ने किसी सत्य का अनुभव किया हो, और उनके सभी अनुभव और ज्ञान एक साथ रख दिए जाएँ, फिर भी वह उस सत्य की एक भी पंक्ति की संपूर्णता और सार तक नहीं पहुँच पाएगा। ... परमेश्वर के वचनों का शाब्दिक अर्थ समझते ही कुछ लोग कहते हैं कि उन्होंने सत्य पा लिया है। क्या यह बकवास नहीं है? प्रकाश और ज्ञान दोनों के संदर्भ में, बात गहराई की है। जीवन भर विश्वास रखकर सत्य की जिन वास्तविकताओं में इंसान प्रवेश कर सकता है, वे सीमित हैं। इसलिए, तुम्हारे पास कुछ ज्ञान और प्रकाश होने का यह मतलब नहीं कि तुम्हारे पास सत्य की वास्तविकताएँ हैं। मुख्य बात जो तुम्हें देखनी चाहिए, यह है कि वह प्रकाश और ज्ञान सत्य के सार को छूता है या नहीं। यह सबसे महत्वपूर्ण बात है। कुछ लोगों को लगता है कि चूँकि वे प्रकाश डाल सकते हैं या उसकी थोड़ी सतही समझ प्रदान कर सकते हैं, इसलिए उनके पास सत्य है। इससे वे खुश हो जाते हैं, इसलिए वे दंभी और अहंकारी हो जाते हैं। वास्तव में वे अभी भी सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने से बहुत दूर होते हैं। लोगों के पास क्या सत्य हो सकता है? जिन लोगों के पास सत्य है, क्या वे कभी और कहीं भी गिर सकते हैं? जब लोगों के पास सत्य होता है, तो वे तब भी परमेश्वर की अवहेलना कैसे कर सकते हैं और कैसे उनको धोखा दे सकते हैं? अगर तुम दावा करते हो कि तुम्हारे पास सत्य है, तो यह साबित करता है कि तुम्हारे भीतर मसीह का जीवन है—तब तो यह भयानक है! तुम परमेश्वर बन गए, तुम मसीह बन गए? यह एक बेतुका बयान है, और पूरी तरह से लोगों के द्वारा अनुमानित है; यह मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं से संबंधित है, और परमेश्वर के साथ एक निभने योग्य स्थिति नहीं है" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। परमेश्वर के वचन बिल्कुल स्पष्ट हैं। अगर किसी इंसान के पास सत्य की थोड़ी-सी भी समझ है, तो यह सिर्फ उसके निजी अनुभव को दिखाता है। यह दूसरों के जीवन को कुछ दे या सत्य की जगह ले नहीं सकता! सत्य का सामना होने पर, थोड़ा-सा मानवीय ज्ञान महासागर में एक बूंद के समान है। इसका कोई महत्व नहीं। परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्य और पवित्र आत्मा से मिले प्रबोधन के बिना, हम कभी सत्य नहीं जान पाएंगे। सत्य का व्यावहारिक ज्ञान तो और भी नहीं होगा। मुझे परमेश्वर के वचन की थोड़ी-बहुत समझ सिर्फ इसलिए थी क्योंकि मैंने सभाओं में बहुत बार दूसरों की संगति और अनुभव सुने थे। उन्हें सुनकर मुझे कुछ सिद्धांत समझ आ गए। अगर मेरी संगति में कुछ प्रबोधन था भी, तो वह सत्य के अभ्यास और परमेश्वर के वचनों के अनुभव से मिला असली ज्ञान नहीं था, वे दूसरों की बातें थीं जो मैंने सीख ली थी। इसके बावजूद, मैंने दिखावा करने की पूंजी के तौर पर इनका इस्तेमाल किया, बेशर्मों की तरह भाई-बहनों के सामने घमंड करता रहा, और उनसे आदर पाने का आनंद उठाता रहा। मैं एकदम विवेकहीन था! मैंने लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास किया, पर शायद ही कभी किसी सत्य पर अमल किया हो। मैं परमेश्वर के वचन की थोड़ी-सी सतही समझ से ही संतुष्ट था, जिसे मैं अपनी पूंजी समझ बैठा, लगा कि मैं अधिक समझता हूँ और परमेश्वर के वचनों की समझ मुझे दूसरों से कहीं ज्यादा है, मगर असल में, मैंने अपने जीवन प्रवेश और सत्य की खोज के मामले में कोई प्रगति नहीं की। मैं बहुत अज्ञानी था!
एक दिन, अपने धार्मिक कार्य के दौरान, मैंने परमेश्वर के मसीह-विरोधियों को उजागर करते वचन का एक अंश पढ़ा जिससे मैं खुद को बेहतर ढंग से समझ पाया। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "मसीह-विरोधियों के व्यवहार का सार यह है कि वे लगातार ऐसे बहुत-से साधनों और तरीकों का इस्तेमाल करते रहते हैं, जिनसे वे रुतबा हासिल करने और लोगों को जीतने के अपने लक्ष्य को पूरा कर सकें, ताकि लोग उनका अनुसरण करें और उनका स्तुतिगान करें। संभव है कि अपने दिल की गहराइयों में वे जानबूझकर मानवता को लेकर परमेश्वर से होड़ न कर रहे हों, पर एक बात तो पक्की है, अगर मनुष्यों को लेकर वे परमेश्वर के साथ होड़ न भी कर रहे हों तो भी वे मनुष्यों के बीच रुतबा और शक्ति पाना चाहते हैं। अगर वह दिन आ भी जाए जब उन्हें यह अहसास होने लगे कि वे रुतबे के लिए परमेश्वर के साथ होड़ कर रहे हैं और वे अपने-आप पर थोड़ी-बहुत लगाम लगा लें, तो भी वे रुतबे और प्रतिष्ठा के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाते हैं; उन्हें पूरा विश्वास होता है कि वे दूसरों की स्वीकृति और सराहना प्राप्त करके वैध रुतबा प्राप्त कर लेंगे। संक्षेप में, भले ही मसीह-विरोधी जो कुछ भी करते हैं उससे वे अपने कर्तव्यों का पालन करते प्रतीत होते हैं, लेकिन उनका लक्ष्य लोगों को मूर्ख बनाना होता है, उनसे अपनी पूजा और अनुसरण करवाना होता है—ऐसे में, इस तरह अपने कर्तव्य का पालन करना उनके लिए अपना उत्कर्ष करना और गवाही देना होता है। लोगों को नियंत्रित करने और कलीसिया में सत्ता हासिल करने की उनकी महत्वाकांक्षा कभी नहीं बदलती। ऐसे लोग पूरी तरह से मसीह-विरोधी होते हैं। चाहे परमेश्वर कुछ भी कहे या करे, चाहे वह लोगों से कुछ भी चाहता हो, मसीह-विरोधी वह नहीं करते जो उन्हें करना चाहिए या अपने कर्तव्य उस तरह से नहीं निभाते कि वे परमेश्वर के वचनों और जरूरतों के अनुरूप हों, न ही वे उसके कथनों और सत्य को जरा-सा भी समझते हुए शक्ति और रुतबे का मोह ही त्यागते हैं। उनकी महत्वाकांक्षा और वासनाएँ तब भी बनी रहती हैं, उन पर सवार रहती हैं, उनके पूरे अस्तित्व को नियंत्रित करती हैं, उनके व्यवहार और विचारों को निर्देशित करती हैं, और उस रास्ते को तय करती है जिस पर वे चलते हैं। यही एक मसीह-विरोधी का असली रूप है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे लोगों को भ्रमित करने, फुसलाने, धमकाने और नियंत्रित करने का काम करते हैं')। परमेश्वर के वचन ने जो खुलासा किया, उससे मुझे मसीह-विरोधियों के कामों के सार की थोड़ी समझ मिली। मसीह-विरोधी चाहे कितने ही उत्साह से कार्य करें, खुद को खपाएं, कष्ट उठाएं या कीमत चुकाएं, या प्रेम से अपने भाई-बहनों की मदद करें, उनकी मंशाएं हमेशा एक जैसी रहती हैं। उनके सारे काम दूसरों के मन में अच्छी छवि बनाने के लिए होते हैं, ताकि लोगों से प्रशंसा पाने और अपनी पूजा करवाने का उनका लक्ष्य पूरा हो सके। वे दिखावा करने के कई तरीके अपनाते हैं, ताकि भनक लगे बिना वे लोगों को अपने करीब ले आएँ। मसीह-विरोधियों और महादूतों के कर्मों का सार एक ही है। वे हमेशा ऊंचा ओहदा चाहते हैं, इंसान और रुतबे के लिए परमेश्वर से होड़ करते हैं। रुतबे और ताकत की उनकी महत्वाकांक्षा कभी नहीं बदलती। अपने व्यवहार को समझने के लिए मैंने मसीह-विरोधियों के इन लक्षणों का इस्तेमाल किया। हालांकि मैं लोगों के लिए परमेश्वर से होड़ नहीं करना चाहता था, पर दूसरों के साथ संगति करते हुए, यही सोचता कि ऐसी संगति कैसे करूं कि दूसरों की नजरों में उठ जाऊँ और वे मेरी पूजा करें। मैं तो यह भी चाहता था कि परमेश्वर के वचनों को समझने में कोई परेशानी होने पर, वे मेरे पास आएं। इस लक्ष्य को पाने के लिए, मैंने अकेले में भजन के बोलों को समझने में काफी मेहनत की। क्योंकि मैंने परमेश्वर का उत्कर्ष नहीं किया, उसकी गवाही नहीं दी, और न ही परमेश्वर पर भरोसा करने में अपने भाई-बहनों की अगुआई की, इसलिए वे परमेश्वर से दूर होते चले गए, भजन के बोलों पर विचार करने के लिए वे परमेश्वर पर भरोसा न करके मेरी संगति का इंतजार करते रहते थे। क्या ऐसा करके मैं उन्हें अपने करीब नहीं ला रहा था? मैं एक मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रहा था! इतने बरसों तक विश्वास रखने के बाद, भले ही मैं परमेश्वर के वचन की थोड़ी-बहुत समझ पर चर्चा कर सकता था, पर मेरा जीवन स्वभाव बिल्कुल नहीं बदला था। मुझमें खुलकर इंसान और रुतबे के लिए परमेश्वर से होड़ करने की हिम्मत नहीं थी, पर अपने दिल में मैंने शोहरत और रुतबे के पीछे भागना कभी नहीं छोड़ा। सही हालात में, मैं अनजाने में दिखावा करता था, ताकि लोग मेरे बारे में ऊंचा सोचें। मैं बहुत नीच था। बरसों के विश्वास के बाद भी, मैं सिद्धांत की बातें करता, मेरे पास कोई वास्तविकता नहीं थी, फिर भी अहंकार में मैंने खुद को अच्छा समझा। मुझे खुद की जरा-भी समझ नहीं थी। मैंने अपने आसपास के युवा भाई-बहनों के बारे में सोचा। हालांकि कुछ लोगों को विश्वास करते ज्यादा समय नहीं हुआ था और परमेश्वर के वचनों की उनकी समझ सतही थी, पर वे सच्चे मन से खोज करते थे। परमेश्वर के वचन समझ आने पर, वे अभ्यास करके फौरन उनमें प्रवेश कर पाते थे, और भ्रष्ट स्वभाव उजागर होने पर, फौरन सत्य खोजकर उसे ठीक कर पाते थे। उनसे जितनी तुलना करता, उतनी ही शर्मिंदगी होती। मैं कुछ नहीं था, फिर भी मैंने हमेशा अपने भाई-बहनों के सामने अपनी वरिष्ठता का दिखावा किया। मैं वाकई बहुत बेशर्म था! अगर परमेश्वर ने चेतावनी देने और अनुशासित करने के लिए बीमारी का इस्तेमाल नहीं किया होता, तो मैं अनजाने में ही परमेश्वर विरोधी मार्ग पर चल पड़ता!
मैंने परमेश्वर के वचन के कुछ अंश पढ़े। "जीवधारियों में से एक होने के नाते, मनुष्य को अपनी स्थिति को बना कर रखना होगा और शुद्ध अंतःकरण से व्यवहार करना होगा। सृष्टिकर्ता के द्वारा तुम्हें जो कुछ सौंपा गया है, कर्तव्यनिष्ठा के साथ उसकी सुरक्षा करो। अनुचित ढंग से आचरण मत करो, या ऐसे काम न करो जो तुम्हारी क्षमता के दायरे से बाहर हों या जो परमेश्वर के लिए घृणित हों। महान या अद्भुत व्यक्ति बनने की चेष्टा मत करो, दूसरों से श्रेष्ठ होने की कोशिश मत करो, न ही परमेश्वर बनने की कोशिश करो। लोगों को ऐसा बनने की इच्छा नहीं करनी चाहिए। महान या अद्भुत व्यक्ति बनने की कोशिश करना बेतुका है। परमेश्वर बनने की कोशिश करना और भी अधिक लज्जाजनक है; यह घृणित है और नीचता भरा है। जो काम तारीफ़ के काबिल है और जिसे प्राणियों को सब चीजो से ऊपर मानना चाहिए, वह है एक सच्चा जीवधारी बनना; यही वह एकमात्र लक्ष्य है जिसे पूरा करने का निरंतर प्रयास सब लोगों को करना चाहिए" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I)। "कलीसिया के अंदर तुम्हें इस तरह का परिवेश रखना चाहिए—हर कोई सत्य पर ध्यान केंद्रित करे और उसे पाने का प्रयास करे। लोग कितने भी बूढ़े अथवा युवा हों या वे पुराने विश्वासी हों। न ही इस बात से फर्क पड़ता है कि उनकी काबिलियत ज्यादा है या कम है। इन चीजों से फर्क नहीं पड़ता। सत्य के सामने सभी बराबर हैं। तुम्हें यह देखना चाहिए कि सही और सत्य के अनुरूप कौन बोल रहा है, परमेश्वर के घर के हितों की कौन सोच रहा है, कौन सबसे अधिक परमेश्वर के घर का कार्यभार उठा रहा है, सत्य की अधिक स्पष्ट समझ किसे है, धार्मिकता की भावना को कौन साझा कर रहा है और कौन कीमत चुकाने को तैयार है। ऐसे लोगों का उनके भाई-बहनों द्वारा समर्थन और सराहना की जानी चाहिए। ईमानदारी का यह परिवेश, जो सत्य का अनुकरण करने से आता है, कलीसिया के अंदर व्याप्त होना चाहिए; इस तरह से, तुम्हारे पास पवित्र आत्मा का कार्य होगा, और परमेश्वर तुम्हें आशीष और मार्गदर्शन प्रदान करेगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'मानव सदृशता पाने के लिए आवश्यक है अपने समूचे हृदय, मन और आत्मा से अपना कर्तव्य सही-सही पूरा करना')। इन वचनों से मुझे समझ आया कि वह चाहता है हम सृजित प्राणी की तरह जमीन से जुड़े रहकर अच्छा बर्ताव करें और कर्तव्य निभाएं। लोगों को इसी तरह अनुसरण करना चाहिए, और यही समझ रखनी चाहिए। मुझे अपने वरिष्ठ होने का दिखावा नहीं करना चाहिए था। इससे फर्क नहीं पड़ता कि मैंने कितने बरस परमेश्वर में विश्वास किया है और कलीसिया में कितने कर्तव्य निभाए हैं, या मेरे पास परमेश्वर के वचन का कितना अनुभव और ज्ञान है, मैं हमेशा एक सृजित प्राणी ही रहूँगा, इसलिए मुझे अपने भाई-बहनों के साथ बराबरी पर रहकर ही सत्य खोजना और कर्तव्य निभाना चाहिए। पवित्र आत्मा का कार्य पाने का यही एकमात्र रास्ता है।
परमेश्वर की इच्छा समझने के बाद, मैं जान गया कि मुझे आगे कौन सा मार्ग चुनना है। इसके बाद, अपने भाई-बहनों के साथ भजन के बोलों पर संगति करते वक्त या सभाओं में, मैंने बिना सोचे दिखावा करना बंद कर दिया, सबकी संगति ध्यान से सुनने लगा। मैंने देखा कुछ लोगों की अनुभव और ज्ञान की बातों में थोड़ी प्रबुद्धता और रोशनी थी जिसे मैं नहीं समझ पाया था, इससे मुझे और भी ज्यादा शर्मिंदगी महसूस हुई। पहले, मैं सोचता था कि मेरी संगति ही सबसे गहरी है, पर अब मैं जान गया कि मैं संगति में अपने भाई-बहनों से बेहतर नहीं था। मैं बहुत अहंकारी था और खुद की बड़ाई करता था, इसलिए मैंने खुद को सबसे अच्छा समझा, मैं खुद को बिल्कुल नहीं जानता था। मैं जान गया कि मुझे अपने स्थान पर रहकर, दूसरों की संगति को ध्यान से सुनना होगा, परमेश्वर की प्रबुद्धता और रोशनी को स्वीकारना सीखना होगा। सिर्फ इसी तरीके से मेरी प्रगति मुमकिन थी।
फिर एक दिन, अचानक एक भाई ने एक मैसेज भेजकर मुझे दो भजनों के बोलों पर अपनी समझ साझा करने के कहा, क्योंकि ज्यादा समय नहीं था, तो मैं पहले से तैयारी नहीं कर पाया। मुझे बहुत चिंता हो रही थी, "अगर मैंने अच्छी तरह संगति नहीं की, तो भाई मेरे बारे में क्या सोचेगा?" इस पल, अचानक मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से परमेश्वर के वचन की संगति से लोगों के सामने ऊंचा उठना चाहता था, इसलिए मैंने फौरन परमेश्वर से प्रार्थना की, कहा कि मैं अपने गलत इरादों को त्यागना चाहता हूँ। उसके बाद, मैंने अपने भाई से कहा, "मुझे भी इन दो भजनों की अच्छी समझ नहीं है, मैं इनके बारे में ज्यादा नहीं जानता, पर हम साथ मिलकर संगति कर सकते हैं।" सही दिशा में मन लगाने से मैंने परमेश्वर का मार्गदर्शन देखा, मुझे अपने भाई की संगति से थोड़ी प्रेरणा मिली, और उसकी संगति के आधार पर, मैंने अपनी समझ के बारे में थोड़ी बात की। इस तरह, हमने एक दूसरे की मदद की, और संगति करते हुए हमारा दिल रोशन हो गया।
मैंने वाकई अनुभव किया कि जब हम दिखावा नहीं करते, और भाई-बहनों के साथ बराबरी पर रहकर सत्य पर संगति करते हैं, तो हमें पवित्र आत्मा का कार्य हासिल होता है, हमारे दिल को सुकून और शांति मिलती है। परमेश्वर का धन्यवाद!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?