अहंकारी व्यक्ति निश्चित ही ठोकर खाता है

17 अक्टूबर, 2020

शिनजिए, चीन

सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "अहंकार मनुष्‍य के भ्रष्‍ट स्‍वभाव की जड़ है। लोग जितने ही ज्‍़यादा अहंकारी होते हैं, उतनी ही अधिक संभावना होती है कि वे परमेश्‍वर का प्रतिरोध करेंगे। यह समस्‍या कितनी गम्‍भीर है? अहंकारी स्‍वभाव के लोग न केवल बाकी सभी को अपने से नीचा मानते हैं, बल्कि, सबसे बुरा यह है कि वे परमेश्‍वर को भी हेय दृष्टि से देखते हैं। भले ही कुछ लोग, बाहरी तौर पर, परमेश्‍वर में विश्‍वास करते और उसका अनुसरण करते दिखायी दें, तब भी वे उसे परमेश्‍वर क़तई नहीं मानते। उन्‍हें हमेशा लगता है कि उनके पास सत्‍य है और वे अपने बारे में बहुत ऊँचा सोचते हैं। यही अहंकारी स्वभाव का सार और जड़ है और इसका स्रोत शैतान में है। इसलिए, अहंकार की समस्‍या का समाधान अनिवार्य है। यह भावना कि मैं दूसरों से बेहतर हूँ—एक तुच्‍छ मसला है। महत्‍वपूर्ण बात यह है कि एक व्‍यक्ति का अहंकारी स्‍वभाव उसको परमेश्‍वर के प्रति, उसके विधान और उसकी व्‍यवस्‍था के प्रति समर्पण करने से रोकता है; इस तरह का व्‍यक्ति हमेशा दूसरों पर सत्‍ता स्‍थापित करने की ख़ातिर परमेश्‍वर से होड़ करने की ओर प्रवृत्‍त होता है। इस तरह का व्‍यक्ति परमेश्‍वर में तनिक भी श्रद्धा नहीं रखता, परमेश्‍वर से प्रेम करना या उसके प्रति समर्पण करना तो दूर की बात है" (परमेश्‍वर की संगति)। परमेश्वर के इन वचनों को पढ़कर मुझे कुछ समय पहले का अपना अनुभव याद आ गया। तब मैं बहुत घमंडी और दंभी हुआ करती थी। मैं कई सालों तक कलीसिया की अगुआ रही थी, मैंने थोड़े काम किये और कष्ट भी उठाया, अपने कर्तव्य में कुछ व्यावहारिक समस्याओं को भी सुलझा पाई। इसलिए मैंने इन सबका उपयोग अपने फ़ायदे के लिए किया, और दूसरों पर बिलकुल भी ध्यान नहीं दिया। इसके बाद मुझे निपटाया और अनुशासित किया गया, और परमेश्वर के वचनों के न्याय और प्रकाशन के माध्यम से, अंततः मुझे अपनी घमंडी प्रकृति की कुछ समझ प्राप्त हुई। मुझे पछतावा हुआ और अपने आप से घृणा भी हुई। मैंने सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान देना शुरू कर दिया, और फिर मुझमें कुछ बदलाव आये।

2015 में एक कलीसिया में मुझे अगुआ का पद मिला। बहन ली मेरे साथ काम करती थी, और उसने हाल ही में एक अगुआ का काम करना शुरू किया था। कलीसिया के उपयाजक और समूह के अगुआ भी आस्था में काफी नये थे, इसलिए सत्य पर उनकी सहभागिता थोड़ी सतही थी। मैंने सोचा, "मैं तुम सभी से ज़्यादा समय से विश्वासी रही हूँ और मैं काफी समय से अगुआ भी हूँ। मुझे यहाँ मुख्य भूमिका निभानी होगी और सभी को दिखाना होगा कि अनुभव से क्या फ़र्क आता है।" इसलिए, किसी भी मामले में मैं सबसे आगे रहती थी, जब भी किसी भाई या बहन को कमज़ोरी महसूस होती या उन्हें अपने कर्तव्य में परेशानियों का सामना करना पड़ता, जब भी कलीसिया के काम में कोई बाधा आती, कठिन से कठिन समस्याओं के लिए या जिन चीज़ों का मेरे सहभागी और सहकर्मी समाधान नहीं कर पाते, उन सभी के लिए मैं आगे आती थी। कुछ समय बाद कलीसिया का काम तेज़ी से चलने लगा और भाई-बहनों की स्थिति भी बदल गयी। वे सभी अपना कर्तव्य सही ढंग से पूरा कर पा रहे थे। वे अपनी समस्याओं पर मेरी सहभागिता को पसंद भी करते थे और मेरी राय मांगते थे। मैं अपने आप से काफ़ी खुश थी और अपने किये गए कामों को गिनने से खुद को न रोक सकी, सोचने लगी : "मेरे बिना, कलीसिया का काम इतनी अच्छी तरह से आगे बढ़ना मुमकिन ही नहीं है। अगर मैंने सहभागिता न की होती, तो दूसरों की स्थिति में इतना सुधार नहीं आता। लगता है जैसे मैं सत्य की वास्तविकता को अच्छी तरह जानती हूँ और मैं व्यावहारिक काम कर सकती हूँ।" बाद में, बहन ली को कुछ काम से घर वापस जाना था, इसलिए मुझे अकेले ही कलीसिया का काम संभालना पड़ा। पहले तो मैंने थोड़ा तनाव महसूस किया और हर समय परमेश्वर को अपने दिल में रखा। हर सभा के बाद मैंने इस बात का जायज़ा लिया कि सभा कैसी रही, कोई भी कमज़ोर या नकारात्मक महसूस करता, तो मैं उसकी मदद करने के लिए दौड़ पड़ती। कुछ समय बाद, मैंने देखा कि सभी लोग इकठ्ठा होकर अपना काम उसी तरह कर रहे थे जैसे उन्हें करना चाहिए, कलीसिया का सारा काम सहजता से चल रहा था। मैंने राहत की साँस ली। मैं अपने आप से काफ़ी खुश थी। मुझे लगा जैसे मैंने इन सालों में एक अगुआ के रूप में सेवा करते हुए खुद को काबिल साबित कर दिया है। मैंने बहुत कुछ देखा और बहुत सारी समस्याओं को सुलझाया था; मेरे पास कई तरह के काम के अनुभव थे और मैं अपने दम पर चीज़ों की देखभाल कर सकती थी। मुझे लगा कि मैं वास्तव में कलीसिया का एक स्तंभ हूँ। ख़ास तौर से उस दौरान, जब मैं सुबह जल्दी उठती थी और देर रात तक काम करती थी, मैंने कभी थकान या परेशानी की शिकायत नहीं की, मुझे वाकई ऐसा लगा कि मैं श्रेय पाने की हकदार हूँ। इससे पहले कि मैं जान पाती, मैं बहुत आत्म-संतुष्टि की स्थिति में जीने लग गयी थी और जब भी मैं परमेश्वर के उन वचनों को पढ़ती जिनमें मानवजाति का न्याय करने और उसे उजागर करने की बात है, तो मैं उन्हें अपने आप पर लागू नहीं करती थी। जब भाई-बहन बुरी स्थिति में होते, तो मैंने उनके साथ सत्य पर सहभागिता नहीं करती, बल्कि मैं उनका तिरस्कार कर देती थी और यह कह कर अक्सर उन्हें डांट देती थी कि, "आप इतने लंबे समय से विश्वासी रहे हैं, लेकिन आप अभी भी सत्य का अनुसरण नहीं करते। आपमें थोड़ा-सा भी बदलाव कैसे नहीं आया?" कभी-कभी किसी बात पर सहभागिता करने के बाद, भाई-बहन कहते थे कि वे अभी भी नहीं जानते कि उन्हें क्या करना है। उनसे इसका कारण पूछे बिना ही मैं यह कहते हुए सीधा उन पर दोष मढ़ देती "ऐसा नहीं कि आप जानते नहीं हैं, बात ये है कि आप इसे अभ्यास में लाना ही नहीं चाहते!" वे सभी मेरे आगे खुद को बेबस महसूस करने लगे थे और अब अपनी समस्याओं के बारे में मुझसे बात करने से डरते थे।

बाद में बहन लियू को मेरे साथ काम करने के लिए अगुआ के रूप में चुना गया। मैंने सोचा कि क्योंकि वो आस्था में नई है और हो सकता है कि चर्चा के बाद भी वो कुछ बातों को न समझ पाये, इसलिए कलीसिया के ज़्यादातर छोटे-बड़े मामलों में अंतिम राय मुझे ही देनी होगी। कभी-कभी मैं कोई फ़ैसला लेने के बाद उसे लागू करने के लिए बहन लियू को भेज दिया करती थी। एक बार, हमें एक खास काम के लिये किसी उपयुक्त व्यक्ति के नाम का सुझाव देने के लिए एक अगुआ का पत्र मिला। मैं जानती थी कि यह परमेश्वर के घर के कार्य से संबंधित है, इसलिए इस पर अपने सहभागी और सहकर्मियों से इस पर चर्चा करना ज़रूरी था, लेकिन फिर मैंने सोचा, "मैं इतने लंबे समय से कलीसिया में अपना कर्तव्य निभा रही हूँ। मुझे भाई-बहनों के बारे में सब कुछ पता है, इसलिए मेरा फ़ैसला लेना सही रहेगा।" तो, मैंने बहन लियू के साथ चर्चा किये बिना ही फ़ैसला कर लिया और फ़िर उन्हें चीज़ों की व्यवस्था करने के लिए भेज दिया। भले ही हम दोनों साथ मिलकर अगुआ के रूप में काम कर रहे थे, फिर भी मैं उसके साथ किसी मातहत की तरह व्यवहार कर रही थी। कभी-कभी वो जब किसी चीज़ का अच्छे से ध्यान नहीं रखती थी, तो मैं उससे नाराज़ हो जाती थी। वो नकारात्मकता में जी रही थी और ऐसा महसूस कर रही थी कि जैसे वो कुछ नहीं समझ सकती या अपना कर्तव्य सही ढंग से नहीं निभा सकती। वो उस स्थिति में इसी लिए पहुँच गयी थी क्योंकि मैंने उस पर दबाव बना रखा था, लेकिन इसके बावजूद मैंने खुद पर विचार नहीं किया। बल्कि, मुझे तो और भी दृढ़ता से यह लगने लगा कि मुझमें सत्य की वास्तविकता है और मैं अपने काम में सक्षम हूँ, इसलिए मुझे कलीसिया के काम को संभालना होगा। मैं और भी ज्यादा दंभी और घमंडी बन गयी। जब काम की चर्चा के दौरान सहकर्मी अलग-अलग सुझाव देते, तो मैं काफ़ी बार खोजकी बिलकुल भी कोशिश नहीं करती, बल्कि तपाक से उनके सुझाव को नकार देती मैंने सोचा, "तुम लोग जानते ही क्या हो? मैं सालों से अगुआ हूँ, तो क्या मैं तुम सभी से बेहतर नहीं जानती?" कलीसिया के काम में हर बात पर आख़िरी फ़ैसला मैं ही लेती थी। बाद में परमेश्वर ने मुझसे निपटने के लिए कुछ विशेष स्थितियाँ पैदा कर दीं। मेरे काम में लगातार अड़चनें आने लगीं : मैं लोगों से नियत समय पर नहीं मिल रही थी, और ऐसे लोगों को नियुक्त कर रही थी जो सिद्धांतों के अनुरूप नहीं थे। अगुआ ने मेरे काम में ग़लतियाँ निकाली, मुझे निपटाया और मेरी काट-छांट की। यह सब होने के बावजूद, मैंने खुद पर विचार नहीं किया। मैंने सोचा कि मुझे बस थोड़ा और ध्यान देने की ज़रूरत है। एक सहकर्मी ने मुझे सावधान किया, "क्या आपको इस पर विचार नहीं करना चाहिए कि ये परेशानियाँ क्यों सामने आ रही हैं?" मैंने तिरस्कार जताते हुए कहा, "कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं होता और सभी लोग ग़लतियाँ करते हैं। हर बात पर विचार करने की कोई ज़रूरत नहीं है।" कुछ भाई-बहनों ने मुझसे पूछा कि मैं ठीक तो हूँ, मैंने कहा कि मैं ठीक हूँ, लेकिन अंदर-ही-अंदर मैं सोच रही थी, "कुछ ग़लत क्यों होगा? अगर मैं किसी बुरी स्थिति में हूँ भी, तो मैं उसका सामना अपने आप कर सकती हूँ। तुम लोगों को चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं। मैं इतने लंबे समय से अगुआ रही हूँ, तो क्या मैं सत्य को तुम सभी से बेहतर नहीं जानती?" चाहे वे लोग मुझे किसी भी तरह से आगाह करते, मैं उन पर बिलकुल भी ध्यान नहीं देती। मैं पूरी तरह से अपने भ्रष्ट स्वभाव में जी रही थी और मेरी आत्मा काली होती जा रही थी। परमेश्वर के वचनों को पढ़ते समय मेरी आँख लगने लगी थी और प्रार्थना में कहने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं होता था। कलीसिया में नई-नई परेशानियाँ आने लगीं। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। अनेक समस्याओं के संबंध में मुझमें अंतर्दृष्टि नहीं थी और मुझे नहीं पता था कि उनसे निपटना कैसे है। जल्दी ही, कलीसिया में एक मत सर्वेक्षण किया गया, सभी भाई-बहनों ने कहा कि मैं बहुत घमंडी हूँ और सत्य को स्वीकार करना नहीं चाहती। उन्होंने कहा कि मैं तानाशाह हूँ, मैं लोगों को डाँटती हूँ और उन्हें बेबस कर देती हूँ। अंतत: मुझे मेरे पद से हटा दिया गया। उस दिन, अगुआ ने मेरे बारे में सभी के मूल्यांकन को मेरे साथ साझा किया। मैंने महसूस किया कि परमेश्वर भाई-बहनों के ज़रिए मुझे उजागर और मेरा निपटारा करते हुए मुझ पर अपना गुस्सा निकाल रहा है। मैं ख़ुद को एक आवारा कुत्ते की तरह महसूस करने लगी जिससे हर कोई घृणा करता है और यहाँ तक कि परमेश्वर द्वारा भी ठुकरा दिया गया है। मैं समझ नहीं पा रही थी कि मैं इतना नीचे कैसे गिर गयी। पीड़ित अवस्था में, मैं परमेश्वर के सामने प्रार्थना करने आयी : "हे परमेश्वर, मैंने हमेशा से ही खुद को कलीसिया के काम को लेकर ज़िम्मेदार समझा, मुझे लगा कि मुझे सत्य की वास्तविकता है। मैंने कभी भी यह नहीं सोचा था कि मेरे सामने इतनी परेशानियाँ होंगी जितनी अभी हैं। दूसरों की नज़रों में, मैं सिर्फ़ एक घमंडी इंसान हूँ जो सत्य को स्वीकार नहीं करती। परमेश्वर, मैं नहीं जानती कि मैं ऐसी कैसे बन गयी। मुझे प्रबुद्ध करें और राह दिखाएँ ताकि मैं खुद को जान पाऊँ और आपकी इच्छा को समझ सकूँ।"

इसके बाद मैंने परमेश्वर के इन वचनों को पढ़ा : "तुम लोगों के लिए सबसे अच्छा यह होगा कि तुम सब स्वयं को जानने की सच्चाई पर ज़्यादा ध्यान दो। तुम लोग परमेश्वर की कृपा क्यों नहीं प्राप्त कर पाए हो? तुम्हारा स्वभाव उसे घिनौना क्यों लगता है? तुम्हारे शब्द उसके अंदर जुगुप्ता क्यों उत्पन्न करते हैं? जैसे ही तुम लोग थोड़ी-सी निष्ठा दिखाते हो, तो खुद ही तुम अपनी तारीफ करने लगते हो और अपने छोटे से योगदान के लिए पुरस्कार चाहते हो; जब तुम थोड़ी-सी आज्ञाकारिता दिखाते हो तो दूसरों को नीची दृष्टि से देखते हो, और कोई छोटा-मोटा काम संपन्न करते ही तुम परमेश्वर का अनादर करने लगते हो। ... वे जो अपने कर्तव्यों को निभाते हैं और वे जो नहीं निभाते; वे जो अगुवाई करते हैं और वे जो अनुसरण करते हैं; वे जो परमेश्वर का स्वागत करते और वे जो नहीं करते; वे जो दान देते हैं और वे जो नहीं देते; वे जो उपदेश देते हैं और वे जो वचन को ग्रहण करते हैं, इत्यादि; इस प्रकार के सभी लोग अपनी तारीफ करते हैं। क्या तुम्हें यह हास्यास्पद नहीं लगता? तुम लोग भली-भांति जानते हो कि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो, फिर भी तुम परमेश्वर के अनुरूप नहीं हो सकते हो। तुम लोग भली-भांति यह जानते हुए भी कि तुम सब बिल्कुल अयोग्य हो, तुम लोग डींगें मारते रहते हो। क्या तुम्हें ऐसा महसूस नहीं होता कि तुम्हारी समझ इतनी खराब हो चुकी है कि तुम्हारे पास अब आत्म-नियंत्रण ही नहीं रहा है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो मसीह के साथ असंगत हैं वे निश्चित ही परमेश्वर के विरोधी हैं)। "यह मत सोचो कि तुम सबकुछ समझते हो। मैं तुम्हें बता दूँ कि तुमने जो कुछ भी देखा और अनुभव किया है, वह मेरी प्रबन्धन योजना के हजारवें हिस्से को समझने के लिए भी अपर्याप्त है। तो फिर तुम इतनी ढिठाई से पेश क्यों आते हो? तुम्हारी जरा-सी प्रतिभा और अल्पतम ज्ञान यीशु के कार्य में एक पल के लिए भी उपयोग किए जाने के लिए पर्याप्त नहीं है! तुम्हें वास्तव में कितना अनुभव है? तुमने अपने जीवन में जो कुछ देखा और सुना है और जिसकी तुमने कल्पना की है, वह मेरे एक क्षण के कार्य से भी कम है! तुम्हारे लिए यही अच्छा होगा कि तुम आलोचक बनकर दोष मत ढूँढो। चाहे तुम कितने भी अभिमानी हो जाओ, फिर भी तुम्हारी औकात चींटी जितनी भी नहीं है! तुम्हारे पेट में उतना भी नहीं है जितना एक चींटी के पेट में होता है! यह मत सोचो चूँकि तुमने बहुत अनुभव कर लिया है और वरिष्ठ हो गए हो, इसलिए तुम बेलगाम ढंग से हाथ नचाते हुए बड़ी-बड़ी बातें कर सकते हो। क्या तुम्हारे अनुभव और तुम्हारी वरिष्ठता उन वचनों के परिणामस्वरूप नहीं है जो मैंने कहे हैं? क्या तुम यह मानते हो कि वे तुम्हारे परिश्रम और कड़ी मेहनत द्वारा अर्जित किए गए हैं?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, दो देहधारण पूरा करते हैं देहधारण के मायने)परमेश्वर के वचन हूबहू मेरी स्थिति का ख़ुलासा कर रहे थे। मैं बहुत दुखी हो गयी, और इसके बाद खुद पर विचार करने लगी। कुछ सालों तक एक अगुआ के रूप में अपना कर्तव्य निभाने के बाद, मैंने सोचा था कि क्योंकि मैं उस पद पर इतने समय से हूँ, इसलिए मुझे ज़्यादा सत्य का ज्ञान है और मैं दूसरों से ज़्यादा सक्षम हूँ, मैं कलीसिया की एक स्तंभ हूँ, और मेरे बिना कलीसिया का काम नहीं चल सकता। जब मैंने अपने कर्तव्य में कुछ उपलब्धि हासिल कर ली, तो मुझे लगा कि मैं सब कुछ जानती हूँ, मुझमें सत्य की वास्तविकता है, मैं और सभी से बेहतर हूँ। मुझे लगा कि कुछ समय तक आस्था रख लेने कुछ अनुभव कर लेने मात्र से मुझे घमंडी होने का हक मिल गया था और मैं अन्य लोगों की तुलना में ऊंचे पायदान पर पहुँच गयी हूँ। मैंने भाई-बहनों के सुझावों पर बिलकुल भी ध्यान नहीं दिया, उनके बारे में खोजना या उन्हें स्वीकारना तो दूर की बात है। वे लोग मेरी परवाह करते या मेरा हालचाल पूछते तो भी मुझे लगता कि, मेरा आध्यात्मिक कद उनसे कहीं ज़्यादा बड़ा है। इसलिए मैं अपना ध्यान रख सकती हूँ और मुझे उनकी कोई मदद नहीं चाहिए। जब मुझे उनकी ग़लतियों और परेशानियों के बारे में पता चलता, तो मैं उनकी मदद करने के लिए सत्य पर सहभागिता करने के बजाय मैं उन्हें डांट देती थी। वे मेरी नज़रों में कुछ ठीक कर ही नहीं सकते थे और मैं बस घमंडी बनकर उन्हें डांटती रहती थी। इसी कारण, भाई-बहन मेरे सामने बेबस हो गए थे और निराशा में रहने लगे थे। यह अपना कर्तव्य निभाना कैसे हुआ? मैं तो सीधे तौर पर दुष्टता कर रही थी। मैं सिर्फ एक घमंडी, दंभी शैतानी स्वभाव को प्रकट कर रही थी। जब अंत के दिनों में परमेश्वर ने सत्य को व्यक्त करने और मनुष्य को बचाने का कार्य करने के लिए देहधारण किया, तब उसने बहुत महान कार्य किया, लेकिन उसने कभी दिखावा नहीं किया, और उसने खुद को परमेश्वर की तरह पेश नहीं किया। इसके बजाय, वह तो विनम्र और गुप्त रहकर, चुपचाप उद्धार का कार्य कर रहा था। मैंने देखा कि परमेश्वर बहुत ही विनम्र और प्यारा है, लेकिन मैं तो इतनी गहराई तक शैतान द्वारा भ्रष्ट की जा चुकी थी और शैतानी स्वभावों से भरी हुई थी, खुद को और अपनी काबिलियत को बहुत ऊँचा मानती थी, सिर्फ़ इसलिए क्योंकि मैंने कुछ समय तक आस्था रखी थी, मैं ज़्यादा सिद्धांतों को समझती थी और मेरे पास कार्य का कुछ अनुभव भी था। मैं सत्ता की कुर्सी पर चढ़ गयी थी और उतरने का नाम नहीं ले रही थी। मुझमें आत्म-ज्ञान का पूर्ण अभाव था, मुझे अपने बारे में कुछ भी पता नहीं था, और मैं हद दर्जे की अभिमानी थी। मैं घिनौनी हो गयी थी। परमेश्वर द्वारा उजागर किये जाने के बाद, मैंने आख़िरकार अपना असल आध्यात्मिक कद देखा। मैं अपने कर्तव्य के दौरान सिर्फ़ पवित्र आत्मा के कार्य की वजह से ही कुछ समस्याओं को सुलझा पा रही थी। उसके कार्य और मार्गदर्शन के बिना, मैं पूरी तरह से दिशाहीन थी और कुछ नहीं समझती थी। मैं अपनी ही समस्याओं को सुलझा नहीं पा रही थी, दूसरों की समस्याओं को सुलझाना तो दूर की बात है। इसके बावजूद, मैं बिलकुल ढीठ बन गयी थी। मैं वास्तव में बहुत घमंडी थी। उस समय मुझे अपने व्यवहार पर शर्म आई।

फ़िर मैंने परमेश्वर के इन वचनों को पढ़ा : "अगर तुम्हारे भीतर वाकई सत्य है, तो जिस मार्ग पर तुम चलते हो वह स्वाभाविक रूप से सही मार्ग होगा। सत्य के बिना, बुरे काम करना आसान है और तुम यह अपनी मर्जी के बिना करोगे। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारे भीतर अहंकार और दंभ मौजूद हुआ, तो तुम परमेश्वर की अवहेलना करने से खुद को रोकना असंभव पाओगे; तुम्हें महसूस होगा कि तुम उसकी अवहेलना करने के लिए मज़बूर किये गये हो। तुम ऐसा जानबूझ कर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, वे तुमसे स्वयं की प्रशंसा करवाने की वजह होंगे, निरंतर तुमको दिखावे में रखवाएंगे और अंततः परमेश्वर के स्थान पर बैठाएंगे और स्वयं के लिए गवाही दिलवाएंगे। अंत में तुम आराधना किए जाने हेतु सत्य में अपने स्वयं के विचार, अपनी सोच, और अपनी स्वयं की धारणाएँ बदल लोगे। देखो लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन कितनी बुराई करते हैं! अपने बुरे कर्मों के समाधान के लिए, पहले उन्हें अपनी प्रकृति की समस्या को हल करना होगा। स्वभाव में बदलाव किए बिना, इस समस्या का मौलिक समाधान हासिल करना संभव नहीं है"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है')। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मेरी घमंडी प्रकृति ही मेरे बुरे काम करने और परमेश्वर का विरोध करने की जड़ थी। अपनी घमंडी प्रकृति के कारण, जब भी मुझे अपने कामकाज में कुछ सफलता प्राप्त होती, तो मैं पवित्र आत्मा के कार्य के परिणामों का श्रेय लेने लगती थी, और अपने आप को कलीसिया का सम्मानित व्यक्ति दिखाती थी। मैं बेशर्मी से खुद को परमेश्वर के उद्धार का पात्र समझ बैठी थी, जबकि मेरे अंदर बिलकुल भी आत्म-ज्ञान नहीं था। अपने कामकाज में, मैं निरंतर अपने वरिष्ठ होने की अकड़ दिखाती थी, खुद को दूसरों से बेहतर और ऊँचा मानती थी, हमेशा दूसरों पर अपनी धौंस जमाती थी। मैंने तो भाई-बहनों को डांटने के लिए परमेश्वर के वचनों तक का भी इस्तेमाल किया, काम की व्यवस्था करते वक्त मैं चीज़ों के बारे में अपने साथ काम करने वाली बहन के साथ भी चर्चा नहीं करती थी। बल्कि, मैं तानाशाही करने लगती थी और आख़िरी फ़ैसला ख़ुद ही लेती थी। मैंने तो परमेश्वर के घर के कार्य के महत्वपूर्ण मामलों पर भी एकतरफ़ा फैसले लिये। मैंने उस बहन को कठपुतली बना कर कलीसिया में अपनी सत्ता स्थापित कर ली थी। अपनी घमंडी प्रकृति के कारण, मैंने सभी का अपमान किया और परमेश्वर को भी अपने दिल में नहीं रखा। समस्या आने पर, मैंने कभी भी सत्य के सिद्धांतों की खोज करने की कोशिश नहीं की, मैंने अपने विचारों को ही सत्य समझा, और सबको अपनी ही बात सुनने और आज्ञा मानने पर मजबूर किया। इससे मुझे वो बात याद गयी जब परमेश्वर ने स्वर्गदूतों के प्रबंधन के लिए महास्वर्गदूत को कुछ शक्ति दी थी, लेकिन उसने घमंड में आ कर अपना सारा विवेक गँवा दिया। उसे लगा उसमें विशेषता आ गयी है और उसने परमेश्वर से बराबरी करनी चाही। नतीजतन, उसने परमेश्वर के स्वभाव को अपमानित कर दिया और परमेश्वर ने उसे शाप देकर स्वर्ग से निकाल दिया। और अब, परमेश्वर ने अगुआ के रूप में काम करने के लिए मुझे उठाया है, ताकि मैं सभी चीज़ों में उसका उत्कर्ष कर सकूं और उसके लिए गवाही दूँ, ताकि मैं व्यावहारिक समस्याओं को हल करने के लिए सत्य पर सहभागिता करूँ, सत्य को समझने और परमेश्वर के प्रति समर्पित होने में दूसरों की मदद करूँ। लेकिन मैंने सत्य की खोज नहीं की या परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपना कर्तव्य नहीं निभाया। बल्कि मैंने तो अधिकार जमा लिया, खुद को केंद्र में रखा, और सबको अपनी बात सुनने और आज्ञा का पालन करने पर मजबूर कर दिया। आख़िर मैं उस महास्वर्गदूत से कैसे अलग थी? परमेश्वर ने मेरा रास्ता बंद करने के लिए स्थितियाँ उत्पन्न कीं, और फिर मुझे भाई-बहनों के माध्यम से सावधान भी किया, लेकिन मैंने इसे स्वीकार नहीं किया और न ही खुद पर विचार किया। मैं बहुत कठोर और विद्रोही बन गयी थी! मैं अपने घमंडी स्वभाव के साथ अपना कर्तव्य निभा रही थी, जिससे भाई-बहनों का दम घुट रहा था। इसके कारण वे नकारात्मकता में जीने पर मजबूर हो गए थे और अपनी परेशानियों को सुलझा नहीं पा रहे थे। कलीसिया के काम में भी कोई प्रगति नहीं हो रही थी। अपने घमंड के वश में आकर मैंने ये सारे बुरे काम किये! मैं बहुत ही ज़िद्दी, घमंडी प्रकृति की हूँ। अगर परमेश्वर ने भाई-बहनों के माध्यम से कठोरता से मुझे उजागर न किया होता और मुझे निपटाया न होता, और मुझे मेरे कामकाज से हटाया न होता, तो मैं कभी भी खुद पर विचार नहीं कर पाती। अगर सब कुछ वैसे ही चलता रहता, तो मैंने अब तक और भी ढेर सारे बुरे काम किये होते। मैंने परमेश्वर के स्वभाव को अपमानित कर दिया होता, और फिर महास्वर्गदूत की तरह ही, परमेश्वर द्वारा शापित और दंडित की जाती। तब जाकर मुझे परमेश्वर के नेक इरादों की समझ आई। वो ऐसा सिर्फ़ मुझे बुराई के रास्ते पर चलने से रोकने और मुझे पश्चाताप का एक मौक़ा देने के लिये कर रहा था। इस तरह से परमेश्वर मेरी रक्षा कर रहा था और मुझे बचा रहा था। मैंने दिल से परमेश्वर का धन्यवाद किया।

मेरे हटने के बाद, बहन लियू सामान्य तरीके से अपना काम कर पा रही थी, और दूसरों का कहना था कि भले ही नयी अगुआ और उपयाजक लंबे समय से विश्वासी नहीं रहे हैं, लेकिन काम की चर्चा करते वक्त कोई भी अपने विचारों से चिपका नहीं रहता था, बल्कि वह प्रार्थना करता और परमेश्वर के सामने झुकता था, एकजुट होकर सत्य के सिद्धांतों की खोज करता था। हर कोई मिलकर काम करता था, और धीरे-धीरे कलीसिया का काम फिर से आगे बढ़ने लगा। यह सब सुनकर मुझे बहुत शर्म आयी। मैं हमेशा यही सोचती थी कि कलीसिया का काम मेरे बिना आगे नहीं बढ़ सकता, लेकिन तथ्य सामने आने पर, मैंने देखा कि परमेश्वर के घर का काम पूरी तरह से पवित्र आत्मा द्वारा और उसके सहयोग से पूरा होता है, इसे कोई अकेला व्यक्ति नहीं कर सकता। लोग तो बस अपना कर्तव्य निभाते हैं। हमने चाहे कितने ही लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास रखा हो, अगर हम अपने कर्तव्य में सत्य की खोज करके उसका अभ्यास करने के लिए परमेश्वर पर भरोसा करेंगे, तो हमें परमेश्वर का मार्गदर्शन और आशीष मिलता रहेगा। सत्य की खोज किये बिना अपना कर्तव्य निभाकर, घमंड में आकर मनमानी करके, और तानाशाह बनकर, मैं परमेश्वर को नाराज़ कर रही थी। परमेश्वर के मार्गदर्शन के बिना, मैंने पवित्र आत्मा के कार्य को गँवा दिया था और मैं बेकार बन गयी थी। मैं कुछ भी नहीं कर पा रही थी। मैं घमंड में अंधी थी, अनियंत्रित होकर, अहंकार में आस-पास के लोगों पर हुक्म चलाती थी, भाई-बहनों को मजबूर करती थी और उन्हें नुकसान पहुँचा रही थी, इस तरह मैं कलीसिया के काम में बाधा डाल रही थी। मैं ख़ुद को कसूरवार समझने लगी और मुझे बहुत अफ़सोस भी हुआ। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : "हे परमेश्वर, मैं पूरी तरह से अंधी हो गयी हूँ। मैंने खुद को पहचाना ही नहीं, हमेशा सोचती रही कि मुझे ज़्यादा समझ है, क्योंकि मैं इतने लंबे समय से अगुआ रही हूँ, इसलिए मैं दूसरों से बेहतर हूँ। मेरे सारे काम अहंकार से प्रेरित थे और इससे तुम्हारे घर के कार्य में रुकावट आयी। हे परमेश्वर, मैं अब आपका और विरोध नहीं करना चाहती, मैं सचमुच पश्चाताप करना चाहती हूँ।"

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों में इसे पढ़ा : "तुम्हें जानना ही चाहिए कि मैं किस प्रकार के लोगों को चाहता हूँ; वे जो अशुद्ध हैं उन्हें राज्य में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है, वे जो अशुद्ध हैं उन्हें पवित्र भूमि को मैला करने की अनुमति नहीं है। तुमने भले ही बहुत कार्य किया हो, और कई सालों तक कार्य किया हो, किंतु अंत में यदि तुम अब भी बुरी तरह मैले हो, तो यह स्वर्ग की व्यवस्था के लिए असहनीय होगा कि तुम मेरे राज्य में प्रवेश करना चाहते हो! संसार की स्थापना से लेकर आज तक, मैंने अपने राज्य में उन लोगों को कभी आसान प्रवेश नहीं दिया है जो अनुग्रह पाने के लिए मेरे साथ साँठ-गाँठ करते हैं। यह स्वर्गिक नियम है, और कोई इसे तोड़ नहीं सकता है! तुम्हें जीवन की खोज करनी ही चाहिए। आज, जिन्हें पूर्ण बनाया जाएगा वे उसी प्रकार के हैं जैसा पतरस था : ये वे लोग हैं जो स्वयं अपने स्वभाव में परिवर्तनों की तलाश करते हैं, और जो परमेश्वर के लिए गवाही देने, और परमेश्वर के सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने के इच्छुक होते हैं। केवल ऐसे लोगों को ही पूर्ण बनाया जाएगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। "मैं प्रत्येक व्यक्ति की मंज़िल, उसकी आयु, वरिष्ठता, पीड़ा की मात्रा के आधार पर तय नहीं करता और जिस सीमा तक वे दया के पात्र होते हैं, उसके आधार पर तो बिल्कल भी तय नहीं करता बल्कि इस बात के अनुसार तय करता हूँ कि उनके पास सत्य है या नहीं। इसके अतिरक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है। तुम्हें यह अवश्य समझना चाहिए कि वे सब जो परमेश्वर की इच्छा का अनुसरण नहीं करते हैं, दण्डित किए जाएँगे। यह एक अडिग तथ्य है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। परमेश्वर के वचन पूरी तरह से स्पष्ट थे। परमेश्वर लोगों के परिणाम इस आधार पर निर्धारित नहीं करता है कि उन्होंने कितने लंबे समय से विश्वास रखा है, वे कितना उपदेश दे सकते हैं या उन्होंने कितना कार्य किया है, बल्कि इस आधार पर करता है कि वे सत्य की तलाश करते हैं या नहीं, उन्होंने अपने भ्रष्ट स्वभावों को बदला है या नहीं, और वे एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभा सकते हैं या नहीं। यही सबसे महत्वपूर्ण चीज़ें हैं। इससे पहले, मैं कभी भी परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को नहीं जानती थी। मैंने लंबे समय से विश्वास रखती आ रही थी, मेरे पास एक अगुआ के रूप में भी कुछ सालों का अनुभव था, और मुझे अपने कामकाज में कुछ सफलता मिली थी। मैंने इन सबका इस्तेमाल अपने फ़ायदे के लिए किया। मैंने सोचा था कि अगर मैं इसी तरह अनुसरण करती रही, तो मुझे परमेश्वर द्वारा बचाया जाएगा, इसलिए मैंने परमेश्वर के न्याय, ताड़ना, निपटारे और काट-छांट को अनुभव करने पर ध्यान नहीं दिया। मैंने अपने भ्रष्ट स्वभाव को ठीक करने के लिए अपने कर्तव्य में सत्य की तलाश करने को ख़ास तौर पर नज़रअंदाज़ किया। इसके कारण, इतने सालों तक परमेश्वर में आस्था रखने के बाद भी मेरे जीवन स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आया, मैं अपनी शैतानी, घमंडी प्रकृति के प्रभाव में जीती रही, बुरे काम करती रही और परमेश्वर का विरोध करती रही। मैंने देखा कि अगर हम अपनी आस्था में सत्य की तलाश नहीं करते हैं, तो हम खुद को पहचान नहीं सकते या परमेश्वर के सामने सचमुच पश्चाताप नहीं कर सकते। हमने चाहे कितना भी काम किया हो, कितने भी उपदेश दिये हों, अपने जीवन स्वभाव में बदलाव लाये बिना, हम परमेश्वर द्वारा दंडित करके हटा दिये जायेंगे। यह परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव और पवित्र सार द्वारा निर्धारित होता है। परमेश्वर की इच्छा को समझने के बाद, मैंने अपने लंबे समय के विश्वास या किए गए कामों के अनुभव का फ़ायदा उठाना छोड़ दिया, इसके बजाय मैंने परमेश्वर के वचनों पर अधिक ध्यान देना, खुद पर विचार करना और ख़ुद को जानना शुरू कर दिया, और अपने शैतानी स्वभाव में बदलाव लाने की कोशिश में जुट गई।

इसके बाद, मुझे कलीसिया में दूसरा काम सौंपा गया। अब भाई-बहनों के साथ काम करते हुए, मैं ज़्यादा विनम्र थी, और जब वे भिन्न मत प्रस्तुत करते, तो कभी-कभी मुझे लगता था कि मैं सही हूँ और उन्हें मेरी बात सुननी चाहिए, लेकिन मुझे फ़ौरन यह एहसास होता कि मैं फिर से अपना घमंडी स्वभाव दिखाने लगी हूँ, इसलिए मैं परमेश्वर से प्रार्थना करती और खुद को पीछे हटा लेती, ताकि मैं भाई-बहनों के साथ रहकर सत्य की तलाश कर सकूँ और चर्चा करके चीज़ों का समाधान कर सकूँ। सभी भाई-बहनों ने कहा कि मैं पहले की तरह घमंडी नहीं रही, अब मैं ज़्यादा परिपक्व हो गयी हूँ। उन सभी की यह राय सुनकर मेरा दिल भर आया। मैं जानती थी कि यह सब परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना से ही मुमकिन हुआ है। हालांकि मैंने पूरी तरह से अपने घमंडी स्वभाव से छुटकारा नहीं पाया है और मैं अब भी परमेश्वर के अपेक्षित मानकों से बहुत दूर हूँ, मैंने परमेश्वर के प्रेम और उद्धार को देखा है। मैं समझ गयी हूँ कि परमेश्वर के कार्य और वचन सचमुच लोगों को बदल सकते हैं और उन्हें शुद्ध कर सकते हैं।

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