माँ को कैंसर होने का पता चलने के बाद
यांग चेन, चीनजून 2023 में, सुसमाचार कार्य की जरूरतों के चलते मुझे अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ना था। क्योंकि मुझे पता था कि मैं कुछ...
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मेरा जन्म एक साधारण ग्रामीण परिवार में हुआ था। मेरे पिताजी साल भर बाहर काम करते थे और वे शायद ही कभी घर आते थे। मेरी माँ ने मुझे और मेरी बहन दोनों को अकेले ही पाला, भले ही हम अमीर नहीं थे, मेरी माँ ने हमें एक अच्छा जीवन देने की हमेशा पूरी कोशिश की, मैं जो चीजें चाहती थी, वे मुझे दिलाने की पूरी कोशिश करती थीं। मैं बचपन में कमजोर और बीमार रहती थी, मुझे अक्सर सर्दी-जुकाम और बुखार हो जाता था, साथ ही, मैं जल्दी बड़ी हो रही थी और मेरे घुटनों में अक्सर दर्द होता था। हम माँस नहीं खरीद सकते थे, लेकिन मेरी माँ अक्सर मेरे लिए सूअर की पसलियों का सूप बनाती थीं, क्योंकि उन्हें डर था कि पोषण की कमी मेरे विकास पर असर डाल सकती है। जब भी मैं बीमार पड़ती, मेरी माँ बिना आराम किए मेरी देखभाल करती थीं। कभी-कभी मुझे तेज बुखार हो जाता था जो उतरता नहीं था और मेरी माँ बहुत चिंता करती थीं, इसलिए रात में, वे मेरा बुखार कम करने के लिए मेरे शरीर को अल्कोहल से पोंछती रहती थीं। वे न केवल ध्यान से मेरी देखभाल करती थीं, बल्कि मेरे दादा-दादी का आदर करने की भी पूरी कोशिश करती थीं। हर बार जब वे मुझे मेरी दादी के घर ले जाती थीं, वे ऐसी चीजें खरीदती थीं जिन्हें खरीदने में वे आम तौर पर हिचकिचाती थीं, जैसे फल, दूध या मिठाइयाँ, वे अक्सर मुझसे कहती थीं कि अपने दादा-दादी के साथ अच्छा व्यवहार करो। कभी-कभी जब वे किसी बच्चे के बारे में सुनतीं जो अपने माता-पिता का आदर नहीं करता, तो वे उसे अकृतज्ञ कहतीं और कहतीं कि उसके माता-पिता ने उसे व्यर्थ ही पाला है। अनजाने में, अपनी माँ की शिक्षाओं और क्रियाकलापों के माध्यम से मैं यह मानने लगी कि माता-पिता का आदर करना ही एक अच्छा इंसान बनाता है, तभी तुम सिर उठाकर जी सकती हो और प्रशंसा पा सकती हो, अगर तुम संतानोचित नहीं हो, तो लोग तुम्हारी पीठ पीछे तुम्हारे जमीर की कमी के लिए तुम्हारी आलोचना करेंगे और तुम सिर उठाकर नहीं जी पाओगी। जब मैं 14 साल की थी, तो एक कार दुर्घटना में मेरे पिताजी का दुखद निधन हो गया। मैं अपनी माँ के साथ बिताए समय को और भी ज्यादा सँजोने लगी और मैंने मन में ठान लिया कि जब मैं बड़ी हो जाऊँगी, तो अपनी माँ को एक अच्छा जीवन देने के लिए हर संभव कोशिश करूँगी और मैं उनकी उतनी ही सावधानी से देखभाल करूँगी, जितनी उन्होंने बचपन में मेरी की थी, ताकि वे अपने बुढ़ापे में खुश रह सकें। मुझे लगा कि अगर मैं ऐसा नहीं कर सकी, तो मुझमें जमीर की कमी होगी और मैं इंसान कहलाने के लायक भी नहीं रहूँगी।
2011 में, मुझे अंत के दिनों का परमेश्वर का कार्य स्वीकारने का सौभाग्य मिला। 2012 में, सुसमाचार का प्रचार करते समय मुझे पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। रिहा होने के बाद, चूँकि घर पर रहना सुरक्षित नहीं था, मुझे अपना कर्तव्य निभाने के लिए कहीं और जाना पड़ा। हालाँकि अगले कुछ सालों में मैं अपनी माँ के पास नहीं थी, मैं हमेशा उम्मीद करती थी कि एक दिन मैं उनसे फिर से मिल सकूँगी, उनकी देखभाल कर सकूँगी और उनका आदर कर सकूँगी और अपनी लंबे समय से चली आ रही इच्छा पूरी कर सकूँगी।
मार्च 2023 के आसपास, मुझे अचानक अपनी बहन का एक पत्र मिला, जिसमें लिखा था कि दो साल पहले, मेरी माँ के दिमाग की नस अचानक फट गई थी और खून का थक्का जम गया था और तब से, वे लकवे के कारण बिस्तर पर थीं और अपनी देखभाल खुद नहीं कर पाती थीं। उन्हें गंभीर मधुमेह भी था, जो डायबिटिक फुट में बदल गया था, जिससे उनके पैर की उंगलियों की त्वचा और माँस में घाव हो गए थे। हाल ही में उनकी हालत और खराब हो गई थी और शायद उनके पास ज्यादा समय नहीं बचा था और मेरी बहन को उम्मीद थी कि मैं जल्द ही घर लौटकर माँ को आखिरी बार देख सकूँगी। पत्र पढ़ने के बाद, मुझे ऐसा लगा जैसे मुझ पर आसमान टूट पड़ा हो। मैं बस इस पर यकीन नहीं कर पा रही थी। मैं अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख पाई और यह सोचते हुए फूट-फूट कर रो पड़ी, “मेरी माँ के साथ ऐसा कैसे हो सकता है? क्या यह सच है? पिछले कुछ सालों से जब मैं घर से दूर रही हूँ, मैं हमेशा उम्मीद करती थी कि एक दिन मैं अपनी माँ से फिर से मिल सकूँगी, उनकी देखभाल कर सकूँगी और उनका आदर कर सकूँगी और उन्हें अपने आखिरी साल खुशी से बिताने का मौका दे सकूँगी।” यह अचानक मिली खबर एक झटके की तरह थी, जिसने मेरी सारी उम्मीदों और अपेक्षाओं को चकनाचूर कर दिया। कुछ समय के लिए, मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकी और अपने दिल में, मैं परमेश्वर से शिकायत किए बिना नहीं रह सकी, “तुमने मेरी माँ को कुछ और साल स्वस्थ क्यों नहीं रहने दिया?” मैंने तो परमेश्वर से यह भी विनती करने की सोची कि वह मेरी माँ का जीवन बढ़ाने के लिए मेरी उम्र घटा दे, ताकि वे बस कुछ दिन सुकून की खुशी का आनंद ले सकें। उसके लिए, मैं कुछ साल कम जीने के लिए भी तैयार थी। मेरी बहन के पत्र में, उसने यह भी लिखा था कि मेरी माँ के बीमार पड़ने के कुछ ही दिनों बाद मेरे सौतेले पिता ने तलाक का प्रस्ताव रखा था, माँ के प्रति उसका रवैया बहुत खराब था और वह उसे मारता-पीटता और डाँटता था। मेरी माँ अपनी बीमारी के कारण पहले से ही कष्ट में थीं और उन्हें अभी भी हर दिन मेरे सौतेले पिता से मिलने वाली यातना सहनी पड़ती थी, इसलिए आखिरकार उन्हें गंभीर अवसाद हो गया। कोई और चारा न होने पर, मेरी बहन के पास मेरे सौतेले पिता को माँ से तलाक लेने की सहमति देने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। मैंने सोचा कि कैसे मेरी माँ को हर चीज के लिए अपनी देखभाल करने वाले किसी व्यक्ति की जरूरत थी। लेकिन मेरी बहन को काम पर जाना पड़ता था, इसलिए मेरी माँ घर पर अकेली थीं। अगर उसे प्यास या भूख लगती तो क्या होता? उसकी देखभाल कौन करता? अचानक इतनी गंभीर बीमारियों से घिर जाने पर, मेरी मजबूत इरादों वाली माँ को बहुत निराशा और घुटन महसूस हुई होगी और जब वे उदास महसूस करती होंगी, तो उन्हें सांत्वना और हिम्मत देने के लिए वहाँ कौन होता होगा? मैं जितना इसके बारे में सोचती, मुझे अपने अंदर उतनी ही हृदय विदारक पीड़ा महसूस होती। काश मैं तुरंत उड़कर अपनी माँ के पास वापस जा पाती ताकि मैं उनके साथ रहकर उनसे बात कर पाती, उन्हें दिलासा दे पाती, उन्हें हिम्मत दे पाती और उनकी रोजमर्रा की जरूरतों का ख्याल रख पाती। लेकिन मुझे पहले पुलिस ने गिरफ्तार किया था और अगर मैं अब वापस जाती, तो मैं निश्चित रूप से जाल में फँस जाती। बस अपनी माँ की देखभाल करने और उन्हें आखिरी बार देखने के लिए घर वापस जाना मेरी एक ऐसी इच्छा बन गई थी जो पूरी नहीं हो सकती थी। मैं पूरी तरह से दुखी महसूस कर रही थी, मैं कोई प्रेरणा नहीं जुटा पा रही थी और मेरा अपने कर्तव्य करने में कोई मन नहीं था। रात में, मैं सो नहीं पाती थी और सोचती रहती थी, “पता नहीं माँ कैसी होंगी। क्या वे अभी आराम कर रही हैं? या अभी भी दर्द से करवटें बदल रही हैं, सो नहीं पा रही हैं?” इसके बारे में सोचते हुए, मैं रोए बिना नहीं रह सकी, मेरा गला रुँध गया। एक रात, मैंने अपनी माँ का सपना भी देखा, मैंने उन्हें उनकी जवानी के रूप में देखा, दो लंबी चोटियों के साथ, खुशी-खुशी कुछ करते हुए इधर-उधर व्यस्त थीं। मैं ज्यादा दूर नहीं खड़ी थी, उन्हें देख रही थी, लेकिन मैंने उन्हें चाहे कितना भी पुकारा, उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। ऐसा लगा जैसे वे मुझे देख या मेरी आवाज सुन नहीं सकती थीं। जब मैं जागी, तो मुझे एहसास हुआ कि यह सिर्फ एक सपना था, लेकिन मैं जितना इसके बारे में सोचती, उतना ही दुखी महसूस करती और मैं फिर से फूट-फूट कर रोए बिना नहीं रह सकी।
वे दिन दर्द से भरे थे, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मुझे अपना इरादा समझने के लिए मार्गदर्शन करे। उस दौरान, परमेश्वर के कुछ वचन मेरे मन में आते रहे : “जन्म लेना, बूढ़ा होना, बीमार पड़ना और मर जाना ऐसी चीजें हैं जिन्हें हर व्यक्ति को स्वीकार करना ही चाहिए, फिर तुम किस आधार पर इसे बर्दाश्त करने में असमर्थ हो? यह वह विधान है जो परमेश्वर ने मनुष्य के जन्म-मरण के लिए नियत कर रखा है, फिर तुम इसका उल्लंघन क्यों करना चाहते हो? तुम इसे स्वीकार क्यों नहीं करते? तुम्हारा इरादा क्या है?” मैंने परमेश्वर के वचनों का वह अंश ढूँढ़ लिया जहाँ से ये वाक्यांश आए थे और मैंने उसे पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कुछ लोग कहते हैं : ‘मैं जानता हूँ कि मुझे अपने माता-पिता के बीमार होने या किसी बड़े दुर्भाग्य का सामना करने के मामले का विश्लेषण या जाँच-पड़ताल नहीं करनी चाहिए, ऐसा करना निरर्थक है, और मुझे इसे सत्य सिद्धांतों पर आधारित नजरिये से देखना चाहिए, लेकिन मैं खुद को इसका विश्लेषण या जाँच-पड़ताल करने से रोक नहीं सकता।’ तो चलो संयम की समस्या को दूर करें, ताकि तुम्हें अब खुद को रोकने की जरूरत न पड़े। इसे कैसे हासिल किया जा सकता है? इस जीवन में सेहतमंद लोग 50 या 60 के होने के बाद बुढ़ापे के लक्षण महसूस करने लगते हैं—उनकी मांसपेशियाँ और हड्डियाँ घिसने लगती हैं, उनकी ताकत चली जाती है, वे न अच्छी तरह सो सकते हैं न ज्यादा खा सकते हैं, और उनमें काम करने, पढ़ने या किसी भी तरह की नौकरी करने के लिए पर्याप्त ऊर्जा नहीं होती। उनके भीतर तरह-तरह की बीमारियाँ सिर उठाने लगती हैं, जैसे उच्च रक्तचाप, मधुमेह, दिल की बीमारी, दिल और दिमाग को खून पहुँचाने वाली नसों की बीमारियाँ, वगैरह-वगैरह। ... सभी लोगों को ये शारीरिक बीमारियाँ होंगी। आज इन्हें हुई है, कल तुम्हें और हमें हो सकती है। उम्र और क्रम के अनुसार सभी लोग पैदा होंगे, बूढ़े होंगे, बीमार पड़ेंगे और मर जाएँगे—जवानी से वे बुढ़ापे में प्रवेश करते हैं, बुढ़ापे में उन्हें बीमारी होती है, और बीमारी से उनकी मृत्यु हो जाती है—यही विधान है। बस इतना ही है कि जब तुम अपने माता-पिता के बीमार पड़ने की खबर सुनते हो, तो उनके सबसे करीबी और सबसे फिक्रमंद होने और उनके हाथों पले-बड़े होने के कारण तुम अपनी भावनाओं की इस बाधा से उबर नहीं पाओगे, और सोचोगे : ‘जब दूसरे लोगों के माता-पिता की मृत्यु होती है तो मुझे कुछ महसूस नहीं होता, लेकिन मेरे माता-पिता बीमार नहीं हो सकते, क्योंकि इससे मैं दुखी हो जाता हूँ। मैं इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता, मेरा दिल दुखता है, मैं अपनी भावनाओं से उबर नहीं सकता!’ सिर्फ इसलिए कि वे तुम्हारे माता-पिता हैं, तुम सोचते हो कि उन्हें बूढ़ा नहीं होना चाहिए, बीमार नहीं पड़ना चाहिए और निश्चित रूप से उनकी मृत्यु नहीं होनी चाहिए—क्या इसके कोई मायने हैं? इसके कोई मायने नहीं हैं और यह सत्य नहीं है। तुम्हें समझ आया? (हाँ।) हर व्यक्ति को अपने माता-पिता के बूढ़े होने, बीमार पड़ने और कुछ गंभीर मामलों में कुछ लोगों के माता-पिता के लकवे से बिस्तर पकड़ लेने और कुछ के जड़ अवस्था में पड़ जाने का सामना करना पड़ेगा। कुछ लोगों के माता-पिता को उच्च रक्तचाप, आंशिक लकवा, स्ट्रोक या कोई गंभीर बीमारी भी हो जाती हैं और वे मर जाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने माता-पिता के बूढ़े होने, बीमार पड़ने और फिर मर जाने का स्वयं गवाह होता है या इस बारे में सुनता है। बस इतना ही है कि कुछ लोग यह खबर कुछ जल्दी सुन लेते हैं जब उनके माता-पिता 50 की उम्र में होते हैं; कुछ लोग तब सुनते हैं जब उनके माता-पिता 60 के होते हैं; और दूसरे कुछ लोग तभी सुनते हैं जब उनके माता-पिता 80, 90 या 100 वर्ष के हो जाते हैं। लेकिन तुम यह खबर चाहे जब सुनो, एक पुत्र या पुत्री के रूप में किसी-न-किसी दिन, देर-सबेर, तुम इस तथ्य को स्वीकार करोगे। अगर तुम वयस्क हो, तो तुम्हें सयाने ढंग से सोचना चाहिए, तुम्हें लोगों के जन्म लेने, बूढ़े होने, बीमार पड़ने और मरने को लेकर सही रवैया अपनाना चाहिए, आवेगशील नहीं होना चाहिए; ऐसा नहीं होना चाहिए कि अपने माता-पिता के बीमार होने की खबर सुनकर या अस्पताल से उनके गंभीर रूप से बीमार होने की सूचना मिलने पर तुम उसे बर्दाश्त न कर सको। जन्म लेना, बूढ़ा होना, बीमार पड़ना और मर जाना ऐसी चीजें हैं जिन्हें हर व्यक्ति को स्वीकार करना ही चाहिए, फिर तुम किस आधार पर इसे बर्दाश्त करने में असमर्थ हो? यह वह विधान है जो परमेश्वर ने मनुष्य के जन्म-मरण के लिए नियत कर रखा है, फिर तुम इसका उल्लंघन क्यों करना चाहते हो? तुम इसे स्वीकार क्यों नहीं करते? तुम्हारा इरादा क्या है? तुम अपने माता-पिता को मरने नहीं देना चाहते, तुम उन्हें जन्म लेने, बूढ़े होने, बीमार पड़ने और मर जाने के परमेश्वर द्वारा स्थापित विधान के अनुसार जीने नहीं देना चाहते, तुम उन्हें बीमार पड़ने और मर जाने से रोक देना चाहते हो—यह उन्हें क्या बना देगा? क्या यह उन्हें कृत्रिम मनुष्य नहीं बना देगा? क्या वे तब भी मनुष्य रहेंगे? इसलिए तुम्हें इस तथ्य को स्वीकार करना ही चाहिए। यह खबर सुनने से पहले कि तुम्हारे माता-पिता बूढ़े हो रहे हैं, बीमार पड़ गए हैं और मर चुके हैं, तुम्हें मन-ही-मन में खुद को इसके लिए तैयार कर लेना चाहिए। देर-सबेर प्रत्येक व्यक्ति बूढ़ा होगा, कमजोर पड़ेगा और मर जाएगा। चूँकि तुम्हारे माता-पिता सामान्य लोग हैं, वे इस चरण का अनुभव क्यों नहीं कर सकते? उन्हें इस चरण का अनुभव करना चाहिए और तुम्हें इसे सही नजरिये से देखना चाहिए” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचनों ने धीरे-धीरे मुझे शांत कर दिया। जन्म, बुढ़ापा, बीमारी और मृत्यु जीवन का वह नियम है जिसे परमेश्वर ने मानवता के लिए निर्धारित किया है। मेरी माँ 60 के दशक में हैं, उनके अंग और शारीरिक कार्यप्रणाली धीरे-धीरे खराब हो रही थी और उनके शरीर में बीमारियाँ होना सामान्य बात थी, मुझे परमेश्वर से बहस नहीं करनी चाहिए, अपने जीवन के साल के बदले में अपनी माँ को स्वास्थ्य और लंबी उम्र देने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। यह परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना नहीं है। मैं एक तुच्छ सृजित प्राणी हूँ और परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, मुझे जीवन की उस व्यवस्था को स्वीकारना चाहिए जिसे परमेश्वर ने मानवता के लिए निर्धारित किया है और जैसे-जैसे चीजें आती हैं, उनका अनुभव करना चाहिए। मैं तो उन चीजों को भी नियंत्रित नहीं कर सकती या बदल नहीं सकती जिनका मैं हर दिन अनुभव करती हूँ, फिर भी मैंने अपनी माँ का भाग्य बदलने की व्यर्थ आशा पाली। यह सचमुच भ्रामक और अविवेकपूर्ण था! मैंने रोते हुए परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं अपनी परिस्थितियों में इस अचानक आए बदलाव को स्वीकार नहीं कर सकती। इस स्थिति में समर्पण करने और सबक सीखने में सक्षम होने के लिए मेरा मार्गदर्शन करो।” बाद में, मैंने सचेत रूप से अपनी दशा से संबंधित परमेश्वर के वचन खोजे।
एक दिन अपनी भक्ति के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “तुम्हारे माता-पिता को जो भी रोग हो, वह इस वजह से नहीं है कि वे तुम्हें बड़ा करने में बहुत थक गए, या उन्हें तुम्हारी याद आई; उन्हें विशेष रूप से तुम्हारे कारण कोई भी बड़ी, गंभीर बीमारी या जानलेवा स्थिति नहीं हो जाएगी। यह उनका भाग्य है, और इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। तुम चाहे कितने भी संतानोचित क्यों न हो या तुम उनकी कितनी भी ध्यान से देखभाल क्यों न करो, ज्यादा-से-ज्यादा तुम बस उनके दैहिक कष्ट और दायित्वों को जरा-सा कम कर सकोगे। लेकिन वे कब बीमार पड़ेंगे, उन्हें कौन-सी बीमारी होगी, उनकी मृत्यु कब और कहाँ होगी—क्या इन चीजों का इस बात से कोई लेना-देना है कि तुम उनके साथ रहकर उनकी देखभाल कर रहे हो या नहीं? नहीं, नहीं है। अगर तुम संतानोचित हो, अगर तुम बेपरवाह एहसान-फरामोश नहीं हो और तुम उनकी देखभाल करते हुए पूरा दिन उनके साथ बिताते हो, तो क्या वे बीमार नहीं पड़ेंगे? क्या वे नहीं मरेंगे? अगर उन्हें बीमार पड़ना ही है, तो क्या वे कैसे भी बीमार नहीं पड़ेंगे? अगर उन्हें मरना ही है, तो क्या वे कैसे भी नहीं मर जाएँगे? क्या यह सही नहीं है?” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचनों से, मैंने समझा कि माता-पिता बीमार पड़ते हैं या नहीं, बीमारी कितनी गंभीर है या वे मरेंगे या नहीं, यह सब परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित और व्यवस्थित है और इसका बच्चों से कोई लेना-देना नहीं है। बच्चे अपने माता-पिता के पास हों या न हों, माता-पिता को जीवन में जिन कठिनाइयों, असफलताओं और क्लेशों का सामना करना पड़ता है, वे अपरिहार्य हैं और उनके बच्चे कुछ भी नहीं बदल सकते। मैंने अपने दादाजी के बारे में सोचा। उनके सभी बच्चे उनके पास थे और वे स्वस्थ दिखते थे, लेकिन जब वे लगभग 60 साल के थे, तो उन्हें एक गंभीर बीमारी हो गई, जिससे वे लकवे के कारण बिस्तर पर पड़ गए और वे हिल-डुल भी नहीं पाते थे और उन्हें अपने सभी शारीरिक क्रियाओं के लिए लोगों की देखभाल की जरूरत थी। मेरी माँ, चाचा और चाची सभी बारी-बारी से, दिन-रात उनकी देखभाल करते थे, हर दिन उनकी मालिश करते थे, उनसे बात करते थे और सालों तक उनकी बहुत मेहनत से देखभाल की, लेकिन वे कभी होश में नहीं आए। अब मेरी माँ गंभीर रूप से बीमार हो गई थी और बिस्तर पर लकवाग्रस्त थी। भले ही मैं उसकी रोजमर्रा की जरूरतों का ख्याल रखने के लिए उसके पास होती, तो भी इससे उनके शरीर को बस थोड़ा और आराम मिलता और मैं उनके लिए उनकी बीमारी का कष्ट सहन नहीं कर पाती। वह ठीक होती या मर जाती, यह कुछ ऐसा था जिसे मैं बदल नहीं सकती थी। मेरा अपनी माँ के पास रहकर उनकी देखभाल करना या न करना उनकी बीमारी को नहीं बदल सकता था। यह एहसास होने पर, मैंने अपनी माँ के बारे में अपनी कुछ चिंताएँ छोड़ दीं।
बाद में, जब मैंने इस बारे में और मेरी बहन ने मुझे पत्र में जो लिखा था, उसके बारे में सोचा, तो भी मेरा दिल टूटा हुआ और परेशान था। मेरी बहन ने लिखा, “‘कौए अपनी माँओं को खाना दे कर उनका कर्ज चुकाते हैं, और मेमने अपनी माँओं से दूध पाने के लिए घुटने टेकते हैं।’ जानवर भी अपने माता-पिता का आदर करना जानते हैं। अगर कोई इंसान यह नहीं जानता, तो वह जानवर से भी बदतर है।” मैंने उन सालों के बारे में सोचा जब मैं घर से दूर थी। घर पर इतनी बड़ी-बड़ी बातें हो गई थीं, फिर भी मैं कभी नहीं आई। मुझे नहीं पता था कि हमारे पड़ोसी, रिश्तेदार और दोस्त मेरे बारे में क्या कह रहे थे, लेकिन वे निश्चित रूप से मेरी पीठ पीछे मेरे बारे में बात कर रहे होंगे, कह रहे होंगे कि मैं संतानोचित नहीं हूँ, यहाँ तक कि जब मेरी माँ गंभीर रूप से बीमार थीं और मौत के करीब थीं, तब भी घर नहीं आई। मेरी माँ ने मुझे बचपन से पाला था और यह कृपा ऐसी थी जिसका कर्ज मैं कभी नहीं चुका सकती थी, इसलिए मुझे अपनी माँ को सबसे अच्छा जीवन देने की पूरी कोशिश करनी चाहिए, ताकि उसे भोजन या कपड़ों की चिंता न करनी पड़े और वह एक खुशहाल, शांतिपूर्ण बुढ़ापे का आनंद ले सके। लेकिन अब जब वह बीमार थी, तो मैं उसकी देखभाल भी नहीं कर सकती थी। मुझे लगा कि मैं सच में एक जानवर से भी बदतर हूँ। यह सोचना मेरे दिल में चाकू की तरह चुभता था और मैं अक्सर छिप-छिप कर रोती थी, अपनी माँ के पालन-पोषण की कृपा का कर्ज न चुका पाने के लिए दोषी महसूस करती थी। बाद में, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “आओ तुम्हारे माता-पिता द्वारा तुम्हें जन्म देने के मामले पर गौर करें। यह किसने चुना कि वे तुम्हें जन्म दें : तुमने या तुम्हारे माता-पिता ने? अगर इस पर तुम परमेश्वर के दृष्टिकोण से गौर करो, तो यह चुनाव मनुष्यों के करने के लिए नहीं है। तुमने अपने माता-पिता के लिए यह चुनाव नहीं किया कि वे तुम्हें जन्म दें और न ही उन्होंने ये चुनाव किया। इस मामले की जड़ को देखा जाए, तो यह परमेश्वर द्वारा नियत था। इस विषय को फिलहाल हम अलग रख देंगे, क्योंकि लोगों के लिए यह मामला समझना आसान है। अपने नजरिये से, तुम निश्चेष्टा से, इस मामले में बिना किसी विकल्प के, अपने माता-पिता के यहाँ पैदा हुए। तुम्हारे माता-पिता के परिप्रेक्ष्य से, यह बच्चों को जन्म देने और उनका पालन-पोषण करने की उनकी व्यक्तिपरक इच्छा थी। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के विधान को अलग रखकर जब बच्चों को जन्म देने और उनका पालन-पोषण करने की बात आती है, तो ये तुम्हारे माता-पिता ही थे जिनके पास संपूर्ण शक्ति थी। उन्होंने चुना कि तुम्हें जन्म देना है। तुमने निश्चेष्टा से उनके यहाँ जन्म लिया। इस मामले में तुम्हारे पास कोई विकल्प नहीं था। तो चूँकि तुम्हारे माता-पिता के पास संपूर्ण शक्ति थी और चूँकि उन्होंने तुम्हें जन्म दिया, इसलिए उनका यह दायित्व और जिम्मेदारी है कि वे तुम्हारे वयस्क होने तक तुम्हारा पालन-पोषण करें। चाहे यह तुम्हें शिक्षा प्रदान करना हो या तुम्हें भोजन और कपड़ों की आपूर्ति करना, यह उनकी जिम्मेदारी और दायित्व है और यह उन्हें करना ही चाहिए। वे जब तुम्हें बड़ा कर रहे थे, तब तुम हमेशा निश्चेष्ट थे, तुम्हारे पास चुनने का हक नहीं था—तुम्हें उनके हाथों ही बड़ा होना था। चूँकि तुम छोटे थे, तुम्हारे पास अपनी देखभाल करने की क्षमता नहीं थी, तुम्हारे पास निश्चेष्टा से अपने माता-पिता द्वारा पाल-पोस कर बड़ा किए जाने के सिवाय कोई विकल्प नहीं था। तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारा जैसे भी पालन-पोषण किया, यह तुम पर निर्भर नहीं था। अगर उन्होंने तुम्हें अच्छी खाने-पीने की चीजें दीं तो तुम्हें अच्छी खाने-पीने की चीजें मिलीं। अगर तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें जीने का ऐसा माहौल दिया जहाँ तुम्हें भूसा और जंगली पौधे खाकर जिंदा रहना पड़ता, तो तुम भूसे और जंगली पौधों पर जिंदा रहते। किसी भी स्थिति में, अपने पालन-पोषण के समय तुम निश्चेष्ट थे, और तुम्हारे माता-पिता अपनी जिम्मेदारी निभा रहे थे। यह वैसी ही बात है जैसे कि तुम्हारे माता-पिता किसी फूल की देखभाल कर रहे हों। चूँकि वे फूल की देखभाल की चाह रखते हैं, इसलिए उन्हें उसे खाद देना चाहिए, सींचना चाहिए, और सुनिश्चित करना चाहिए कि उसे धूप मिले। तो लोगों की बात करें, तो तुम्हारे माता-पिता ने सावधानी से तुम्हारी देखभाल की हो या तुम्हारी बहुत परवाह की हो, किसी भी स्थिति में, वे बस अपनी जिम्मेदारी और दायित्व निभा रहे थे। तुम्हें उन्होंने जिस भी कारण से पाल-पोस कर बड़ा किया हो, यह उनकी जिम्मेदारी थी—चूँकि उन्होंने तुम्हें जन्म दिया, इसलिए उन्हें तुम्हारी जिम्मेदारी उठानी चाहिए। इस आधार पर, जो कुछ भी तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारे लिए किया, क्या उसे दयालुता कहा जा सकता है? नहीं कहा जा सकता, सही है? (सही है।) तुम्हारे माता-पिता का तुम्हारे प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करने को दयालुता नहीं माना जा सकता, तो अगर वे किसी फूल या पौधे के प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करते हैं, उसे सींच कर उसे खाद देते हैं, तो क्या उसे दयालुता कहेंगे? (नहीं।) यह दयालुता से कोसों दूर की बात है। फूल और पौधे बाहर बेहतर ढंग से बढ़ते हैं—अगर उन्हें जमीन में लगाया जाए, उन्हें हवा, धूप और बारिश का पानी मिले, तो वे और भी ज्यादा फलते-फूलते हैं। घर के अंदर गमले में लगाने पर वे बाहर की तरह अच्छी तरह से नहीं उगते हैं या फलते-फूलते नहीं हैं! व्यक्ति जिस भी परिवार में जन्म लेता है, वह परमेश्वर द्वारा नियत होता है। तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जिसके पास जीवन है और परमेश्वर हर जीवन की जिम्मेदारी लेता है जिससे लोग जीवित बचने में और उस नियम का पालन करने में सक्षम होते हैं जिसका पालन सभी प्राणी करते हैं। बात बस इतनी है कि एक व्यक्ति के रूप में तुम उसी परिवेश में रहे जिसमें तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारा पालन-पोषण किया, इसलिए तुम्हें उसी परिवेश में बड़ा होना चाहिए था। यह जो तुम्हारा उस परिवेश में जन्म हुआ यह परमेश्वर के विधान के कारण है; यह जो तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारे वयस्क होने तक तुम्हारा पालन-पोषण किया वह भी परमेश्वर के विधान के कारण है। किसी भी स्थिति में, तुम्हें पाल-पोसकर तुम्हारे माता-पिता एक जिम्मेदारी और एक दायित्व निभा रहे हैं। तुम्हें पाल-पोस कर वयस्क बनाना उनका दायित्व और जिम्मेदारी है, और इसे दयालुता नहीं कहा जा सकता” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। “गैर-विश्वासी दुनिया में एक कहावत है : ‘कौए अपनी माँओं को खाना दे कर उनका कर्ज चुकाते हैं, और मेमने अपनी माँओं से दूध पाने के लिए घुटने टेकते हैं।’ एक कहावत यह भी है : ‘जो व्यक्ति संतानोचित नहीं है, वह किसी पशु से बदतर है।’ ये कहावतें कितनी आडंबरपूर्ण लगती हैं! असल में, पहली कहावत में जिन घटनाओं का जिक्र है, कौओं का अपनी माँओं को खाना दे कर उनका कर्ज चुकाना, और मेमनों का अपनी माँओं से दूध पाने के लिए घुटने टेकना, वे सचमुच होती हैं, वे तथ्य हैं। लेकिन वे सिर्फ प्राणी जगत की परिघटनाएँ हैं। वह महज एक प्रकार का नियम है जो परमेश्वर ने विभिन्न जीवित प्राणियों के लिए बनाया है। मनुष्य सहित सभी जीवित प्राणी इस नियम का पालन करते हैं, और यह आगे दर्शाता है कि सभी जीवित प्राणियों का सृजन परमेश्वर ने किया है। कोई भी जीवित प्राणी न तो इस नियम को तोड़ सकता है, न इसके पार जा सकता है। शेर और बाघ जैसे अपेक्षाकृत खूंख्वार मांसभक्षी भी अपनी संतान को पालते हैं और वयस्क होने से पहले उन्हें नहीं काटते। यह पशुओं का सहजप्रवृत्ति है। वे जिस भी प्रजाति के हों, खूंख्वार हों या दयालु और भद्र, सभी पशुओं में यह सहजप्रवृत्ति होती है। इंसानों सहित सभी प्रकार के प्राणी इस सहजप्रवृत्ति और इस नियम का पालन करके ही अपनी संख्या बढ़ा और जीवित रह सकते हैं। अगर वे इस नियम का पालन न करें, या उनके पास यह नियम और यह सहजप्रवृत्ति न हो तो वे अपनी संख्या बढ़ाने और जीवित रहने में सक्षम नहीं होंगे। न यह जैविक खाद्य शृंखला रहेगी, न ही यह संसार रहेगा। क्या यह सच नहीं है? (है।) कौओं का अपनी माँओं को खाना दे कर उनका कर्ज चुकाना, और मेमनों का अपनी माँओं से दूध पाने के लिए घुटने टेकना ठीक यही दर्शाता है कि प्राणी जगत इस नियम का पालन करता है। सभी प्रकार के जीवित प्राणियों में यह सहजप्रवृत्ति होती है। संतान पैदा होने के बाद प्रजाति के नर या मादा उसकी तब तक देखभाल और पालन-पोषण करते हैं, जब तक वह वयस्क नहीं हो जाती। सभी प्रकार के जीवित प्राणी अपनी संतान के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करने में सक्षम होते हैं और शुद्ध अंतःकरण और कर्तव्यनिष्ठा से अगली पीढ़ी को पाल-पोस कर बड़ा करते हैं। इंसानों के साथ तो ऐसा और अधिक होना चाहिए। इंसानों को मानवजाति उच्च प्राणी कहती है—अगर इंसान इस नियम का पालन न कर सकें और उनमें यह सहज प्रवृत्ति न हो तो वे पशुओं से बदतर हैं, है कि नहीं? इसलिए तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें बड़ा करते समय तुम्हारी चाहे जितनी भी देखभाल की हो या तुम्हारे प्रति चाहे जितनी भी जिम्मेदारियाँ पूरी की हों, वे बस वही कर रहे थे जो एक सृजित प्राणी को करना चाहिए—यह उनकी सहज प्रवृत्ति है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))।
परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मेरा दिल थोड़ा रोशन महसूस हुआ। माता-पिता द्वारा बच्चों का पालन-पोषण एक सहज प्रवृत्ति है जो परमेश्वर ने जीवित प्राणियों को दी है और परमेश्वर ने सभी जीवित प्राणियों के लिए जीवन की एक व्यवस्था तैयार की है और यह माता-पिता की जिम्मेदारी और दायित्व भी है। चाहे वे जंगली जानवर हों या कोमल प्राणी, सभी ऐसी व्यवस्थाओं का पालन करते हैं। जो माता-पिता बच्चे पैदा करना चुनते हैं, उन्हें अपने बच्चों के पालन-पोषण और देखभाल की जिम्मेदारी और दायित्व लेना चाहिए। यह माता-पिता द्वारा किया गया एक सचेत चुनाव है, न कि दूसरों द्वारा उन पर थोपी गई कोई चीज। “कौए अपनी माँओं को खाना दे कर उनका कर्ज चुकाते हैं, और मेमने अपनी माँओं से दूध पाने के लिए घुटने टेकते हैं” यह बस इन प्राणियों के लिए परमेश्वर द्वारा निर्धारित एक व्यवस्था और सिद्धांत है, एक सहज प्रवृत्ति है और जैसा लोग सिखाते हैं वैसा नहीं है, जानवर भी अपने माता-पिता का आदर करना और दयालुता का बदला चुकाना जानते हैं। परमेश्वर ने विभिन्न प्राणियों को अपने बच्चों के पालन-पोषण और देखभाल की प्रवृत्ति प्रदान की है ताकि मनुष्य सहित सभी प्राणी प्रजनन और वृद्धि कर सकें। बाहर से ऐसा लगता है कि माता-पिता अपने बच्चों की देखभाल और पालन-पोषण कर रहे हैं, लेकिन असल में, यह परमेश्वर ही है जो प्रत्येक व्यक्ति के भाग्य पर संप्रभु है और उसकी व्यवस्था करता है। मैं अपनी माँ द्वारा एक बार कही गई बात को याद किए बिना नहीं रह सकी। मेरे जन्म से पहले, उनकी पहले से ही दो बेटियाँ थीं, लेकिन उनमें से छोटी बेटी 3 साल की उम्र में अचानक बीमार पड़ गई और गुजर गई और सालों बाद, जब मेरी माँ अपनी बेटी को खोने के दर्द से उबर नहीं पाई, तब उसने मुझे जन्म दिया। मेरी बड़ी बहन, जिससे मैं कभी नहीं मिली थी, उसकी भी मेरी माँ ने पूरे दिल से देखभाल की थी, लेकिन वह दुखद रूप से कम उम्र में ही गुजर गई, जबकि मैं आज तक स्वस्थ रूप से बड़ी हो पाई हूँ। हालाँकि हमारी माँ एक ही थीं, लेकिन हमारे भाग्य बिल्कुल अलग थे। इससे मुझे और भी पता चला कि मनुष्य का भाग्य परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है और माता-पिता केवल अपने बच्चों के पालन-पोषण और देखभाल के लिए जिम्मेदार हो सकते हैं, लेकिन वे अपने बच्चों के भाग्य को नियंत्रित नहीं कर सकते या बदल नहीं सकते। ऐसा इसलिए है क्योंकि मनुष्य का भाग्य पूरी तरह से परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के अधीन है। मैंने सोचा कि घर छोड़ने के बाद के सालों में मैंने कितनी कठिनाइयों और असफलताओं का सामना किया था। ऐसे कई मौके आए जब मुझे लगा कि मैं और नहीं चल सकती और यह परमेश्वर ही था जो मेरा मार्गदर्शन करता रहा और मेरी मदद करता रहा। मुझे एक समय याद है जब मेरी दशा सच में बहुत खराब थी, लेकिन परमेश्वर ने भाई-बहनों के माध्यम से, धैर्यपूर्वक मेरे साथ सत्य की संगति की, मेरी मदद की और मुझे सहारा दिया, तभी मेरा सुन्न पड़ा दिल धीरे-धीरे जागना शुरू हुआ और मैंने आत्म-चिंतन करना और परमेश्वर की ओर वापस मुड़ना शुरू कर दिया। परमेश्वर ने मेरी जरूरतों के अनुसार विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों की सावधानीपूर्वक व्यवस्था की, न केवल मेरी भौतिक जरूरतों को पूरा किया बल्कि मेरे जीवन की जिम्मेदारी भी ली। परमेश्वर के प्रेम के बारे में सोचकर, मेरा दिल सच में द्रवित हो गया। लेकिन मैं भ्रांतियों से प्रभावित और धोखा खाई हुई थी, बचपन से, परमेश्वर से मुझे जो कुछ भी मिला था, उसका श्रेय अपनी माँ के प्रयासों को देती थी, यह सोचती थी कि अपनी माँ की देखभाल के बिना, मैं वह नहीं बन पाती जो मैं बन गई थी। मैंने तो अपनी माँ के पालन-पोषण की कृपा का कर्ज चुकाने का भी संकल्प लिया था और उनकी देखभाल के लिए घर वापस जाने के लिए अपने कर्तव्य भी छोड़ना चाहती थी। इससे न केवल मेरी अपनी दशा प्रभावित हुई बल्कि मेरे कर्तव्य के नतीजे भी प्रभावित हुए। अगर परमेश्वर के वचनों का प्रकाशन न होता, तो मैं अभी भी इस गलत विचार पर विश्वास करती रहती और तब तक मैं बचाए जाने का अपना मौका बर्बाद कर देती और पछतावे के लिए बहुत देर हो जाती। इसका एहसास होने पर, मेरे दिल को बड़ी राहत मिली।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, जिससे मैं माता-पिता के साथ कैसे पेश आना है, इस बारे में और भी स्पष्ट हो गई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं—यानी तुम्हें हमेशा यह नहीं सोचते रहना चाहिए कि सिर्फ इसलिए कि उन्होंने इतने वर्ष खप कर तुम्हें पाला-पोसा और बड़ा किया, तुम्हें उनका कर्ज चुकाना ही चाहिए। अगर तुम उनका कर्ज नहीं चुका पाते, अगर तुम्हारे पास उनका कर्ज चुकाने का अवसर या हालात नहीं हैं तो तुम हमेशा दुखी और अपराधबोध महसूस करते रहोगे, इस हद तक कि जब कभी तुम यह देखोगे कि कोई व्यक्ति अपने माता-पिता के साथ है, उनकी देखभाल कर रहा है और उनकी नेक संतान है तो तब भी तुम दुखी महसूस करोगे। परमेश्वर ने यह नियत किया था कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारा पालन-पोषण करेंगे, लेकिन इसलिए नहीं कि तुम उनका कर्ज चुकाते हुए जीवन गुजार दो। इस जीवन में तुम्हारे पास अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व हैं जो तुम्हें निभाने ही हैं, एक पथ है जिस पर तुम्हें चलना है; तुम्हारे पास अपना जीवन है। अपने जीवन में तुम्हें अपनी सारी ताकत अपने माता-पिता की नेक संतान होने और उनकी दयालुता का कर्ज चुकाने में नहीं लगा देनी चाहिए। अपने माता-पिता की नेक संतान होना बस एक चीज है जो तुम्हारे जीवन में तुम्हारे साथ रहती है। यह एक ऐसी चीज है जिससे स्नेह के मानवीय रिश्तों में बचा नहीं जा सकता है। लेकिन जहाँ तक यह बात है कि तुम्हारा और तुम्हारे माता-पिता का कैसा जुड़ाव नियत है और तुम लोग कितने लंबे समय तक साथ रह पाओगे, यह परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं पर निर्भर करता है। अगर परमेश्वर ने यह योजना बनाई है और व्यवस्था की है कि तुम और तुम्हारे माता-पिता अलग-अलग स्थानों पर रहोगे, कि तुम उनसे बहुत दूर रहोगे और साथ नहीं रह पाओगे तो इस जिम्मेदारी को पूरा करना तुम्हारे लिए बस एक तरह की लालसा ही है। अगर परमेश्वर ने यह व्यवस्था की है कि तुम्हारा आवास अपने माता-पिता के बहुत पास होगा और तुम उनकी बगल में रह पाओगे तो अपने माता-पिता के प्रति थोड़ी-सी जिम्मेदारियाँ निभाना और उन्हें थोड़ी-सी संतानोचित निष्ठा दिखाना ऐसी चीजें हैं जो तुम्हें करनी चाहिए—इस बारे में आलोचना करने लायक कुछ नहीं है। लेकिन अगर तुम अपने माता-पिता से अलग किसी और जगह हो, तुम्हारे पास उन्हें संतानोचित निष्ठा दिखाने का मौका या सही हालात नहीं हैं तो तुम्हें इसे शर्मनाक चीज मानने की जरूरत नहीं है। संतानोचित निष्ठा न दिखा पाने के कारण तुम्हें अपने माता-पिता को मुँह दिखाने में शर्मिंदा नहीं होना चाहिए, बात बस इतनी है कि तुम्हारे हालात इसकी अनुमति नहीं देते हैं। एक बच्चे के तौर पर तुम्हें समझना चाहिए कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं। अगर तुम अपने माता-पिता की दयालुता का कर्ज चुकाने पर ही ध्यान देते हो यह ऐसे बहुत सारे कर्तव्यों के आड़े आएगा जो तुम्हें निभाने चाहिए। ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जो तुम्हें अपने जीवन में अवश्य ही करनी चाहिए और तुम्हारे लिए वांछनीय ये कर्तव्य ऐसी चीजें हैं जो एक सृजित प्राणी को करनी चाहिए और जो तुम्हें सृष्टिकर्ता ने सौंपी हैं और इनका तुम्हारे माता-पिता के दयालुता का कर्ज चुकाने के साथ कोई लेना-देना नहीं है। अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाना, उनका कर्ज चुकाना, उनकी दयालुता का बदला चुकाना—इन चीजों का तुम्हारे जीवन के उद्देश्य से कोई लेना-देना नहीं है। यह भी कहा जा सकता है कि तुम्हारे लिए अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाना, उनका कर्ज चुकाना या उनके प्रति अपनी कोई भी जिम्मेदारी पूरी करना जरूरी नहीं है। दो टूक शब्दों में कहें तो जब तुम्हारे हालात इजाजत दें, तुम यह थोड़ा-बहुत कर सकते हो और अपनी थोड़ी-सी जिम्मेदारियाँ पूरी कर सकते हो; जब हालात इजाजत न दें तो तुम्हें ऐसा करने के लिए खुद को मजबूर करने की जरूरत नहीं है। अगर तुम अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाने के लिए अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा सकते हो तो यह कोई बड़ी गलती नहीं है, यह बस तुम्हारे जमीर और नैतिक न्याय के थोड़ा खिलाफ है और कुछ लोग तुम्हारी निंदा करेंगे—बस इतना ही। लेकिन कम से-कम, यह सत्य के खिलाफ नहीं है। अगर यह अपना कर्तव्य निभाने और परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चलने की खातिर है तो तुम परमेश्वर द्वारा सराहे तक जाओगे। इसलिए जहाँ तक अपने माता-पिता के प्रति कर्तव्यनिष्ठ होने की बात है, अगर तुम सत्य को समझते हो और लोगों के लिए परमेश्वर की अपेक्षाओं को समझते हो तो भले ही तुम्हारी स्थितियाँ तुम्हें माता-पिता के प्रति कर्तव्यनिष्ठ होने की अनुमति न दें, तुम्हारा जमीर तुम्हें नहीं कोसेगा” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचनों से, मैंने समझा कि हर कोई इस दुनिया में अपने मिशन के साथ आता है और माता-पिता के प्रति संतानोचित होने और उनके पालन-पोषण की कृपा का कर्ज चुकाने का किसी के मिशन से कोई लेना-देना नहीं है। अगर हम अपने माता-पिता के साथ रहते हैं, तो अपनी सर्वोत्तम क्षमता के अनुसार उनकी देखभाल करना और उनके प्रति संतानोचित होना वह है जो हमें करना चाहिए। लेकिन अगर हालात इजाजत नहीं देते और हम अपने माता-पिता के साथ नहीं रह सकते, तो हमें उनकी देखभाल न कर पाने के लिए दोषी या उनका कर्जदार महसूस नहीं करना चाहिए और हमें इसके बजाय अपने कर्तव्यों को पहले रखना चाहिए। सुसमाचार का प्रचार करने के लिए मुझे पुलिस ने गिरफ्तार किया था और अब मेरा एक पुलिस रिकॉर्ड था। मैंने मन में सोचा, “अगर मैं अब लौटती हूँ, तो यह लगभग जाल में फँसने जैसा ही होगा। मेरी माँ की देखभाल करने की तो बात ही छोड़ दो, मेरी अपनी सुरक्षा भी खतरे में पड़ सकती है।” इन परिस्थितियों को देखते हुए, मैं घर नहीं लौट सकती थी, इसलिए मुझे अपने दिल को शांत करना चाहिए और अपने कर्तव्यों को ठीक से करना चाहिए। यही सबसे महत्वपूर्ण है। जैसे-जैसे मेरी माँ बूढ़ी हो रही थी, बीमारी और मौत जीवन का एक सामान्य हिस्सा थे। मैं उनकी देखभाल करने या उसके प्रति संतानोचित होने में असमर्थ थी, भले ही मुझे कुछ पछतावा हुआ, मैं परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने को तैयार थी। परमेश्वर ने पहले ही हर किसी का भाग्य तय कर दिया है और जन्म, बुढ़ापा, बीमारी और मौत सब परमेश्वर के हाथों में हैं। मैं उनके लिए चाहे कितनी भी चिंता करती और परेशान होती, भले ही मैं उसके साथ रहती और उनकी देखभाल करती, मैं अपनी माँ का भाग्य नहीं बदल सकती थी। यह सब समझने के बाद, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मेरी माँ की बीमारी तुम्हारे हाथों में है और उनकी जिंदगी या मौत तुम्हारे हाथों में है। वह कितने साल जिएगी यह तुमने पहले ही तय कर दिया है और मैं अपनी माँ को तुम्हारे हाथों में सौंपने को तैयार हूँ। परिणाम चाहे जो भी हो, मैं तुम्हारे आयोजनों और व्यवस्थाओं को स्वीकारने और उनके प्रति समर्पण करने को तैयार हूँ।” प्रार्थना करने के बाद, मेरा दिल बहुत अधिक सहज और मुक्त महसूस हुआ और मैं अब इस मामले के बारे में चिंतित नहीं थी। मैं अपने दिल को शांत करने और अपने कर्तव्य करने में सक्षम थी। परमेश्वर का धन्यवाद!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?
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