जब मुझे अपनी माँ की मृत्यु के बारे में पता चला
झांग मेंग, चीनमेरे एक साल के होने से पहले ही मेरे पिता की बीमारी से मौत हो गई थी। हम पाँच बच्चों को पालने के लिए मेरी माँ को दो नौकरियाँ...
हम परमेश्वर के प्रकटन के लिए बेसब्र सभी साधकों का स्वागत करते हैं!
मेरा जन्म एक किसान परिवार में हुआ था और हमारी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। जब मैं पाँच साल की थी तो मेरे पापा हमें छोड़कर एक नया घर बसाने चले गए। मेरी माँ ने मुझे और मेरे तीन भाई-बहनों को अकेले ही पाला था। हम एक-दूसरे पर निर्भर थे, और जिंदगी बहुत कठिन थी। उन दिनों मेरे भाई-बहनों की सेहत अच्छी नहीं रहती थी और हम अक्सर बीमार रहते थे, खासकर मैं, क्योंकि मैं सबसे कमजोर थी। जरा सी भी सर्दी लगने पर मुझे जुकाम, खांसी और तेज बुखार हो जाता था और मेरी माँ अक्सर मुझे डॉक्टर के पास ले जाती थी। कभी-कभी तो मुझे रात को इतनी खांसी आती थी कि मैं सो नहीं पाती थी और माँ तब तक मेरे पास ही रहती जब तक मैं सो नहीं जाती थी और उसके बाद ही वह आराम करने के लिए लेटती थी। हमारे पास जो अच्छा खाना होता था, माँ वह खाना खुद नहीं खाती थी, बल्कि मेरे लिए बचाकर रखती थी। वह हर दिन अथक परिश्रम करती थी, हमारी पढ़ाई की खातिर पैसे जुटाने के लिए छोटे-मोटे काम करती थी। यह देखकर कि मेरी माँ ने हमारे लिए कितना त्याग किया है, मैं मन ही मन सोचती, “मेरे अंदर जमीर हमेशा जिंदा रहना चाहिए। मैं बड़ी होकर माँ के प्रति श्रद्धा रखूँगी और उसकी दयालुता का प्रतिदान दूँगी।” जब मैं बड़ी हुई और कुछ पैसे कमाने लगी तो माँ के प्रति श्रद्धा-भाव दिखाने के लिए मैं अक्सर उसके लिए कपड़े और दूसरी चीजें खरीदती। मुझे लगता था कि उसके लिए हमें पालना आसान नहीं था, इसलिए मुझे उसका प्रतिदान अच्छे से देना चाहिए। 2008 में एक दिन मेरे भाई का फोन आया कि माँ एक कार दुर्घटना की शिकार हो गई है और अस्पताल में भर्ती है। मैंने तुरंत अपने बॉस से अस्पताल में अपनी माँ की देखभाल के लिए छुट्टी माँगी और मैं उसके लगभग ठीक होने के बाद ही काम पर लौटी।
कुछ साल बाद मैंने और माँ ने परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकार लिया। छह महीने बाद मुझे सुसमाचार का प्रचार करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। रिहा होने के बाद पुलिस की निगरानी और पीछा करने से बचने के लिए मैंने घर छोड़ दिया ताकि अपना कर्तव्य कर सकूँ। एक बार मुझे एक बहन का पत्र मिला जिसमें लिखा था कि मेरा बड़ा भाई माँ से रोज झगड़ा करता है क्योंकि मैं घर नहीं लौटी थी। उसने माँ और मेरे परमेश्वर में विश्वास रखने के बारे में ऑनलाइन पोस्ट भी कर दिया था और पुलिस मुझे गिरफ्तार करने कई बार घर आई थी। पत्र पढ़कर मैं बहुत परेशान हो गई। बचपन से ही माँ ने मेरे लिए बहुत कुछ किया था, फिर भी मैं उसके लिए कुछ नहीं कर पा रही थी, मुझे बचाने के लिए उसे मेरे भाई के गुस्से को भी झेलना पड़ता था। मैं माँ के प्रति बहुत ऋणी महसूस कर रही थी और फूट-फूट कर रो पड़ी। कभी-कभी मैं सोचती, “वह हर साल बूढ़ी होती जा रही है और मेरा भाई उससे बहस करता रहता है और उसे परेशान करता है। अगर किसी दिन माँ गंभीर रूप से बीमार हो गई और उसने बिस्तर पकड़ लिया तो?” इन बातों के बारे में सोचकर मैं कुछ देर के लिए परेशान हो जाती, मुझे लगता कि मुझमें जमीर नहीं है और मैं एक संतानोचित बेटी नहीं हूँ। मैं अक्सर परेशान हो जाती और अपना कर्तव्य निभाने के लिए खुद को शांत न कर पाती। मुझे एहसास हुआ कि मैं मोह में डूबी हुई हूँ, इसलिए मैंने परमेश्वर के कुछ वचन खाए और पिए और मेरी दशा में कुछ हद तक सुधर हुआ।
मई 2021 में एक दिन मुझे घर से एक पत्र मिला। उसमें लिखा था कि माँ को स्तन कैंसर है और उसे अस्पताल में भर्ती कराने और सर्जरी के लिए तुरंत पैसों की जरूरत है, उसे कम से कम चार बार कीमोथेरेपी भी करवानी होगी। मेरी भाभियों ने कहा कि अगर मैं घर नहीं आई तो वे एक पैसा भी नहीं देंगी और न ही मेरी माँ की देखभाल करेंगी। पत्र पढ़कर मेरी आँखों से आँसू बहने लगे और मैंने सोचा, “माँ को इतनी गंभीर बीमारी कैसे हो सकती है? कहीं उसके घर पर बहुत ज्यादा काम करने की वजह से तो ऐसा नहीं हुआ है? अगर मैं घर न गई और समय पर इलाज न मिलने के कारण उसे कुछ हो गया तो क्या यह मेरी गलती नहीं होगी?” मुझे ख्याल आया कि माँ ने मेरी देखभाल करने और मुझे बड़ा करने के लिए कितनी मेहनत की थी। अब जबकि उसे कैंसर हो गया है, अगर मैं इस नाजुक घड़ी में उसकी देखभाल के लिए घर नहीं गई तो क्या यह मेरे लिए शर्मनाक ढंग से संतानोचित न होना नहीं होगा और यह नहीं दर्शाएगा कि मुझमें वाकई जमीर नहीं है? इसके अलावा, अगर मैं घर नहीं गई तो मेरे रिश्तेदार और पड़ोसी मेरे बारे में क्या कहेंगे? वे लोग मुझे पक्का कृतघ्न और नालायक कहेंगे और इस किस्म की बातें कहेंगे, “तुम्हारी माँ ने तुम्हें पाला-पोसा और अब तुम्हें उसकी परवाह तक नहीं है? तुम्हारे अंदर जमीर नाम की कोई चीज है या नहीं?” मैंने यह भी विचार किया कि मेरी माँ की हालत कितनी गंभीर है। अगर मैं घर नहीं गई, समय पर उसकी बीमारी का इलाज नहीं हुआ और वह मर गई तो? मैं उसे फिर कभी नहीं देख पाऊँगी। मुझे बहुत दुख हुआ और सोचा काश मैं अभी उसके पास उड़कर पहुँच पाती। लेकिन एक बार मुझे पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था और मेरे बड़े भाई ने मुझे धोखा दिया था, इसलिए अगर मैं घर गई और गिरफ्तार हो गई तो मैं क्या करूँगी? इसके अलावा, घर जाने के लिए मैं अपने कर्तव्य से यूँ ही मुँह नहीं मोड़ सकती थी! जब कभी मैं अपने आस-पास ऐसे भाई-बहनों को देखती जो अपने माता-पिता से मिलने घर जा पाते थे तो मैं खुद से शिकायत करने लगती थी, “परमेश्वर ने सीसीपी को मुझे गिरफ्तार करने की अनुमति क्यों दी? अगर कोई खतरा न होता तो क्या मैं भी अपनी माँ की देखभाल के लिए घर नहीं जा सकती थी? अगर मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर से बाहर न निकली होती तो सीसीपी मेरा पीछा न कर रही होती और मैं फौरन घर जा सकती थी।” मैं इस बात से इतनी परेशान थी कि अपने कर्तव्य पर ध्यान नहीं दे पा रही थी। मैं जानती थी कि अगर मेरी दशा नहीं बदली तो मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा पाऊँगी, इसलिए मैंने परमेश्वर के सामने अपनी दशा जाहिर कर दी और प्रार्थना की कि परमेश्वर मुझे मेरे मोह से बाहर निकाले। मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया : “किसी व्यक्ति को जितना भी दुख भोगना है और अपने मार्ग पर जितनी दूर तक चलना है, वह सब परमेश्वर ने पहले से ही तय किया होता है, और इसमें सचमुच कोई किसी की मदद नहीं कर सकता” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मार्ग ... (6))। परमेश्वर के वचनों पर आत्म-चिंतन कर मेरा दिल थोड़ा रोशन हुआ। मेरी माँ की गंभीर बीमारी परमेश्वर की अनुमति से हुई थी और यह पीड़ा उसे सहनी ही थी। अगर मैं घर चली भी गई तो उसकी पीड़ा अपने ऊपर नहीं ले सकती और मुझे अपनी माँ की बीमारी को सही नजरिए से देखना होगा। अगर परमेश्वर ने पहले से ही तय कर दिया है कि मेरी माँ का जीवनकाल समाप्त हो गया है तो घर जाने से कुछ नहीं बदल सकता। अगर परमेश्वर ने उसे मरने की अनुमति नहीं दी है तो चाहे उसकी बीमारी कितनी भी गंभीर क्यों न हो जाए, वह मर नहीं सकती। मुझे एक अनुभवजन्य गवाही लेख याद आया जो मैंने पहले पढ़ा था। उसमें लिखा था कि एक बुजुर्ग बहन को कैंसर होने का पता चलता है। उसने सभी उपचार करवाए, लेकिन उसकी हालत में कोई सुधार नहीं हुआ और अस्पताल उसके घरवालों को उसकी गंभीर हालत के बारे चेतावनी दे देता है। उसके बच्चों, रिश्तेदारों और तमाम लोगों को लगा कि वह बच नहीं पाएगी, लेकिन अप्रत्याशित रूप से, जब उस बहन ने प्रार्थना की, परमेश्वर पर भरोसा किया और अपना जीवन-मरण उसे सौंप दिया तो वह वाकई बच गई। उस बहन के अनुभव ने मुझे प्रेरित किया और मैंने महसूस किया कि मुझे अपनी माँ को परमेश्वर के हाथों में सौंप देना होगा। यह एहसास होने पर मुझे अंदर से थोड़ी शांति मिली। कुछ समय बाद मुझे माँ का एक पत्र मिला। उसमें लिखा था कि जब वह बीमार थी तो मेरे दो बड़े चचेरे भाइयों और मेरी भाभी ने बारी-बारी से अस्पताल में उसकी देखभाल की। उसने यह भी लिखा कि उसकी सर्जरी हो गई है और उसकी तबियत में सुधार हो रहा है। उसने लिखा कि मैं उसकी चिंता न करूँ और अपना कर्तव्य ठीक से निभाऊँ। यह जानकर मैं बहुत भावुक हो गई और मेरी आँखों में आँसू बहने लगे। मेरा दिल परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता से भर गया।
इसके बाद मैं अक्सर विचार करती। मुझे पता था कि मुझे एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाते रहना चाहिए, लेकिन मैं अपनी माँ की देखभाल न कर पाने की बात को भूल क्यों नहीं पाई और हमेशा उसके प्रति अपराधबोध क्यों महसूस करती रही? मैंने अपने कर्तव्य का त्याग करने और परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने तक के बारे में भी सोचा। बाद में जब मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, तब मुझे अपनी समस्या का कुछ एहसास हुआ। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “चीनी परंपरागत संस्कृति के अनुकूलन के कारण चीनी लोगों की परंपरागत धारणाओं में यह माना जाता है कि लोगों को अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा रखनी चाहिए। जो भी संतानोचित निष्ठा का पालन नहीं करता, वह कपूत होता है। ये विचार बचपन से ही लोगों के मन में बिठाए गए हैं, और ये लगभग हर घर में, साथ ही हर स्कूल में और बड़े पैमाने पर पूरे समाज में सिखाए जाते हैं। जब किसी व्यक्ति का दिमाग इस तरह की चीजों से भर जाता है, तो वह सोचता है, ‘संतानोचित निष्ठा किसी भी चीज से ज्यादा महत्वपूर्ण है। अगर मैं इसका पालन नहीं करता तो मैं एक अच्छा इंसान नहीं हूँ—मैं कपूत हूँ और समाज मेरी निंदा करेगा। मैं ऐसा व्यक्ति बन जाता, जिसमें जमीर नहीं है।’ क्या यह नजरिया सही है? लोगों ने परमेश्वर द्वारा व्यक्त इतने अधिक सत्य देखे हैं—क्या परमेश्वर ने अपेक्षा की है कि व्यक्ति अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाए? क्या यह कोई ऐसा सत्य है, जिसे परमेश्वर के विश्वासियों को समझना ही चाहिए? नहीं, यह ऐसा सत्य नहीं है। परमेश्वर ने केवल कुछ सिद्धांतों पर संगति की है। परमेश्वर के वचन किस सिद्धांत द्वारा लोगों से दूसरों के साथ व्यवहार किए जाने की अपेक्षा करते हैं? परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो : यही वह सिद्धांत है, जिसका पालन किया जाना चाहिए। ... शैतान इस तरह की परंपरागत संस्कृति और नैतिकता की धारणाओं का इस्तेमाल तुम्हारे दिल, दिमाग और विचारों को बाँधने के लिए करता है, जिससे तुम परमेश्वर के वचन स्वीकार करने में असमर्थ हो जाते हो; तुम पूरी तरह शैतान की इन चीजों के काबू में आ चुके हो और परमेश्वर के वचन स्वीकार करने में असमर्थ हो गए हो। जब तुम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना चाहते हो तो ये चीजें तुम्हारे मन में बाधा पैदा करती हैं, तुमसे सत्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं का विरोध कराती हैं और तुम्हें अपने कंधे से परंपरागत संस्कृति का जुआ उतारकर फेंकने के लिए शक्तिहीन बना देती हैं। कुछ देर संघर्ष करने के बाद तुम समझौता कर लेते हो : तुम यह विश्वास करना पसंद करते हो कि नैतिकता की परंपरागत धारणाएँ सही हैं और सत्य के अनुरूप भी हैं, और इसलिए तुम परमेश्वर के वचन ठुकरा या त्याग देते हो। तुम परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मानते और तुम बचाए जाने के बारे में कुछ नहीं सोचते, तुम्हें लगता है कि तुम अभी भी इस संसार में जी रहे हो और इन्हीं चीजों पर निर्भर रहकर जीवित रह सकते हो। समाज के दोषारोपण झेलने में असमर्थ होकर तुम सत्य और परमेश्वर के वचन तज देना पसंद करते हो, खुद को नैतिकता की परंपरागत धारणाओं और शैतान के प्रभाव के हवाले छोड़ देते हो और परमेश्वर को नाराज करना और सत्य का अभ्यास न करना बेहतर समझते हो। मुझे बताओ, क्या इंसान दीन-हीन नहीं है? क्या उसे परमेश्वर से उद्धार पाने की जरूरत नहीं है? कुछ लोगों ने बरसों से परमेश्वर पर विश्वास किया है, फिर भी उनके पास संतानोचित निष्ठा के मामले में कोई अंतर्दृष्टि नहीं है। वे वास्तव में सत्य को नहीं समझते। वे सांसारिक संबंधों की इस बाधा को कभी नहीं तोड़ सकते; उनमें न साहस होता है न ही आस्था, संकल्प होना तो दूर की बात है, इसलिए वे परमेश्वर से प्रेम नहीं कर सकते, उसके प्रति समर्पण नहीं कर सकते हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने गलत विचारों को जानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करने पर मुझे एहसास हुआ कि शैतान स्कूल में मिलने वाली शिक्षा और परिवार के प्रभाव का इस्तेमाल करके हमारे अंदर “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए”, “संतानोचित धर्मनिष्ठा का गुण सबसे ऊपर रखना चाहिए” और “अपने माता-पिता के जीवित रहते दूर की यात्रा मत करो” जैसे पारंपरिक विचार गहराई से बिठा देता है। मेरा मानना था कि माता-पिता के प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखाना सबसे महत्वपूर्ण है, माता-पिता के प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा न दिखाने का मतलब है कि व्यक्ति कृतघ्न है, उसमें मानवता नाम की कोई चीज नहीं है और उसका जमीर उसे धिक्कारेगा। मैं इन्हीं पारंपरिक विचारों के अनुसार जीती थी, मुझे लगता था कि मेरी परवरिश में माँ ने मेरे लिए दूसरों की तुलना में सबसे ज्यादा त्याग किए हैं, मुझे उसकी देखभाल और पालन-पोषण का प्रतिदान देना होगा, अगर मैंने उसका प्रतिदान नहीं दिया तो मुझमें संतानोचित धर्मनिष्ठा नहीं है, मेरे अंदर विवेक और मानवता नाम की कोई चीज नहीं है। खासकर जब पता चला कि माँ को कैंसर है तो मैं दिल में माँ को अनदेखा नहीं कर पा रही थी। मुझे लगा बचपन में मेरी बीमारी के दौरान माँ मेरी बहुत देखभाल करती थी, अब जबकि वह बीमार है तो मुझे भी उसके पास रहना चाहिए और उसी तरह उसकी देखभाल करनी चाहिए, वरना माँ का मेरा पालन-पोषण करना व्यर्थ हो जाएगा। इसलिए मैं जल्दी से उसके पास जाकर इलाज के लिए उसे अस्पताल ले जाना चाहती थी। चूँकि पुलिस मुझे ढूँढ रही थी, मैं माँ की देखभाल के लिए घर नहीं जा सकती थी, इसलिए मैं शिकायत करने लगी कि पुलिस मुझे क्यों ढूँढ़ रही है और मुझे कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ने का भी पछतावा होने लगा। ये गलत दशा शैतान के विचारों और दृष्टिकोणों से बंधे होने के कारण थी, अगर मैंने इसका समाधान नहीं किया तो मैं कभी भी परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर बैठूँगी।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और जाना कि माँ की देखभाल को सही तरीके से कैसे देखना है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “आओ, चर्चा करें कि ‘तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं’ की व्याख्या कैसे की जाए। तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं—क्या यह तथ्य नहीं है? (जरूर है।) चूँकि यह एक तथ्य है, इसलिए हमारे लिए इसमें निहित मुद्दों को स्पष्ट समझाना उचित है। आओ तुम्हारे माता-पिता द्वारा तुम्हें जन्म देने के मामले पर गौर करें। यह किसने चुना कि वे तुम्हें जन्म दें : तुमने या तुम्हारे माता-पिता ने? अगर इस पर तुम परमेश्वर के दृष्टिकोण से गौर करो, तो यह चुनाव मनुष्यों के करने के लिए नहीं है। तुमने अपने माता-पिता के लिए यह चुनाव नहीं किया कि वे तुम्हें जन्म दें और न ही उन्होंने ये चुनाव किया। इस मामले की जड़ को देखा जाए, तो यह परमेश्वर द्वारा नियत था। इस विषय को फिलहाल हम अलग रख देंगे, क्योंकि लोगों के लिए यह मामला समझना आसान है। अपने नजरिये से, तुम निश्चेष्टा से, इस मामले में बिना किसी विकल्प के, अपने माता-पिता के यहाँ पैदा हुए। तुम्हारे माता-पिता के परिप्रेक्ष्य से, यह बच्चों को जन्म देने और उनका पालन-पोषण करने की उनकी व्यक्तिपरक इच्छा थी। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के विधान को अलग रखकर जब बच्चों को जन्म देने और उनका पालन-पोषण करने की बात आती है, तो ये तुम्हारे माता-पिता ही थे जिनके पास संपूर्ण शक्ति थी। उन्होंने चुना कि तुम्हें जन्म देना है। तुमने निश्चेष्टा से उनके यहाँ जन्म लिया। इस मामले में तुम्हारे पास कोई विकल्प नहीं था। तो चूँकि तुम्हारे माता-पिता के पास संपूर्ण शक्ति थी और चूँकि उन्होंने तुम्हें जन्म दिया, इसलिए उनका यह दायित्व और जिम्मेदारी है कि वे तुम्हारे वयस्क होने तक तुम्हारा पालन-पोषण करें। चाहे यह तुम्हें शिक्षा प्रदान करना हो या तुम्हें भोजन और कपड़ों की आपूर्ति करना, यह उनकी जिम्मेदारी और दायित्व है और यह उन्हें करना ही चाहिए। वे जब तुम्हें बड़ा कर रहे थे, तब तुम हमेशा निश्चेष्ट थे, तुम्हारे पास चुनने का हक नहीं था—तुम्हें उनके हाथों ही बड़ा होना था। चूँकि तुम छोटे थे, तुम्हारे पास अपनी देखभाल करने की क्षमता नहीं थी, तुम्हारे पास निश्चेष्टा से अपने माता-पिता द्वारा पाल-पोस कर बड़ा किए जाने के सिवाय कोई विकल्प नहीं था। तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारा जैसे भी पालन-पोषण किया, यह तुम पर निर्भर नहीं था। अगर उन्होंने तुम्हें अच्छी खाने-पीने की चीजें दीं तो तुम्हें अच्छी खाने-पीने की चीजें मिलीं। अगर तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें जीने का ऐसा माहौल दिया जहाँ तुम्हें भूसा और जंगली पौधे खाकर जिंदा रहना पड़ता, तो तुम भूसे और जंगली पौधों पर जिंदा रहते। किसी भी स्थिति में, अपने पालन-पोषण के समय तुम निश्चेष्ट थे, और तुम्हारे माता-पिता अपनी जिम्मेदारी निभा रहे थे। यह वैसी ही बात है जैसे कि तुम्हारे माता-पिता किसी फूल की देखभाल कर रहे हों। चूँकि वे फूल की देखभाल की चाह रखते हैं, इसलिए उन्हें उसे खाद देना चाहिए, सींचना चाहिए, और सुनिश्चित करना चाहिए कि उसे धूप मिले। तो लोगों की बात करें, तो तुम्हारे माता-पिता ने सावधानी से तुम्हारी देखभाल की हो या तुम्हारी बहुत परवाह की हो, किसी भी स्थिति में, वे बस अपनी जिम्मेदारी और दायित्व निभा रहे थे। तुम्हें उन्होंने जिस भी कारण से पाल-पोस कर बड़ा किया हो, यह उनकी जिम्मेदारी थी—चूँकि उन्होंने तुम्हें जन्म दिया, इसलिए उन्हें तुम्हारी जिम्मेदारी उठानी चाहिए। इस आधार पर, जो कुछ भी तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारे लिए किया, क्या उसे दयालुता कहा जा सकता है? नहीं कहा जा सकता, सही है? (सही है।) ... किसी भी स्थिति में, तुम्हें पाल-पोसकर तुम्हारे माता-पिता एक जिम्मेदारी और एक दायित्व निभा रहे हैं। तुम्हें पाल-पोस कर वयस्क बनाना उनका दायित्व और जिम्मेदारी है, और इसे दयालुता नहीं कहा जा सकता। चूँकि इसे दयालुता नहीं कहा जा सकता, तो क्या यह कहा जा सकता है कि यह कुछ ऐसी चीज है जिसका तुम्हें आनंद लेना चाहिए? (यह कहा जा सकता है।) यह एक प्रकार का अधिकार है जिसका तुम्हें आनंद लेना चाहिए। तुम्हें अपने माता-पिता द्वारा पाल-पोस कर बड़ा किया जाना चाहिए, क्योंकि वयस्क होने से पहले तुम्हारी भूमिका एक पाले-पोसे जा रहे बच्चे की होती है। इसलिए, तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे प्रति सिर्फ एक जिम्मेदारी पूरी कर रहे हैं, और तुम बस इसे प्राप्त कर रहे हो, लेकिन निश्चित रूप से तुम उनसे अनुग्रह या दयालुता प्राप्त नहीं कर रहे हो। किसी भी जीवित प्राणी के लिए बच्चों को जन्म देकर उनकी देखभाल करना, प्रजनन करना और अगली पीढ़ी को बड़ा करना एक किस्म की जिम्मेदारी है। उदाहरण के लिए, पक्षी, गायें, भेड़ें और यहाँ तक कि बाघ भी प्रजनन के बाद अपने बच्चों की देखभाल करते हैं। ऐसा कोई भी जीवित प्राणी नहीं है जो अपनी संतान को पाल-पोस कर बड़ा न करता हो। कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन वे हमारे लिए अज्ञात बने हुए हैं। जीवित प्राणियों के अस्तित्व में यह एक कुदरती घटना है, जीवित प्राणियों की यह सहजप्रवृत्ति है और इसका श्रेय दयालुता को नहीं दिया जा सकता है। वे बस उस विधि का पालन कर रहे हैं जो सृष्टिकर्ता ने जानवरों और मानवजाति के लिए स्थापित की है। इसलिए, तुम्हारे माता-पिता का तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करना किसी प्रकार की दयालुता नहीं है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं। वे तुम्हारे प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी कर रहे हैं। वे तुम्हारे लिए अपने दिल का चाहे कितना ही खून खपाएँ और तुम पर कितना ही पैसा खर्च करें, उन्हें तुमसे इसकी भरपाई करने को नहीं कहना चाहिए, क्योंकि माता-पिता के रूप में यह उनकी जिम्मेदारी है। चूँकि यह एक जिम्मेदारी और दायित्व है, इसलिए इसे मुफ्त होना चाहिए, और उन्हें इसकी भरपाई करने को नहीं कहना चाहिए। तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करके तुम्हारे माता-पिता बस अपनी जिम्मेदारी और दायित्व निभा रहे थे, और यह निःशुल्क होना चाहिए, इसमें लेनदेन नहीं होना चाहिए। इसलिए तुम्हें भरपाई करने के विचार के अनुसार न तो अपने माता-पिता से पेश आना चाहिए, न उनके साथ अपने रिश्ते को ऐसे सँभालना चाहिए। अगर तुम इस विचार के अनुसार अपने माता-पिता से पेश आते हो, उनका कर्ज चुकाते हो और उनके साथ अपने रिश्ते को सँभालते हो, तो यह अमानुषी है। साथ ही, हो सकता है इसके कारण तुम आसानी से अपनी दैहिक भावनाओं से नियंत्रित होकर उनसे बँध जाओ और फिर तुम्हारे लिए इन उलझनों से उबरना इस हद तक मुश्किल हो जाएगा कि शायद तुम अपनी राह से भटक जाओ” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि माँ के प्रति ऋणग्रस्तता और शांत मन से अपना कर्तव्य न निभा पाने की मेरी भावनाएँ इसलिए थीं क्योंकि मैं खुद को माँ की ऋणी मानती थी। मेरा मानना था कि उसने जो कुछ भी मेरे लिए किया है, मुझे उसका पूरा-पूरा प्रतिदान देना चाहिए, इसलिए मैं हमेशा खुद को इस दयालुता की ऋणी महसूस करती थी और जब भी मैं अपनी माँ की देखभाल नहीं कर पाती थी तो खुद को उसकी ऋणी महसूस करती थी। खासकर अब जब माँ को कैंसर हो गया था तो मुझे लगता था कि अगर मेरी माँ का निधन हो गया तो मैं अपने जीवनकाल में उसकी दयालुता का पूरा ऋण कभी नहीं चुका पाऊँगी। दरअसल माँ का मेरे प्रति दयालु होना और मेरी देखभाल करना एक माँ के रूप में उसका अपनी जिम्मेदारी और कर्तव्य पूरा करना था। मुझे जन्म देकर वयस्क होने तक मेरी परवरिश करना उसका दायित्व बनता था, यह दयालुता की श्रेणी में नहीं आता। जैसे जन्म देकर जानवरों को अपने बच्चों की देखभाल करनी होती है, यह उनकी सहज प्रवृत्ति है और परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित है। इसी तरह अगर आप घर में बिल्ली या कुत्ता पालते हैं तो उनके मालिक होने के नाते आप उनके खाने-पीने और रोजमर्रा की जरूरतों के लिए जिम्मेदार होते हैं। ये कोई दयालुता की श्रेणी में नहीं आता, बस जिम्मेदारी निभाना होता है। इसी तरह मुझे अपना जीवन भी परमेश्वर से ही मिला है, परमेश्वर ने ही मुझे जीवन की साँसें दी हैं और आज भी वही मेरी देखभाल और सुरक्षा करता है। मुझे याद है कई बार मैं कार की चपेट में आने से बाल-बाल बची हूँ, लेकिन परमेश्वर की सुरक्षा के कारण मैं हमेशा सुरक्षित निकल आई हूँ। एक बार तलाक के बाद मेरा पति मुझे अपने बच्चे की देखभाल नहीं करने दे रहा था और जब मैंने उसकी बात मानने से इनकार कर दिया तो उसने मेरा गला घोंटकर मुझे मारने की कोशिश की। जब वह ऐसा कर रहा था तो मैं लगातार परमेश्वर को पुकार रही थी, मैं उसे धक्का देने में कामयाब हो गई और आखिरकार खतरे से बाहर निकल पाई। मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : “जब परमेश्वर तुम्हारे लिए कोई परिवार चुन लेता है, तो फिर वह वो तिथि चुनता है, जब तुम्हारा जन्म होगा। फिर परमेश्वर तुम्हें जन्म लेते और रोते हुए संसार में आते देखता है। वह तुम्हारा जन्म देखता है, तुम्हें अपने पहले शब्द बोलते देखता है, तुम्हें चलना सीखते समय लड़खड़ाते और डगमगाते हुए अपने पहले कदम उठाते देखता है। पहले तुम एक कदम उठाते हो और फिर दूसरा कदम उठाते हो—और अब तुम दौड़ सकते हो, कूद सकते हो, बोल सकते हो, अपनी भावनाएँ व्यक्त कर सकते हो...। जैसे-जैसे लोग बड़े होते हैं, शैतान की निगाह उनमें से प्रत्येक पर जम जाती है, जैसे कोई बाघ अपने शिकार पर नजर रख रहा हो। लेकिन अपना कार्य करने में परमेश्वर कभी भी लोगों, घटनाओं या चीजों से उत्पन्न या स्थान या समय की सीमाओं के अधीन नहीं रहा; वह वही करता है जो उसे करना चाहिए और जो उसे करना है। बड़े होने की प्रक्रिया में तुम्हारे सामने ऐसी कई चीजें आ सकती हैं, जो तुम्हें पसंद न हों, और साथ ही बीमारी और कुंठा भी आ सकती हैं। लेकिन जैसे-जैसे तुम इस मार्ग पर चलते हो, तुम्हारा जीवन और भविष्य पूरी तरह से परमेश्वर की देखरेख के अधीन होता है। परमेश्वर तुम्हें तुम्हारे पूरे जीवन के लिए एक वास्तविक गारंटी देता है, क्योंकि वह तुम्हारी रक्षा और देखभाल करते हुए बिल्कुल तुम्हारी बगल में रहता है” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। व्यक्तिगत अनुभवों के जरिए मैंने अपने दिल में परमेश्वर के वचनों को और भी पुष्ट कर लिया है। जन्म से लेकर अब तक वास्तव में परमेश्वर ही गुप्त रूप से मेरी रक्षा कर रहा है। परमेश्वर ने मेरे लिए अपने दिल के खून से कीमत चुकाई है, फिर भी मैं उसके प्रति कृतज्ञ नहीं हो पाई, बल्कि अपनी माँ के प्रति अपराधबोध की भावनाओं में डूबी रही, मैं अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठावान नहीं रही जिसका दुष्प्रभाव कार्य की प्रगति पर पड़ा। यह सब मेरी माँ की पोषणकारी देखभाल को सही ढंग से न देख पाने की मेरी असमर्थता के कारण हुआ।
अपनी भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “ज्यादातर लोग अपने कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ने को कुछ हद तक व्यापक वस्तुपरक हालात के कारण चुनते हैं जिससे उनका अपने माता-पिता को छोड़ना जरूरी हो जाता है; वे अपने माता-पिता की देखभाल के लिए उनके साथ नहीं रह सकते; ऐसा नहीं है कि वे स्वेच्छा से अपने माता-पिता को छोड़ना चुनते हैं; यह वस्तुपरक कारण है। दूसरी ओर, व्यक्तिपरक ढंग से कहें, तो तुम अपने कर्तव्य निभाने के लिए बाहर इसलिए नहीं जाते कि तुम अपने माता-पिता को छोड़ देना चाहते हो और अपनी जिम्मेदारियों से बचकर भागना चाहते हो, बल्कि परमेश्वर की बुलाहट की वजह से जाते हो। परमेश्वर के कार्य के साथ सहयोग करने, उसकी बुलाहट स्वीकार करने और एक सृजित प्राणी के कर्तव्य निभाने के लिए तुम्हारे पास अपने माता-पिता को छोड़ने के सिवाय कोई चारा नहीं था; तुम उनकी देखभाल करने और उनका साथ देने के लिए उनके बगल में नहीं रह सकते थे। तुमने अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए उन्हें नहीं छोड़ा, सही है? अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए उन्हें छोड़ देना और परमेश्वर की बुलाहट का जवाब देने और अपने कर्तव्य निभाने के लिए उन्हें छोड़ना—क्या इन दोनों बातों की प्रकृतियाँ अलग नहीं हैं? (बिल्कुल।) तुम्हारे हृदय में तुम्हारे माता-पिता के प्रति भावनात्मक लगाव और विचार जरूर होते हैं; तुम्हारी भावनाएँ खोखली नहीं हैं। अगर वस्तुपरक हालात अनुमति दें, और तुम अपने कर्तव्य निभाते हुए भी उनके साथ रह पाओ, तो तुम उनके साथ रहने को तैयार होगे, नियमित रूप से उनकी देखभाल करोगे और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करोगे। लेकिन वस्तुपरक हालात के कारण तुम्हें उनको छोड़ना पड़ता है; तुम उनके साथ नहीं रह सकते। ऐसा नहीं है कि तुम उनके बच्चे के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाना चाहते हो, बल्कि तुम नहीं निभा सकते हो। क्या इसकी प्रकृति अलग नहीं है? (बिल्कुल है।) अगर तुमने संतानोचित होने और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने से बचने के लिए घर छोड़ दिया था, तो यह असंतानोचित होना है और यह मानवता का अभाव दर्शाता है। तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें पाल-पोसकर बड़ा किया, लेकिन तुम अपने पंख फैलाकर जल्द-से-जल्द अपने रास्ते चले जाना चाहते हो। तुम अपने माता-पिता को नहीं देखना चाहते, और उनकी किसी भी मुश्किल के बारे में सुनकर तुम कोई ध्यान नहीं देते। तुम्हारे पास मदद करने के साधन होने पर भी तुम नहीं करते; तुम बस सुनाई न देने का बहाना कर लोगों को तुम्हारे बारे में जो चाहें कहने देते हो—तुम बस अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाना चाहते। यह असंतानोचित होना है। लेकिन क्या स्थिति अभी ऐसी है? (नहीं।) बहुत-से लोगों ने अपने कर्तव्य निभाने के लिए अपनी काउंटी, शहर, प्रांत और यहाँ तक कि अपने देश तक को छोड़ दिया है; वे पहले ही अपने गाँवों से बहुत दूर हैं। इसके अलावा, विभिन्न कारणों से उनके लिए अपने परिवारों के साथ संपर्क में रहना सुविधाजनक नहीं है। कभी-कभी वे अपने माता-पिता की मौजूदा दशा के बारे में उसी गाँव से आए लोगों से पूछ लेते हैं और यह सुन कर राहत महसूस करते हैं कि उनके माता-पिता अभी भी स्वस्थ हैं और ठीक गुजारा कर पा रहे हैं। दरअसल, तुम असंतानोचित नहीं हो; तुम मानवता न होने के उस मुकाम पर नहीं पहुँचे हो, जहाँ तुम अपने माता-पिता की परवाह भी नहीं करना चाहते, या उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाना चाहते। यह विभिन्न वस्तुपरक कारणों से है कि तुम्हें यह चुनना पड़ा है, इसलिए तुम असंतानोचित नहीं हो” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (16))। परमेश्वर के वचनों पर विचार कर मुझे समझ आया कि कोई भी अपने माता-पिता की खातिर जीने के लिए दुनिया में नहीं आता, हर किसी का अपना एक मिशन होता है और एक सृजित प्राणी होने के नाते मेरे कुछ कर्तव्य हैं जिन्हें मुझे पूरा करना है। पिछले कुछ वर्षों में घर से दूर रहकर मैंने एक सृजित प्राणी होने के नाते अपनी जिम्मेदारियाँ और अपने कर्तव्य निभाए हैं और ऐसा करना बिल्कुल स्वाभाविक और उचित था। इसके अलावा, परिस्थितियों के कारण मुझे अपना घर और माँ को छोड़ना पड़ा क्योंकि पुलिस मुझे ढूँढ रही थी। यह मेरा संतानोचित न होना नहीं है। हालाँकि मेरा हमेशा से मानना रहा है कि अपनी माँ की बीमारी के दौरान उसकी देखभाल न कर पाने का मतलब है कि मुझमें मानवता नहीं है और मैं संतानोचित नहीं हूँ। लेकिन मेरा यह दृष्टिकोण सत्य से मेल नहीं खाता। वास्तव में मानवता का न होना और संतानोचित न होना तब होता है जब किसी व्यक्ति के पास अपने माता-पिता की देखभाल करने के साधन हों, लेकिन फिर भी वह उनकी देखभाल नहीं करता, पूरी तरह उनकी अनदेखी करता है या उन्हें बोझ समझता है। यह जिम्मेदारी से भागना है और सचमुच मानवता का न होना और शर्मनाक ढंग से संतानोचित न होना है। अपने व्यवहार पर विचार करते हुए मैंने देखा कि पहले जब परिस्थितियाँ अनुकूल थीं तो एक कार दुर्घटना के बाद मैंने माँ की तन-मन से सेवा की थी और जब मैं घर पर होती थी तब भी मैं उसके प्रति विचारशील रहती थी और देखभाल करती थी और एक बेटी के नाते अपनी जिम्मेदारियाँ निभा रही थी। अब जबकि मेरी माँ को कैंसर हो गया था तो मैं घर नहीं लौट पा रही थी, क्योंकि पुलिस अभी भी मेरा पीछा कर रही थी। अगर मैं लौटने का जोखिम उठाती तो मुझे गिरफ्तार किया जा सकता था, ऐसे में न केवल मैं अपनी माँ की देखभाल करने में असमर्थ होती, बल्कि मैं अपना कर्तव्य निभाने का अवसर भी खो बैठती। इसका एहसास होने पर अब मुझे अपनी माँ की देखभाल न कर पाने का अपराधबोध नहीं होता था।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “अगर तुम अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़कर नहीं गए होते और अपने माता-पिता के साथ ही रह रहे होते, तो क्या तुम उन्हें बीमार पड़ने से रोक सकते थे? (नहीं।) क्या यह तुम्हारे वश में है कि तुम्हारे माता-पिता जीवित रहें या मर जाएँ? क्या उनका अमीर या गरीब होना तुम्हारे वश में है? (नहीं।) तुम्हारे माता-पिता को जो भी रोग हो, वह इस वजह से नहीं है कि वे तुम्हें बड़ा करने में बहुत थक गए, या उन्हें तुम्हारी याद आई; उन्हें विशेष रूप से तुम्हारे कारण कोई भी बड़ी, गंभीर बीमारी या जानलेवा स्थिति नहीं हो जाएगी। यह उनका भाग्य है, और इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। तुम चाहे कितने भी संतानोचित क्यों न हो या तुम उनकी कितनी भी ध्यान से देखभाल क्यों न करो, ज्यादा-से-ज्यादा तुम बस उनके दैहिक कष्ट और दायित्वों को जरा-सा कम कर सकोगे। लेकिन वे कब बीमार पड़ेंगे, उन्हें कौन-सी बीमारी होगी, उनकी मृत्यु कब और कहाँ होगी—क्या इन चीजों का इस बात से कोई लेना-देना है कि तुम उनके साथ रहकर उनकी देखभाल कर रहे हो या नहीं? नहीं, नहीं है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचनों पर विचार कर मुझे उसकी संप्रभुता की कुछ समझ मिली। अगर मैं अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए घर से बाहर न भी जाती और माँ की देखभाल करने के लिए उसके साथ रहती तो भी मैं यह गारंटी नहीं दे सकती थी कि वह बीमार नहीं पड़ेगी। किस व्यक्ति को कितने कष्ट या कितनी असफलताएँ झेलनी हैं, यह इंसानी नियंत्रण से बाहर है, हर इंसान की नियति पूरी तरह से परमेश्वर के हाथों में है। उदाहरण के लिए, मेरी माँ अब 60 वर्ष की है और इस उम्र में स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ होना सामान्य बात है। अगर मैं घर जाकर उसकी देखभाल भी करती, उसे दुलारती-पुचकारती और उसके लिए अच्छा खाना बनाती तो भी उसे ज्यादा से ज्यादा थोड़ी आध्यात्मिक सांत्वना ही मिल सकती थी, लेकिन उसकी बीमारी की पीड़ा मैं अपने ऊपर नहीं ले सकती थी। मैंने विचार किया कि कुछ बच्चे अपने माता-पिता के प्रति विशेष रूप से संतानोचित व्यवहार करते हैं, उन्हें अपने साथ रखते हैं और पूरी शिद्दत से उनकी देखभाल करते हैं, फिर भी उनके माता-पिता बीमार पड़ जाते हैं। इससे पता चलता है कि जरूरी नहीं कि बच्चों के साथ रहने से माता-पिता स्वस्थ रहें, न ही बच्चों का उनके साथ होना उनकी बीमारी से ठीक होने की गारंटी है। ये मामले पूरी तरह से परमेश्वर की संप्रभुता और पूर्वनियति द्वारा निर्धारित होते हैं। उदाहरण के लिए, जब इस बार माँ को कैंसर होने का पता चला तो यह गंभीर लग रहा था और यह निश्चित नहीं था कि इसका इलाज हो पाएगा या नहीं, और मेरी भाभियों ने तो यहाँ तक कह दिया था कि अगर मैं घर नहीं लौटी तो वे मेरी माँ के इलाज का खर्च नहीं उठाएँगी। फिर भी आखिरकार मेरे छोटे भाई की पत्नी और दो बड़े चचेरे भाइयों ने पैसे दिए और अस्पताल में बारी-बारी से माँ की देखभाल की। माँ की हालत और बिगड़ने से बच गई और उसकी तबियत में काफी सुधार भी हुआ। इससे मुझे पता चला कि लोग सचमुच अपने भाग्य को नियंत्रित नहीं कर सकते, यह सब परमेश्वर के हाथों में होता है। मुझे माँ की चिंताएँ छोड़कर उसे परमेश्वर को सौंप देना चाहिए।
नवंबर 2023 में एक दिन मुझे माँ का एक पत्र मिला। उसमें लिखा था, “तुम्हारे भाई ने मेरे लिए एक नया घर खरीदा है, और मैं अपना कर्तव्य निभाते हुए उसके बच्चे की देखभाल में मदद कर रही हूँ। मैं भी स्वस्थ हूँ, इसलिए तुम्हें अपना कर्तव्य शांत मन से निभाना चाहिए।” माँ के ये दो शब्द पढ़कर ही मेरी आँखों में खुशी के आँसू आ गए। मुझे बिल्कुल उम्मीद नहीं थी कि वह मेरी देखभाल के बिना भी इतनी अच्छी जिंदगी जी पाएगी और यह भी कि वह अपना कर्तव्य भी निभा रही थी। इससे मेरा संकल्प और मजबूत हुआ और मुझे समझ आया कि चाहे मैं घर लौट पाऊँ या नहीं, अपनी माँ से दोबारा मिल पाऊँ या नहीं, मुझे अब उसकी देखभाल न कर पाने का कोई मलाल नहीं होगा, मैंने अपना कर्तव्य निभाने के लिए अपने मन को शांत रखने का फैसला किया। मुझे इसी लक्ष्य के लिए अपना जीवन समर्पित कर देना चाहिए।
इन अनुभवों के जरिए मैंने जाना कि मैं अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा के पारंपरिक विचारों से कितनी गहराई से बंधी हुई थी और जब भी प्रतिकूल परिस्थितियाँ आती थीं तो ये विचार मुझे सत्य का अभ्यास करने और अपना कर्तव्य निभाने से रोकते थे। परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन से ही मैं इन पारंपरिक विचारों का भेद पहचान पाई, उनसे प्रभावित और बेबस होने से बच पाई और अपने कर्तव्य में मन लगा पाई। ये परमेश्वर के वचनों से प्राप्त नतीजे थे। परमेश्वर का धन्यवाद!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?
झांग मेंग, चीनमेरे एक साल के होने से पहले ही मेरे पिता की बीमारी से मौत हो गई थी। हम पाँच बच्चों को पालने के लिए मेरी माँ को दो नौकरियाँ...
म्यू चेंग, चीनपिछले कुछ वर्षों में, मैंने घर से दूर रहकर अपने कर्तव्यों का पालन किया। मुझे कभी-कभी अपनी माँ की याद आती थी, लेकिन मेरे...
2012 में, मेरे पूरे परिवार ने सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारा। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि परमेश्वर में...
ऐ यी, चीनअक्टूबर 2018 में एक दिन, अगुआ ने मुझे बताया, “तुम्हारे माता-पिता को कलीसिया से निकाल दिया गया है।” मैं अवाक रह गई—मैं तो इस बात पर...