मुझे अपनी गलतफहमियों और रक्षात्मक-प्रवृत्ति से नुकसान हुआ
कुछ समय पहले, हमारी कलीसिया की अगुआ ने अपना पद गँवा दिया क्योंकि उसने न तो सत्य का अनुशीलन किया और न ही कोई व्यावहारिक काम किया। उसकी जगह भाई-बहनों ने मुझे चुन लिया। चुनाव के नतीजों ने मुझे चिंतित कर दिया। अगुआ होने का अर्थ है सत्य की समझ होना और दूसरों के जीवन प्रवेश में आने वाली कठिनाइयों को सुलझाने की क्षमता रखना। इसका अर्थ बोझ उठाना और व्यावहारिक काम करना भी है। एक अगुआ के रूप में मैं पहले भी कई बार सेवा कर चुकी थी, लेकिन हमेशा मुझे पद से इसलिए हटा दिया गया क्योंकि मैं नाम और रुतबे के पीछे भागती थी और व्यावहारिक काम करने में विफल रही थी। मुझे पता था कि अगर मैंने इस बार अपना काम अच्छी तरह से नहीं किया, तो परमेश्वर के घर और कलीसिया के सदस्यों के जीवन प्रवेश को बाधित करने के कारण मुझे या तो फिर से बर्खास्त कर दिया जाएगा या मुझे उजागर कर हटा दिया जाएगा। मुझे फिर से अगुआ बनने या ऊँचा रुतबा पाने में कोई दिलचस्पी नहीं थी; मैं तो बस सिर नीचा रखकर ठीक से अपना कर्तव्य निभाना चाहती थी। इसलिए, मैंने उसी समय यह कहकर प्रस्ताव ठुकरा दिया, "नहीं, मैं इस कार्य के योग्य नहीं हूँ," और भी कई तरह के बहाने बनाए। मुझे विश्वास था कि यह तर्कसंगत और आत्म-जागरुकता थी, लेकिन बाद में भाई-बहनों के साथ संगति के माध्यम से मुझे एहसास हुआ कि अगुआई की भूमिका निभाने की मेरी अनिच्छा इसलिए थी क्योंकि मैं "जो जितना बड़ा होता है वह उतना ही जोर से गिरता है" और "शीर्ष पर वह अकेला होता है" जैसे शैतानी विष के नियंत्रण में थी। मुझे लग रहा था कि अगुआ होना खतरनाक है, यह मुझे किसी भी समय उजागर होने और हटा दिए जाने के जोखिम में डाल देगा। मैंने सैद्धांतिक रूप से समझ लिया था कि इस पर मेरी सोच सत्य के अनुरूप नहीं है। मैंने अगुआई के कर्तव्य को तो स्वीकार कर लिया, लेकिन मैं अपने कर्तव्य से जुड़ी चिंताओं से मुक्त नहीं हो पायी क्योंकि मैं उस मानसिक स्थिति को नहीं सुधार पायी। मैं खराब प्रदर्शन करने और हटा दिए जाने से डरती थी, इसलिए मैं रक्षात्मकता और गलतफहमी की स्थिति में जी रही थी। उस दौरान, मेरी स्थिति बिगड़ती ही गयी; मेरी प्रार्थनाओं में कोई उत्साह नहीं था, परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मुझे कोई प्रकाश नहीं मिला, और मैं अपने कर्तव्य के प्रति कोई उत्साह नहीं जुटा पायी। मैं पूरी तरह से भ्रम की स्थिति में जी रही थी। पीड़ा की स्थिति में, मैंने परमेश्वर को पुकारा : "हे परमेश्वर! मैं बहुत विद्रोही हूँ; इस कर्तव्य का निर्वहन करते हुए मैं समर्पण नहीं कर सकती। हे परमेश्वर, मेरा मार्गदर्शन कर ताकि मैं स्वयं को जान सकूँ और तेरा आज्ञापालन कर सकूँ।"
प्रार्थना करने के बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "मैं उन लोगों में प्रसन्नता अनुभव करता हूँ जो दूसरों पर शक नहीं करते, और मैं उन लोगों को पसंद करता हूँ जो सच को तत्परता से स्वीकार कर लेते हैं; इन दो प्रकार के लोगों की मैं बहुत परवाह करता हूँ, क्योंकि मेरी नज़र में ये ईमानदार लोग हैं। यदि तुम धोखेबाज हो, तो तुम सभी लोगों और मामलों के प्रति सतर्क और शंकित रहोगे, और इस प्रकार मुझमें तुम्हारा विश्वास संदेह की नींव पर निर्मित होगा। मैं इस तरह के विश्वास को कभी स्वीकार नहीं कर सकता। सच्चे विश्वास के अभाव में तुम सच्चे प्यार से और भी अधिक वंचित हो। और यदि तुम परमेश्वर पर इच्छानुसार संदेह करने और उसके बारे में अनुमान लगाने के आदी हो, तो तुम यकीनन सभी लोगों में सबसे अधिक धोखेबाज हो। तुम अनुमान लगाते हो कि क्या परमेश्वर मनुष्य जैसा हो सकता है : अक्षम्य रूप से पापी, क्षुद्र चरित्र का, निष्पक्षता और विवेक से विहीन, न्याय की भावना से रहित, शातिर चालबाज़ियों में प्रवृत्त, विश्वासघाती और चालाक, बुराई और अँधेरे से प्रसन्न रहने वाला, आदि-आदि। क्या लोगों के ऐसे विचारों का कारण यह नहीं है कि उन्हें परमेश्वर का थोड़ा-सा भी ज्ञान नहीं है? ऐसा विश्वास पाप से कम नहीं है! कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो मानते हैं कि जो लोग मुझे खुश करते हैं, वे बिल्कुल ऐसे लोग हैं जो चापलूसी और खुशामद करते हैं, और जिनमें ऐसे हुनर नहीं होंगे, वे परमेश्वर के घर में अवांछनीय होंगे और वे वहाँ अपना स्थान खो देंगे। क्या तुम लोगों ने इतने बरसों में बस यही ज्ञान हासिल किया है? क्या तुम लोगों ने यही प्राप्त किया है? और मेरे बारे में तुम लोगों का ज्ञान इन गलतफहमियों पर ही नहीं रुकता; परमेश्वर के आत्मा के खिलाफ तुम्हारी निंदा और स्वर्ग की बदनामी इससे भी बुरी बात है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि ऐसा विश्वास तुम लोगों को केवल मुझसे दूर भटकाएगा और मेरे खिलाफ बड़े विरोध में खड़ा कर देगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पृथ्वी के परमेश्वर को कैसे जानें)। परमेश्वर के वचनों के न्याय और प्रकाशन ने मेरे दिल में डर पैदा कर दिया, खासतौर से उस भाग ने जिसमें कहा गया है, "और मेरे बारे में तुम लोगों का ज्ञान इन गलतफहमियों पर ही नहीं रुकता; परमेश्वर के आत्मा के खिलाफ तुम्हारी निंदा और स्वर्ग की बदनामी इससे भी बुरी बात है।" वह मेरे लिए बेहद मार्मिक था। रक्षात्मकता और भ्रम की स्थिति में होने के कारण मैं परमेश्वर का विरोध और निंदा कर रही थी। मुझे वो समय याद आया जब मुझे अगुआई की भूमिका से हटा दिया गया था, क्योंकि मैंने सत्य का अनुसरण नहीं किया था, बल्कि मैं सिर्फ नाम और रुतबे के पीछे भाग रही थी, मैं चाहती थी कि लोग मुझे पूजें और मेरा सम्मान करें। मैं परमेश्वर से विपरीत मार्ग पर चल रही थी। पद से हटाए जाने के बाद, परमेश्वर के वचनों ने ही मुझे उसकी इच्छा को समझने के लिए प्रेरित किया; परमेश्वर के वचनों ने ही मुझे अपनी विफलता और नकारात्मकता से बाहर निकाला। और उसके बाद भी, परमेश्वर ने मुझे अपना कर्तव्य निभाने, सत्य का अनुसरण करने और कर्तव्य निभाने के दौरान उससे उद्धार प्राप्त करने का मौका दिया। मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर का मुझे उजागर करने और हटाने का कोई इरादा नहीं था, बल्कि मैं ही अटकलों और शंकाओं से भरी थी, यह सोच रही थी कि परमेश्वर अगुआ के रूप में मेरी सेवा का उपयोग मुझे उजागर करने और मुझसे छुटकारा पाने के लिए कर रहा है। यह परमेश्वर को पूरी तरह से गलत समझना था—यह ईशनिन्दा थी! इसने अंततः मेरे विद्रोही दिल को थोड़ा हिला दिया, मैंने देखा कि भले ही मुझे कई बार बर्खास्त कर दिया गया था, लेकिन मैंने कभी भी उन अनुभवों को सत्य की तलाश करने और आत्म-मंथन करने के अवसर के रूप में इस्तेमाल नहीं किया। बल्कि इससे परमेश्वर के प्रति मेरी गलतफहमी और रक्षात्मकता और बढ़ गयी। मैं ग्लानि और पछतावे से भर गयी।
उसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : "जैसे ही भ्रष्ट लोगों को रुतबा हासिल होता है—चाहे वे कोई भी हों—तो क्या वे मसीह विरोधी बन जाते हैं? (अगर वे सत्य की खोज नहीं करते हैं, तो वे मसीह विरोधी बन जाएंगे, लेकिन अगर वे सत्य की खोज करते हैं, तो वे मसीह विरोधी नहीं बनेंगे।) यह पूरी तरह से सत्य नहीं है। तो क्या, जो लोग मसीह विरोधियों के मार्ग पर चलते हैं, वे क्या ऐसा रुतबे के कारण करते हैं? ऐसा तब होता है जब लोग सही मार्ग पर नहीं चलते। उनके पास अनुसरण करने के लिए एक अच्छा मार्ग है, फिर भी वे इसका अनुसरण नहीं करते; बल्कि, वे बुराई के मार्ग का अनुसरण करने पर ज़ोर देते हैं। यह उसी तरह है जैसे कि लोग खाना खाते हैं: कुछ लोग ऐसा खाना नहीं खाते जो उनके शरीर को पोषण दे सके और उनके सामान्य जीवन को बनाये रख सके, बल्कि वे ऐसी चीज़ों का सेवन करते हैं जो उन्हें नुकसान पहुँचाती हैं, अंत में, वे खुद ही अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मार लेते हैं। क्या लोग इस विकल्प को खुद ही नहीं चुनते हैं? जिन लोगों ने अगुआओं के तौर पर काम किया है और फिर उन्हें हटा दिया गया है, वे लोग किन बातों का प्रचार करते हैं? 'अगुआ मत बनना, और रुतबा हासिल मत करना। रुतबा मिलते ही लोग मुसीबत में पड़ जाते हैं, और परमेश्वर उन्हें उजागर कर देता है! उजागर होने के बाद, वे लोग साधारण विश्वासी की पात्रता भी नहीं रखते, और उन्हें फिर किसी भी तरह का अवसर नहीं मिलता।' वे लोग किस तरह की बातें करते हैं? ज़्यादा से ज़्यादा, यह परमेश्वर के बारे में गलतफहमी दर्शाती है; यह ईश-निंदा है। यदि तुम सही मार्ग पर नहीं चलते, सत्य का अनुशीलन नहीं करते और परमेश्वर का अनुसरण नहीं करते, बल्कि मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलकर पौलुस के मार्ग पर पहुँच जाते हो, तो अंतत: तुम्हारा वही हश्र होता है, वही अंत होता है जो पौलुस का हुआ, फिर भी परमेश्वर को दोष देते हो, परमेश्वर को अधार्मिक कहते हो, तो क्या तुम मसीह-विरोधी होने की असली वस्तु नहीं हो? ऐसे व्यवहार को धिक्कार है!"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने के लिए होना ही चाहिए अभ्यास का सुनिश्चित मार्ग')। परमेश्वर के वचनों के इस मार्ग ने मुझे दिखाया कि जब लोग मसीह-विरोधी मार्ग अपनाते हैं और हटा दिए जाते हैं, तो ऐसा इसलिए नहीं होता क्योंकि वे रुतबे के जाल में फंसकर तबाह हो गए हैं। इसका मूल कारण है उनका सत्य का अनुसरण न करना; इसका मूल कारण है उनका शोहरत और लाभ पाने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहना, दिखावा करना और झूठी प्रशंसा की कामना करना, कभी-कभी तो लोग दुष्टता की हद तक चले जाते हैं जिससे कलीसिया के काम में बाधा पहुँचती है। जब मैंने गौर किया, तो पाया कि मेरी पिछली विफलताओं का कारण मेरा रुतबा नहीं, बल्कि मेरा अभिमानी स्वभाव था, मैंने अपने कर्तव्य में सत्य का अनुसरण नहीं किया था। बल्कि मैं नाम और रुतबे के पीछे भाग रही थी और ठीक से अपने कर्तव्यों का निर्वहन नहीं कर रही थी। और भी बहुत से भाई-बहन भी अगुआ के पद पर थे, लेकिन उन्होंने सही रास्ता अपनाया। जब उनकी भ्रष्टता प्रकट हुई, उन्हें असफलता मिली या उनसे कोई अपराध हुआ, तो उन्होंने आत्म-चिंतन और आत्म-ज्ञान पर ध्यान केंद्रित किया; उन्होंने अपनी भ्रष्टता को दूर करने के लिए सत्य की खोज पर ध्यान दिया, सत्य-सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने पर ध्यान केंद्रित किया। वे समय के साथ अपने काम में अधिक से अधिक सफल भी हुए। सच में रुतबा इंसान का असली रंग दिखाता है। लेकिन जो व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है, फिर वो चाहे कितने भी ऊँचे पद पर हो, वह दुष्टता नहीं करेगा, लेकिन जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, फिर भले ही उनके हाथों में सत्ता न हो, अंतत: उन्हें हटा दिया जाएगा। इस सबकी समझ पाने से भी मुझे यह महसूस हुआ कि एक अगुआ के रूप में चुने जाने का मैं इतना विरोध क्यों कर रही थी और मैंने उस पद को अस्वीकार करने के लिए बहाना क्यों बनाया। इसकी मुख्य वजह यह थी कि कई बार बर्खास्त कर दिए जाने के बाद भी, मैं अब भी सत्य का अनुसरण नहीं कर रही थी या अपनी विफलताओं के मूल कारण पर आत्म-चिंतन नहीं कर रही थी, बल्कि मुझे लगा कि मैं अपने पद की वजह से बार-बार ठोकर खा रही हूँ। मैं "जो जितना बड़ा होता है वह उतना ही जोर से गिरता है" और "शीर्ष पर वह अकेला होता है" जैसी भ्रांतियों से ऐसे चिपकी हुई थी, मानो ये ही सत्य हैं। तो जब भाई-बहनों ने फिर से मुझे अगुआ चुना, तो मैंने समर्पण करते हुए खुशी-खुशी उसे स्वीकार नहीं किया, बल्कि मैंने खुद को बचाने की कोशिश की, मुझे इस बात का डर था कि अगर मैं अगुआ के रूप में सेवा करूँगी तो फिर से उजागर हो जाऊँगी और हटा दी जाऊँगी या मैं कोई गलत काम कर बैठूँगी और मुझे निकाल दिया जाएगा। मैं कितनी बेवकूफ थी!
मैंने ये परमेश्वर के वचनों में भी पढ़ा : "मनुष्य के कर्तव्य और वह धन्य है या शापित, इनके बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। धन्य होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। शापित होना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, ऐसा तब होता है जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें धन्य किया जाता है या शापित, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल धन्य होने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें शापित होने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज़ है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। मैंने परमेश्वर के वचनों से जाना कि किसी व्यक्ति का कर्तव्य यह निर्णय नहीं करता कि वह अंततः आशीष पाएगा या शाप; बल्कि, वह मुख्यत: इस बात पर निर्भर होता है कि वह अपने कर्तव्य में सत्य का अनुसरण करता है या नहीं, सत्य प्राप्त कर लेने पर उसमें स्वभावगत परिवर्तन आया है या नहीं। मुझे परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में बहुत शर्म आयी। मैंने जाना कि अपने वर्षों के विश्वास में, मैं पागलों की तरह अपने भविष्य और गंतव्य के पीछे ही भागती रही। पहले तो मुझे यह लगता था कि परमेश्वर के घर में अगुआ बनने का अर्थ दूसरों से सम्मान पाना और परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करना है। इससे मुझे आशीष और एक अच्छा अंतिम गंतव्य प्राप्त होगा। उसी से प्रेरित होकर मैं पूरे उत्साह से अपने कर्तव्य के दौरान कष्ट उठाती रही। लेकिन जब कई बार बर्खास्त हो गयी, तो मैं अगुआ के रूप में उजागर होने और हटाए जाने से डर गयी, इसलिए मैं उस कर्तव्य का दायित्व लेने को तैयार नहीं थी। मुझे एहसास हुआ कि मैं परमेश्वर द्वारा अच्छे गंतव्य को पाने के लिए सौदे के रूप में अपना कर्तव्य निभा रही थी। मैं यह भी चाहती थी कि इससे पहले कि मैं त्याग और प्रयास करने के लिए तैयार होऊँ, परमेश्वर खुद इस बात की गारंटी दे कि मुझे बचाया जा सकता है। मैंने खुद को बचाने के लिए परमेश्वर के आदेश की अवहेलना कर दी, मैं तर्कों को तोड़ने-मरोड़ने और बहाने बनाने लगी, मैंने कहा कि मुझे कलीसिया के काम में बाधा बनने से डर लगता है। मैंने तो यहाँ तक भी सोचा कि मैं एकदम सही हूँ—जबकि मामला एकदम उल्टा था! उस समय, जब मैंने यह बात परमेश्वर के वचनों में पढ़ी तो मुझे बहुत बुरा लगा : "मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज़ है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है।" यह सच था कि मेरे अंदर सत्य-वास्तविकता नहीं थी और मेरा आध्यात्मिक कद अपर्याप्त था। परमेश्वर मुझे अगुआ के रूप में कार्य करने का मौका इसलिए नहीं दे रहा था कि मैं उसके काबिल थी, बल्कि इस उम्मीद में दे रहा था कि मैं अपने कर्तव्य-निर्वहन के माध्यम से सत्य का अनुसरण करूंगी, अपनी कमियों पर काम करूंगी और अपना कार्य संतोषजनक ढंग से करूँगी। लेकिन ऐसा करने के बजाय, मैं स्वार्थी और नीच बन गयी, केवल अपने बारे में सोचती थी, इस बात से डरती थी कि अगर मैं उजागर हो गयी और मुझे अगुआ के तौर पर हटा दिया गया, तो मैं एक अच्छा परिणाम और गंतव्य गँवा दूँगी। इसलिए मैं इससे बाहर निकलने के लिए अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाने लगी। मैं बेहद विद्रोही थी—मैं परमेश्वर के प्रति किंचित-मात्र भी समर्पित होने का दावा कैसे कर सकती थी?
मैंने अपनी खोज में परमेश्वर के वचनों के और भी कई अंश पढ़े। "पतरस का कार्य परमेश्वर के एक सृजित प्राणी के कर्तव्य का निर्वहन था। उसने प्रेरित की भूमिका में कार्य नहीं किया था, बल्कि परमेश्वर के प्रति प्रेम का अनुसरण करते हुए कार्य किया था। पौलुस के कार्य के क्रम में उसका व्यक्तिगत अनुसरण भी निहित था : उसका अनुसरण भविष्य की उसकी आशाओं, और एक अच्छी मंज़िल की उसकी इच्छा से अधिक किसी चीज़ के लिए नहीं था। उसने अपने कार्य के दौरान शुद्धिकरण स्वीकार नहीं किया था, न ही उसने काँट-छाँट और व्यवहार स्वीकार किया था। वह मानता था कि उसने जो कार्य किया वह जब तक परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करता था, और उसने जो कुछ किया वह सब जब तक परमेश्वर को प्रसन्न करता था, तब तक पुरस्कार अंततः उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। उसके कार्य में कोई व्यक्तिगत अनुभव नहीं थे—यह सब स्वयं उसके लिए था, और परिवर्तन के अनुसरण के बीच नहीं किया गया था। उसके कार्य में सब कुछ एक सौदा था, इसमें परमेश्वर के सृजित प्राणी का एक भी कर्तव्य या समर्पण निहित नहीं था। अपने कार्य के क्रम के दौरान, पौलुस के पुराने स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं हुआ था। उसका कार्य दूसरों की सेवा मात्र का था, और उसके स्वभाव में बदलाव लाने में असमर्थ था। पौलुस ने अपना कार्य सीधे, पूर्ण बनाए या निपटे बिना ही किया था, और वह पुरस्कार से प्रेरित था। पतरस भिन्न था : वह ऐसा व्यक्ति था जो काँट-छाँट और व्यवहार से गुज़रा था, और शुद्धिकरण से गुज़रा था। पतरस के कार्य का लक्ष्य और प्रेरणा पौलुस से कार्य के लक्ष्य और प्रेरणा से मूलतः भिन्न थे" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। "परमेश्वर के सृजित प्राणी के रूप में, मनुष्य को परमेश्वर के सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने की कोशिश करनी चाहिए, और दूसरे विकल्पों को छोड़ कर परमेश्वर से प्रेम करने की तलाश करनी चाहिए, क्योंकि परमेश्वर मनुष्य के प्रेम के योग्य है। वे जो परमेश्वर से प्रेम करने की तलाश करते हैं, उन्हें कोई व्यक्तिगत लाभ नहीं ढूँढने चाहिए या वह नहीं ढूँढना चाहिए जिसके लिए वे व्यक्तिगत रूप से लालायित हैं; यह अनुसरण का सबसे सही माध्यम है। यदि तुम जिसकी खोज करते हो वह सत्य है, तुम जिसे अभ्यास में लाते हो वह सत्य है, और यदि तुम जो प्राप्त करते हो वह तुम्हारे स्वभाव में परिवर्तन है, तो तुम जिस पथ पर क़दम रखते हो वह सही पथ है। यदि तुम जिसे खोजते हो वह देह के आशीष हैं, और तुम जिसे अभ्यास में लाते हो वह तुम्हारी अपनी अवधारणाओं का सत्य है, और यदि तुम्हारे स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं होता है, और तुम देहधारी परमेश्वर के प्रति बिल्कुल भी आज्ञाकारी नहीं हो, और तुम अभी भी अस्पष्टता में जीते हो, तो तुम जिसकी खोज कर रहे हो वह निश्चय ही तुम्हें नरक ले जाएगा, क्योंकि जिस पथ पर तुम चल रहे हो वह विफलता का पथ है। तुम्हें पूर्ण बनाया जाएगा या हटा दिया जाएगा यह तुम्हारे अपने अनुसरण पर निर्भर करता है, जिसका तात्पर्य यह भी है कि सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। इन अंशों को पढ़कर मुझे सफलता की ओर जाते पतरस के मार्ग और विफलता की ओर जाते पौलुस के मार्ग को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिली। मैंने जाना कि पतरस ने एक सृजित प्राणी के कर्तव्य को निभाने का प्रयास किया और उसने अपने आपको परमेश्वर के प्रति समर्पित कर दिया। उसने इस बात की परवाह नहीं की कि कर्तव्य निभाने से उसे आशीष मिलेगा या नहीं। उसने परमेश्वर के लिए एक शानदार गवाह के रूप में काम किया, मृत्यु की कगार तक वह तक आज्ञाकारी बना रहा। जबकि पौलुस ने आशीर्वाद और पुरस्कार चाहे, उसकी मेहनत धार्मिकता का मुकुट हासिल करने की थी। उसने अपने काम को परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने के लिए पूंजी के रूप इस्तेमाल किया, उसने मसीह-विरोधी मार्ग अपनाया और अंततः परमेश्वर के दंड का भागी बना। जब मैंने आत्म-चिंतन किया, तो मैंने देखा कि अपने विश्वास में, मैं एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने का प्रयास नहीं कर रही थी, बल्कि मैं इसे आशीष और एक अच्छा गंतव्य पाने के लिए कर रही थी। मैं स्वर्ग के राज्य के आशीर्वाद के बदले कम से कम कीमत चुकाना चाहती थी। जब मैंने देखा कि अगुआई के कर्तव्य में बड़ी ज़िम्मेदारियाँ शामिल हैं, तो मैंने सोचा कि अगर मैं परमेश्वर के घर के काम में बाधा बन गयी, तो मैं अच्छा परिणाम और गंतव्य पाने का मौका गँवा दूँगी। यही कारण है कि मैं वास्तव में इसकी विरोधी थी। क्या मैं पौलुस के समान ही विफलता के रास्ते पर नहीं चल रही थी? मैंने अपने विश्वास के माध्यम से, परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए बहुत से सत्यों का आनंद लिया था, लेकिन मुझे कभी कुछ लौटाने का ख्याल नहीं आया। बल्कि, मैं बस यही पता लगाने की कोशिश करती रहती थी कि मेरा अपना भविष्य क्या होगा, जोड़-तोड़ करते हुए मैं परमेश्वर को धोखा देने की कोशिश कर रही थी। मैं बहुत ही स्वार्थी, नीच, चालाक और दुष्ट थी! इन सब बातों का एहसास होने के बाद, मैं अब उस तरह से जीना नहीं चाहती थी, बल्कि पतरस का उदाहरण लेकर सत्य के मार्ग पर चलना चाहती थी, खुद को परमेश्वर को सौंपकर उसके नियम और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहती थी।
मैं परमेश्वर को उसके वचनों के न्याय और ताड़ना के लिए धन्यवाद देती हूँ जिन्होंने मेरी इस झूठी अवधारणा को सुधारा कि "शीर्ष पर वह अकेला होता है" जिसके कारण मैं अच्छी तरह से समझ पायी कि मैं अपनी आस्था में आशीष पाने के गलत मार्ग पर चल रही थी और अपनी धूर्त शैतानी प्रकृति की थोड़ी-बहुत समझ हासिल कर पायी। तब से, मैंने अगुआ के रूप में अपने कर्तव्य से बचने का प्रयास करना बंद कर दिया और दायित्व निभाया। मैं सत्य का अनुसरण करने और एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने की कोशिश करने पर ध्यान देने लगी।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?