गलत अगुआ को चुनने के बाद आत्मचिंतन
पिछले अक्तूबर में, जब मैं और मेरे सहकर्मी अनेक कलीसियाओं के कार्य की जाँच-पड़ताल कर रहे थे, तो हमने पाया कि चेंग्नन कलीसिया का सुसमाचार, सिंचन और दूसरा कार्य ठप्प पड़ गया था। मुझे बहुत हैरानी हुई। मैंने सोचा, "दो महीने पहले, कलीसिया अगुआ के रूप में, यहाँ बहन ली का तबादला किया गया था। फिर काम में सुधार क्यों नहीं हुआ?" तो काम की जानकारी लेने और समस्याएँ सुलझाने के लिए, मेरी सहयोगी बहन शू वहां गई। कुछ दिन बाद, बहन शू ने लिखा, "दो महीने से भी ज्यादा समय से, बहन ली शोहरत और रुतबे के पीछे भाग रही है। वह चाहती है कि उसे अपने काम में तुरंत कामयाबी मिल जाए। जब उसे काम असरदार नहीं लगता, तो समस्याएँ सुलझाने और दूसरों की मदद के लिए सत्य पर संगति करने के बजाय, वह अंधाधुंध तरीके से लोगों का निपटान करके उन्हें फटकारती है, कहती है, उनकी काबिलियत कम है, वे अपने काम में गैर-जिम्मेदार हैं। वह व्यवहार में, कलीसिया के किसी भी काम की निगरानी या देखरेख नहीं करती, यानी कलीसिया के बहुत-से काम ठप्प पड़े हुए हैं।" पत्र पढ़ने के बाद, मुझे झटका-सा लगा, और मैंने सोचा, "दूसरी कलीसियाओं की अगुआई करते समय भी बहन ली छवि और रुतबे के पीछे भागती थी। वह अपना वक्त यह सोचने में बिताती थी कि लोग उसे कैसे देखते हैं। जब दूसरे उसकी प्रशंसा नहीं करते, तो वह नकारात्मक हो जाती, अपने काम से उसका ध्यान बँट जाता, यानी कलीसियाओं की बहुत-सी समस्याएँ अनसुलझी रह जातीं। हमने संगति करके कई बार उसकी इस समस्या में मदद करने की कोशिश की थी, शोहरत और रुतबे के पीछे भागने के मसीह-विरोधी मार्ग पर चलने के लिए उसे उजागर भी किया था। तब उसने अपनी गलती मानी थी और प्रायश्चित करने की इच्छा जाहिर की थी, और फिर, कुछ योजनाओं और लक्ष्यों के साथ अपना काम करने लगी थी। चेंग्नन कलीसिया में तबादले के बाद उसकी यह समस्या फिर क्यों उभर आई?" तभी मुझे याद आया कि पहले भी दो बार बहन ली को अगुआई के ओहदे से बर्खास्त किया गया था, दोनों ही बार शोहरत और रुतबे के पीछे भागने और व्यावहारिक कार्य न करने के लिए। हालांकि उसे अपने बारे में थोड़ा ज्ञान था, और उसने प्रायश्चित की इच्छा जाहिर की थी, पर, अब भी, वह अड़ियल होकर इन चीजों के पीछे भाग रही थी। उसने न प्रायश्चित किया, न जरा भी बदली। मुझे याद आया कि "झूठे अगुआओं और कार्यकर्ताओं की पहचान करने के सिद्धांत" में क्या कहा गया है : "वे सभी जो केवल प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि और लाभ के लिए काम करते हैं, जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, और जिनके पास सत्य-वास्तविकता नहीं है, झूठे अगुआ और कार्यकर्ता हैं" (सत्य का अभ्यास करने के 170 सिद्धांत)। बहन ली के निरंतर इस व्यवहार को देखते हुए, वह संभवत: एक झूठी अगुआ थी, जो शोहरत और रुतबे के पीछे भागती थी, कोई व्यावहारिक कार्य नहीं करती थी।
लेकिन इस बार मैंने अगुआ के रूप में बहन ली की सिफारिश की थी। तब उसने शोहरत और रुतबे के पीछे भागने और व्यावहारिक काम न करने के बारे में थोड़ी समझ दिखाई थी, तो मुझे लगा वह सत्य को स्वीकार सकती थी, उसे सच्चा पछतावा था। इसके अलावा, वह एक मंजी हुई वक्ता थी, और काम में काबिलियत दिखाती थी, इसलिए मैंने उसकी सिफारिश की। अब अगर एक झूठी अगुआ होने के कारण उसे सचमुच बर्खास्त कर दिया गया, तो सब कहेंगे कि मैंने लोगों को बिना सिद्धांतों के चुनती हूँ, और कई साल अगुआ रहने के बावजूद, मैं सच्चे आत्मज्ञान और पाखंडी ज्ञान के बीच फर्क नहीं कर पाई। मेरे सहकर्मी भी सोचेंगे कि मुझमें सत्य की वास्तविकता नहीं है, मैं लोगों को पहचान नहीं पाती, क्योंकि मैंने किसी ऐसे की सिफारिश की थी जो अगुआ के रूप में सत्य का अनुसरण नहीं करती थी, तो क्या मैं भाई-बहनों के दिलों में अपनी अच्छी छवि नहीं खो दूँगी? जब मैंने इस बारे में सोचा, तो मैं सच्चाई का सामना नहीं करना चाहती थी। मुझे उम्मीद थी कि बहन शू बहन ली की और ज्यादा मदद करके, उसकी हालत सुधार देगी। इस तरह उसे बर्खास्त नहीं किया जाएगा, मेरी छवि और रुतबा भी बचा रहेगा। इसलिए मैंने अपने सहकर्मियों के साथ इस बारे में चर्चा करके, बहन शू को बहन ली की मदद करने की सलाह दी। अगर बहन ली उसकी हालत बदल सकी, तो वह अब भी कुछ वास्तविक कार्य कर सकेगी, मेरे सहकर्मी इस बात पर राजी हो गए। फिर, मैं हर दिन बेचैनी से बहन शू के जवाब का इंतजार करती रही, सोचती रही, क्या बहन ली की हालत बदल गई होगी। मैं बहुत घबराई हुई और परेशान थी। मुझे डर था कि अगर हालत न बदलने के कारण उसे बर्खास्त कर दिया गया, तो इससे मेरी छवि को नुकसान पहुँचेगा। कुछ दिन बाद, बहन शू ने जवाब दिया, "बहन ली दो महीने से चेंग्नन कलीसिया में है। वह सिर्फ कामकाज की तरक्की पर जोर देती है, और समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य पर संगति नहीं करती। वह थोड़ा-सा भी व्यावहारिक कार्य नहीं करती। नतीजा यह है कि भाई-बहनों की समस्याएँ अनसुलझी रह जाती हैं।" उसने कहा कि उसने बहन ली के साथ कई बार संगति करके उसकी समस्या सुलझाने में मदद की, मगर बहन ली अभी भी छवि, रुतबे और अपने बारे में दूसरों की राय की फिक्र करती थी। उसमें प्रायश्चित का रवैया ही नहीं है। पत्र पढ़ने के बाद, मैं बहुत डर गई। बहन ली के व्यवहार को देखते हुए, वह एक झूठी अगुआ थी, जो व्यावहारिक कार्य किए बिना सिर्फ शोहरत और रुतबे के पीछे भाग रही थी, और उसे हटाना जरूरी था। लेकिन जब मैं अपने सहकर्मियों से बात करने ही वाली थी, तो मेरी जबान रुक गई। मैंने सोचा, "बहन ली को मैंने चुना था। तब मैंने अपने सहकर्मियों से कहा था कि हालांकि बहन ली पहले बर्खास्त हुई थी, मगर वह अपने बारे में थोड़ा-बहुत जानती थी, सत्य का अनुसरण करने वाली इंसान थी। तभी मेरे सहकर्मी बहन ली को चुनने पर राजी हुए थे। अब अगर मैं उनसे कहूँ कि वह झूठी अगुआ है, सत्य का अनुसरण नहीं करती, और उसे बर्खास्त कर देना चाहिए, तो क्या मैं खुद को बुरा नहीं दिखाऊँगी? इसके अलावा, मुझमें विवेक न होने, और सत्य का अनुसरण न करने वाले किसी इंसान को अगुआ के रूप में चुनकर, कलीसिया के कार्य को गंभीर नुकसान पहुँचाने के कारण, क्या मेरे सहकर्मी यह नहीं सोचेंगे कि मैं भी एक झूठी अगुआ हूँ, जो वास्तविक कार्य नहीं कर सकती? अगर उन्होंने मुझे बर्खास्त कर दिया, तो यह बहुत शर्मिंदगी की बात होगी। मैं वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करती रही हूँ, और अंत में एक झूठी अगुआ बनकर बर्खास्त हो जाऊंगी।" इस विचार ने मुझे बहुत परेशान कर दिया, इसलिए मैं बहन ली को बर्खास्त करने का सुझाव नहीं देना चाहती थी। लेकिन अगर मैंने यह नहीं कहा, तो मुझे अपराध-बोध होगा। अगर एक झूठा अगुआ एक दिन भी अगुआई करे, तो परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान पहुँचता है, और मैं परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं कर रही होती। मैं इस उधेड़बुन में थी कि कुछ कहूँ या न कहूँ। इस दुविधा में मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मुझमें विवेक नहीं है। अगुआ के रूप में बहन ली की सिफारिश करने से परमेश्वर के घर के कार्य को इतना बड़ा नुकसान हुआ। अब, मैं जानती हूँ कि बहन ली एक झूठी अगुआ है, मगर मैं अपनी छवि और रुतबा बनाए रखना चाहती हूँ, इसलिए मैं ऐसा नहीं कहना चाहती। हे परमेश्वर, मुझे सत्य पर अमल करने और परमेश्वर के घर के कार्य की सुरक्षा का रास्ता दिखाओ।" अगले दिन धार्मिक कार्यों के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा। "अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में, अपना कर्तव्य निभाते समय जब तुम लोगों के सामने समस्याएँ आती हैं, तो तुम्हारे द्वारा उन्हें अनदेखा किए जाने की संभावना होती है, यहाँ तक कि तुम जिम्मेदारी से बचने के लिए विभिन्न कारण और बहाने भी खोज लेते हो। कुछ समस्याएँ होती हैं, जिन्हें हल करने में तुम सक्षम होते हो लेकिन करते नहीं, और जिन समस्याओं को हल करने में तुम अक्षम होते हो, उनकी सूचना भी तुम वरिष्ठों को नहीं देते, मानो उनका तुमसे कुछ लेना-देना न हो। क्या यह अपने कर्तव्य की अवहेलना नहीं है? कलीसिया के कार्य के साथ इस तरह पेश आना बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य है या मूर्खतापूर्ण? (मूर्खतापूर्ण।) क्या ऐसे अगुआ और कार्यकर्ता विश्वासघाती नहीं होते? क्या वे जिम्मेदारी की भावना से रहित नहीं होते? जब वे अपने सामने आई समस्याएँ नजरअंदाज कर देते हैं, तो क्या यह ये नहीं दर्शाता कि वे हृदयहीन और विश्वासघाती हैं? विश्वासघाती लोग सबसे मूर्ख लोग होते हैं। तुम्हें एक ईमानदार व्यक्ति होना चाहिए, समस्याएँ सामने आने पर तुममें जिम्मेदारी की भावना होनी चाहिए, और समस्याएँ हल करने के लिए तुम्हें सत्य तलाशने के तरीके खोजने चाहिए। विश्वासघाती व्यक्ति मत बनो। अगर तुम जिम्मेदारी से बचते हो और समस्याएँ आने पर उससे पल्ला झाड़ लेते हो, तो अविश्वासी भी तुम्हारी निंदा करेंगे। क्या तुम्हें लगता है, परमेश्वर का घर निंदा नहीं करेगा? परमेश्वर के चुने हुए लोग ऐसे व्यवहार को तिरस्कृत और अस्वीकृत करते हैं। परमेश्वर ईमानदार लोगों से प्रेम करता है, लेकिन धोखेबाज और चालाक लोगों से घृणा करता है। अगर तुम एक विश्वासघाती व्यक्ति की तरह कार्य करते हो और छल करने का प्रयास करते हो, तो क्या परमेश्वर तुमसे घृणा नहीं करेगा? क्या परमेश्वर का घर तुम्हें बिना सजा दिए छोड़ देगा? देर-सवेर तुम्हें जवाबदेह ठहराया जाएगा। परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है और विश्वासघाती लोगों को नापसंद करता है। सभी को यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए, और भ्रमित होना और मूर्खतापूर्ण कार्य करना बंद कर देना चाहिए। क्षणिक अज्ञान समझ में आता है, लेकिन सत्य को स्वीकार करने से एकदम इनकार कर देना, बदलने से हठपूर्वक इनकार करना है। ईमानदार लोग जिम्मेदारी ले सकते हैं। वे अपनी लाभ-हानि पर विचार नहीं करते, बल्कि परमेश्वर के घर के काम और हितों की रक्षा करते हैं। उनके दिल दयालु और ईमानदार होते हैं, साफ पानी के उस कटोरे की तरह, जिसका तल एक नजर में देखा जा सकता है। उनके कार्यों में भी पारदर्शिता होती है। धोखेबाज व्यक्ति हमेशा छल करता है, हमेशा चीजें छिपाता है, लीपापोती करता है, और खुद को ऐसा ढक लेता है कि कोई भी उसकी असलियत नहीं देख सकता। लोग तुम्हारे आंतरिक विचार नहीं देख सकते, लेकिन परमेश्वर तुम्हारे दिल में मौजूद गहनतम चीजें देख सकता है। अगर परमेश्वर देखता है कि तुम एक ईमानदार व्यक्ति नहीं हो, कि तुम धूर्त हो, कि तुम कभी सत्य को नहीं स्वीकारते, कि तुम हमेशा उसे धोखा देने की कोशिश करते हो, और तुम अपना दिल उसके हवाले नहीं करते, तो परमेश्वर तुमसे प्रेम नहीं करेगा, वह तुमसे नफरत करेगा और तुम्हें त्याग देगा" (नकली अगुआओं की पहचान करना)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मैं सब समझ गई। परमेश्वर ऐसे लोगों को पसंद करता है, जो सरल और ईमानदार हों, जो गलतियाँ मानने और उन्हें सुधारने की हिम्मत रखते हों। अगर आप अपने काम में गलतियाँ करें, पर खुद को बचाने की कोशिश करें, इन्हें मानने की हिम्मत न दिखाएँ, छुपाने और बचने के बहाने ढूंढ़ें, तो आप एक धूर्त इंसान हैं, जिससे परमेश्वर घृणा करता है। मैं समझ गई कि मैं बस ऐसी ही धूर्त खलनायिका थी। मुझमें सही-गलत की परख नहीं थी, इसलिए मैंने ऐसी इंसान को अगुआ चुना, जो सत्य का अनुसरण नहीं करती थी, जिससे परमेश्वर के घर के कार्य को भारी नुकसान पहुँचा। यह पहले ही एक अपराध था, और मुझे सुधार करना चाहिए था, लेकिन भाई-बहनों के दिलों में, अपनी छवि बनाए रखने के लिए, यह जानते हुए भी कि झूठे अगुआ की अगुआई का हरेक दिन कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचाता है, मैंने परमेश्वर के परिवार के हितों की रक्षा करने के लिए झूठी अगुआ को बर्खास्त नहीं किया। मैंने बार-बार गलती की, और इसे जान-बूझ कर छुपाने की कोशिश की। मुझे बहुत ज्यादा अपराध-बोध हुआ। परमेश्वर ने हमें इतना सारा सत्य दिया है, और परमेश्वर के घर ने इतने वर्ष तक मेरा पोषण किया है, लेकिन खुद को बचाने और जिम्मेदारी से बचने के लिए, मैं एक झूठी अगुआ को परमेश्वर के घर के कार्य में बाधा डालते देखती रही। मैं बहुत स्वार्थी, नीच, और कपटी थी, इंसान कहलाने लायक नहीं थी। यह सोचकर, मैं फ़ौरन अपने सहकर्मियों से मिलने गई, और उनसे बोली, "बहन ली सिर्फ शोहरत और रुतबे की ही परवाह करती है, जरा भी व्यावहारिक कार्य नहीं करती। वह काम पर बहुत बुरा असर डाल रही है, वह एक झूठी अगुआ है, उसे तुरंत बर्खास्त करना होगा।" संगति के बाद, सहकर्मियों ने भी पुष्टि कर दी कि बहन ली एक झूठी अगुआ थी, और जल्द ही उसे हटा दिया गया।
फिर, मैंने सहकर्मियों के सामने खुलकर बताया कि इस बार मैंने क्या उजागर किया और क्या सीखा। उन्होंने गलत व्यक्ति को चुनने के लिए मुझे दोष नहीं दिया, और हमने लोगों को चुनने में चूक और गलतियाँ हो जाने पर चर्चा की। इस संगति के जरिए, मैं समझ गई कि इस बार मैंने गलत इंसान को चुना था, मुख्य रूप से इसलिए कि मैं खुद की सच्ची समझ, और साथ ही सत्य से सच्चा प्रेम करके उसका अनुसरण करनेवालों को पहचान नहीं पाती थी। बाद में, मैंने इस विषय पर परमेश्वर के वचनों के अंश पढ़े, जिनसे मुझे इसे और ज्यादा समझने में मदद मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "कैसे पहचाना जा सकता है कि कोई व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है या नहीं? एक ओर, यह देखना चाहिए कि क्या वह व्यक्ति परमेश्वर के वचन के आधार पर स्वयं को जान सकता है। अगर वह परमेश्वर के वचन के माध्यम से स्वयं को जान सकता है, तो वह सत्य से प्रेम करने वाला व्यक्ति है। दूसरी ओर, यह देखना चाहिए कि क्या वह सत्य को स्वीकार कर उसका अभ्यास कर सकता है। अगर वह सत्य का अभ्यास कर सकता है, तो वह ऐसा व्यक्ति है, जो परमेश्वर के कार्य का पालन कर सकता है। अगर वह केवल सत्य को पहचानता है, पर उसे कभी स्वीकार या उसका अभ्यास नहीं करता, जैसा कि कुछ लोग कहते हैं, 'मैं सारा सत्य समझता हूँ, लेकिन मैं उसका अभ्यास नहीं कर सकता,' तो यह साबित करता है कि वह ऐसा व्यक्ति नहीं है, जो सत्य से प्रेम करता है। कुछ लोग स्वीकार करते हैं कि परमेश्वर का वचन सत्य है और उनका स्वभाव भ्रष्ट है, और यह भी कहते हैं कि वे पश्चात्ताप करने और खुद को नया रूप देने के लिए तैयार हैं, लेकिन उसके बाद बिलकुल भी कोई बदलाव नहीं होता। उनकी बातें और हरकतें अभी भी वैसी ही होती हैं, जैसी पहले होती थीं। जब वे खुद को जानने के बारे में बात करते हैं, तो ऐसा लगता है मानो कोई चुटकुला सुना रहे हों या कोई नारा लगा रहे हों। वे अपना छल अपने हृदय की गहराइयों से, घृणा और विरक्ति के रवैये के साथ, या पश्चात्ताप और ज्ञान के रवैये से, उजागर नहीं करते। इसके बजाय, वे औपचारिकताओं में उलझे रहते हैं और दूसरों के सामने खुलकर बोलने का नाटक करते हैं। वे ऐसे व्यक्ति नहीं हैं, जो वास्तव में सत्य को स्वीकार करते हैं। जब ऐसे लोग खुद को जानने के बारे में बात करते हैं, तो वे बेमन से काम कर रहे होते हैं और आध्यात्मिक होने का नाटक करते हैं। वे सोचते हैं, 'बाकी सब खुलकर बोलते हैं और अपने-अपने छल का विश्लेषण करते हैं। अगर मैंने कुछ नहीं कहा, तो मुझे शर्मिंदा होना पड़ेगा, इसलिए बेहतर होगा कि मैं बेमन से यह कर लूँ।' जिसके बाद वे अपने छल को अत्यधिक गंभीर बताते हैं और नाटकीयता के साथ उसका वर्णन करते हैं, और उनका आत्मज्ञान विशेष रूप से गहरा प्रतीत होता है। सुनने वाला हर व्यक्ति महसूस करता है कि वे वास्तव में खुद को जानते हैं, और फिर उन्हें ईर्ष्या से देखता है, जिससे उन्हें ऐसा महसूस होता है मानो वे गौरवशाली हों, मानो उन्होंने खुद को प्रभामंडल से सजा लिया हो। बेमन से काम करने से प्राप्त इस प्रकार का आत्मज्ञान, उनके स्वांग और छल के साथ मिलकर, दूसरों को पूरी तरह से गुमराह कर देता है। क्या ऐसा करने से उनका जमीर सुकून से हो सकता है? क्या यह खुलेआम धोखा नहीं है? ... जब वे ऐसा करते हैं, तो उन्हें अपराध-बोध नहीं होता, स्वांग रचने और धोखा देने के बाद उनका अंत:करण बेचैन नहीं होता, परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करने और उसे धोखा देने के बाद वे कुछ भी महसूस नहीं करते, और अपनी गलती स्वीकार करने के लिए वे परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते। क्या ऐसे लोग निष्ठुर नहीं होते? अगर उन्हें अपराध-बोध नहीं होता, तो क्या उन्हें कभी मलाल हो सकता है? जिसे मलाल नहीं होता, क्या वह कभी पश्चात्ताप कर सकता है? क्या एक पश्चात्ताप-रहित हृदय वाला व्यक्ति सत्य का अभ्यास करने के लिए दैहिक हितों की उपेक्षा कर सकता है? नहीं। पश्चात्ताप की इच्छा तक न होने पर, क्या आत्मज्ञान के बारे में बात करना बेतुका नहीं है? क्या यह सिर्फ स्वांग और छल नहीं है?" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'स्वयं को जानकर ही तुम सत्य की खोज कर सकते हो')। "तुम कैसे जान सकते हो कि कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है या नहीं? तुम कैसे आकलन कर सकते हो कि कोई सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति है या नहीं? मान लो, कोई व्यक्ति है, जो सात-आठ वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करता है। वह सिद्धांतों के कई शब्द बोलने में सक्षम हो सकता है, उसका मुँह आध्यात्मिक शब्दावली से भरा हो सकता है, वह अक्सर दूसरों की मदद कर सकता है, वह बहुत उत्साही लग सकता है, वह चीजों को त्यागने में सक्षम हो सकता है, और वह अपने कर्तव्य जोश से निभा सकता है। फिर भी वह अधिक सत्य का अभ्यास करने में सक्षम नहीं होता, जीवन-प्रवेश के वास्तविक अनुभवों पर चर्चा नहीं करता, और उसके जीवन-स्वभाव में बदलाव तो बिलकुल भी नहीं हुआ होता। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि ऐसा व्यक्ति सत्य का अनुसरण नहीं करता। अगर कोई वास्तव में सत्य से प्रेम करता है, तो कुछ समय तक चीजों का अनुभव करने के बाद, वह अपनी समझ के बारे में बात करने में सक्षम होगा, कम से कम कुछ चीजों में सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में सक्षम होगा; उसे जीवन-प्रवेश का कुछ अनुभव होगा, और कम से कम उसके व्यवहार में कुछ बदलाव दिखेंगे। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, उनकी आध्यात्मिक अवस्था में लगातार सुधार होता है, धीरे-धीरे परमेश्वर में उनका विश्वास बढ़ता है, उन्हें स्वयं में उजागर होने वाली चीजों और अपने भ्रष्ट स्वभावों की कुछ समझ हो जाती है, और उन्हें इस बात का व्यक्तिगत अनुभव और उनमें इस बात की वास्तविक अंतर्दृष्टि हो जाती है कि परमेश्वर लोगों को बचाने के लिए कैसे कार्य करता है। ये सब चीजें उनमें धीरे-धीरे उन्नत हो जाती हैं। अगर तुम किसी व्यक्ति में ये अभिव्यक्तियाँ देखते हो, तो तुम निश्चित रूप से जान सकते हो कि वह व्यक्ति है सत्य का अनुसरण करता है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'सत्य-वास्तविकता क्या है?')।
परमेश्वर के वचन से, मैंने जाना कि कोई व्यक्ति सच में सत्य का अनुसरण करता है या नहीं, यह परखने के लिए हम सिर्फ उसकी बातों पर नहीं जा सकते। अहम बात यह है कि क्या वह सत्य को स्वीकार करके उस पर अमल करता है, और क्या वह सच्चा प्रायश्चित करके कुछ समय बाद बदल सकता है। सत्य का अनुसरण करनेवाले लोगों को जब विफलताएं और नाकामियाँ हाथ लगती हैं, तो वे परमेश्वर के वचन का न्याय स्वीकार कर सकते हैं, इसके जरिए आत्मचिंतन कर सकते हैं, काम के पीछे की अपनी मंशाओं का विश्लेषण करके उन्हें उजागर कर सकते हैं, अपने भ्रष्ट स्वभाव के प्रति अपने दिलों में सच्ची घृणा पैदा कर सकते हैं, और अपने अतिक्रमणों के लिए सच्चा पछतावा महसूस कर सकते हैं, ताकि ऐसा जब फिर से हो, तो वे अपने निजी हितों का त्याग करके सत्य पर अमल कर सकें। समय के साथ, वे जीवन में विकसित होकर अपने भ्रष्ट स्वभाव में कुछ बदलाव देखते हैं। अगर मैं इसकी तुलना बहन ली के व्यवहार से करूँ, तो वह ऊपर से ईमानदार लगती थी। निपटान होने, याद दिलाए जाने और हटा दिए जाने पर, उसने सिर हिलाकर इसे मान लिया, कि वह रुतबे के पीछे भागती थी, परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा नहीं करती थी, उसमें इंसानियत की कमी थी, और वह प्रवेश पाने की उम्मीद करती थी। लेकिन फिर, अपनी शोहरत और रुतबे की बात आने पर, उसने अपने निजी हितों को नहीं त्यागा, न ही सत्य का अभ्यास किया, और उल्टे भाई-बहनों को डांट पिलाई, जिससे परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान पहुँचा। उसने कभी भी आत्मचिंतन नहीं किया और निष्क्रिय बनी रही। मैं समझ गई कि उसे अपनी भ्रष्ट प्रकृति का या अपनी नाकामी के स्रोत का जरा भी अंदाजा नहीं था, उसे सच्चा पछतावा भी नहीं था। वह जिस समझ की बात करती थी, वे सिर्फ नकल किए हुए कथन थे, उलझानेवाला एक भ्रम मात्र था। अगर कोई सच्चे दिल से सत्य का अनुसरण करे और उसमें इंसानियत हो, तो यह देखने पर कि उन्होंने कलीसिया के कार्य को बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचाया है, उन्हें अपराध-बोध होगा, वे खुद से घृणा करेंगे, और आगे से अपने निजी हितों का ख्याल नहीं करेंगे। वे अपने अतिक्रमणों की भरपाई के बारे में सोचेंगे, व्यवहारिक कार्य करेंगे, और परमेश्वर के घर के कार्य को और नुकसान होने से बचाएंगे। बहन ली में मैंने ऐसा कोई व्यवहार नहीं देखा था। इस तथ्य से पता चलता था कि वह सत्य को स्वीकार करके उसका अनुसरण करनेवालों में से नहीं थी। उसे चुनते समय, मैंने सत्य के सिद्धांत के अनुसार उसे जांचा-परखा नहीं था। मैंने अपने ही विचार और धारणाएँ इस्तेमाल की थीं। मैंने सिर्फ उसके ऊपरी अच्छे कामों और धर्म-सिद्धांतों की उसकी समझ देखी थी, और यह मान लिया था कि वह थोड़ा-बहुत बदल गई थी। नतीजा यह हुआ कि मैंने एक गलत इंसान को चुना और इस्तेमाल किया, जिससे कलीसिया के कार्य और बहुत-से भाई-बहनों के जीवन को नुकसान पहुँचा। ये सत्य के सिद्धांतों को खोजने में मेरी नाकामी के नतीजे थे।
फिर, मैंने आत्मचिंतन किया। मैं साफ तौर पर देख पा रही थी कि वह एक झूठी अगुआ थी, और मुझे यह अहसास था कि मैंने एक गलत इंसान को चुना था, तो मैं फिर भी मामले को दबाकर उसे एक मौका क्यों देना चाह रही थी? इसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, और इस बारे में थोड़ी समझ हासिल की। "कोई मसीह-विरोधी चाहे कितने भी और किसी भी तरह के गलत काम करे, चाहे वह गबन करना हो, अपव्यय करना हो, परमेश्वर की भेंटों का दुरुपयोग करना हो, परमेश्वर के घर के काम को बाधित करना और बिगाड़ना हो, या कलीसिया के काम को अस्तव्यस्त करना और परमेश्वर का कोप भड़काना हो, वह हमेशा शांत, संयमित और बेफिक्र रहता है। मसीह-विरोधी चाहे किसी भी तरह की बुराई करे या उसके जो भी परिणाम हों, वह अपने पाप स्वीकारने और यथाशीघ्र पश्चात्ताप करने के लिए कभी परमेश्वर के सामने नहीं आता, और वह कभी अपनी गलतियाँ मानने, अपने अपराध जानने, अपनी भ्रष्टता पहचानने और अपने बुरे कर्मों पर पछतावा करने के लिए खुद को उजागर करने और अपना दिल खोलने के रवैये के साथ भाई-बहनों के सामने नहीं आता। इसके बजाय, वह जिम्मेदारी से बचने के लिए तमाम बहाने खोजने को अपना दिमाग चलाता है और अपनी इज्जत और हैसियत बहाल करने के लिए दोष दूसरों पर मढ़ देता है। वह कलीसिया के काम की नहीं, बल्कि इस बात की परवाह करता है कि उसकी प्रतिष्ठा और हैसियत क्षतिग्रस्त या प्रभावित तो नहीं हो रही। वह अपने अपराधों के कारण परमेश्वर के घर को हुए नुकसान की भरपाई करने के तरीकों पर सोच-विचार नहीं करता, न ही वह परमेश्वर का ऋण चुकाने का प्रयास करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि वह कभी यह स्वीकार नहीं करता कि वह कुछ गलत कर सकता है या उससे कोई भूल हो गई है। मसीह-विरोधियों के दिलों में, सक्रिय रूप से गलतियाँ स्वीकार करना और तथ्यों का ईमानदार लेखा-जोखा देना मूर्खता और अक्षमता है। अगर उनके बुरे कर्मों का पता चल जाता है और उनका पर्दाफाश हो जाता है, तो मसीह-विरोधी केवल असावधानी से हुई कोई क्षणिक गलती ही स्वीकार करेंगे, कर्तव्य में अपनी चूक और गैर-जिम्मेदारी कभी स्वीकार नहीं करेंगे, और वे अपने ऊपर से दाग हटाने के लिए जिम्मेदारी किसी और पर डालने का प्रयास करेंगे। ऐसे समय, मसीह-विरोधी इस बात की चिंता नहीं करते कि परमेश्वर के घर को हुआ नुकसान कैसे पूरा करें, परमेश्वर के चुने हुए लोगों के सामने अपनी गलतियाँ स्वीकारने के लिए कैसे खुलकर बात करें, या जो हुआ उसका हिसाब कैसे दें। वे ऐसे तरीके खोजने में लगे रहते हैं जिससे बड़ी समस्याओं को छोटी दिखा सकें और छोटी समस्याओं को ऐसे दिखा सकें जैसे वे कोई समस्या ही न हों। वे दूसरों को समझाने और उनकी सहानुभूति पाने के लिए वस्तुनिष्ठ कारण देते हैं। वे दूसरे लोगों की नजरों में अपनी प्रतिष्ठा बहाल करने, खुद पर अपने अपराधों का नकारात्मक प्रभाव न्यूनतम करने, और यह सुनिश्चित करने की भरसक कोशिश करते हैं कि उच्च के सामने उनकी छवि कभी खराब न हो, ताकि उच्च द्वारा उन्हें कभी जवाबदेह न ठहराया जाए, बरखास्त न किया जाए, या दोषी न ठहराया जाए। अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत बहाल करने के लिए, ताकि उनके हितों को नुकसान न पहुँचे, मसीह-विरोधी कितनी भी पीड़ा सहने के लिए तैयार रहते हैं, और वे कोई भी कठिनाई हल करने की भरसक कोशिश करते हैं। अपने अपराध या गलती की शुरुआत से ही मसीह-विरोधियों का कभी भी अपने द्वारा किए गए गलत कामों की जिम्मेदारी लेने का कोई इरादा नहीं होता, अपने गलत कामों के पीछे के उद्देश्य, इरादे और भ्रष्ट स्वभाव पहचानने, उनके बारे में संगति करने, उन्हें उजागर करने या उनका विश्लेषण करने का उनका कोई इरादा नहीं होता, और स्वयं द्वारा कलीसिया के काम को पहुँचाई गई क्षति और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन-प्रवेश को पहुँचाए गए नुकसान की भरपाई करने का उनका कोई इरादा तो निश्चित रूप से नहीं होता। इसलिए, मामले को तुम चाहे किसी भी दृष्टिकोण से देखो, मसीह-विरोधी वे लोग होते हैं, जो कभी अपने पाप स्वीकार नहीं करते और कभी पश्चात्ताप नहीं करते। छुटकारे की आशा से रहित, मसीह-विरोधी बेशर्म और मोटी चमड़ी वाले होते हैं, और वे जीवित शैतानों से कम नहीं होते" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे व्यवहार और काट-छाँट स्वीकार नहीं करते और न ही गलत काम करने पर उनमें पश्चात्ताप का रवैया होता है, बल्कि इसके बजाय वे धारणाएँ फैलाते हैं और परमेश्वर के बारे में सार्वजनिक रूप से निर्णय सुनाते हैं')। परमेश्वर के वचन ने खुलासा किया कि मसीह-विरोधी अपनी गलती कभी नहीं मानते, न ही वे परमेश्वर के सामने आत्म-स्वीकृति करके प्रायश्चित करते हैं। इसके बजाय, वे सोचते हैं कि दूसरों के दिलों में अपनी छवि कैसे बनाए रखें, उसे कैसे सँवारें, और अपना पद कैसे मजबूत करें। मैं समझ गई कि मेरा अपना व्यवहार भी मसीह-विरोधी जैसा ही था। लोगों को चुनने जैसे महत्वपूर्ण काम में, मैंने सत्य नहीं खोजा, और एक झूठे अगुआ को चुन लिया, जिससे परमेश्वर के घर के कार्य और भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश को नुकसान पहुँचा। मैंने अतिक्रमण किया था, मुझे परमेश्वर से प्रायश्चित करना चाहिए था, बहन ली को बर्खास्त करना चाहिए था, और जल्दी से अपनी गलतियों और कमियों की भरपाई करके सही व्यक्ति को चुनना चाहिए था। लेकिन मुझे फिक्र थी कि अगर मैंने बहन ली की समस्याओं के बारे में अपने सहकर्मियों को सच्चाई बताई, तो वे साफ़ समझ जाते कि मुझमें सत्य नहीं था, मेरी काबिलियत कम थी, और मैं व्यावहारिक कार्य नहीं कर सकती थी, फिर वे मुझे बर्खास्त कर देते। अपनी छवि और रुतबा बनाए रखने के लिए मैंने खुद को छिपाया, अपनी नाकामियाँ और कमियाँ स्वीकारने की हिम्मत नहीं की, और अपनी गलतियों को और ज्यादा गलतियों के नीचे छुपाया, इस उम्मीद से कि मेरी सहयोगी बहन ली की हालत बदलने में मदद करेगी। इस तरह, वह बर्खास्त नहीं होगी, और मेरा रुतबा और छवि सुरक्षित रहेंगे। अपने निजी हितों को संतुष्ट करने के लिए, मैंने परमेश्वर के घर के हितों की परवाह नहीं की थी, एक झूठे अगुआ का हौसला बढ़ाया था, उस पर पर्दा डाला था। सार रूप में, मैंने परमेश्वर के घर के कार्य को बाधित और तबाह करने के लिए शैतान के साझीदार का काम किया था। इससे परमेश्वर के स्वभाव का गंभीर रूप से अपमान हुआ था! यब सब सोचते हुए मुझे अपराध-बोध और खेद महसूस होने लगा। यह परमेश्वर का असाधारण उत्कर्ष था कि मुझे परमेश्वर के घर में महत्वपूर्ण काम मिला हुआ था, लेकिन मैंने परमेश्वर के अनुग्रह का प्रतिफल नहीं चुकाया। एक विकट घड़ीमें मैंने अपने हितों का ख्याल रखा और परमेश्वर के घर के हितों की अनदेखी की। क्या यह एक झूठे अगुआ और एक मसीह-विरोधी की अभिव्यक्ति नहीं थी? मैं सोचने लगी कि मसीह-विरोधी किस तरह सिर्फ अपने निजी हितों और रुतबे के लिए काम करते हैं, और परमेश्वर के घर के हितों का जरा भी ख्याल नहीं करते। मैं एक मसीह-विरोधी के रास्ते पर चल रही थी। अगर मैंने प्रायश्चित नहीं किया, तो यकीनन मसीह-विरोधियों की ही तरह मेरा खुलासा हो जाएगा, और मैं हटा दी जाऊँगी।
फिर, मैंने आत्मचिंतन किया, मैंने इस झूठी अगुआ को मौके पर मौका दिया, क्योंकि मैंने एक गलत नजरिया अपना रखा था कि अगर मैंने उसके साथ काफी संगति की, तो देर-सवेर वह बदल जाएगी। फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, और इस गलतफहमी के बारे में थोड़ी समझ हासिल की। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "नकली अगुआ के लिए, जब कदाचार होता है, तो चाहे उसे कोई भी करे, नकली अगुआ दोषी से सतही ढंग से निपटकर और कुछ अनुस्मारक और उपदेश देकर मान लेता है कि उसका काम हो गया है और उसने समस्या का समाधान कर लिया है, लेकिन यह विशुद्ध रूप से शैतान का तर्क है। नकली अगुआ स्पष्ट रूप से गैर-विश्वासियों, कुकर्मियों और मसीह-विरोधियों को तुरंत बाहर निकालने में विफल रहते हैं, लेकिन वे विरोध करते हैं, 'मैंने उनके साथ परमेश्वर के वचन पर संगति की, वे सभी जान गए कि उन्होंने क्या किया और उन्होंने पछतावा महसूस किया, वे सभी रोए और बोले कि वे निश्चित रूप से पश्चात्ताप करेंगे और अब अपना राज्य स्थापित करने का प्रयास नहीं करेंगे।' क्या यह घर-घर खेलने वाले बच्चे की तरह नहीं है? क्या वे खुद को धोखा नहीं दे रहे? ये गैर-विश्वासी, कुकर्मी और मसीह-विरोधी सभी ऐसे लोग हैं, जो सत्य से चिढ़ते हैं। उनमें से कोई भी सत्य को बिलकुल भी स्वीकार नहीं करता, और वे परमेश्वर के उद्धार का लक्ष्य नहीं हैं, लेकिन नकली अगुआ इन गैर-विश्वासियों, कुकर्मियों और मसीह-विरोधियों को, जिनसे परमेश्वर घृणा करता है और जिनका वह तिरस्कार करता है, परमेश्वर के चुने हुए लोग मानते हैं, और प्रेम से उनकी मदद करने का प्रयास करते हैं। यहाँ समस्या का सार क्या है? क्या यह मूर्खता और अज्ञानता है, जो उन्हें इन लोगों को स्पष्ट रूप से देखने से रोकती है, या वे उनके नाराज होने के डर से उन्हें खुश करने की कोशिश करते हैं? कारण जो भी हो, जो सबसे ज्यादा मायने रखता है, वह यह है कि नकली अगुआ व्यावहारिक काम नहीं करते, काट-छाँट किए जाने और निपटे जाने पर वे सत्य स्वीकार नहीं करते, और वे अपनी गलतियाँ नहीं मानते। यह ये दिखाने के लिए पर्याप्त है कि नकली अगुआओं में बिलकुल भी सत्य की कोई वास्तविकता नहीं होती। वे परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं के अनुसार कार्य नहीं करते, और विशेष रूप से जब कलीसिया से लोगों को निकालने के कार्य की बात आती है, तो वे जैसे-तैसे काम निपटाने का प्रयास करते हैं। वे केवल बेमन से कुछ स्पष्ट कुकर्मियों को निकालते हैं। जब उन्हें उजागर किया जाता है और उनसे निपटा जाता है, तो वे जिम्मेदारी से बचने और अपने पक्ष में बहस करने के लिए विभिन्न बहाने तक ढूँढ़ते हैं। इसलिए नकली अगुआ, जो कोई व्यावहारिक कार्य नहीं करता, एक ऐसी बाधा होता है, जो परमेश्वर की इच्छा पूरी होने से रोकता है। नकली अगुआ जो काम करते हैं, वे अर्थहीन और बेकार होते हैं। वे कलीसिया में उत्पन्न होने वाली विभिन्न समस्याओं का समाधान कभी नहीं करते, वे बस उन्हें टालते हैं, जो न केवल परमेश्वर के घर के कार्य की सामान्य प्रगति में देरी करता है, बल्कि परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन-प्रवेश को भी प्रभावित करता है। स्पष्ट रूप से नकली अगुआ परमेश्वर के घर के कार्य को बाधित और अव्यवस्थित करते हैं और गैर-विश्वासियों, कुकर्मियों और मसीह-विरोधियों के लिए सुरक्षा की छतरियों के रूप में कार्य करते हैं। आध्यात्मिक युद्ध के महत्वपूर्ण क्षण में, वे परमेश्वर का विरोध करने और उसे धोखा देने के लिए शैतान के पक्ष में खड़े होते हैं। क्या यह परमेश्वर से विश्वासघात की अभिव्यक्ति नहीं है? नकली अगुआओं के विचारों से यह स्पष्ट है कि वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग नहीं होते। वे सत्य बिलकुल भी नहीं समझते, और वे अगुआई का कार्य करने के लिए पूरी तरह से अयोग्य होते हैं" (नकली अगुआओं की पहचान करना)। मैंने परमेश्वर के वचनों पर मनन किया तो मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई। मेरा मानना था कि कोई भी इंसान बदल सकता है अगर मैं उसके साथ सत्य पर संगति करूँ, और वह कहे कि वह सत्य को स्वीकार करता है और वह अपनी गलती मान ले। मैं लोगों को उनके सार के अनुसार नहीं देखती थी; मैं आँखों और दिल से अंधी थी। पहले-पहल जब मैं बहन ली से मिली थी, तो मैंने रुतबे के पीछे भागने और जो राह उसने पकड़ी उसकी प्रकृति को उजागर करके उसका विश्लेषण किया था। जब उसने थोड़ी समझ की बातें कीं और प्रायश्चित करने की इच्छा जाहिर की, तो मुझे लगा मेरी संगति के अच्छे नतीजे मिले हैं, और वह बदल जाएगी, इसलिए मैंने उसे तरक्की देकर अगुआ का पद दिया। कुछ समय बाद, बहन ली ने फिर से छवि और रुतबे पर ध्यान देना शुरू कर दिया, और कोई व्यावहारिक कार्य नहीं किया। उसे उजागर करके उसके साथ संगति करने के बाद, जब मैंने उसका ईमानदार रवैया देखा और उसने प्रायश्चित करने की इच्छा जताई, तो मुझे फिर से यकीन हो गया कि वह बदल जाएगी। असल में, बहन ली हमेशा शोहरत और रुतबे के पीछे भागती थी, और व्यावहारिक कार्य नहीं करती थी, और उसने न तो कभी प्रायश्चित किया, और न ही वह बदली। बहुत पहले ही वह एक झूठी अगुआ के रूप में दिखाई दे गई थी, मगर मैं उसके साथ संगति करके उसे मौके देती रही। मैं सच में कितनी अंधी और अनजान थी। असल में, सत्य पर संगति सिर्फ एक सहायक भूमिका अदा करती है। लोग बदल सकते हैं या नहीं, यह ज्यादा करके इस पर निर्भर करता है कि क्या वे सत्य का अनुसरण कर सकते हैं। जो लोग ईमानदारीके साथ सत्य का अनुसरण करके उसे स्वीकार करते हैं, उन्हें दूसरों की संगति, सहायता, मार्गदर्शन और निपटान से आत्मचिंतन करके सत्य के अनुसार खुद को जानने, प्रायश्चित करने और बदलने में मदद मिलती है। जो लोग सत्य को नहीं स्वीकारते, उससे चिढ़ते हैं, तो आप उनके साथ चाहे कितनी भी संगति करें, वे कभी भी सत्य को स्वीकार नहीं करेंगे, न ही वे सत्य के आधार पर खुद को जानकर खुद से घृणा करेंगे, इसलिए उनके लिए बदलना नामुमकिन है। मैं हर किस्म के लोगों के साथ परमेश्वर के वचन और सत्य के अनुसार पेश नहीं आई, मैंने आँखें बंद करके, और घमंड से, अपनी ही कल्पना से उपजे नियम लागू किए, और नतीजा यह हुआ कि मैंने एक झूठी अगुआ को बचाया, जिससे परमेश्वर के घर का कार्य बाधित हुआ। मैं शुद्ध रूप से शैतान की भूमिका अदा कर रही थी। मैंने आत्मचिंतन करते हुए, परमेश्वर के सामने अपनी गलती स्वीकार की और प्रायश्चित किया, "हे परमेश्वर, मैं अपने गलत नजरियों को बदलना चाहती हूँ, सत्य खोजना चाहती हूँ, और अपना काम सिद्धांतों के अनुसार करना चाहती हूँ।"
बाद में, मैं काम की जांच-पड़ताल के लिए कलीसिया गई, तो भाई-बहनों ने कहा कि कलीसिया अगुआ भाई श्यांग, अपने काम में निष्क्रिय और गैरजिम्मेदार है। बैठकों में, वह दूसरों की समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य पर संगति नहीं करता। कलीसिया का कार्य प्रभावहीन था, मगर वह किसी भी चीज की निगरानी या देखरेख नहीं करता था, और वह जरा भी व्यावहारिक कार्य नहीं करता था। जब दूसरे कोई सुझाव देते, तो वह उन्हें भी नहीं मानता था, और उनकी बात काटने के लिए तरह-तरह के बहाने बनाता था। कभी-कभी वह कहता था, "आप लोग अपनी समस्याओं पर आत्मचिंतन क्यों नहीं करते?" इससे बाकी लोग दबे-दबे महसूस करते थे। उसे मीन-मेख निकालना और दूसरों पर हावी होना पसंद था। सिद्धांतों के अनुसार, भाई श्यांग एक झूठा अगुआ था और उसे बर्खास्त कर देना चाहिए था। मैंने कलीसिया के उपयाजकों से पूछा कि वे भाई श्यांग के मसलों के बारे में क्या सोचते हैं। वे बोले, "भाई श्यांग अपने काम के बोझ की जिम्मेदारी नहीं उठाता, लेकिन हर बार, हमारी संगति के बाद, वह खुद के बारे में कुछ समझ जताता है, और कहता है वह प्रायश्चित करके बदलना चाहता है। हम उसकी मदद करके देखना चाहते हैं कि क्या होता है।" यह सब सुनने के बाद, मुझे लगा, "भाई श्यांग के व्यवहार के अनुसार वह एक झूठा अगुआ है और उसे हटा देना चाहिए। वरना परमेश्वर के घर के कार्य का नुकसान होगा। लेकिन उपयाजक राजी नहीं हैं, तो शायद मैं गलत हूँ? अगर मैं भाई श्यांग को हटाने पर जोर दूँ, और यह गलत साबित हो जाए, तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे कहेंगे कि बहुत साल तक काम संभालने के बावजूद, मैं लोगों को परख नहीं पाती?" मैं जानती थी कि मैं फिर से अपनी छवि और रुतबे के बारे में सोच रही थी, इसलिए मैंने निजी हितों को त्यागने में मदद के लिए प्रार्थना की। मुझे एहसास हुआ कि उपयाजक सिर्फ यह सच्चाई देख रहे थे कि श्यांग बातों का धनी था। वे उसे परमेश्वर के वचन के आधार पर नहीं जांच-परख रहे थे। मैंने पहले गलत इंसान को इसलिए चुना था क्योंकि मैंने सत्य या परमेश्वर के वचन के आधार पर उसे नहीं परखा था। इस बार, मुझे सबक सीखते हुए, सबके साथ सत्य को खोजना होगा, और परमेश्वर के वचन के आधार पर झूठे अगुआ को जाँचना-परखना होगा। यही एकमात्र सही तरीका है।
फिर, झूठे अगुआओं को पहचानने के बारे में मुझे परमेश्वर के वचन का एक अंश मिला। "कोई व्यक्ति नकली अगुआ है या नहीं, इसका पता अपनी आँखों से उसका चेहरा देखकर नहीं लगाया जाता कि उसके नाक-नक्श अच्छे हैं या बुरे, न ही यह देखकर किया जाता है कि बाहर से उसने कितनी पीड़ा सही या कितनी दौड़-धूप की है। इसके बजाय, तुम्हें यह देखना चाहिए कि वह एक अगुआ के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करता है या नहीं और व्यावहारिक समस्याएँ हल करने के लिए सत्य का उपयोग कर सकता है या नहीं। इस प्रश्न का आकलन करने का यह एकमात्र सटीक मानक है। कोई व्यक्ति नकली अगुआ है या नहीं, इसका विश्लेषण, पहचान और निर्धारण करने का यही सिद्धांत है। केवल इसी तरह से आकलन उचित, सिद्धांतों के अनुरूप, सत्य के अनुसार और सभी के लिए निष्पक्ष हो सकता है। नकली अगुआ या नकली कार्यकर्ता के रूप में किसी का चरित्रांकन पर्याप्त तथ्यों पर आधारित होना चाहिए। यह एक-दो घटनाओं या अपराधों पर आधारित नहीं होना चाहिए, अस्थायी भ्रष्टता को इसके आधार के रूप में तो बिलकुल भी इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। किसी के चरित्रांकन का एकमात्र सटीक मानक यह है कि क्या वह व्यावहारिक कार्य कर सकता है और क्या वह समस्याएँ हल करने के लिए सत्य का उपयोग कर सकता है, साथ ही क्या वह एक सही व्यक्ति है, क्या वह ऐसा व्यक्ति है जो सत्य से प्रेम करता है और परमेश्वर की आज्ञा का पालन कर सकता है, और क्या उसमें पवित्र आत्मा का कार्य और प्रबुद्धता है। केवल इन्हीं कारकों के आधार पर किसी का एक नकली अगुआ या नकली कार्यकर्ता के रूप में चरित्रांकन सही ढंग से किया जा सकता है। ये कारक यह आकलन और निर्धारण करने के मानक और सिद्धांत हैं कि कोई व्यक्ति नकली अगुआ या नकली कार्यकर्ता है या नहीं" (नकली अगुआओं की पहचान करना)। हमने साथ मिलकर इस अंश के बारे में संगति की, और झूठे अगुआओं को परखने और पहचानने का तरीका समझा। हमें उनकी बातें कितनी अच्छी लगती हैं, यह सोचना सही नहीं है। अहम बात यह है कि क्या वे व्यावहारिक कार्य कर सकते हैं और सत्य के साथ समस्याएँ सुलझा सकते हैं, और यह भी कि क्या वे सत्य को स्वीकार करके उसका अनुसरण कर सकते हैं, ईमानदारी से खुद को जान सकते हैं, और सचमुच प्रायश्चित करके बदल सकते हैं। श्यांग को परखने के लिए हमने ये सिद्धांत इस्तेमाल किए। वह लगातार बिना किसी जिम्मेदारी के काम करता था, और कोई व्यावहारिक कार्य नहीं करता था। भाई-बहनों ने कई बार संगति करके उसकी मदद की, लेकिन उसने न कभी इसे स्वीकार किया, न आत्मचिंतन किया, उसने दूसरों पर आरोप लगाए, और हर किसी को दबाए रखा। हमने देखा कि उसने कोई व्यावहारिक कार्य नहीं किया, न ही सत्य का अनुसरण किया, तो वह एक झूठा अगुआ था, और उसे बर्खास्त करना जरूरी था। यह सुनकर भाई-बहनों ने खुद को दोषी माना, और कहा, "हमने उसे नहीं पहचाना, न ही परमेश्वर के वचन का इस्तेमाल करके उसे जांचा-परखा। हम उसके द्वारा पेश की गई झूठी छवि से धोखा खा गए। हमने परमेश्वर के घर के कार्य को बाधित करनेवाले एक झूठे अगुआ के लिए रक्षा-कवच का काम किया।" यह देखकर कि अब वे झूठे अगुआओं को पहचानने लगे हैं, मुझे बहुत चैन मिला, और हमने भाई श्यांग को उसी वक्त बर्खास्त कर दिया।
इन अनुभवों के बाद, मैं समझ गई कि धारणाओं के आधार पर लोगों को काम पर लगाना वास्तव में दूसरों और खुद को नुकसान पहुँचाना है। इससे न सिर्फ परमेश्वर के परिवार को नुकसान पहुँचता है, यह आपसे अतिक्रमण भी करवाता है। अब आगे से अपने काम में, मैं सत्य को और ज्यादा खोजने और चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखने की उम्मीद करती हूँ। जहाँ कोई बात मुझे समझ में न आए, मैं अपनी छवि और रुतबे को भुलाकर भाई-बहनों के साथ और ज्यादा संगति करना चाहती हूँ, ताकि अपनी कमियों की भरपाई कर सकूँ, और परमेश्वर के घर के कार्य को बनाए रख सकूँ। परमेश्वर का धन्यवाद!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?