समस्या बताना कमियाँ निकालना नहीं है

16 दिसम्बर, 2025

फ्लोरेंस, इटली

मेरी माँ बचपन से ही मुझसे कहती थी कि “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो,” और “अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है।” उसने मुझसे कहा कि अगर मुझे दूसरे लोगों में समस्याएँ दिखें तो मैं उन्हें मुँह पर बिलकुल न बताऊँ क्योंकि इससे गलत प्रतिक्रिया होगी और दूसरों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए मुझे हर चीज को अनदेखा करना होगा। उस समय से, मैंने अपनी माँ की बातें अपने दिल में बसा लीं। चाहे स्कूल में हो या रिश्तेदारों और दोस्तों के बीच, जब भी मुझे दूसरे लोगों की समस्याएँ दिखतीं, मैंने कभी भी उनके बारे में कुछ नहीं कहा।

मुझे याद है, जब मैं मिडिल स्कूल में थी, मेरी डेस्कमेट ने मुझसे कहा कि दूसरे लोग उसे काफी मनमानी करने और रौब जमाने वाली समझते थे और उसके साथ समय बिताना नहीं चाहते थे। उसने मुझसे पूछा कि क्या वह सच में वैसी थी। असल में, मैं जानती थी कि उसमें ये समस्याएँ थीं और उसे सच बताना चाहती थी, लेकिन फिर मैंने सोचा, “अगर मैं उसे सच बता दूँगी तो क्या वह शर्मिंदा हो जाएगी और फिर मेरे साथ समय नहीं बिताना चाहेगी?” इसलिए, जो मैं सोच रही थी, उसके विपरीत मैंने कहा, “मुझे ऐसा नहीं लगता। तुम दूसरों की बकवास मत सुनो।” यह सुनकर मेरी डेस्कमेट ने खुशी से कहा, “जैसा मैंने सोचा था, तुम बाकी लोगों से बेहतर हो। दूसरे लोग हमेशा मुझे नापसंद करते हैं। सिर्फ तुम ही मुझे समझती हो।” उसके बाद हमारा रिश्ता और भी बेहतर हो गया। मैंने सोचा कि आचरण का यह एक अच्छा तरीका है।

बाद में, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकार किया और कलीसिया में छवि निर्माण का कर्तव्य निभाने लगी। बहन क्लोई का तकनीकी कौशल अपेक्षाकृत कमजोर था। जब हम डिजाइन के विचारों पर चर्चा करते थे, तो हमेशा उससे पूछते थे कि क्या उसे कोई कठिनाई है और धैर्यपूर्वक उसके सवालों का जवाब देते थे। मैंने सोचा कि इस तरह वह तेजी से प्रगति करेगी, लेकिन बाद में मैंने पाया कि विचारों पर चर्चा करने के बाद, क्लोई तुरंत निर्माण शुरू नहीं करती थी। इसके बजाय, वह थोड़ी देर भजन सुनती और फिर इंटरनेट पर ऐसी खबरें देखने में कुछ समय बिताती जिनका उसके कर्तव्य से कोई लेना-देना नहीं था। आखिरकार, जो छवियाँ वह बनाती थी, वे बहुत भद्दी होती थीं। मैंने देखा कि वह अपना कर्तव्य अनमने ढंग से कर रही थी, इसलिए मैं उसकी समस्याएँ बताना चाहती थी। एक सभा में मैंने क्लोई से पूछा कि वह छवि बनाने में इतनी धीमी क्यों है। उसने कहा कि ऐसा इसलिए है क्योंकि उसे कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। मैंने कहा, “अगर तुम्हें कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, तो तुम्हें तुरंत हमें बताना चाहिए। इस तरह समस्याओं को जल्द से जल्द हल किया जा सकता है और प्रगति में देरी नहीं होगी।” मैं मूल रूप से यह उजागर करना चाहती थी कि उस दौरान वह अपने कर्तव्य निभाने में कैसे अनमनी रही थी। लेकिन मैंने देखा कि वह अधीर हो रही थी और इसलिए मैं जो कहने वाली थी, उसे मन में ही रखा। बाद में, दूसरी बहनों ने भी क्लोई के साथ संगति करने के लिए उसे ढूँढ़ा। उसने कहा कि मैं उसकी कठिनाइयों को नहीं समझती और उससे बहुत ज्यादा माँग कर रही थी, लेकिन उसने इसे परमेश्वर से स्वीकार किया और अपना कर्तव्य निभाने के प्रति अपना रवैया बदलेगी। यह सुनकर मैं थोड़ी चिंतित हो गई और सोचने लगी, “अब जब क्लोई मेरे प्रति पूर्वाग्रह रखती है, तो भविष्य में हमारी कैसे निभेगी? क्या मेरी दूसरी बहनें सोचेंगी कि मेरी मानवता खराब है और मैं दूसरों की परवाह नहीं करती?” बाद में, मैंने देखा कि क्लोई पहले से ज्यादा तेजी से छवियाँ बना रही थी और मैंने सोचा कि वह कुछ हद तक सुधर गई है। लेकिन कुछ दिनों बाद, मैंने पाया कि उसे अभी भी अपने कर्तव्य निभाने की कोई जल्दी नहीं थी और वह अविश्वासी दुनिया के वीडियो भी देख रही थी। वह अक्सर शिकायत भी करती थी, कुछ इस तरह की बातें कहती थी, “पर्यवेक्षक हमेशा हमसे कुछ नया करने को कहते हैं, लेकिन कुछ नया करना इतना आसान नहीं है! हम सबने अभी-अभी यह कर्तव्य करना शुरू किया है। हमसे इतनी ज्यादा माँग करना क्या हमें हमारी क्षमता से बाहर काम करने के लिए मजबूर करना नहीं है?” और “जब भी मैं कोई छवि बनाती हूँ, तो हमेशा इतनी सारी समस्याएँ बता दी जाती हैं। वह बारीकियों पर ज्यादा ही ध्यान देती है!” हालाँकि मैं और एक दूसरी बहन उसे अक्सर ये नकारात्मक बातें कहने से रोकते थे, वह खुद को ज्यादा रोकती नहीं थी। मैं जानती थी कि मुझे उसके कार्यों की प्रकृति और परिणामों का गहन-विश्लेषण करना चाहिए, वरना वह दूसरी बहनों को उनके कर्तव्य निभाने में प्रभावित करेगी। लेकिन जब मैंने सोचा कि पिछली बार उससे बात की थी तो उसने मेरे बारे में कैसे पूर्वाग्रह बना लिया था और कैसे उसने मेरी दूसरी बहनों के सामने यह तक कह दिया था कि मैं उसे उसकी क्षमता से बाहर काम करने के लिए मजबूर कर रही थी, तो मैं हिचकिचाई। मैंने सोचा, “अगर मैं उसकी समस्याओं को उजागर और उनका गहन-विश्लेषण करती रही और उसके साथ मेरा रिश्ता तनावपूर्ण हो गया, तो क्या होगा? शायद मुझे इसकी बजाय पर्यवेक्षक को उसकी स्थिति की जानकारी दे देनी चाहिए। लेकिन फिर अगर क्लोई को इस बारे में पता चल गया, तो क्या वह सोचेगी कि मैं उसकी पीठ में छुरा घोंप रही हूँ और कहेगी कि मेरी मानवता खराब है?” सब सोचने के बाद मुझमें हिम्मत नहीं हुई कि उसकी समस्याएँ बताऊँ और उनकी रिपोर्ट करूँ।

इसके कुछ ही समय बाद, पर्यवेक्षक को पता चला कि क्लोई लंबे समय से अपना कर्तव्य अनमने ढंग से कर रही थी और इसलिए उसने उसका कर्तव्य बदल दिया। पर्यवेक्षक ने यह कहते हुए मेरी काट-छाँट भी की, “तुमने क्लोई को लंबे समय तक अनमने ढंग से अपना कर्तव्य निभाते और नकारात्मकता फैलाते हुए देखा, लेकिन तुमने उसे उजागर नहीं किया और न ही उसकी रिपोर्ट की। तुम एक चापलूस हो और तुमने कलीसिया के काम की जरा भी रक्षा नहीं की। तुम बहुत स्वार्थी हो! तुम्हें इस पर ध्यान से चिंतन करना चाहिए।” पर्यवेक्षक के शब्द मेरे चेहरे पर तमाचों की तरह थे। उस पल मैं चाहती थी कि धरती फट जाए और मैं उसमें समा जाऊँ। बाद में, जब मैंने पर्यवेक्षक की कही बातों के बारे में सोचा तो मुझे बहुत असहज महसूस हुआ। मैंने मन ही मन बार-बार पूछा, “मुझमें क्लोई की समस्याओं को उजागर करने या रिपोर्ट करने की हिम्मत क्यों नहीं थी?” एक दिन अपनी भक्ति के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “ज़्यादातर लोग सत्य का अनुसरण और अभ्यास करना चाहते हैं, लेकिन अधिकतर समय उनके पास ऐसा करने का केवल संकल्प और इच्छा ही होती है; सत्य उनका जीवन नहीं बना है। इसके परिणामस्वरूप जब लोगों का बुरी शक्तियों से वास्ता पड़ता है या ऐसे कुकर्मियों या बुरे लोगों से उनका सामना होता है जो बुरे कामों को अंजाम देते हैं, या जब ऐसे नकली अगुआओं और मसीह-विरोधियों से उनका सामना होता है जो अपना काम इस तरह से करते हैं जिससे सिद्धांतों का उल्लंघन होता है—इस तरह कलीसिया के कार्य में बाधा पड़ती है, और परमेश्वर के चुने लोगों को हानि पहुँचती है—वे डटे रहने और खुलकर बोलने का साहस खो देते हैं। जब तुम्हारे अंदर कोई साहस नहीं होता, इसका क्या अर्थ है? क्या इसका अर्थ यह है कि तुम डरपोक हो या अपनी बात स्पष्ट रूप से व्यक्त करने में असमर्थ हो? या फिर यह कि तुम अच्छी तरह नहीं समझते और इसलिए तुम में अपनी बात रखने का आत्मविश्वास नहीं है? दोनों में से कुछ नहीं; यह मुख्य रूप से भ्रष्ट स्वभावों द्वारा बेबस होने का परिणाम है। तुम्हारे द्वारा प्रदर्शित किए जाने वाले भ्रष्ट स्वभावों में से एक है कपटी स्वभाव; जब तुम्हारे साथ कुछ होता है, तो पहली चीज जो तुम सोचते हो वह है तुम्हारे हित, पहली चीज जिस पर तुम विचार करते हो वह है नतीजे, कि यह तुम्हारे लिए फायदेमंद होगा या नहीं। यह एक कपटी स्वभाव है, है न? दूसरा है स्वार्थी और नीच स्वभाव। तुम सोचते हो, ‘परमेश्वर के घर के हितों के नुकसान से मेरा क्या लेना-देना? मैं कोई अगुआ नहीं हूँ, तो मुझे इसकी परवाह क्यों करनी चाहिए? इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। यह मेरी जिम्मेदारी नहीं है।’ ऐसे विचार और शब्द तुम सचेतन रूप से नहीं सोचते, बल्कि ये तुम्हारे अवचेतन द्वारा उत्पन्न किए जाते हैं—जो वह भ्रष्ट स्वभाव है जो तब दिखता है जब लोग किसी समस्या का सामना करते हैं। ऐसे भ्रष्ट स्वभाव तुम्हारे सोचने के तरीके को नियंत्रित करते हैं, वे तुम्हारे हाथ-पैर बाँध देते हैं और तुम जो कहते हो उसे नियंत्रित करते हैं। अपने दिल में, तुम खड़े होकर बोलना चाहते हो, लेकिन तुम्हें आशंकाएँ होती हैं, और जब तुम बोलते भी हो, तो बात को घुमाते हो और बात बदलने की गुंजाइश छोड़ देते हो, या फिर टाल-मटोल करते हो और सत्य नहीं बताते। स्पष्टदर्शी लोग इसे देख सकते हैं; वास्तव में, तुम अपने दिल में जानते हो कि तुमने वह सब नहीं कहा जो तुम्हें कहना चाहिए था, कि तुमने जो कहा उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा, कि तुम सिर्फ औपचारिकता निभा रहे थे, और समस्या हल नहीं हुई है। तुमने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई है, फिर भी तुम खुल्लमखुल्ला कहते हो कि तुमने अपनी जिम्मेदारी निभा दी है, या जो कुछ हो रहा था वह तुम्हारे लिए अस्पष्ट था। क्या यह सच है? और क्या तुम सचमुच यही सोचते हो? क्या तब तुम पूरी तरह से अपने शैतानी स्वभाव के नियंत्रण में नहीं हो? ... तुम जो कहते और करते हो, उस पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं होता। यहाँ तक कि अगर तुम चाहते भी, तो भी तुम सच न बता पाते या वह न कह पाते जो तुम वास्तव में सोचते हो; चाहकर भी तुम सत्य का अभ्यास न कर पाते; चाहकर भी तुम अपनी जिम्मेदारियाँ न निभा पाते। तुम जो कुछ भी कहते, करते हो और जिसका भी अभ्यास करते हो, वह सब झूठ है, और तुम सिर्फ अनमने हो। तुम पूरी तरह से अपने शैतानी स्वभाव की बेड़ियों में जकड़े हुए और उससे नियंत्रित हो। हो सकता है कि तुम सत्य स्वीकार कर उसका अभ्यास करना चाहो, लेकिन यह तुम पर निर्भर नहीं है। जब तुम्हारे शैतानी स्वभाव तुम्हें नियंत्रित करते हैं, तो तुम वही कहते और करते हो जो तुम्हारा शैतानी स्वभाव तुमसे करने को कहता है। तुम भ्रष्ट देह की कठपुतली के अलावा और कुछ नहीं हो, तुम शैतान का एक औजार बन गए हो(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। जब मैंने परमेश्वर के वचनों पर विचार किया, तो वे मेरे दिल में चुभ गए। मैं उसी तरह की इंसान थी जिसे परमेश्वर ने उजागर किया था। मैं क्लोई की सभी समस्याओं के बारे में जानती थी लेकिन उन्हें उजागर करने या उनका गहन-विश्लेषण करने की हिम्मत नहीं करती थी। जब मैंने कुछ कहा भी, तो कोई ठोस बात नहीं कही : मैंने सिर्फ आधी बात बताई और बाकी अपने तक ही रखी, मैं क्लोई को नाराज करने से डरती थी। खुद को बचाने और उसके साथ अपना रिश्ता बनाए रखने के लिए, मैं उसकी समस्याओं पर चुप रही। मैं कितनी स्वार्थी और कपटी थी! क्लोई बिना किसी पश्चात्ताप के लगातार अपना कर्तव्य अनमने ढंग से कर रही थी। वह अपने भाई-बहनों के बीच नकारात्मकता भी फैलाती थी; वह शैतान की भूमिका निभा रही थी। मैंने न केवल उसे रोका नहीं, बल्कि मैंने उसका बचाव भी किया और पर्यवेक्षक को उसकी समस्याओं की रिपोर्ट नहीं की। क्या मैं शैतान की साथी और ढाल के रूप में काम नहीं कर रही थी? मैंने परमेश्वर से मिली हर चीज का आनंद लिया, लेकिन मैंने जिस थाली में खाया उसी में छेद किया और अपनी कोई भी जिम्मेदारी बिल्कुल पूरी नहीं की। मैं सचमुच परमेश्वर के सामने जीने के लायक नहीं थी! जब मैंने यह सोचा, तो मुझे अपराध बोध हुआ और असहज महसूस हुआ और मैंने जो किया था उस पर सचमुच पछतावा हुआ।

बाद में, मैंने कला डिजाइन के काम का पर्यवेक्षण करना शुरू कर दिया। मैंने पाया कि बहन एमिली काफी घमंडी और आत्मतुष्ट थी और दूसरे लोगों के सुझाव स्वीकार करने को तैयार नहीं थी। यह छवि निर्माण के नतीजों को प्रभावित कर रहा था। मैं जानती थी कि मुझे एमिली की समस्याएँ बतानी चाहिए और जल्द से जल्द इस अवस्था को बदलने में उसकी मदद करनी चाहिए, लेकिन फिर मैंने सोचा, “अगर मैंने मुँह पर उसकी समस्याएँ बता दीं तो क्या यह बहुत ठेस पहुँचाएगा? अगर वह इसे स्वीकार न कर पाई और उसने मेरे प्रति पूर्वाग्रह बना लिया तो? लेकिन अगर मैं नहीं कहती हूँ, तो यह काम को प्रभावित करेगा। क्या मैं अपनी पुरानी आदतों में ही नहीं पड़ रही हूँ?” मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मुझे सत्य का अभ्यास करने की शक्ति दे। फिर, मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला जो खासकर मेरी अवस्था के लिए था : “अगर तुम्हारे पास एक चापलूस का इरादा और दृष्टिकोण है तो तुम सभी मामलों में सत्य का अभ्यास नहीं करोगे या सिद्धांतों को कायम नहीं रखोगे और इसलिए तुम हमेशा असफल होओगे और गिरोगे। यदि तुम जागरूक नहीं होते और कभी सत्य नहीं खोजते तो तुम छद्म-विश्वासी हो और तुम कभी सत्य और जीवन हासिल नहीं करोगे। तब तुम्हें क्या करना चाहिए? इस तरह की चीजों से सामना होने पर तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी ही चाहिए और उसे पुकारना चाहिए, परमेश्वर को तुम्हें बचाने और तुम्हें आस्था और शक्ति देने और सिद्धांतों को कायम रखने में तुम्हें समर्थ बनाने को कहना चाहिए, वो करो जो तुम्हें करना चाहिए, चीजों को सिद्धांतों के अनुसार सँभालो, उस स्थिति में मजबूती से खड़े रहो जहाँ तुम्हें होना चाहिए, परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करो और परमेश्वर के घर के कार्य को होने वाले किसी भी नुकसान को रोको। अगर तुम अपने स्वार्थों, अपनी प्रतिष्ठा और एक चापलूस होने के अपने दृष्टिकोण के खिलाफ विद्रोह करने में सक्षम हो और अगर तुम एक ईमानदार, अविभाजित हृदय के साथ वह करते हो जो तुम्हें करना चाहिए तो तुम शैतान को हरा चुके होगे और सत्य के इस पहलू को प्राप्त कर चुके होगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मेरा दिल रोशन हो गया। मैं समझ गई कि अगर मुझे एक खुशामदी के विचारों और सोच को छोड़ना है, तो मुझे कलीसिया के हितों को पहले रखना होगा। चाहे दूसरे कुछ भी सोचें या मैं उन्हें नाराज ही क्यों न कर दूँ, मुझे अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी थीं और कलीसिया के काम को प्रभावित नहीं होने देना था। कलीसिया ने मुझे पर्यवेक्षक इसलिए बनाया था क्योंकि कलीसिया को उम्मीद थी कि मैं अपने भाई-बहनों की जिम्मेदारी लूँगी और कलीसिया के हितों की रक्षा करूँगी। अगर मैं खुशामदी बनी रही और एमिली की समस्याएँ नहीं बताईं, तो मैं उसे और कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचाऊंगी। बाद में, परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में मैंने उसके कार्यकलापों की प्रकृति और परिणामों का गहन-विश्लेषण किया। मैंने इस पर भी चर्चा की कि मेरे पिछले घमंडी स्वभाव ने कलीसिया के काम और मेरे अपने जीवन प्रवेश, दोनों को कैसे नुकसान पहुँचाया था। मैंने जिसकी उम्मीद नहीं की थी, वह यह था कि यह सुनने के बाद एमिली ने न केवल मेरे प्रति कोई पूर्वाग्रह नहीं बनाया, बल्कि परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में अपनी समस्याओं को समझ गई और सुधरने को तैयार हो गई। इसे कारण बनाकर एमिली ने मुझसे दूरी भी नहीं बनाई। उसने कर्तव्य निभाने में जो भ्रष्टता दिखाई या जिन कठिनाइयों का सामना किया, उनके बारे में वह मेरे साथ संगति में खुलकर बात करती थी। इस अनुभव में, मैंने सत्य का अभ्यास करने की मिठास का स्वाद चखा और मेरे दिल को खास तौर से सुकून महसूस हुआ।

मैंने सोचा कि मैं बदल गई हूँ, लेकिन जब परमेश्वर ने एक और परिवेश का इंतजाम किया, तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि मैं शैतान द्वारा कितनी गहराई से भ्रष्ट की जा चुकी थी। 2024 में, मुझे समूह प्रभारी के रूप में चुना गया, जो समूह सभाओं के लिए जिम्मेदार थी। सभाओं में, मैंने पाया कि बहन एलिस की संगति अक्सर विषय से भटक जाती थी और वह अक्सर अपनी संगति का इस्तेमाल दूसरों की आलोचना करने के लिए करती थी। एक बार, परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, एलिस ने उनका इस्तेमाल खुद को समझने के लिए नहीं किया। इसके बजाय, उसने कहा कि ओलिविया का स्वभाव घमंडी है और उसने अतीत में ओलिविया को कई बार सुझाव दिए थे, लेकिन ओलिविया ने बहुत प्रतिरोध किया और कठोरता से बात की, जिससे वह बाधित हुई और उसे नुकसान पहुँचा। फिर उसने इस बारे में बात की कि कैसे उसने प्रेमवश ओलिविया की मदद की थी। जब मैंने उसे यह कहते सुना, मैंने मन ही मन सोचा, “क्या ऐसा कहकर वह दूसरों को नीचा दिखाने और खुद को ऊँचा उठाने का काम नहीं कर रही है? अगर ओलिविया में सच में ये समस्याएँ हैं, तो वह अकेले में ओलिविया से मिलकर उन्हें बता सकती है और उसके साथ संगति कर सकती है। उसे अपनी असंतुष्टि जाहिर करने के लिए सभा का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। इसके अलावा, उसकी संगति सभा के विषय से भटक गई है। मुझे उसे जल्दी ही रोकना होगा।” लेकिन, फिर मैंने सोचा, “अगर मैं उसे सीधे-सीधे टोक दूँ, तो क्या वह शर्मिंदा हो जाएगी और मेरे प्रति पूर्वाग्रही हो जाएगी? छोड़ो भी। मैं बस सभा खत्म होने तक इंतजार करूँगी और उससे अकेले में बात करूँगी।” इसलिए, मैंने उसे नहीं रोका। मैंने बस संक्षेप में कहा, “सभी को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वे कितनी देर संगति करते हैं, ताकि दूसरों को संगति के लिए पर्याप्त समय मिल सके।” मैं सभा के बाद एलिस से उसकी समस्या के बारे में बात करना चाहती थी, लेकिन फिर मैंने दूसरी बहनों से सुना कि एलिस अतीत में अक्सर लोगों की पीठ पीछे आलोचना करती थी; एक बहन ने पहले एलिस को नाराज कर दिया था, इसलिए एलिस ने उस बहन की पीठ पीछे बुराई करनी शुरू कर दी थी और एलिस उसे रूखी नजरों से देखती भी थी, जिससे वह एक अजीब स्थिति में पड़ जाती थी। मेरा दिल बैठ गया और मैंने सोचा, “अगर मैं उसकी समस्या बताकर उसे नाराज कर दूँ, तो क्या वह मेरे साथ भी वैसा ही व्यवहार करेगी? भविष्य में अगर हमें अक्सर एक-दूसरे के आस-पास रहना पड़ा तो यह कितना अजीब होगा! शायद मुझे बस अगुआओं को उसकी स्थिति की जानकारी दे देनी चाहिए।” लेकिन, फिर मैंने सोचा, “मेरी एलिस के साथ बहुत अच्छी बनती है। वह मेरे दैनिक जीवन में मेरा बहुत ध्यान भी रखती है। अगर मैं उसकी समस्याओं की रिपोर्ट उसकी पीठ पीछे करती हूँ, तो यह बहुत घटिया हरकत होगी। क्या यह उसकी पीठ में छुरा घोंपने जैसा नहीं होगा? अगर उसे पता चल गया कि मैंने ही उसकी समस्याओं की रिपोर्ट की है, तो क्या वह मुझसे रंजिश रखेगी और मेरी पीठ पीछे मेरी आलोचना करेगी? छोड़ो भी, अभी उसके साथ जो मेरा रिश्ता है, उसे खराब नहीं करते हैं।” जब मैंने यह सोचा, तो मैंने एलिस को उसकी समस्याएँ बताने का विचार छोड़ दिया।

इसके कुछ ही समय बाद, दो बहनों ने मुझे एलिस की स्थिति के बारे में बताया। एक बहन ने कहा कि परमेश्वर के वचनों पर संगति करते समय एलिस हमेशा विषय से भटक जाती थी, जिससे सभाओं में बहुत समय बर्बाद होता था और किसी को कोई लाभ या शिक्षा नहीं मिलती थी। दूसरी बहन ने कहा कि एलिस हमेशा दूसरों की आलोचना करती थी और सभाओं में उनकी समस्याओं के बारे में बात करती थी। इससे लोग सही-गलत के छोटे-मोटे विवादों में खिंच जाते थे और कलीसियाई जीवन में कुछ हद तक बाधा पड़ती थी। जब मैंने अपनी बहनों को यह कहते सुना, तो मुझे थोड़ा अपराध बोध हुआ। मैं एलिस की समस्याओं से अच्छी तरह वाकिफ थी लेकिन मैंने उन्हें बताया नहीं और न ही उनकी रिपोर्ट की। यह सब मेरी गैर-जिम्मेदारी के कारण था। अपनी भक्ति के दौरान, मैंने एक अनुभवजन्य गवाही का वीडियो देखा। उसमें उद्धृत परमेश्वर के वचनों के दो अंशों ने मेरे दिल को छू लिया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “तुम सभी कहते हो कि तुम परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील हो और कलीसिया की गवाही की रक्षा करोगे, लेकिन वास्तव में तुम में से कौन परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील रहा है? अपने आप से पूछो : क्या तुम उसके बोझ के प्रति विचारशील रहे हो? क्या तुम उसके लिए धार्मिकता का अभ्यास कर सकते हो? क्या तुम मेरे लिए खड़े होकर बोल सकते हो? क्या तुम दृढ़ता से सत्य का अभ्यास कर सकते हो? क्या तुममें शैतान के सभी दुष्कर्मों के विरुद्ध लड़ने का साहस है? क्या तुम अपनी भावनाओं को किनारे रखकर मेरे सत्य की खातिर शैतान का पर्दाफाश कर सकोगे? क्या तुम मेरे इरादों को स्वयं में संतुष्ट होने दोगे? सबसे महत्वपूर्ण क्षणों में क्या तुमने अपने दिल को समर्पित किया है? क्या तुम ऐसे व्यक्ति हो जो मेरी इच्छा पर चलता है? स्वयं से ये सवाल पूछो और अक्सर इनके बारे में सोचो(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 13)। “एक बार जब सत्य तुम्हारा जीवन बन जाता है, तो जब तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हो जो ईशनिंदा करता है, परमेश्वर का भय नहीं मानता, कर्तव्य निभाते समय अनमना रहता है या कलीसिया के काम में गड़बड़ी कर बाधा डालता है, तो तुम सत्य-सिद्धांतों के अनुसार प्रतिक्रिया दोगे, तुम आवश्यकतानुसार उसे पहचानकर उजागर कर पाओगे। अगर सत्य तुम्हारा जीवन नहीं बना है और तुम अभी भी अपने शैतानी स्वभाव के भीतर रहते हो, तो जब तुम्हें उन बुरे लोगों और दानवों का पता चलता है जो कलीसिया के कार्य में गड़बड़ियाँ और विघ्न-बाधाएँ पैदा करते हैं, तुम उन पर ध्यान नहीं दोगे और उन्हें अनसुना कर दोगे; अपने विवेक द्वारा धिक्कारे बिना, तुम उन्हें नज़रअंदाज कर दोगे। तुम यह भी सोचोगे कि कलीसिया के कार्य में कोई भी बाधाएँ डाले तो इससे तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं है। कलीसिया के काम और परमेश्वर के घर के हितों को चाहे कितना भी नुकसान पहुँचे, तुम परवाह नहीं करते, हस्तक्षेप नहीं करते, या दोषी महसूस नहीं करते—जो तुम्हें एक ऐसा व्यक्ति बनाता है जिसमें जमीर और विवेक नहीं है, एक छद्म-विश्वासी बनाता है, मजदूर बनाता है। तुम जो खाते हो वह परमेश्वर का है, तुम जो पीते हो वह परमेश्वर का है, और तुम परमेश्वर से आने वाली हर चीज का आनंद लेते हो, फिर भी तुम महसूस करते हो कि परमेश्वर के घर के हितों का नुकसान तुमसे संबंधित नहीं है—जो तुम्हें गद्दार बनाता है, जो उसी हाथ को काटता है जो उसे भोजन देता है। अगर तुम परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करते, तो क्या तुम इंसान भी हो? यह एक दानव है, जिसने कलीसिया में पैठ बना ली है। तुम परमेश्वर में विश्वास का दिखावा करते हो, परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से एक होने का दिखावा करते हो और तुम परमेश्वर के घर में मुफ्तखोरी करना चाहते हो। तुम एक इंसान का जीवन नहीं जी रहे, इंसान से ज्यादा राक्षस जैसे हो, और स्पष्ट रूप से छद्म-विश्वासियों में से एक हो। अगर तुम्हें परमेश्वर में सच्चा विश्वास है, तब यदि तुमने सत्य और जीवन नहीं भी प्राप्त किया है, तो भी तुम कम से कम परमेश्वर के पक्ष में बोलोगे और कार्य करोगे; कम से कम, जब परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाया जा रहा हो, तो तुम उस समय खड़े होकर तमाशा नहीं देखोगे। यदि तुम अनदेखी करना चाहोगे, तो तुम्हारा मन कचोटेगा, तुम असहज हो जाओगे और मन ही मन सोचोगे, ‘मैं चुपचाप बैठकर तमाशा नहीं देख सकता, मुझे दृढ़ रहकर कुछ कहना होगा, मुझे जिम्मेदारी लेनी होगी, इस बुरे बर्ताव को उजागर करना होगा, इसे रोकना होगा, ताकि परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान न पहुँचे और कलीसियाई जीवन अस्त-व्यस्त न हो।’ यदि सत्य तुम्हारा जीवन बन चुका है, तो न केवल तुममें यह साहस और संकल्प होगा, और तुम इस मामले को पूरी तरह से समझने में सक्षम होगे, बल्कि तुम परमेश्वर के कार्य और उसके घर के हितों के लिए भी उस जिम्मेदारी को पूरा करोगे जो तुम्हें उठानी चाहिए, और उससे तुम्हारे कर्तव्य की पूर्ति हो जाएगी। यदि तुम अपने कर्तव्य को अपनी जिम्मेदारी, अपना दायित्व और परमेश्वर का आदेश समझ सको, और यह महसूस करो कि परमेश्वर और अपनी अंतरात्मा का सामना करने के लिए यह आवश्यक है, तो क्या फिर तुम सामान्य मानवता की सत्यनिष्ठा और गरिमा को नहीं जी रहे होगे? तुम्हारा कर्म और व्यवहार ‘परमेश्वर का भय मानो और बुराई से दूर रहो’ होगा, जिसके बारे में वह बोलता है। तुम इन वचनों के सार का पालन कर रहे होगे और उनकी वास्तविकता को जी रहे होगे। जब सत्य किसी व्यक्ति का जीवन बन जाता है, तब वह इस वास्तविकता को जीने में सक्षम होता है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मुझे अपराध बोध हुआ और मैं व्यथित हो गई। परमेश्वर में विश्वासियों के रूप में, जब हम लोगों को कलीसिया के जीवन में गड़बड़ी करते और बाधा डालते हुए देखते हैं, तो हमें परमेश्वर के इरादे का ध्यान रखना चाहिए और इसे रोकने के लिए खड़े होना चाहिए, ताकि हमारे भाई-बहन एक अच्छे माहौल में परमेश्वर के वचन खा-पी सकें और सत्य पर संगति कर सकें। मैंने खुद पर चिंतन किया। मैं अच्छी तरह जानती थी कि एलिस अक्सर सभाओं में विषय से भटक जाती थी और हमेशा दूसरों की पीठ पीछे उनकी आलोचना करती और उन्हें नीचा दिखाती थी और कि यह कलीसिया के जीवन में गड़बड़ी और बाधा पैदा कर रहा था। लेकिन, उसे नाराज करने से बचने के लिए, मैं डरपोक बनकर कछुए की तरह अपने खोल में सिकुड़ गई, और उसे ऐसा करने से रोकने की हिम्मत नहीं की। न ही मैंने उसके कार्यों की प्रकृति को उजागर करने या उसका गहन-विश्लेषण करने की हिम्मत की। मेरा जीवन कितना दयनीय था! मैं स्वार्थी और नीच थी, सिर्फ खुद को बचाना जानती थी। मैंने परमेश्वर के वचन खाए-पिए, लेकिन उन्हें अभ्यास में नहीं ला सकी। मैं बस देखती रही जबकि एलिस कलीसिया के जीवन में बाधा डाल रही थी। मैं किस तरह से परमेश्वर में विश्वासी थी? मैंने जिस थाली में खाया था उसी में छेद किया था। मैं परमेश्वर के सामने जीने के लायक नहीं थी! मुझे बहुत ज्यादा अपराध बोध हुआ और असहज महसूस हुआ और मैंने बाथरूम में छिपकर खुद को थप्पड़ मारे। मैंने खुद से बार-बार पूछा, “मेरे लिए सत्य का एक शब्द भी कहना इतना मुश्किल क्यों है? मैं इतनी स्वार्थी क्यों हूँ?” अपने कमरे में वापस आकर, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की। “प्रिय परमेश्वर, मैं गलत थी। मैं अब इस तरह से नहीं जीना चाहती। मैं सत्य का अभ्यास करना और न्याय की भावना वाली इंसान बनना चाहती हूँ। कृपया आप मेरा मार्गदर्शन करें ताकि मैं अपने बारे में सच्ची समझ पा सकूँ।”

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “सांसारिक आचरण के फलसफों का एक सिद्धांत कहता है, ‘अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है।’ इसका मतलब है कि इस अच्छी दोस्ती को कायम रखने के लिए अपने मित्र की समस्याओं के बारे में चुप रहना चाहिए, भले ही वे उन्हें स्पष्ट रूप से दिखाई दें। वे लोगों के चेहरे पर वार न करने या उनकी कमियों की आलोचना न करने के सिद्धांतों का पालन करते हैं। वे एक दूसरे को धोखा देते हैं, एक दूसरे से छिपते हैं और एक दूसरे के साथ साजिश में लिप्त होते हैं। यूँ तो वे स्पष्ट रूप से जानते हैं कि दूसरा व्यक्ति किस तरह का है, पर वे इसे सीधे तौर पर नहीं कहते, बल्कि अपना संबंध बनाए रखने के लिए शातिर तरीके अपनाते हैं। ऐसे संबंध व्यक्ति क्यों बनाए रखना चाहेगा? यह इस समाज में, अपने समूह के भीतर दुश्मन न बनाना चाहने के लिए होता है, जिसका अर्थ होगा खुद को अक्सर खतरनाक स्थितियों में डालना। यह जानकर कि किसी की कमियाँ बताने या उसे चोट पहुँचाने के बाद वह तुम्हारा दुश्मन बन जाएगा और तुम्हें नुकसान पहुँचाएगा और खुद को ऐसी स्थिति में न डालने की इच्छा से तुम सांसारिक आचरण के ऐसे फलसफों का इस्तेमाल करते हो, ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो।’ इसके आलोक में, अगर दो लोगों का संबंध ऐसा है तो क्या वे सच्चे दोस्त माने जा सकते हैं? (नहीं।) वे सच्चे दोस्त नहीं होते, एक-दूसरे के विश्वासपात्र तो बिल्कुल नहीं होते। तो, यह वास्तव में किस तरह का संबंध है? क्या यह एक मूलभूत सामाजिक संबंध नहीं है? (है।) ऐसे सामाजिक संबंधों में लोग खुले दिल से की गई चर्चा में शामिल नहीं हो सकते हैं, न ही गहरे संपर्क रख सकते हैं, न यह बता सकते हैं कि वे क्या चाहते हैं। वे अपने दिल की बात या जो समस्याएँ वे दूसरे लोगों में देखते हैं या ऐसे शब्द जो दूसरे लोगों के लिए लाभदायक हों, जोर से नहीं कह सकते। इसके बजाय, वे कहने के लिए अच्छी बातें चुनते हैं ताकि औरों से सद्भावनापूर्ण संबंध बनाए रखें। वे सच बोलने या सिद्धांतों को कायम रखने की हिम्मत नहीं करते, इस प्रकार वे अपने प्रति शत्रुतापूर्ण सोच विकसित करने से दूसरों को रोकते हैं। जब किसी व्यक्ति के लिए कोई भी खतरा पैदा नहीं कर रहा होता है तो क्या वह व्यक्ति अपेक्षाकृत आराम और शांति से नहीं रहता? क्या ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ को प्रचारित करने में लोगों का यही लक्ष्य नहीं है? (है।) स्पष्ट रूप से यह जीवित रहने का एक कुटिल और धूर्त तरीका है जिसमें रक्षात्मकता का तत्त्व है, जिसका लक्ष्य आत्म-संरक्षण है। इस तरह जीते हुए लोगों का कोई विश्वासपात्र नहीं होता, कोई करीबी दोस्त नहीं होता, जिससे वे जो चाहें कह सकें। लोगों के बीच बस एक दूसरे के प्रति रक्षात्मकता होती है, आपसी शोषण होता है और आपसी साजिशबाजी होती है और साथ ही हर व्यक्ति उस रिश्ते से जो चाहता है, वह लेता है। क्या ऐसा नहीं है? मूल रूप से ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ का लक्ष्य दूसरों को ठेस पहुँचाने और दुश्मन बनाने से बचना है, किसी को चोट न पहुँचाकर अपनी रक्षा करना है। यह व्यक्ति द्वारा खुद को चोट पहुँचने से बचाने के लिए अपनाई जाने वाली तकनीक और तरीका है। इसके सार के इन विभिन्न पहलुओं को देखते हुए, क्या लोगों के नैतिक आचरण से यह माँग कि ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ नेक है? क्या यह सकारात्मक माँग है? (नहीं।) तो फिर यह लोगों को क्या सिखा रहा है? कि तुम्हें किसी को नाराज नहीं करना चाहिए या किसी को चोट नहीं पहुँचानी चाहिए, वरना तुम खुद चोट खाओगे; और यह भी कि तुम्हें किसी पर भरोसा नहीं करना चाहिए। अगर तुम अपने किसी अच्छे दोस्त को चोट पहुँचाते हो तो दोस्ती धीरे-धीरे बदलने लगेगी : वे तुम्हारे अच्छे, करीबी दोस्त न रहकर अजनबी या तुम्हारे दुश्मन बन जाएँगे। लोगों को ऐसा करना सिखाने से कौन-सी समस्याएँ हल हो सकती हैं? भले ही इस तरह से कार्य करने से, तुम शत्रु नहीं बनाते और कुछ शत्रु कम भी हो जाते हैं तो क्या इससे लोग तुम्हारी प्रशंसा और अनुमोदन करेंगे और हमेशा तुम्हारे मित्र बने रहेंगे? क्या यह नैतिक आचरण के मानक को पूरी तरह से हासिल करता है? अपने सर्वोत्तम रूप में, यह सांसारिक आचरण के एक फलसफे से अधिक कुछ नहीं है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (8))। जब मैंने परमेश्वर के वचनों पर विचार किया, मैं समझ गई कि मैं सत्य का अभ्यास क्यों नहीं कर पाती थी और दूसरों की समस्याएँ बताने की हिम्मत क्यों नहीं करती थी। यह सब इसलिए था क्योंकि शैतानी फलसफों और नियमों ने मेरे दिल में गहरी जड़ें जमा ली थीं। मेरे माता-पिता ने मुझे बचपन से सिखाया था कि “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो,” “अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है,” और “दूसरों की भावनाओं और सूझ-बूझ का ध्यान रखते हुए अच्छी बातें कहो, क्योंकि निष्कपट होना दूसरों को खिझाता है।” उन्होंने मुझे दूसरों के साथ अपने संबंधों में बहुत सतर्क और सावधान रहना सिखाया और कभी भी दूसरों की समस्याओं को उनके मुँह पर उजागर न करना सिखाया, ताकि उन्हें नाराज करने और उनके द्वारा बदला लिए जाने और नुकसान पहुँचाए जाने से बचा जा सके। मैं लगातार इन्हीं विचारों और सोच के सहारे जीती रही थी। जब मैं स्कूल में थी, तो यह देखकर भी कि मेरी डेस्कमेट रौब जमाती और मनमानी करती है, मैंने कभी उसकी समस्याएँ नहीं बताईं, क्योंकि मुझे उसे नाराज करने का डर था। मैंने उसे धोखा भी दिया, ऐसी बातें कहीं जो मेरे दिल के खिलाफ थीं। परमेश्वर में विश्वास करने के बाद, मैंने और क्लोई ने एक साथ अपने कर्तव्य निभाए। मैं अच्छी तरह जानती थी कि वह अपना कर्तव्य अनमने ढंग से निभाती थी और नकारात्मकता भी फैलाती थी, दूसरों को अपना कर्तव्य निभाने में बाधित करती थी, लेकिन खुद को बचाने के लिए, मैं कभी भी उसकी समस्याओं को उजागर करने या उनका गहन-विश्लेषण करने को तैयार नहीं थी। मैंने देखा कि एलिस अक्सर सभाओं में अपनी संगति में विषय से भटक जाती थी और दूसरों की आलोचना भी करती थी। लेकिन, मैं कभी भी उसकी समस्याओं का गहन-विश्लेषण करने को तैयार नहीं थी क्योंकि मुझे डर था कि वह मुझसे बदला लेगी और मेरी आलोचना करेगी, इसलिए मैं बस खड़ी देखती रही जबकि वह कलीसिया के जीवन में बाधा डाल रही थी। शैतानी फलसफों और नियमों के अनुसार जीने से, मैं धूर्त और कपटी बन गई थी और दूसरों के साथ मेरे व्यवहार में बिल्कुल भी सच्चाई नहीं थी। सतह पर, मैं एक दयालु इंसान थी और क्लोई और एलिस के साथ मेरी अच्छी बनती थी। लेकिन, जब मैंने उनकी समस्याएँ देखीं, तो मैंने उन्हें कोई मदद नहीं दी और उन्हें कोई सच्चा प्यार नहीं दिखाया। उनके प्रति मेरी दयालुता पूरी तरह से झूठी और पाखंडी थी, जिसका उद्देश्य केवल यह था कि देह के स्तर पर संबंध बना रहे और सामंजस्य के साथ हमारी आपस में बने। मैं सचमुच पूरी तरह से धूर्त और कपटी थी! मुझे एहसास हुआ कि शैतानी फलसफों और नियमों के अनुसार जीने से मैं बहुत पहले ही अपना जमीर और विवेक खो चुकी थी; बेहद स्वार्थी और कायर बन गई थी; अनजाने में ही शैतान की साथी और ढाल बन गई थी। अगर मैं सुधरे बिना इसी तरह चलती रही, तो निश्चित रूप से परमेश्वर मुझसे घृणा करेगा और मुझे हटा देगा!

बाद में, मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “‘अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ कहावत में ‘आलोचना करना’ वाक्यांश अच्छा है या बुरा? क्या ‘आलोचना करना’ वाक्यांश का वह स्तर है, जिसे यह परमेश्वर के वचनों में लोगों के प्रकट या उजागर होने को संदर्भित करता है? (नहीं।) मेरी समझ से ‘आलोचना करना’ वाक्यांश का, जिस रूप में यह इंसानी भाषा में मौजूद है, यह अर्थ नहीं है। इसका सार उजागर करने के एक दुर्भावनापूर्ण रूप का है; इसका अर्थ है लोगों की समस्याओं और कमियों को उजागर करना या कुछ ऐसी चीजों और व्यवहारों को उजागर करना जो दूसरों के लिए अज्ञात हैं या पृष्ठभूमि में चल रहे कुछ षड्यंत्रों, विचारों या नजरियों को उजागर करना। ‘अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ कहावत में ‘आलोचना करना’ वाक्यांश का यही अर्थ है। अगर दो लोगों में अच्छी बनती है और वे विश्वासपात्र हैं, उनके बीच कोई बाधा नहीं है और उनमें से प्रत्येक को दूसरे के लिए फायदेमंद और मददगार होने की आशा है तो उनके लिए सबसे अच्छा यही होगा कि वे एक-साथ बैठें, खुलेपन और ईमानदारी से एक-दूसरे की समस्याएँ सामने रखें। यह उचित है और यह दूसरे की कमियों की आलोचना करना नहीं है। अगर तुम्हें किसी व्यक्ति में समस्याएँ दिखती हैं लेकिन दिख रहा है कि वह व्यक्ति अभी तुम्हारी सलाह मानने को तैयार नहीं है तो झगड़े या संघर्ष से बचने के लिए उससे कुछ न कहो। अगर तुम उसकी मदद करना चाहते हो तो तुम उसकी राय माँग सकते हो और पहले उससे पूछ सकते हो, ‘मुझे लगता है कि तुम में कुछ समस्या है और मैं तुम्हें थोड़ी सलाह देना चाहता हूँ। पता नहीं, तुम इसे स्वीकार पाओगे या नहीं। अगर स्वीकार पाओ तो मैं तुम्हें बताऊँगा। अगर न स्वीकार पाओ तो मैं फिलहाल इसे अपने तक ही रखूँगा और कुछ नहीं बोलूँगा।’ अगर वह कहता है, ‘मुझे तुम पर भरोसा है। तुम्हें जो भी कहना हो, वह अस्वीकार्य नहीं होगा; मैं उसे स्वीकार सकता हूँ’ तो इसका मतलब है कि तुम्हें अनुमति मिल गई है और तुम एक-एक कर उसे उसकी समस्याएँ बता सकते हो। वह न केवल तुम्हारा कहा पूरी तरह से मानेगा, बल्कि इससे उसे फायदा भी होगा और तुम दोनों अभी भी एक सामान्य संबंध बनाए रख पाओगे। क्या यह एक-दूसरे के साथ ईमानदारी से व्यवहार करना नहीं है? (बिल्कुल है।) यह दूसरों के साथ बातचीत करने का सही तरीका है; यह दूसरे की कमियों की आलोचना करना नहीं है। इस कहावत के अनुसार ‘दूसरों की कमियों की आलोचना न करने’ का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है दूसरों की कमियों के बारे में बात न करना, उनकी सबसे निषिद्ध समस्याओं के बारे में बात न करना, उनकी समस्या का सार उजागर न करना और आलोचना करने में ज्यादा मुखर न होना। इसका अर्थ है सिर्फ सतही टिप्पणी करना, वही बातें कहना जो सभी लोगों द्वारा सामान्य रूप से कही जाती हैं, वही बातें कहना जो वह व्यक्ति पहले से ही खुद भी समझता है और उन गलतियों को उजागर न करना जिन्हें व्यक्ति पहले कर चुका है या जो संवेदनशील मुद्दे हैं। अगर तुम इस तरह से कार्य करते हो तो इससे व्यक्ति को क्या लाभ होता है? शायद तुमने उसका अपमान नहीं किया होगा या उसे अपना दुश्मन नहीं बनाया होगा लेकिन तुमने जो किया है, उससे उसे कोई मदद या लाभ नहीं हुआ है। इसलिए, यह वाक्यांश कि ‘दूसरों की कमियों की आलोचना मत करो’ अपने आपमें टाल-मटोल और कपट का एक रूप है, जो लोगों के एक-दूसरे के साथ व्यवहार में ईमानदारी नहीं रहने देता। यह कहा जा सकता है कि इस तरह से कार्य करना बुरे इरादों को आश्रय देना है; यह दूसरों के साथ बातचीत करने का सही तरीका नहीं है। गैर-विश्वासी तो ‘अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ को ऐसे देखते हैं, जैसे उच्च आदर्शों वाले व्यक्ति को यही करना चाहिए। यह स्पष्ट रूप से दूसरों के साथ बातचीत करने का एक कपटपूर्ण तरीका है जिसे लोग अपनी रक्षा के लिए अपनाते हैं; यह बातचीत का बिल्कुल भी उचित तरीका नहीं है। दूसरों की कमियों की आलोचना न करना अपने आप में कपट है और दूसरों की कमियों की आलोचना करने में कोई गुप्त इरादा हो सकता है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (8))। “परमेश्वर के चुने हुए लोगों में जमीर और विवेक तो कम से कम होना ही चाहिए और उन्हें दूसरों के साथ परमेश्वर द्वारा लोगों से अपेक्षित सिद्धांतों और मानकों के अनुसार बातचीत करना, जुड़ना और मिलकर काम करना चाहिए। यह सबसे अच्छा नजरिया है। यह परमेश्वर को संतुष्ट करने में सक्षम है। तो परमेश्वर द्वारा अपेक्षित सत्य सिद्धांत क्या हैं? यह कि जब दूसरे कमजोर और नकारात्मक हों तो लोग उन्हें समझें, उनके दर्द और कठिनाइयों के प्रति विचारशील हों, और इन चीजों के बारे में पूछताछ करें, सहायता और सहारे की पेशकश करें, उनकी समस्याएँ हल करने में उनकी मदद करने के लिए उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाएँ, उन्हें परमेश्वर के इरादे समझने और कमजोर न बने रहने में समर्थ बनाएँ और उन्हें परमेश्वर के सामने लाएँ। क्या अभ्यास का यह तरीका सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है? इस प्रकार अभ्यास करना सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है। स्वाभाविक रूप से, इस प्रकार के संबंध और भी सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होते हैं। जब लोग जानबूझकर बाधा डालते हैं और गड़बड़ी पैदा करते हैं, या जानबूझकर अपना कर्तव्य अनमने ढंग से निभाते हैं, अगर तुम यह देखते हो और सिद्धांतों के अनुसार उन्हें इन चीजों के बारे में बताने, फटकारने, और उनकी मदद करने में सक्षम हो, तो यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है। अगर तुम आँखें मूँद लेते हो, या उनके व्यवहार की अनदेखी करते हो और उनके दोष ढकते हो, यहाँ तक कि उनसे अच्छी-अच्छी बातें कहते, उनकी प्रशंसा और वाहवाही करते हो, लोगों के साथ बातचीत करने, मुद्दों से निपटने और समस्याएँ सँभालने के ऐसे तरीके स्पष्ट रूप से सत्य सिद्धांतों के विपरीत हैं, और उनका परमेश्वर के वचनों में कोई आधार नहीं है। तो, लोगों के साथ बातचीत करने और मुद्दों से निपटने के ये तरीके स्पष्ट रूप से अनुचित हैं, और अगर परमेश्वर के वचनों के अनुसार उनका गहन विश्लेषण और पहचान न की जाए, तो वास्तव में इसका पता लगाना आसान नहीं है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (14))। परमेश्वर के वचनों ने मेरे दिल की गाँठ खोल दी। मैं सोचती थी कि दूसरे लोगों की समस्याओं और कमियों को बताना उनका ऐब निकालना है और इससे उन्हें ठेस पहुँचेगी। अब मैं समझ गई कि अगर हम किसी को अनमने ढंग से अपना कर्तव्य निभाते हुए या कलीसियाई जीवन में गड़बड़ी करते और बाधा डालते हुए पाते हैं, तो हमें सिद्धांतों के अनुसार काम करना चाहिए और समय पर उनकी समस्याएँ बतानी चाहिए; जहाँ जरूरी हो, हम उनकी काट-छाँट कर सकते हैं। भले ही हम कठोरता से बोलें, जब तक हमारी कही बात तथ्यों के अनुसार है और हमारी मंशा उनकी मदद करना और कलीसिया के काम की रक्षा करना है, तो यह सब सकारात्मक है और जो लोग सत्य को स्वीकार करते हैं, वे इसके साथ सही ढंग से पेश आ सकते हैं। अगर काट-छाँट के बाद, वे स्वीकार या पश्चात्ताप नहीं करते हैं, तो हम वरिष्ठ अगुआओं को उनकी रिपोर्ट भी कर सकते हैं। यह उनका ऐब निकालना या उनकी पीठ में छुरा घोंपना नहीं है। यह कलीसिया के काम की रक्षा करना है। किसी का ऐब निकालना एक छिपे हुए मकसद से किया जाता है, उसके प्रति पूर्वाग्रह और शत्रुता के साथ। यह उनकी छोटी-छोटी समस्याओं पर अटकना और तिल का ताड़ बनाना है; यह उनका उपहास करना, उन्हें नीचा दिखाना और उनका मजाक उड़ाना है; यह जानबूझकर उन्हें ठेस पहुँचाना है। यह उन्हें कोई शिक्षा या लाभ नहीं दे सकता और केवल उन्हें नकारात्मक और दुखी कर सकता है। लोगों का ऐब निकालना यही है। मेरे अंदर एक गलत नजरिया भी था, मैं मानती थी कि अगुआओं को दूसरे लोगों की समस्याओं की रिपोर्ट करना दुर्भावनापूर्ण आरोप लगाना या उनकी पीठ में छुरा घोंपना है। वास्तव में, समस्याओं का पता चलने पर तुरंत उनकी रिपोर्ट करना कलीसिया के काम की रक्षा करना है। यह एक जिम्मेदारी है जिसे लोगों को पूरा करना चाहिए। किसी की पीठ में छुरा घोंपना या दुर्भावनापूर्ण आरोप लगाना तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करना और उस व्यक्ति को बदनाम करने के लिए उसकी पीठ पीछे निराधार अफवाहें फैलाना है। इसका उद्देश्य अपने नीच लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए दूसरों को सताना है। इस बार, मैंने पाया कि सभाओं में एलिस की संगति विषय से भटक जाती थी और वह अक्सर दूसरों की आलोचना करती थी। दूसरी बहनों ने भी कहा कि एलिस निरंतर ऐसा ही व्यवहार करती थी और इस बारे में कई संगतियों के बाद भी, वह सुधरी नहीं थी। मुझे उसकी समस्याएँ बतानी चाहिए थीं और जितनी जल्दी हो सके अगुआओं को उनकी रिपोर्ट करनी चाहिए थी ताकि वे उसकी स्थिति को तुरंत समझ सकें और उसके व्यवहार के आधार पर उचित व्यवस्था कर सकें। यही एकमात्र तरीका था यह सुनिश्चित करने का कि कलीसियाई जीवन में बाधा न पड़े।

एक सभा के बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में एलिस की समस्याएँ बताईं, यह उजागर किया कि जिस तरह से वह सभाओं में दूसरों की आलोचना करती थी, वह कलीसिया के जीवन में बाधा डाल रहा था। एलिस ने पहले तो इसे स्वीकार नहीं किया, लेकिन जब दूसरी बहनें उसकी समस्याओं पर संगति करने और उनका गहन-विश्लेषण करने में शामिल हुईं, तो उसने बेमन से इसे स्वीकार कर लिया। वह रोई भी और कहा कि यह वाकई उसकी समस्या थी। इसके कुछ ही समय बाद, मुझे पता चला कि वह फिर से अपनी एक बहन के सामने दूसरों की आलोचना कर रही थी, इसलिए मैंने कलीसिया के अगुआओं को उसकी स्थिति की रिपोर्ट कर दी। अगुआओं ने उसकी समस्याओं को उजागर किया और उनका गहन-विश्लेषण किया और तब से, मैंने उसे फिर कभी आलोचनात्मक तरीके से व्यवहार करते नहीं देखा। कुछ सत्य का अभ्यास करने में मेरा मार्गदर्शन करने के लिए मैं परमेश्वर का धन्यवाद करती हूँ। मेरे दिल को बहुत सुकून महसूस हो रहा है। परमेश्वर के वचनों ने ही मुझे इन बदलावों तक पहुँचाया है।

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