एक झूठी अगुआ को तुरंत बर्खास्त न करने के बारे में सोच-विचार
अगस्त 2021 में, मुझे सिंचन डीकन बनाया गया था। उस समय, मैं नए सदस्यों का सिंचन और सुसमाचार प्रचार, दोनों काम कर रही थी। मुझे सुसमाचार का अनुभव नहीं था इसलिए इस काम में अच्छे नतीजे नहीं मिल रहे थे। एक दिन, अगुआ ने सुसमाचार कार्य की जाँच-पड़ताल के लिए बहन जेनिन को मेरी सहयोगी बनाया। बहन जेनिन ने सुसमाचार कार्य में सबकी समस्याएँ तुरंत समझ लीं, उसने संगति और समीक्षा के लिए भाई-बहनों को इकट्ठा किया और फिर उन्हें कुछ सफल अनुभव और दृष्टिकोण बताए। धीरे-धीरे, सुसमाचार कार्य को लेकर उनका उत्साह बढ़ गया और वे काम के कुछ सिद्धांतों में माहिर हो गए। जल्द ही, हमारे गांव के 20 से ज्यादा लोगों ने अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य को स्वीकार कर लिया और दूसरी जगहों पर भी ज्यादा से ज्यादा लोग उसे अपनाने लगे थे। जल्द ही, हमने एक नई कलीसिया खड़ी कर दी। मैंने सोचा, जेनिन इतने लंबे समय से विश्वास कर रही है और अपने काम में खूब काबिल और सक्षम थी। जब से वह आई है, सुसमाचार का काम काफी आगे बढ़ चुका था। मैं सच में उसे सराहने लगी। लगता था कि वह काबिल थी और सत्य खोजती थी। वह भी मुझे अच्छा मानती थी। वह दूसरों के सामने कहती थी कि मैं जिम्मेदारी लेकर बोझ उठाती हूँ और किस तरह खूब काबिल और सक्षम हूँ। ये बातें सुनकर मैं सचमुच चकित थी। पता चला कि वह मेरी बहुत इज्जत करती थी और उसके दिल में मेरे लिए एक खास जगह थी। मैं बहुत खुश थी। बाद में मुझे अगुआ बना दिया गया और तब भी मैं जेनिन के साथ काम में सहयोग करती थी।
जून 2022 में, मैं उपदेशक बन गई, जेनिन को अगुआ बनाया गया और उसके काम की जिम्मेदारी मुझे मिल गई। लेकिन जेनिन के सुसमाचार कार्य में कोई सुधार नहीं हुआ और मैं नहीं जान पाई कि ऐसा क्यों है। वह नए सदस्यों के पोषण पर ध्यान नहीं दे रही थी, सुसमाचार कार्यकर्ताओं की सभा नहीं बुला रही थी, दूसरों की दशाएँ और दिक्कतें दुरुस्त करने के लिए उसने संगति या सहायता भी नहीं की। ये समस्याएँ देखकर मुझे बहुत चिंता हुई और उसके काम के बारे में जानने के लिए उसे संदेश भेजा, लेकिन इसे देखकर भी उसने जवाब नहीं दिया। मैंने सोचा : “एक अगुआ होकर भी कोई कलीसिया के काम के प्रति इतना गैर-जिम्मेदार कैसे हो सकता है?” मेरा पारा चढ़ गया। मैं उससे निपटना और उसकी समस्याएँ उजागर करना चाहती थी, लेकिन यह सोच कर रुक गई कि हमने पहले कितने अच्छे से सहयोग किया था। वह मुझे अच्छा मानती है, मुझे अच्छी अगुआ कहती है, इन बातों का क्या होगा? अगर मैं उसके साथ निपटूँगी तो क्या मेरी छवि खराब हो जाएगी? मुझे लगा कि अपना रिश्ता बचाने के लिए चुप रहना ही बेहतर है। यह सोचकर मैंने कुछ नहीं कहा। मैंने अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ पढ़ने के लिए उसके पास भेजीं और उसे उसके काम और जिम्मेदारियों के दायरे की जानकारी दी ताकि उसे अपने बोझ का एहसास हो सके। मुझे लगा कि मैंने चीजें स्पष्ट कर दी हैं और अब वह जान जाएगी कि आगे क्या करना है ताकि उसके सुसमाचार का काम धीरे-धीरे गति पकड़ने लगे। लेकिन कुछ समय बाद भी उसके काम में नतीजे निकलने शुरू नहीं हुए। इससे मैं बहुत परेशान हो गई। वह ऐसी तो नहीं थी, तो अब उसे क्या हो गया? मैं उसकी काट-छाँट और निपटान करना चाहती थी, ताकि उसे अपने गैर-जिम्मेदार होने और असली काम न करने का एहसास हो और वह अपना रवैया बदल सके। लेकिन फिर मैंने सोचा : “वह मुझे एक अच्छा अगुआ मानती आई है और अक्सर कहती है कि कलीसिया कार्य का मुझ पर कितना बोझ है और मैं कितनी धैर्यवान और दयालु हूँ। अगर उसकी समस्या उजागर करती हूँ तो मेरी यह छवि बिगड़ जाएगी।” यह सोच कर मैंने बस उसे ढाढस बंधाया, सभाओं के लिए अधिक समय निकालने और कलीसिया के काम की जाँच-पड़ताल के लिए प्रेरित किया। यह सुनकर जेनिन ने माना कि उसे अपना रवैया सुधारना होगा और कहा कि वह आगे अच्छे से कर्तव्य निभाना चाहती है। खुशी से झूमकर मैंने सोचा : “जेनिन इस बार अपना कर्तव्य पक्का ठीक से निभाएगी। वह सुसमाचार कार्यकर्ताओं का नेतृत्व करेगी तो उनके नतीजे निकलने तय हैं।” कुछ समय बाद मेरी सहयोगी बहन ने बताया : “एक अगुआ के रूप में जेनिन न तो काम की जाँच-पड़ताल करती है, न ही लोगों का पोषण करती है। वह केवल नाम की अगुआ है और कभी भी असली काम नहीं करती है। वह एक झूठी अगुआ है। मेरा सुझाव है कि उसे बर्खास्त करके किसी दूसरे को अगुआ चुना जाए। इसी तरह कलीसिया का काम आगे बढ़ सकेगा।” एक और बहन ने मुझे बताया कि जेनिन के असली काम न करने के कारण कलीसिया का काम पहले ही लटक चुका है और उसे जल्द बर्खास्त कर देना चाहिए। लेकिन मुझे लगता रहा कि जेनिन सक्षम और खूब काबिल है, कि वह अपने परिवार के उत्पीड़न के कारण सिर्फ बुरे दौर से गुजर रही है, अगर उसने अपनी दशा सुधार ली तो सुसमाचार कार्य भी सुधर जाएगा। इसलिए मैंने उसकी बर्खास्तगी टाल दी। लेकिन, उसके बाद भी जेनिन के काम में गिरावट आती रही और लोग कहते रहे कि वह बिल्कुल पहले जैसी ही है, बातें अच्छी बनाती है लेकिन काम कुछ नहीं करती। भाई-बहनों से मिले फीडबैक से दुखी होकर मुझे लगा कि मैं उसे स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाई हूँ। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और विवेकवान बनने का मार्गदर्शन माँगा।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “कोई यह कैसे तय कर सकता है कि क्या अगुआ अपनी जिम्मेदारियाँ निभा रहे हैं, या कहीं वे नकली अगुआ तो नहीं? सबसे बुनियादी स्तर पर, यह देखना चाहिए कि वे वास्तविक कार्य करने में सक्षम हैं या नहीं, कि उनमें यह गुणवत्ता है या नहीं। फिर, यह देखना चाहिए कि क्या वे असल में वास्तविक कार्य करते हैं। वे क्या कहते हैं और सत्य की उनकी समझ किस तरह की है, इन्हें अनदेखा कर दो; इस पर ध्यान मत दो कि वे जो सतही काम करते हैं, उसे लेकर उनमें काबिलियत, प्रतिभा या खूबी है या नहीं, या वे इस काम को अच्छे से करते हैं या नहीं—ये चीजें महत्वपूर्ण नहीं हैं। महत्वपूर्ण यह है कि वे कलीसिया का सबसे बुनियादी कार्य ठीक से कर पाते हैं या नहीं, वे सत्य का उपयोग कर समस्याओं को हल कर सकते हैं या नहीं और लोगों को सत्य की वास्तविकता में ले जा सकते हैं या नहीं। यह सबसे मूलभूत और आवश्यक कार्य है। यदि वे इस तरह का वास्तविक कार्य करने के काबिल नहीं हैं, तो फिर चाहे उनमें कितनी भी काबिलियत हो, वे कितने भी प्रतिभावान हों, या कितनी भी कठिनाइयाँ सह सकते हों और कीमत चुका सकते हों, वे नकली अगुआ ही रहेंगे। कुछ लोग कहते हैं, ‘भूल जाओ कि वे अभी कोई वास्तविक काम नहीं करते हैं। उनकी क्षमता अच्छी है और वे काबिल हैं। उन्हें थोड़े समय तक प्रशिक्षण दोगे तो वे अवश्य ही वास्तविक कार्य करने के काबिल बन जाएँगे। इसके अलावा, उन्होंने कुछ भी बुरा या दुष्टतापूर्ण काम नहीं किया है, कोई बाधा नहीं डाली, या कोई व्यवधान पैदा नहीं किया है—तो तुम कैसे कह सकते हो कि वे नकली अगुआ हैं?’ हम इसे कैसे समझा सकते हैं? तुम चाहे कितने भी प्रतिभाशाली हो, तुम्हारी क्षमता कितनी भी हो, या तुम कितने सुशिक्षित हो, महत्वपूर्ण यह है कि तुम वास्तविक कार्य करते हो या नहीं, और तुम एक अगुआ और कार्यकर्ता की जिम्मेदारियाँ पूरी करते हो या नहीं। अगुआ के तौर पर अपने कार्यकाल के दौरान क्या तुमने अपनी जिम्मेदारी के दायरे में आने वाली प्रत्येक विशिष्ट परियोजना में भाग लिया? कार्य में उत्पन्न हुई कितनी समस्याएँ तुमने प्रभावी ढंग से हल कीं? तुम्हारे कार्य, तुम्हारी अगुआई, और तुम्हारे मार्गदर्शन के कारण कितने लोगों ने सत्य के सिद्धांतों को समझा? कलीसिया का कितना कार्य विकसित किया गया और आगे बढ़ाया गया? ये परिणाम ही मायने रखते हैं। यह मायने नहीं रखता कि तुम कितने नारे लगा सकते हो, कितने शब्दों और सिद्धांत के वाक्यांशों में तुमने महारत हासिल की है, प्रतिदिन कितने घंटे काम करते हो, और तुम कितने थके हुए हो। यह मायने नहीं रखता कि तुमने कितनी यात्रा की है, तुम कितनी कलीसियाओं में गए हो, तुमने कितने जोखिम उठाए हैं, तुमने कितने कष्ट उठाए हैं—इनमें से कुछ भी मायने नहीं रखता। मायने यह रखता है कि तुम्हारी जिम्मेदारियों के दायरे में आने वाला कार्य कितना प्रभावी रहा है, इससे कोई परिणाम निकला है या नहीं, परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं और लक्ष्यों में से कितनों को तुमने लागू किया, कितनों को पूरा किया, वे कितनी अच्छी तरह लागू किए गए, और बाद में तुमने कितने अच्छे से उनका जायजा लिया। मायने यह रखता है कि काम में लापरवाही, विचलन या फिर सिद्धांतों के उल्लंघन से जुड़ी कितनी समस्याओं को तुमने हल किया, कितनों को सुधारा, या कमियों को दूर किया और कर्मियों, प्रशासन या विविध विशिष्ट कार्यों से संबंधित कितनी समस्याओं को दूर करने में तुमने मदद की, और क्या तुमने उन्हें सिद्धांतों और परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं के अनुसार हल किया। ये सभी वे कुछ ही मानक हैं, जिनके द्वारा यह आँका जा सकता है कि कोई अगुआ या कार्यकर्ता अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर रहा है या नहीं” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। आप किसी के अच्छा बोलने से यह तय नहीं कर सकते कि कोई अगुआ सक्षम है या नहीं, झूठा है या नहीं, न उनकी काबिलियत, क्षमता या अच्छे कामों की गिनती देखकर ही यह तय कर सकते हैं। देखने वाली मुख्य बातें ये हैं कि क्या वे असली काम करते हैं या नहीं, जिम्मेदार हैं या नहीं, अगुआ का कर्तव्य निभा सकते हैं या नहीं। जेनिन थोड़ी काबिल और सक्षम कार्यकर्ता थी, लेकिन वह सिर्फ अच्छी लगने वाली बातें करती थी और असली या उचित काम बिल्कुल नहीं करती थी। ऐसे काम नहीं कर रही थी जो एक अगुआ को करने चाहिए। ऐसा नहीं था कि वह कुछ बुरा या दुष्ट काम कर रही थी, लेकिन एक अगुआ के रूप में वह सिर्फ संदेश भेजती थी और नारे गाकर सुनाती थी। उसने कलीसिया के कार्यों पर न कभी ध्यान दिया, न इनकी जाँच-पड़ताल की। वह उन नए सदस्यों का पोषण नहीं करती थी जो अभी-अभी अपना काम शुरू कर रहे होते थे। जब दूसरों को सुसमाचार के काम में समस्याएँ आतीं तो वह न तो संगति करती थी, न ही चीजों को हल करती थी और अक्सर अपने कर्तव्य की उपेक्षा करती थी। मैंने उस दौरान उसे कई बार सचेत किया कि वह अपने कर्तव्य के प्रति रवैया बदल ले, लेकिन खुद को बदलने की हामी भरने के बावजूद वह पहले जैसे ही बनी रही और कहीं नहीं दिखती थी। इससे सुसमाचार का काम रुक गया और विभिन्न परियोजनाओं के नतीजे अच्छे नहीं निकल रहे थे। उसने आत्म-चिंतन नहीं किया और बहाने बनाकर भाई-बहनों को टाल दिया, मसलन, काम के बाद उसे सभाओं के लिए समय नहीं मिलता या परिवार का दबाव होने से कर्तव्य निभाना मुश्किल हो रहा था। काम के प्रति उसके रवैये और विभिन्न प्रकार के व्यवहार से स्पष्ट था कि वह परमेश्वर द्वारा प्रकट असली कार्य न करने वाली एक झूठी अगुआ है और उसे जल्द बर्खास्त कर देना चाहिए। लेकिन मैंने परमेश्वर के वचनों के आधार पर चीजों को नहीं देखा या लोगों को नहीं पहचाना। बस जेनिन की मेधा, क्षमता और योग्यता देखी। मुझे लगा कि वह काम कर सकती है, लेकिन यह नहीं देखा कि वह वाकई क्या कर रही है या उसे किस तरह के परिणाम मिल रहे हैं। मैंने अब भी उससे उम्मीद लगाई हुई थी। सोचा कि वह पहले की तरह कलीसिया का काम करेगी, इसलिए मैं उसे और मौके देती गई। मैं कितनी अज्ञानी और मूर्ख थी! मेरी साथी बहन ने फीडबैक देकर जेनिन को बर्खास्त करने का सुझाव दिया था, लेकिन मैं अपनी सोच पर कायम रही, उसे आगे भी मौका और सहारा देना चाहती थी, इसलिए मैंने उसे तुरंत बर्खास्त नहीं किया, जिससे कलीसिया के काम पर गंभीर असर पड़ा। मैंने अच्छी निगरानी नहीं की जिससे कलीसिया के काम पर असर पड़ा। क्या मैं भी झूठी अगुआ जैसा बर्ताव नहीं कर रही थी? मैंने प्रार्थना की और अपनी भ्रष्टता जानने में परमेश्वर से मार्गदर्शन माँगा।
एक दिन मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े। “कलीसिया के कुछ अगुआ अपने भाई-बहनों को अपने कर्तव्य लापरवाही और मशीनी ढंग से निभाते देख फटकार नहीं लगाते, हालाँकि उन्हें ऐसा करना चाहिए। जब वे कुछ ऐसा देखते हैं जो परमेश्वर के घर के हितों के लिए स्पष्ट रूप से हानिकारक है, तो वे आँख मूँद लेते हैं, और कोई पूछताछ नहीं करते, ताकि दूसरों के थोड़े भी अपमान का कारण न बनें। पर असल में वे दूसरों की कमजोरियों का लिहाज नहीं करते हैं, बल्कि उनका इरादा दूसरों को अपने पक्ष में करना होता है और वे यह बात अच्छी तरह से जानते हैं : ‘अगर मैं इसे बनाए रखूँ और किसी के भी अपमान का कारण न बनूँ, तो वे सोचेंगे कि मैं अच्छा अगुआ हूँ। मेरे बारे में उनकी अच्छी, ऊँची राय होगी। वे मुझे मान्यता देंगे और मुझे पसंद करेंगे।’ परमेश्वर के घर के हितों को चाहे जितनी अधिक क्षति पहुँची हो, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उनके जीवन प्रवेश में चाहे जितना अधिक बाधित किया जाए, या कलीसिया का उनका जीवन चाहे जितना अधिक अशांत हो, ऐसे अगुआ अपने शैतानी फलसफ़े पर अड़े रहते हैं और किसी को नुकसान नहीं पहुँचाते। उनके दिलों में कभी भी आत्म-धिक्कार का भाव नहीं होता; अगर वे किसी को बाधा या व्यवधान पैदा करते देखें तो ज्यादा-से-ज्यादा वे बातों-बातों में इस मुद्दे का हल्का-सा उल्लेख कर सकते हैं, और फिर बस हो गया। वे सत्य पर संगति नहीं करते, न ही वे उस व्यक्ति को समस्या का सार बताते हैं, उनकी दशाओं का विश्लेषण करना तो दूर की बात है। वे कभी नहीं बतलाते कि परमेश्वर की इच्छा क्या है। झूठे अगुआ कभी भी उजागर या विश्लेषित नहीं करते कि लोग अकसर कैसी ग़लतियाँ करते हैं, या लोग अक्सर किस तरह के भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं। वे कोई असली समस्या हल नहीं करते, बल्कि लोगों के बुरे आचरण और भ्रष्टता के प्रदर्शन को बर्दाश्त करते रहते हैं। लोग चाहे कितने भी नकारात्मक या कमजोर हों, वे कोई परवाह नहीं करते, सिर्फ सिद्धांत के थोड़े-से शब्द झाड़ देते हैं, अनमने ढंग से कुछ उपदेश दे देते हैं, और टकराव से बचने की कोशिश करते रहते हैं। परिणामस्वरूप, परमेश्वर के चुने हुए लोग आत्मचिंतन करके खुद को जानने की कोशिश नहीं कर पाते, अपने व्यवहार में झलकती तरह-तरह की भ्रष्टता का कोई समाधान नहीं कर पाते, और किसी तरह के जीवन प्रवेश के बिना सिर्फ शब्दों, जुमलों, धारणाओं और कल्पनाओं में जीते रहते हैं। वे दिल-ही-दिल में यह भी विश्वास करते हैं कि, ‘हमारे अगुआ को हमारी कमजोरियों की परमेश्वर से भी ज़्यादा समझ है। हमारा आध्यात्मिक कद परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरा उतरने की दृष्टि से काफ़ी छोटा हो सकता है, लेकिन हमें केवल अपने अगुआ की अपेक्षाएँ पूरी करने की आवश्यकता है; अपने अगुआ का आज्ञापालन करके हम परमेश्वर का आज्ञापालन करते हैं। अगर कोई दिन ऐसा आए जब उच्च हमारे अगुआ को बदल दे, तो हम जोर-जोर से बोलेंगे; अपने अगुआ को रखने और उसे उच्च द्वारा बदले जाने से रोकने के लिए उच्च से बातचीत करेंगे और उसे अपनी माँगों पर सहमत होने के लिए मजबूर करेंगे। इस तरह हम अपने अगुआ के साथ उचित व्यवहार करेंगे।’ जब लोगों के मन में ऐसे विचार होते हैं, जब उनका अगुआ के साथ इस तरह का संबंध होता है, और अपने दिलों में वे अपने अगुआ के प्रति निर्भरता, प्रशंसा, और सम्मान की भावना महसूस करते हैं, तो वे इस अगुआ में और भी ज्यादा आस्था रखने लगेंगे, वे अगुआ की बातें सुनना चाहते हैं, वे परमेश्वर के वचनों में सत्य खोजना बंद कर देते हैं। इस तरह का अगुआ लोगों के दिलों में लगभग परमेश्वर की जगह ले चुका होता है। अगर अगुआ परमेश्वर के चुने हुए लोगों के साथ ऐसे रिश्ते को बनाए रखने का इच्छुक होता है, अगर अगुआ के दिल में इससे आनंद की भावना उत्पन्न होती है, और वह मानता है कि परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उसके साथ ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए, तो उसके और पौलुस के बीच कोई फर्क नहीं रहता, और वह पहले ही मसीह-विरोधियों के मार्ग पर कदम रख चुका होता है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद एक : वे लोगों का दिल जीतना चाहते हैं)। परमेश्वर के वचनों ने मेरे घिनौने इरादे उजागर कर दिए। यह देख कर भी कि जेनिन असली काम नहीं कर रही थी, मैंने उसकी समस्या न तो उजागर की, न उनकी चीरफाड़ करके उसे तुरंत बर्खास्त किया। मैंने उसे अपने मन की करने दी और पश्चाताप के मौके दिए। लेकिन इसका मकसद यह नहीं था कि मुझे उसकी कमजोरी की फिक्र थी या मैं उसकी मदद करना चाहती थी, मेरा असली इरादा तो यह था कि जेनिन की नजरों में अच्छी अगुआ बनी रहूँ और दूसरों का सम्मान भी पाती रहूँ। हम पहले अपने कार्यों में सहयोगी रह चुके थे और वह मेरे बारे में हमेशा अच्छा सोचती थी। वह अक्सर दूसरों के सामने कहा करती थी कि मैं कलीसिया के काम में कितनी जिम्मेदार हूँ और एक अच्छी अगुआ हूँ। अगर मैं उसकी समस्या उजागर कर उसे बताती हूँ और उससे निपटती हूँ, तो हमारे रिश्ते बिगड़ सकते हैं। उसकी नजरों में मैं बुरी बन जाऊँगी। जेनिन की नजरों में अच्छी अगुआ बनी रहने के लिए, मैंने उसकी समस्याएँ उजागर नहीं कीं, उसके साथ निपटान नहीं किया, न उसके कार्यों और आचरण की चीर-फाड़ की, जिससे वह अपनी समस्याएँ जान कर तुरंत अपने तौर-तरीके सुधार सकती थी। मैंने उसे बस कुछ सांत्वना और सलाह भरी बातें सुनाई, अधिक सभाओं में भाग लेने और काम की जाँच-पड़ताल के लिए प्रोत्साहित करके चीजों से चलते-चलते पल्ला झाड़ लिया। मेरी सहयोगी बहन ने कई बार सिद्धांतों के अनुरूप जेनिन को बर्खास्त करने के लिए कहा, लेकिन मुझे चिंता हुई कि इससे वह नाराज हो जाएगी, और मैं उसकी नजरों में बुरी बन जाऊँगी, इसलिए उसे बर्खास्त करने में देरी की। परमेश्वर प्रकट करता है कि मसीह-विरोधी अपने नाम और हैसियत की खातिर काम करते और बोलते हैं, जब वे दूसरों को सिद्धांतों का उल्लंघन करते हुए देखते हैं तो न तो उनकी आलोचना करते हैं, न ही उनसे निपटते हैं। उनका लक्ष्य लोगों के दिल में जगह बनाना, सम्मान हासिल करना और उन्हें अपने सामने लाना-झुकाना होता है। दूसरों के मन में अपनी छवि बनाए रखने के लिए मैंने कलीसिया के काम की परवाह भी नहीं की और जब एक झूठे अगुआ को असली काम नहीं करते पाया तो न उसे उजागर किया, न निपटान किया, न ही बर्खास्त किया। मैंने लोगों के दिल में जगह बनाने के लिए ऐसा किया ताकि सबको लगे कि मैं दयालु, धैर्यवान और अच्छी अगुआ हूँ। अपना काम इस तरह करके मैं न तो भाई-बहनों की मदद कर रही थी, न उन्हें नैतिक बना रही थी, न ही इससे वे सत्य को समझ पाते, न ही परमेश्वर की शरण में आ पाते। बल्कि, इससे वे मेरे सामने झुककर मेरी पूजा-प्रशंसा करते। इस तरह लोगों को गुमराह कर और उनके दिल जीत कर मैं मसीह-विरोधी रास्ते पर चल रही थी। मैंने कलीसिया से निकाले गए उन मसीह-विरोधियों के बारे में सोचा, जिन्हें एक-एक करके उजागर कर बहिष्कृत किया गया था। अगर मैं पश्चात्ताप किए या खुद को बदले बिना इसी तरह आगे बढ़ती रही, तो मुझे भी उनकी तरह निकाल बाहर या बहिष्कृत कर दिया जाएगा। यह सोचते ही मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और अपनी नाकामियों के मूल कारणों पर आत्म-चिंतन करने के लिए मार्गदर्शन माँगा।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचन का एक अंश पढ़ा। “जब कुछ घटित होता है, तो तुम एक जीवन-दर्शन के अनुसार जीते हो और सत्य का अभ्यास नहीं करते। तुम हमेशा दूसरों को ठेस पहुँचाने से डरते हो, लेकिन परमेश्वर को ठेस पहुँचाने से नहीं डरते, यहाँ तक कि अपने पारस्परिक संबंधों की रक्षा के लिए परमेश्वर के घर के हित भी त्याग दोगे। इस तरह कार्य करने के क्या परिणाम होते हैं? तुम अपने पारस्परिक संबंध तो अच्छी तरह से सुरक्षित कर लोगे, लेकिन परमेश्वर को नाराज कर दोगे, और वह तुमसे घृणा कर तुम्हें अस्वीकृत कर देगा, और तुमसे गुस्सा हो जाएगा। कुल मिलाकर इनमें से कौन-सी चीज बेहतर है? अगर तुम नहीं बता सकते, तो तुम पूरी तरह से भ्रमित हो; यह साबित करता है कि तुम्हें सत्य की थोड़ी-सी भी समझ नहीं है। अगर तुम इस समस्या को कभी न समझते हुए ऐसे ही चलते रहे, तो वास्तव में खतरा बहुत बड़ा है, और अंत में, तुम सत्य प्राप्त करने में असमर्थ होगे। वह तुम्हीं होगे, जिसे नुकसान होगा। अगर तुम इस मामले में सत्य की खोज नहीं करते और असफल हो जाते हो, तो क्या तुम भविष्य में सत्य खोज पाओगे? अगर तुम अभी भी ऐसा नहीं कर सकते, तो यह अब नुकसान उठाने का मुद्दा नहीं रहेगा—अंततः तुम्हें बाहर कर दिया जाएगा। अगर तुम्हारे पास एक ‘नेक व्यक्ति’ होने की प्रेरणाएं और दृष्टिकोण हैं, तब तुम सभी मामलों में सत्य का अभ्यास और सिद्धांतों का पालन नहीं कर पाओगे, तुम हमेशा असफल होकर नीचे गिरोगे। यदि तुम जागरूक नहीं होते और कभी सत्य नहीं खोजते, तो तुम गैर-विश्वासी हो और कभी सत्य और जीवन प्राप्त नहीं कर पाओगे। तब तुम्हें क्या करना चाहिए? इस तरह की चीजों से सामना होने पर, तुम्हें प्रार्थना में परमेश्वर को पुकारना चाहिए, उद्धार के लिए विनती करनी चाहिए और माँगना चाहिए कि परमेश्वर तुम्हें अधिक आस्था और शक्ति दे, तुम्हें समर्थ बनाए कि तुम सिद्धांत का पालन करो, वो करो जो तुम्हें करना चाहिये, चीजों को सिद्धांत के अनुसार संभालो, अपनी बात पर मजबूती से खड़े रहो, परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करो और परमेश्वर के घर के कार्य को होने वाले किसी भी नुकसान को रोको। अगर तुम अपने हितों को, अपनी प्रतिष्ठा और एक ‘नेक व्यक्ति’ होने के दृष्टिकोण को छोड़ने में सक्षम हो, और अगर तुम एक ईमानदार, संपूर्ण हृदय के साथ वह करते हो जो तुम्हें करना चाहिये, तो तुमने शैतान को हरा दिया है, और तुमने सत्य के इस पहलू को हासिल कर लिया है। यदि तुम हमेशा शैतान के फलसफे के अनुसार जीते हो, दूसरों के साथ अपने संबंध बनाए रखते हो और कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते, सिद्धांतों का पालन नहीं करते, तो क्या तुम अन्य मामलों में सत्य का अभ्यास कर पाओगे? तुममें न तो आस्था होगी और न ही शक्ति होगी। यदि तुम सत्य नहीं खोजते या स्वीकार नहीं करते, तो क्या परमेश्वर में ऐसी आस्था से तुम सत्य प्राप्त कर पाओगे? (नहीं।) और यदि तुम सत्य प्राप्त नहीं कर सकते, तो क्या तुम बचाए जा सकते हो? नहीं बचाए जा सकते। यदि तुम हमेशा शैतान के फलसफे के अनुसार जीते हो, सत्य की वास्तविकता से पूरी तरह वंचित रहते हो, तो तुम कभी भी नहीं बचाए जा सकते। यह बात तुम्हें स्पष्ट होनी चाहिए कि उद्धार के लिए सत्य प्राप्त करना एक आवश्यक शर्त है। तो फिर, तुम सत्य कैसे प्राप्त कर सकते हो? यदि तुम सत्य का अभ्यास कर सकते हो, सत्य के अनुसार जी सकते हो और सत्य तुम्हारे जीवन का आधार बन जाता है, तो तुम सत्य प्राप्त कर जीवन पा लोगे, तब तुम बचाए जाने वाले लोगों में से एक होगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि कलीसिया के काम की परवाह न करके अपनी हैसियत, छवि और रिश्ते बचाने का मुख्य कारण यह था कि मैं लोगों को खुश करने वाले सांसारिक दर्शन से बहुत प्रभावित थी। मैं ऐसे शैतानी, सांसारिक विचारों से प्रभावित थी जैसे कि “अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है,” और “जिन लोगों से दूरी नहीं बना सकते, उनके साथ अच्छे रिश्ते बना कर चलो।” मुझे लगा कि अगर हम चाहते हैं कि दूसरे हमें पसंद करें, हमारी तारीफ करें, तो हमें भला बनना चाहिए, लोगों पर कभी गुस्सा नहीं करना चाहिए, देखकर भी दूसरों की समस्याओं को अनदेखा कर देना चाहिए, किसी के साथ बहुत कठोर नहीं होना चाहिए, किसी को भी नाराज नहीं करना चाहिए और इस तरह हर कोई आपको पसंद करेगा। मैं लोगों को खुश करने वाले इन विचारों के साथ जीती थी और जब जेनिन को असली काम नहीं करते देखा तो मैंने उसे न तो उजागर किया, न उसका निपटान किया, न उसे बर्खास्त किया। मैंने अपनी प्रतिष्ठा और छवि बचानी चाही लेकिन क्योंकि मैंने जेनिन की समस्याओं को उजागर करके उसे तुरंत बर्खास्त नहीं किया था, इसलिए सुसमाचार के काम में देरी हो गई थी। मैंने अपनी प्रतिष्ठा, हैसियत और रिश्ते को अपने कर्तव्य पर तरजीह दी। अपनी छवि और हैसियत बचाने के लिए कलीसिया के काम को बिल्कुल भी नहीं बचाया। मैं स्वार्थी और घृणित थी। लोगों को खुश करने वाले विचारों ने मुझे काफी धूर्त, कुटिल और अमानवीय बना दिया था। परमेश्वर के वचन कहते हैं, “जो लोग मध्य मार्ग से चिपके रहते हैं, वे सबसे भयावह होते हैं। वे किसी का अपमान नहीं करने की कोशिश करते हैं, वे लोगों-को-खुश करने वाले होते हैं, वे सभी चीज़ों में हामी भरते हैं, और कोई भी उनकी वास्तविकता नहीं जान सकता है। इस तरह का व्यक्ति एक जीवित शैतान है!” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य का अभ्यास करके ही व्यक्ति भ्रष्ट स्वभाव की बेड़ियाँ तोड़ सकता है)। परमेश्वर खुशामद-पसंद लोगों से घिन कर उन्हें नापसंद करता है। लोगों की खुशामद करने वाले विचारों पर चलकर आप कभी भी न तो सत्य हासिल कर सकते हैं, न ही बचाए जा सकते हैं। यह एहसास होने पर मैं खासी डर गई। मुझे पता था कि मैंने परमेश्वर के प्रति अपराध किया है और अगर मैंने अपनी दशा सुधार कर पश्चाताप न किया तो परमेश्वर मुझे त्याग और बहिष्कृत कर देगा। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग भी दिखाया कि मैं जब भी अपने नाम और प्रतिष्ठा की रक्षा करने की सोचने लगूँ तो मुझे और अधिक प्रार्थना करके परमेश्वर से शक्ति माँगनी चाहिए और सिद्धांतों के अनुरूप काम करना चाहिए और सच्चे दिल से अपना कर्तव्य निभाना सीखना चाहिए। इससे भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश में ही नहीं, बल्कि कलीसिया के काम में भी लाभ होता है। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि मैं सत्य का अभ्यास करूँ, सिद्धांतों के अनुसार काम करूँ और कलीसिया के हितों की रक्षा करूँ।
उसके बाद मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े। “विभिन्न कार्यों के निरीक्षकों और विभिन्न महत्वपूर्ण कार्यों के लिए जिम्मेदार कर्मियों की परिस्थितियों से अवगत रहो, और आवश्यकतानुसार तुरंत उनका काम या उन्हें बदलो, ताकि अनुपयुक्त लोगों को काम पर रखने से होने वाला नुकसान रोका या कम किया जा सके, और कार्य की दक्षता और सुचारु प्रगति की गारंटी दी जा सके” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। “अगुआओं और कार्यकर्ताओं के दायित्वों का एक हिस्सा यह जानना है कि विभिन्न परियोजनाओं के प्रभारी और महत्वपूर्ण कार्य के लिए जिम्मेदार लोगों के साथ क्या हो रहा है। तो ये कर्मचारी कौन हैं? सबसे आधारभूत कर्मचारी हैं कलीसिया के अगुआ, और उनके बाद दल-निरीक्षक और दलों के अगुआ। विभिन्न परियोजनाओं के प्रभारी और महत्वपूर्ण कार्य के लिए जिम्मेदार लोग : क्या यह समझना और पता लगाना उपयोगी और बहुत महत्वपूर्ण नहीं है कि क्या उनमें सत्य की वास्तविकता है, क्या वे अपने कार्यों में सिद्धांतवादी हैं, और क्या वे कलीसिया का कार्य अच्छे से कर सकते हैं? अगर अगुआ और कार्यकर्ता विभिन्न कार्यों के प्रभारी मुख्य निरीक्षकों की स्थिति की सटीक समझ प्राप्त करते हैं और कर्मियों में उपयुक्त समायोजन करते हैं, तो यह प्रत्येक कार्य के कार्यक्रम पर पहरा देने जैसा है। यह अपनी जिम्मेदारी और कर्तव्य पूरा करने के बराबर है। अगर इन कर्मियों को सही ढंग से व्यवस्थित नहीं किया जाता और कोई समस्या उत्पन्न होती है, तो कलीसिया का कार्य बहुत प्रभावित होगा। अगर ये कर्मी अच्छी मानवता के हैं, आस्था में एक आधार रखते हैं, मामले सँभालने में जिम्मेदार हैं, और समस्याएँ हल करने के लिए सत्य की तलाश करने में सक्षम हैं, तो उन्हें कार्य का प्रभार देने से बहुत-सी परेशानियों से बचा जा सकेगा। महत्वपूर्ण बात यह है कि कार्य सुचारु रूप से आगे बढ़ सके। लेकिन अगर टीमों के निरीक्षक भरोसेमंद नहीं हैं, खराब मानवता के हैं, सदाचारी नहीं हैं और सत्य को व्यवहार में नहीं लाते—इसके अलावा, उनके द्वारा गड़बड़ी पैदा किए जाने की संभावना है—तो इसका नकारात्मक प्रभाव उस कार्य पर पड़ेगा, जिसके लिए वे जिम्मेदार हैं, और उन भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश पर पड़ेगा, जिनकी वे अगुआई करते हैं। बेशक, वह प्रभाव बड़ा या छोटा हो सकता है। अगर निरीक्षक अपने कर्तव्यों के प्रति केवल अगंभीर या लापरवाह हैं, तो इससे कार्य में विलंब हो सकता है; प्रगति कुछ धीमी होगी, और कार्य कुछ कम कुशल होगा। लेकिन अगर वे मसीह-विरोधी हैं, तो समस्या गंभीर है : यह कार्य के थोड़े अकुशल और अप्रभावी होने की समस्या नहीं है—वे उन सभी कार्यों को बाधित करेंगे और नुकसान पहुंचाएंगे, जिनके लिए वे जिम्मेदार हैं। इसलिए, विभिन्न परियोजनाओं के प्रभारी और महत्वपूर्ण कार्य के लिए जिम्मेदार लोगों की स्थिति से अवगत रहना, और यह पता लगने पर कि कोई व्यावहारिक कार्य नहीं कर रहा है, समय पर समायोजन और बरखास्तगी करना कोई ऐसा दायित्व नहीं है, जिससे अगुआ और कार्यकर्ता बच सकें—यह बहुत गंभीर, बहुत महत्वपूर्ण कार्य है। अगर अगुआ और कार्यकर्ता विभिन्न परियोजनाओं के प्रभारी और महत्वपूर्ण कार्य के लिए जिम्मेदार लोगों के व्यक्तित्व, और सत्य और अपने कर्त्तव्य के प्रति उनके दृष्टिकोण के साथ-साथ हर अवधि के दौरान और हर चरण में उनकी अवस्थाओं और अभिव्यक्तियों से अवगत रह सकें और परिस्थितियों के अनुसार उन लोगों का तुरंत समायोजन कर सकें या उन्हें सँभाल सकें, तो काम व्यवस्थित रूप से आगे बढ़ सकता है। इसके विपरीत, अगर वे लोग कलीसियाओं में उन्मत्त होकर कार्य करते हैं और वास्तविक कार्य नहीं करते, और अगुआ और कार्यकर्ता इसे पहचानने और समायोजन करने में तत्परता नहीं दिखाते, बल्कि आराम से उन्हें सँभालने, समायोजन करने और स्थिति सुधारने और बचाने की कोशिश करने से पहले, तब तक प्रतीक्षा करते हैं जब तक कि तमाम तरह की गंभीर समस्याएँ पैदा नहीं हो जातीं, जिससे परमेश्वर के घर के काम को भारी नुकसान उठाना पड़ता है, तो वे अगुआ और कार्यकर्ता नाकारा हैं। वे वास्तविक नकली अगुआ हैं, जिन्हें बदलकर बाहर कर दिया जाना चाहिए” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि कोई भी अगुआ हर प्रोजेक्ट के सुपरवाइजर और दूसरे महत्वपूर्ण कार्यकर्ताओं की हैसियत तुरंत परखने के लिए उत्तरदायी है और कलीसिया के प्रोजेक्टों की प्रगति पक्की करने के लिए किसी को भी नालायक पाकर तुरंत बर्खास्त कर सकता है या नया काम सौंप सकता है। जब वे पाते हैं कि कोई सुपरवाइजर, अगुआ या कार्यकर्ता असली कार्य नहीं कर कलीसिया का काम बिगाड़कर देरी कर रहा है, तो तुरंत उनके साथ संगति करना जरूरी है। अगर वे नहीं बदलते और सेवा के लायक भी नहीं हैं तो उन्हें तुरंत कोई और काम सौंपने या बर्खास्त करने की जरूरत है। इससे कलीसिया के काम को फायदा होता है। जो लोग उपयोगी हैं, उन्हें रखें और जो उपयोगी नहीं हैं, उन्हें बर्खास्त करें, उन लोगों को संगति और सहायता प्रदान करें जिन्हें उसकी जरूरत है, उन लोगों से निपटें जिनसे निपटा जाना चाहिए। उन लोगों का पोषण करें जो सत्य का अनुसरण करते हैं। जेनिन अपने कर्तव्य में हमेशा बेपरवाह, दायित्व हीन और गैर-जिम्मेदार थी। अगुआओं ने कई बार उसके साथ संगति की, फिर भी वह कभी नहीं बदली। इससे कलीसिया के काम पर गंभीर असर पड़ रहा था। वह बिल्कुल झूठी अगुआ थी जिसने कोई असली काम नहीं किया था, जिसे तुरंत बर्खास्त करने की जरूरत थी, उसकी जगह किसी अच्छी मानवता वाले जिम्मेदार व्यक्ति को पोषित करने की जरूरत थी। इससे कलीसिया के काम को फायदा होगा और सुसमाचार का काम सहज रूप से आगे बढ़ेगा। यह सोचकर मेरा दिल पूरी तरह साफ होकर रोशनी से भर उठा और मैंने परमेश्वर से वादा किया : “फिर कभी इस तरह की समस्या का सामना होने पर मैं सिद्धांतों पर चलकर अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करूँगी।” मैंने सत्य का अभ्यास करने में भी परमेश्वर से मार्गदर्शन माँगा।
बाद में मैंने जेनिन की हर समस्या उसके सामने रखी, उसे एक ऐसी झूठी अगुआ के रूप में उजागर किया जो कोई असली काम नहीं करती थी। मैंने देखा कि वह गुस्से में थी पर कुछ और नहीं कह पा रही थी। मैंने सोचा : “अगर मैं उसकी और ज्यादा समस्याएँ उजागर करूँगी तो हमारे रिश्ते पूरी तरह बिगड़ जाएँगे और उसके मन में मेरी अच्छी छवि खत्म हो जाएगी।” फिर एहसास हुआ कि मैं पहले जैसी स्थिति से घिर रही हूँ इसलिए मैंने प्रार्थना की : “हे परमेश्वर, मैं सत्य का अभ्यास कर अपना कर्तव्य निभाना चाहती हूँ, जैसी संगति करनी चाहिए, वैसी करना चाहती हूँ और अपने बारे में दूसरों की राय की परवाह नहीं करना चाहती हूँ। मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव की बेबसी से उबरने की शक्ति दे।” प्रार्थना के बाद मैंने जेनिन के साथ संगति जारी रखी, एक-एक करके उसकी समस्या सामने रखी और उसके असली काम की कमियों को उजागर किया। हालांकि वह उस समय नाखुश थी, लेकिन अंत में उसने कहा कि अगर मैं उसे उजागर कर उसकी आलोचना न करती तो वह अपनी समस्याओं को नहीं देख पाती। उसने अपनी भ्रष्टता की गंभीरता को स्वीकारते हुए कहा कि वह बदलना चाहती है और कलीसिया उससे जो भी बर्ताव करना चाहेगी, उसे मान लेगी। उसके मुँह से यह सुनकर मैंने परमेश्वर को धन्यवाद दिया। परमेश्वर के वचनों पर चलने से, जैसा मैं सोच रही थी, मेरे रिश्ते नहीं बिगड़े और मैंने शांति और सहजता का एहसास किया। जेनिन को बर्खास्त करने के बाद हमने सुसमाचार के काम की निगरानी के लिए एक दूसरे भाई को चुना। उसने अपने कर्तव्य का बोझ उठाया और सुसमाचार फैलाने में दूसरों का नेतृत्व किया। कुछ समय बाद सुसमाचार का काम जोर पकड़ने लगा।
इस अनुभव ने मुझे एहसास कराया कि अपना कर्तव्य निभाने में शैतानी स्वभाव पर भरोसा करना खुद को तो नुकसान पहुँचाएगा ही, कलीसिया के काम को भी प्रभावित करेगा। परमेश्वर के वचनों और सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कर्तव्य निभाना ही परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?