निपटे जाने के बाद आया बदलाव
पिछले मार्च में, मैंने कलीसिया के वीडियो बनाने का काम संभाला। नया काम होने के कारण मैं कई सिद्धांतों को पूरी तरह नहीं समझता था, इसलिए मैं हर रोज परेशान रहता, इस बात से भयभीत कि कोई बड़ी अनदेखी न कर बैठूँ जिससे काम में देरी हो जाए। अपने काम के लिए हर पल प्रार्थना करता और परमेश्वर पर निर्भर रहता, और जब भी कोई मुश्किल पेश आती, मैं तुरंत भाई-बहनों के साथ सोच-विचार कर इसे हल कर देता। इस तरह कड़ी मेहनत करने के कुछ समय बाद, हमारी उत्पादकता बढ़ गई और वीडियो में विविधता दिखने लगी। अन्य भाई-बहन कहने लगे कि हमारे वीडियो की गुणवत्ता और कुशलता बढ़ रही है। यह सुनकर मैं फूला नहीं समाता। हालांकि मुझे काम करते हुए ज्यादा समय नहीं हुआ था, पर नतीजे अच्छे मिलने लगे थे, इसलिए मैंने सोचा अगर हम रोज ऐसे ही काम करते रहे, तो सब ठीक रहेगा। लेकिन काम को लेकर मेरा रवैया धीरे-धीरे बदलता गया। मुझमें पहले जैसी तत्परता नहीं रही, इससे पहले कि मैं समझ पाता, मैं आत्मसंतुष्टि की स्थिति में रहने लगा। कुछ ही समय बाद, मेरी साथी ने देखा कि हमारा काम सुस्त पड़ गया है और वीडियो रचनात्मक भी नहीं हैं, इसलिए उसने इन दिक्कतों के बारे में मुझसे सोच-विचार करना चाहा। यह सोचकर कि वह बात का बतंगड़ बना रही है, उसे अनदेखा कर मैं पूरी तरह बेपरवाह हो गया। मैं पूरी तरह आत्मसंतुष्ट हो गया और आधे-अधूरे मन से काम करता रहा।
कुछ दिनों बाद जब अगुआ ने हमारे काम को देखा, तो पाया कि इन दिनों हमारे वीडियो की गुणवत्ता और कुशलता घट गई है, तो उसने हमारे साथ संगति की। उसने पूछा, “क्या तुम्हें अपने काम के नतीजों को लेकर चिंता है? तुम्हारा समर्पण कहाँ गया? तुम जरा से काम से थककर डर जाते हो। थोड़े और प्रयास क्यों नहीं करते? तुम जैसे-तैसे काम कर रहे हो, सुस्त और अनुशासनहीन बन गए हो। क्या तुम्हें परमेश्वर की इच्छा का ख्याल है? इस तरह काम करना केवल अपनी सेवा देना भर है और अगर तुम अपनी सेवा में मन नहीं लगाते तो आखिरकार निकाल दिए जाओगे।” उसकी इस आलोचना से मैं सकते में आ गया और बुरा मानने लगा। यह सच था कि हमारे वीडियो कुछ समय से उतने असरदार नहीं थे, फिर भी पहले से तो कहीं ज्यादा बेहतर थे। उसने कैसे कह दिया कि हम समर्पित नहीं हैं? और यह सिर्फ सेवा है? हम चीजों को जानबूझकर घसीट नहीं रहे थे, न सुस्त पड़े थे। मुझे पता था कि यह आलोचना परमेश्वर की इच्छा से हो रही है, भले ही मैं अपनी समस्या को पहचान न सका था, इस मामले में आज्ञापालक और खोजी दिल के साथ आगे बढ़ने की जरूरत थी। मैंने प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, आज अगुआ ने मेरी आलोचना की, लेकिन मैं अभी भी नहीं जानता कि मैंने कहां गलती की। मुझे आत्म-चिंतन कर स्वयं को समझने के लिए राह दिखाओ ताकि मैं आपकी इच्छा को जानकर इससे सबक ले सकूँ।” प्रार्थना के बाद मैंने जाना कि अपने बहानों को मैं चाहे जितना सही समझूँ, सच यही है कि हमारे वीडियो निर्माण की गति सुस्त पड़ चुकी थी और इनमें रचनात्मक कमियाँ थीं। अगुआ हमारे व्यवहार की आलोचना नहीं कर रही थी, वह काम के प्रति हमारी गलत मनोदशा और रवैये की बात कर रही थी, मुझे अपनी स्थिति पर पैनी नजर डालने की जरूरत थी।
तब मैंने परमेश्वर के वचनों में कुछ पढ़ा। “जो लोग वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, वे अपनी लाभ-हानि की गणना किए बिना स्वेच्छा से अपने कर्तव्य निभाते हैं। चाहे तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो या नहीं, तुम्हें अपना कर्तव्य निभाते समय अपने अंतःकरण और विवेक पर निर्भर होना चाहिए और सच में कड़ी मेहनत करनी चाहिए। कड़ी मेहनत करने का क्या मतलब है? यदि तुम केवल कुछ सांकेतिक प्रयास करने और थोड़ी शारीरिक कठिनाई झेलने से संतुष्ट हो, लेकिन अपने कर्तव्य को बिल्कुल भी गंभीरता से नहीं लेते या सत्य के सिद्धांतों की खोज नहीं करते, तो यह लापरवाही और बेमन से काम करना है—इसे वास्तव में प्रयास करना नहीं कहते। प्रयास करने का अर्थ है उसे पूरे मन से करना, अपने हृदय में परमेश्वर का भय मानना, परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील रहना, परमेश्वर की अवज्ञा करने और उसे आहत करने से डरना, अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए किसी भी कठिनाई को सहना : यदि तुम्हारे पास ऐसा हृदय है जो इस तरह से परमेश्वर से प्रेम करता है, तो तुम अच्छे से अपना कर्तव्य निभा पाओगे। यदि तुम्हारे मन में परमेश्वर का भय नहीं है, तो अपने कर्तव्य का पालन करते समय, तुम्हारे मन में दायित्व वहन करने का भाव नहीं होगा, उसमें तुम्हारी कोई रुचि नहीं होगी, अनिवार्यतः तुम लापरवाह और अनमने रहोगे, तुम चलताऊ काम करोगे और उससे कोई प्रभाव पैदा नहीं होगा—जो कि कर्तव्य का निर्वहन करना नहीं है। यदि तुम सच में दायित्व वहन करने की भावना रखते हो, कर्तव्य निर्वहन को निजी दायित्व समझते हो, और तुम्हें लगता है कि यदि तुम ऐसा नहीं समझते, तो तुम जीने योग्य नहीं हो, तुम पशु हो, अपना कर्तव्य ठीक से निभाकर ही तुम मनुष्य कहलाने योग्य हो और अपनी अंतरात्मा का सामना कर सकते हो—यदि तुम अपने कर्तव्य का पालन करते समय दायित्व की ऐसी भावना रखते हो—तो तुम हर कार्य को निष्ठापूर्वक करने में सक्षम होगे, सत्य खोजकर सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर पाओगे और इस तरह अच्छे से अपना कर्तव्य निभाते हुए परमेश्वर को संतुष्ट कर पाओगे। अगर तुम परमेश्वर द्वारा सौंपे गए मिशन, परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जो त्याग किए हैं और उसे तुमसे जो अपेक्षाएँ हैं, उन सबके योग्य हो, तो इसी को वास्तव में कठिन प्रयास करना कहते हैं। अब क्या तुम समझे? अगर तुम अपने कर्तव्य के प्रदर्शन में बेमन से काम करते हो और परिणाम प्राप्त करने की कोशिश नहीं करते, तो तुम पाखंडी हो, भेड़ के वेश में एक भेड़िया हो। तुम लोगों को छल सकते हो, पर तुम परमेश्वर को बेवकूफ़ नहीं बना सकते। यदि कर्तव्य को करते समय, कोई सच्चा मूल्य न हो, तुम्हारी कोई निष्ठा न हो, तो यह मानक के अनुसार नहीं है। यदि तुम परमेश्वर में अपनी आस्था और अपने काम के प्रति सच्चे मन से समर्पित नहीं होते; यदि तुम हमेशा बिना मन लगाए काम करते हो और अपने कामों में लापरवाह रहते हो, उस अविश्वासी की तरह जो अपने मालिक के लिए काम करता है; यदि तुम केवल नाम-मात्र के लिए प्रयास करते हो, अपना दिमाग इस्तेमाल नहीं करते, किसी तरह हर दिन यूँ ही गुजार देते हो, उन समस्याओं को देखकर उनसे आँखें फेरते हो, कुछ गड़बड़ी हो जाए तो उसकी ओर ध्यान नहीं देते हो, और विवेकशून्य तरीके से हर उस बात को ख़ारिज करते हो जो तुम्हारे व्यक्तिगत लाभ की नहीं—तो क्या यह समस्या नहीं है? ऐसा कोई व्यक्ति परमेश्वर के घर का सदस्य कैसे हो सकता है? ऐसे लोग अविश्वासी होते हैं; वे परमेश्वर के घर के नहीं हो सकते। परमेश्वर उनमें से किसी को भी स्वीकार नहीं करता। तुम सच्चे हो या नहीं, तुम अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित हो या नहीं, परमेश्वर इन बातों का हिसाब रखता है और इस बात को तुम भी अच्छी तरह जानते हो। तो क्या तुम लोग कभी वास्तव में अपने कर्तव्य-निष्पादन के प्रति समर्पित हुए हो? क्या तुमने इसे दिल लगाकर किया है? क्या तुमने इसे अपना दायित्व, अपनी बाध्यता माना है? क्या तुमने इसके स्वामित्व को अपनाया है? तुम्हें इन मामलों पर ठीक से विचार कर इन्हें जानना चाहिए, जिससे तुम्हारे काम में जो समस्याएँ आ रही हैं, उन्हें दूर करना आसान हो जाएगा, यह तुम्हारे जीवन प्रवेश के लिए फायदेमंद होगा। यदि तुम काम में हमेशा गैर-जिम्मेदार बने रहोगे, और समस्याओं के पता लगने पर उनके बारे में अगुआओं और कर्मियों नहीं बताओगे, न ही उन्हें अपने दम पर हल करने के लिए सत्य खोजोगे और यही सोचते रहोगे कि ‘परेशानी जितनी कम हो उतना अच्छा है,’ हमेशा सांसारिक फलसफों के साहरे जियोगे, अपने काम में लापरवाह और अनमने बने रहोगे, कोई भक्तिभाव नहीं रखोगे, काट-छाँट और निपटारे के समय सत्य नहीं स्वीकारोगे—यदि तुम इस तरह से अपना कर्तव्य निभाओगे, तो तुम खतरे में हो; तुम सेवाकर्मियों में से एक हो। सेवाकर्मी परमेश्वर के घर के सदस्य नहीं होते, बल्कि कर्मचारी, भाड़े के मजदूर होते हैं, जिन्हें काम समाप्त होते ही बहिष्कृत कर दिया जाएगा और वे स्वाभाविक रूप से तबाही में जा गिरेंगे। ... तथ्य यह है कि परमेश्वर अपने दिल में तुम लोगों को अपने परिवार के सदस्य मानना चाहता है, लेकिन तुम लोग सत्य नहीं स्वीकारते, और अपने कर्तव्य निभाने में हमेशा लापरवाह, अनमने और गैर-जिम्मेदार रहते हो। तुम लोग पश्चात्ताप नहीं करते, चाहे सत्य के बारे में तुम्हारे साथ कैसे भी संगति की जाए। यह तुम लोग हो, जिन्होंने खुद को परमेश्वर के घर के बाहर रखा है। परमेश्वर तुम लोगों को बचाना और अपने परिवार के सदस्यों में बदलना चाहता है, लेकिन तुम लोग इसे स्वीकार नहीं करते। तो तुम लोग उसके घर के बाहर हो; तुम अविश्वासी हो। जो कोई सत्य का लेशमात्र भी नहीं स्वीकारता, उसे केवल वैसे ही सँभाला जा सकता है, जैसे किसी अविश्वासी को सँभाला जाता है। यह तुम लोग ही हो, जिन्होंने अपना परिणाम और स्थिति स्थापित की है। तुमने उसे परमेश्वर के घर के बाहर स्थापित किया है। इसके लिए तुम लोगों के अलावा और कौन दोषी है?” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए व्यक्ति में कम से कम जमीर और विवेक तो होना ही चाहिए)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे खुद पर शर्म आने लगी। परमेश्वर कहता है कि थोड़ी सी मेहनत करके संतुष्ट हो जाना अपने कर्तव्य के प्रति समर्पण नहीं कहलाता। असल बात है सच में काम का बोझ उठाना और उसके प्रति दायित्व बोध होना, हम जो भी काम करें उसे अपनी जिम्मेदारी समझना, उसमें अपना सब कुछ अर्पित कर देना ताकि हमारे काम में बहुत अच्छे नतीजे निकलें। सच्चे मन से बोझ उठाने वाले को किसी और के याद दिलाने की जरूरत ही नहीं पड़ती, बल्कि वह आंतरिक प्रेरणा से काम करता है। जब वे अपना रोज का काम पूरा करते हैं, वो देखते हैं कि क्या ठीक नहीं रहा, और वे कैसे इसे बेहतर कर सकते थे। इसे ही परमेश्वर की इच्छा समझना और परमेश्वर के घर का हिस्सा कहलाने लायक बनना कहते हैं। दूसरी ओर सेवा-कर्मी अपने काम में दिल नहीं लगाते। वे सतही कोशिशों से संतुष्ट हो जाते हैं, और उनमें जिम्मेदारी का बोझ उठाने का भाव नहीं होता। वे कभी नहीं सोचते कि अपना काम कैसे बेहतर करें और काम में समस्याएं दिखने पर जरा भी व्यग्र या चिंतित नहीं होते हैं। वे कहते हैं कि अपना काम कर रहे हैं, लेकिन परमेश्वर की इच्छा का ख्याल बिल्कुल भी नहीं करते। वे बिल्कुल अविश्वासियों की तरह काम करते हैं, और बस वेतन के बदले थोड़ी मेहनत करते दिखते हैं। ऐसा व्यक्ति सच्चे मन से कर्तव्य पालन नहीं करता, बल्कि सेवा कर रहा होता है। इसे परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिलती। अपने व्यवहार और कार्य के प्रति अपने रवैये के बारे में सोचकर मैंने जाना कि मैं बिल्कुल सेवा-कर्मी की तरह काम कर रहा था। जब से हमारा वीडियो बनाने का काम सुधरा, मैं आत्मसंतुष्टि की मनोदशा में फँस गया। मुझे लगा, आखिर हम व्यस्त तो हैं ही, अगर हम ऐसे ही लगे रहे और कोई बड़ी गलती नहीं की, तो इस तरह अपना काम करना ठीक ही रहेगा। इसलिए जब मैंने देखा कि हमारे वीडियो बहुत रचनात्मक नहीं हैं और उसी पुराने ढर्रे पर हैं, तो मुझे बिल्कुल भी चिंता नहीं हुई। मैं पूरे समय काम में लगा दिखता था, लेकिन सच्चे दिल से बोझ नहीं उठा रहा था। मैंने सोचा, चूँकि हम पहले से थोड़ा कुशल हो गए हैं, तो इसे तरक्की माना जाएगा, और इसे अपने कर्तव्य की कामयाबी मान बैठा। खुद से संतुष्ट होकर मैं लकीर का फकीर बन गया। सोचा ही नहीं कि क्या हम थोड़ा और प्रयास कर सकते हैं, या अपने नतीजे सुधार सकते हैं, क्या अपनी तरक्की और कुशलता को बेहतर कर सकते हैं। न मैं यह सोच रहा था कि क्या अपने कर्तव्य में सिद्धांतों का पालन कर रहा हूँ या फिर क्या कमियाँ और गलतियाँ छूट रही थीं। उस तरह अपना कर्तव्य निभाना, दरअसल, सेवा करने जैसा ही था। मैंने परमेश्वर के वचनों में पढ़ा जब लोग दिल से अपने कर्तव्य से नहीं जुड़ते तो वे बेमन से काम करते हुए परमेश्वर के साथ धोखा कर रहे होते हैं। अपने पूरे व्यवहार को देखते हुए, मैंने पाया कि मैं परमेश्वर को धोखा दे रहा हूँ, मुझमें सच में मानवता नहीं बची है। जब मुझसे निपटा गया, उसके बाद ही देख सका कि अपने कर्तव्य में इतना ढीला और गैर-जिम्मेदार होना, इसे एक सेवा-कर्मी की तरह करना और फिर भी परमेश्वर की स्वीकृति की इच्छा रखना बिल्कुल बकवास है! मेरे उस तरह काम करने से कलीसिया का काम ही नहीं रुका, बल्कि मैं खुद भी कोई प्रगति करने लायक नहीं रहा। अगर यह बहुत लंबा खिंचता, तो मुझे बेशक निकाल दिया जाता। इस बारे में सोचना मेरे लिए बहुत तकलीफ की बात थी, इसलिए मैं पश्चाताप के लिए तैयार होकर प्रार्थना करने परमेश्वर के पास आया, ताकि इस गलत मनोदशा को बदलकर अपना काम ठीक से कर सकूँ। मुझे इस असफलता का एक और कारण भी पता चला। मैं बहुत हठी था। मैं सही सिद्धांतों की खोज करने के बजाय अपनी इच्छा से चलता था। मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : “कर्तव्य तुम्हारा निजी मामला नहीं है; तुम उसे अपने लिए नहीं कर रहे हो, तुम अपना कारोबार नहीं चला रहे हो, यह तुम्हारा निजी व्यवसाय नहीं है। परमेश्वर के घर में, तुम चाहे जो भी करते हो, वह तुम्हारा अपना निजी उद्यम नहीं है; यह परमेश्वर के घर का काम है, यह परमेश्वर का काम है। तुम्हें इस ज्ञान और जागरुकता को लगातार ध्यान में रखना होगा और कहना होगा, ‘यह मेरा अपना मामला नहीं है; मैं अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ और अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर रहा हूँ। मैं कलीसिया का काम कर रहा हूँ। यह काम मुझे परमेश्वर ने सौंपा है और मैं इसे उसके लिए कर रहा हूँ। यह मेरा कर्तव्य है कोई निजी मामला नहीं है।’ यह पहली बात है जिसे लोगों को समझना चाहिए। यदि तुम किसी कर्तव्य को अपना निजी व्यवसाय मान लेते हो, अपने कार्य करते हुए सत्य के सिद्धांत नहीं खोजते और उसे अपने निजी उद्देश्यों, विचारों और एजेंडे के अनुसार कार्यांवित करते हो, तो बहुत संभव है कि तुम गलतियाँ करोगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्य का समुचित निर्वहन क्या है?)। परमेश्वर के वचनों से पता चला कि अपना कर्तव्य निभाना कोई निजी मामला नहीं, बल्कि परमेश्वर का आदेश है। हमें अपना काम परमेश्वर की अपेक्षाओं और सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप करना चाहिए। तभी यह परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होगा। यदि आप अपने काम को निजी मामला मानते हैं, आप जो कुछ करना चाहते हैं, उसमें परमेश्वर की इच्छा या सत्य के सिद्धांतों को खोजना बिल्कुल नहीं चाहते, तो यह वास्तव में कर्तव्य निर्वाह नहीं होता। फिर आप चाहे जितनी भी मेहनत करते हुए दिखें, जितने भी कष्ट उठाएं या त्याग करें, परमेश्वर की स्वीकृति तो मिलने से रही। मैंने जाना कि ठीक इसी तरह मैं अपना काम कर रहा था। मैं भौंरे की तरह हमेशा व्यस्त दिखता था, पर मनमर्जी से चीजें करता था, अपनी प्राथमिकताओं के हिसाब से। मैं सिद्धांतों का कड़ाई से पालन नहीं कर रहा था। परमेश्वर के घर ने हमें बार-बार कहा था कि वीडियो बनाने में, हमें कुशलता से काम करना है तो गुणवत्ता भी सुधारनी है। शुरुआत में, मैं इससे सहमत था, लेकिन जब वास्तविक समस्याएं सामने आईं, मैंने इन सिद्धांतों को ताक पर रख दिया और किया वही जो मैं चाहता था। जब मेरी साथी बहन ने बताया कि हमारा वीडियो निर्माण कार्य ढीला पड़ चुका है और हम उसी पुराने ढर्रे पर चल रहे हैं, तो मैंने इस पर ध्यान नहीं दिया। यहाँ तक कि जब मुझसे निपटा गया तब भी मुझे अपनी गलती नजर नहीं आई; मुझे बुरा लगा। मैं बहुत नासमझ और हठी था, खुद को बिल्कुल भी नहीं जानता था। यह जानकर ही संतुष्ट था कि परमेश्वर का घर सिद्धांत रूप में क्या चाहता है, लेकिन जब इसे अमल में लाने की बारी आई, तो मैं इन्हीं सिद्धांतों के विरुद्ध चल पड़ा और अपने हिसाब से चीजें करने लगा, जिससे आखिर वीडियो कार्य में बाधा आई। तभी जाना कि मुझमें कोई गंभीर समस्या है। अगुआ ने मेरी आलोचना की जिसका उद्देश्य पूरी तरह कलीसिया के काम को कायम रखना और परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखना था। मैं इस आलोचना के लायक ही था। क्योंकि मैं अपने काम को हल्के में ले रहा था, मनमर्जी से काम कर रहा था, और सिद्धांतों का उल्लंघन कर रहा था। अगुआ ने ऐसा इसलिए किया ताकि मैं अपनी गलतियां देख सकूँ और आगे बढ़ने के सिद्धांतों के अनुरूप काम करूँ। यह जानने के बाद, मैंने समझ गया कि मेरा निपटारा दरअसल परमेश्वर का प्रेम और संरक्षण था।
उसके बाद मुझे परमेश्वर के वचनों में अभ्यास का मार्ग मिल गया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “आज, ऐसे लोग हैं जो अपने कर्तव्य के निर्वहन में मेहनत करना शुरू कर चुके हैं, वे सोचने लगे हैं कि परमेश्वर के हृदय को संतुष्ट करने के लिए एक सृजित प्राणी के कर्तव्य को ठीक से कैसे निभाया जाए। वे नकारात्मक और आलसी नहीं हैं, वे निष्क्रिय होकर ऊपर से आदेश आने की प्रतीक्षा नहीं करते, बल्कि थोड़ी पहल करते हैं। तुम लोगों के कर्तव्य प्रदर्शन को देखते हुए, तुम पहले की तुलना में थोड़े अधिक प्रभावी हो। हालांकि यह अभी भी मानक से नीचे है, फिर भी इसमें थोड़ी-बहुत वृद्धि तो हुई है—जो कि अच्छा है। लेकिन तुम्हें यथास्थिति से संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए, तुम्हें खोजते और बढ़ते रहना चाहिए—तभी तुम अपना कर्तव्य बेहतर ढंग से निभाकर एक स्वीकार्य-स्तर तक पहुँच पाओगे। लेकिन जब कुछ लोग अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो वे कभी भी अपना सौ प्रतिशत नहीं देते, इसे अपना सर्वस्व नहीं देते, वे केवल अपने प्रयास का 50-60% ही देते हैं और अपना कार्य पूरा होने तक कामचलाऊ ढंग से कार्य करते रहते हैं। वे कभी भी सामान्य स्थिति को बनाए नहीं रख पाते : जब उन पर नजर रखने या उनका समर्थन करने वाला कोई नहीं होता, तो वे सुस्त होकर हिम्मत हार जाते हैं; जब सत्य पर संगति करने वाला कोई होता है, तो वे उत्साहित रहते हैं, लेकिन यदि कुछ समय के लिए उनके साथ सत्य पर संगति न की जाए, तो वे उदासीन हो जाते हैं। जब वे इस तरह अनिश्चितता की स्थिति में रहते हैं, तो यहाँ समस्या क्या है? जब लोगों ने सत्य प्राप्त नहीं किया होता, तो उनकी स्थिति ऐसी ही होती है, वे सभी जुनून में जीते हैं—जुनून को बनाए रखना बेहद कठिन होता है : कोई न कोई ऐसा होना चाहिए जो हर दिन उन्हें उपदेश दे और उनके साथ संगति करे; जब कोई उनका सिंचन और देखभाल करने वाला तथा उनका समर्थन करने वाला नहीं होता, तो वे फिर से ठंडे पड़ जाते हैं और सुस्त हो जाते हैं। और जब उनका हृदय शिथिल हो जाता है, तो वे अपने कार्य में कम प्रभावी हो जाते हैं; यदि वे अधिक मेहनत करते हैं, तो उनकी प्रभावशीलता बढ़ जाती है, कार्य की उत्पादकता में वृद्धि हो जाती है और उन्हें अधिक लाभ होता है। ... वास्तव में, परमेश्वर लोगों से जो माँगता है, उसे लोग प्राप्त कर सकते हैं; अगर तुम लोग अपने अंतःकरण से काम लो, अपना कर्तव्य निभाते समय अपने अंतःकरण का अनुसरण करो, तो तुम्हारे लिए सत्य स्वीकारना आसान होगा—और यदि तुम सत्य स्वीकार सको, तो तुम अपना कार्य ठीक से कर सकते हो। तुम लोगों को इस तरह से सोचना चाहिए : ‘इन वर्षों में परमेश्वर में विश्वास रखते हुए, इन वर्षों में परमेश्वर के वचनों को खा-पीते हुए, मैंने बहुत कुछ पाया है, परमेश्वर ने मुझ पर महान अनुग्रह और आशीर्वाद बरसाया है। मैं परमेश्वर के हाथों में जीता हूँ, मैं परमेश्वर की शक्ति और उसके प्रभुत्व में जीता हूँ, उसी ने मुझे ये सांसें दी हैं, इसलिए मुझे अपना मन लगाना और पूरी ताकत से अपना कर्तव्य निभाने का प्रयास करना चाहिए—यही कुंजी है।’ लोगों में इच्छाशक्ति होनी चाहिए; जिनमें इच्छाशक्ति है, वही वास्तव में सत्य के लिए प्रयास कर सकते हैं, सत्य समझ लेने के बाद ही वे अपना कर्तव्य ठीक से निभा सकते हैं, परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं और शैतान को शर्मसार कर सकते हैं। यदि तुममें इस प्रकार की ईमानदारी है, और तुम अपने लिए कोई योजना नहीं बनाते हो, बल्कि सत्य प्राप्त कर अपना कर्तव्य ठीक से निभाना चाहते हो, तो तुम्हारा कर्तव्य-निष्पादन सामान्य हो जाएगा और पूरे समय स्थिर रहेगा; तुम्हारे सामने चाहे कोई भी परिस्थिति हो, तुम दृढ़ता से अपना कर्तव्य निभाने में लगे रहोगे। चाहे तुम्हें कोई भी गुमराह या परेशान करने आए, तुम्हारी मनःस्थिति चाहे अच्छी हो या बुरी, तब भी तुम अपना कर्तव्य सामान्य रूप से निभा पाओगे। इस तरह, तुम्हारी ओर से परमेश्वर का मन निश्चिंत हो सकता है, पवित्र आत्मा सत्य के सिद्धांत समझने में तुम्हें प्रबुद्ध कर पाएगा और सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने में तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा। परिणामस्वरूप, तुम्हारा कर्तव्य-निष्पादन यकीनन मानक के अनुरूप होगा। यदि तुम ईमानदारी से खुद को परमेश्वर के लिए खपाओगे, विनम्रता से अपना कर्तव्य-पालन करोगे, धूर्तता से काम नहीं करोगे या चालबाजी नहीं करोगे, तो परमेश्वर तुम्हें स्वीकार कर लेगा। परमेश्वर लोगों का मन, विचार और इरादे देखता है। यदि तुम्हारे दिल में सत्य के लिए तड़प है और तुम सत्य खोज सकते हो, तो परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध और रोशन करेगा। किसी भी मामले में, अगर तुम सत्य खोजते हो, तो परमेश्वर तुम्हें प्रबुद्ध करेगा। वह तुम्हारे हृदय को प्रकाश के प्रति खोल देगा और तुम्हें अभ्यास का मार्ग देगा, और तब तुम्हारे कर्तव्य का प्रदर्शन फलदायी होगा। परमेश्वर की प्रबुद्धता उसका अनुग्रह और आशीष है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर पर विश्वास करने में सबसे महत्वपूर्ण उसके वचनों का अभ्यास और अनुभव करना है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने सीखा कि कम से कम, हमें कर्तव्य पालन में अपनी अंतरात्मा पर भरोसा करना चाहिए, और जब भी कोई समस्या आए तो आगे बढ़कर परमेश्वर की इच्छा और सिद्धांतों को खोजना चाहिए, परमेश्वर के वचनों की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए सब कुछ झोंक देना चाहिए ताकि परमेश्वर का मार्गदर्शन प्राप्त हो और अपने काम में अच्छे नतीजे मिलें। मुझे वीडियो बनाने के काम की निगरानी का अवसर मिलना परमेश्वर की कृपा थी। मुझे अपने काम में भरसक कोशिश करनी चाहिए थी और इसे आगे बढ़ाकर अच्छे नतीजे लाने चाहिए थे। मुझे इतना सुस्त या लापरवाह नहीं होना चाहिए था। इसका एहसास होने पर मैंने प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं बस एक बंधे-बंधाए ढर्रे पर काम करते हुए तरक्की के लिए प्रयास नहीं करता हूँ। मेरा मार्गदर्शन करो ताकि चाहे जितनी भी मुश्किलें सामने आएँ, मैं अपना सर्वश्रेष्ठ काम करूँ। अगर मैं दोबारा अपने काम की प्रगति रोकूँ, तो मुझे अनुशासित करना।” उसके बाद, भाई-बहनों के साथ मैंने अपने काम में पिछड़ने के कारणों पर चर्चा की, और हर एक वीडियो के लिए अलग योजना बनाई। हमने वीडियो बनाने के लिए सोचे-समझे विचारों के साथ कदम बढ़ाए। हर एक के सहयोग से, हमारे वीडियो पहले से कहीं अधिक अच्छे बन गए, और उनमें विविधता भी आ गई। इस परिणाम के लिए मैं सच में परमेश्वर का आभारी था। अब मैं खुश था, कर्तव्य में अपने पुराने रवैये को लेकर मेरे मन में अपराध बोध था और खेद भी। अब जाकर मुझे लगा कि अपने काम के प्रति मेरी पिछली लापरवाही कितनी गंभीर थी। मुझमें कोई तत्परता नहीं थी, बस जैसे-तैसे काम कर दिन काटता रहता था, फिर भी सोचता था कि मैं समर्पित हूँ। मैं खुद को बिल्कुल नहीं जानता था। अगर उस समय मुझसे निपटा नहीं जाता, बस उसी लापरवाही और आत्मसंतुष्टि भरे रवैये से काम करता रहता, तो न जाने हमारा काम कितना पिछड़ चुका होता। मुझे दिल से लगा कि अगुआ ने बिल्कुल सही समय पर आलोचना की। बाद में एक सभा में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “सृष्टिकर्ता के आदेश के प्रति नूह का रवैया आज्ञाकारिता का था। उसके प्रति वह बेपरवाह नहीं था, उसके हृदय में कोई प्रतिरोध का भाव नहीं था, न ही उदासीनता थी। बल्कि, हर विवरण को दर्ज करते समय उसने सृष्टिकर्ता की इच्छा को पूरी लगन से समझने की कोशिश की। जब उसने परमेश्वर की उत्कट इच्छा को समझ लिया, तो उसने तेजी से काम करने का फैसला किया, उस कार्य को पूरा करना तय किया जो परमेश्वर ने उसे शीघ्रता में करने को सौंपा था। ‘शीघ्रता में’ के क्या मायने हैं? इसके मायने हैं कि काम को कम से कम समय में पूरा करना, जिसमें पहले एक महीने का समय लगता, उसे समय से तीन या पांच दिन पहले पूरा कर लेना, ढिलाई न करना, टालमटोल बिल्कुल न करना बल्कि भरसक प्रयास करते हुए परियोजना को आगे बढ़ाना। स्वाभाविक रूप से, प्रत्येक कार्य को करते समय, वह नुकसान और त्रुटियों को कम करने की पूरी कोशिश करता था और ऐसा कोई काम नहीं करता था जिसे फिर से करना पड़े; वह गुणवत्ता की गारंटी देते हुए प्रत्येक कार्य और प्रक्रिया को भी समय पर और अच्छी तरह से पूरा कर लेता था। यह तत्परता से कार्य करने की सच्ची अभिव्यक्ति थी। तो ढिलाई न दिखाने की पूर्वापेक्षा क्या थी? (उसने परमेश्वर की आज्ञा सुनी थी।) हाँ, यही उसकी इस उपलब्धि की पूर्वापेक्षा और संदर्भ था। नूह ने ढिलाई क्यों नहीं दिखाई? कुछ लोग कहते हैं कि नूह में सच्ची आज्ञाकारिता थी। तो, उसमें ऐसा क्या था जिसके कारण उसमें सच्ची आज्ञाकारिता आई? (वह परमेश्वर की इच्छा के प्रति जागरूक था।) यह सही है! दिल होने का यही मतलब है! दिल रखने वाले लोग परमेश्वर की इच्छा के प्रति जागरूक रह पाते हैं; हृदयविहीन लोग खाली खोल होते हैं, मसखरे होते हैं, वे परमेश्वर की इच्छा के प्रति जागरूक होना नहीं जानते : ‘मुझे परवाह नहीं कि यह परमेश्वर के लिए कितना जरूरी है, मैं तो वही करूँगा जो मैं चाहता हूँ—वैसे मैं आलस या निकम्मापन नहीं दिखा रहा।’ ऐसा रवैया, ऐसी नकारात्मकता, सक्रियता का पूर्णतया अभाव—यह ऐसा इंसान नहीं जो परमेश्वर की इच्छा के प्रति सचेत है, न ही वह यह समझता है कि परमेश्वर की इच्छा के प्रति सचेत कैसे रहे। इस स्थिति में, क्या उसमें सच्चा विश्वास होता है? बिल्कुल नहीं। नूह परमेश्वर की इच्छा के प्रति सचेत था, उसमें सच्चा विश्वास था, और इस प्रकार परमेश्वर के आदेश को पूरा कर पाया। तो केवल परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करना और कुछ प्रयास करने का इच्छुक रहना ही पर्याप्त नहीं होता। तुम्हें परमेश्वर की इच्छा के प्रति सचेत रहते हुए सर्वस्व देकर समर्पित हो जाना चाहिए—इसके लिए जरूरी है कि लोगों में अंतःकरण और समझ हो; यही लोगों में होना चाहिए और यही नूह में था” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण तीन : कैसे नूह और अब्राहम ने परमेश्वर के वचन सुने और उसकी आज्ञा का पालन किया (भाग दो))। परमेश्वर के वचनों के इस अंश को पढ़कर मैं भी प्रेरित हो गया था। नूह ने परमेश्वर को सुना, उसकी इच्छा को समझा, और उसके आदेश की लेशमात्र भी अनदेखी नहीं की। मैंने देखा कि नूह परमेश्वर की इच्छा का सम्मान करना चाहता था, जब परमेश्वर ने उसे नाव बनाने को कहा, तो वह तुरंत उसकी इच्छा भांपकर उस काम में जुट गया जो परमेश्वर को सबसे जरूरी लगता था। एक-एक काम को समय पर पूरा करने के लिए उसने भरसक प्रयास किया, ताकि जितनी जल्दी हो सके इसे बढ़ाया जा सके। उसने गलतियां और नुकसान रोकने के लिए सर्वोत्तम प्रयास किए। अपने काम के प्रति नूह के नजरिये में परमेश्वर की इच्छा का सच्चा सम्मान दिखता है। मेरे लिए नूह का अनुभव बड़ा प्रेरणादायी था। इसने परमेश्वर की इच्छा समझने में मदद कर मुझे अभ्यास का मार्ग दिखाया। मुझे नूह की तरह बनकर परमेश्वर के कार्य का बोझ उठाना चाहिए, अपने काम के हर ब्योरे की सूची बनाकर, उन्हें ठीक से व्यवस्थित करना, और हर काम को पूरा करने के लिए अपना सब कुछ झोंक देना चाहिए। मुझे यकीन था कि काम में मुश्किलें आने पर, इनमें फंसने के बजाय मैं पार निकल जाऊँगा, क्योंकि जहाँ परमेश्वर का संग है, वहाँ कुछ भी असंभव नहीं है। इसलिए मैंने प्रार्थना की और परमेश्वर से और अधिक बोझ सौंपने और मुझे राह दिखाने को कहा। उसके बाद से, हम अक्सर अपने काम का सारांश तैयार करते, जो भी भूल-चूक रह जाती उसे तेजी से सुधारते और एक-दूसरे का सहयोग करते। फिर हमारी कार्यकुशलता बहुत बढ़ गई।
एक बार हमें एक ऐसा काम करना था जो बिल्कुल ही नया था और उसे बहुत ही कम समय में पूरा करना जरूरी था। मैं थोड़ा घबराया हुआ था। नहीं जानता था कि इस बार इसे कर भी पाएंगे या नहीं। मैंने कहा कुछ नहीं, मगर अंदर से चिंतित था। मुझे लगा कि मैं एक बार फिर अपने दैहिक हितों की सोच रहा हूँ, इसलिए मैंने प्रार्थना की : “परमेश्वर, मेरा काम इतना ढीला होता था। मैं अपने काम के प्रति समर्पित नहीं था और मैंने अपने काम की प्रगति रोक दी। अब जबकि हमारे काम को मेरे खून-पसीने की जरूरत है, तो मैं सिर्फ अपने आराम की सोचकर बैठा नहीं रह सकता। मुझे इस काम में कष्ट झेलने और इसे अच्छे से पूरा करने का संकल्प दो।” प्रार्थना के बाद मैं थोड़ा सा सहज हुआ। अपना रवैया सुधारकर मैं ठीक से काम करने के लिए तैयार था। उसके बाद, मैंने दूसरों के साथ वीडियो बनाने के लिए जरूरी गुर सीखे, काम पर चर्चा की और आवंटित समय के हिसाब से निर्माण की समयसीमा तय की। आखिर, हमने वीडियो बना लिया। इन अनुभवों के बारे में दोबारा सोचते हुए, मैंने देखा कि मैं पहले अक्सर बेमन से काम करते हुए धूर्त बन जाता था। इस दौरान मुझे अपने काम में परेशानी उठानी पड़ी, लेकिन मैं सहज था और यह अद्भुत अनुभूति थी। महीने के आखिर में हुई सभा में, हर व्यक्ति ने अपने ताजा अनुभवों और उपलब्धियों के बारे में संगति की। हर एक को लगा कि निपटान के बिना, और परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के बिना, हमें अपनी गलतियाँ और भ्रष्टता नहीं दिखती, और हम चाहे जितनी देर काम करें, हमारे काम में कोई तरक्की नहीं होती। यह हमारे काम और जीवन में हमारे प्रवेश, दोनों के लिए बेहद फायदेमंद है।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?