मैं भार क्यों नहीं उठा रही?
अक्टूबर 2021 में, मैं वीडियो-कार्य की निरीक्षक के तौर पर काम कर रही थी। भाई लियो और बहन क्लेयर मेरे सहयोगी थे। वे दोनों बहुत समय से यह कर्तव्य कर रहे थे और मुझसे ज़्यादा अनुभवी थे, उन्होंने काम की खोज-खबर रखने के साथ बहुत सारा काम सँभाल रखा था। मैंने अभी-अभी काम शुरू ही किया था और काम के ऐसे बहुत से पहलू थे जिन्हें मैं नहीं समझती थी, तो मैं छोटा-मोटा काम सँभालती थी। मुझे लगा जब तक मेरे काम में कोई समस्या नहीं होगी तब तक सब ठीक है, अगर कोई समस्या आई तो दूसरे उसे हल कर देंगे। इस तरह, मेरी चिंता भी कम होगी और जवाबदेह भी नहीं रहूँगी। धीरे-धीरे, मैं कम से कम भार उठाने लगी, इस वजह से बाकी दोनों के काम की समझ और उसमें मेरी भागीदारी कम होती गई। काम पर चर्चा करते समय मैं कोई राय नहीं देती थी, खाली समय में मैं आराम करती हुई धर्मनिरपेक्ष वीडियो देखा करती थी। मुझे लगा कि इस तरह से कर्तव्य करने में कोई बुराई नहीं है।
एक दोपहर को एक अगुआ ने मुझे बताया कि लियो और क्लेयर अपना कर्तव्य निभाने कहीं और जा रहे हैं, अब से मुझे ज़्यादा जिम्मेदारी उठानी होगी, ज़्यादा प्रयास करना होगा और वीडियो का पूरा काम संभालना होगा। अचानक आए इस बदलाव से मुझे झटका लगा। यह कर्तव्य करते मुझे ज़्यादा समय नहीं हुआ था और काम बहुत सारा था, क्या यह बहुत दबाव नहीं था? उनकी ज़िम्मेदारी का जो काम था, वह बहुत ही जटिल था, लगातार ध्यान देने की ज़रूरत होती थी। कौशल में कमी वाले लोगों का मार्गदर्शन करने के लिए सामग्री की तलाश करने की ज़रूरत पड़ती थी। लियो और क्लेयर बेहद कुशल थे, फिर भी बहुत व्यस्त रहते थे। मैंने अभी-अभी शुरुआत की थी, मुझे तो बहुत समय देना होगा। क्या मुझे फिर आराम करने का समय मिलेगा? अगर इस ज़िम्मेदारी का भार न उठा पाने के कारण काम में देरी हुई तो क्या यह अपराध नहीं होगा? तो मैंने सोचा कि इस भार के लिए अगुआ किसी और को ढूंढ़ लें तो बेहतर रहेगा। मुझे चुप देखकर अगुआ ने मुझसे पूछा कि मैं क्या सोच रही हूँ। मैं बोलने में झिझक रही थी और कुछ कहना नहीं चाहती थी। काम पर चर्चा खत्म करने के बाद मैं चली गई। जिन समस्याओं और कठिनाइयों का भार मुझे अकेले उठाना पड़ेगा, उनके बारे में सोच कर दबाव से घुटन महसूस होने लगी जिस कारण आगे के दिन कष्टों से भर गए। चाहे जैसे भी देखती, मुझे नहीं लगता कि मैं इस काम के लायक हूँ। फिर अगुआ ने मुझसे मेरी हालत के बारे में पूछते हुए मुझे मैसेज भेजा, जिसका मैंने तुरंत जवाब दिया : “मैं इस काम का भार उठाने लायक नहीं हूँ। क्या आप मुझसे ज़्यादा उपयुक्त इंसान खोज सकती हैं?” अगुआ ने मुझसे पूछा : “तुम किस आधार पर खुद को अनुपयुक्त मानती हो?” मुझे नहीं पता था कि इस सवाल का क्या जवाब दूँ। मैंने कोशिश तक नहीं की थी, न ही ये जानती थी कि काम के लायक हूँ या नहीं। बस काम के दबाव और शारीरिक मेहनत के बारे में सोचकर ही मैंने मना कर दिया था। यह तो जिम्मेदारी से पीछे हटना और कर्तव्य से इनकार करना था। फिर मैंने सोचा कि मैं रोज़ जिसका भी सामना करती हूँ, वह परमेश्वर की अनुमति से होता है मुझे समर्पण करना चाहिए। तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : “परमेश्वर, मेरे दो सहयोगियों का तबादला किया जा रहा है, सारा काम मुझ पर आ जाएगा। प्रतिरोध महसूस हो रहा है, मैं समर्पण करने के लिए तैयार नहीं हूँ। मुझे पता है कि ये हालत सही नहीं है लेकिन मुझे आपकी इच्छा समझ नहीं आ रही। कृपया मुझे प्रबुद्ध कर मेरा मार्गदर्शन करें, ताकि मैं खुद को समझकर समर्पण कर सकूँ।”
बाद में, एक बहन ने मुझे परमेश्वर के वचन का एक अंश भेजा जो मेरी हालत से जुड़ा था। परमेश्वर कहते हैं : “एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजनाएँ क्या हैं? सबसे पहले, परमेश्वर के वचनों के बारे में कोई संदेह नहीं होना। यह ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजनाओं में से एक है। इसके अलावा, सबसे महत्वपूर्ण अभिव्यंजना है सभी मामलों में सत्य की खोज और उसका अभ्यास करना—यह सबसे महत्वपूर्ण है। तुम कहते हो कि तुम ईमानदार हो, लेकिन तुम हमेशा परमेश्वर के वचनों को अपने मस्तिष्क के कोने में धकेल देते हो और वही करते हो जो तुम चाहते हो। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजना है? तुम कहते हो, ‘भले ही मेरी क्षमता कम है, लेकिन मेरे पास एक ईमानदार दिल है।’ फिर भी, जब तुम्हें कोई कर्तव्य मिलता है, तो तुम इस बात से डरते हो कि अगर तुमने इसे अच्छी तरह से नहीं किया तो तुम्हें पीड़ा सहनी और इसकी जिम्मेदारी लेनी होगी, इसलिये तुम अपने कर्तव्य से बचने के लिये बहाने बनाते हो या फिर सुझाते कि इसे कोई और करे। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजना है? स्पष्ट रूप से, नहीं है। तो फिर, एक ईमानदार व्यक्ति को कैसे व्यवहार करना चाहिए? उसे परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए, जो कर्तव्य उसे निभाना है उसके प्रति समर्पित होना चाहिए और परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करने का प्रयास करना चाहिए। यह कई तरीकों से व्यक्त होता है। एक तरीका है अपने कर्तव्य को ईमानदार हृदय के साथ स्वीकार करना, अपने दैहिक हितों के बारे में न सोचना, और इसके प्रति अधूरे मन का न होना या अपने लाभ के लिये जाल न बिछाना। ये ईमानदारी की अभिव्यंजनाएँ हैं। दूसरा है अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए अपना तन-मन झोंक देना, चीजों को ठीक से करना, और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य में अपना हृदय और प्रेम लगा देना। अपना कर्तव्य निभाते हुए एक ईमानदार व्यक्ति की ये अभिव्यंजनाएँ होनी चाहिए। अगर तुम वह नहीं करते जो तुम जानते और समझते हो, अगर तुम अपने प्रयास का 50-60 प्रतिशत ही देते हो, तो तुम इसमें अपना पूरा दिल और अपनी सारी शक्ति नहीं लगा रहे हो। बल्कि तुम धूर्त और काहिल हो। क्या इस तरह से अपना कर्तव्य निभाने वाले लोग ईमानदार होते हैं? बिल्कुल नहीं। परमेश्वर के पास ऐसे धूर्त और धोखेबाज लोगों का कोई उपयोग नहीं है; उन्हें बाहर कर देना चाहिए। परमेश्वर कर्तव्य निभाने के लिए सिर्फ ईमानदार लोगों का उपयोग करता है। यहाँ तक कि समर्पित सेवाकर्ता भी ईमानदार होने चाहिए। जो लोग हमेशा लापरवाह और अनमने होते हैं, जो हमेशा धूर्त होते हैं और ढिलाई के तरीके तलाशते रहते हैं—वे सभी लोग धोखेबाज हैं, वे सभी राक्षस हैं। उनमें से कोई भी वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास नहीं करता, और वे सभी बाहर निकाल दिए जाएँगे। कुछ लोग सोचते हैं, ‘ईमानदार व्यक्ति होने का मतलब बस सच बोलना और झूठ न बोलना है। ईमानदार व्यक्ति बनना तो वास्तव में आसान है।’ तुम इस भावना के बारे में क्या सोचते हो? क्या ईमानदार व्यक्ति होने का दायरा इतना सीमित है? बिल्कुल नहीं। तुम्हें अपना हृदय प्रकट करना होगा और इसे परमेश्वर को सौंपना होगा, यही वह रवैया है जो एक ईमानदार व्यक्ति में होना चाहिए। इसलिए एक ईमानदार हृदय अनमोल है। इसका तात्पर्य क्या है? इसका तात्पर्य है कि एक ईमानदार हृदय तुम्हारे व्यवहार को नियंत्रित कर सकता है और तुम्हारी मनोदशा बदल सकता है। यह तुम्हें सही विकल्प चुनने, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और उसकी स्वीकृति प्राप्त करने के लिए प्रेरित कर सकता है। ऐसा हृदय सचमुच अनमोल है। यदि तुम्हारे पास इस तरह का ईमानदार हृदय है, तो तुम्हें इसी स्थिति में रहना चाहिए, तुम्हें इसी तरह व्यवहार करना चाहिए, और इसी तरह तुम्हें खुद को समर्पित करना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई। कर्तव्य को सामने देख, ईमानदार लोग अपने कर्तव्यों के जोखिम के बारे में चिंता नहीं करते हैं, कष्टों से डर करके अपने कर्तव्य से दूर तो बिलकुल नहीं भागते न ही उसे ठुकराते हैं, बल्कि, वे कर्तव्य को स्वीकार करके उसमें अपना सब कुछ लगा देते हैं। केवल यही एक ईमानदार रवैया है। फिर मैंने कर्तव्य के प्रति अपने रवैये के बारे में सोचा। अपने सहयोगियों के तबादले के बारे में सुनते ही, मुझे चिंता होने लगी कि मेरा कार्यभार बढ़ जाएगा, परेशानियाँ बढ़ जाएँगी, और दबाव भी बढ़ेगा। अगर काम अच्छी तरह से नहीं हुआ तो इसकी जिम्मेदारी मेरी होगी, तो इससे बचने के लिए खुद के अयोग्य होने का बहाना बनाने लगी। मैं धोखेबाज थी, मुझमें जमीर नहीं था। प्रार्थना के समय मैं हमेशा परमेश्वर के बोझ पर ध्यान देने की प्रतिज्ञा करती थी, लेकिन जब समय आया तो मैंने अपने देह पर ध्यान दिया, किसी भी सत्य का अभ्यास नहीं किया, खोखली बातों से बस परमेश्वर को धोखा दिया। मैंने ईश-इच्छा पर ध्यान दिया होता, तो अगर मैं इस काम के योग्य नहीं थी और कोई दूसरा उपयुक्त व्यक्ति नहीं मिल पा रहा था, तो मुझे अपने कौशल को निखारना चाहिए था और दूसरों के साथ सहयोग करना चाहिए था ताकि वीडियो-कार्य प्रभावित न हो। जमीर और मानवता वाला इंसान यही करता। अगर अंत में मैं सच में काम के योग्य नहीं हूँ और मेरा तबादला या मुझे बर्खास्त किया जाता है, तो मैं परमेश्वर की व्यवस्थाओं को समर्पित हो जाऊँगी। अभ्यास करने का केवल यही तरीका तर्कसंगत है। यह सोचकर मैं थोड़ी शांत हो गई।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचन का एक अंश पढ़ा जिसने मुझे अपने कर्तव्य के प्रति मेरे रवैये की समझ दी। परमेश्वर कहते हैं : “सत्य का अनुसरण न करने वाले सभी लोग अपने कर्तव्य, जिम्मेदारी रहित मानसिकता के साथ निभाते हैं। ‘अगर कोई अगुआई करता है, तो मैं उसका अनुसरण करता हूँ; वह जहाँ ले जाता है, मैं वहीं चला जाता हूँ। वह मुझसे जो भी करवाएगा, मैं करूँगा। जहाँ तक जिम्मेदारी लेने और चिंता करने की बात है, या कुछ करने के लिए ज्यादा परेशानी उठाने की बात है, पूरे तन-मन से कुछ करने की बात है—तो उसके लिए मैं तैयार नहीं हूँ।’ ये लोग कीमत चुकाने को तैयार नहीं हैं। वे सिर्फ परिश्रम करने के लिए तैयार हैं, जिम्मेदारी लेने के लिए नहीं। यह वह रवैया नहीं है, जिसके साथ कोई वास्तव में कर्तव्य निभाता है। व्यक्ति को अपने कर्तव्य के प्रदर्शन में अपना दिल लगाना सीखना चाहिए, और जमीर वाला व्यक्ति इसे कर सकता है। अगर कोई अपने कर्तव्य-प्रदर्शन में कभी अपना दिल नहीं लगाता, तो इसका मतलब है कि उसके पास जमीर नहीं है, और जिसके पास जमीर नहीं है, वह सत्य प्राप्त नहीं कर सकता। मैं क्यों कहता हूँ कि वह सत्य प्राप्त नहीं कर सकता? वह नहीं जानता कि परमेश्वर से प्रार्थना कैसे की जाए और पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता कैसे खोजी जाए, न यह कि परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशीलता कैसे दिखाई जाए, और न यह कि परमेश्वर के वचनों पर विचार करने में अपना दिल कैसे लगाया जाए, न ही वह यह जानता है कि सत्य कैसे खोजा जाए, परमेश्वर की अपेक्षाएँ और उसकी इच्छा समझने का प्रयास कैसे किया जाए। सत्य न खोज पाना यही है। क्या तुम लोग ऐसी अवस्थाओं का अनुभव करते हो, जिनमें चाहे कुछ भी हो जाए, या चाहे तुम जिस भी प्रकार का कर्तव्य निभाओ, तुम अक्सर परमेश्वर के सामने शांत रह पाते हो, और उसके वचनों पर विचार करने, सत्य की खोज करने और इस बात पर विचार करने में अपना दिल लगा पाते हो कि परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप तुम्हें वह कर्तव्य कैसे निभाना चाहिए और वह कर्तव्य संतोषजनक ढंग से निभाने के लिए तुम्हारे पास कौन-से सत्य होने चाहिए? क्या ऐसे कई अवसर होते हैं, जिनमें तुम इस तरह सत्य खोजते हो? (नहीं।) अपना कर्तव्य दिल लगाकर करने और इसकी जिम्मेदारी लेने के लिए तुम्हें पीड़ा सहने और एक कीमत चुकाने की ज़रूरत है—इन चीजों के बारे में बात करना ही काफी नहीं है। यदि तुम अपना कर्तव्य दिल लगाकर नहीं करते, बल्कि हमेशा श्रम करना चाहते हो, तो तुम्हारा कर्तव्य निश्चित ही अच्छी तरह नहीं निभेगा। तुम बस बेमन से काम करते रहोगे, और कुछ नहीं, और तुम्हें पता नहीं चलेगा कि तुमने अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाया है या नहीं। यदि तुम दिल लगाकर काम करोगे, तो तुम धीरे-धीरे सत्य को समझोगे; लेकिन अगर तुम ऐसा नहीं करोगे, तो तुम नहीं समझोगे। जब तुम दिल लगाकर अपना कर्तव्य निभाते हो और सत्य का पालन करते हो, तो तुम धीरे-धीरे परमेश्वर की इच्छा समझने, अपनी भ्रष्टता और कमियों का पता लगाने और अपनी सभी विभिन्न अवस्थाओं में महारत हासिल करने में सक्षम हो जाओगे। जब तुम्हारा ध्यान केवल प्रयास करने पर ही केंद्रित होता है, और तुम अपना दिल आत्मचिंतन करने पर नहीं लगाते, तो तुम अपने दिल की वास्तविक अवस्थाओं और विभिन्न परिवेशों में अपनी असंख्य प्रतिक्रियाओं और भ्रष्टता के प्रकाशनों का पता लगाने में असमर्थ होगे। अगर तुम नहीं जानते कि समस्याएँ अनसुलझी रहने पर क्या परिणाम होंगे, तो तुम बहुत परेशानी में हो। यही कारण है कि भ्रमित तरीके से परमेश्वर में विश्वास करना अच्छा नहीं है। तुम्हें हर समय, हर जगह परमेश्वर के सामने रहना चाहिए; तुम पर जो कुछ भी आ पड़े, तुम्हें हमेशा सत्य की खोज करनी चाहिए, और ऐसा करते हुए तुम्हें आत्मचिंतन करना चाहिए और जानना चाहिए कि तुम्हारी अवस्था में क्या समस्याएँ हैं, और उन्हें हल करने के लिए फौरन सत्य की तलाश करनी चाहिए। केवल इसी तरह तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकते हो और कार्य में देरी करने से बच सकते हो। तुम न सिर्फ अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा पाओगे, बल्कि सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम्हारे पास जीवन-प्रवेश भी होगा और तुम अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान करने में सक्षम होगे। केवल इसी तरह से तुम सत्य-वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हो। अगर तुम अपने हृदय में अक्सर जिन मामलों पर विचार करते हो, वे तुम्हारे कर्तव्य निभाने से संबंधित मामले नहीं है, या ऐसे मामले नहीं है जिनका सत्य से संबंध है, बल्कि तुम देह के मामलों पर अपने विचारों के साथ बाहरी चीजों में उलझे रहते हो, तो क्या तुम सत्य समझने में सक्षम होगे? क्या तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने और परमेश्वर के सामने जीने में सक्षम होगे? हरगिज नहीं। ऐसा व्यक्ति बचाया नहीं जा सकता” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है)। इस तरह के रवैये को उजागर करते हुए परमेश्वर ने जैसे मेरी ही बात की थी। जब से मैंने यह कर्तव्य शुरू किया, तब से कोई जिम्मेदारी नहीं उठाई। मेरे सहयोगियों के पास मुझसे ज़्यादा अनुभव था, तो मैं उनके पीछे कहीं खो गई, मैंने सोचा कि जब तक मेरा काम सही से हो रहा है तब तक सब ठीक है। ऐसा करती रही तो मुझे सम्मान भी मिलेगा और ज़्यादा थकूँगी भी नहीं, तो मैंने बस अपने काम पर ध्यान लगाया उन दोनों के काम के बारे में कभी नहीं सोचा, न ही उनके काम में आई समस्याओं या कठिनाइयों को गंभीरता से लिया। जब अगुआ ने पूछा कि हमारे समूह का काम प्रभावी क्यों नहीं है, तो मेरे पास कोई जवाब नहीं था। अविश्वासियों का अपने काम के प्रति यही रवैया होता है। अपने कर्तव्य में परमेश्वर की इच्छा पर कहाँ ध्यान दे रही थी? काम में समस्याएं आने पर मैं सत्य की तलाश नहीं करती थी या भटकावों का सार नहीं निकालती थी, न ही मैं दक्षता बढ़ाने पर विचार करती थी। मुझे लगता था कि जब तक मेरे सहकर्मी उसे सँभाल लेंगे, मैं थोड़ा आराम कर सकती हूँ। जब भी समय मिलता, मैं देह की इच्छाओं को पूरा करती या धर्मनिरपेक्ष वीडियो देखती। मेरी ऐयाशी बढ़ती गई और मैं परमेश्वर से दूर चली गई। मैंने देखा कि मैंने कर्तव्य में मेहनत नहीं की। उसे सिर्फ एक आम नौकरी जैसा समझा। इस तरह मैं कर्तव्य अच्छी तरह से कैसे निभा सकती थी? आखिरकार मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर की व्यवस्थाओं ने मेरे “पीछे हटने” की समस्या दूर की अभ्यास करने का, परवाह महसूस करना सीखने का, सक्रिय रूप से जिम्मेदारी उठाने का, कठिनाइयों में परमेश्वर पर भरोसा कर सत्य सिद्धांतों की तलाश करने का मौका दिया। और तो और मुझे यह पहचानने की अनुमति दी कि कर्तव्य के प्रति मेरा सुस्त और गैर-जिम्मेदाराना रवैया परमेश्वर की घृणा का कारण बन रहा है। काम का दबाव अब मुझे अपने कर्तव्य में अधिक मेहनती होने के लिए प्रेरित करेगा, और अपने कर्तव्य को ठीक से करने में मदद करेगा। परमेश्वर की इच्छा समझने के बाद, मैं इन परिस्थितियों के सामने समर्पण के लिए तैयार थी। अगले कुछ दिनों में, मैंने पूरा ध्यान लगाकर काम में ज़्यादा मेहनत की। वीडियो-कार्य में समस्याएँ खोजने के बाद, मैंने उन्हें नोट किया और उन्हें हल करने की कोशिश की। जल्द से जल्द काम संभालने का प्रयास करने के लिए मैंने एक योजना बनाई। जब मैंने अपनी हालत संभाल ली, तब मेरे पास काम के लिए अधिक समय होने लगा, जिससे मेरे दिन शांति से बीतने लगे।
बाद में, दूसरी बहन को मेरा सहयोगी बनाया गया। शुरुआत में मैं अधिक जिम्मेदार होने के प्रति सचेत थी, लेकिन कुछ समय बाद, मैंने देखा कि वह बहुत कुशल थी और उसके पास मुझसे ज़्यादा पेशेवर ज्ञान था, तो मैंने उसे कुछ कार्य सौंप दिए फिर आगे मैंने उन कार्यों से कोई वास्ता न रखा। अपनी प्रतिष्ठा के लिए, कभी-कभी मैं चर्चाओं में भाग लेती लेकिन सुझाव देने से बचती थी, सोचती कि : “तुम चीजों को संभाल सकती हो, तो मुझे चिंता करने की जरूरत नहीं, मैं थोड़ी देर आराम से काम कर सकती हूँ।” अगुआ ने मुझे काम के लिए अधिक परवाह दिखाने के लिए कहा, मैंने कुछ दिनों तक उनकी बात पर अमल किया लेकिन धीरे-धीरे पुराने ढर्रे पर लौट आई। कभी-कभी, भाई-बहन हमें काम में आई मुश्किल समस्याओं के बारे में मैसेज भेजते थे जिन्हें तुरंत हल करना होता था, लेकिन जैसे ही देखती कि वह काम मुख्य रूप से मेरी बहन देख रही है तो मैं उस पर ज़्यादा ध्यान न देती। जानबूझकर ऐसा दिखाती थी कि मैंने मैसेज न तो देखा है और न ही पढ़ा है, सोचती कि बहन संभाल लेगी। हालांकि मुझे लगा कि यह गैर जिम्मेदाराना है, लेकिन काम को सामान्य गति से आगे बढ़ता देख, मैं उस पर ज़्यादा नहीं सोचती थी। कुछ महीनों बाद, हमें वीडियो-कार्य के अलग-अलग हिस्सों की जिम्मेदारी मिली। इस बार मेरे पास कोई सहायक नहीं था और मुझे पता था कि कई कठिनाइयों और समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। लेकिन जब मैंने कर्तव्य में जिम्मेदारी की कमी के बारे में सोचा, और यह कि कैसे यह मेरे लिए अच्छा हो सकता है, तब मैंने खुद से कहा कि मुझे समर्पण करना चाहिए। लेकिन जब मैंने असल में शुरुआत की तो मैंने देखा कि अचानक मुझे बहुत सारे कामों पर नज़र रखनी थी, लगता कि मुझे रोजाना अनगिनत चीजों को संभालना है। ऊपर से मेरे पेशेवर कौशल उतने अच्छे नहीं थे, जिस कारण एक के बाद एक अनेक समस्याएँ आती ही रहीं। हमारी हर वीडियो में बेहतरी के लिए सुझाव मिलते और मुझे हर एक का जवाब देने के लिए विचार करना पड़ता था। धीरे-धीरे, मेरा थोड़ा-बहुत उत्साह भी ख़त्म हो गया, मैं अक्सर सोचती, “इतनी कोशिश करने पर भी इतनी सारी समस्याएँ हैं, अच्छा होगा कि अगुआ किसी अधिक उपयुक्त व्यक्ति को यह काम सौंप दें।” कुछ ही समय बाद, हमारे कई वीडियो फिर से बनाने के लिए वापस भेज दिए गए, जिससे मैं और भी निराश हो गई। सामने आई मुश्किल समस्याओं को हल करने की इच्छा नहीं रही, उन दिनों को याद करने लगी जब कर्तव्य पूरा करने के लिए मेरे साथ सहयोगी हुआ करते थे, उन दिनों में खुशी से उनके पीछे छिप जाती थी, इतना दबाव तो नहीं उठाना पड़ता था। कर्तव्य करने की इच्छा ख़त्म हो गई, एक कदम चलना भी भारी मालूम देता। तब मुझे एहसास हुआ कि मैं इस हालत में अपना कर्तव्य नहीं निभा सकती, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की। खोज करते हुए मुझे अचानक नूह की याद आ गई। जहाज का निर्माण करते समय उसे कई कठिनाइयों और विफलताओं का सामना करना पड़ा था, लेकिन उसने कभी हार नहीं मानी, और 120 साल तक मेहनत करता रहा, अंत में जहाज बनाकर परमेश्वर के आदेश को पूरा किया। जबकि मैं थोड़ी सी कठिनाई होते ही अपने भार को छोड़ कर दूर भाग जाना चाहती थी। क्या यह कायरता नहीं है? यह सोचकर मैंने खुद को थोड़ा सँभाला, फिर मैं काम की समस्याओं का ठीक से सामना कर पाई।
भक्ति-कार्य के दौरान, मैंने ईश-वचन के इस अंश को पढ़ा : “सभी नकली अगुआ कभी व्यावहारिक कार्य नहीं करते, और वे ऐसे व्यवहार करते हैं जैसे उनकी अगुआई की भूमिका कोई आधिकारिक पद हो, और वे अपनी हैसियत के लाभों का पूरी तरह से आनंद लेते हैं। किसी अगुआ द्वारा कर्तव्य-पालन और कार्य-निष्पादन को ऐसे लोग एक बाधा और झंझट समझते हैं। उनके दिल में कलीसिया के कार्य के प्रति अवज्ञा का भाव होता है : अगर उनसे कार्य पर नजर रखने या उसमें आ रही समस्याओं का पता लगाने और फिर उसका अनुसरण कर उसे हल करने को कहा जाए, तो ऐसा करने की उनकी जरा भी इच्छा नहीं होती। अगुआओं और कर्मियों का यही तो काम होता है, यह उनका कार्य है। यदि तुम ऐसा नहीं करते—यदि तुम इसे करने के इच्छुक नहीं हो—तो फिर तुम अगुआ या कर्मी क्यों बनना चाहते हो? तुम अपने कर्तव्य का पालन परमेश्वर की इच्छा के प्रति सचेत रहने के लिए करते हो या एक पदाधिकारी बनने और हैसियत के साज-सामान का आनंद लेने के लिए करते हो? अगर तुम सिर्फ किसी आधिकारिक पद पर बैठने की इच्छा रखते हो, तो क्या अगुआ बनना बेशर्मी नहीं है? इससे ज्यादा गिरा हुआ चरित्र नहीं हो सकता—इन लोगों में स्वाभिमान नाम की कोई चीज नहीं होती, ये लोग बेशर्म होते हैं। अगर तुम दैहिक सुख का आनंद लेना चाहते हो, तो जल्दी से वापस संसार में जाओ और उसके लिए प्रयास करो, अपनी क्षमता के अनुसार उसे पकड़ो और छीन लो। कोई दखल नहीं देगा। परमेश्वर का घर परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए अपने कर्तव्य निभाने और उसकी आराधना करने का स्थान है; यह लोगों के लिए सत्य का अनुसरण करने और बचाए जाने का स्थान है। यह किसी के लिए दैहिक सुख का आनंद लेने का स्थान नहीं है, लोगों को दुलारने वाली जगह तो बिल्कुल भी नहीं है। ... कुछ लोग चाहे जो भी काम करें या कोई भी कर्तव्य निभाएँ, वे उसमें सफल नहीं हो पाते, यह उनके लिए बहुत अधिक होता है, वे किसी भी उस दायित्व या जिम्मेदारी को निभाने में असमर्थ होते हैं, जो लोगों को निभानी चाहिए। क्या वे कचरा नहीं हैं? क्या वे अभी भी इंसान कहलाने लायक हैं? कमअक्ल लोगों, मानसिक रूप से विकलांगों और जो शारीरिक अक्षमताओं से ग्रस्त हैं, उन्हें छोड़कर, क्या कोई ऐसा जीवित व्यक्ति है जिसे अपने कर्तव्यों का पालन और अपनी जिम्मेदारियों को पूरा नहीं करना चाहिए? लेकिन इस तरह के लोग धूर्त होते हैं और हमेशा बेईमानी करते हैं, और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं करना चाहते; निहितार्थ यह है कि वे एक सही व्यक्ति की तरह आचरण नहीं करना चाहते। परमेश्वर ने उन्हें क्षमता और गुण दिए, उसने उन्हें इंसान बनने का अवसर दिया, लेकिन वे अपने कर्तव्य-पालन में इनका इस्तेमाल नहीं कर पाते। वे कुछ नहीं करते, लेकिन हर चीज का आनंद लेना चाहते हैं। क्या ऐसा व्यक्ति मनुष्य कहलाने लायक भी है? उन्हें कोई भी काम दे दिया जाए—चाहे वह महत्वपूर्ण हो या सामान्य, कठिन हो या सरल—वे हमेशा लापरवाह और अनमने, आलसी और धूर्त बने रहते हैं। समस्याएँ आने पर अपनी जिम्मेदारी दूसरों पर थोपने की कोशिश करते हैं; वे कोई जिम्मेदारी नहीं लेते, अपना परजीवी जीवन जीते रहना चाहते हैं। क्या वे बेकार कचरा नहीं हैं? समाज में कौन व्यक्ति होगा जो जीने के लिए खुद पर निर्भर न होगा? व्यक्ति जब बड़ा हो जाता है, तो उसे अपना भरण-पोषण खुद करना चाहिए। उसके माता-पिता ने अपनी जिम्मेदारी निभा दी है। भले ही उसके माता-पिता उसकी मदद करने के लिए तैयार हों, वह इससे असहज होगा, और उसे यह पहचानने में सक्षम होना चाहिए, ‘मेरे माता-पिता ने बच्चे पालने का अपन काम पूरा कर दिया है। मैं वयस्क और हृष्ट-पुष्ट हूँ—मुझे स्वतंत्र रूप से जीने में सक्षम होना चाहिए।’ क्या एक वयस्क में इतनी न्यूनतम समझ नहीं होनी चाहिए? अगर व्यक्ति में वास्तव में समझ है, तो वह अपने माता-पिता के टुकड़ों पर पलता नहीं रह सकता; वह दूसरों की हँसी का पात्र बनने से, शर्मिंदा होने से डरेगा। तो क्या किसी बेकार आवारा में कोई समझ होती है? (नहीं।) वे बिना कुछ काम किए हासिल करना चाहते हैं, कभी जिम्मेदारी नहीं लेना चाहते, मुफ्त के भोजन की फिराक में रहते हैं, उन्हें दिन में तीन बार अच्छा भोजन चाहिए होता है—वे चाहते हैं कि कोई उनके लिए पलकें बिछाए रहे और भोजन भी स्वादिष्ट हो—और यह सब बिना कोई काम किए मिल जाए। क्या यह एक परजीवी की मानसिकता नहीं है? क्या परजीवियों में विवेक और समझ होती है? क्या उनमें गरिमा और निष्ठा होती है? बिल्कुल नहीं; वे सभी मुफ्तखोर निकम्मे होते हैं, जमीर या विवेक से रहित जानवर। उनमें से कोई भी परमेश्वर के घर में बने रहने के योग्य नहीं है” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (8))। इन वचनों ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया : काम में समस्याओं पर नजर रखना, उन्हें समझना और हल करने के लिए सत्य की तलाश करना एक अगुआ और कार्यकर्ता का काम है, लेकिन झूठे अगुआ इसे बोझ समझते हैं। इससे पता चलता है कि वे यहां कर्तव्य निभाने के लिए नहीं बल्कि अधिकारी होने का आनंद लेने के लिए हैं। मैंने देखा कि मेरा व्यवहार भी ऐसा ही था। मुझे काम में आई समस्याओं और कठिनाइयों की जिम्मेदारी लेनी चाहिए थी, उनका समाधान करना चाहिए था, इस अवसर का उपयोग कर सत्य खोजना और अपनी कमियों को पूरा करना चाहिए था, जिससे मैं तेजी से प्रगति कर पाती। लेकिन मैं कर्तव्य को अस्वीकार करना चाहती थी क्योंकि उसमें काफी कठिनाइयां थीं। एक निरीक्षक होकर, मैंने कोई वास्तविक काम नहीं किया, न ही वास्तविक समस्याएँ हल कीं। यह ओहदे की लालसा ही थी ना? अपने व्यवहार के बारे में सोचती हूँ, तो ऐसा लगता है कि सहयोगियों के होने पर मैं काम करती थी, लेकिन काम वास्तव में हममें से कई लोगों में बंटा हुआ था और मुझ पर बहुत ज्यादा जिम्मेदारी नहीं थी। मेरा कर्तव्य आसान था, इसलिए असल में मैं बड़ी आसानी से काम कर रही थी। जब मेरे दोनों सहयोगियों का तबादला हो गया, काम का दबाव बढ़ गया, काम का भार उठाने के लिए मुझे पीड़ा झेलनी थी, इसलिए मैं प्रतिरोधी बन गई, परमेश्वर को धोखा देना और कर्तव्य से भागना भी चाहा बाद में, मैंने परमेश्वर के वचन खा-पीकर अपनी स्थिति में सुधार तो किया, लेकिन जैसे ही मुझसे अधिक अनुभव वाली बहन मेरी सहयोगी बनी, मैंने फिर से कम जिम्मेदारी लेना शुरू कर दिया, अपने कर्तव्य को इत्मीनान से निभाने लगी, चिंता से दूर रहने लगी। जब मुझे वीडियो-कार्य के लिए अकेले जिम्मेदार बनाया गया और कठिनाइयां बढ़ने लगी, तो मैं फिर से भाग जाना चाहती थी। मैंने देखा कि कर्तव्य के प्रति मेरा रवैया विश्वासघात का था, शारीरिक कठिनाई या जिम्मेदारी का नाम सुनते ही मैं भागने के लिए तैयार थी। मैं हमेशा आसान और तनाव मुक्त काम करना चाहती थी, लेकिन सच यह है कि हर काम में कुछ कठिनाइयाँ होती हैं, अपने भ्रष्ट स्वभाव को ठीक नहीं किया तो मैं किसी भी कर्तव्य को ठीक से नहीं कर पाऊँगी। मेरी प्रकृति सत्य से चिढ़ने की थी और मुझे सकारात्मक चीजें पसंद नहीं थीं। मैं वहां एक कर्तव्य पूरा करने के लिए नहीं थी, बल्कि आशीष का आनंद लेने के लिए थी। इस तरह के विश्वास से अंत में कुछ भी हाथ नहीं लगता! मैंने परमेश्वर के वचन में पढ़ा : “वे बिना कुछ काम किए हासिल करना चाहते हैं, कभी जिम्मेदारी नहीं लेना चाहते, मुफ्त के भोजन की फिराक में रहते हैं, उन्हें दिन में तीन बार अच्छा भोजन चाहिए होता है—वे चाहते हैं कि कोई उनके लिए पलकें बिछाए रहे और भोजन भी स्वादिष्ट हो—और यह सब बिना कोई काम किए मिल जाए। क्या यह एक परजीवी की मानसिकता नहीं है?” मैं वही इंसान थी जिसकी बात परमेश्वर कर रहे थे, बुवाई न करके मैं बस फसल काटना चाहती थी, दूसरों के श्रम के फल का आनंद लेना चाहती थी। तो क्या मैं नीच नहीं हूँ? जितना ज़्यादा सोचा, उतनी ही खुद से घृणा हुई। पहले, मुझे मुफ़्त का खाने वालों से नफ़रत थी, जो अपने माता-पिता पर निर्भर रहते हैं, वयस्क होने पर भी घर नहीं छोड़ते, अपने माता-पिता का फायदा उठाते हैं, जो कोई जिम्मेदारी नहीं लेते। वे नाकारा इंसान होते हैं। लेकिन मेरा अभी का व्यवहार उनसे अलग कैसे था? खुद को फटकारते हुए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : “हे परमेश्वर, मैं आखिरकार देख पा रही हूँ कि मैं सच में स्वार्थी हूँ, कर्तव्य में ईमानदार नहीं हूँ। मैंने केवल अपने देह के बारे में सोचा और एक परजीवी बनना चाहा। इन भ्रष्ट विचारों से वाकई मुझे बहुत डर लगता है। कलीसिया में इतना काम है जिसमें तत्काल सहयोग की आवश्यकता है, लेकिन मैं प्रगति करने या कोई बोझ उठाने की कोशिश नहीं कर रही। मैं नाकारा हूँ।”
मैंने काफी विचार किया। ऐसा क्यों था कि जब भी मेरे काम में दबाव और कठिनाइयां बढ़ जातीं, मैं कर्तव्य से इनकार करके दूर भागना चाहती थी? इसका मूल कारण क्या था? अपनी खोज में, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “आज, तुम मेरी बातों पर विश्वास नहीं करते, और उन पर ध्यान नहीं देते; जब इस कार्य को फैलाने का दिन आएगा, और तुम उसकी संपूर्णता को देखोगे, तब तुम्हें अफसोस होगा, और उस समय तुम भौंचक्के रह जाओगे। आशीषें हैं, फिर भी तुम्हें उनका आनंद लेना नहीं आता, सत्य है, फिर भी तुम्हें उसका अनुसरण करना नहीं आता। क्या तुम अपने-आप पर अवमानना का दोष नहीं लाते? आज, यद्यपि परमेश्वर के कार्य का अगला कदम अभी शुरू होना बाकी है, फिर भी तुमसे जो कुछ अपेक्षित है और तुम्हें जिन्हें जीने के लिए कहा जाता है, उनमें कुछ भी असाधारण नहीं है। इतना सारा कार्य है, इतने सारे सत्य हैं; क्या वे इस योग्य नहीं हैं कि तुम उन्हें जानो? क्या परमेश्वर की ताड़ना और न्याय तुम्हारी आत्मा को जागृत करने में असमर्थ हैं? क्या परमेश्वर की ताड़ना और न्याय तुममें खुद के प्रति नफरत पैदा करने में असमर्थ हैं? क्या तुम शैतान के प्रभाव में जी कर, और शांति, आनंद और थोड़े-बहुत दैहिक सुख के साथ जीवन बिताकर संतुष्ट हो? क्या तुम सभी लोगों में सबसे अधिक निम्न नहीं हो? उनसे ज्यादा मूर्ख और कोई नहीं है जिन्होंने उद्धार को देखा तो है लेकिन उसे प्राप्त करने का प्रयास नहीं करते; वे ऐसे लोग हैं जो पूरी तरह से देह-सुख में लिप्त होकर शैतान का आनंद लेते हैं। तुम्हें लगता है कि परमेश्वर में अपनी आस्था के लिए तुम्हें चुनौतियों और क्लेशों या कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ेगा। तुम हमेशा निरर्थक चीजों के पीछे भागते हो, और तुम जीवन के विकास को कोई अहमियत नहीं देते, बल्कि तुम अपने फिजूल के विचारों को सत्य से ज्यादा महत्व देते हो। तुम कितने निकम्मे हो! तुम सूअर की तरह जीते हो—तुममें और सूअर और कुत्ते में क्या अंतर है? जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, बल्कि शरीर से प्यार करते हैं, क्या वे सब पूरे जानवर नहीं हैं? क्या वे मरे हुए लोग जिनमें आत्मा नहीं है, चलती-फिरती लाशें नहीं हैं? तुम लोगों के बीच कितने सारे वचन कहे गए हैं? क्या तुम लोगों के बीच केवल थोड़ा-सा ही कार्य किया गया है? मैंने तुम लोगों के बीच कितनी आपूर्ति की है? तो फिर तुमने इसे प्राप्त क्यों नहीं किया? तुम्हें किस बात की शिकायत है? क्या यह बात नहीं है कि तुमने इसलिए कुछ भी प्राप्त नहीं किया है क्योंकि तुम देह से बहुत अधिक प्रेम करते हो? क्योंकि तुम्हारे विचार बहुत ज्यादा निरर्थक हैं? क्योंकि तुम बहुत ज्यादा मूर्ख हो? यदि तुम इन आशीषों को प्राप्त करने में असमर्थ हो, तो क्या तुम परमेश्वर को दोष दोगे कि उसने तुम्हें नहीं बचाया? तुम परमेश्वर में विश्वास करने के बाद शांति प्राप्त करना चाहते हो—ताकि अपनी संतान को बीमारी से दूर रख सको, अपने पति के लिए एक अच्छी नौकरी पा सको, अपने बेटे के लिए एक अच्छी पत्नी और अपनी बेटी के लिए एक अच्छा पति पा सको, अपने बैल और घोड़े से जमीन की अच्छी जुताई कर पाने की क्षमता और अपनी फसलों के लिए साल भर अच्छा मौसम पा सको। तुम यही सब पाने की कामना करते हो। तुम्हारा लक्ष्य केवल सुखी जीवन बिताना है, तुम्हारे परिवार में कोई दुर्घटना न हो, आँधी-तूफान तुम्हारे पास से होकर गुजर जाएँ, धूल-मिट्टी तुम्हारे चेहरे को छू भी न पाए, तुम्हारे परिवार की फसलें बाढ़ में न बह जाएं, तुम किसी भी विपत्ति से प्रभावित न हो सको, तुम परमेश्वर के आलिंगन में रहो, एक आरामदायक घरौंदे में रहो। तुम जैसा डरपोक इंसान, जो हमेशा दैहिक सुख के पीछे भागता है—क्या तुम्हारे अंदर एक दिल है, क्या तुम्हारे अंदर एक आत्मा है? क्या तुम एक पशु नहीं हो? मैं बदले में बिना कुछ मांगे तुम्हें एक सत्य मार्ग देता हूँ, फिर भी तुम उसका अनुसरण नहीं करते। क्या तुम उनमें से एक हो जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं? मैं तुम्हें एक सच्चा मानवीय जीवन देता हूँ, फिर भी तुम अनुसरण नहीं करते। क्या तुम कुत्ते और सूअर से भिन्न नहीं हो? सूअर मनुष्य के जीवन की कामना नहीं करते, वे शुद्ध होने का प्रयास नहीं करते, और वे नहीं समझते कि जीवन क्या है। प्रतिदिन, उनका काम बस पेट भर खाना और सोना है। मैंने तुम्हें सच्चा मार्ग दिया है, फिर भी तुमने उसे प्राप्त नहीं किया है : तुम्हारे हाथ खाली हैं। क्या तुम इस जीवन में एक सूअर का जीवन जीते रहना चाहते हो? ऐसे लोगों के जिंदा रहने का क्या अर्थ है? तुम्हारा जीवन घृणित और ग्लानिपूर्ण है, तुम गंदगी और व्यभिचार में जीते हो और किसी लक्ष्य को पाने का प्रयास नहीं करते हो; क्या तुम्हारा जीवन अत्यंत निकृष्ट नहीं है? क्या तुम परमेश्वर की ओर देखने का साहस कर सकते हो? यदि तुम इसी तरह अनुभव करते रहे, तो क्या केवल शून्य ही तुम्हारे हाथ नहीं लगेगा? तुम्हें एक सच्चा मार्ग दे दिया गया है, किंतु अंततः तुम उसे प्राप्त कर पाओगे या नहीं, यह तुम्हारी व्यक्तिगत खोज पर निर्भर करता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। परमेश्वर के कठोर वचनों से, मैंने महसूस किया कि परमेश्वर उन लोगों से अत्यंत घृणा करते और चिढ़ते हैं जो आराम की लालसा रखते हैं, उनके लिए, वे बस जानवर हैं। वे लोफर हैं जो प्रगति के लिए काम करने का प्रयास नहीं करते, जो आलस पसंद करते हैं, अंत में, वे कर्तव्य ठीक से नहीं कर पाते, न सत्य हासिल कर पाते हैं। वे नाकारा होते हैं। मैं ऐसी ही थी। मैं चाहती थी कि कर्तव्य आसानी से हो जाए, मेरे पास कर्तव्य है और मुझे कर्तव्य से निकाला या बर्खास्त नहीं किया जा रहा, तो परेशानी की कोई बात नहीं। लेकिन जैसे ही ऐसी कठिनाइयाँ सामने आतीं, जिनके लिए मुझे कष्ट सहने और कीमत चुकाने की आवश्यकता होती, तो मैं पीछे हट जाती थी। सिर्फ उस काम को चुनना चाहती थी जो आसान और सरल था, मैंने अपने “जब तक जियो मौज करो” और “खुद को मज़े लेने दो” जैसे जीवन सिद्धांत बरकरार रखे। इन विचारों और दृष्टिकोणों के हावी होने के कारण मुझे हमेशा आराम की लालसा रहती, मेरी ज़िम्मेदारी के काम अगर बढ़ जाते तो मुझे चिढ़ होती, सोचती कि मेरे आराम का समय कम हो जाएगा। जब मुझे कुछ और कौशल सीखने की जरूरत थी, तो मैंने उसके लिए कोई कीमत नहीं चुकाई। नतीजतन कुछ समय बाद भी मेरे कौशल में ज़्यादा प्रगति नहीं हुई और मैं काम संभाल नहीं पाई। मैंने कभी-कभी अपने कर्तव्यों की उपेक्षा तक की, कौशल सीखने के बहाने धर्मनिरपेक्ष वीडियो देखे, इससे मेरी आत्मा में अन्धकार बढ़ता जा रहा था। निरीक्षक के नाते, काम में समस्याएं देखकर, मुझे सक्रिय रूप से उनकी खोज-खबर लेकर उन्हें हल करना चाहिए था, लेकिन जैसे ही समस्याएं थोड़ी मुश्किल लगने लगीं, कुछ तिकड़म चलाकर मैंने उन्हें अनदेखा कर दिया, जिससे कार्य में देरी हो गई। इससे अधिक गंभीर थी मेरी यह इच्छा कि मैं किसी और को अपनी जगह बैठा दूँ जिससे मुझ पर दबाव कम हो। मुझे पता था कि वीडियो बनाना जरूरी था, फिर भी मैं अपनी देह को संतुष्ट करती रही, बिना कोई जिम्मेदारी लिए हर महत्वपूर्ण क्षण में भाग जाती थी। मैं बिल्कुल उस बच्चे की तरह थी जिसे माता-पिता बड़ा करते हैं, लेकिन परिवार के लिए बलिदान देने के समय पर, वह पीड़ा से डर कर जिम्मेदारी से भाग जाता है। ऐसे व्यक्ति का जमीर नहीं होता, वह कृतघ्न और नीच होता है। मेरा व्यवहार भी बिलकुल वैसा ही था। परमेश्वर मुझे यहाँ तक लाए थे, मुझपर अनुग्रह करते हुए इतना महत्वपूर्ण कर्तव्य करने की अनुमति दी थी, फिर भी पीड़ा से डरकर, मैं केवल अपने देह पर ध्यान देती थी। मुझमें जमीर नाम की चीज नहीं थी! मैं हमेशा कर्तव्य की कठिनाइयों का दुखड़ा रोती थी, अपनी भौतिक सुख-सुविधाओं से दूर नहीं होना चाहती थी। न केवल मैं सत्य पाने का मौका खो रही थी बल्कि अपने कर्तव्य को भी ख़राब कर रही थी, पीछे मुड़ कर देखने पर केवल अपराध ही नज़र आते हैं। यह निश्चित था कि परमेश्वर मुझे अस्वीकार कर बहिष्कृत कर देंगे!
मैंने अभ्यास का रास्ता खोजना शुरू किया। मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “मान लो, कलीसिया तुम्हें कोई काम करने के लिए देता है, और तुम कहते हो, ‘यह काम दूसरों से अलग दिखने का मौका हो या नहीं—चूँकि यह मुझे दिया गया है, इसलिए मैं इसे अच्छी तरह से करूँगा। मैं यह जिम्मेदारी उठाऊँगा। अगर मुझे स्वागत-कार्य सौंपा जाता है, तो मैं लोगों का अच्छी तरह से स्वागत करने में अपना सब-कुछ लगा दूँगा; मैं भाई-बहनों की अच्छी तरह देखभाल करूँगा और सबकी सुरक्षा बनाए रखने का भरसक प्रयास करूँगा। अगर मुझे सुसमाचार फैलाने का काम सौंपा जाता है, तो मैं खुद को सत्य से लैस करूँगा और प्रेमपूर्वक सुसमाचार फैलाऊँगा और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाऊँगा। अगर मुझे कोई विदेशी भाषा सीखने का काम सौंपा जाता है, तो मैं लगन से उसका अध्ययन करूँगा और उस पर कड़ी मेहनत करूँगा, और जितनी जल्दी हो सके, एक-दो साल के भीतर उसे सीख लूँगा, ताकि मैं विदेशियों को परमेश्वर की गवाही दे सकूँ। अगर मुझे गवाही के लेख लिखने का काम सौंपा जाता है, तो मैं वैसा करने के लिए खुद को कर्तव्यनिष्ठ ढंग से प्रशिक्षित करूँगा और सत्य सिद्धांतों के अनुसार चीजें देखूँगा; मैं भाषा के बारे में सीखूँगा, और भले ही मैं सुंदर गद्य वाले लेख लिखने में सक्षम न हो पाऊँ, मैं कम से कम अपनी अनुभवात्मक गवाही स्पष्ट रूप से संप्रेषित कर पाऊँगा, सत्य के बारे में सुगम तरीके से संगति कर सकूँगा और परमेश्वर के लिए सच्ची गवाही दे सकूँगा, ताकि जब लोग मेरे लेख पढ़ें, तो वे शिक्षित और लाभान्वित हों। कलीसिया मुझे जो भी काम सौंपेगी, मैं उसे पूरे दिल और ताकत से करूँगा। अगर कुछ ऐसा हुआ जो मुझे समझ न आए, या अगर कोई समस्या सामने आई, तो मैं परमेश्वर से प्रार्थना करूँगा, सत्य की तलाश करूँगा, सत्य सिद्धांतों के अनुसार समस्याओं का समाधान करूँगा, और काम अच्छे से करूँगा। मेरा जो भी कर्तव्य हो, मैं उसे अच्छी तरह से निभाने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना सब-कुछ इस्तेमाल करूँगा। मैं जो कुछ भी हासिल कर सकता हूँ, उसके लिए मैं अपनी जिम्मेदारी निभाने की पूरी कोशिश करूँगा, और कम से कम, मैं अपने जमीर और विवेक के खिलाफ नहीं जाऊँगा, न लापरवाह और अनमना बनूँगा, न कपटी और कामचोर बनूँगा, न ही दूसरों के श्रम-फल का आनंद उठाऊँगा। मैं जो कुछ भी करूँगा, वह अंतःकरण के मानकों से नीचे नहीं होगा।’ यह मानवीय व्यवहार का न्यूनतम मानक है, और जो अपना कर्तव्य इस तरह निभाता है, वह एक कर्तव्यनिष्ठ, समझदार व्यक्ति कहलाने योग्य हो सकता है। अपना कर्तव्य निभाने में कम से कम तुम्हारा अंतःकरण साफ होना चाहिए, और तुम्हें कम से कम यह महसूस करना चाहिए कि तुम रोजाना अपना तीन वक्त का भोजन कमाकर खाते हो, मांगकर नहीं। इसे दायित्व-बोध कहते हैं। चाहे तुम्हारी क्षमता ज्यादा हो या कम, और चाहे तुम सत्य समझते हो या नहीं, तुम्हारा यह रवैया होना चाहिए : ‘चूँकि यह काम मुझे करने के लिए दिया गया था, इसलिए मुझे इसे गंभीरता से लेना चाहिए; मुझे इससे सरोकार रखकर अपने पूरे दिल और ताकत से इसे अच्छी तरह से करना चाहिए। रही यह बात कि मैं इसे पूर्णतया अच्छी तरह से कर सकता हूँ या नहीं, तो मैं कोई गारंटी देने की कल्पना तो नहीं कर सकता, लेकिन मेरा रवैया यह है कि मैं यह सुनिश्चित करने की पूरी कोशिश करूँगा कि यह अच्छी तरह से हो, और मैं निश्चित रूप से इसके बारे में लापरवाह और अनमना नहीं रहूँगा। अगर काम में कोई समस्या आती है, तो मुझे जिम्मेदारी लेनी चाहिए, और सुनिश्चित करना चाहिए कि मैं इससे सबक सीखूँ और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाऊँ।’ यह सही रवैया है। क्या तुम लोगों का रवैया ऐसा है?” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (8))। इन वचनों ने मुझे प्रेरित किया। चूंकि कलीसिया ने मुझे इस काम का प्रभारी बनाया था, मुझे उन सभी जिम्मेदारियों को उठाना था जो एक वयस्क उठाने में सक्षम है। इससे फर्क नहीं पड़ता कि मेरी क्षमता कितनी है, मैं काम के कितने योग्य हूँ, कर्तव्य निभाने में मुझे कितनी कठिनाइयां आती हैं, मैं पीछे नहीं हट सकती, मुझे आगे बढ़ते रहना होगा और इस काम में अपना सब कुछ लगा देना होगा। बाद में, जब भी हम एक वीडियो बनाना समाप्त करते थे और दूसरों के सुझाव मिलते थे, तब अगर कोई अनजान या ऐसी समस्या आ जाती जिसे संभलने का तरीक़ा मुझे नहीं पता होता था, तो मैं हमेशा सक्रिय रूप से उसे हल करने के लिए एक रास्ता ढूँढती थी या अनुभवी लोगों को खोज कर उनसे परामर्श लेती थी। धीरे-धीरे, मैं इन कौशल से अधिक परिचित हो गई और सिद्धांत स्पष्ट हो गए। पहले, जब भी कोई मुश्किल समस्या होती थी, मैं आदतन उसे संभालने के लिए अपने किसी सहयोगी को दे देती थी, समूह चैट में मैसेज का तुरंत जवाब नहीं देती थी, काम में देरी करती थी। अब, मैं सक्रिय रूप से जिम्मेदारी लेने और अपने कर्तव्य में अधिक बोझ उठाने में सक्षम हूँ। हालांकि हमारे सहयोग के दौरान कठिनाइयां होंगी, लेकिन जब मैंने ध्यान लगा कर परमेश्वर पर भरोसा करके हर किसी के साथ चर्चा करती हूँ, तो हमारा रास्ता स्पष्ट हो जाता है।
इस अनुभव के बाद ही मुझे एहसास हुआ कि मैं कितनी स्वार्थी और धोखेबाज थी, अपने कर्तव्य में विश्वासघाती और आलसी थी, जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार नहीं थी। जब मैंने अपना रवैया ठीक किया, परमेश्वर के बोझ के प्रति सचेत होकर सहयोग में अपना सब कुछ लगाने के लिए तैयार हुई, तब मैंने परमेश्वर की अगुआई और मार्गदर्शन को देखा, मुझमें आस्था जगी, मैं एक तर्कसंगत और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति होने का अभ्यास करने के लिए तैयार हो गई जो अपने कर्तव्यों का पालन करता है।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?