एक अच्छा इंसान होने का मतलब समझना
जब मैं छोटी थी तो मेरे माँ-बाप ने मुझे तर्कसंगत और दूसरों के प्रति दयालु होना, दूसरों की मुश्किलों को समझना और हर छोटी बात की बाल की खाल न निकालना सिखाया था। वे कहते थे कि यही है जो हमें एक अच्छा इंसान बनाता है और इससे हमें लोगों का मान-सम्मान मिलेगा। मुझे भी लगता था कि जीने का यह सही तरीका है, और मैं अक्सर खुद को विचारशील और दयालु होने की याद दिलाती रहती थी। अपने परिवार में और गाँव वालों के साथ मेरा कभी भी झगड़ा नहीं होता था, और मुझे अच्छी छवि बनाने की काफी फिक्र रहती थी। गाँव वाले अक्सर मेरी तारीफ करते थे कि मुझमें अच्छी इंसानियत है और मैं विचारशील हूँ, और कोई मुझे नाराज करता था तो मैं बहसबाजी नहीं करती थी। इस तरह की तारीफ से मैं बहुत खुश होती थी। मैं सोचती थी कि एक व्यक्ति के रूप में मुझे इस तरह मिलनसार होना चाहिए और कोई गलत भी हो तो भी उसे समझना चाहिए। मुझे पूरा यकीन था कि एक अच्छा इंसान होने का यही पैमाना है। एक विश्वासी बनने के बाद भी मैं इसी रास्ते पर चलती रही।
फिर नवंबर 2021 में, मुझे कलीसिया की उपयाजिका चुन लिया गया और मैं कुछ दूसरे भाई-बहनों के साथ सुसमाचार फैलाने लगी। केविन, जो उनमें से एक था, मेरे ही गाँव का था। उसमें थोड़ी काबिलियत थी—सुसमाचार साझा करते हुए उसकी संगति अपेक्षाकृत स्पष्ट होती थी और वह उदाहरण देकर अपनी बात समझा पाता था, ताकि सच्चे मार्ग की छानबीन करने वाले लोग आसानी से उसकी बात समझ सकें। पर मैंने पाया कि वह काफी अहंकारी था और दूसरों के सुझावों को स्वीकार करना पसंद नहीं करता था। साथ ही, अपने कर्तव्य में बहुत बार वह सिद्धांतों का पालन नहीं करता था, और अपने सुसमाचार के काम में परमेश्वर को ऊँचा उठाने और उसकी गवाही देने के बजाय वह इसका खूब जिक्र करता था कि उसके कारण कितने लोग परमेश्वर को स्वीकार कर चुके हैं। वह यह भी कहता था कि सभी भाई-बहन उसके उपदेश सुनना पसंद करते थे और उसकी वाहवाही करते थे। एक बार सच्चे मार्ग की छानबीन कर रहे एक व्यक्ति ने उसकी अच्छी काबिलियत और उपदेश देने के किए उसकी तारीफ की। मैंने देखा था कि केविन अपना ही स्तुतिगान करता रहता था और काफी दिखावा करता था, सुसमाचार साझा करते समय वह परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य की गवाही देने या लोगों की धार्मिक धारणाओं के समाधान पर ध्यान नहीं देता था। मैं केविन से इन बातों का जिक्र करना चाहती थी, पर थोड़े सोच-विचार के बाद मैंने कुछ दिन रुकने का फैसला किया। मैं चाहती थी कि उसे पता हो कि मैं सही बात करने वाली नरमदिल इंसान हूँ जो हर छोटी-छोटी बात पर तमाशा नहीं करती। मैं सोच रही थी मुझे उसे अपना प्रोत्साहन और सहयोग देना चाहिए। बाद में, अगुआ अक्सर हमारे ग्रुप को सुसमाचार साझा करने के जरूरी सिद्धांत भेजती रहती थी, और मैंने केविन के व्यवहार को लेकर बिना उसका नाम लिए थोड़ी-बहुत संगति की। मुझे लगा कि संगति के जरिए वह अपने मसलों को खुद ही समझ जाएगा। लेकिन समय बीत गया और वह अब भी नहीं बदला। मैं एक बार फिर उसकी समस्याएँ उठाना चाहती थी, पर मैंने सोचा कि चूंकि वह काफी अहंकारी व्यक्ति है तो हो सकता है वह मेरी सलाह को स्वीकार न करे। मुझे डर था कि वह मुझे अतर्कसंगत और सख्त दिल की समझेगा और मेरी बुरी छवि बना लेगा। अगर हमारे संबंध इतना बिगड़ गए कि ठीक नहीं हो सकते और हम साथ-साथ काम नहीं कर पाए, तो एक अच्छी इंसान की मेरी छवि खराब हो जाएगी। यह सोचकर मैंने अपने मन की बात मन में ही दबा ली। उस समय मुझे बहुत खराब लग रहा था, इसलिए मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, और मुझे सत्य का अभ्यास करने की शक्ति देने के लिए कहा। इसके बाद, मैं, केविन और कुछ दूसरे भाई-बहन सुसमाचार साझा करने के लिए एक गाँव में गए। मैंने देखा कि केविन अपनी संगति में अब भी दिखावा कर रहा था—कैसे वह पैसे की परवाह नहीं करता और कैसे उसने परमेश्वर के लिए कीमत चुकाई है। वह सत्य पर संगति करने पर ध्यान नहीं दे रहा था। घर लौटते हुए मैंने हिम्मत बटोरकर उससे कहा, “तुमने अपने धर्मोपदेश और परमेश्वर की गवाही में सिद्धांतों में प्रवेश नहीं किया, तुम्हें संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं के साथ सत्य पर संगति करने और उन्हें परमेश्वर के सम्मुख लाने पर जोर देना चाहिए...।” मेरी बात पूरी होने से पहले ही उसने कहा, “मेरी संगति में कुछ भी गलत नहीं था। तुम ज्यादा ही सोच रही हो।” मुझे लगा कि मैंने कुछ और कहा तो उसके अहं को चोट लगेगी और हमारे संबंध खराब होंगे। मुझे यह भी चिंता थी कि वह मेरे बारे में बुरा सोचेगा इसलिए मैंने और कुछ नहीं कहा। मुझे लगा कि इतना ही काफी था—उसे धीरे-धीरे खुद ही समझने देती हूँ। बाद में मुझे पता चला कि पूरे समय व्यस्त रहने के बावजूद हमें अपने सुसमाचार के काम में अच्छे नतीजे नहीं मिल रहे थे। उस गाँव के कुछ लोग जो जाँच कर रहे थे, उन्होंने कई बार केविन की संगति सुनी फिर भी वे समझ न सके। ऊपर से, वे अफवाहों से भी प्रभावित थे और उनकी धारणाएँ थीं, और वे परमेश्वर के काम की और ज्यादा छानबीन नहीं करना चाहते थे। फिर कुछ लोग ऐसे भी थे जो केविन को बहुत इज्जत से देखते थे और बस उसकी संगति सुनना चाहते थे, और किसी की नहीं। यह देखकर मैं बहुत परेशान हो गई, और काफी अपराध-बोध महसूस करने लगी। इन सब मसलों का खुद केविन से बहुत ज्यादा संबंध था। अगर मैंने उसकी ये समस्याएँ पहले उठाई होतीं तो वह इन्हें देख पाता और बदल पाता और हमारे सुसमाचार के काम को ऐसा धक्का न लगा होता। पर इसके बाद, जब भी मैं इस मसले को उठाने की सोचती, तो मुझे चिंता होती कि हमारे संबंध खराब हो जाएंगे और मैं उलझन में पड़ जाती। मैंने सोचा, मैं अगुआ से बात कर सकती हूँ और उसे उसके साथ संगति करने के लिए कह सकती हूँ, इससे अपने काम में हमारे आपसी सहयोग और संबंधों पर असर नहीं पड़ेगा, इसलिए, मैंने अगुआ से बात करके उसे बताया कि केविन के साथ क्या चल रहा था। उसने परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश खोजे और हमें साथ-साथ उनमें प्रवेश करने के लिए कहा, और ऐसा लगा कि केविन में कुछ बदलाव आया है। इसलिए, मैंने बात वहीं खत्म कर दी।
एक बार मैंने एक दूसरी बहन से इसका जिक्र किया तो उसने कहा कि दूसरों के साथ अपने संबंधों की हमेशा रक्षा करती रहती हूँ, जो खुशामदी होने की निशानी है। मैंने सोचा कि मेरे खुशामदी होने का सवाल ही नहीं था—खुशामदी लोग तो धोखेबाज होते हैं। मैंने कभी भी कोई धोखेबाजी का काम नहीं किया था, तो मैं उनमें से एक कैसे हो सकती हूँ? उस समय मैं अपनी बहन के फीडबैक को मानना नहीं चाहती थी, पर मुझे यह भी पता था कि उसकी बात में मेरे सीखने के लिए एक सबक जरूर था। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे कहा कि वह मुझे राह दिखाए कि मैं खुद को जान सकूँ। बाद में, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “लोगों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार व्यवहार करना और दूसरों से पेश आना चाहिए; यह मानवीय आचरण का सबसे बुनियादी सिद्धांत है। अगर लोग मानवीय आचरण के सिद्धांत नहीं समझेंगे तो वे सत्य का पालन कैसे कर सकते हैं? सत्य का पालन करना खोखले शब्द बोलना या नारे लगाना नहीं होता। बल्कि इसका मतलब यह होता है कि, जीवन में व्यक्ति का सामना चाहे किसी भी व्यक्ति से हो, अगर यह इंसानी आचरण के सिद्धांत, घटनाओं पर दृष्टिकोण या कर्तव्य निर्वहन के मामले से जुड़ा हो, तो उन्हें विकल्प चुनना होता है, और उन्हें सत्य खोजना चाहिए, परमेश्वर के वचनों में आधार और सिद्धांत तलाशने चाहिए और फिर पालन का मार्ग खोजना चाहिए। इस तरह अभ्यास कर सकने वाले लोग वे हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं। कितनी भी बड़ी मुसीबतें आने पर, इस तरह सत्य के मार्ग पर चल पाना, पतरस के मार्ग पर चलना, सत्य का अनुसरण करना है। उदाहरण के तौर पर : लोगों से संवाद करते समय किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए? शायद तुम्हारा मूल दृष्टिकोण यह है कि ‘सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है,’ और यह कि तुम्हें हर किसी के साथ बनाए रखनी चाहिए, दूसरों को अपमानित नहीं करना चाहिए, और किसी को नाराज नहीं करना चाहिए, जिससे दूसरों के साथ अच्छे संबंध बनाए जा सकें। इस दृष्टिकोण से बंधे हुए जब तुम देखते हो कि दूसरे कोई गलत काम कर रहे हैं या सिद्धांतों का उल्लंघन कर रहे हैं, तो तुम चुप रहते हो। तुम किसी को नाराज करने के बजाय कलीसिया के काम का नुकसान होने दोगे। तुम हर किसी के साथ बनाए रखना चाहते हो, चाहे वे कोई भी हो। जब तुम बात करते हो तो तुम केवल मानवीय भावनाओं और अपमान से बचने के बारे में सोचते हो और तुम दूसरों को खुश करने के लिए हमेशा मीठी-मीठी बातें करते हो। अगर तुम्हें पता भी चले कि किसी में कोई समस्याएँ हैं, तो तुम उन्हें सहन करने का चुनाव करते हो और बस उनकी पीठ पीछे उनके बारे में बातें करते हो, लेकिन उनके सामने तुम शांति बनाए रखते हो और अपने संबंध बनाए रखते हो। तुम इस तरह के आचरण के बारे में क्या सोचते हो? क्या यह चापलूस व्यक्ति का आचरण नहीं है? क्या यह धूर्तता भरा आचरण नहीं है? यह मानवीय आचरण के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है। क्या ऐसे आचरण करना नीचता नहीं है? जो इस तरह से कार्य करते हैं वे अच्छे लोग नहीं होते, यह नेक लोगों का आचरण नहीं है। चाहे तुमने कितना भी दुःख सहा हो, और चाहे तुमने कितनी भी कीमतें चुकाई हों, अगर तुम सिद्धांतहीन आचरण करते हो, तो तुम इस मामले में असफल हो गए हो और परमेश्वर के समक्ष तुम्हारे आचरण को मान्यता नहीं मिलेगा, उसे याद नहीं रखा जाएगा और स्वीकार नहीं किया जाएगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए व्यक्ति में कम से कम जमीर और विवेक तो होना ही चाहिए)। मैंने परमेश्वर के वचनों की रोशनी में आत्मचिंतन किया। मैंने महसूस किया कि मैं खुशामदी तो नहीं थी, पर मैं सचमुच कैसा बर्ताव कर रही थी? उस दौरान, मैंने देखा था कि केविन सुसमाचार के काम में बहुत दिखावा कर रहा था। मुझे यह मसला उठाना चाहिए था ताकि वह खुद को जान सके और अपना काम सिद्धांतों के अनुसार कर सके, पर मुझे चिंता थी कि सीधे बात करने से हमारे रिश्ते खराब होंगे। मैंने उसकी भावनाओं का हमेशा ध्यान रखा था और सीधे-सीधे कुछ कहने की हिम्मत नहीं की थी। उल्टे मैं उसे और प्रोत्साहित करना चाहती थी, ताकि वह मुझे एक अच्छी इंसान समझे और मुझे इज्जत से देखे। पर दरअसल, मैं जानती थी कि कर्तव्य कर रहे भाई-बहनों से सहयोग करते हुए, अगर हम कोई समस्या देखें तो उसकी तरफ ध्यान दिलाना चाहिए, एक-दूसरे की कमियों को पूरा करना चाहिए, और मिलजुलकर कलीसिया के काम को कायम रखना चाहिए। मैं जानबूझकर गलत काम कर रही थी और सत्य का अभ्यास नहीं कर रही थी। नतीजा यह हुआ कि केविन अपने मसलों को पहचान नहीं सका, और सुसमाचार साझा करते हुए दिखावा करता रहा और सत्य पर संगति करने पर ध्यान नहीं दिया। इसका मतलब था कि छानबीन करने वाले लोगों की धार्मिक धारणाओं का समाधान नहीं हुआ, और कुछ लोग जब बाधित हुए तो उन्होंने सभाओं में आना बंद कर दिया। हमारे काम पर इसके असर को देखकर मुझे काफी अपराध-बोध महसूस हुआ, पर मुझे डर था कि मैंने सीधे बात की तो केविन मेरे खिलाफ हो जाएगा और हमारा रिश्ता खराब होगा। इसलिए मैंने धोखा करते हुए एक कलीसिया अगुआ को उसके साथ संगति करने के लिए कहा, ताकि वह मुझसे नाराज न हो। मैंने देखा कि दूसरों से अपने रिश्ते बचाए रखने और अपने कर्तव्य में उनके सामने अच्छा बनने के लिए, मैं कलीसिया के हितों को कायम नहीं रख रही थी और मुझमें न्यायप्रियता की भावना बिल्कुल नहीं थी और मैं सिद्धांतों से बिल्कुल नहीं चल रही थी। मैं सत्य का अभ्यास करने वाली इंसान बिल्कुल नहीं थी। क्या खुशामदी इंसान ऐसा ही नहीं करता? इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिनमें मसीह-विरोधियों का खुलासा किया गया था : “देखने में, मसीह विरोधियों की बातें हर तरह से दयालुतापूर्ण, सुसंस्कृत और विशिष्ट प्रतीत होती हैं। मसीह-विरोधी सिद्धांत का उल्लंघन करने, कलीसिया के कार्य में विघ्न-बाधा पैदा करने वाले को उजागर नहीं करते या उसकी आलोचना नहीं करते; वे आंखें मूंद लेते हैं, ताकि लोग यह सोचें कि वे हर मामले में उदार-हृदय हैं। लोगों ने चाहे किसी भ्रष्टता का खुलासा किया हो और जो भी दुष्कर्म करते हों, मसीह-विरोधीउसके प्रति सहानुभूति और सहनशीलता रखता है। वे क्रोधित नहीं होते, या अचानक आगबबूला नहीं हो जाते, जब वे कुछ गलत करते हैं और परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाते हैं, तो वे लोगों को नाराज नहीं करेंगे और उन्हें दोष नहीं देंगे। चाहे कोई भी बुराई करे और कलीसिया के काम में बाधा डाले, वे कोई ध्यान नहीं देते, मानो इससे उनका कोई लेना-देना न हो, और वे इस कारण लोगों को कभी नाराज नहीं करेंगे। मसीह-विरोधी सबसे ज्यादा चिंता किस बात की करते हैं? इस बात की कि कितने लोग उनका सम्मान करते हैं, और जब वे कष्ट झेलते हैं तो कितने लोग उन्हें सम्मान देते हैं और इसके लिए उनकी प्रशंसा करते हैं। मसीह-विरोधी मानते हैं कि कष्ट कभी व्यर्थ नहीं जाना चाहिए; चाहे वे कोई भी कठिनाई सहें, कितनी भी कीमत चुकाएँ, कोई भी अच्छे कर्म करें, दूसरों के प्रति कितने भी दयालु, विचारशील और स्नेही हों, यह सब दूसरों के सामने किया जाना चाहिए, ताकि अधिक लोग इसे देख सकें। और ऐसा करने का उनका क्या उद्देश्य होता है? लोगों का समर्थन पाना, अपने कार्यों, आचरण और चरित्र के प्रति ज्यादा लोगों के दिलों में स्वीकृति बना पाना, शाबासी पाना। यहाँ तक कि ऐसे मसीह-विरोधी भी हैं, जो इस बाहरी अच्छे व्यवहार के माध्यम से अपनी छवि ‘एक अच्छे व्यक्ति’ के रूप में स्थापित करने की कोशिश करते हैं, ताकि अधिक लोग मदद की तलाश में उनके पास आएँ” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग दस))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे गहरा अपराध-बोध हुआ, मानो परमेश्वर मेरे सामने ही खड़ा मेरे शैतानी स्वभाव को उजागर कर रहा हो। मैंने चिंतन-मनन किया, मैं हमेशा दूसरों को समझने और दयालु इंसान बनने की कोशिश करती थी, क्योंकि मुझे लगता था इससे मुझे लोगों से इज्जत और तारीफ मिलेगी—मैं अपने आस-पास के लोगों द्वारा पसंद की जाऊँगी। भाई-बहनों के साथ कोई कर्तव्य निभाते हुए मैं ऐसा ही करती थी। ऊपर से तो मैंने केविन के मसलों को उजागर नहीं किया था क्योंकि मैं डरती थी कि इससे उसके अहं को ठेस पहुँचेगी और हमारी चल रही भागीदारी को नुकसान होगा। पर असल में, सब कुछ अपना खुद का नाम और रुतबा बचाने के लिए था। मैं खुद को छिपाने, अच्छा दिखने और तारीफें बटोरने के लिए एक सतही स्तर की नरमदिली का इस्तेमाल करती रही थी, ताकि लोग सोचें कि मैं कितनी प्रेमपूर्ण, धैर्यवान और सहनशील हूँ—कि मैं एक अच्छी और नरमदिल इंसान हूँ। पर मेरे दिल को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि कलीसिया के काम या भाई-बहनों की जिंदगी को नुकसान हो रहा था। सिर्फ तभी मैंने देखा कि मैं कितनी धूर्त और धोखेबाज थी। ऐसा लगता था कि मैं कभी किसी को नाराज ही नहीं करती, कि मैं एक भली इंसान हूँ, पर असल में, मेरे सारे आचरण के पीछे मेरे अपने दुष्टतापूर्ण मकसद थे। मैंने देखा कि मेरा स्वभाव किसी मसीह-विरोधी जैसा ही था, कि मैं अपनी खुद की छवि और रुतबा बनाए रखने के लिए कलीसिया के हितों का बलिदान कर रही थी। अगर मैं इस रास्ते पर चलती रही तो यह बहुत खतरनाक होगा—मैं परमेश्वर से दूर होती जाऊँगी और आखिर में उसके द्वारा ठुकरा दी जाऊँगी। इस एहसास के बाद, मुझे खुद पर कोफ्त होने लगी, और मैं बहुत बेचैन भी हो गई। मैंने एक प्रार्थना कही : “परमेश्वर, मैं हमेशा खुद को छिपाती रही हूँ, और भली दिखने और एक सकारात्मक छवि बनाने पर ध्यान देती रही हूँ। मैं इस मार्ग पर बनी रहना नहीं चाहती। मैं पश्चात्ताप करना और अपने भ्रष्ट स्वभाव के विरुद्ध विद्रोह करना चाहती हूँ।”
इसके बाद मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “मनुष्य जिस मानक से दूसरे मनुष्य को आंकता है, वह व्यवहार पर आधारित है; जिनका आचरण अच्छा है वे धार्मिक हैं और जिनका आचरण घृणित है वे दुष्ट हैं। परमेश्वर जिस मानक से मनुष्यों का न्याय करता है, उसका आधार यह है कि क्या व्यक्ति का सार परमेश्वर को समर्पित है या नहीं; जो परमेश्वर को समर्पित है वह धार्मिक है और जो नहीं है वह शत्रु और दुष्ट व्यक्ति है, भले ही उस व्यक्ति का आचरण अच्छा हो या बुरा, भले ही इस व्यक्ति की बातें सही हों या गलत हों” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे)। “हो सकता है, परमेश्वर में अपने इतने वर्षों के विश्वास के दौरान तुमने कभी किसी को कोसा न हो या कोई बुरा कार्य न किया हो, फिर भी अगर मसीह के साथ अपने जुड़ाव में तुम सच नहीं बोल सकते, ईमानदारी से कार्य नहीं कर सकते, या मसीह के वचन को समर्पित नहीं हो सकते; तो मैं कहूँगा कि तुम संसार में सबसे अधिक कुटिल और दुष्ट व्यक्ति हो। तुम अपने रिश्तेदारों, दोस्तों, पत्नी (या पति), बेटे-बेटियों और माता-पिता के प्रति अत्यंत सौम्य और निष्ठावान हो सकते हो, और शायद कभी दूसरों का फायदा न उठाते हो, लेकिन अगर तुम मसीह के साथ संगत नहीं हो पाते, उसके साथ सामंजस्यपूर्ण व्यवहार नहीं कर पाते, तो भले ही तुम अपने पड़ोसियों की सहायता के लिए अपना सब-कुछ खपा दो या अपने माता-पिता और घरवालों की अच्छी देखभाल करो, तब भी मैं कहूँगा कि तुम दुष्ट व्यक्ति हो, और इतना ही नहीं, शातिर चालों से भरे हुए हो” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो मसीह के साथ असंगत हैं वे निश्चित ही परमेश्वर के विरोधी हैं)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि लोगों का दूसरों को मापने का पैमाना उनके भले-बुरे व्यवहार पर आधारित होता है। जो अच्छा बर्ताव करते हैं वे अच्छे लोग और जो बुरा बर्ताव करते हैं वे बुरे लोग माने जाते हैं। पर परमेश्वर का पैमाना इस बात पर आधारित होता है कि लोग उसके रास्ते पर चलते हैं कि नहीं, और उनके सार और परमेश्वर के प्रति समर्पण के उनके रवैये पर आधारित होता है। यह इस बात पर निर्भर नहीं करता कि किसी का बाहरी व्यवहार कितना अच्छा है। मैं खुद को एक अच्छा इंसान मानती थी क्योंकि बचपन से ही, चाहे मेरा परिवार हो या कोई और, मैं कभी भी किसी से बहस या झगड़ा शुरू नहीं करती थी। अगर कोई बहस करने लगता तो मैं झट से उसे खुश करके बात खत्म कर देती। गाँव वाले एक अच्छी इंसान होने के लिए हमेशा मेरी तारीफ करते थे; और मैं यह भी सोचती थी कि ऐसा होने का मतलब है मैं एक अच्छे इंसान के पैमाने पर पहुँच चुकी हूँ। पर मुझे अब यह स्पष्ट हो रहा था कि भले ही मैं कोई बुराई करती नहीं दिख रही थी, पर मैं अपनी कथनी और करनी में ईमानदार नहीं थी। मैंने देखा था कि केविन बिना सिद्धांत के अपना कर्तव्य निभा रहा था, हमेशा दिखावा कर रहा था, इससे हमारे काम की प्रभाविता पर असर पड़ रहा था। फिर भी एक भली इंसान की अपनी छवि बचाने के चक्कर में, मैंने न उसे उजागर किया, न ही उसकी मदद की, और मैंने कलीसिया के हितों को कायम नहीं रखा। तो भले ही दूसरों की नजर में मैं एक अच्छी इंसान थी, पर परमेश्वर की नजर में मैं उसके और सत्य के खिलाफ थी, और मैं जो भी कर रही थी, वह सार रूप में बुराई था। मैंने देखा कि ऊपरी व्यवहार से किसी के अच्छा या बुरा होने का निर्णय करना सही पैमाना नहीं था। कुछ लोग बहुत-से भले काम करते दिखते हैं, पर वे परमेश्वर के कार्य और वचनों का जमकर प्रतिरोध और निंदा करते हैं। वे सब बुरे लोग होते हैं। मैंने एक बहन के बारे में सोचा जिसके साथ मैं काम करती थी। जहां तक मैं जानती हूँ, वह कभी भी मीठे या नरम शब्द बोलने की परवाह नहीं करती थी, पर वह उसकी न्यायप्रियता की भावना अपेक्षाकृत अधिक मजबूत थी। कोई सत्य के अनुसार न चल रहा होता तो वह वही कहती जो कहना चाहिए था। वह भाई-बहनों को सत्य सीखने और सिद्धांत के अनुसार कर्तव्य करने में मदद करती थी, उन्हें असली लाभ प्रदान करती थी। इस बारे में सोचने से मुझमें दृढ़ इच्छाशक्ति जगी कि मैं एक भली इंसान दिखने की कोशिश से जुड़ी अपनी गलत धारणा के पीछे नहीं भागूंगी। मुझे परमेश्वर के वचनों के सत्य के अनुसार कार्य करना था और सचमुच एक अच्छा इंसान बनना था।
मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिससे मुझे अभ्यास का रास्ता मिला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “लोगों को परमेश्वर के वचनों को ही अपना आधार और सत्य को अपना मापदंड बनाने का सर्वाधिक प्रयास करना चाहिए; तभी वे रोशनी में रह सकते हैं और एक सामान्य व्यक्ति के समान जी सकते हैं। अगर तुम रोशनी में रहना चाहते हो, तुम्हें सत्य के अनुसार कार्य करना चाहिए; तुम्हें ईमानदार व्यक्ति होना चाहिए जो ईमानदार बातें कहता हो और ईमानदार चीजें करता हो। मूलभूत बात है अपने आचरण में सत्य-सिद्धांत होना; जब लोग सत्य-सिद्धांत गँवा देते हैं, और केवल अच्छे व्यवहार पर ध्यान देते हैं, तो इससे अनिवार्य रूप से जालसाजी और ढोंग का जन्म होता है। यदि लोगों के आचरण में कोई सिद्धांत न हों, तो फिर उनका व्यवहार कितना भी अच्छा क्यों न हो, वे पाखंडी होते हैं; वे कुछ समय के लिए दूसरों को गुमराह कर सकते हैं, लेकिन वे कभी भी भरोसेमंद नहीं होंगे। जब लोग परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य और आचरण करते हैं, तभी उनकी बुनियाद सच्ची होती है। अगर वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार आचरण नहीं करते, और केवल अच्छा व्यवहार करने का दिखावा करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो इसके परिणामस्वरूप क्या वे अच्छे लोग बन सकते हैं? बिल्कुल नहीं। अच्छे सिद्धांत और व्यवहार मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदल सकते, और वे उसका सार नहीं बदल सकते। केवल सत्य और परमेश्वर के वचन ही लोगों के भ्रष्ट स्वभाव, विचार और राय बदल सकते हैं, और उनका जीवन बन सकते हैं। ... परमेश्वर अपेक्षा करता है कि लोग सच बोलें, वही कहें जो वे सोचते हैं, दूसरों को छलें नहीं, उन्हें गुमराह न करें, उनका मजाक न उड़ाएँ, उन पर व्यंग्य न करें, उनका उपहास न करें, उनकी हँसी न उड़ाएँ, या उन्हें जकड़ें नहीं, या उनकी कमजोरियाँ उजागर न करें, या उन्हें चोट न पहुँचाएँ। क्या ये बोलने के सिद्धांत नहीं हैं? यह कहने का क्या मतलब है कि लोगों की कमजोरियाँ उजागर नहीं की जानी चाहिए? इसका मतलब है दूसरे लोगों पर कीचड़ न उछालना। उनकी आलोचना या निंदा करने के लिए उनकी पिछली गलतियाँ या कमियाँ न पकड़े रहो। तुम्हें कम से कम इतना तो करना ही चाहिए। सक्रिय पहलू से, रचनात्मक वक्तव्य किसे कहा जाता है? वह मुख्य रूप से प्रोत्साहित करने वाला, उन्मुख करने वाला, राह दिखाने वाला, प्रोत्साहित करने वाला, समझने वाला और दिलासा देने वाला होता है। साथ ही, कुछ विशेष परिस्थितियों में, दूसरों की गलतियों को सीधे तौर पर उजागर करना और उनकी काट-छाँट करना जरूरी हो जाता है, ताकि वे सत्य का ज्ञान पाएँ और उनमें पश्चात्ताप की इच्छा जागे। केवल तभी यथोचित प्रभाव प्राप्त होता है। इस तरह से अभ्यास करना लोगों के लिए बहुत लाभकारी होता है। यह उनकी वास्तविक मदद है, और यह उनके लिए रचनात्मक है, है न?” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (3))। परमेश्वर के वचनों में, मुझे अपने आचरण का सिद्धांत मिला। हमें उसके वचनों के अनुसार ईमानदार लोग बनने की जरूरत है। जब हम दूसरों की समस्याएँ देखें तो हमें वे समस्याएँ बतानी चाहिए और उनकी मदद करनी चाहिए—यह उनके किए लाभकारी होता है। हमें कलीसिया के काम की रक्षा करनी चाहिए और दूसरों के लिए शिक्षाप्रद बनना चाहिए। यह रास्ता समझ में आ जाने के बाद मैं फौरन सत्य का अभ्यास शुरू करना चाहती थी, केविन से दिल की बात करके उसके मसलों को उठाना चाहती थी। यह उसके अपने कर्तव्य को लेकर उसके रवैये को सुधारने, उसे उसके भ्रष्ट स्वभाव और अपने कर्तव्य के विचलनों को समझने देने के लिए था—इससे उसकी मदद होगी। तो मैंने उसे खोजा, उसकी समस्याएँ बताने के लिए मैं तैयार थी। पर तभी, मुझे फिर से चिंता होने लगी कि वह मेरे बारे में क्या सोचेगा। मैंने फौरन परमेश्वर से प्रार्थना की, मन में पाले गए अपने गलत इरादों के प्रति विद्रोह किया। मैंने सोचा कि हाल ही में मैं कैसे सत्य का अभ्यास नहीं कर रही थी, जिससे हमारे काम को नुकसान पहुंचा था, और मैं अत्यधिक अपराध-बोध से भर गई। मैं जानती थी कि परमेश्वर मेरे हर विचार और काम की जांच करता है और मुझे एक ईमानदार इंसान होना चाहिए। मैं अब अपनी छवि बचाती नहीं रह सकती और सत्य का और उल्लंघन नहीं कर सकती थी। इस विचार से मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव के खिलाफ विद्रोह करने और केविन से उसके मसलों पर सच्चाई से बात करने की हिम्मत मिली। हैरानी की बात थी कि उसने न सिर्फ मेरी पूरी बात सुनी, बल्कि इसे स्वीकार भी कर लिया। उसने कहा, “मैं कुछ सिद्धांतों को पूरी तरह नहीं समझ पाया हूँ। आगे से तुम कोई भी ऐसा मसला देखो तो मुझे जरूर बताना। हम एक-दूसरे की मदद करके और मिलजुलकर अच्छी तरह अपना कर्तव्य निभा सकते हैं।” उसकी यह बात सुनकर मैं खुशी से झूम उठी, परमेश्वर का लाख-लाख शुक्र है। मुझे यह सोचकर बहुत शर्म भी आई और अफसोस भी हुआ कि मैंने पहले ही सत्य का अभ्यास करना शुरू क्यों नहीं किया। अगर मैंने उसके साथ यह बात पहले ही उठा ली होती, तो हम अपने काम के नतीजों में जल्दी सुधार कर पाते, और उसे अपने भ्रष्ट स्वभाव का पहले ही पता चल जाता। मैंने देखा कि सत्य के अभ्यास करने से दूसरों को, खुद को और अपने कर्तव्य को फायदा होता है।
अब जब मैं किसी भाई-बहन की कोई समस्या देखती हूँ तो सक्रियता से उन्हें बताती हूँ, क्योंकि मैं जानती हूँ यह सत्य का अभ्यास करना है, और इससे उनकी मदद होती है। मैंने यह भी देखा है कि परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार जीना और सत्य सिद्धांतों के अनुसार चीजें करना, सत्य का अभ्यास करने और एक अच्छा इंसान होने का इकलौता तरीका है।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?