परमेश्वर के दैनिक वचन : परमेश्वर को जानना | अंश 69

07 मार्च, 2021

प्रभु यीशु द्वारा अनुग्रह के युग में पूर्ण किए गए कार्य के दायरे में तुम परमेश्वर के स्वरूप का एक अन्य पहलू देख सकते हो। यह पहलू उसके देह के द्वारा व्यक्त किया गया था, और उसकी मानवता के कारण लोग उसे देखने और समझने में सक्षम थे। मनुष्य के पुत्र में लोगों ने देखा कि किस प्रकार देह में परमेश्वर ने अपनी मानवता को जीया, और उन्होंने देह के माध्यम से व्यक्त परमेश्वर की दिव्यता देखी। इन दो प्रकार की अभिव्यक्तियों ने लोगों को एक बिलकुल सच्चा परमेश्वर दिखाया, और इनसे वे परमेश्वर के बारे में एक भिन्न अवधारणा बना सके। किंतु संसार के सृजन और व्यवस्था के युग के अंत के बीच की समयावधि में, अर्थात् अनुग्रह के युग से पहले, लोगों द्वारा जो पहलू देखे, सुने और अनुभव किए गए, वे थे परमेश्वर की दिव्यता, परमेश्वर द्वारा अभौतिक क्षेत्र में की और कही गई चीज़ें, और वे चीज़ें, जो उसने अपने वास्तविक व्यक्तित्व से, जिसे देखा या छुआ नहीं जा सकता था, व्यक्त की थीं। प्रायः, ये चीजें लोगों को यह महसूस कराती थीं कि परमेश्वर अपनी महानता में इतना बुलंद है कि वे उसके नज़दीक नहीं जा सकते। परमेश्वर ने सामान्यतः लोगों पर जो प्रभाव छोड़ा, वह यह था कि वह स्वयं को समझने-बूझने की उनकी क्षमता के भीतर और बाहर झिलमिलाता था, और लोग यहाँ तक महसूस करते थे कि उसके हर एक विचार और मत इतने रहस्यमय और मायावी हैं कि उन तक पहुँचने का कोई तरीका नहीं है, यहाँ तक कि वे उन्हें समझने-बूझने का प्रयास भी नहीं करते थे। लोगों के लिए, परमेश्वर से संबंधित हर चीज़ बहुत दूर थी, इतनी दूर कि लोग उसे देख नहीं सकते थे, उसे छू नहीं सकते थे। ऐसा लगता था कि वह ऊपर आकाश में है, और ऐसा प्रतीत होता था कि वह बिलकुल भी अस्तित्व में नहीं है। अत: लोगों के लिए परमेश्वर के हृदय और मन को या उसकी किसी सोच को समझना अलभ्य था, यहाँ तक कि उनकी पहुँच से बाहर था। भले ही परमेश्वर ने व्यवस्था के युग में कुछ ठोस कार्य किए, और उसने कुछ विशेष वचन भी जारी किए और कुछ विशेष स्वभाव व्यक्त किए, ताकि लोग उसके बारे में कुछ सच्चा ज्ञान प्राप्त कर सकें और उसे समझ-बूझ सकें, फिर भी अंतत:, परमेश्वर के स्वरूप की ये अभिव्यक्तियाँ एक अभौतिक क्षेत्र से आई थीं, और लोगों ने जो समझा, जो उन्होंने जाना, वह फिर भी उसके स्वरूप का दिव्य पहलू ही था। इस अभिव्यक्ति से मानवजाति उसके स्वरूप की ठोस अवधारणा प्राप्त नहीं कर सकी, और परमेश्वर के बारे में उनकी धारणा अभी भी "एक आध्यात्मिक देह, जिसके करीब जाना कठिन है, जो अनुभूति के भीतर और बाहर झिलमिलाता है" के दायरे में ही अटकी हुई थी। चूँकि लोगों के सामने प्रकट होने के लिए परमेश्वर ने भौतिक क्षेत्र की किसी विशिष्ट वस्तु या छवि का उपयोग नहीं किया था, इसलिए वे अभी भी मानवीय भाषा का उपयोग करके उसे परिभाषित करने में असमर्थ थे। अपने हृदय और मस्तिष्क में लोग परमेश्वर के लिए एक मानक स्थापित करने, उसे मूर्त और मानवीय बनाने के लिए हमेशा अपनी भाषा का उपयोग करना चाहते थे, जैसे कि वह कितना ऊँचा है, वह कितना बड़ा है, वह कैसा दिखाई देता है, वह ठीक-ठीक क्या पसंद करता है और उसका व्यक्तित्व कैसा है। वास्तव में, अपने हृदय में परमेश्वर जानता था कि लोग इस तरह से सोचते हैं। वह लोगों की आवश्यकताओं के बारे में बहुत स्पष्ट था, और निस्संदेह वह यह भी जानता था कि उसे क्या करना चाहिए, इसलिए अनुग्रह के युग में उसने एक अलग तरीके से अपने कार्य को अंजाम दिया। यह नया तरीका दिव्य और मानवीय दोनों था। जिस समयावधि में प्रभु यीशु काम कर रहा था, उसमें लोग देख सकते थे कि परमेश्वर की अनेक मानवीय अभिव्यक्तियाँ हैं। उदाहरण के लिए, वह नृत्य कर सकता था, वह विवाहों में शामिल हो सकता था, वह लोगों के साथ संगति कर सकता था, उनसे बात कर सकता था और उनके साथ विभिन्न मामलों में चर्चा कर सकता था। इसके अतिरिक्त, प्रभु यीशु ने बहुत-सा ऐसा कार्य भी पूरा किया, जो उसकी दिव्यता दर्शाता था, और निस्संदेह यह समस्त कार्य परमेश्वर के स्वभाव की अभिव्यक्ति और प्रकाशन था। इस दौरान, चूँकि परमेश्वर की दिव्यता एक साधारण देह में उस रूप में साकार हुई थी, जिसे लोग देख और छू सकते थे, इसलिए अब उन्होंने यह महसूस नहीं किया कि वह अनुभूति के भीतर और बाहर झिलमिलाता है, या वे उसके करीब नहीं जा सकते। इसके विपरीत, वे मनुष्य के पुत्र की हर गतिविधि, उसके वचनों और कार्य के माध्यम से परमेश्वर की इच्छा या उसकी दिव्यता को समझने की कोशिश कर सकते थे। मनुष्य के देहधारी पुत्र ने अपनी मानवता के माध्यम से परमेश्वर की दिव्यता व्यक्त की और परमेश्वर की इच्छा को मानवजाति तक पहुँचाया। और परमेश्वर की इच्छा और स्वभाव की अभिव्यक्ति के माध्यम से उसने लोगों के सामने उस परमेश्वर को भी प्रकट किया, जिसे देखा और छुआ नहीं जा सकता और जो आध्यात्मिक क्षेत्र में रहता है। लोगों ने स्वयं परमेश्वर को मूर्त रूप में, माँस और रक्त से निर्मित देखा। तो मनुष्य के देहधारी पुत्र ने स्वयं परमेश्वर की पहचान, हैसियत, छवि, स्वभाव और उसके स्वरूप जैसी चीज़ों को ठोस और मानवीय बना दिया। भले ही परमेश्वर की छवि के संबंध में मनुष्य के पुत्र के बाहरी रूप-रंग की कुछ सीमाएँ थीं, किंतु उसका सार और स्वरूप स्वयं परमेश्वर की पहचान और हैसियत दर्शाने में पूर्णतः समर्थ थे—केवल अभिव्यक्ति के रूप में कुछ भिन्नताएँ थीं। हम इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि मनुष्य के पुत्र ने अपनी मानवता और दिव्यता, दोनों रूपों में स्वयं परमेश्वर की पहचान और हैसियत दर्शाई। हालाँकि इस दौरान परमेश्वर ने देह के माध्यम से कार्य किया, देह के परिप्रेक्ष्य से बात की और मानवजाति के सामने मनुष्य के पुत्र की पहचान और हैसियत के साथ खड़ा हुआ, और इसने लोगों को मानवजाति के बीच परमेश्वर के सच्चे वचनों और कार्य को देखने-सुनने और अनुभव करने का अवसर दिया। इसने लोगों को विनम्रता के बीच उसकी दिव्यता और महानता के संबंध में अंतर्दृष्टि और साथ ही परमेश्वर की प्रामाणिकता और वास्तविकता की एक प्रारंभिक समझ और परिभाषा भी प्रदान की। भले ही प्रभु यीशु द्वारा पूर्ण किया गया कार्य, कार्य करने के उसके तरीके और उसके बोलने का परिप्रेक्ष्य आध्यात्मिक क्षेत्र में परमेश्वर के वास्तविक व्यक्तित्व से भिन्न थे, फिर भी उसकी हर चीज़ वास्तव में स्वयं परमेश्वर को दर्शाती थी, जिसे मानवजाति ने पहले कभी नहीं देखा था—इससे इनकार नहीं किया जा सकता! अर्थात्, परमेश्वर चाहे किसी भी रूप में प्रकट हो, वह चाहे किसी भी परिप्रेक्ष्य में बात करे, या किसी भी छवि में वह मानवजाति के सामने आए, वह अपने सिवाय किसी को नहीं दर्शाता। वह न तो किसी मनुष्य को दर्शा सकता है, न ही भ्रष्ट मानवजाति को दर्शा सकता है। परमेश्वर स्वयं परमेश्वर है, और इससे इनकार नहीं किया जा सकता।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III

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