परमेश्वर के दैनिक वचन : देहधारण | अंश 100

20 मार्च, 2021

पृथ्वी पर यीशु ने जो जीवन जिया वह देह में एक सामान्य जीवन था। उसने अपने देह का सामान्य जीवन जिया। अपना कार्य करना, वचन बोलना, या बीमार को चंगा करना और दुष्टात्माओं को निकालना, ऐसे असाधारण कार्य करने के उसके अधिकार ने स्वयं को तब तक प्रकट नहीं किया जब तक कि उसने अपनी सेवकाई आरंभ नहीं की। उनतीस वर्ष की उम्र से पहले, अपनी सेवकाई आरंभ करने से पहले उसका जीवन, इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि वह बस एक सामान्य देह था। इस कारण से और क्योंकि उसने अभी तक अपनी सेवकाई आरंभ नहीं की थी, लोगों को उसमें कुछ भी दिव्य नहीं दिखाई दिया, एक सामान्य मानव, एक सामान्य मनुष्य से अधिक कुछ नहीं दिखाई दिया—ठीक जैसे कि उस समय कुछ लोग उसे यूसुफ का पुत्र ही मानते थे। लोगों को लगता था कि वह एक सामान्य मनुष्य का पुत्र है, उनके पास यह बताने का कोई तरीका नहीं था कि वह देहधारी परमेश्वर का देह है; यहाँ तक कि जब, अपनी सेवकाई करने के दौरान, उसने कई चमत्कार किए, तब भी अधिकांश लोगों ने यही कहा कि वह यूसुफ का पुत्र है, क्योंकि वह सामान्य मानवता के बाह्य आवरण वाला मसीह था। उसकी सामान्य मानवता और कार्य दोनों पहले देहधारण की महत्ता को पूर्ण करने के लिए थे, यह सिद्ध करने के लिए थे कि परमेश्वर पूरी तरह से देह में आकर एक अत्यंत साधारण मनुष्य बन गया है। अपना कार्य शुरु करने के पहले की उसकी सामान्य मानवता इस बात का प्रमाण थी कि वह एक साधारण देह था; और बाद में उसने कार्य किया इससे भी यह प्रमाणित हो गया कि वह एक साधारण देह था, क्योंकि उसने सामान्य मानवता द्वारा संकेत और चमत्कार किए, बीमार को चंगा किया और दुष्टात्माओं को देह से बाहर निकाला। वह इसलिए चमत्कार कर सका क्योंकि उसका देह परमेश्वर से अधिकार के युक्त था, परमेश्वर के आत्मा ने उसके देह को धारण किया था। उसके पास यह अधिकार परमेश्वर के आत्मा के कारण था, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं था कि वह देह नहीं था। उसे अपनी सेवकाई में बीमार को चंगा करने और दुष्टात्माओं को निकालने का कार्य करना था, यह उसकी मानवता में छिपी दिव्यता की अभिव्यक्ति थी, भले ही उसने कोई भी संकेत दिखाए हों या अपने अधिकार को कैसे भी प्रदर्शित किया हो, लेकिन तब भी वह सामान्य मानवता में रहने वाला सामान्य देह ही था। सलीब पर जान देने से लेकर पुनर्जीवित होने तक, वह सामान्य देह में ही रहा। अनुग्रह प्रदान करना, बीमार को चंगा करना, और दुष्टात्माओं को निकालना, ये सब उसकी सेवकाई का हिस्सा थे, ये सारे कार्य उसके सामान्य देह में किए गए थे। चाहे वह कोई भी कार्य कर रहा हो, लेकिन क्रूस पर चढ़ाए जाने से पहले, वह कभी भी अपने सामान्य मानव देह से अलग नहीं हुआ। वह स्वयं परमेश्वर था, परमेश्वर का अपना कार्य कर रहा था, लेकिन चूँकि वह देहधारी परमेश्वर था, इसलिए वह खाना भी खाता था, कपड़े भी पहनता था, उसकी आवश्यकताएँ सामान्य इंसानों जैसी थीं, उसमें सामान्य मानवीय तर्क-शक्ति और सामान्य मानवीय मन था। यह सब इस बात का प्रमाण है कि वह एक सामान्य मनुष्य था, इससे सिद्ध होता है कि देहधारी परमेश्वर का देह सामान्य मानवता से युक्त देह था, न कि कोई अलौकिक देह। उसका कार्य परमेश्वर के पहले देहधारण के कार्य को पूरा करना था, उस सेवकाई को पूरा करना था जो पहले देहधारण को पूरी करनी चाहिए। देहधारण की महत्ता यह है कि एक साधारण, सामान्य मनुष्य स्वयं परमेश्वर का कार्य करता है; अर्थात्, परमेश्वर मानव देह में अपना दिव्य कार्य करके शैतान को परास्त करता है। देहधारण का अर्थ है कि परमेश्वर का आत्मा देह बन जाता है, अर्थात्, परमेश्वर देह बन जाता है; देह के द्वारा किया जाने वाला कार्य पवित्रात्मा का कार्य है, जो देह में साकार होता है, देह द्वारा अभिव्यक्त होता है। परमेश्वर के देह को छोड़कर अन्य कोई भी देहधारी परमेश्वर की सेवकाई को पूरा नहीं कर सकता; अर्थात्, केवल परमेश्वर का देहधारी देह, यह सामान्य मानवता—अन्य कोई नहीं—दिव्य कार्य को व्यक्त कर सकता है। यदि, परमेश्वर के पहले आगमन के दौरान, उनतीस वर्ष की उम्र से पहले उसमें सामान्य मानवता नहीं होती—यदि जन्म लेते ही वह चमत्कार करने लगता, बोलना आरंभ करते ही वह स्वर्ग की भाषा बोलने लगता, यदि पृथ्वी पर कदम रखते ही सभी सांसारिक मामलों को समझने लगता, हर व्यक्ति के विचारों और इरादों को समझने लगता—तो ऐसे इंसान को सामान्य मनुष्य नहीं कहा जा सकता था, और ऐसे देह को मानवीय देह नहीं कहा जा सकता था। यदि मसीह के साथ ऐसा ही होता, तो परमेश्वर के देहधारण का कोई अर्थ और सार ही नहीं रह जाता। उसका सामान्य मानवता से युक्त होना इस बात को सिद्ध करता है कि वह शरीर में देहधारी हुआ परमेश्वर है; उसका सामान्य मानव विकास प्रक्रिया से गुज़रना दिखाता है कि वह एक सामान्य देह है; इसके अलावा, उसका कार्य इस बात का पर्याप्त सबूत है कि वह परमेश्वर का वचन है, परमेश्वर का आत्मा है जिसने देहधारण किया है। अपने कार्य की आवश्यकताओं की वजह से परमेश्वर देहधारी बनता है; दूसरे शब्दों में, कार्य का यह चरण देह में पूरा किया जाना चाहिए, सामान्य मानवता में पूरा किया जाना चाहिए। यही "वचन के देह बनने" के लिए, "वचन के देह में प्रकट होने" के लिए पहली शर्त है, और यही परमेश्वर के दो देहधारणों के पीछे की सच्ची कहानी है। हो सकता है लोग यह मानते हों कि यीशु ने जीवनभर चमत्कार किए, पृथ्वी पर अपने कार्य की समाप्ति तक उसने मानवता का कोई चिह्न प्रकट नहीं किया, उसकी आवश्यकताएँ सामान्य मानव जैसी नहीं थीं, या उसमें मानवीय कमज़ोरियाँ या मानवीय भावनाएँ नहीं थीं, उसे जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं की ज़रूरत नहीं थी या उसे सामान्य मानवीय विचारों पर चिंतन करने की ज़रूरत नहीं थी। वे यही कल्पना करते हैं कि उसका मन अतिमानवीय है, उसके पास श्रेष्ठ मानवता है। वे मानते हैं कि चूँकि वह परमेश्वर है, इसलिए उसे उस तरह से रहना और सोचना नहीं चाहिए जैसे सामान्य मानव रहते और सोचते हैं, कोई सामान्य व्यक्ति, एक वास्तविक इंसान, ही सामान्य मानवीय सोच-विचार रख सकता और एक सामान्य मानवीय जीवन जी सकता है। ये सभी मनुष्य के विचार, और मनुष्य की धारणाएँ हैं, और ये धारणाएँ परमेश्वर के कार्य के वास्तविक इरादों के प्रतिकूल हैं। सामान्य मानव सोच, सामान्य मानव सूझ-बूझ और साधारण मानवता को बनाए रखती है; सामान्य मानवता देह के सामान्य कार्यों को बनाए रखती है; और देह के सामान्य कार्य, देह के सामान्य जीवन को उसकी समग्रता में बनाए रखते हैं। ऐसे देह में कार्य करके ही परमेश्वर अपने देहधारण के उद्देश्य को पूरा कर सकता है। यदि देहधारी परमेश्वर केवल देह के बाहरी आवरण को ही धारण किए रहता, लेकिन उसमें सामान्य मानवीय विचार न आते, तो उसके देह में मानवीय सूझ-बूझ न होती, वास्तविक मानवता तो बिल्कुल न होती। ऐसा मानवता रहित देह, उस सेवकाई को कैसे पूरा कर सकता है जिसे देहधारी परमेश्वर को करना चाहिए? सामान्य मन मानव जीवन के सभी पहलुओं को बनाए रखता है; बिना सामान्य मन के, कोई व्यक्ति मानव नहीं हो सकता। दूसरे शब्दों में, कोई व्यक्ति जो सामान्य ढंग से सोच-विचार नहीं करता, वह मानसिक रूप से बीमार है, और एक मसीह जिसमें मानवता न होकर केवल दिव्यता हो, उसे परमेश्वर का देहधारी शरीर नहीं कहा जा सकता। इसलिए, ऐसा कैसे हो सकता है कि परमेश्वर के देहधारी शरीर में कोई सामान्य मानवता न हो? क्या ऐसा कहना ईशनिंदा नहीं होगी कि मसीह में कोई मानवता नहीं है? ऐसे सभी क्रियाकलाप जिनमें सामान्य मानव शामिल होते हैं एक सामान्य मानव मन की कार्यशीलता के भरोसे होते हैं। इसके बिना, मानव पथभ्रष्ट की तरह व्यवहार करते; यहाँ तक कि वे सफेद और काले, अच्छे और बुरे में अंतर भी न कर पाते; उनमें कोई भी मानवीय आचरण न होता, और नैतिक सिद्धांत न होते। इसी प्रकार से, यदि देहधारी परमेश्वर एक सामान्य मानव की तरह न सोचता, तो वह एक प्रामाणिक देह, एक सामान्य देह न होता। सोच-विचार न करने वाला ऐसा देह दिव्य कार्य न कर पाता। वह सामान्य रूप से सामान्य देह की गतिविधियों में शामिल न हो पाता, पृथ्वी पर मनुष्यों के साथ रहने की तो बात ही छोड़ दो। और इस तरह, परमेश्वर के देहधारण की महत्ता, परमेश्वर का देह में आने का वास्तविक सार ही खो गया होता। देहधारी परमेश्वर की मानवता देह में सामान्य दिव्य कार्य को बनाए रखने के लिए मौजूद रहती है; उसकी सामान्य मानवीय सोच उसकी सामान्य मानवता को और उसकी समस्त सामान्य दैहिक गतिविधियों को बनाए रखती है। ऐसा कहा जा सकता है कि उसकी सामान्य मानवीय सोच देह में परमेश्वर के समस्त कार्य को बनाए रखने के उद्देश्य से विद्यमान रहती है। यदि इस देह में सामान्य मानवीय मन न होता, तो परमेश्वर देह में कार्य न कर पाता और जो उसे देह में करना था, वह कभी न कर पाता। यद्यपि देहधारी परमेश्वर में एक सामान्य मानवीय मन होता है, किन्तु उसके कार्य में मानवीय विचारों की मिलावट नहीं होती; वह सामान्य मन के साथ मानवता में कार्य करता है जिसमें मन-युक्त मानवता के होने की पूर्वशर्त रहती है, न कि सामान्य मानवीय विचारों को प्रयोग में लाने की। उसके देह के विचार कितने भी उत्कृष्ट क्यों न हों, लेकिन उसका कार्य तर्क या सोच से कलंकित नहीं होता। दूसरे शब्दों में, उसके कार्य की कल्पना उसके देह के मन के द्वारा नहीं की जाती, बल्कि वह उसकी मानवता में दिव्य कार्य की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है। उसका समस्त कार्य उसकी वह सेवकाई है जिसे उसे पूरा करना है, उसमें से कुछ भी उसके मस्तिष्क की कल्पना नहीं होता। उदाहरण के लिए, बीमार को चंगा करना, दुष्टात्माओं को निकालना, और क्रूसीकरण उसके मानवीय मन की उपज नहीं थे, उन्हें किसी भी मानवीय मन वाले मनुष्य द्वारा नहीं किया जा सकता था। उसी तरह, आज का विजय-कार्य ऐसी सेवकाई है जिसे देहधारी परमेश्वर द्वारा किया जाना चाहिए, किन्तु यह किसी मानवीय इच्छा का कार्य नहीं है, यह ऐसा कार्य है जो उसकी दिव्यता को करना चाहिए, ऐसा कार्य जिसे करने में कोई भी दैहिक मानव सक्षम नहीं है। इसलिए देहधारी परमेश्वर में सामान्य मानव मन होना चाहिए, सामान्य मानवता से संपन्न होना चाहिए, क्योंकि उसे एक सामान्य मन के साथ मानवता में कार्य करना चाहिए। यही देहधारी परमेश्वर के कार्य का सार है, देहधारी परमेश्वर का वास्तविक सार है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर द्वारा धारण किये गए देह का सार

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