परमेश्वर का आज्ञापालन कैसे किया जा सकता है और अभ्यास के किन सिद्धांतों के अनुसार व्यक्ति को परमेश्वर का आज्ञापालन करना चाहिए
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन :
परमेश्वर के देह में होने के दौरान, जिस आज्ञाकारिता की वह लोगों से अपेक्षा करता है, उसमें आलोचना से बचना या विरोध न करना शामिल नहीं है, जैसा कि लोग कल्पना करते हैं—इसके बजाय, वह अपेक्षा करता है कि लोग उसके वचनों को अपने जीवन का सिद्धांत और अपने जीवन की नींव बना लें, कि वे उसके वचनों के सार को पूरी तरह से अभ्यास में ले आएँ, और कि वे पूरी तरह से उसकी इच्छा को संतुष्ट करें। देहधारी परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने की लोगों से अपेक्षा करने का एक पहलू उसके वचनों को अभ्यास में लाने को संदर्भित करता है, और दूसरा पहलू उसकी सादगी और व्यावहारिकता का पालन करने में सक्षम होने को संदर्भित करता है। ये दोनों पूर्ण होने चाहिए। जो लोग इन दोनों पहलुओं को प्राप्त कर सकते हैं, वे ही हैं, जिनके हृदय में परमेश्वर के लिए वास्तविक प्रेम है। ये सभी वे लोग हैं जो परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए जा चुके हैं, और वे सभी परमेश्वर से उतना ही प्यार करते हैं जितना वे अपने जीवन से करते हैं। देहधारी परमेश्वर अपने कार्य में सामान्य और व्यावहारिक मानवता दिखाता है। इस तरह, उसकी सामान्य और व्यावहारिक मानवता, दोनों का बाह्य आवरण लोगों के लिए एक बड़ा परीक्षण बन जाता है; यह उनकी सबसे बड़ी कठिनाई बन जाता है। हालाँकि, परमेश्वर की सामान्यता और व्यावहारिकता से बचा नहीं जा सकता है। उसने समाधान खोजने के लिए हर प्रयास किया, लेकिन अंत में वह स्वयं को अपनी सामान्य मानवता के बाहरी आवरण से छुटकारा नहीं दिला सका। यह इसलिए था, क्योंकि अंततः, वह परमेश्वर है जो देह बन गया है, न कि स्वर्ग में आत्मा का परमेश्वर। वह ऐसा परमेश्वर नहीं है, जिसे लोग देख न सकें, बल्कि ऐसा परमेश्वर है, जिसने सृष्टि के एक सदस्य का आवरण पहना है। इस प्रकार, उसे अपने आप को अपनी सामान्य मानवता के आवरण से छुड़ाना किसी भी तरह से आसान नहीं होगा। इसलिए कुछ भी हो जाए, वह अभी भी उस कार्य को करता है जो वह देह के परिप्रेक्ष्य से करना चाहता है। यह कार्य सामान्य और व्यावहारिक परमेश्वर की अभिव्यक्ति है, तो लोगों का इसका पालन न करना कैसे ठीक हो सकता है? परमेश्वर के कार्यों के बारे में लोग आख़िर क्या कर सकते हैं? वह जो भी करना चाहता है, वह करता है; जिससे वह खुश होता है, वह वैसा ही है जैसा वह चाहता है। यदि लोग आज्ञापालन नहीं करते हैं, तो उनके पास और कौनसी ठोस योजनाएँ हो सकती हैं? अभी तक, यह सिर्फ आज्ञाकारिता ही है जो लोगों को बचा सकी है; किसी के पास कोई अन्य बुद्धिमत्तापूर्ण विचार नहीं हैं। यदि परमेश्वर लोगों की परीक्षा लेना चाहता है, तो वे इसके बारे में क्या कर सकते हैं? लेकिन यह सब स्वर्ग के परमेश्वर द्वारा नहीं सोचा गया है; यह देहधारी परमेश्वर द्वारा सोचा गया है। वह ऐसा करना चाहता है, तो कोई भी व्यक्ति इसे बदल नहीं सकता है। देहधारी परमेश्वर जो कुछ करता है, उसमें स्वर्ग का परमेश्वर हस्तक्षेप नहीं करता है, तो क्या यह लोगों को उसकी आज्ञा का और अधिक पालन करने का कारण नहीं होना चाहिए? यद्यपि वह व्यावहारिक और सामान्य दोनों है, किंतु वह पूरी तरह से देहधारण किया परमेश्वर है। उसके अपने स्वयं के विचारों के आधार पर, वह जो चाहता है वही करता है। स्वर्ग के परमेश्वर ने उसे सभी कार्य सौंप दिए हैं; वह जो भी करता है तुम्हें उसका पालन करना चाहिए। यद्यपि उसमें मानवता है और वह बहुत सामान्य है, उसने यह सब जान-बूझकर व्यवस्थित किया है, तो लोग उसे कैसे अस्वीकृति के साथ पूरी आँखें खोल कर देख सकते हैं? वह सामान्य होना चाहता है, तो वह सामान्य है। वह मानवता के भीतर रहना चाहता है, तो वह मानवता के भीतर रहता है। वह दिव्यता के भीतर रहना चाहता है, तो वह दिव्यता में रहता है। लोग इसे जैसा चाहें वैसा देख सकते हैं, परमेश्वर हमेशा परमेश्वर रहेगा और मनुष्य हमेशा मनुष्य रहेंगे। कुछ मामूली गौण बातों की वजह से उसके सार को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है, न ही उसे एक छोटी सी चीज़ के कारण परमेश्वर के "व्यक्ति" के बाहर धकेला जा सकता है। लोगों के पास मानवजाति की आज़ादी है, और परमेश्वर के पास परमेश्वर की गरिमा है; ये एक दूसरे के साथ हस्तक्षेप नहीं करते हैं। क्या लोग परमेश्वर को थोड़ी सी भी स्वतंत्रता नहीं दे सकते हैं? क्या वे परमेश्वर का थोड़ा अधिक लापरवाह होना सहन नहीं कर सकते हैं? परमेश्वर के साथ इतना कठोर मत बनो! हर किसी में एक-दूसरे के लिए सहिष्णुता होनी चाहिए; तब क्या हर चीज़ का समाधान नहीं हो जाएगा? क्या तब भी कोई मनमुटाव रह जायेगा? यदि कोई इतनी छोटी सी बात को बर्दाश्त नहीं कर सकता है, तो वह एक उदारचरित या एक सच्चा आदमी होने के बारे में कैसे सोच सकता है? यह परमेश्वर नहीं है जो मानवजाति के लिए कठिनाइयों का कारण है, बल्कि मानवजाति ही परमेश्वर को कठिनाई देती है। वे हमेशा राई का पहाड़ बनाकर चीजों को नियंत्रित करते हैं—वे वास्तव में शून्य में से कुछ न कुछ चीजें बना लेते हैं, और यह बहुत अनावश्यक है! जब परमेश्वर सामान्य और व्यावहारिक मानवता के भीतर कार्य करता है, तो वह जो करता है वह मानवजाति का कार्य नहीं होता है, बल्कि परमेश्वर का कार्य होता है। तथापि, लोगों को उसके कार्य का सार दिखाई नहीं देता है—वे हमेशा उसके मानवता के बाहरी आवरण को देखते हैं। उन्होंने इतना बड़ा कार्य नहीं देखा है, और फिर भी वे परमेश्वर की साधारण और सामान्य मानवता को देखने पर जोर देते हैं और वे इसे छोड़ेंगे नहीं। इसे परमेश्वर की आज्ञा का पालन करना कैसे कहा जा सकता है? स्वर्ग का परमेश्वर अब पृथ्वी के "परमेश्वर" में बदल गया है, और पृथ्वी का परमेश्वर अब स्वर्ग में परमेश्वर है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता यदि उनके बाह्य रूप-रंग एक से हैं या वे ठीक किस तरह से काम करते है। अंत में, वह जो परमेश्वर का कार्य करता है, वह स्वयं परमेश्वर है। तुम्हें आज्ञापालन अवश्य करना चाहिए, चाहे तुम करना चाहो या नहीं—यह कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसमें तुम्हारे पास कोई विकल्प हो! लोगों द्वारा परमेश्वर की आज्ञा का पालन अवश्य किया जाना चाहिए, और लोगों को जरा सा भी ढोंग किए बिना परमेश्वर की आज्ञा का पूर्णतः पालन अवश्य करना चाहिए।
लोगों का समूह जिन्हें देहधारी परमेश्वर आज प्राप्त करना चाहता है वे लोग हैं जो उसकी इच्छा के अनुरूप हैं। लोगों को केवल उसके कार्य का पालन करने की, न कि हमेशा स्वर्ग के परमेश्वर के विचारों से स्वयं को चिंतित करने, अस्पष्टता में रहने, या देहधारी परमेश्वर के लिए चीजें मुश्किल बनाने की आवश्यकता है। जो लोग उसकी आज्ञा का पालन करने में सक्षम हैं, वे ऐसे लोग हैं जो पूर्णतः उसके वचनों को सुनते हैं और उसकी व्यवस्थाओं का पालन करते हैं। ये लोग इस बात पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं देते हैं कि स्वर्ग का परमेश्वर वास्तव में किस तरह का है या स्वर्ग का परमेश्वर वर्तमान में मानवजाति के बीच किस प्रकार का कार्य कर रहा है; लेकिन वे पृथ्वी के परमेश्वर को पूर्णतः अपना हृदय दे देते हैं और वे उसके सामने अपना समस्त अस्तित्व रख देते हैं। वे अपनी स्वयं की सुरक्षा का कभी विचार नहीं करते, और वे देहधारी परमेश्वर की सामान्यता और व्यावहारिकता पर कभी भी उपद्रव नहीं करते हैं। जो लोग देहधारी परमेश्वर की आज्ञा का पालन करते हैं वे उसके द्वारा पूर्ण बनाए जा सकते हैं। जो लोग स्वर्ग के परमेश्वर पर विश्वास करते हैं वे कुछ भी प्राप्त नहीं करेंगे। ऐसा इसलिए है क्योंकि वह स्वर्ग का परमेश्वर नहीं, बल्कि पृथ्वी का परमेश्वर है जो लोगों को वादे और आशीष प्रदान करता है। लोगों को स्वर्ग के परमेश्वर की ही हमेशा प्रशंसा नहीं करनी चाहिए और पृथ्वी के परमेश्वर को एक औसत व्यक्ति के रूप में नहीं देखना चाहिए; यह अनुचित है। स्वर्ग का परमेश्वर आश्चर्यजनक बुद्धि के साथ महान और अद्भुत है, किंतु इसका कोई अस्तित्व ही नहीं है; पृथ्वी का परमेश्वर बहुत ही औसत और नगण्य है; वह अति सामान्य भी है। उसके पास कोई असाधारण मन नहीं है और न ही वह धरती हिला देने वाले कार्य करता है। वह सिर्फ एक बहुत ही सामान्य और व्यावहारिक तरीके से बोलता और कार्य करता है। यद्यपि वह गड़गड़ाहट के माध्यम से बात नहीं करता है और न ही इसके लिए हवा और बारिश को बुलाता है, तब भी वह वास्तव में स्वर्ग के परमेश्वर का देहधारण है, और वह वास्तव में मनुष्यों के बीच रहने वाला परमेश्वर है। लोगों को उसे देखकर, जिसे वे स्वीकार नहीं कर सकते और अधम के रूप में तो बिलकुल भी कल्पना नहीं कर सकते, उसे बढ़ा-काढ़कर नहीं देखना चाहिए, जिसे वे समझने में सक्षम हैं और जो परमेश्वर के रूप में उनकी अपनी कल्पनाओं से मेल खाता है। यह सब लोगों की विद्रोहशीलता से आता है; यह परमेश्वर के प्रति मानवजाति के विरोध का स्रोत है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर से सचमुच प्रेम करने वाले लोग वे होते हैं जो परमेश्वर की व्यावहारिकता के प्रति पूर्णतः समर्पित हो सकते हैं
परमेश्वर के वचन को सुनना और परमेश्वर की आवश्यकताओं को मानना इंसान का स्वर्ग-प्रदत्त कार्य है; परमेश्वर क्या कहता है, यह इंसान का काम नहीं है। चाहे परमेश्वर जो भी कहे, परमेश्वर इंसान से कुछ भी मांगे, परमेश्वर की पहचान, सार और स्थिति, ये नहीं बदलते—वह सदैव परमेश्वर ही है। जब तुम्हें कोई संदेह न हो कि वह परमेश्वर है, तो तुम्हारी एकमात्र ज़िम्मेदारी, केवल एक ही चीज़ जो तुम्हें करनी चाहिए, वह है उसे सुनना जो वह कहता है; अभ्यास का मार्ग यही है। परमेश्वर के एक सृजित प्राणी को परमेश्वर के वचनों की जाँच, उनका विश्लेषण, अन्वेषण, नामंजूरी, विरोध, अवज्ञा या उन्हें अस्वीकार नहीं करना चाहिए; परमेश्वर इससे घृणा करता है, और यह वो नहीं है जो वह इंसान में देखना चाहता है। तो आख़िर अभ्यास का मार्ग क्या है? यह वास्तव में बहुत सरल होता है : सुनना, अपने दिल से सुनना, अपने दिल से स्वीकार करना, अपने दिल से समझना और बूझना सीखो, और फिर जाओ और करो, उसे पूरा करो, अपने दिल से उसे कार्यान्वित करो। जो तुम सुनते और दिल में बूझते हो, वह उसके साथ निकटता से जुड़ा होता है जो तुम अमल में लाते हो। इन दोनों को अलग मत करो; तुम जो अमल में लाते हो, तुम जिसका पालन करते हो, जो तुम अपने हाथ से करते हो, हर वो चीज़ जिसके लिए तुम भागते-फिरते हो—वो सब उससे जुड़ा है जिसे तुम सुनते और अपने दिल में बूझते हो, और इसमें तुम सृष्टिकर्ता के वचनों के प्रति अज्ञाकारिता हासिल करोगे। यही अभ्यास का मार्ग है।
— "मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'परिशिष्ट तीन : कैसे नूह और अब्राहम ने परमेश्वर के वचन सुने और उसकी आज्ञा का पालन किया (II)' से उद्धृत
लोग अपना स्वभाव स्वयं परिवर्तित नहीं कर सकते; उन्हें परमेश्वर के वचनों के न्याय, ताड़ना, पीड़ा और शोधन से गुजरना होगा, या उसके वचनों द्वारा निपटाया, अनुशासित किया जाना और काँटा-छाँटा जाना होगा। इन सब के बाद ही वे परमेश्वर के प्रति विश्वसनीयता और आज्ञाकारिता प्राप्त कर सकते हैं और उसके प्रति बेपरवाह होना बंद कर सकते हैं। परमेश्वर के वचनों के शोधन के द्वारा ही मनुष्य के स्वभाव में परिवर्तन आ सकता है। केवल उसके वचनों के संपर्क में आने से, उनके न्याय, अनुशासन और निपटारे से, वे कभी लापरवाह नहीं होंगे, बल्कि शांत और संयमित बनेंगे। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे परमेश्वर के मौजूदा वचनों और उसके कार्यों का पालन करने में सक्षम होते हैं, भले ही यह मनुष्य की धारणाओं से परे हो, वे इन धारणाओं को नज़रअंदाज करके अपनी इच्छा से पालन कर सकते हैं।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिनके स्वभाव परिवर्तित हो चुके हैं, वे वही लोग हैं जो परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर चुके हैं
मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव उसके हर कार्य के पीछे के इरादों के भीतर, उसके हर सोच-विचार के भीतर छुपा होता है; यह हर उस दृष्टिकोण में छिपा होता है जो मनुष्य किसी चीज़ के बारे में रखता है, यह उस हर राय, समझ, दृष्टिकोण और इच्छा के भीतर छिपा होता है जो वह परमेश्वर के हर कार्य के प्रति रखता है। यह इन बातों के भीतर छिपा है। और परमेश्वर क्या करता है? परमेश्वर मनुष्य की इन बातों से कैसे निपटता है? वह तुम्हें उजागर करने के लिए परिवेशों की व्यवस्था करता है। वह न केवल तुम्हें उजागर करेगा, बल्कि तुम्हारा न्याय भी करेगा। जब तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव को प्रकट करते हो, जब तुम्हारे मन में ऐसे विचार और ख़्याल आते हैं जो परमेश्वर की अवहेलना करते हैं, जब तुम्हारी स्थितियां और दृष्टिकोण ऐसे होते हैं जो परमेश्वर से वाद-विवाद करते हैं, जब तुम्हारी ऐसी स्थिति होती है जहां तुम परमेश्वर को गलत समझते हो, या प्रतिरोध और विरोध करते हो, तब परमेश्वर तुम्हें फटकारेगा, तुम्हारा न्याय करेगा और तुम्हें ताड़ना देगा, और वह कभी-कभी तुम्हें दंडित और अनुशासित भी करेगा। तुम्हें अनुशासित करने और फटकारने का क्या उद्देश्य है? इसका उद्देश्य तुम्हें यह समझाना है कि तुम जो सोचते हो, वे मनुष्य की धारणाएँ हैं, और वे गलत हैं; तुम्हारी प्रेरणाएँ शैतान से पैदा होती हैं, वे मनुष्य की इच्छा से उत्पन्न होती हैं, वे परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं, वे परमेश्वर से मेल नहीं खातीं, वे परमेश्वर के इरादे पूरे नहीं कर सकतीं, वे परमेश्वर के लिए घृणित और घृणास्पद हैं, वे उसके क्रोध को भड़काती हैं, यहाँ तक कि उसके शाप को भी जगा देती हैं। इसे समझने के बाद तुम अपनी प्रेरणाएँ बदल सकते हो। और वे कैसे बदली जाती हैं? सबसे पहले, तुम्हें परमेश्वर के तुम्हारे साथ व्यवहार करने के तरीके के प्रति, और उन परिवेशों, लोगों, मामलों और चीजों के प्रति समर्पित होना चाहिए, जिन्हें वह तुम्हारे लिए निर्धारित करता है; छिद्रान्वेषण मत करो, वस्तुपरक बहाने मत बनाओ, और अपनी जिम्मेदारियों से न भागो। दूसरे, उस सत्य की तलाश करो जिसका लोगों को अभ्यास करना चाहिए, और तब प्रवेश करो जब वह अपना कार्य करता है। परमेश्वर चाहता है कि तुम इन चीजों को समझो। वो चाहता है कि तुम अपने भ्रष्ट स्वभावों और शैतानी सार को पहचानो, तुम उन परिवेशों के प्रति आज्ञाकारी होने में सक्षम बनो जिनकी परमेश्वर तुम्हारे लिए व्यवस्था करता है और अंततः, तुम उसका अभ्यास करने में सक्षम बनो जिसकी वह अपनी इच्छा के अनुरूप तुमसे अपेक्षा करता है, और उसके इच्छा पर खरा उतरने में सक्षम बनो। तब तुमने कठिन परीक्षा पार कर ली होगी। जब तुम प्रतिरोध और विरोध करना छोड़ देते हो, तो उसकी जगह तुरंत कौन-सी चीज़ ले लेती है? तब तुम आज्ञा मानने लगते हो और बहस करना बंद कर देते हो। जब परमेश्वर कहता है, "शैतान, मेरे सामने से दूर हो!" तो तुम उत्तर देते हो, "यदि परमेश्वर कहता है मैं शैतान हूँ, मैं शैतान हूँ। हालाँकि मुझे समझ में नहीं आता कि मैंने क्या गलत कर दिया या परमेश्वर क्यों कह रहा है कि मैं शैतान हूँ, लेकिन यदि वह चाहता है कि मैं उससे दूर हो जाऊँ, तो मैं हिचकूँगा नहीं। मुझे परमेश्वर की इच्छा पूरी करनी चाहिए।" परमेश्वर जब कहता है कि तुम्हारे काम की प्रकृति शैतानी है, तो तुम कहते हो, "परमेश्वर जो कुछ भी कहता है, वह मैं जानता हूँ और सब स्वीकारता हूँ।" यह क्या रवैया है? यह आज्ञाकारिता है। क्या यह आज्ञाकारिता है जब परमेश्वर कहता है कि तुम दुष्ट शैतान हो और तुम उसे बेमन से स्वीकार लेते हो, लेकिन तुम स्वीकार नहीं पाते—और आज्ञापालन नहीं कर पाते—जब वह कहता है कि तुम पशु हो? आज्ञाकारिता का अर्थ है पूर्ण अनुपालन, पूर्ण स्वीकृति, बहस न करना और शर्तें न रखना नहीं। इसका अर्थ है कारण और प्रभाव का विश्लेषण न करना, चाहे वस्तुनिष्ठ कारण हों या न हों, और केवल स्वीकृति से अपना सरोकार रखना। इस तरह की आज्ञाकारिता पा लेने पर लोग परमेश्वर में सच्ची आस्था के करीब पहुँच जाते हैं। परमेश्वर जितना अधिक क्रियाशील होता है, तुम्हारी तमाम चेतना पर उतना ही अधिक परमेश्वर का शासन होता है और तब तुम्हें उतना ही अधिक महसूस होगा, "परमेश्वर का हर कार्य नेक होता है, उसका कोई कार्य बुरा नहीं होता। मुझे जो अच्छा लगे केवल वही नहीं चुनना चाहिए, बल्कि आज्ञापालन करना चाहिए। मेरी जो जिम्मेदारी है, जो दायित्व है, जो कर्तव्य है—मुझे उसका पालन करना चाहिए; परमेश्वर का प्राणी होने के नाते मुझे यह करना चाहिए। यदि मैं परमेश्वर का आज्ञापालन भी न कर पाऊँ, तो फिर मैं क्या हूँ? मैं पशु हूँ, मैं शैतान हूँ!" क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि अब तुममें सच्ची आस्था है? एक बार जब तुम इस मुकाम पर आ जाओगे, तो तुममें कोई कलुषता न होगी, फिर परमेश्वर के लिए तुम्हारा उपयोग करना सरल हो जाएगा और तुम्हारे लिए भी परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पण करना आसान हो जाएगा—तब क्या परमेश्वर के लिए तुम्हें आशीष देना आसान नहीं हो जाएगा? इस तरह, आज्ञाकारिता से बहुत-सी शिक्षाएँ ली जा सकती हैं।
— "अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'केवल वास्तव में आज्ञाकारी होना ही एक यथार्थ विश्वास है' से उद्धृत
सृजित प्राणी का अपने सृष्टिकर्ता के प्रति जो एकमात्र दृष्टिकोण होना चाहिए, वह है आज्ञाकारिता, ऐसी आज्ञाकारिता जो बेशर्त हो। यह ऐसी चीज़ है, जिसे आज कुछ लोग स्वीकार करने में असमर्थ हो सकते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि मनुष्य का आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है और उसमें सत्य-वास्तविकता नहीं है। अगर तुम्हारी अवस्था ऐसी ही है तो फिर तुम परमेश्वर का आज्ञापालन कर पाने से बहुत दूर हो। हालाँकि मनुष्य को परमेश्वर के वचन द्वारा पोषण और सिंचन प्रदान किया जाता है, फिर भी मनुष्य वास्तव में एक ही चीज़ की तैयारी कर रहा है। वह अंततः परमेश्वर के प्रति बेशर्त, पूर्ण समर्पण करने में सक्षम होना है, जिस बिंदु पर तुम, एक सृजित प्राणी, आवश्यक मानक तक पहुँच गए होगे। कभी-कभी परमेश्वर जानबूझकर ऐसे कार्य करता है, जो तुम्हारी धारणाओं से मेल नहीं खाते, जो तुम्हारी इच्छा के ख़िलाफ़ जाता है, या जो सिद्धांतों तक के ख़िलाफ़ जाता प्रतीत होता है, या इंसानी भावनाओं, इंसानियत या संवेदनाओं के ख़िलाफ़ जाता है, और जिसे तुम स्वीकार नहीं कर पाते या समझ नहीं पाते। इसे तुम किसी भी तरीके से देखो, यह सही नहीं लगता, तुम इसे बिलकुल स्वीकार नहीं कर पाते, और तुम्हें लगता है कि उसने जो किया है, वह बिलकुल अनुचित है। तो इन कामों को करने में परमेश्वर का क्या उद्देश्य है? यह तुम्हें परखने के लिए है। परमेश्वर जो कुछ करता है, वह कैसे और क्यों करता है, तुम्हें इसकी चर्चा करने की आवश्यकता नहीं है; तुम्हें बस इतना ही करना है कि अपना यह विश्वास बनाए रखो कि वह सत्य है, और यह पहचानो कि वह तुम्हारा सृजनकर्ता है, तुम्हारा परमेश्वर है। यह सारे सत्यों से ऊँचा है, सारे सांसारिक ज्ञान से ऊँचा है, मनुष्य की तथाकथित नैतिकता, नीति, ज्ञान, शिक्षा, दर्शन या पारंपरिक संस्कृति से ऊँचा है, यहाँ तक कि यह लोगों के बीच स्नेह, मैत्री या तथाकथित प्रेम से भी ऊँचा है—यह अन्य किसी भी चीज़ से ऊँचा है। यदि तुम इसे न समझ पाओ, तो देर-सबेर, तुम्हारे साथ कुछ होने पर, अंतत: पश्चात्ताप करने और परमेश्वर की मनोहरता महसूस करने से पहले और परमेश्वर द्वारा तुम पर किए जाने वाले कार्य का अर्थ समझने से पहले, तुम परमेश्वर से विद्रोह करके भटक सकते हो, या इससे भी बदतर, तुम इसके कारण लड़खड़ाकर गिर सकते हो। यह भयावह नहीं होगा कि परमेश्वर ने तुम्हारा न्याय किया, और न ही यह भयावह होगा कि उसने तुम्हें शाप दिया या ताड़ना दी—तो फिर क्या भयावह होगा? भयावह यह होगा अगर वह कहे, "मैं तुम्हारे जैसे किसी व्यक्ति को नहीं बचाऊँगा; मैं हार मानता हूँ!" वैसा होने पर, तुम्हारा काम तो तमाम हो जाएगा। इसलिए, लोगों को यह कहते हुए बाल की खाल नहीं निकालनी चाहिए कि, "ये वचन—न्याय और ताड़ना के—तो ठीक हैं, लेकिन क्या—शाप, विनाश, निंदा—के इन वचनों का मतलब मेरा अंत हो जाना नहीं होगा? उसके बाद मैं किस तरह का सृजित प्राणी बन सकूँगा? ठीक है; छोड़ दो। तुम जाओ और आगे से तुम मेरे परमेश्वर न सही।" यदि तुम गवाही दिए बिना ही परमेश्वर को त्याग देने का फैसला करते हो, तो वह वास्तव में यह तय कर सकता है कि अब उसे तुम्हारी चाह नहीं है। क्या तुम लोगों ने पहले कभी इसके बारे में सोचा है? भले ही लोगों ने परमेश्वर पर कितने ही समय तक विश्वास किया हो, वे कितनी भी दूर तक साथ चले हों, उन्होंने कितना भी काम किया हो और कितने भी कर्तव्य निभाए हों, यह सारा समय उन्हें एक ही चीज़ के लिए तैयार करता रहा है : तुम अंततः परमेश्वर के प्रति बेशर्त और पूर्ण समर्पण करने में सक्षम हो जाओ। तो "बेशर्त" का क्या मतलब है? इसका मतलब है, अपने व्यक्तिगत कारणों को नज़रअंदाज़ करना, अपने व्यक्तिपरक तर्कों को नज़रअंदाज़ करना, और किसी भी चीज़ पर कहा-सुनी नहीं करना : तुम एक सृजित प्राणी हो, और तुम योग्य नहीं हो। जब तुम परमेश्वर से कहा-सुनी करते हो, तो तुम गलत स्थिति में होते हो; जब तुम परमेश्वर के सामने अपने को सही ठहराने का प्रयास करते हो, तो एक बार फिर तुम गलत स्थिति में होते हो; जब तुम परमेश्वर के साथ बहस करते हो, जब तुम यह पता लगाने के लिए कि वास्तव में क्या हो रहा है, कारण जानना चाहते हो, यदि तुम पहले समझे बिना आज्ञापालन नहीं कर सकते, और सब-कुछ स्पष्ट हो जाने के बाद ही समर्पण करोगे, तो तुम एक बार फिर गलत स्थिति में हो। जब तुम जिस स्थिति में हो, वह गलत है, तो क्या परमेश्वर के प्रति तुम्हारी आज्ञाकारिता पूर्ण है? क्या तुम परमेश्वर के साथ वैसा ही व्यवहार कर रहे हो जैसा कि किया जाना चाहिए? क्या तुम पूरी सृष्टि के प्रभु के रूप में उसकी आराधना करते हो? नहीं, तुम वैसा व्यवहार नहीं कर रहे, जिसके कारण परमेश्वर तुम्हें नहीं पहचानता। परमेश्वर के प्रति बेशर्त और पूर्ण समर्पण हासिल करने के लिए कौन-सी चीज़ें तुम्हें सक्षम बना सकती हैं? उसका अनुभव कैसे किया जा सकता है? एक ओर, थोड़े विवेक और सामान्य मानवता की समझ की आवश्यकता है; दूसरी ओर, अपने कर्तव्य पूरे करते हुए तुम्हें सत्य के प्रत्येक पहलू को समझना चाहिए, ताकि तुम परमेश्वर की इच्छा को समझ सको। कभी-कभी मनुष्य की क्षमता कम पड़ जाती है और उसके पास सभी सत्यों को समझने की ताकत या ऊर्जा नहीं होती। लेकिन एक चीज़ है : परिवेश, लोगों, घटनाओं और उन चीज़ों के बावजूद, जो तुम पर आती हैं और जिनकी परमेश्वर ने व्यवस्था की है, तुम्हें हमेशा एक आज्ञाकारी रवैया रखना चाहिए और कारण नहीं पूछना चाहिए। अगर यह रवैया भी तुम्हारी समझ से परे है, और तुम परमेश्वर से सतर्क रहने, उसके बारे में संदेह करने और मन-ही-मन यह सोचने की हद तक भी जा सकते हो कि "मुझे सोचना होगा कि परमेश्वर जो कर रहा है, वह वास्तव में धार्मिक है या नहीं? वे कहते हैं कि परमेश्वर प्रेम है, तो चलो देखते हैं कि वह जो मेरे साथ कर रहा है, उसमें प्रेम है या नहीं, और क्या यह वास्तव में प्रेम ही है?" यदि तुम हमेशा इस बात की जाँच करते हो कि परमेश्वर जो कर रहा है, वह तुम्हारी धारणाओं के अनुरूप है या नहीं, यह देखते हो कि परमेश्वर वही कर रहा है या नहीं जो तुम्हें पसंद है, यहाँ तक कि वह उसका अनुपालन करता है या नहीं जिसे तुम सत्य मानते हो, तो तुम्हारी स्थिति गलत है, इससे तुम्हें परेशानी होगी और इसकी संभावना होगी कि तुम परमेश्वर के स्वभाव का अपमान कर बैठो।
— "मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे दूसरों से केवल अपना आज्ञापालन करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर का नहीं (II)' से उद्धृत
समर्पण की प्रवृत्ति का व्यावहारिक पक्ष क्या है? यह है : तुम्हें परमेश्वर के वचनों को स्वीकारने के लिए अपने आपको तैयार करना चाहिए। जब तुम्हारा जीवन-प्रवेश उथला हो, तुमने अभी तक आध्यात्मिक कद हासिल न कर लिया हो और सत्य-वास्तविकता का तुम्हारा ज्ञान अभी भी पर्याप्त गहरा न हो, लेकिन ऐसी परिस्थितियों में भी, तुम परमेश्वर का अनुसरण कर पाओ और उसे समर्पित हो पाओ—यही वह प्रवृत्ति है। इससे पहले कि तुम पूर्ण समर्पण कर सको, तुम्हें सबसे पहले समर्पण की प्रवृत्ति अपनानी चाहिए, जो इस बात को स्वीकारने की प्रवृत्ति है कि परमेश्वर के वचन सही हैं, परमेश्वर के वचन सत्य हैं, अभ्यास के सिद्धांत हैं और सिद्धांतों पर तुम्हारी अच्छी पकड़ न होने के बावजूद, तुम उन्हें नियमों के तौर पर कायम रख सको। यह एक तरह की प्रवृत्ति है। क्योंकि, अभी तक तुम्हारा स्वभाव बदला नहीं है, तुम्हारा इसे प्राप्त कर पाने योग्य होना और ऐसा प्रतीत होना कि परमेश्वर की ऐसी प्रवृत्ति और ऐसी मानसिकता है और यह कहना, "मैं परवाह नहीं करता कि परमेश्वर क्या करता है और मैं बहुत से सत्य नहीं समझता। मुझे केवल इतना पता है कि परमेश्वर मुझे जो कुछ भी करने के लिए कहता है, मैं करता हूं। मेरे पास ऐसी कोई तरकीब नहीं है, जो मुझे परमेश्वर की बात की जाँच-पड़ताल करने में मदद करे और यह मेरा कार्य नहीं है"—यह एक प्रकार की आज्ञाकारी मानसिकता है। ऐसे भी लोग हैं जो कहते हैं, "ऐसा नहीं चलेगा। अगर वह गलत हुआ तो?" क्या परमेश्वर गलत हो सकता है? तुम कहते हो, "परमेश्वर जो करता है वह सही हो या गलत, उसके लिए मैं जिम्मेदार नहीं हूँ। मैं सिर्फ परमेश्वर की सुनता हूँ,उसके प्रति समर्पित होता हूँ, उसे स्वीकार करता हूँ और उसकी इच्छा पर चलता हूँ। एक सृजित प्राणी को यही करना चाहिए।" इंसान को इसी मानसिकता के साथ समर्पण करना चाहिए, ऐसी मानसिकता वाले लोग ही सत्य हासिल कर सकते हैं। यदि तुम्हारी मानसिकता ऐसी नहीं है, लेकिन तुम कहते हो, "मुझे कोई धोखा नहीं दे सकता। मुझे कोई बेवकूफ नहीं बना सकता। मैं इतना चालाक हूँ कि उन वचनों से धोखा खाकर किसी के भी आगे समर्पण नहीं कर सकता; यह चाल काम नहीं आएगी। जो भी चीज मेरे रास्ते में आएगी, मैं उस पर गौर करके उसका विश्लेषण करूँगा। जब मैं स्वयं किसी चीज को स्वीकार कर लूँगा और उसे समझ लूँगा, तभी मैं समर्पण करूँगा"—क्या यह समर्पण की प्रवृत्ति है? यह समर्पण की प्रवृत्ति नहीं है; इसमें आज्ञाकारी मानसिकता की कमी है, जिसमें उस इंसान के दिल में समर्पण का कोई इरादा नहीं है। "मुझे परमेश्वर को जाँचना होगा। मैं तो राजाओं और रानियों के साथ भी ऐसे ही पेश आता हूँ। तुम जो कह रहे हो वह निरर्थक है। यह सच है कि मैं एक सृजित प्राणी हूँ, लेकिन मैं कोई पुतला नहीं हूँ-इसलिए मुझसे वैसा व्यवहार मत करो।" उनकी कहानी खत्म; उनके पास सत्य को स्वीकारने की परिस्थितियों का अभाव है। ऐसे लोगों में समझदारी नहीं होती। ऐसे लोग जानवर होते हैं! ऐसी समझदारी के बिना कोई व्यक्ति समर्पण नहीं कर सकता। समर्पण करने के लिए, सबसे पहले आज्ञाकारी मानसिकता होनी चाहिए।
— "अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपनी धारणाओं का समाधान करके ही कोई परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग में प्रवेश कर सकता है (3)' से उद्धृत
तुम चाहे जो करो, लेकिन उसमें सत्य तलाशने और सत्य का पालन करने का प्रयास करो। यदि तुम सत्य के अनुसार कार्य कर रहे हो, तो तुम्हारी कार्यशैली सही है। अगर किसी बच्चे ने कोई बात कही है या किसी बेहद सीधे-सादे भाई-बहन ने भी कोई विचार रखा है और वह सत्य के अनुरूप है, तो तुम जो कुछ करोगे, उसका परिणाम अच्छा ही होगा और वह परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप भी होगा। किसी मामले का संचालन तुम्हारे सहज आवेग और उसके संचालन के तुम्हारे सिद्धांतों पर आधारित होता है। अगर तुम्हारे सिद्धांत इंसानी इच्छा से पैदा हुए हैं, यदि वे मानवीय विचारों, धारणाओं और कल्पनाओं से उत्पन्न हुए हैं; या फिर वे मानवीय भावनाओं और दृष्टिकोण से जन्मे हैं, तो तुम्हारा मामले का संचालन गलत होगा, क्योंकि उसका स्रोत ही गलत होगा। जब तुम्हारे विचार सत्य के सिद्धांतों पर आधारित होते हैं और जब तुम मामलों का संचालन सत्य-सिद्धांतों के अनुसार करते हो, तो फिर जो मामला तुम्हारे हाथ में है, तुम उसका संचालन यकीनन सही ढंग से करोगे। कभी-कभी लोग तुम्हारे द्वारा संचालित मामले को उस समय स्वीकार नहीं कर पाएँगे और उस समय ऐसा लग सकता है कि उनकी अपनी धारणाएँ हैं या उनका दिल बेचैन हो जाएगा। हालाँकि कुछ समय के बाद तुम सही साबित होगे। जो मामले परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होते हैं, वे कालांतर में सही लगते हैं; लेकिन जो मामले परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप नहीं होते—जो मामले मानवीय इच्छा के अनुरूप होते हैं और मानव-निर्मित होते हैं—वे कालांतर में खराब ही सिद्ध होते हैं। जब तुम कुछ करते हो, तो उस समय तुम्हें इस बात से कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए कि तुम्हारा मार्गदर्शन किस तरीके से होना चाहिए या किस तरीके से नहीं होना चाहिए और पूर्वानुमान न लगाओ। पहली बात तो यह है कि तुम्हें खोज और प्रार्थना करनी चाहिए, तब तुम्हें आगे के मार्ग पर चलना चाहिए और सबके साथ संगति करनी चाहिए। संगति का प्रयोजन क्या है? इससे तुम ठीक परमेश्वर की इच्छा के अनुसार कार्य और उसकी इच्छा के अनुरूप बर्ताव कर पाओगे। यह बात को कहने का थोड़ा भव्य अंदाज़ है; चलो इसे इस ढंग से कहते हैं कि इससे इंसान मामलों का संचालन ठीक सत्य-सिद्धांतों के अनुसार कर पाता है—यह तरीका थोड़ा ज़्यादा व्यावहारिक है। यदि तुम ऐसा कर पाओ, तो इतना पर्याप्त है।
— "अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'भ्रष्ट स्वभाव को दूर करने का मार्ग' से उद्धृत
जीवन की वास्तविक समस्याओं का सामना करते समय, तुम्हें किस प्रकार परमेश्वर के अधिकार और उसकी संप्रभुता को जानना और समझना चाहिए? जब तुम्हारे सामने ये समस्याएँ आती हैं और तुम्हें पता नहीं होता कि किस प्रकार इन समस्याओं को समझें, सँभालें और अनुभव करें, तो तुम्हें समर्पण करने की नीयत, समर्पण करने की तुम्हारी इच्छा, और परमेश्वर की संप्रभुता और उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने की तुम्हारी सच्चाई को दर्शाने के लिए तुम्हें किस प्रकार का दृष्टिकोण अपनाना चाहिए? पहले तुम्हें प्रतीक्षा करना सीखना होगा; फिर तुम्हें खोजना सीखना होगा; फिर तुम्हें समर्पण करना सीखना होगा। "प्रतीक्षा" का अर्थ है परमेश्वर के समय की प्रतीक्षा करना, उन लोगों, घटनाओं एवं चीज़ों की प्रतीक्षा करना जो उसने तुम्हारे लिए व्यवस्थित की हैं, और उसकी इच्छा स्वयं को धीरे-धीरे तुम्हारे सामने प्रकट करे, इसकी प्रतीक्षा करना। "खोजने" का अर्थ है परमेश्वर द्वारा निर्धारित लोगों, घटनाओं और चीज़ों के माध्यम से, तुम्हारे लिए परमेश्वर के जो विचारशील इरादें हैं उनका अवलोकन करना और उन्हें समझना, उनके माध्यम से सत्य को समझना, जो मनुष्यों को अवश्य पूरा करना चाहिए, उसे समझना और उन सच्चे मार्गों को समझना जिनका उन्हें पालन अवश्य करना चाहिए, यह समझना कि परमेश्वर मनुष्यों में किन परिणामों को प्राप्त करने का अभिप्राय रखता है और उनमें किन उपलब्धियों को पाना चाहता है। निस्सन्देह, "समर्पण करने", का अर्थ उन लोगों, घटनाओं, और चीज़ों को स्वीकार करना है जो परमेश्वर ने आयोजित की हैं, उसकी संप्रभुता को स्वीकार करना और उसके माध्यम से यह जान लेना है कि किस प्रकार सृजनकर्ता मनुष्य के भाग्य पर नियंत्रण करता है, वह किस प्रकार अपना जीवन मनुष्य को प्रदान करता है, वह किस प्रकार मनुष्यों के भीतर सत्य गढ़ता है। परमेश्वर की व्यवस्थाओं और संप्रभुता के अधीन सभी चीज़ें प्राकृतिक नियमों का पालन करती हैं, और यदि तुम परमेश्वर को अपने लिए सभी चीज़ों की व्यवस्था करने और उन पर नियंत्रण करने देने का संकल्प करते हो, तो तुम्हें प्रतीक्षा करना सीखना चाहिए, तुम्हें खोज करना सीखना चाहिए, और तुम्हें समर्पण करना सीखना चाहिए। हर उस व्यक्ति को जो परमेश्वर में अधिकार के प्रति समर्पण करना चाहता है, यह दृष्टिकोण अवश्य अपनाना चाहिए, और हर वह व्यक्ति जो परमेश्वर की संप्रभुता और उसकी व्यवस्थाओं को स्वीकार करना चाहता है, उसे यह मूलभूत गुण अवश्य रखना चाहिए। इस प्रकार का दृष्टिकोण रखने के लिए, इस प्रकार की योग्यता धारण करने के लिए, तुम लोगों को और अधिक कठिन परिश्रम करना होगा; और सच्ची वास्तविकता में प्रवेश करने का तुम्हारे लिए यही एकमात्र तरीका है।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III
सृष्टि के प्रभु का सृजित प्राणियों के साथ व्यवहार करने का एक बुनियादी सिद्धांत है, जो सर्वोच्च सिद्धांत है। वह सृजित प्राणियों के साथ कैसा व्यवहार करता है, यह पूरी तरह से उसकी प्रबंधन योजना और उसकी अपेक्षाओं पर आधारित है; उसे किसी व्यक्ति से सलाह लेने की जरूरत नहीं है, न ही उसे इसकी आवश्यकता है कि कोई व्यक्ति उससे सहमत हो। जो कुछ भी उसे करना चाहिए और जिस भी तरह से उसे लोगों से व्यवहार करना चाहिए, वह करता है, और भले ही वह कुछ भी करता हो और जिस भी तरह से लोगों से व्यवहार करता हो, वह सब उन सिद्धांतों के अनुरूप होता है, जिनके द्वारा सृष्टि का प्रभु कार्य करता है। एक सृजित प्राणी के रूप में करने लायक केवल एक ही चीज़ है और वह है समर्पण करना; इसका कोई और विकल्प नहीं होना चाहिए। यह क्या दर्शाता है? यह दर्शाता है कि सृष्टि का प्रभु हमेशा सृष्टि का प्रभु ही रहेगा; उसके पास किसी भी सृजित प्राणी पर जैसे चाहे वैसे आयोजन और शासन करने की शक्ति और योग्यता है, और ऐसा करने के लिए उसे किसी कारण की आवश्यकता नहीं है। यह उसका अधिकार है। सृजित प्राणियों में से किसी एक में भी, जिस सीमा तक वे सृजित प्राणी हैं, इस बात पर निर्णय देने की शक्ति या योग्यता नहीं है कि सृष्टिकर्ता को कैसे कार्य करना चाहिए या वह जो करता है, वह सही है या गलत है, न ही कोई सृजित प्राणी यह चुनने के योग्य है कि सृष्टि का प्रभु उन पर शासन, आयोजन या उनका निपटान करे या नहीं। इसी तरह, एक भी सृजित प्राणी में यह चुनने की योग्यता नहीं है कि सृष्टि के प्रभु द्वारा उनका शासन या निपटान किस तरह से हो। यह सर्वोच्च सत्य है। सृष्टि के प्रभु ने चाहे सृजित प्राणियों के साथ कुछ भी किया हो या कैसे भी किया हो, उसके द्वारा सृजित मनुष्यों को केवल एक ही काम करना चाहिए : सृष्टि के प्रभु द्वारा प्रस्तुत इस तथ्य को खोजना, इसके प्रति समर्पित होना, इसे जानना और स्वीकार करना। इसका अंतिम परिणाम यह होगा कि सृष्टि के प्रभु ने अपनी प्रबंधन योजना और अपना काम पूरा कर लिया होगा, जिससे उसकी प्रबंधन योजना बिना किसी अवरोध के आगे बढ़ेगी; इस बीच, चूँकि सृजित प्राणियों ने सृष्टिकर्ता का नियम और उसकी व्यवस्थाएँ स्वीकार कर ली हैं, और वे उसके शासन और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो गए हैं, इसलिए उन्होंने सत्य प्राप्त कर लिया होगा, सृष्टिकर्ता की इच्छा को समझ लिया होगा, और उसके स्वभाव को जान लिया होगा। एक और सिद्धांत है, जो मुझे तुम्हें बताना चाहिए : सृष्टिकर्ता चाहे जो भी करे, जिस भी तरह से अभिव्यक्त करे, उसका कार्य बड़ा हो या छोटा, वह फिर भी सृष्टिकर्ता ही है; जबकि समस्त मनुष्य, जिन्हें उसने सृजित किया, चाहे उन्होंने कुछ भी किया हो, या वे कितने भी प्रतिभाशाली और अभीष्ट क्यों न हों, वे सृजित प्राणी ही रहते हैं। जहाँ तक सृजित मनुष्यों का सवाल है, चाहे जितना भी अनुग्रह और जितने भी आशीष उन्होंने सृष्टिकर्ता से प्राप्त कर लिए हों, या जितनी भी दया, प्रेमपूर्ण करुणा और उदारता प्राप्त कर ली हो, उन्हें खुद को भीड़ से अलग नहीं मानना चाहिए, या यह नहीं सोचना चाहिए कि वे परमेश्वर के बराबर हो सकते हैं और सृजित प्राणियों में ऊँचा दर्जा प्राप्त कर चुके हैं। परमेश्वर ने तुम्हें चाहे जितने उपहार दिए हों, या जितना भी अनुग्रह प्रदान किया हो, या जितनी भी दयालुता से उसने तुम्हारे साथ व्यवहार किया हो, या चाहे उसने तुम्हें कोई विशेष प्रतिभा दी हो, इनमें से कुछ भी तुम्हारी संपत्ति नहीं है। तुम एक सृजित प्राणी हो, और इस तरह तुम सदा एक सृजित प्राणी ही रहोगे। तुम्हें कभी नहीं सोचना चाहिए, "मैं परमेश्वर के हाथों में उसका लाड़ला हूँ। वह मुझ पर हाथ नहीं उठाएगा। परमेश्वर का रवैया मेरे प्रति हमेशा प्रेम, देखभाल और नाज़ुक दुलार के साथ-साथ सुकून के गर्मजोशी भरे बोलों और प्रोत्साहन का होगा।" इसके विपरीत, सृष्टिकर्ता की दृष्टि में तुम अन्य सभी सृजित प्राणियों की ही तरह हो; परमेश्वर तुम्हें जिस तरह चाहे, उस तरह इस्तेमाल कर सकता है, और साथ ही तुम्हारे लिए जैसा चाहे, वैसा आयोजन कर सकता है, और तुम्हारे लिए सभी तरह के लोगों, घटनाओं और चीज़ों के बीच जैसी चाहे वैसी प्रत्येक भूमिका निभाने की व्यवस्था कर सकता है। लोगों को यह ज्ञान होना चाहिए और उनमें यह अच्छी समझ होनी चाहिए। अगर व्यक्ति इन वचनों को समझ और स्वीकार सके, तो परमेश्वर के साथ उसका संबंध अधिक सामान्य हो जाएगा, और वह उसके साथ एक सबसे ज़्यादा वैध संबंध स्थापित कर लेगा; अगर व्यक्ति इन वचनों को समझ और स्वीकार सके, तो वह अपने स्थान को सही ढंग से उन्मुख कर पाएगा, वहाँ अपना आसन ग्रहण कर पाएगा और अपना कर्तव्य निभा पाएगा।
— "अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'केवल सत्य की खोज करके ही व्यक्ति परमेश्वर के कर्मों को जान सकता है' से उद्धृत
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